Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 41 to 45
॥ श्रीहरिः ॥
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 41 to 45 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 41 से 45 तक
श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand Chapter 41 to 45) के इकतालीसवाँ अध्याय में शकुनि का घोर युद्ध, सात बार मारे जानेपर भी उसका भूमि के स्पर्श से पुनः जी उठना; अन्तमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युक्ति पूर्वक उसका वध का वर्णन है। बयालीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण का यादवों के साथ चन्द्रावतीपुरी में जाकर शकुनि पुत्र को वहाँका राज्य देना तथा शकुनि आदिके पूर्व जन्मोंका परिचय दिया है। तैंतालीसवाँ अध्याय में इलावृत वर्ष में राजा शोभन से भेंटकी प्राप्तिः स्वायम्भुव मनुकी तपोभूमिमें मूर्तिमती सिद्धियोंका निवास; लीलावती पुरी में अग्निदेव से उपायन की उपलब्धि; वेदनगर में मूर्तिमान् वेद, राग, ताल, स्वर, ग्राम और नृत्यके भेदोंका वर्णन है। चौवालीसवाँ अध्याय में रागिनियों तथा रागपुत्रों के नाम और वेद आदिके द्वारा भगवान का स्तवन कहा गया है। पैंतालीसवाँ अध्याय में रागिनियों तथा राग-पुत्रों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का स्तवन और उनका द्वारकापुरी के लिये प्रस्थान किया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
इकतालीसवाँ अध्याय
शकुनिका घोर युद्ध, सात बार मारे जानेपर भी उसका भूमिके स्पर्शसे पुनः जी
उठना; अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णद्वारा युक्तिपूर्वक उसका वध
नारदजी कहते हैं- राजन् ! शेष दैत्योंको लेकर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण किये बलवान् वीर शकुनि, दिव्य मनोहर अश्व उच्चैःश्रवापर आरूढ़ हो, क्रोधसे अचेत-सा होकर, धनुषकी टंकार करता हुआ भगवान् श्रीकृष्णके भी सम्मुख युद्ध करनेके लिये आ गया ॥ १-२ ॥
रणदुर्मद दैत्य शकुनि तथा उसकी सेनाका पुनः आगमन देख समस्त वृष्णिवंशियोंने अपने-अपने आयुध उठा लिये। उस समय दैत्योंका यादवोंके साथ घोर युद्ध हुआ। वीरोंके साथ वीर इस तरह जूझने लगे, जैसे सिंहोंके साथ सिंह लड़ रहे हों। राजन्! मेघकी गर्जनाके समान बारंबार कोदण्डकी टंकार करता हुआ शकुनि सबके आगे था। उसने नाराचोंद्वारा दुर्दिन उपस्थित कर दिया। बाणोंका अन्धकार छा जानेपर शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् गरुडध्वज अपने उस धनुषसे उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे इन्द्रधनुषसे मेघकी शोभा होती है। साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने अपने एक ही बाणसे लीलापूर्वक असुर शकुनिके बाण-समूहोंको काट डाला ॥ ३-७॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
मिथिलेश्वर ! युद्धमें अपने कोदण्डको कानतक खींचकर शकुनिने भगवान् श्रीकृष्णके हृदयमें दस बाण मारे। तब प्रलय-समुद्रके महान् आवर्तोंके भीषण संघर्षके समान गम्भीर नाद करनेवाली शकुनिके धनुषकी प्रत्यञ्चाको श्रीकृष्णने दस बाणोंसे काट डाला। नरेश्वर । मायावी दैत्य शकुनि सबके देखते- देखते सौ रूप धारण करके श्रीहरिके साथ युद्ध करने लगा। तब साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण एक सहस्र रूप धारण करके उस दैत्यके साथ युद्ध करने लगे, वह अद्भुत-सी बात हुई। बलवान् दैत्यराज शकुनिने मयासुरके बनाये हुए अग्नितुल्य तेजस्वी त्रिशूलको घुमाकर उसे श्रीहरिके ऊपर चला दिया। तब कुपित हुए परिपूर्णतम महाबाहु श्रीहरिने उस त्रिशूलको वैसे ही काट दिया, जैसे तीखी चोंचवाला गरुड किसी सर्पको टूक-टूक कर डाले ॥ ८-१३॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
तदनन्तर क्रोधसे भरे हुए महाबाहु श्रीहरिने शकुनि- के मस्तकपर अपनी गदा चलायी तथा उस वज्रतुल्य गदाकी चोटसे उस दैत्यको घोड़ेसे नीचे गिरा दिया। गदाकी चोटसे पीड़ित हुआ दैत्य क्षणभरके लिये मूच्छित हो गया। फिर युद्धस्थलमें अपनी गदा लेकर वह माधवके साथ युद्ध करने लगा ॥ १४-१५ ॥
उस समय रणमण्डलमें गदाओंद्वारा उन दोनोंके बीच घोर युद्ध हुआ। गदाओंके टकरानेका चट-चट शब्द वज्रके टकरानेकी भाँति सुनायी पड़ता था। श्रीकृष्णकी गदासे चूर-चूर होकर शकुनिकी गदा पृथ्वीपर गिर पड़ी। वह युद्धमें सबके देखते-देखते अङ्गारकी भाँति दहकने लगी। जैसे पर्वतकी कन्दरामें दो सिंह लड़ते हों, जैसे वनमें दो मतवाले हाथी जूझते हों, उसी प्रकार समराङ्गणमें वे दोनों श्रीकृष्ण और शकुनि परस्पर युद्ध करने लगे। शकुनिने श्रीकृष्णको सौ योजन पीछे कर दिया और श्रीकृष्णने उसे भूतलपर सहस्त्र योजन पीछे ढकेल दिया। तब त्रिभुवननाथ श्रीहरिने उसे दोनों भुजाओंमें पकड़कर जाँघोंके धक्केसे जमीनपर वैसे ही पटक दिया, जैसे किसी बालकने कमण्डलु फेंक दिया हो। इससे उस दैत्यको कुछ व्यथा हुई। फिर उस युद्धदुर्मद दुराचारी शकुनिने जारुधि पर्वतको पकड़कर उसे श्रीकृष्णपर चला दिया। पर्वतको अपने ऊपर आता देख कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने पुनः उसे उसीकी ओर लौटा दिया। इस प्रकार जयशब्दका उच्चारण करते हुए वे दोनों एक-दूसरेपर उसी पर्वतके द्वारा प्रहार करते रहे। राजन् ! उस पर्वतके आघातसे उन दोनोंने चन्द्रावती- पुरीको भी चूर्ण कर दिया ॥१६-२२॥
उस समय दैत्य शकुनिने अत्यन्त कुपित हो ढाल-तलवार उठा ली और महात्मा श्रीकृष्णके सामने वह युद्धके लिये आ गया। तब भगवान् शार्ङ्गधरने अपना शार्ङ्गधनुष लेकर उसके ऊपर सहसा अर्धचन्द्र मुख बाणका संधान किया, जो युद्धस्थलमें ग्रीष्मऋतुके सूर्यके समान उद्भासित हो उठा। शार्ङ्गधनुषसे छूटा हुआ वह दिव्य बाण दिङ्मण्डलको विद्योतित करता हुआ शकुनिका मस्तक काटकर भूमिका भेदन करके तललोकमें चला गया। उस समय दैत्य शकुनि प्राण शून्य होकर युद्धस्थलमें गिर पड़ा। मिथिलेश्वर ! भूमिका स्पर्श होते ही वह क्षणभरमें पुनः जीवित हो उठा। अपने कटे हुए मस्तकको अपने ही हाथसे धड़पर रखकर वह युद्ध करनेके लिये पुनः उठ खड़ा हुआ, वह अद्भुत-सी घटना हुई ॥ २३-२७॥
इस प्रकार श्रीकृष्णके हाथसे सात बार मारे जाने- पर भी वह महान् असुर भूमिके स्पर्शसे जी उठा तथा राहुकी भाँति फिर उठ खड़ा हुआ। अब वह अकेले ही यादव-कुलका संहार करनेके लिये उद्यत हुआ। वनमें दावानलकी भाँति उस शक्तिशाली महादैत्यने तत्काल यादव-सेनामें प्रवेश किया। उसने घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रोंसहित महावीर घुड़सवारोंको तथा मदमत्त हाथियोंको भुजाओंसे पकड़कर आकाशमें लाख योजन दूर फेंक दिया। किन्हीं हाथियोंका मुँह, किन्हींके दोनों कंधे तथा किन्हींके दोनों कक्ष पकड़कर फेंकता हुआ वह दैत्य कालाग्नि रुद्रके समान जान पड़ता था ॥ २८-३१॥
उस दैत्यके दोनों पैरों और हाथोंने उस महासमर में जब भारी आतङ्क उत्पन्न कर दिया और महात्मा श्रीकृष्णकी सेनामें जोरसे हाहाकार होने लगा, तब विश्वरक्षक साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने साधुपुरुषोंकी रक्षाके लिये अपने अस्त्र सुदर्शनचक्रका प्रयोग किया। उनके हाथसे छूटा हुआ तीखा सुदर्शनचक्र प्रलय- कालके कोटि सूर्योकी दीप्तिमती प्रभासे प्रज्वलित हो उठा। उसने उस महायुद्धमें शकुनिके सुदृढ़ मस्तकको उसी तरह काट लिया, जैसे वज्रने वृत्रासुरका मस्तक काटा था। तबतक भगवान् श्रीकृष्णने महासमरमें मरे हुए शकुनिको बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। फिर श्रीपतिने यादवोंसे कहा- ‘तुमलोग इसके शरीरको बाणोंसे ऊपर-ही-ऊपर फेंकते रहो ॥ ३२-३५ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीहरिकी ऐसी बात सुनकर समस्त यादवश्रेष्ठ वीर आकाशसे गिरते हुए उस दैत्यको चमकीले बाणोंसे ताड़ित करने लगे। राजन् ! दीप्तिमान् के बाणोंसे आहत हो वह दैत्य लोगोंके देखते-देखते गेंदकी भाँति सौ योजन ऊपर चला गया। फिर साम्बके बाणका धक्का पाकर वह एक सहस्र योजन ऊपर चला गया। जब वह पुनः आकाशसे नीचे गिरने लगा, तब अर्जुनने अपने बाणसे उसपर चोट की। उस बाणसे वह दैत्यराज दस हजार योजन ऊपर चला गया। तदनन्तर जब वह नीचे आने लगा, तब अनिरुद्धके बाणने उसे लाख योजन ऊपर उछाल दिया। इसके बाद प्रद्युम्नके बाणसे वह दस लाख योजन ऊपर उठ गया। तत्पश्चात् उसे पुनः आकाशसे नीचे गिरते देख योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने उसपर बाण मारा, जिससे वह कोटि योजन ऊपर चला गया। इस प्रकार दो पहरतक वह दैत्य आकाशमें ही स्थित रह गया, उसे नीचे नहीं गिरने दिया ॥ ३६-४१ ॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
तदनन्तर साक्षात् श्रीहरिने उसके ऊपर दूसरा बाण मारा। उस बाणने सम्पूर्ण दिशाओंमें उसको कोटि योजनतक घुमाकर समुद्रमें वैसे ही ला पटका, जैसे हवाने कमलके फूलको उड़ाकर नीचे डाल दिया हो। राजन् ! इस प्रकार जब उस दैत्यकी मृत्यु हो गयी, तब उसके शरीरसे एक प्रकाशमान ज्योति निकली और वह चारों ओरसे परिक्रमा देकर भगवान् श्रीकृष्णमें विलीन हो गयी। उस समय भूतल और आकाशमें जय-जयकार होने लगी। विद्याधरियाँ और गन्धर्वकन्याएँ आनन्दमग्न हो आकाशमें नृत्य करने लगीं, किंनर और गन्धर्व यश गाने लगे तथा सिद्ध और चारण स्तुति सुनाने लगे। समस्त ऋषियों और मुनियोंने श्रीहरिकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र और सूर्य आदि सब देवता वहाँ आ गये और श्रीकृष्णके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ४२-४७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘शकुनि दैत्यका वध’ नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४१ ॥
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बयालीसवाँ अध्याय
श्रीकृष्णका यादवोंके साथ चन्द्रावतीपुरीमें जाकर शकुनि-पुत्रको वहाँका
राज्य देना तथा शकुनि आदिके पूर्व जन्मोंका परिचय
नारदजी कहते हैं- राजन् ! बचे हुए दैत्य रणभूमिसे भाग गये। यादवेन्द्र भगवान् श्रीहरि वीणा, वेणु, मृदङ्ग और दुन्दुभि आदि बाजे बजवाते और सूत, मागध एवं वन्दीजनोंके मुखसे अपने यशका गान सुनते हुए, पुत्रों तथा अन्य यादवोंके साथ सेनासे धिरकर शङ्ख, चक्र, गदा, कमल और शार्ङ्गधनुषसे सुशोभित हो, देवताओंसहित चन्द्रावतीपुरीमें गये। वहाँ अपने पतिके मारे जानेके कारण रानी मदालसा शकुनिके पुत्रको गोदमें लिये दुःखसे आतुर हो अत्यन्त करुणाजनक विलाप कर रही थी। उसके मुखपर अश्रुधारा बह रही थी और वह अत्यन्त दीन हो गयी थी। उसने तुरंत ही हाथ जोड़कर अपने बच्चेको श्रीकृष्णके चरणोंमें डाल दिया और भगवान् को नमस्कार करके कहा ॥ १-५॥
मदालसा बोली- प्रभो! आदिदेव! आप भूतलका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। आप ही संसारके स्रष्टा हैं और प्रलयकाल आनेपर आप ही इसका संहार करेंगे; किंतु कभी आप गुणोंसे लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करनेके लिये आपके चरणोंमें प्रणाम करती हूँ। मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिये। देव! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिये। देवेश । जगन्निवास ! मेरे पतिने आपका जो अपराध किया है, उसे क्षमा कीजिये ॥ ६-७ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! मदालसाके यों कहनेपर महामति भगवान् श्रीकृष्णने उस बालकके मस्तकपर अपने दोनों हाथ रखकर चन्द्रावतीका सारा राज्य उसे दे दिया। फिर कल्पपर्यन्तकी लंबी आयु देकर वैराग्यपूर्ण ज्ञान एवं अपनी भक्ति प्रदान की। तदनन्तर उस शकुनिकुमारको श्रीकृष्णने अपने गलेकी सुन्दर माला उतारकर दे दी। शकुनिने पहले युद्धमें इन्द्रसे जो उच्चैःश्रवा घोड़ा, चिन्तामणि रत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष छीन लिये थे, वे सब श्रीजनार्दनने प्रयत्नपूर्वक देवेन्द्रको लौटा दिये; क्योंकि भगवान् स्वयं ही गौओं, ब्राह्मणों, देवताओं, साधुओं तथा वेदोंके प्रतिपालक हैं॥ ८-११॥
बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे! पूर्वकालमें ये महाबली शकुनि आदि दैत्य कौन थे और कैसे इन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई? इस बातको लेकर मेरे मनमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है॥ १२ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! पूर्वकालके ब्रह्मकल्पकी बात है, परावसु गन्धर्वोका राजा था। उसके बड़े सुन्दर नौ औरस पुत्र हुए। वे सभी कामदेवके समान रूप-सौन्दर्यशाली, दिव्य भूषणोंसे विभूषित और गीत-वाद्य-विशारद थे तथा प्रतिदिन ब्रह्मलोकमें गान किया करते थे। उनके नाम थे- मन्दार, मन्दर, मन्द, मन्दहास, महावल, सुदेव, सुघन, सौध और श्रीभानु। एक समय ब्रह्माजीने अपनी पुत्री वाग्देवता सरस्वतीको मोहपूर्वक देखा। विधाताके इस व्यवहार- को लक्ष्य करके परावसुके पुत्र मन-ही-मन हँसने लगे। सुरश्रेष्ठ ब्रह्माके प्रति अपराध करनेके कारण उन्हें तामसी योनिमें जाना पड़ा। श्वेतवाराहकल्प आनेपर वे नवों गन्धर्व हिरण्याक्षकी पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुए। उस समय उनके नाम इस प्रकार हुए- शकुनि, शम्बर, हृष्ट, भूत-संतापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु तथा उत्कच। एक दिनकी बात है, अपने घरपर आये हुए अपान्तरतमा मुनिको नमस्कार करके उनकी विधिवत् पूजा करनेके पश्चात् उन सबने आदरपूर्वक इस प्रकार पूछा ॥१३-१९॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
दैत्य बोले- ब्रह्मन् ! सुनिये। आप अपने मुँहसे कहते हैं कि कैवल्यके स्वामी साक्षात् भगवान् श्रीहरि हैं, वे भक्तवत्सल भगवान् भक्तोंको मोक्ष प्रदान करते हैं; परंतु हमलोग आसुरी-योनिमें पड़कर सदा कुसङ्गमें तत्पर रहनेवाले और दुष्ट हैं, हमने कभी भगवान् की भक्ति नहीं की। अतः इस जन्ममें हमारा मोक्ष कैसे होगा। ब्रह्मन् ! हमें परम कल्याणका उपाय बताइये; क्योंकि प्रभो! आप दीनजनोंके कल्याणके लिये ही जगत्में विचरते रहते हैं॥ २०-२२॥
अपान्तरतमाने कहा- दैत्यकुमारो ! गुण पृथक् पृथक् नहीं रहते, वे सब मिले-जुले होते हैं। अथवा जिसके जो गुण हैं, वे उससे विलग नहीं होते। अतः उन्हीं गुणोंके द्वारा जो गुणातीत मोक्षाधीश्वर परमात्मा श्रीहरिका भजन करते रहे हैं, वे दैत्य उन परमात्माको प्राप्त हो चुके हैं। ऐक्यसम्बन्ध, सौहार्द, स्नेह, भय, क्रोध तथा स्मय (अभिमान)- इन भावों या गुणोंको सदा श्रीकृष्णके प्रति प्रयुक्त करके वे दैत्यगण उन्होंमें लीन हो गये। उदाहरणतः भगवान् पृश्निगर्भके साथ एकता (एक कुल, कुटुम्ब या गोत्र) का सम्बन्ध माननेके कारण प्रजापतिगण मुक्त हो गये। भगवान् के प्रति सौहार्द स्थापित करनेसे कयाधूपुत्र प्रह्लादने भगवान् को पा लिया। श्रीहरिके प्रति स्नेहसे सुतपा मुनि, भयसे हिरण्यकशिपु, क्रोधसे तुम्हारे पिता हिरण्याक्ष तथा स्मय (अभिमान) से श्रुतियोंने योगीजनोंके लिये भी परम दुर्लभ पदको प्राप्त कर लिया। जिस किसी भावसे सम्भव हो, श्रीकृष्णमें मनको लगाये। ये देवतालोग भक्तियोगके द्वारा ही भगवान्में मन लगाकर उनका धाम प्राप्त करते हैं॥ २३-२७॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर अपान्तरतमा मुनि अन्तर्धान हो गये। तबसे शकुनि आदिने परिपूर्णतम श्रीहरिमें वैरभाव स्थापित किया। उन्होंने वैरभावसे ही परमेश्वर श्रीकृष्णको पा लिया। राजेन्द्र ! इसमें कोई आश्चर्य न मानो। जैसे कीड़ा भ्रमरका चिन्तन करनेसे तद्रूप हो जाता है, उसी प्रकार भगवच्चिन्तन करनेवाला जीव भगवान् का सारूप्य प्राप्त कर लेता है॥ २८-२९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘शकुनि-पुत्रपर कृपा’ नामक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४२ ॥
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तैंतालीसवाँ अध्याय
इलावृतवर्षमें राजा शोभनसे भेंटकी प्राप्तिः स्वायम्भुव मनुकी तपोभूमिमें मूर्तिमती
सिद्धियोंका निवास; लीलावतीपुरीमें अग्निदेवसे उपायनकी उपलब्धि; वेदनगरमें
मूर्तिमान् वेद, राग, ताल, स्वर, ग्राम और नृत्यके भेदोंका वर्णन
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। इस प्रकार भद्राश्ववर्षपर विजय पाकर श्रीयादवेश्वर हरि यादव- सैनिकोंके साथ इलावृतवर्षको गये ॥ १॥
मिथिलेश्वर! इलावृतवर्षमें ही रत्नमय शिखरों से सुशोभित, देवताओंका निवासस्थान, दीप्तिमान्स्व र्णमय पर्वत गिरिराजाधिराज ‘सुमेरु’ है, जो भूमण्डलरूपी कमलकी कर्णिकाके समान शोभा पाता है। उसके चारों ओर मन्दर, मेरु-मन्दर, सुपार्श्व तथा कुमुद-ये चार पर्वत शोभा पाते हैं। इन चारोंसे घिरा हुआ वह एक गिरिराज सुमेरु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थोंसे युक्त मनोरथकी भाँति शोभा पाता है॥२-३ ॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
उस इलावृतवर्षमें जम्बूफलके रससे उत्पन्न होने- वाला जाम्बूनद नामक स्वतः सिद्ध स्वर्ण उपलब्ध होता है। वहाँ जम्बूरससे ‘अरुणोदा’ नामकी नदी प्रकट हुई है, जिसका जल पीनेसे इस भूतलपर कोई रोग नहीं होता। राजन् ! वहाँ कदम्बवृक्षसे उत्पन्न ‘कादम्ब’ नामक मधुकी पाँच धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिनके पीनेसे मनुष्योंको कभी सर्दी-गरमी, विवर्णता (कान्तिका फीका पड़ना), थकावट तथा दुर्गन्ध आदि दोष नहीं प्राप्त होते। उन मधु-धाराओंसे कामपूरक नद प्रकट हुए हैं, जो मनुष्योंकी इच्छाके अनुसार रत्न, अन्न, वस्त्र, सुन्दर आभूषण, शय्या तथा आसन आदि जो-जो दिव्य फल हैं, उन सबको अर्पित करते हैं। इसी प्रकार वहाँ सुप्रसिद्ध ‘ऊर्ध्ववन’ है, जहाँ भगवान् संकर्षण विराजते हैं, जिस वनमें भगवन् शिव स्वतः अपनी प्रेयसी ज्योतियोंके साथ रमण करते हैं तथा जिसमें गये हुए पुरुष तत्काल स्त्रीरूपमें परिणत हो जाते हैं। स्वर्णमय कमल, शीतल वसन्त वायु, केसरके वृक्ष, लवङ्ग-लताओंके समूह तथा देववृक्षोंकी सुगन्धके सेवनसे मदान्ध भ्रमर-ये सब इलावृतवर्षकी अत्यन्त शोभा बढ़ाते हैं। वैदूर्यमणिके अङ्कुरोंसे विचित्र लगनेवाली वहाँकी मनोहर स्वर्णमयी भूमिको देखते हुए भगवान् श्रीहरिने अलंकारमण्डित देवताओंसे पूर्ण इलावृतवर्षको जीतकर वहाँसे भेंट ग्रहण की ॥ ४-९॥
पूर्वकालके सत्ययुगमें राजा मुचुकुन्दके जामाता शोभनने भारतवर्षमें एकादशीका व्रत करके जो पुण्य अर्जन किया, उसके फलस्वरूप देवताओंने उन्हें मन्दराचलपर निवास दे दिया। आज भी वह राजकुमार कुबरेकी भाँति रानी चन्द्राभागाके साथ वहाँ राज्य करता है। मिथिलेश्वर! वह परम सुन्दर शोभन भेंट लेकर देवप्रवर भगवान् श्रीकृष्णके सामने आया। यदुकुलतिलक श्रीहरिकी परिक्रमा करके शोभन उनके चरणारविन्दों में पड़ गया और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके, उन परमात्माको शीघ्र ही भेंट देकर पुनः मन्दराचलको चला गया ॥ १०-१२॥
बहुलाश्वने पूछा- देवर्षिप्रवर ! राजा शोभनके चले जानेपर भगवान् मधुसूदनने आगे कौन-सा कार्य किया, यह बतलाइये ॥ १३ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! उस मन्दराचलके शिखरपर एक परम दिव्य सरोवर है, उसमें स्वर्णमय कमल खिलते हैं। यह देखकर किरीटधारी अर्जुनने माधव श्रीकृष्णसे पूछा- ‘देवकीनन्दन ! सुवर्णमयी लताओं और स्वर्णमय कमलोंसे व्याप्त यह अद्भुत कुण्ड किसका है? मुझे बताइये ॥ १४-१५॥
श्रीभगवान्ने कहा- स्वायम्भुव मनुके कुलमें उत्पन्न आदि राजाधिराज पृथुने यहाँ दिव्य तप किया था। उन्हींका यह अद्भुत दिव्य कुण्ड है। पार्थ! इसका जल पीकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा इसमें स्नान करके नरेतर प्राणी भी मेरे परमधाममें पहुँच जाता है॥१६-१७॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यहीं साक्षात् भगवान्ने एक तपोभूमिमें पदार्पण किया, जहाँ सदा आठों सिद्धियाँ मूर्तिमती होकर नृत्य करती हैं। उन सिद्धियोंको देखकर उद्धवने सनातन भगवान्से पूछा ॥ १८३॥
उद्धव बोले- भगवन्! मन्दराचलके समीप यह किसकी तपोभूमि है? प्रभो! यहाँ कौन-सी स्त्रियाँ मूर्तिमति होकर विराज रही हैं- कृपया यह बतायें ॥ १९ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- उद्धव ! यहाँ पूर्वकालमें स्वायम्भुव मनुने तपस्या की थी। उन्होंकी यह सुन्दर तपोभूमि है, जो आज भी परम कल्याणकारिणी है। यहीं नारीरूपधारिणी आठ सिद्धियाँ सदा विद्यमान रहती हैं। यहाँ जो कोई भी आ जाय, उसे भी आठों सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। यहाँ एक क्षण भी तपस्या करके मानव देवत्व प्राप्त कर लेता है। चतुर्मुख ब्रह्मा भी इस तपोभूमिके माहात्म्यका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं॥ २०-२२॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी सेनासे घिरे हुए और वारंवार दुन्दुभि बजवाते हुए उन अत्यन्त उत्कट प्रदेशोंमें गये, जहाँ पूर्वकालमें हिरण्यकशिपु दैत्यने तपस्या की थी और जहाँ लीलावती नामकी एक स्वर्णमयी नगरी है। उस लीलावतीके स्वामी साक्षात् वीतिहोत्र नामधारी अग्नि हैं, जो उत्तम व्रतका पालन करते हुए नित्य मूर्तिमान् होकर राज्य करते हैं। उन धनंजयदेवने भी परम पुरुष परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रको भेंट देकर उनकी उत्तम स्तुति की ॥ २३-२६ ॥
इस प्रकार सारे इलावृतवर्षका दर्शन करते हुए देवाधिदेव भगवान् श्रीकृष्ण वेदनगरमें गये, जो जम्बूद्वीपका एक मनोरम स्थान है। उस नगरमें भगवान् निगम (वेद) सदा मूर्तिमान् होकर दिखायी देते हैं। उनकी सभामें सदा वीणा-पुस्तकधारिणी वाग्देवता वाणी (सरस्वती) सुन्दर एवं मङ्गलके अधिष्ठानभूत श्रीकृष्ण-चरितका गान करती है। नरेश्वर! उर्वशी और विप्रचित्ति आदि अप्सराएँ वहाँ नृत्य करती हैं। और अपने हाव-भाव ताथ कटाक्षोंद्वारा वेदेश्वरको रिझाती रहती हैं। मैं, विश्वावसु, तुम्बुरु, सुदर्शन तथा चित्ररथ ये सब लोग वेणु, वीणा, मृदङ्ग, मुरुयष्टि आदि वाद्योंको खड़ताल एवं दुन्दुभिके साथ विधिवत् बजाया करते हैं। नरेश्वर! वहाँ हस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा सानुनासिक और निरनुनासिक – इस अठारह भेदोंके साथ स्तुतियाँ गायी जाती हैं। नरेश्वर। वेदपुरमें आठों ताल, सातों स्वर और तीनों ग्राम मूर्तिमान् होकर विराजते हैं॥ २७-३४॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
वेदनगरमें राग-रागिनियाँ भी मूर्तिमती होकर निवास करती हैं। भैरव, मेघमल्लार, दीपक, मालकोश, श्रीराग और हिन्दोल ये सब राग बताये गये हैं। इनकी पाँच-पाँच स्त्रियाँ- रागिनियाँ हैं और आठ-आठ पुत्र हैं। नरेश्वर! वे सब वहाँ मूर्तिमान् होकर विचरते हैं। ‘भैरव’ भूरे रंगका है, ‘मालकोश ‘का रंग तोतेके समान हरा है, ‘मेघमल्लार’ की कान्ति मोरके समान है। ‘दीपक’ का रंग सुवर्णके समान है और ‘श्रीराग’ अरुण रंगका है। मिथिलेश्वर ! ‘हिन्दोल’ का रंग दिव्य हंसके समान शोभा पाता है॥ ३५-३८॥
बहुलाश्वने पूछा- मुनिश्रेष्ठ ! ताल, स्वर, ग्राम और नृत्य-इनके कितने कितने भेद हैं? इन सबका नामोल्लेखपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ ३९ ॥
नारदजीने कहा- राजन् ! रूपक, चर्चरीक, परमठ, विराट, कमठ, मल्लक, झटित् और जुटा ये आठ ताल हैं। राजन् ! निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत तथा पञ्चम-ये सात स्वर कहे गये हैं। माधुर्य, गान्धार और ध्रौव्य-ये तीन ग्राम माने गये हैं। रास, ताण्डव, नाट्य, गान्धर्व, कैंनर, वैद्याधर, गौह्यक और आप्सरस-ये आठ नृत्यके भेद हैं। ये सभी दस-दस हाव-भाव और अनुभावोंसे युक्त हैं। स्वरोंका बोध करानेवाला पद ‘सारेगमपधनि’- इस प्रकार हैं। राजन् ! यह सब मैंने तुम्हें बताया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ४०-४४॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें ‘वेदनगरका वर्णन’ नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४३ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ अध्यात्म रामायण
चौवालीसवाँ अध्याय
रागिनियों तथा रागपुत्रोंके नाम और वेद आदिके द्वारा भगवान का स्तवन
बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! रागिनियों और रागपुत्रोंके नाम मुझे बताइये; क्योंकि परावरवेत्ता विद्वानोंमें आप सबसे श्रेष्ठ हैं॥१॥
नारदजीने कहा- राजन् ! कालभेद, देशभेद और स्वरमिश्रित क्रियाके भेदसे विद्वानोंने गीतके छप्पन करोड़ भेद बताये हैं। नृपेश्वर! इन सबके अन्तर्भेद तो अनन्त हैं। आनन्दस्वरूप जो शब्दब्रह्ममय श्रीहरि हैं, इन्हींको तुम राग समझो। इसलिये भूतलपर इन सबके जो मुख्य मुख्य भेद हैं, उन्हींका मैं तुम्हारे सामने वर्णन करूँगा ॥ २-३॥
भैरवी, पिङ्गला, शङ्की, लीलावती और आगरी ये भैरवरागकी पाँच रागिनियाँ बतलायी गयी हैं। महर्षि, समृद्ध, पिङ्गल, मागध, बिलाबल, वैशाख, ललित और पञ्चम- ये भैरवरागके भिन्न-भिन्न आठ पुत्र बतलाये गये हैं। मिथिलेश्वर! चित्रा, जय जयवन्ती, विचित्रा, व्रजमल्लारी, अन्धकारी- ये मेघमल्लार रागकी पाँच मनोहारिणी रागिनियाँ कही गयी हैं। श्यामकार, सोरठ, नट, उड्डायन, केदार, व्रजरहस्य, जलधार और विहाग- ये मल्लार रागके आठ पुत्र प्राचीन विद्वानोंने बताये हैं। कञ्झुकी, मञ्जरी, टोडी, गुर्जरी और शाबरी ये दीपक रागकी पाँच रागिनियाँ विख्यात हैं। विदेहराज ! कल्याण, शुभकाम, गौड़कल्याण, कामरूप, कान्हरा, राम- संजीवन, सुखनामा और मन्दहास ये विद्वानोंद्वारा दीपक रागके आत पुत्र कहे गये हैं। मिथिलेश्वर ! गान्धारी, वेदगान्धारी, धनाश्री, स्वर्मणि तथा गुणागरी- ये पाँच रागमण्डलमें मालकोश रागकी रागिनियाँ कही गयी हैं। मेघ, मचल, मारुमाचार, कौशिक, चन्द्रहार, घुंघट, विहार तथा नन्द-ये मालकोश रागके आठ पुत्र बतलाये गये हैं॥ ४-१५॥
राजेन्द्र ! बैराटी, कर्णाटी, गौरी, गौरावटी तथा चतुश्वन्द्रकाला ये पुरातन पण्डितोंद्वारा कही गयी श्रीरागकी विख्यात पाँच रागिनियाँ हैं। महाराज! सारङ्ग, सागर, गौर, मरुत, पञ्चशर, गोविन्द, हमीर तथा गोभीर ये श्रीरागके आठ मनोहर पुत्र हैं। वसन्ती, परजा, हेरी, तैलङ्गी और सुन्दरी- ये हिन्दोल रागकी पाँच रागिनियाँ प्रसिद्ध हैं। मैथिलेन्द्र ! मङ्गल, वसन्त, विनोद, कुमुद, वीहित, विभास, स्वर तथा मण्डल- विद्वानोंद्वारा ये आठ हिन्दोल रागके पुत्र कहे गये हैं॥१६-२१ ॥
बहुलाश्वने पूछा- शब्दब्रह्मरूप श्रीहरिके साक्षात् स्वरूप महात्मा निगम (वेद) के, जो राग- मण्डलमें हिन्दोलके नामसे विख्यात हैं, पृथक् पृथक् अङ्ग इस भूतलपर कौन-कौन-से हैं यह मुझे बताइये ॥ २२-२३॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! वेदस्वरूप श्रीहरिका मुख ‘व्याकरण’ कहा गया है, पिङ्गल- कथित ‘छन्दः शास्त्र’ उनका पैर बताया जाता है, ‘मीमांसाशास्त्र’ (कर्मकाण्ड) हाथ है, ‘ज्योतिष- शास्त्र’ को नेत्र बताया गया है। ‘आयुर्वेद’ पृष्ठदेश, ‘धनुर्वेद’ वक्षःस्थल, ‘गान्धर्ववेद’ रसना और ‘वैशेषिकशास्त्र’ मन है। सांख्य बुद्धि, न्यायवाद अहंकार और वेदान्त महात्मा वेदका चित्त है। मिथिलेश्वर। रागरूप जो शास्त्र है, उसे वेदराजका विहारस्थल समझो। राजन् ! ये सब बातें तुम्हें बतायीं। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २४-२७ ॥
बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे। उस वेदपुरमें जाकर साक्षात् भगवान् श्रीहरिने क्या किया, यह मुझे बताइये; क्योंकि आप साक्षात् दिव्यदर्शी हैं॥ २८ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! यादवेश्वर श्रीकृष्ण जब वेदपुरमें आये, तब निगम (वेद) भी सरस्वतीके साथ भेंट लेकर आये। गन्धर्व, अप्सरा, ग्राम, ताल, स्वर तथा भेदॉसहित राग भी उनके साथ थे। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम किया। देवताओंके भी देवता साक्षात् भगवान् जनार्दन वेदपर प्रसन्न हो समस्त यादवोंके समक्ष उनसे बोले ॥ २९-३१ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- निगम ! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो। मेरे प्रसन्न होनेपर तीनों लोकोंमें भक्तोंके लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है!॥ ३२ ॥
वेद बोले- देव! परमेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं तो यहाँ मेरे जो ये उत्तम पार्षद हैं, उन सबको अपने दिव्य रूपका दर्शन कराइये। अत्यन्त उद्दीप्त तेजवाले अपने निज धाम गोलोकमें आपका जो स्वरूप है तथा वृन्दावनमें और वहाँके रासमण्डलमें आपका जो रूप प्रकट होता है, उसीका ये सब लोग दर्शन करना चाहते हैं॥ ३३-३४॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिलेश्वर! वेदका कथन सुनकर साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने श्रीराधाके साथ अपने परम दिव्य रूपका उन्हें दर्शन कराया। उस अनुपम सुन्दर रूपको देखकर सब लोग मूच्छित हो गये। अपना शरीर तथा सुख भुलाकर वे सभी सात्त्विक भावोंसे पूरित हो गये। राजन् ! उस समय अत्यन्त हर्षसे उत्फुल्ल हो वे वाद्योंके मधुर शब्दोंके साथ सत्पुरुषोंके देखते-देखते भगवान के समक्ष नाचने और गान करने लगे। मैथिलेश्वर ! भगवान का माधुर्यमय अद्भुत रूप जैसा सुना गया था, वैसा ही देखा गया और उसी प्रकार वेद आदिने (उसका नीचे दिये शब्दोंमें) वर्णन किया ॥ ३५-३८ ॥
वेदने कहा- देव! आप सत्स्वरूप, ज्ञानमात्र, सत्-असत्से परे, व्यापक, सनातन, प्रशान्तरूप, विभवात्मक, सम, महत्, प्रकाशरूप, परम दुर्गम, परात्पर तथा अपने धाम (चिन्मय प्रकाश) द्वारा भ्रम एवं अज्ञानके अन्धकारको निरस्त करनेवाले ‘ब्रह्म’ हैं; आपको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३९ ॥
सरस्वती बोलीं- भगवन् ! योगीलोग आपको परम ज्योतिः स्वरूप जानते हैं, वहीं भक्तजन आपको चिन्मय विग्रहसे युक्त बताते हैं। इस समय जो आपके चरणारविन्दयुगल देखे गये हैं, वे समस्त ज्योतियोंके अधीश्वर हैं। वे सदा मेरे लिये २ कल्याणकारी हों ॥ ४० ॥
गन्धर्व बोले- प्रभो। श्याम और गौर तेजके रूपमें अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित जो आपका तेजोमय स्वरूप है, वह आपने अपनी इच्छासे प्रकट किया है। उन्हीं युगल धामों (स्वरूपों) से आप नित्य उसी प्रकार पूर्णतया विराजित रहते हैं, जैसे मेघ श्याम वर्ण तथा बिजलीसे शोभा पाता है ॥ ४१ ॥
अप्सराओंने कहा- जैसे तमाल सुवर्णमयी लतासे, मेघ विद्युन्मालासे तथा जैसे नील गिरिराज सोनेकी खानसे सुशोभित होता है, उसी प्रकार आप आदिपुरुष श्यामसुन्दर अपनी प्रेयसी श्रीराधारानीके नित्य साहचर्यसे शोभा पाते हैं ॥ ४२ ॥
तीनों ग्राम बोले- जिनके चरणारविन्दोंके पावन परागको शिव, रमा (लक्ष्मी), ज्ञानीपुरुष तथा देवताओंसहित श्रीराधा अपने चित्तमें धारण करना चाहती हैं, माधवके उन चरण कमलोंका सदा भजन करो ॥ ४३ ॥
तालोंने कहा- जिनके कारण राजा बलि सत्स्वरूप होकर प्रतिष्ठित हुए, उन्हीं भगवान को बलि अर्पित करनी चाहिये। अपने संतप्त चित्तरूपी गुफामें श्रीहरिके उस चरणको ही प्रतिष्ठित करके उसकी सेवा करो ॥४४॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
गान (लय) बोले- संतजन जिनकी शरण लेकर दुःख-शोकको निकाल फेंकते हैं, श्रीराधा- माधवके उन दिव्य चरण-कमलोंको हम सदा हृदयमें धारण करें ॥ ४५ ॥
स्वर बोले- जो शरद् ऋतुके प्रफुल्ल पङ्कजकी शोभाको अत्यन्त तिरस्कृत कर देते हैं, मुनिरूपी भ्रमर जिनका आस्वादन करते हैं, जो वज्र, कमल और शङ्ख आदिके चिह्नोंसे सुशोभित हैं, जिनपर सोनेके नूपुर चमक रहे हैं तथा जिन्होंने भक्तोंके त्रिविध तापोंका उन्मूलन कर दिया है, श्रीराधावल्लभके उन चञ्चल- द्युतिशाली युगल चरणारविन्दोंको मैं हृदयमें धारण करता हूँ ॥ ४६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘वेदादिके द्वारा की गयी स्तुतिका वर्णन’ नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४४॥
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पैंतालीसवाँ अध्याय
रागिनियों तथा राग-पुत्रोंद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका स्तवन और
उनका द्वारकापुरीके लिये प्रस्थान
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर भैरव आदि रागगण भगवान् श्रीहरिके सामने उपस्थित हुए और रूपके अनुरूप उनके प्रत्येक अवयवका दर्शन करके अत्यन्त हर्षित हुए। श्रीहरिके विग्रहमें जिस- जिस अङ्गपर उनकी दृष्टि पड़ती थी, वहीं वहीं वह ठहर जाती थी। लावण्य-विशेषका अनुभव करके वह वहाँसे हटनेमें समर्थ नहीं होती थी। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र- के उस अत्यन्त अद्भुत रूपका दर्शन करके वे भी पृथक् पृथक् उसका गुणगान करने लगे ॥ १-३॥
भैरव बोला- श्रीहरिके दोनों घुटनोंका चिन्तन करो, जिन्हें सदा अङ्कमें लेकर कमला अपने कमलोपम करोंसे उनकी सेवा करती हैं॥४॥
मेघमल्लारने कहा- सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्णकी दोनों जाँचें, मानो कदलीखण्ड हैं, सोनेके खंभे हैं, तेजसे पूर्ण हैं, अनुपम शोभासे सम्पन्न हैं तथा पीताम्बरसे ढकी हुई हैं। उन दोनों वन्दनीय ऊरु- युगलका मैं ध्यान करता हूँ ॥५॥
दीपक रागने कहा- भगवान के कटिभागसे नीचे जो सम्पूर्ण चरण हैं, वे समस्त सुखोंको देनेवाले हैं तथा सुवर्णकी-सी कान्ति धारण करते हैं, उन सुप्रसिद्ध चरणोंका भजन करो ॥ ६ ॥
मालकोश बोला- भगवान् श्रीहरिकी जो कमर है, वह केशके समान अत्यन्त पतली है और वह मनुष्योंकी दृष्टिका मान हर लेती है, अर्थात् उस कटिको देखनेमें दृष्टि समर्थ नहीं हो पाती; वह मन्द- मन्द समीरके चलनेपर भी अत्यन्त कम्पित होने या लचकने लगती है। इस प्रकार वह सबके चित्तको हर लेनेवाली है। मैं विनम्र मस्तकसे उसकी वन्दना करता हूँ ॥ ७॥
श्रीराग बोला- राधिकावल्लभका जो नाभि- सरोवर है, उसका मैं अपने हृदयमें प्रतिदिन ध्यान करता हूँ। वह पुष्करकुण्डके समान शोभा पाता है। त्रिवलीरूप लहरोंसे उसकी मनोहरता बढ़ गयी है और वहाँकी रोमावलीने कामदेवके क्रीडा-काननको तिरस्कृत कर दिया है॥८॥
हिन्दोल रागने कहा- उदरमें जो त्रिवलीकी पंक्ति है, वह क्या अक्षरोंकी पंक्ति (वर्णमाला) है? अथवा पीपलके पत्तेपर मोहन-माला दिखायी देती है? क्या कमलदलपर कोई श्याम रेखा है या उदरमें यह रोमावलि फैली हुई है?॥ ९॥
भैरवरागकी रागिनियाँ बोलीं- श्रीकृष्ण हरिका जो पीताम्बर है, वह दीप्तिमान् इन्द्रधनुष तो नहीं है? सोनेके तारोंको शिल्पकलाद्वारा वह मनोहर ढंगसे टैंका हुआ है। उसका ही भजन करो, वह मनुष्योंका दुःख हर लेनेवाला है॥ १० ॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
भैरवके पुत्रोंने कहा- भगवन् ! आपकी चारों भुजाएँ चारों समुद्रोंके समान सम्पूर्ण विश्वको परिपूर्ण करनेवाली हैं, चार पदार्थोंके समान आनन्ददायिनी हैं, लोकरूपी चंदोवाके वितानमें दण्डका काम देती हैं तथा भूमिको धारण करनेमें दिग्गजोंके समान प्रतीत होती हैं ॥११॥
मेघमल्लारकी रागिनियाँ बोलीं- सर्ववल्लभ भूमिपति भगवान् श्रीहरिके मधुर अधरका, हे मन! तू सदा चिन्तन कर। वह लाल रंगके बिम्बफलकी-सी कान्तिसे मण्डित है तथा नूतन जपाकुसुमके लाल दलोंकी भाँति उसका सुन्दर स्वरूप है॥ १२॥
मेघमल्लारके बेटे बोले- परमेश्वर! श्रीकृष्णकी जो निर्मल दन्त-पक्ति है, उसका सदा ध्यान करो। उसने कपूर, केवड़ेके फूल, मोती, हीरे, श्रीखण्ड चन्दन, चन्द्रमा, चपला, अमृत तथा मल्लिका पुष्पोंकी कान्तिको पहलेसे ही तिरस्कृत कर दिया है॥१३॥
दीपक रागकी रागिनियोंने कहा- भगवन् ! निजजनोंकी रक्षा करनेमें समर्थ तथा अभीष्ट वस्तु देनेमें दक्ष जो आपके युगल नयनोंका कृपाकटाक्ष है, वह रात-दिन हमारी रक्षा करे। वह कटाक्ष कामदेवके वाणोंका परीक्षक है-उससे भी तीव्र शक्तिवाला है। उसने सम्पूर्ण लावण्यकी दीक्षा ले ली है, अर्थात् वह समस्त लावण्यकी राशि है। उसने अपनी उदारताके सामने कल्पवृक्षको भी तिरस्कृत कर दिया है तथा उसके एक-दो नहीं, करोड़ों लक्ष्य हैं॥ १४ ॥
दीपके पुत्र बोले- क्या ये नूतन कमलके बीच दो कुलिङ्ग (गौरैया) पक्षी बैठे हैं या तीनों लोकोंके दुःखोंका नाश करनेके लिये दो तीखी तलवारें हैं या कामदेवके दो विजयशील धनुष हैं, अथवा परमात्मा श्रीकृष्णके मुखचन्द्रमें युगल धूमण्डल शोभा पा रहे हैं॥१५॥
मालकोशकी रागिनियोंने कहा- सुन्दर कपोलमण्डलपर दो चञ्चल कुण्डल नृत्य कर रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डलमें दो नागिनें नाच रही हों, अथवा मकरन्दसे परिपूर्ण कमलपर भ्रमरावली मैड़रा रही हो ॥ १६ ॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
मालकोशके पुत्र बोले- आकाश-मण्डलमें सूर्यदेव उदित हुए हैं या मेघमालामें बिजली चमक रही है अथवा यदुपति भगवान् श्रीकृष्णके गण्डमण्डल (कपोलद्वय) पर ज्योतिके खण्ड-सा कनक-निर्मित कुण्डल झलमला रहा है॥ १७ ॥
श्रीरागकी रागिनियाँ बोलीं- दो कुलिङ्ग किंवा दो खञ्जन पक्षियोंकी पंक्तियोंका परस्पर युद्ध हुआ। उनके मध्यमें बीच-बचाव करनेके लिये प्रफुल्ल कमलपर एक तोता निकट आ गया है, जो अरुण बिम्बफलको प्राप्त करनेकी इच्छासे वहाँ बैठा शोभा पाता है (यहाँ कुलिङ्ग या खञ्जन पक्षी भगवान के दोनों नेत्र हैं, उनके बीचमें बैठा हुआ तोता नासिका है, प्रफुल्ल कमल मुख है और अरुण बिम्बफल अधर है) ॥ १८ ॥
श्रीरागके पुत्र बोले- जिन्होंने अपनी कमरमें पीताम्बर बाँध रखा है, मस्तकपर मोर-मुकुट धारण किया है और ग्रीवाको एक ओर झुका दिया है, जो हाथमें लकुटी और वंशी लिये हैं तथा जिनके कानोंमें कुण्डल हिल रहे हैं, उन पटुतर नटवर-वेषधारी श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ ॥१९॥
हिन्दोलरागकी रागिनियाँ बोलीं- जिनकी श्याम कान्तिकी अलसीके फूलसे उपमा दी जाती है, जो यमुनाके तटपर कदम्ब काननके मध्यभागमें विराजमान हैं तथा नयी अवस्थाकी गोपसुन्दरियोंके साथ विहार करते हुए शोभा पाते हैं, वे वनमाली हम सबके मङ्गलका विस्तार करें ॥ २० ॥
हिन्दोलरागके पुत्रोंने कहा- हरे! भूतलपर मेरे समान पातकी नहीं है और आपके समान कोई पापाहारी भी नहीं है। इसलिये आपको जगन्नाथदेव मानकर मैं शरणमें आया हूँ। आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा मेरे प्रति कीजिये ॥ २१ ॥
नारदजीने कहा- राजन् ! रागोंद्वारा किये गये उपर्युक्त ध्यानको जो सदा सुनता अथवा पढ़ता है, भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उसके नेत्रोंके समक्ष प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार वेद आदिको अपने स्वरूपका दर्शन कराके साक्षात् श्रीहरि उन सबके देखते-देखते चतुर्भुज शार्ङ्गपाणि बन गये ॥ २२-२३ ॥(Vishwajitkhand Chapter 41 to 45)
इस प्रकार श्रीकृष्णका दर्शन करके जब देवता लोग अपने गणोंके साथ चले गये, तब सेनामें अपने पुत्र यदुकुलतिलक शम्बर-शत्रु प्रद्युम्नको स्थापित करके परात्पर भगवान् श्रीहरिने अपनी द्वारकापुरीमें जानेका विचार किया। मिथिलेश्वर! उनके रथपर मञ्जीर, घंटा और किङ्किणीकी मधुर ध्वनि होने लगी। सुन्दर कांस्यपात्र (झाँझ) की आवाज भी उसमें मिल गयी। दारुकने उस रथमें सुग्रीव आदि चञ्चल घोड़े जोत दिये। वह उत्तम रत्नयुक्त आभूषणोंसे सजाया गया था, उसके आगे वेद-मन्त्रोंका घोष भी होता था और उसके ऊपरका गरुडध्वज प्रभञ्जनके वेगसे फहरा रहा था। ऐसे रथके द्वारा वेदपुरीको छोड़कर परमात्मा श्रीहरि यादववृन्दसे मण्डित द्वारकापुरीको चले गये ॥ २४-२७॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णके ध्यानका वर्णन’ नामक पैतालीसौँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४५ ॥
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