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श्वेताश्वतर उपनिषद् हिंदी में (शाङ्करभाष्यार्थ)

श्वेताश्वतर उपनिषद् (Shvetashvatara Upanishad in Hindi) भारतीय दर्शन और आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो वेदांत के प्रमुख उपनिषदों में से एक माना जाता है। यह उपनिषद् यजुर्वेद से संबंधित है और इसका नाम संभवतः इसके रचयिता या प्रचारक ऋषि श्वेताश्वतर से लिया गया है। उन्हों ने चतुर्थाश्रमियों को इस विद्याका उपदेश किया था । यह बात इस उपनिषद्‌ के पष्ठ अध्याय के इक्कीसवें मन्त्र से विदित होती है। यह ग्रंथ आत्मा, परमात्मा और विश्व के बीच संबंधों की गहरी व्याख्या करता है। यह उपनिषद् मुख्य रूप से आत्मा (जीव), ब्रह्म (परमात्मा), और जगत (संसार) के रहस्यों पर प्रकाश डालता है। इसमें अद्वैत वेदांत, सांख्य दर्शन और योग के सिद्धांतों का समन्वय किया गया है।

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इसमें ब्रह्म, माया, जीव और ईश्वर के संबंधों की व्याख्या की गई है। यह शिव को ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित करता है और भक्तियोग के महत्व पर बल देता है। इसका नाम ऋषि श्वेताश्वतर के नाम पर पड़ा, जिन्होंने इस उपनिषद् के ज्ञान को अनुभव कर इसे प्रसारित किया। यह उपनिषद् छह अध्यायों में विभाजित है और इसमें कुल 113 मंत्र हैं। आदि शंकराचार्य ने वेदांत की अद्वैत परंपरा को पुष्ट करने के लिए विभिन्न उपनिषदों पर भाष्य लिखा।

श्वेताश्वतर उपनिषद् (Shvetashvatara Upanishad in Hindi) पर भी शंकराचार्य का भाष्य उपलब्ध है, जिसमें वे इसे अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों से व्याख्यायित करते हैं। आदि शंकराचार्य इस उपनिषद् की व्याख्या में स्पष्ट करते हैं कि परम ब्रह्म ही सत्य है, और यह निर्गुण, निर्विशेष और अव्यक्त है। इस उपनिषद् में माया का उल्लेख आता है, जिसे शंकराचार्य अविद्या (अज्ञान) मानते हैं। ब्रह्म के कारण ही यह माया कार्य करती है और जगत उत्पन्न होता है। शंकराचार्य के अनुसार, यह उपनिषद् आत्मा (जीव) और ब्रह्म (परमात्मा) की एकता की पुष्टि करता है।

इस उपनिषद् की शुरुआत ब्रह्म के गूढ़ रहस्यों की चर्चा से होती है। ऋषियों ने यह जानने का प्रयास किया कि इस संसार का वास्तविक कारण क्या है? इस उपनिषद् में कहा गया है कि यह संसार न तो मात्र प्रकृति (सांख्य के अनुसार), न केवल कर्मों का परिणाम है, बल्कि ईश्वर ही इसका आधार है। माया (भ्रम) उसकी शक्ति है, जो इस संसार को जन्म देती है। इस उपनिषद् में आत्म-साक्षात्कार का सबसे श्रेष्ठ मार्ग योग और ध्यान को बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जो व्यक्ति ध्यान, तपस्या, और आत्मसंयम के माध्यम से ईश्वर का चिंतन करता है, वही ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् (Shvetashvatara Upanishad in Hindi) कहता है कि आत्मा और परमात्मा में कोई वास्तविक भेद नहीं है। अज्ञानता के कारण ही हम इसे अलग-अलग मानते हैं। यह ग्रंथ सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को अपनाते हुए प्रकृति (प्रकृति) और चेतना (पुरुष) के बीच संतुलन की बात करता है।आज के युग में, जब लोग तनाव और भौतिकता में उलझे हैं, श्वेताश्वतर उपनिषद् हमें आत्म-चिंतन और शांति की ओर ले जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि सच्चा सुख बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि भीतर की खोज में छिपा है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् न केवल एक दार्शनिक ग्रंथ है, बल्कि एक जीवन जीने की कला भी सिखाता है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन को सादगी, भक्ति और ज्ञान से समृद्ध करें। यदि आप आध्यात्मिकता के इस मार्ग पर चलना चाहते हैं, तो इस उपनिषद् का अध्ययन आपके लिए एक अनमोल उपहार हो सकता है।

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