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Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 36 to 40

Garga Samhita
Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 36 to 40

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 36 to 40 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 36 से 40 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand Chapter 36 to 40) के छत्तीसवाँ अध्याय में दीप्तिमान्द्वारा महानाभ का वध वर्णन है। सैंतीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण पुत्र भानु के हाथ से हरिश्मश्रु दैत्य का वध कहा गया है। अड़तीसवाँ अध्याय में प्रद्युम्न और शकुनि के घोर युद्ध का वर्णन है। उनतालीसवाँ अध्याय में शकुनि के मायामय अस्त्रों का प्रद्युम्न द्वारा निवारण तथा उनके चलाये हुए श्रीकृष्णा स्त्रसे युद्ध स्थल में भगवान श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव का वर्णन और चालीसवाँ अध्याय में शकुनि के जीव स्वरूप शुक का निधन होने का कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छत्तीसवाँ अध्याय

दीप्तिमान्द्वारा महानाभ का वध

नारदजी कहते हैं- राजन् ! कालनाभ दैत्यके गिर जानेपर दैत्यसेनामें बड़ा भारी कोलाहल मचा। तब महानाभ नामक दैत्य ऊँटपर चढ़कर समराङ्गणमें आया। वह मायावी दैत्यराज मुँहसे आग उगलने लगा। उस आगसे दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं और धरतीके वृक्ष जलने लगे। महाराज! वीरोंके कवच, पगड़ी, कटिबन्ध और अँगरखा आदि मूँजके फूल (भुआड़ी) तथा रूईके समान जल उठे। राजन् ! समुद्रतटवर्ती नगरोंके बने हुए पीले, लाल, सफेद, काले, चितकबरे और सूक्ष्म झूलों तथा हेम रत्नखचित कश्मीरी कालीनों सहित बहुत से हाथी उस समराङ्गण में दावानलसे दग्ध होनेवाले वृक्षोंसहित पर्वतोंकी भाँति जल रहे थे। मस्तकपर धारण कराये गये रत्नों, चामरों, हारों और सुनहरे साज-बाजोंके साथ जलते हुए घोड़े उस युद्धभूमिमें दावाग्रिसे दग्ध होनेवाले हरिणोंकी भाँति उछलते और चौकड़ी भरते थे ॥१-६॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

अपनी सेनाको भयसे व्याकुल देख श्रीकृष्णकुमार दीप्तिमान्ने उस मायामयी आगको बुझानेके लिये पार्जन्यास्त्रका संधान किया। फिर तो उस बाणसे प्रलयकालके मेघोंकी भाँति नील जलधर प्रकट हुए और भयंकर गर्जना करते हुए जलकी धाराएँ बरसाने लगे। महाराज ! उस धारा-सम्पातसे भूतलपर पावस ऋतु प्रकट हो गयी। नर कोकिल, मादा कोकिल, मोर और सारस आदि पक्षी अपनी मधुर बोलियाँ बोलने लगे। मेढक भी टर-टर करने लगे। इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक लाल रंगके झुंड-के-झुंड कीट जहाँ-तहाँ शोभित होने लगे। मैथिलेन्द्र ! इन्द्रधनुष और विद्युन्मालासे आकाश उद्दीप्त दिखायी देने लगा ॥७-१०॥

इस प्रकार उस आगके बुझ जानेपर महान् असुर महानाभने दीप्तिमान् के ऊपर बड़े रोषसे अपना तीखा त्रिशूल चलाया। सर्पकी भाँति अपनी ओर आते हुए उस त्रिशूलको रोहिणीपुत्र दीप्तिमान्ने युद्धभूमिमें तलवारसे उसी प्रकार काट डाला, जैसे गरुडने अपनी चाँचसे किसी नागके दो टुकड़े कर दिये हों। महानाभका वाहन उद्भट कैंट उन्हें दाँतसे काटनेके लिये आगे बढ़ा। तब दीप्तिमान्ने समराङ्गण में उसके ऊपर अपनी तलवारसे चोट की। खड्गसे उसकी गर्दन कट गयी और वह दो टूकहो पृथ्वीपर गिर पड़ा। महानाभके देखते-देखते उस कैंटके प्राण-पखेरू उड़ गये। तब दैत्य महानाभ बड़े वेगसे हाथीपर जा चढ़ा और हाथमें शूल लेकर व्योममण्डलको अपनी गर्जना- से गुंजाता हुआ फिर युद्धके लिये आ गया। श्रीकृष्ण- नन्दन दीप्तिमान् चञ्चल और काले रंगके सिंधी घोड़ेपर चढ़कर विद्युत् के समान कान्तिमान् खड्गसे अद्भुत शोभा पाने लगे। उन्होंने घोड़ेके पेटमें एड़ लगायी और वह भूतलसे उछलकर हाथीके कुम्भस्थलपर इस प्रकार जा चढ़ा, मानो कोई सिंह पर्वतके शिखरपर बड़े वेगसे चढ़ गया हो ॥ ११-१७॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

फिर श्रीकृष्णकुमार दीप्तिमान्ने तीखी धारवाले खड्गसे महानाभके मस्तकको सहसा धड़से अलग कर दिया। बाणवर्षा करती हुई उस दुरात्माकी सेनाका दीप्तिमान्ने अपनी तलवारसे उसी तरह संहार कर डाला, जैसे सिंह हाथियोंके झुंडको रौंद डालता है। कुछ दैत्य खड्गसे मारे गये, शेष रणभूमिसे पलायन कर गये। देवता दीप्तिमान् के मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे, किंनर और गन्धर्व गाने लगे तथा अप्सराओंके समुदाय नृत्य करने लगे। ऋषियों, मुनियों और देवताओंने श्रीहरिके पुत्रका स्तवन किया ॥ १८-२१॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘महानाभका बध’ नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६ ॥

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सैंतीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण पुत्र भानु के हाथ से हरिश्मश्रु दैत्य का वध

नारदजी कहते हैं- राजन् । महानाभ मारा गया, यह सुनकर तथा दैत्यसेना पलायन कर गयी यह देखकर, मगरमच्छपर चढ़ा हुआ दैत्य हरिश्मश्रु समरभूमिमें आया। उस समय हरिश्मश्रु दैत्यके ओठ फड़क रहे थे, उसने यादवोंके सुनते हुए अत्यन्त कठोर वचन कहा ॥१-२ ॥

हरिश्मश्रु बोला- अरे! तुम सब लोग मेरे शक्तिके सामने क्या हो? स्वल्प पराक्रमी मनुष्य ही तो हो। दीनहीन होनेपर भी केवल अस्त्र-शस्त्रोंके बलपर जीतते हो। तुम-जैसे लोगोंमें पुरुषार्थ ही क्या है? यदि तुम्हारे दलमें कोई भी बलवान् हो तो मेरे साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के मल्लयुद्ध करे, जिससे तुम्हारे पौरुषका पता लगे ॥ ३-४ ॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

नारदजी कहते हैं- दैत्यकी ऐसी बात सुनकर और उसके अत्यन्त उद्भट शरीरको देखकर सब लोग परस्पर उसकी प्रशंसा करते हुए मौन रह गये-उसे कोई उत्तर न दे सके। तब सत्यभामाके बलवान् पुत्र भानु मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए रणभूमिमें अस्त्र-शस्त्र त्यागकर सहसा उसके सामने खड़े हो गये। राजन् । महाबली हरिश्मश्रु तिमिगिल (मगरमच्छ) की पीठसे उतरकर भुजाओंपर ताल ठोंकता हुआ सयत्न्न होकर सामने खड़ा हो गया। जैसे दो हाथी वनमें दाँतोंद्वारा परस्पर प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर बाँहोंसे बाँह मिलाकर एक- दूसरेको बलपूर्वक ढकेलने लगे ॥ ५-८ ॥

राजराजेन्द्र । उस दैत्यने भानुको अपनी भुजाओंसे सौ योजन पीछे उसी प्रकार ढकेल दिया, जैसे एक सिंह दूसरे सिंहको बलपूर्वक पछाड़ देता है। तब पुनः श्रीकृष्णकुमारने महान् असुर हरिश्मश्रुको बलपूर्वक सहसा सहस्र योजन पीछे ढकेल दिया। तत्पश्चात् दैत्यराज हरिश्मश्रुने अपनी बाँहको भानुके कंधेमें फैंसाकर उन्हें अपनी कमरपर ले लिया और फिर घुटना पकड़कर उन्हें पृथ्वीपर पटक दिया। तब भानुने अपने बाहुबलसे उसे पीठपर ले लिया और उसकी जाँचें पकड़कर उस दैत्यको धरतीपर दे मारा। तदनन्तर वे दोनों पुनः उठकर भुजाओंपर ताल ठोंकते हुए खड़े हो गये। राजन् ! वे दोनों फुर्ती दिखाते हुए गरुड और सर्पकी भाँति एक-दूसरेसे लड़ने लगे। दैत्यने अपने बाहुबलसे श्रीकृष्णनन्दन भानुके पैर पकड़कर उन्हें आकाशमें लाख योजन दूर फेंक दिया। आकाशसे गिरनेपर भानुको मन-ही-मन कुछ व्याकुलता हुई; किंतु जैसे शैल-शिखरसे गिरकर प्रह्लाद बच गये थे, उसी प्रकार श्रीहरिकी कृपासे भानुकी भी रक्षा हो गयी। तब श्रीकृष्णकुमारने हरिश्मश्रुकी लंबी दाढ़ी पकड़कर उसे घुमाया और आकाशमें लाख योजन दूर फेंक दिया। आकाशसे गिरनेपर उसके मनमें भी कुछ व्याकुलता हुई। फिर उसने दाढ़ीको अपने मुँहपर सँभालकर भानुको एक मुक्का मारा ॥ ९-१७ ॥

राजन् ! फिर दो घड़ीतक उन दोनोंमें मुक्का- मुक्कीका युद्ध चलता रहा। हरिश्मश्रुका अङ्ग अङ्ग पिस उठा। तब उसने भानुके मस्तकपर बड़े वेगसे पत्थर मारा। तब तो भानुके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने लाल आँखें करके एक वृक्ष उखाड़ा और उसे दैत्यके मस्तकपर दे मारा। हरिश्मश्रुने भी एक वृक्ष लेकर उसे भानुके मस्तकपर चलाया। उस समय उस महा- दैत्यके नेत्र लाल हो गये थे और वह क्रोधसे मूच्छित होकर अपना विवेक खो बैठा था। उसने एक हाथीकी सूँड़ पकड़कर उस हाथीके द्वारा ही भानुपर प्रहार किया। भानुने एक दूसरा हाथी लेकर उसके चलाये हुए हाथीको हाथमें पकड़ लिया और महादैत्य हरिश्मश्रुपर दृढ़तापूर्वक हाथीसे ही प्रहार किया। – वह हाथी चीत्कार कर उठा। दैत्यने उस हाथीको लेकर धरतीपर पटक दिया और उसके दोनों दाँत उखाड़कर उन्हींसे भानुको चोट पहुँचायी। इसी समय भानुको सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई ‘इस दैत्यकी मृत्यु इसकी दाढ़ीमें ही है। यह महान् असुर भगवान् शिवके दिये हुए वरदानसे अत्यन्त प्रबल हो गया है’ ॥ १८-२३॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

महाराज ! आकाशवाणीका यह कथन सुनकर भानु क्रोधसे भरकर दौड़े। उन्होंने दोनों हाथोंसे दैत्यके पाँव पकड़कर बारंबार गर्जना करते हुए उसे घुमाया और सबके देखते-देखते भूपृष्ठपर उसी तरह पटक दिया, जैसे बालक कमण्डलुको गिरा देता है॥ २४-२५॥

फिर हाथोंसे बल लगाकर उसके मुँहसे दाढ़ी उखाड़ ली और महान् असुरके मस्तकपर एक मुक्का मारा। नृपेश्वर ! फिर तो दैत्य हरिश्मश्रुकी तत्काल मृत्यु हो गयी और मनुष्यों तथा देवताओंके विजय- सूचक नगारे एक साथ ही बजने लगे। जय-जयकार- की ध्वनि सब ओर व्याप्त हो उठी और देवनायक नाचने लगे ॥ २६-२८॥

राजन् ! देवता प्रसन्न हो पुष्पवर्षा करने लगे। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णके पुत्रोंके परम अद्भुत पराक्रमका वर्णन किया है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २९-३० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘हरिश्मश्रु दैत्यका वध’ नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७ ॥

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अड़तीसवाँ अध्याय

प्रद्युम्न और शकुनि के घोर युद्ध का वर्णन

बहुलाश्वने पूछा- मुनिश्रेष्ठ ! हरिश्मश्नु आदि भाइयोंको मारा गया जानकर महान् असुर शकुनिने आगे क्या किया ? ॥१॥

नारदजीने कहा- राजन् ! हरिश्मश्रुके मारे जानेपर शकुनि क्रोधसे अचेत-सा हो गया। भ्राताओं- की मृत्युसे उत्पन्न हुए शोकमें डूबकर समराङ्गणमें दैत्योंको सम्बोधित करके उसने कहा ॥ २॥

शकुनि बोला- हे पौलोम और कालकेयगण ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो। अहो! दैवका बल अद्भुत है, उसके कारण क्या उलट-फेर नहीं हो सकता ? मेरे भाई कालनाभने पूर्वकालमें समुद्र-मन्धनके अवसरपर यमराजको जीत लिया था, परंतु दैववश वह भी यहाँ मनुष्योंके हाथसे मारा गया। शम्बरने साक्षात् सूर्यदेवको परास्त किया था, किंतु वह बालक श्रीकृष्णकुमारके हाथसे पराजित हुआ। उत्कच महाबलियोंमें भी महाबली था और इन्द्रपर भी विजय पा चुका था, परंतु वह भी बालकृष्णके हाथों मारा गया, यह बात मैंने नारदजीके मुखसे सुनी थी। पहले समुद्र-मन्थनके समय जिसने समस्त असुरोंके समक्ष अग्निदेवको पराजित किया था, वह मेरा भाई इष्ट भी एक मनुष्यद्वारा मार गिराया गया। जिसके सामनेसे पूर्वकालमें वरुण देवता भी भयभीत हो युद्धसे पीठ दिखाकर भाग गये थे, उस भूत-संतापनको भी तुच्छ पराक्रमवाले मनुष्योंने मार डाला। जिसने पहले महायुद्धमें अपने पराक्रमद्वारा भगवान् शिवको संतुष्ट किया था, उस वृकको यहाँ युद्धमें तुच्छ वृष्णिवंशियोंने मार गिराया। मेरे भाई महानाभने देवलोकमें वायुको भी परास्त किया था, किंतु यहाँ इस समय उसको भी यदुकुलके मनुष्योंने मारा डाला। हा दैव! जिसने स्वर्गलोकमें बलवान् इन्द्रपुत्रको परास्त किया था, उस हरिश्मश्रुको भी यहाँ मानवोंने मार गिराया। इसलिये मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि इस पृथ्वीको मैं यादवोंसे शून्य कर दूँगा ॥ ३-११ ॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

जरासंध, शाल्व, बुद्धिमान् दन्तवक्र तथा शिशुपाल ये मेरे मित्र हैं। सुतल लोकसे प्रचण्ड- पराक्रमी दानवोंको बुलाकर इन मित्रों तथा आप- लोगोंके साथ मैं देवताओंको जीतनेके लिये जाऊँगा और उस युद्धमें बाणासुर भी हमारे साथ होगा। प्रद्युम्न आदि जो उद्भट यादव हैं, उन दुरात्माओंको जीतकर और स्त्रियोंसहित देवताओंको बाँधकर मैं मेरुपर्वतकी गुफाके मुँहमें डाल दूँगा। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, तपस्वी, यज्ञ, श्राद्ध, तितिक्षु तथा नाना तीर्थोंका सेवन करनेवाले धर्मात्माओंको भी मैं निस्संदेह मार डालूँगा। फिर सुखपूर्वक विचरूँगा। देवताओंपर विजय पानेवाला महाबली पराक्रमी राजा कंस धन्य था। वह मेरा मित्र और परम सुहृद् था। खेदकी बात है कि आज वह इस भूतलपर विद्यमान नहीं है॥१२-१६॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर महाबली दानवराज दैत्य शकुनि युद्धमें सहसा प्रद्युम्नके सामने आ गया। लाख भार लोहेके समान सुदृढ़ एवं विशाल धनुष लेकर उसने उसकी प्रत्यञ्चाको टंकारित किया। उसका वह धनुष मयासुरका बनाया हुआ था। उस धनुषकी टंकार-ध्वनिसे दिग्गजोंके कान बहरे हो गये, अनेक पर्वत ढह गये और समुद्र अपनी मर्यादासे विचलित हो उठे। नरेश्वर! सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा और भूमण्डल काँपने लगा। उसकी प्रत्यञ्चाके घोर शब्दसे विह्वल हो योद्धाओंके ऊपर योद्धा गिर पड़े। हाथी रणभूमि छोड़कर भागने लगे और घोड़े युद्ध- भूमिमें उछलने-कूदने लगे ॥ १७-२१ ॥

इस प्रकार सब लोग अचानक भयसे घबराकर भागने लगे। तब महान् बल-पराक्रमसे युक्त गद आदि वीर रथपर बैठकर धनुषकी टंकार करते हुए वहाँ आये। शकुनिने संग्रामभूमिमें अर्जुनको दस बाण मारे। इससे रथसहित गाण्डीवधारी अर्जुन चार कोस दूर जाकर गिरे। रणदुर्मद शकुनिने गदके ऊपर बीस बाणोंसे प्रहार किया। राजन् ! उसने गदको रथसहित व्योममण्डलमें फेंक दिया और जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। राजन् ! उस वीरने रथसहित धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धको चालीस बाणोंसे बींध डाला और अपने सिंहनादसे आकाश-मण्डलको निनादित कर दिया। अनिरुद्धका घोड़ोंसहित रथ सोलह कोस दूर जा गिरा। विदेहराज ! शकुनिने समराङ्गणमें साम्बको सौ बाण मारे। राजन् ! साम्ब भी रथसहित आकाशमें जा समरभूमिसे बत्तीस योजन दूर मार्गपर जा गिरे॥ २२-२७॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

तत्पश्चात् प्रद्युम्नको सामने आया देख शकुनि क्रोधसे भर गया तथा उसने रणक्षेत्रमें सहसा बाण- समूहोंसे उन्हें घायल कर दिया। राजन् ! प्रद्युम्नका रथ दो घड़ीतक चक्कर काटता हुआ सौ कोस दूर पृथ्वीपर इस प्रकार जा गिरा, मानो किसीके द्वारा कमण्डलु फेंक दिया गया हो। शकुनिका बल देखकर समस्त यादव चकित हो उठे। जैसे हाथी पहाड़से सिर टकराते हैं, उसी प्रकार समस्त यादव नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों- द्वारा उस दैत्यको घायल करने लगे। गद, अर्जुन, अनिरुद्ध एवं जाम्बवतीकुमार साम्ब अपने धनुषकी टंकार करते हुए पुनः युद्धभूमिमें आ गये। राजन् ! तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्न वायुके समान वेगशाली रथपर बैठकर धनुषकी टंकार करते हुए युद्ध-मण्डलमें आ पहुँचे। शकुनिके धनुषकी प्रत्यञ्चा प्रलयकालके समुद्रोंके टकरानेके शब्द-जैसी भयंकर टंकार करती थी। श्रीकृष्णकुमारने दस बाण मारकर उसे काट दिया। फिर सहस्र बाणोंसे उसके सहस्र घोड़ोंको, सौ विशिखोंद्वारा उसके रथको और बीस बाण मारकर उसके सारथिको पृथ्वीपर गिरा दिया। तब उसने रथको उठाकर उसमें दूसरे घोड़े जोते और दूसरा सारथि बैठाकर वह दैत्यराज पुनः रथपर आरूढ़ हुआ। राजन् । तत्पश्चात् उसने प्रचण्ड पराक्रमसे युक्त कोदण्डपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी। इसके बाद पीठपर पड़े हुए तरकससे सौ बाण खींचकर उसने धनुषपर रखे और कानतक खींचकर प्रद्युम्नसे कहा ॥ २८-३७॥

शकुनि बोला- तुम सब लोगोंमें मेरे मुख्य शत्रु तथा मदमत्त योद्धा हो, अतः पहले तुम्हारा ही वध करूँगा। तत्पश्चात् स्वस्थ तेजवाले यादवोंकी सारी सेनाका संहार कर डालूँगा ॥ ३८ ॥

प्रद्युम्नने कहा- असुर ! प्राणियोंकी आयु सदा कालके बलसे नष्ट होती या बीतती है। वह बारंबार छायाकी तरह आती-जाती है। जैसे बादलोंकी पङ्कि आकाशमें वायुकी शक्तिसे आती-जाती है, उसी तरह सुख-दुःख भी कालकी प्रेरणासे आता-जाता रहता है। जैसे किसान बोयी हुई खेतीको सींचता है और जब वह पक जाती है, तब स्वयं उसे हँसुएसे सब ओरसे काट लेता है, उसकी प्रकार दुर्जय काल अपनी ही रची हुई देहधारियोंकी श्रेणीको अपने गुणोंद्वारा पालता है और फिर समय आनेपर उसका संहार कर डालता है। जीव तो अहंकारसे मोहित होकर ही ऐसा मानता है कि ‘मैं यह करूँगा, मैं यह करता हूँ; यह मेरा है और वह तेरा है; मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ और ये मेरे सुहद् हैं’ इत्यादि ॥ ३९-४१ ॥

शकुनि बोला- नृपश्रेष्ठ! तुम धन्य हो, जो अपनी वाणीद्वारा ऋषि-मुनियोंका अनुकरण करते हो। तीन गुणोंके अनुसार पृथक् पृथक् जो प्राणियोंका स्वभाव है, उसका उनके लिये त्याग करना कठिन होता है ॥ ४२ ॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

नारदजी कहते हैं- मैथिलेन्द्र ! युद्धस्थलमें इस प्रकार परस्पर सत्सङ्गकी बातें करते हुए प्रद्युम्न और शकुनि इन्द्र और वृत्रासुरकी भाँति युद्ध करने लगे। शकुनिके धनुषसे छूटे हुए विशिख सूर्यकी किरणोंके समान चमक उठे, परंतु श्रीकृष्णकुमारने एक ही बाणसे उन सबको काट दिया ठीक उसी तरह, जैसे एक ही कटुवचनसे मनुष्य पुरानी मित्रताको भी खण्डित कर देता है। तब रण-दुर्मद शकुनिने लाख भारकी बनी भारी और विशाल गदा हाथमें लेकर प्रद्युम्नके मस्तक- पर दे मारी। साक्षात् भगवान् प्रद्युम्नने अपनी वज्र- सरीखी गदासे उसकी गदाके सौ टुकड़े कर दिये- उसी प्रकार जैसे कोई डंडा मारकर काँचके बर्तन टूक टूक कर दे। तब रोषके आवेशसे युक्त हुए उस दैत्यने एक चमचमाता हुआ त्रिशूल हाथमें लिया और उच्च- स्वरसे गर्जना करते हुए उसके द्वारा प्रद्युम्नके मस्तकपर प्रहार किया। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नने भी त्रिशूल मारकर दैत्यके त्रिशूलके सौ टुकड़े कर डाले। इसके बाद रुक्मिणीनन्दनने एक तीखी बरछी लेकर शकुनिके ऊपर चलायी ॥ ४३-४८ ॥

बरछीसे उसकी छाती छिद गयी। इससे उसके मनमें कुछ घबराहट हुई, तथापि उसने समराङ्गणमें प्रद्युम्रको परिघसे पीट दिया। तब बलवान् रुक्मिणी-कुमारने यमदण्ड लेकर दैत्यके उस अद्भुत परिघको उसके द्वारा चूर-चूर कर डाला। इतना ही नहीं, वेगपूर्वक चलाये हुए उस यमदण्डसे सहसा उसके घोड़ोंको, सारथिको और उस दिव्य रथको भी धराशायी कर दिया। नरेश्वर। सारथिके मर जानेपर और घोड़े-सहित रथ एवं परिघके भी चूर-चूर हो जानेपर उस महादैत्यने रोषपूर्वक खड्ग हाथमें लिया। मैथिल! जैसे गरुड किसी सर्पके दो टुकड़े कर दे, उसी प्रकार महावीर प्रद्युम्नने यमदण्डके द्वारा उसके खड्गके दो टुकड़े कर डाले। इसके बाद श्रीकृष्णकुमारने उसी यमदण्डसे दैत्यके कंधेपर प्रहार किया। उसके आघातसे शकुनिको तत्काल मूर्च्छा आ गयी। तदनन्तर क्रोधसे भरे हुए प्रद्युम्नने तत्काल दैत्य-सेनाके भीतर प्रवेश किया। जैसे दावानल जंगलको जलाता है, उसी प्रकार वे उस सेनाके बड़े-बड़े वीरोंको धराशायी करने लगे। माधव प्रद्युम्नने उस यमदण्डके द्वारा यमराजकी भाँति हाथियों, घोड़ों, रथों और उन आततायी दैत्योंको मार गिराया। दैत्योंके पैर, मुख, अङ्ग और भुजाएँ छित्र-भित्र हो गयीं। वे समस्त दैत्य और दानव कालके गालमें चले गये। भीम पराक्रमी प्रद्युम्नको यमराजका रूप धारण किये देख कितने ही दैत्य युद्धभूमिसे अपना-अपना स्थान छोड़कर दसों दिशाओंमें भाग गये ॥ ४९-५८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘शकुनि और प्रद्युम्नके युद्धका वर्णन’ नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम

उनतालीसवाँ अध्याय

शकुनिके मायामय अस्त्रोंका प्रद्युम्नद्वारा निवारण तथा उनके चलाये हुए
श्रीकृष्णास्त्रसे युद्धस्थलमें भगवान् श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव

नारदजी कहते हैं- महाराज। शकुनिने फिर उठकर जब अपनी सेनाका विनाश हुआ देखा, तब उसने लाख भारके समान भारी धनुष हाथमें लिया। राजन् ! उस प्रचण्डविक्रमशाली कोदण्डपर तीखा बाण रखकर बलवान् दैत्यराज शकुनिने रणभूमिमें प्रद्युम्नसे कहा ॥ १-२ ॥

शकुनि बोला- राजन् ! इस भूतलपर कर्म ही प्रधान है। महत् कर्म ही साक्षात् गुरु तथा सामर्थ्य- शाली ईश्वर है। यहाँ कर्मसे ही उच्चता और नीचता प्रकट होती है तथा उस कर्मसे ही विजय और पराजय होती है। जैसे सहस्रों गौओंके बीचमें छोड़ा हुआ बछड़ा सत्पुरुषोंके देखते-देखते अपनी माताको ढूँढ़ लेता है, वैसे ही जिसने भी शुभाशुभ कर्म किया है, उसके द्वारा किया हुआ कर्म सहस्रों मनुष्योंके होनेपर भी उस कर्ताको ही प्राप्त होता है। इसके अनुसार मैं सुदृढ़ कर्म करके उसके द्वारा अपने शत्रुस्वरूप तुमको अवश्य जीत लूँगा। इसके लिये मैंने शपथ खायी है। तुम भी शीघ्र ही इसका प्रतीकार करो, जिससे इस भूमिपर तुम्हारी पराजय न हो ॥३-५॥

प्रद्युम्नने कहा- दैत्यराज ! यदि तुम कर्मको प्रधान मानते हो तो यह भी जान लो कि कालके बिना उसका कोई फल नहीं होता। कर्म करनेपर भी उसके पाकया परिणाममें कभी-कभी विघ्न उपस्थित हो जाता है, अतः श्रेष्ठ विद्वान् पुरुषोंने सदा काल या समयको ही बलिष्ठ माना है। दैत्यराज! सुनो, कर्मके परिपाकका अवसर आनेपर भी कर्ताके बिना उसका फल कदापि नहीं प्राप्त होता। इसलिये श्रेष्ठ पुरुष कर्ताको ही प्रधान मानते हैं, कर्म और कालको नहीं। कुछ लोग योग (उपाय) को ही प्रधान मानते हैं; क्योंकि उसके बिना भूतलपर कोई भी कर्म और उसके फलकी सिद्धि नहीं हो सकती। काल, कर्म और कर्ताके रहते हुए भी योगके बिना सब व्यर्थ हो जाता है। योग, कर्म, कर्ता और कालके होते हुए भी विधिज्ञानके बिना सब व्यर्थ हो जाता है, जैसे परिणामके प्रकार आदिका विचार किये बिना फलका यथावत् साधन नहीं होता। योग, कर्म, कर्ता, काल और विधिज्ञानके होनेपर भी ब्रह्म- पुरुषके बिना कुछ भी नहीं होता। इसलिये मैं उन परिपूर्णतम भगवान को नमस्कार करता हूँ, जिनसे अखिल विश्वका ज्ञान होता है॥ ६-१०॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

शकुनि बोला- हे महाबाहु प्रद्युम्न। तुम तो साक्षात् ज्ञानके निधि हो, तुम्हारे दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। जो तुम्हारा सङ्ग पाकर प्रतिदिन तुमसे वार्तालाप करते हैं, उनकी महिमाका वर्णन करनेमें तो चार मुखवाले ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं॥ ११-१२ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर मायावी और बलवान् दैत्यराज शकुनिने मयासुरसे सीखे हुए रौरवास्त्रका संधान किया। राजन् ! उस अस्त्रसे बड़े- बड़े नाग, दंदशूक और विषैले बिच्छू करोड़ोंकी संख्यामें निकले। वे सब के सब बड़े विकराल और रौद्ररूपधारी थे। उनके द्वारा डसी हुई सारी सेना उनके फुफकारोंसे मतवाली हो गयी। यह देख परम बुद्धिमान् प्रद्युम्नने गरुडास्त्रका संधान किया। उस अस्त्रसे कोटि- कोटि गरुड, नीलकण्ठ, मोर तथा अन्य भयानक पक्षी उस दैत्यके देखते-देखते प्रकट हुए। उन पक्षियोंने उस युद्धमें नागों, दंदशूकों तथा बिच्छुओंको निगल लिया। फिर वे तीखी चोंच और बड़ी पाँखवाले पक्षी क्षणभरमें अदृश्य हो गये ॥ १३-१७॥

राजन् ! तब उस रणदुर्मद दैत्य शकुनिने भी राक्षसी, गान्धर्वी, गौद्दाकी और पैशाची मायाका संधान किया। उन बाणोंसे निकले हुए विकराल और काले रूपवाले करोड़ों भूत और प्रेत वहाँ अङ्गारोंकी वर्षा करने लगे। उस तामसी और पैशाची मायाको जानकर युद्धाभिलाषी श्रीकृष्णकुमार मौनध्वज प्रद्युम्नने सत्त्वास्त्रका संधान किया। राजन्। उस बाणसे करोड़ों विष्णुपार्षद प्रकट हुए, जिन्होंने उस पैशाची मायाको वैसे ही नष्ट कर दिया, जैसे गरुड नागिनको नष्ट कर दे। तब उस मायावी दैत्यने पुनः गौह्यकी मायाका संधान किया, जिससे गर्जन-तर्जन करते हुए करोड़ों भयानक मेघ प्रकट हुए। ये मल, मूत्र, रक्त, मेदा, मज्जा और हड्डीकी वर्षा करने लगे। महाराज। उस गौाकी मायाको जानकर भगवान् प्रद्युम्न हरिने उसके विनाशके लिये बाणपर शूकरास्त्रका संधान किया। उस बाणसे घर्घर ध्वनि करनेवाले भगवान् यज्ञवाराहका प्राकट्य हुआ। वे वेगसे अपनी सटाएँ (गर्दनके बाल) हिलाकर तीखी दाढ़से बादलोंको विदीर्ण करते हुए उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे मत्त गजराज बाँसके वृक्षोंको तोड़ता-फोड़ता शोभा पाता है॥१८-२५ ॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

तदनन्तर उस दैत्यने रणमण्डलमें गान्धर्वी माया प्रकट की। युद्ध अदृश्य हो गया और वहाँ सोनेके करोड़ों महल खड़े हो गये। सत्पुरुषोंके देखते-देखते वे स्वर्णमय भवन वस्त्रों और अलंकारोंसे सज गये। वहाँ विद्याधरियाँ और गन्धर्व नाचने-गाने लगे। नरेश्वर। मृदङ्ग, ताल और वाद्योंके मोहक शब्दों तथा रागयुक्त हाव-भाव और कटाक्षोंद्वारा लोगोंको संतुष्ट करती हुई सोलह वर्षकी-सी अवस्थावाली कमलनयनी, मनोमोहिनी, सुन्दरी रमणियाँ वहाँ प्रकट हो गयीं। उनके रूप-लावण्य तथा रागसे जब समस्त वृष्णिवंशी पुरुष मोहित हो गये, तब उस मोहिनी गान्धर्वी मायाको जानकर उसके निवारणके लिये महाबली प्रद्युम्रने रणभूमिमें ज्ञानास्त्रका संधान किया ॥ २६-३०॥

नृपेश्वर ! उस समय ज्ञानोदय होनेपर सबके मोहका नाश हो गया। उस मायाके नष्ट हो जानेपर क्रोधसे भरे हुए मायावी दैत्यराज शकुनिने राक्षसी मायाका संधान किया। राजन् ! फिर तो क्षणभरमें सारा आकाश पंखधारी पर्वतोंसे आच्छादित हो गया। पृथ्वीपर घोर अन्धकार छा गया, मानो प्रलयकालमें मेघोंकी घोर घटा घिर आयी हो। आकाशसे चारों ओर जले वृक्ष, प्रस्तर-खण्ड, हड्डियाँ, धड़, रक्त, गदाएँ, परिष, खड्ग और मुसल आदि बरसने लगे। विदेहराज। पर्वत मेघोंके समान आकाशमें घूमने लगे। हाथियों और घोड़ोंको अपना भक्ष्य बनाते हुए सैकड़ों राक्षस और यातुधान हाथोंमें शूल लिये ‘काट डालो, फाड़ डालो’ इत्यादि कहते हुए दृष्टिगोचर होने लगे। रणमण्डलमें बहुत-से सिंह, व्याघ्र और वाराह दिखायी देने लगे, जो अपने नखाँद्वारा हाथियोंको विदीर्ण करते हुए उनके शरीरोंको चबा रहे थे। अपनी सेनाको पलायन करती देख महाबली प्रद्युम्नने उस राक्षसी मायाको जीतनेके लिये नरसिंहास्त्रका संधान किया। इससे साक्षात् रौद्ररूपधारी भगवान् नरसिंह हरि प्रकट हो गये, जिनके अयाल चमक रहे थे। जीभ लपलपा रही थी तथा बड़े-बड़े नख और पूँछ उनकी शोभा बढ़ाते थे। बाल हिल रहे थे, मुँह डरावना दिखायी देता था और वे हुंकारसे अत्यन्त भीषण प्रतीत होते थे। रणमण्डलमें सिंहनाद करते हुए वे खड़े हो गये। उनके उस सिंहनादसे सप्त पाताल और सातों लोकौंसहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये, तारे खिसक गये और भूखण्ड-मण्डल कौंपने लगा। वे अपने तीखे नखोंसे दैत्योंके देखते-देखते वृक्षोंसहित पर्वतोंको आकाशमें उठाकर उनकी सेनाके बीच धू- पृष्ठपर पटक देते थे। राक्षसोंको पकड़कर बड़े वेगसे फाड़ डालते थे। उन नरहरिने युद्धस्थलमें यातुधानोंको अपने पैरोंसे मसल डाला। सिहों, व्याघ्रों और वाराहोंको तीखे नखोंसे विदीर्ण करके आकाशमें फेंक दिया। फिर वे भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३१-४३ ॥

इस प्रकार राक्षसी मायाके नष्ट हो जानेपर रुक्मिणी- नन्दन प्रद्युम्नने समराङ्गणमें विजयदायक मौलेन्द्र नामक शङ्ख बजाया। उस समय दुन्दुभियोंकी ध्वनिसे मिश्रित जय-जय घोष होने लगा। प्रद्युम्नके ऊपर देवतालोग फूल बरसाने लगे। अपनी मायाके नष्ट हो जानेपर दैत्यराज शकुनि रथ और सैनिकोंके साथ वहीं अदृश्य हो गया। इसके बाद उसने मय नामक दैत्यद्वारा सिखायी हुई दैतेयी माया प्रकट की। उस समय बिजलीकी कड़कके साथ हाथीकी सूँड़के समान मोटी जलधाराएँ बरसाते हुए सांवर्त्तक मेघगण सत्पुरुषोंके देखते-देखते आकाशमें छा गये। एक ही क्षणमें सारे समुद्र प्रचण्ड आँधीसे कम्पित और क्षुभित हो परस्पर टकराते हुए अपने भँवरोंसे समस्त भूमण्डलको आपावित करने लगे। उसमें यादवोंके आत्मीय जनोंसहित सारे वृक्ष डूब गये। यह देख समस्त यादव बहुत भयभीत हो गये तथा रामकृष्णके नामोंका कीर्तन करते हुए अपना सारा पराक्रम भूल गये। राजेन्द्र ! एक ही क्षणमें वे सब लोग चुपचाप पराजित हो गये। तब महाबाहु प्रद्युम्नने प्रचण्ड पराक्रमके आश्श्रयभूत कोदण्डपर बाण रखकर उनके ऊपर सहसा श्रीकृष्णास्त्रका संधान किया ॥ ४४-५१ ॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

मिथिलेश्वर। उस समय वहाँ कुशस्थली पुरीके प्रातःकालीन करोड़ों सूर्योके समान कान्तिमान् उत्कृष्ट तेजःपुञ्ज स्वयं इस प्रकार प्रकट हुआ, मानो वह अपने अभीष्ट अर्थका मूर्तिमान् रूप हो। वह तेज दसों दिशाओंका अनुरञ्जन कर रहा था। उस परम तेजके भीतर नूतन जलधरके समान श्याम छविसे सुशोभित, सुवर्णमय कमलकी रेणुके सदृश पीत- वसनसे समलंकृत, भ्रमरोंके गुञ्जारवसे निनादित, कुन्तलराशिधारी, वैजयन्तीमाला पहने, श्रीवत्सचिह्न एवं उत्तम कौस्तुभरत्नसे सुशोभित वक्षवाले, प्रफुल्ल पङ्कजके तुल्य विशाललोचन, चार भुजाधारी श्रीकृष्ण दृष्टिगोचर हुए। उनके मस्तकपर सुन्दर किरीट, कण्ठमें मनोहर हार तथा चरणोंमें नवल नूपुर शोभा दे रहे थे। कानोंमें नूतन सूर्यकी-सी कान्तिवाले सोनेके कुण्डल झलमला रहे थे ॥ ५२-५४॥

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको देखकर यदुवंशी अत्यन्त हर्षसे खिल उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर उन परमेश्वरको प्रणाम किया। मिथिलेश्वर । उस समय देवतालोग सब ओरसे फूल बरसाकर जोर-जोरसे जय-जयकार करने लगे। तत्काल आये हुए शार्ङ्गधनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णने अपने शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए एक ही बाणसे लीला- पूर्वक शकुनिके प्रत्यञ्चासहित कोदण्डको रोष- पूर्वक खण्डित कर दिया। धनुष कट जानेपर तिरस्कृत हुआ शकुनि युद्ध छोड़कर अपने अस्त्र- शस्त्रोंका समूह ले आनेके लिये चन्द्रावतीपुरीको चला गया ॥ ५५-५७॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णका आगमन’ नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~  श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

चालीसवाँ अध्याय

शकुनि के जीव स्वरूप शुक का निधन

नारदजी कहते हैं- राजन् । शकुनिके चले जानेपर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने प्रद्युम्र आदि समस्त यादवोंको बुलाकर इस प्रकार कहा ॥ १ ॥

श्रीभगवान् बोले- पूर्वकालमें सुमेरु पर्वतके उत्तरभागमें इस शकुनि नामक दैत्यने चार युगोंतक निराहार रहकर तपस्याद्वारा भगवान् शिवको संतुष्ट किया। चार युग व्यतीत हो जानेपर साक्षात् महेश्वर- देवने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा- ‘वर माँगो।’ दैत्य शकुनिने उनको प्रणाम किया। उसका रोम-रोम खिल उठा और नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। उसने दोनों हाथ जोड़कर गद्गद वाणीमें धीरेसे कहा-‘प्रभो! यदि मैं मरूँ तो भूतलका स्पर्श होते ही फिर जी जाऊँ और आकाशमें भी हे देव! दो घड़ीतक मेरी मृत्यु न हो।’ दैत्यके इस प्रकार कहनेपर भगवान् हरने उसे दोनों वर दे दिये और पिंजरेमें रखे हुए एक तोतेको देकर उस नतमस्तक दैत्यसे कहा- ‘निष्पाप दैत्य! यह तोता तुम्हारे जीवके तुल्य है। तुम इसकी सदा रक्षा करना। असुर ! इसके मर जानेपर तुम्हें यह जानना चाहिये कि मेरी ही मृत्यु हो गयी है।’ उसे इस प्रकार वर देकर रुद्रदेव अन्तर्धान हो गये। इसलिये दुर्गमें तोतेकी मृत्यु हो जानेपर शकुनिका वध होगा ॥ २-८ ॥

नारदजी कहते हैं- यह कहकर वीरोंकी उस सभामें भगवान् देवकीनन्दनने गरुडको शीघ्न बुलाकर हँसते हुए मुखसे कहा ॥ ९ ॥

श्रीभगवान् बोले- परम बुद्धिमान् गरुड! मेरी बात सुनो, तुम चन्द्रावतीपुरीको जाओ। वह पुरी सौ योजन विस्तृत है और दैत्योंकी सेनासे घिरी हुई है। सुवर्ण और रत्नोंसे मनोहर प्रतीत होनेवाले गगनचुम्बी महलों तथा विचित्र उपवनों एवं उद्यानोंसे सुशोभित है। बड़े-बड़े दैत्य उसकी शोभा बढ़ाते हैं। उसके प्रत्येक दुर्गमें और दरवाजोंपर दैत्यपुंगव उसकी रक्षा करते हैं (उस पुरीमें जाकर तुम शकुनिके महलके भीतर पिंजरेमें सुरक्षित तोतेको मार डालो) ॥१०-११॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस पुरीको देखनेके लिये गरुडने सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। वे दैत्योंसे अलक्षित रहकर, अट्टालिकाओं तथा तोलिकाओंका निरीक्षण करते हुए, उड़ उड़कर एक महलसे दूसरे महलमें होते हुए शकुनिके भवनमें जा पहुँचे। दैत्यके जीवस्वरूप शुककी खोज करते हुए गरुडजी क्षणभर वहाँ खड़े रहे। उस समय दैत्यराज शकुनि वहाँ युद्धके लिये कवच धारण किये भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र ले रहा था। उस वीरका हृदय क्रोधसे भरा हुआ था। राजन् ! उसकी स्त्री मदालसा उसकी कमरमें दोनों हाथ डालकर बोली ॥ १२-१५ ॥

मदालसाने कहा- राजन् ! प्राणनाथ! तुम्हारे सारे सुहृद्, अनुकूल चलनेवाले भाई तथा उद्भट दैत्यप्रवर युद्धमें मारे गये। यादवोंके साथ युद्ध करनेके लिये न जाओ; क्योंकि उनके पक्षमें साक्षात् भगवान् श्रीहरि आ गये हैं। उन्हें तत्काल भेंट अर्पित करो, जिससे कल्याणकी प्राप्ति हो ॥ १६-१७ ॥

शकुनि बोला- प्रिये! यादवोंने बलपूर्वक मेरे भाइयों का वध किया है, अतः मैं अपनी सेनाओंद्वारा उन्हें अवश्य मारूँगा। भगवान् शिवके वरदानसे भूतलपर मेरी मृत्यु नहीं होगी। प्रिये! चन्द्रनामक उपद्वीपमें सुन्दर पतंग पर्वतपर इस समय मेरा जीवरूपी शुक विद्यमान है। शङ्खचूड़ नामक सर्प दिन-रात उसकी रक्षा करता है। इस बातको कोई नहीं जानता। फिर मेरी मृत्यु कैसे हो सकती है॥ १८-२० ॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! शुकविषयक वृत्तान्त सुनकर दिव्यवाहन गरुडने वहाँसे चन्द्रनामक उपद्वीपमें जानेका विचार किया। वेगसे उड़ते हुए गरुड समुद्रके तटपर जा पहुँचे और चन्द्रद्वीपकी खोज करते हुए आकाशमें विचरने लगे। शतयोजन विस्तृत एवं भयंकर गर्जना करनेवाले समुद्रपर दृष्टिपात करते हुए पक्षिराज गरुड लतावृन्दसे मनोरम सिंहलद्वीपमें पहुँच गये। वहाँके लोगोंसे गरुडने पूछा- ‘इस स्थानका क्या नाम है?’ उत्तर मिला- ‘सिहलद्वीप।’ तब वहाँसे उड़ते हुए गरुड बड़े वेगसे त्रिकूटपर्वतके शिखरपर बसी हुई लङ्कामें जा पहुँचे। लङ्का जाकर वहाँसे भी उड़े और पाञ्चजन्यद्वीपमें चले गये। पाञ्चजन्यसागरके निकट पहुँचनेपर बलवान् पक्षिराज गरुडको बड़ी भूख लगी। इन्होंने हठात् तीखी चोंच- द्वारा बहुत-से मत्स्य पकड़ लिये। उन्हीं मत्स्योंमें एक बड़ा भारी मगर भी आ गया, जो दो योजन लंबा था। उसने गरुडका एक पैर पकड़ लिया और पानीके भीतर खींचने लगा। गरुड अपना बल लगाकर उसे किनारेकी ओर खींचने लगे। राजन् ! उस समय दो घड़ीतक उन दोनोंमें खींचातानी चलती रही। गरुडका वेग बड़ा प्रचण्ड था। उन्होंने अपनी तीखी चोंचसे उस मगरकी पीठपर इस प्रकार चोट की, मानो यमराजने यमदण्डसे प्रहार किया हो। उसी समय वह मगरका रूप छोड़कर तत्काल एक महान् विद्याधर हो गया। उसने साक्षात् गरुडको मस्तक झुकाया और हँसते हुए कहा ॥ २१-३०॥

विद्याधर बोला- मैं पूर्वकालमें हेमकुण्डल नामक प्रसिद्ध विद्याधर था। एक दिन देवमण्डलमें सम्मिलित हो मैं आकाशगङ्गामें स्नान करनेके लिये गया। वहाँ मुनिश्रेष्ठ ककुत्स्थ पहलेसे स्नान कर रहे थे। हँसी-हँसीमें उनका पैर पकड़कर मैं उन्हें जलके भीतर खींच ले गया। तब ककुत्स्थने मुझे शाप देते हुए कहा-‘दुर्बुद्धे! तू मगर हो जा।’ तब मैंने उन्हें अनुनय विनयसे प्रसन्न किया। वे शीघ्र ही प्रसन्न हो गये और वर देते हुए बोले- ‘गरुडकी चोंचका प्रहार होनेपर तुम मगरकी योनिसे छूट जाओगे।’ सुव्रत ! आज आपकी कृपासे मैं ककुत्स्थ मुनिके शापसे छुटकारा पा गया ॥ ३१-३४ ॥

नारदजी कहते हैं- यों कहकर जब हेमकुण्डल नामक विद्याधर स्वर्गलोकको चला गया, तब गरुड दोनों पाँखोंसे उड़कर वहाँसे व्योममण्डलमें पहुँच गये। वहाँसे वेगपूर्वक उड़ते हुए वे हरिण नामक उपद्वीपमें गये। वहाँ अपान्तरतमा नामक मुनि बड़ी भारी तपस्या करते थे। उनके आश्रममें जानेपर पक्षिराज गरुडकी एक पाँख टूटकर गिर गयी। उसे देखकर अपान्तरतमा नामक मुनि गरुडसे बोले- ‘पक्षिन् ! मेरे मस्तकपर अपनी पाँख रखकर तुम सुखपूर्वक चले जाओ।’ तब गरुड उनके मस्तकपर पाँख रखकर आगे बढ़ गये। अपने ही समान अनेकानेक चन्द्रोपम पंख गरुडने उनके सिरपर देखे। इससे उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। तब अपान्तरतमा मुनि गरुडसे बोले- ‘पक्षिराज ! जब-जब श्रीकृष्णका अवतार होता है, तब-तब सदा गरुडकी एक पाँख यहाँ गिरती है। कल्प-कल्पमें श्रीकृष्णचन्द्रका अवतार होता है और तब-तब मेरे मस्तकपर गरुडका पंख गिरता है। इस प्रकार यहाँ अनन्त पंख पड़े हैं। जो सबके आदि- अन्त बताये जाते हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ॥ ३५-४१ ॥

नारदजी कहते हैं- यह सुनकर गरुड आश्वर्य चकित हो उठे। उन्होंने उन मुनिवरको प्रणाम करके फिर अपनी उड़ान भरी और आकाशमण्डलमें होते हुए वे रमणकद्वीपमें चले गये। वहाँ सर्पोंसे बलि लेकर वे आवर्तकद्वीप में गये और वहाँके सुधाकुण्डमें सुधाका पान करके बलवान् पक्षिराज शुकूद्वीपमें जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने मुझसे चन्द्रद्वीपका पता पूछा। फिर मेरे कहनेसे पक्षी गरुड उत्तर दिशाकी ओर गये। इस तरह वे खगेश्वर चन्द्रद्वीपके पर्वतपर जा पहुँचे। वहाँ विनतानन्दनने जलदुर्ग और अग्रिदुर्ग देखा। मिथिलेश्वर ! बलवान् पक्षिराजने सारे जलदुर्गको अपनी चोंचमें लेकर उसीसे अग्रिदुर्गको बुझा दिया। वहाँ पर्वतीय कन्दराके द्वारपर जो लाखों दैत्य सोये थे, वे उठ खड़े हुए। उनके साथ दो घड़ीतक गरुडका युद्ध चलता रहा। पक्षिराजने युद्धमें अपने पंजोंसे कितने ही राक्षसोंको विदीर्ण कर डाला, किन्हींको पाँखोंसे मारकर धराशायी कर दिया। कुछ दैत्योंको चाँचसे पकड़कर बलवान् पक्षिराजने पर्वतके पृष्ठभागपर पटक दिया और फिर उठाकर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। कुछ मर गये और शेष दैत्य दसों दिशाओंमें भाग गये। इस तरह दैत्योंका संहार करके पक्षिराज गुफामें घुस गये ॥ ४२-५०॥(Vishwajitkhand Chapter 36 to 40)

वहाँ शङ्खचूड़ नामक सर्पके मस्तकपर उन्होंने अपने चमकीले पैरसे आघात किया। शङ्खचूड़ गरुडको देखकर अत्यन्त तिरस्कृत हो पिंजरेके तोतेको पानीमें फेंककर शीघ्र ही वहाँसे पलायन कर गया। राजन् ! गरुडने पिंजरेसहित शुकको तत्काल अपनी चोंचमें लेकर आकाशमें उड़ते हुए युद्धस्थलमें जानेका विचार किया। तबतक भागे हुए दैत्योंका महान् कोलाहल आरम्भ हुआ। नरेश्वर। ‘तोता ले गया, तोता ले गया’ इस प्रकार चिल्लाते हुए उन असुरोंकी आवाज आकाशमें और सम्पूर्ण दिशाओंमें फैल गयी और दैत्यकी सेनाओंके लोगोंने भी इस बातको सुना ॥ ५१-५४॥

स्वर्ग, भूतल एवं समस्त ब्रह्माण्डमें ‘तोता ले गया, तोता ले गया’ की आवाज गूंज उठी। उसे सुनकर असुरोंसहित शकुनि सशङ्क हो गया। वह शूल लेकर तत्काल चन्द्रावतीपुरी से उठा और ‘गरुड तोतेको ले गये हैं’- यह सुनकर रोषपूर्वक उनका पीछा करने लगा। उसने गरुडको अपने शूलसे मारा, तो भी उन्होंने मुखसे तोतेको नहीं छोड़ा। वे सातों समुद्र और सातों द्वीपोंका निरीक्षण करते हुए आगे बढ़ते गये। दैत्यराज शकुनिने प्रत्येक दिशामें और आकाशके भीतर भी उनका पीछा किया। राजन् ! नागान्तक गरुड आकाशमें भ्रमण करते हुए कोटि योजनतक चले गये। दैत्यके त्रिशूलकी मारसे वे क्षत-विक्षत हो गये, तथापि मुखसे तोतेको छोड़ नहीं सके ॥ ५५-५८॥

राजन् । लाख योजन ऊँचे आकाशमें जानेपर पिंजरे सहित शुक पत्थरकी भाँति सुमेरुपर्वतके शिखरपर बड़े वेगसे गिरा। पिंजरा टूट गया और तोतेके प्राण-पखेरू उड़ गये। तदनन्तर गरुड उस महायुद्धमें श्रीकृष्णके पास चले गये। राजन्। दैत्य शकुनि खित्र- चित्त हो चन्द्रावतीपुरीमें लौट गया ॥ ५९-६१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘गरुडका आगमन’ नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४० ॥

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