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Bhagavad Gita Chapter 7 Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 7 Hindi

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय सात

Bhagavad Gita Chapter 7 Hindi

श्रीमद भागवत गीता के सातवे (Bhagavad Gita Chapter 7 Hindi) अध्याय को ज्ञानविज्ञानयोग कहा गया हे। श्रीमद भागवत गीताके अध्याय सात में विज्ञान सहित ज्ञान का विषय,इश्वर की व्यापकता का वर्णन, संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथा वर्णन, आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा का वर्णन, अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल प्राप्त का वर्णन और भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जाननेवालों की महिमा कैसे होती हे उसका सम्पूर्ण वर्णन हे।

Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi

 

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥

sri bhagavanuvaca

mayyasaktamanah partha yogan yunjanmadasrayah.
asansayan samagran man yatha jnasyasi tacchrnu৷৷7.1৷৷

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

 

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

jnanan te.han savijnanamidan vakoyamyaseoatah.
yajjnatva neha bhuyo.nyajjnatavyamavasioyate৷৷7.2৷৷

भावार्थ : मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता॥2॥

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥

manuoyanan sahasreou kasicadyatati siddhaye.
yatatamapi siddhanan kasicanman vetti tattvatah৷৷7.3৷৷

भावार्थ : हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है॥3॥

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥

bhumirapo.nalo vayuh khan mano buddhireva ca.
ahankara itiyan me bhinna prakrtiraoṭadha৷৷7.4৷৷
apareyamitastvanyan prakrtin viddhi me param.
jivabhutan mahabaho yayedan dharyate jagat৷৷7.5৷৷

भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान॥4-5॥

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥

etadyonini bhutani sarvanityupadharaya.
ahan krtsnasya jagatah prabhavah pralayastatha৷৷7.

भावार्थ : हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ॥6॥

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥

mattah parataran nanyatkincidasti dhananjaya.
mayi sarvamidan protan sutre manigana iva৷৷7.7৷৷

भावार्थ : हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है॥7॥

श्रीभगवानुवाच

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥

raso.hamapsu kaunteya prabhasmi sasisuryayoh.
pranavah sarvavedeou sabdah khe pauruoan nrou৷৷7.8৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ॥8॥

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥

punyo gandhah prthivyan ca tejascasmi vibhavasau.
jivanan sarvabhuteou tapascasmi tapasviou৷৷7.9৷৷

भावार्थ : मैं पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ॥9॥

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥

bijan man sarvabhutanan viddhi partha sanatanam.
buddhirbuddhimatamasmi tejastejasvinamaham৷৷7.10৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ॥10॥

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥

balan balavatamasmi kamaragavivarjitam.
dharmaviruddho bhuteou kamo.smi bharataroabha৷৷7.11৷৷

भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ॥11॥

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥

ye caiva sattvika bhava rajasastamasasca ye.
matta eveti tanviddhi natvahan teou te mayi৷৷7.12৷৷

भावार्थ : और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होने वाले हैं’ ऐसा जान, परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं॥12॥

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥

tribhirgunamayairbhavairebhih sarvamidan jagat.
mohitan nabhijanati mamebhyah paramavyayam৷৷7.13৷৷

भावार्थ : गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता॥13॥

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥

daivi hyeoa gunamayi mama maya duratyaya.
mameva ye prapadyante mayametan taranti te৷৷7.14৷৷

भावार्थ : क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।

श्री कृष्ण ने कहते है कि माया उनकी ऊर्जा है, इसलिए इस पर काबू पाना कठिन है। यदि कोई दावा करता है कि उसने माया को हरा दिया है, तो इसका मतलब होगा कि उसने भगवान को हरा दिया है। कोई भी ईश्वर को जीत नहीं सकता; इसलिए, माया भी उतनी ही अजेय है। मानव मन केवल स्व-प्रयास से माया से बना है, कोई भी योगी , ज्ञानी, तपस्वी या कर्मी मन को सफलतापूर्वक नियंत्रित नहीं कर सकता है।

श्री कृष्ण कहते हैं, “जो लोग खुद को मुझ परम भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं, वे मेरी कृपा से आसानी से भौतिक अस्तित्व के सागर को पार कर जाएंगे। मैं माया को निर्देश दूँगा कि वह इस आत्मा को छोड़ दे, क्योंकि अब यह मेरी हो गई है।” भगवान के निर्देश पर माया, भगवान की भौतिक ऊर्जा, समर्पित आत्मा को आसानी से अपने चंगुल से मुक्त कर देती है। इसमें कहा गया है, “मेरा काम आत्मा को तब तक परेशान करते रहना है जब तक वह भगवान के चरणों में समर्पित न हो जाए; एक बार आत्मा वहां पहुंच गई तो मेरा काम पूरा हो गया।

हम अपने प्रयासों से माया को नहीं हरा सकते; केवल जब हम पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो उनकी कृपा से, हम भौतिक अस्तित्व के सागर को पार कर सकते हैं।॥14॥

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥

na man duokrtino muḍhah prapadyante naradhamah.
mayayapahrtajnana asuran bhavamasritah৷৷7.15৷৷

भावार्थ : माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥15॥

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

caturvidha bhajante man janah sukrtino.rjuna.
arto jijnasurartharthi jnani ca bharataroabha৷৷7.16৷৷

भावार्थ : हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं॥16॥

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥

teoan jnani nityayukta ekabhakitarvisioyate.
priyo hi jnanino.tyarthamahan sa ca mama priyah৷৷7.17৷৷

भावार्थ : उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥17॥

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥

udarah sarva evaite jnani tvatmaiva me matam.
asthitah sa hi yuktatma mamevanuttaman gatim৷৷7.18৷৷

भावार्थ : ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है॥18॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- सम्पूर्ण गीता माहात्म्य बुक

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

bahunan janmanamante jnanavanman prapadyate.
vasudevah sarvamiti sa mahatma sudurlabhah৷৷7.19৷৷

भावार्थ : बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥19॥

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥

kamaistaistairhrtajnanah prapadyante.nyadevatah.
tan tan niyamamasthaya prakrtya niyatah svaya৷৷7.20৷৷

भावार्थ : उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं॥20॥

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥

yo yo yan yan tanun bhaktah sraddhayarcitumicchati.
tasya tasyacalan sraddhan tameva vidadhamyaham৷৷7.21৷৷

भावार्थ : जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ॥21॥

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥

sa taya sraddhaya yuktastasyaradhanamihate.
labhate ca tatah kamanmayaiva vihitan hi tan৷৷7.22৷৷

भावार्थ : वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है॥22॥

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥

(Bhagavad Gita Chapter 7 Hindi)

antavattu phalan teoan tadbhavatyalpamedhasam.
devandevayajo yanti madbhakta yanti mamapi৷৷7.23৷৷

भावार्थ : परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥23॥

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥

avyaktan vyakitamapannan manyante mamabuddhayah.
paran bhavamajananto mamavyayamanuttamam৷৷7.24৷৷

भावार्थ : बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं॥24॥

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥

nahan prakasah sarvasya yogamayasamavrtah.
muḍho.yan nabhijanati loko mamajamavyayam৷৷7.25৷৷

भावार्थ : अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है॥25॥

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥

vedahan samatitani vartamanani carjuna.
bhavioyani ca bhutani man tu veda na kascana৷৷7.26৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता॥26॥

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥

icchadveoasamutthena dvandvamohena bharata.
sarvabhutani sanmohan sarge yanti parantapa৷৷7.27৷৷

भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वंद्वरूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं॥27॥

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥

(Bhagavad Gita Chapter 7 Hindi)

yeoan tvantagatan papan jananan punyakarmanam.
te dvandvamohanirmukta bhajante man drḍhavratah৷৷7.28৷৷

भावार्थ : परन्तु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्व रूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं॥28॥

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥

jaramaranamokoaya mamasritya yatanti ye.
te brahma tadviduh krtsnamadhyatman karma cakhilam৷৷7.29৷৷

भावार्थ : जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं॥29॥

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥

sadhibhutadhidaivan man sadhiyajnan ca ye viduh.
prayanakale.pi ca man te viduryuktacetasah৷৷7.30৷৷

भावार्थ : जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव सहित तथा अधियज्ञ सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं॥30॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का अध्याय आठ

अध्याय सात संपूर्णम्

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