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Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय छठा

Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi

श्रीमद भागवत गीता के छठे (Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi) अध्याय को आत्मसंयमयोग कहा गया हे। भगवद गीता के छठे अध्याय मे कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग कामहत्व, आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांतसाधना का महत्व, आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार, विस्तार से ध्यान योग का विषय, मन के निग्रह का विषय, योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा का वर्णन बताया गया हे।

Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi

 

श्रीभगवानुवाच

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

sri bhagavanuvaca

anasritah karmaphalan karyan karma karoti yah.
sa sannyasi ca yogi ca na niragnirna cakriyah৷৷6.1৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है॥1॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

 

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥

yan sannyasamiti prahuryogan tan viddhi pandava.
na hyasannyastasankalpo yogi bhavati kascana৷৷6.2৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता॥2॥

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥

aruruksormuneryogan karma karanamucyate.
yogarudhasya tasyaiva samah karanamucyate৷৷6.3৷৷

भावार्थ : योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है॥3॥

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥

yada hi nendriyarthesu na karmasvanusajjate.
sarvasankalpasannyasi yogarudhastadocyate৷৷6.4৷৷

भावार्थ : जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है॥4॥

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

(Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi)

uddharedatmana৷৷tmanan natmanamavasadayet.
atmaiva hyatmano bandhuratmaiva ripuratmanah৷৷6.5৷৷

भावार्थ : अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है की प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयास से खुद को ऊपर उठाना चाहिए। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, अपने भाग्य का संचालक स्वयं है। जो खुद की मदद करता है उसकी भगवान भी मदद करता है। कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो, किसी व्यक्ति को मुक्ति की ओर नहीं ले जा सकता यदि वह स्वयं पर कृपा नहीं दिखाता।

शास्त्र और गुरु हमें रास्ता दिखाते हैं, लेकिन हमें उस रास्ते पर खुद चलना होता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शास्त्रों और गुरु के निर्देशों का पालन करते हुए लगन से काम करना चाहिए। अंततः, यह स्वयं ही है जो स्वयं का एहसास करता है।

जब हम आध्यात्मिक विकास के पथ पर उलटफेर झेलते हैं, तो हम शिकायत करते हैं कि दूसरों ने हमारे लिए विनाश किया है, और वे हमारे दुश्मन हैं। हालाँकि, हमारा सबसे बड़ा दुश्मन हमारा अपना दिमाग है। यह तोड़फोड़ करने वाला है जो पूर्णता की हमारी आकांक्षाओं को विफल करता है। श्री कृष्ण कहते हैं कि, एक ओर, आत्मा के सबसे बड़े परोपकारी के रूप में, मन में हमें सबसे अधिक लाभ देने की क्षमता है; दूसरी ओर, हमारे सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी के रूप में, इसमें अधिकतम नुकसान पहुंचाने की भी क्षमता है।॥5॥

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥

bandhuratma৷৷tmanastasya yenatmaivatmana jitah.
anatmanastu satrutve vartetatmaiva satruvat৷৷6.6৷৷

भावार्थ : जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।

हम अपनी विचार शक्ति और ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों से लड़ने में बर्बाद कर देते हैं जिन्हें हम दुश्मन मानते हैं। वैदिक शास्त्र कहते हैं कि सबसे बड़े दुश्मन- काम, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, भ्रम, आदि- हमारे अपने मन में रहते हैं। ये आंतरिक शत्रु बाहरी शत्रुओं से भी अधिक खतरनाक हैं। बाहरी राक्षस हमें कुछ समय के लिए घायल कर सकते हैं, लेकिन हमारे मन के भीतर बैठे राक्षस हमें निरंतर दुर्गति में जीने की शक्ति रखते हैं।

वश में किया हुआ और नियंत्रण में रखा हुआ मन ही व्यक्ति को शाश्वत शांति की ओर ले जाने वाला सबसे बड़ा मित्र है। फिर भी, वासना और लालच से भरा अशांत मन विनाश की ओर ले जाता है। इसलिए आध्यात्मिक प्रगति के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है। इस संदर्भ में आत्मा शब्द इंद्रियों और शारीरिक अंगों सहित मन को संदर्भित करता है।॥6॥

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥

jitatmanah prasantasya paramatma samahitah.
sitosnasukhaduhkhesu tatha manapamanayoh৷৷6.7৷৷

भावार्थ : सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं॥7॥

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥

jnanavijnanatrptatma kutastho vijitendriyah.
yukta ityucyate yogi samalostasmakancanah৷৷6.8৷৷

भावार्थ : जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है॥8॥

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥

suhrnmitraryudasinamadhyasthadvesyabandhusu.
sadhusvapi ca papesu samabuddhirvisisyate৷৷6.9৷৷

भावार्थ : सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है॥9॥

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥

yogi yunjita satatamatmanan rahasi sthitah.
ekaki yatacittatma nirasiraparigrahah৷৷6.10৷৷

भावार्थ : मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥

sucau dese pratisthapya sthiramasanamatmanah.
natyucchritan natinican cailajinakusottaram৷৷6.11৷৷

भावार्थ : शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके॥11॥

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥

tatraikagran manah krtva yatacittendriyakriyah.
upavisyasane yunjyadyogamatmavisuddhaye৷৷6.12৷৷

भावार्थ : उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥

saman kayasirogrivan dharayannacalan sthirah.
sanpreksya nasikagran svan disascanavalokayan৷৷6.13৷৷

भावार्थ : काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ॥13॥

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥

prasantatma vigatabhirbrahmacarivrate sthitah.
manah sanyamya maccitto yukta asita matparah৷৷6.14৷৷

भावार्थ : ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए॥14॥

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥

yunjannevan sada৷৷tmanan yogi niyatamanasah.
santin nirvanaparaman matsansthamadhigacchati৷৷6.15৷৷

भावार्थ : वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की
पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है॥15॥

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥

natyasnatastu yogo.sti na caikantamanasnatah.
na catisvapnasilasya jagrato naiva carjuna৷৷6.16৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! वास्तव में, योग उस व्यक्ति के लिए नहीं है जो बहुत अधिक खाता है या जो बिल्कुल नहीं खाता है, न ही उसके लिए जो बहुत अधिक सोता है या जो बिल्कुल नहीं सोता है।

श्रीकृष्ण पालन करने के लिए कुछ नियम देते हैं। उनका कहना है कि जो लोग शारीरिक देखरेख के नियमों को तोड़ते हैं वे योग में सफल नहीं हो सकते। भोजन और नींद में संयम सभी साधकों के लिए योग की शर्त है, चाहे वे किसी भी मार्ग का अनुसरण करें। विशेषकर ध्यान योग में इसका बहुत अधिक महत्व है। जब तक शरीर हल्का और मजबूत न हो, ध्यान का अभ्यास करना कठिन है। अत: भोजन और निद्रा का नियमन योग की पहली शर्त बताई गई है।

यदि शरीर को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह स्वयं आध्यात्मिक प्राप्ति में मुख्य बाधा है। दर्द से ग्रस्त एक रुग्ण शरीर मन को अपने और अपनी पीड़ा से बांध लेता है और उसे विचार और ध्यान के स्तर तक उठने नहीं देता है।

नींद में संयम का भी बहुत महत्व है। बहुत अधिक नींद ‘तमस’ उत्पन्न करती है और मनुष्य की सभी आसुरी शक्तियां उस अवस्था में मुक्त खेल पाती हैं। फिर भी, नींद न आने से नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता है और मनुष्य किसी भी तरह के काम के लिए अयोग्य हो जाता है, ध्यान के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।॥16॥

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥

yuktaharaviharasya yuktacestasya karmasu.
yuktasvapnavabodhasya yogo bhavati duhkhaha৷৷6.17৷৷

भावार्थ : दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥17॥

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥

yada viniyatan cittamatmanyevavatisthate.
nihsprhah sarvakamebhyo yukta ityucyate tada৷৷6.18৷৷

भावार्थ : अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है॥18॥

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥

yatha dipo nivatastho nengate sopama smrta.
yogino yatacittasya yunjato yogamatmanah৷৷6.19৷৷

भावार्थ : जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥19॥

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥

yatroparamate cittan niruddhan yogasevaya.
yatra caivatmana৷৷tmanan pasyannatmani tusyati৷৷6.20৷৷

भावार्थ : योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है॥20॥

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥

sukhamatyantikan yattadbuddhigrahyamatindriyam.
vetti yatra na caivayan sthitascalati tattvatah৷৷6.21৷৷

भावार्थ : इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं॥21॥

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥

yan labdhva caparan labhan manyate nadhikan tatah.
yasminsthito na duhkhena gurunapi vicalyate৷৷6.22৷৷

भावार्थ : परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥

tan vidyad duhkhasanyogaviyogan yogasanjnitam.
sa niscayena yoktavyo yogo.nirvinnacetasa৷৷6.23৷৷

भावार्थ : जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है॥23॥

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥

sankalpaprabhavankamanstyaktva sarvanasesatah.
manasaivendriyagraman viniyamya samantatah৷৷6.24৷৷

भावार्थ : संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर॥24॥

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥

sanaih sanairuparamed buddhya dhrtigrhitaya.
atmasansthan manah krtva na kincidapi cintayet৷৷6.25৷৷

भावार्थ : क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे॥25॥

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥

yato yato niscarati manascancalamasthiram.
tatastato niyamyaitadatmanyeva vasan nayet৷৷6.26৷৷

भावार्थ : यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे।

मन बेचैन और अस्थिर रहता है। प्रारंभ में, यह कभी भी ध्यान के विषय पर स्थिर नहीं होता है। वह भाग जाता है और सांसारिक जीवन की हजारों चीजों के बारे में सोचने लगता है। भगवान यहां साधक को मन को बार-बार वापस लाने और उसे आत्मा में स्थिर करने की सलाह देते हैं। यह अभ्यास तब तक जारी रहना चाहिए जब तक मन आत्मा से भटक जाए। लेकिन जब तक मन भोग की वस्तुओं की ओर प्रलोभित है, तब तक वह स्वाभाविक रूप से उनके पीछे भागेगा।

अत: मनुष्य को सांसारिक भोगों के दुःखदायी स्वरूप को समझने के लिए मन को प्रबुद्ध करना चाहिए। जब मन इस प्रकार उनकी व्यर्थता और दुखद चरित्र को समझ लेता है, तो वह उनके पीछे नहीं भागता। जैसे ही मन आत्मा में विश्राम करता है, वह शांति के उच्च आनंद का अनुभव करता है, और फिर वह आत्मा से दूर नहीं भटकता।॥26॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- सम्पूर्ण सरल गीता सार बुक

 

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥

prasantamanasan hyenan yoginan sukhamuttamam.
upaiti santarajasan brahmabhutamakalmasam৷৷6.27৷৷

भावार्थ : क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है॥27॥

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥

yunjannevan sada৷৷tmanan yogi vigatakalmasah.
sukhena brahmasansparsamatyantan sukhamasnute৷৷6.28৷৷

भावार्थ : वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है॥28॥

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥

sarvabhutasthamatmanan sarvabhutani catmani.
iksate yogayuktatma sarvatra samadarsanah৷৷6.29৷৷

भावार्थ : सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है॥29॥

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

yo man pasyati sarvatra sarvan ca mayi pasyati.
tasyahan na pranasyami sa ca me na pranasyati৷৷6.30৷৷

भावार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।

भगवान कृष्ण सभी में परमात्मा हैं, और इसलिए सार्वभौमिक दृष्टि वाला योगी भगवान को हर जगह और हर चीज को भगवान में देखता है। जब व्यक्ति आत्मा के साथ एक हो जाता है, तो व्यक्ति और सर्वोच्च स्व एक साथ रहते हैं। कोई दूसरे से कैसे हार सकता है? यहां ‘ पश्यति ‘ शब्द का अर्थ भौतिक आंखों से देखना नहीं है। देखना स्वयं को सर्वत्र अनुभव करना है।

मान लीजिए कि कोई हमें दुःख पहुँचाता है। जो कोई हमें हानि पहुँचाता है उसके प्रति आक्रोश, घृणा आदि की भावनाएँ विकसित करना मन का स्वभाव है। हालाँकि, यदि हम ऐसा होने देते हैं, तो हमारा मन दैवीय क्षेत्र से दूर हो जाता है, और भगवान के साथ हमारे मन का भक्तिपूर्ण मिलन समाप्त हो जाता है। इसके बजाय, यदि हम उस व्यक्ति में परमेश्वर को बैठे हुए देखते हैं, तो हम सोचेंगे, “भगवान इस व्यक्ति के माध्यम से मेरी परीक्षा ले रहे हैं। वह चाहता है कि मुझमें सहनशीलता का गुण बढ़े और इसीलिए वह इस व्यक्ति को मेरे साथ बुरा व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर रहा है।॥30॥

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥

sarvabhutasthitan yo man bhajatyekatvamasthitah.
sarvatha vartamano.pi sa yogi mayi vartate৷৷6.31৷৷

भावार्थ : जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है॥31॥

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

atmaupamyena sarvatra saman pasyati yo.rjuna.
sukhan va yadi va duhkhan sah yogi paramo matah৷৷6.32৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है की मुझे प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले सभी मनुष्यों! दूसरों से वैसा ही प्रेम करें जैसा आप स्वयं से करते हैं, दूसरों के लिए वैसा ही महसूस करें जैसा आप अपने लिए महसूस करते हैं। दया और करुणा से परिपूर्ण रहो, और केवल तभी तुम मेरे साथ एक होगे।” ‘सब कुछ ब्रह्म है’ का कोई अर्थ नहीं है यदि मनुष्य का हृदय दूसरों के दुखों और सुखों के प्रति बंद रहे। मनुष्य को दूसरों के साथ अपनी पहचान बनाने और उनके सुख-दुख में भागीदार बनने में सक्षम होना चाहिए।

सभी धर्मों में सिखाया गया मनुष्य का भाईचारा अच्छा है। लेकिन यहाँ, सत्य का विस्तार समस्त सृष्टि को समाहित करने के लिए किया गया है। गीता और उपनिषद हर चीज में सर्वोच्च भगवान की उपस्थिति से पूरे ब्रह्मांड की एकता की घोषणा करते हैं। गीता की शिक्षाओं ने न केवल मनुष्य-मनुष्य के बीच, बल्कि मनुष्य और अन्य सभी प्राणियों के बीच की सभी बाधाओं को तोड़ दिया है।

योगी को सर्वत्र एक ही आत्मा को देखना चाहिए। वह सर्वश्रेष्ठ योगियों में से एक हैं जिन्होंने ब्रह्मांड के प्रत्येक प्राणी के साथ यह घनिष्ठ सबंध अभेद प्राप्त कर लिया है।॥32॥

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥

arjuna uvaca

yo.yan yogastvaya proktah samyena madhusudana.
etasyahan na pasyami cancalatvat sthitin sthiram৷৷6.33৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ॥33॥

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥

cancalan hi manah krsna pramathi balavaddrdham.
tasyahan nigrahan manye vayoriva suduskaram৷৷6.34৷৷

भावार्थ : क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ॥34॥

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥

(Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi)

sri bhagavanuvaca

asansayan mahabaho mano durnigrahan calan.
abhyasena tu kaunteya vairagyena ca grhyate৷৷6.35৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है।

भगवान यहाँ स्वीकार करते हैं कि मन की चंचल प्रकृति के कारण उसे नियंत्रित करने का कार्य बहुत कठिन है। लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है. इसे अभ्यास और वैराग्य से नियंत्रित किया जा सकता है। भगवान चाहते हैं कि उनका शिष्य भयभीत न हो और मन के अत्याचार के आगे न झुके। कठिन होते हुए भी यह असंभव नहीं है।

वैराग्य वस्तुगत जगत के प्रति उसकी अल्पकालिक, कष्टकारी और दूषित प्रकृति के ज्ञान से उत्पन्न घृणित रवैया। संसार में प्रत्येक वस्तु भय का कारण बनती है और केवल वैराग्य में ही अभय है। जब वैराग्य विकसित होता है, तो मन तुरंत बाहरी दुनिया के बारे में सोचना बंद कर देता है और वह तुरंत स्वयं में आ जाता है। वैराग्य का आनंद वास्तविक, अबाधित और बारहमासी है क्योंकि यह स्वयं का आनंद है, शुद्ध और निर्मल।

साधकों के लिए अभ्यास एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है । मानव प्रयास के सभी क्षेत्रों में, अभ्यास वह कुंजी है जो निपुणता और उत्कृष्टता का द्वार खोलती है। अभ्यास के माध्यम से जिद्दी और अशांत मन को परम भगवान के चरण कमलों पर विश्राम कराना होता है । मन को संसार से दूर ले जाओ – यही वैराग्य है – और मन को ईश्वर पर टिका दो – यही हैअभ्यास।॥35॥

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥

asanyatatmana yogo dusprapa iti me matih.
vasyatmana tu yatata sakyo.vaptumupayatah৷৷6.36৷৷

भावार्थ : जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है॥36॥

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥

(Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi)

arjuna uvaca

ayatih sraddhayopeto yogaccalitamanasah.
aprapya yogasansiddhin kan gatin krsna gacchati৷৷6.37৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है॥37॥

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥

kaccinnobhayavibhrastaschinnabhramiva nasyati.
apratistho mahabaho vimudho brahmanah pathi৷৷6.38৷৷

भावार्थ : हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?॥38॥

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥

etanme sansayan krsna chettumarhasyasesatah.
tvadanyah sansayasyasya chetta na hyupapadyate৷৷6.39৷৷

भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है॥39॥

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥

sri bhagavanuvaca

partha naiveha namutra vinasastasya vidyate.
nahi kalyanakrtkasicaddurgatin tata gacchati৷৷6.40৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता॥40॥

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥

prapya punyakrtan lokanusitva sasvatih samah.
sucinan srimatan gehe yogabhrasto.bhijayate৷৷6.41৷৷

भावार्थ : योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है॥41॥

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥

(Bhagavad Gita Chapter 6 Hindi)

athava yoginameva kule bhavati dhimatam.
etaddhi durlabhataran loke janma yadidrsam৷৷6.42৷৷

भावार्थ : अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है॥42॥

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥

tatra tan buddhisanyogan labhate paurvadehikam.
yatate ca tato bhuyah sansiddhau kurunandana৷৷6.43৷৷

भावार्थ : वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है॥43॥

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥

purvabhyasena tenaiva hriyate hyavaso.pi sah.
jijnasurapi yogasya sabdabrahmativartate৷৷6.44৷৷

भावार्थ : वह श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है॥44॥

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम् ॥

prayatnadyatamanastu yogi sansuddhakilbisah.
anekajanmasansiddhastato yati paran gatim৷৷6.45৷৷

भावार्थ : परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है॥45॥

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥

tapasvibhyo.dhiko yogi jnanibhyo.pi mato.dhikah.
karmibhyascadhiko yogi tasmadyogi bhavarjuna৷৷6.46৷৷

भावार्थ : योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो॥46॥

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥

yoginamapi sarvesan madgatenantaratmana.
sraddhavanbhajate yo man sa me yuktatamo matah৷৷6.47৷৷

भावार्थ : सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है॥47॥

 

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अध्याय छठा संपूर्णम्

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