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Bhagavad Gita Chapter 5 Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 5 Hindi

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय पाँच

Bhagavad Gita Chapter 5 Hindi

श्रीमद भागवत गीता का अध्याय (Bhagavad Gita Chapter 5 Hindi) पांच को कर्मसंन्यासयोग कहा गया हे। भगवद गीता पांचवा अध्याय मे ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोगकी वरीयता, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा, ज्ञानयोग का विषय, और भक्ति सहित ध्यानयोग तथा भय, क्रोध, यज्ञ आदि का वर्णन बताया गया हे।

श्रीमद भागवत गीता के पांचवे अध्याय मे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, भय, क्रोध, यज्ञ यह सभी समझते हुए उपदेश दिया हे।

Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi

 

अर्जुन उवाच

सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥

arjuna uvaca

sannyasan karmanan krsna punaryogan ca sansasi.
yacchreya etayorekan tanme bruhi sunisicatam৷৷5.1৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिए इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिए॥1॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

 

श्रीभगवानुवाच

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥

sri bhagavanuvaca

sannyasah karmayogasca nihsreyasakaravubhau.
tayostu karmasannyasatkarmayogo visisyate৷৷5.2৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है॥2॥

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥

jneyah sa nityasannyasi yo na dvesti na kanksati.
nirdvandvo hi mahabaho sukhan bandhatpramucyate৷৷5.3৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है॥3॥

साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥

sankhyayogau prthagbalah pravadanti na panditah.
ekamapyasthitah samyagubhayorvindate phalam৷৷5.4৷

भावार्थ : उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्-पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है॥4॥

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥

yatsankhyaih prapyate sthanan tadyogairapi gamyate.
ekan sankhyan ca yogan ca yah pasyati sa pasyati৷৷5.5৷৷

भावार्थ : ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है॥5॥

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥

sannyasastu mahabaho duhkhamaptumayogatah.
yogayukto munirbrahma nacirenadhigacchati৷৷5.6৷৷

भावार्थ : परन्तु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है॥6॥

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥

yogayukto visuddhatma vijitatma jitendriyah.
sarvabhutatmabhutatma kurvannapi na lipyate৷৷5.7৷৷

भावार्थ : जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता॥7॥

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥

Bhagavad Gita Chapter 5 Hindi

naiva kincitkaromiti yukto manyeta tattvavit.
pasyan srrnavansprsanjighrannasnangacchansvapan svasan৷৷5.8৷৷
pralapanvisrjangrhnannunmisannimisannapi.
indriyanindriyarthesu vartanta iti dharayan৷৷5.9৷৷

भावार्थ : तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ॥8-9॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ भागवत पुराण हिंदी मे

 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥

brahmanyadhaya karmani sangan tyaktva karoti yah.
lipyate na sa papena padmapatramivambhasa৷৷5.10৷৷

भावार्थ : जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।

श्री कृष्ण ने कर्मयोग के सिद्धांत को पुनः निरूपित किया गया है। सभी कर्मों को शाश्वत में समर्पित कर देना चाहिए, और उनके फल के प्रति सभी व्यक्तिगत आसक्तियों को छोड़ देना चाहिए। व्यक्तिगत कर्तापन की भावना नहीं होनी चाहिए। ऐसे कार्यकर्ता पर पाप का प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे कमल का पत्ता पानी में है, फिर भी पानी के इधर-उधर लुढ़कने से उस पर कोई दाग नहीं पड़ता। इसी प्रकार, कर्मयोग में पारंगत व्यक्ति हजारों कार्यों में लगा रहता है, लेकिन वह किसी भी तरह से पाप से प्रभावित या दूषित नहीं होता है।

उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है, उससे वह जानता है कि सभी वस्तुएं और क्रियाएं सर्वोच्च ब्रह्म में प्रतिबिंबित छवियां हैं। अत: उसके लिए कोई इच्छा या आसक्ति नहीं है। कर्म की पीड़ा से बचकर, वे मानवता के आध्यात्मिक प्रगति के लिए काम करते हैं। वे स्वतंत्र हैं क्योंकि वे सत्य को जानते हैं, और उन्होंने सब कुछ भगवान या शाश्वत ब्रह्म को समर्पित कर दिया है।॥10॥

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥

kayena manasa buddhya kevalairindriyairapi.
yoginah karma kurvanti sangan tyaktva৷৷tmasuddhaye৷৷5.11৷৷

भावार्थ : कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं॥11॥

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥

yuktah karmaphalan tyaktva santimapnoti naisthikim.
ayuktah kamakarena phale sakto nibadhyate৷৷5.12৷৷

भावार्थ : कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है॥12॥

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥

sarvakarmani manasa sannyasyaste sukhan vasi.
navadvare pure dehi naiva kurvanna karayan৷৷5.13৷৷

भावार्थ : अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है॥13॥

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।

na kartrtvan na karmani lokasya srjati prabhuh.
na karmaphalasanyogan svabhavastu pravartate৷৷5.14৷৷

भावार्थ : परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है॥14॥

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥

nadatte kasyacitpapan na caiva sukrtan vibhuh.
ajnanenavrtan jnanan tena muhyanti jantavah৷৷5.15৷৷

भावार्थ : सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं॥15॥

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥

jnanena tu tadajnanan yesan nasitamatmanah.
tesamadityavajjnanan prakasayati tatparam৷৷5.16৷৷

भावार्थ : परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है॥16॥

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥

tadbuddhayastadatmanastannisthastatparayanah.
gacchantyapunaravrttin jnananirdhutakalmasah৷৷5.17৷৷

भावार्थ : जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं॥17॥

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥

vidyavinayasanpanne brahmane gavi hastini.
suni caiva svapake ca panditah samadarsinah৷৷5.18৷৷

भावार्थ : वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि कैसे दिव्य ज्ञान भौतिक दृष्टि से भिन्न दृष्टि प्रदान करता है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेने पर, भक्त सभी जीवित प्राणियों को आत्मा के रूप में देखते हैं। इसलिए वे एक वस्तु से दूसरी वस्तु के बीच कोई अंतर नहीं करते हैं। इसलिए उनमें ऊँच-नीच, जाति-पंथ आदि के भेदभाव के बिना सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा है।

प्रत्येक व्यक्ति चीज़ों को एक विशेष दृष्टिकोण से देख रहा है। सबसे अज्ञानी व्यक्ति वस्तुओं को केवल भौतिक स्तर से देखता है। इसलिए वह शारीरिक भेदों के अनुसार ही प्रसन्न या अप्रसन्न होते हैं।

दूसरे वर्ग के व्यक्ति वस्तुओं को मानसिक स्तर से देखते हैं। वे मनुष्य के चरित्र, उसकी मानसिक बनावट, उसकी बौद्धिक शक्तियों और उसमें प्रदर्शित अन्य प्रतिभाओं पर विचार करते हैं। यह उच्चतम वर्ग के लोग सभी चीजों को आध्यात्मिक स्तर से देखते हैं, और वे हर किसी में ईश्वर या वास्तविकता को पाते हैं। उनकी दृष्टि एक ब्रह्म (आत्मा) की है जो सभी चीजों का सार है।॥18॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- सम्पूर्ण सरल गीता सार बुक

 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥

ihaiva tairjitah sargo yesan samye sthitan manah.
nirdosan hi saman brahma tasmadbrahmani te sthitah৷৷5.19৷৷

भावार्थ : जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं।

मन ही बंधन या मुक्ति का कारण है। यदि मन भ्रष्ट और असंतुलित है तो यह बंधन है। यदि मन शुद्ध और समान है, तो यह स्वतंत्रता है। इसलिए भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन को शुद्ध और संतुलित रखता है वह संसार के बंधन पर विजय प्राप्त कर लेता है।

जो कोई भी आत्मा के इन गुणों को प्राप्त कर लेता है उसका जीवन और अस्तित्व आत्मा में ही होता है। जैसे चीजें एक साथ मिलती हैं न कि चीजों से अलग। पानी पानी में मिल जाता है, तेल में नहीं। तेल तेल में मिलता है, दूध में नहीं। इसलिए आत्मा बनने के लिए व्यक्ति को आत्म धर्म का पालन करना चाहिए। यहां आत्म धर्म के रूप में दो विशेषताओं का उल्लेख किया गया है पवित्रता और संतुलन। जब ये गुण प्राप्त हो जाते हैं तो मनुष्य को ब्रह्म का बोध हो जाता है।

इस शरीर में रहते हुए ही स्वतंत्रता की उच्चतम अवस्था प्राप्त की जा सकती है। यह पीड़ित मानवता के लिए सबसे बड़ी आशा देता है। मृत्यु के बाद उनकी मुक्ति नहीं होती। यह यहीं और अभी उस साधक को प्राप्त होता है जिसका मन स्वतंत्र और संतुलित है।॥19॥

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥

na prahrsyetpriyan prapya nodvijetprapya capriyam.
sthirabuddhirasammudho brahmavidbrahmani sthitah৷৷5.20৷৷

भावार्थ : जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है॥20॥

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥

bahyasparsesvasaktatma vindatyatmani yatsukham.
sa brahmayogayuktatma sukhamaksayamasnute৷৷5.21৷৷

भावार्थ : बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है॥21॥

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥

(Bhagavad Gita Chapter 5 Hindi)

ye hi sansparsaja bhoga duhkhayonaya eva te.
adyantavantah kaunteya na tesu ramate budhah৷৷5.22৷৷

भावार्थ : जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।

इंद्रिय विषयों से प्राप्त आनंद वास्तविक और स्थायी नहीं है। वे ऊपरी तौर पर तो सुख देते प्रतीत होते हैं, लेकिन उनमें पीड़ा और दुख के बीज और रोगाणु मौजूद होते हैं। इसलिए भगवान उनका वर्णन दुःख के रूप में करते हैं। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि बाहर से प्राप्त सुख एक बूंद मात्र है और उससे पर्वत के समान विशाल कष्ट उत्पन्न होता है। चूँकि ये सुख अल्पकालिक और बेकार हैं, इसलिए बुद्धिमानों को उनमें कोई रुचि नहीं रखनी चाहिए।

इंद्रिय-सुख अपने गर्भ में दुख और पीड़ा के बीज रखते हैं। जो उनमें लिप्त होता है, उसे उनसे उत्पन्न होने वाले कष्ट और दुःख भी भोगने पड़ते हैं। मनुष्य का जीवन एक अंतहीन शृंखला में आने और जाने वाले सुखों और दुखों का एक समूह है। ये ही सुख पिछले जन्मों में कई बार मिले हैं और भविष्य में भी कई बार मिलेंगे।

आध्यात्मिक साधक का ज्ञान इंद्रिय-सुख के गर्भ में दर्द और पीड़ा को खोजने में सक्षम है। इसलिए वह उनसे ज़हर की तरह दूर रहता है। वे उनमें खुश नहीं होते। और अज्ञानी मनुष्य इन्द्रिय-सुख की चमक-दमक से आकर्षित होकर दुःख के गर्त में गिर जाता है।॥22॥

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥

saknotihaiva yah sodhun praksariravimoksanat.
kamakrodhodbhavan vegan sa yuktah sa sukhi narah৷৷5.23৷৷

भावार्थ : जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है॥23॥

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥

yo.ntahsukho.ntararamastathantarjyotireva yah.
sa yogi brahmanirvanan brahmabhuto.dhigacchati৷৷5.24৷৷

भावार्थ : जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है॥24॥

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥

labhante brahmanirvanamrsayah ksinakalmasah.
chinnadvaidha yatatmanah sarvabhutahite ratah৷৷5.25৷৷

भावार्थ : जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं॥25॥

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥

kamakrodhaviyuktanan yatinan yatacetasam.
abhito brahmanirvanan vartate viditatmanam৷৷5.26৷৷

भावार्थ : काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है।

श्री कृष्ण ने यहां ऋषि के तीन महत्वपूर्ण गुणों इच्छा और क्रोध का त्याग, मन पर नियंत्रण और आत्मा का ज्ञान का उल्लेख किया गया है। इन तीन गुणों वाला ऋषि हर समय, सभी स्थानों और सभी परिस्थितियों में पूर्ण स्वतंत्रता का आनंद लेता है। आत्मा के ज्ञान से मन की सभी प्रवृत्तियाँ दूर हो जाती हैं और मन अविद्यमान हो जाता है। मोक्ष निष्क्रिय और सुस्त लोगों के लिए नहीं है।

मन अशुद्ध है क्योंकि इसने कई जन्मों तक अज्ञानता की स्थिति में सभी बुरी प्रवृत्तियों को आत्मसात कर लिया है। ज्ञान की अग्नि को इन प्रवृत्तियों को जला देना चाहिए और मन को शुद्ध करना चाहिए जो आमतौर पर तमस और राजस में कार्य करता है। शुद्ध सत्त्व को आत्मा के ज्ञान से प्राप्त किया जा सकता है।

आत्मज्ञान का तात्पर्य मनुष्य की वास्तविक प्रकृति की गहन जांच से है। इस तरह की आंतरिक जांच से, व्यक्ति को यह समझ में आ जाता है कि वह शरीर नहीं है, इंद्रियाँ हैं, मन और बुद्धि, लेकिन वह एक ‘स्व’, द्रिक, शुद्ध ज्ञान है। साधक को निरंतर वास्तविकता को पकड़ कर रखना चाहिए, जो शुद्ध और परिवर्तनहीन है।

जब मनुष्य को ब्रह्मस्थिति प्राप्त हो जाती है तो वह दोबारा मोह में नहीं पड़ता। इसलिए यह घोषित किया जाता है कि जो व्यक्ति ‘ब्रह्म निर्वाणम’ प्राप्त करता है वह हर समय, सभी स्थानों पर, सभी परिस्थितियों में पूर्ण स्वतंत्रता और आनंद की स्थिति में रहता है।॥26॥

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥

sparsankrtva bahirbahyanscaksuscaivantare bhruvoh.
pranapanau samau krtva nasabhyantaracarinau৷৷5.27৷৷
yatendriyamanobuddhirmunirmoksaparayanah.
vigatecchabhayakrodho yah sada mukta eva sah৷৷5.28৷৷

भावार्थ : बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला।) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है॥27-28॥

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

bhoktaran yajnatapasan sarvalokamahesvaram.
suhrdan sarvabhutanan jnatva man santimrcchati৷৷5.29৷৷

भावार्थ : मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।

श्री कृष्ण कहते हे की जो आत्मा को जानता है उसे शांति मिलती है। ईश्वर को मनुष्यों द्वारा किये गये सभी यज्ञों और तपस्याओं के फल का भोक्ता बताया गया है। ईश्वर सर्वव्यापी है और इसलिए वह सभी प्राणियों की आंतरिक शक्ति है। फलस्वरूप वह मनुष्य द्वारा किये गये सभी पुण्य कार्यों के फल का भोक्ता होता है।

भगवान सभी संसारों के प्राणप्रिय और नियंत्रक है, फिर भी वह सभी प्राणियों का सर्वश्रेष्ठ मित्र है। मित्र वह है जो बदले की आशा किये बिना दूसरे का भला करता है। ईश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? कुछ नहीं। और फिर भी वह मनुष्य के प्रति प्रेम से भरा हुआ है और परोपकारी की तरह कार्य करता है। जो साधक इस प्रकार ईश्वर को समझ लेता है उसे शांति प्राप्त होती है।

ईश्वर को करीब से जानने के लिए उसके गुणों को समझने का प्रयास करना चाहिए। इससे उसकी भक्ति दृढ़ होती है। इस समापन श्लोक में आत्मा के ज्ञान पर बार-बार जोर दिया गया है। भगवान शांति के मार्ग के रूप में एक मित्र के रूप में भक्त और भगवान के साथ निकटस्थ पर जोर देते हैं।॥29॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का अध्याय छठा

 

अध्याय पाँच संपूर्णम्

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