Garga Samhita Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6
श्रीबलभद्रखण्ड
श्रीगणेशाय नमः
Garga Samhita Shribalbhadrakhand Chapter 1 to 6 |
श्री गर्ग संहिता के श्रीबलभद्रखण्ड अध्याय 1 से 6 तक
श्री गर्ग संहिता में श्रीबलभद्रखण्ड (Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6) के पहला अध्याय में श्रीबलभद्रजी के अवतार का कारण कहा गया है। दूसरा अध्याय में श्रीबलभद्रजी के अवतारकी तैयारी का वर्णन है। तीसरा अध्याय में ज्योतिष्मती का उपाख्यान कहा गया हे। चौथा अध्याय में रेवती का उपाख्यान कहा है। पाँचवाँ अध्याय में श्री बलराम और श्री कृष्ण का प्राकट्य वर्णन और छठा अध्याय में प्राड्विपाक मुनि के द्वारा श्रीराम कृष्ण की व्रज लीला का वर्णन कहा गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
पहला अध्याय
श्रीबलभद्रजी के अवतार का कारण
राजा बहुलाश्वने कहा- ब्रह्मन् ! आपके श्रीमुखसे मैंने अमृतकी अपेक्षा भी परम मधुर, मङ्गलमय, परम अद्भुत विश्वजित्खण्ड का श्रवण किया। महात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम भगवान् हैं, उनकी सोलह हजार पत्नियोंमेंसे प्रत्येकके दस-दस पुत्र हुए। मुनिवर ! उनके फिर करोड़ों पुत्र और पौत्र उत्पन्न हुए। पृथ्वीके रजकण गिने जा सकते हैं, किंतु कोई विद्वान् कवि भी श्रीकृष्णके वंशजोंकी गणना करनेमें समर्थ नहीं है। महात्मा बलरामजीकी रेवती पत्नी थीं। उनके एक भी पुत्र नहीं हुआ। कृपापूर्वक इसका रहस्य बताइये ॥ १-४ ॥
श्रीनारदजी कहने लगे- तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है। भगवान् अच्युतके बड़े भाई भगवान् संकर्षण कामपाल हैं। उन बलरामजीकी कथा मैं तुम्हारे सामने भलीभाँति वर्णन करूँगा। दुर्योधनके गुरु प्राड्विपाक नामक मुनि योगियोंके और मुनियोंके अधीश्वर थे। वे एक दिन हस्तिनापुर पधारे। दुर्योधनने महान् आदरके साथ उनका विविध उपचारोंके द्वारा सम्यक् प्रकारसे पूजन किया। फिर वे महामूल्यवान् सिंहासनपर विराजित हुए। दुर्योधन उनकी वन्दना और प्रदक्षिणा करके, हाथ जोड़कर उनके सामने बैठ गया। फिर अपने मनके संदेहको स्मरण करके उनसे कहा-‘भगवान् संकर्षण साक्षात् बलभद्रजीका इस भूमण्डलमें किस कारणसे और किनकी प्रार्थनासे शुभागमन हुआ ? उन्होंने मेरे नगरको उलटाकर टेढ़ा कर दिया था। वे मेरे गुरु हैं। मुझको उन्होंने ही गदायुद्ध सिखलाया था। आप उनके प्रभावका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ‘ ॥ ५-९ ॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
प्राड्विपाक मुनिने कहा- कुरुसत्तम युवराज ! यादवश्रेष्ठ बलभद्रजीका प्रभाव सुनो। उसके सुननेसे पापोंका सम्पूर्णतया विनाश हो जाता है। इसी द्वापरके अन्तकी बात है, राजाओंके रूपमें करोड़ों-करोड़ों दैत्यसेनाओंने उत्पन्न होकर पृथ्वीको भयानक भारसे दवा दिया। तब पृथ्वीने गौका रूप धारण करके स्वयम्भू ब्रह्माजीकी शरण ली। देवश्रेष्ठ ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंके और शंकरजीके साथ श्रीवैकुण्ठ नाथको आगे किया और भगवान् वामनदेवके बायें पैरके अँगूठेके नखसे कटे हुए ऊर्ध्व ब्रह्माण्डकटाहके छिद्रके द्वारा वे बाहर निकले। वहाँ ब्रह्माजी देवताओं- सहित ब्रह्मद्रव (श्रीगङ्गाजी) के समीप उपस्थित हुए और उसमें करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्डोंको लुढ़कते देखा। तदनन्तर वे विरजा नदीके तटपर पहुँचे। इसके बाद देवताओंके साथ ब्रह्माने अनन्तकोटि सूर्योकी ज्योतियों के समान तेजोमण्डलके दर्शन किये। उन्होंने ध्यान और प्रणाम किया। वहाँ देवताओंसहित ब्रह्माजीको भगवान् संकर्षणके दर्शन हुए। उनके हजार मुख थे और उनका श्रीविग्रह अनन्त गुणोंसे लक्षित था। वे अनन्त भगवान् कुण्डलाकारमें विराजित थे। उन अनन्तकी गोदमें उन्हें वृन्दावन, यमुना नदी, गोवर्धन गिरि, कुञ्ज-निकुञ्ज, लता बेलोंकी कतारें, भाँति-भाँतिके वृक्ष, गोपाल, गोपी और गोकुलसे परिपूर्ण सर्वलोकके द्वारा नमस्कृत परमसुन्दर गोलोकधामकी उपलब्धि हुई और वहाँ निकुञ्जेश्वर स्वयं भगवान की अनुमति प्राप्त करके वे अन्तः पुरमें पहुँचे। वहाँ उस निजनिकुञ्जमें साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र विराजित थे, जो अनन्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी हैं। उन राधापति भगवान की श्यामसुन्दर कान्ति है। वे पीताम्बर पहने हुए हैं। उनके गलेमें वनमाला सुशोभित है और वे वंशी धारण किये हुए हैं। ध्वनि करते हुए स्वर्णके नूपुर, किङ्किणी, कड़े, बाजूबंद, हार, उज्ज्वल आभापूर्ण कौस्तुभमणि तथा अँगूठियोंसे अलंकृत हैं। करोड़ों-करोड़ों बाल-सूर्योके समान द्युतिवाले किरीट और कुण्डल उन्हें सुशोभित कर रहे हैं। उनका मुख-कमल अलकावलियोंसे समलंकृत है। ऐसे कमल-वदन भगवान को ब्रह्मा आदि देवताओंने नमस्कार किया और पृथ्वीके भारका सारा वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया। भगवान् श्रीकृष्णने उनकी सब बातोंको सुन-जानकर अपने निज जन समस्त देवताओंको पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये यथायोग्य आदेश दिया और सहस्र मुखवाले भगवान्अ नन्तसे वे यों कहने लगे- ‘हे अनन्त! तुम पहले वसुदेवजीकी पत्नी देवकीके गर्भमें जाकर फिर रोहिणीके उदरसे प्रकट होओ। तदनन्तर मैं देवकीके पुत्रके रूपमें आविर्भूत होऊँगा’ ॥१०-१६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके सवांदमें
‘श्रीबलभद्रके अवतारका कारण’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥१॥
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दूसरा अध्याय
श्रीबलभद्रजी के अवतारकी तैयारी
प्राड्ड्विपाक मुनिने कहा- इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके कहनेपर हजार मुखवाले अनन्त जानेके लिये तैयार होकर अपनी सभामें जाकर विराजित हुए। उसी समय सिद्ध, चारण और गन्धर्वोने आकर अत्यन्त विनीत भावसे सिर झुकाकर उन्हें सब ओरसे नमस्कार किया। इसके बाद तालके चिह्नसे सुशोभित ध्वजा- वाले दिव्य रथमें घोड़े जोतकर सुमति नामक सारथि उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। शत्रुकी सेनाका विदारण करनेवाला ‘मुसल’, दैत्योंका कचूमर निकालनेवाला ‘हल’ और ब्रह्ममय नामक ‘कवच’ भी उनके सामने आकर उपस्थित हो गया। तदनन्तर वहाँ सबके देखते-देखते बलभद्रजीको सभामें श्रीशेषजी रमा- वैकुण्ठसे पधारे। उनके एक सहस्त्र फनोंपर मुकुट सुशोभित थे। सिद्ध-चारणगण तथा पाणिनि और पतञ्जलि आदि मुनि उनकी स्तुति कर रहे थे। ऐसे वे शेषजी आकर स्तुति करके संकर्षणके श्रीविग्रहमें विलीन हो गये। उसके बाद अजितवैकुण्ठसे सहस्र- वदन शेषजीका वहाँ शुभागमन हुआ। वे अजैकपाद्, अहिर्बुध्रय, बहुरूप, महद् आदि रुद्रोंसे घिरे हुए थे। भयंकर प्रेत और विनायक आदि उनके चारों ओर फैले थे। बलराम सभामें आकर शेषनागने उनका स्तवन किया और स्तवन करनेके पश्चात् वे उन्हींके शरीरमें विलीन हो गये। तदनन्तर श्वेतद्वीपसे कुमुद और कुमुदाक्ष आदि प्रधान पार्षदोंके द्वारा सेवित, हजार फनोंके ऊपर विराजमान मुकुटोंसे सुशोभित, नीलाम्बरधारी, श्वेतपर्वतके समान प्रभावाले, नील कुन्तलकी कान्तिसे मण्डित, भयंकर रूपवाले शेषजी पधारे और वे भी सबके देखते-देखते अनन्तके देहमें विलीन हो गये। फिर उसी समय इलावृतवर्षसे शेषजी आये। भगवती पार्वतीकी दासी करोड़ों स्त्रियोंके यूथ उनकी सेवा कर रहे थे। मुकुट मण्डित हजार मुखों- वाले शेषजी चमचमाते हुए किरीट, कुण्डल और बाजूबंदसे सुशोभित थे। सभामें आकर वे भी भगवान् अनन्तके श्रीविग्रहमें प्रवेश कर गये। तदनन्तर पातालके बत्तीस हजार योजन नीचेसे शेषजी आये। वे हजार मुखवाले शेषजी ‘भगवान की तामसी’ कलासे सम्पन्न थे। उन्होंने अनन्त सूर्योंके समान प्रकाशमान किरीट धारण कर रखा था। व्यास, पराशर, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, नारद, सांख्यायन, पुलस्त्य, बृहस्पति और मैत्रेय आदि महर्षियोंकी संनिधिसे उनकी अपार शोभा हो रही थी। वासुकि, महाशङ्ख, श्वेत, धनंजय, धृतराष्ट्र, कुहक, कालिय, तक्षक, कम्बल, अश्वतर और देवदत्तादि नागराज उन्हें चंवर डुला रहे थे। कस्तूरी, अगर, केसर और चन्दनके द्वारा अनुलिप्त बहुत-सी नागकन्याएँ उनकी सेवा कर रही थीं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व और विद्याधरोंके द्वारा उनका यशोगान हो रहा था। हाटकेश्वर, त्रिपुर, बल, कालकेय, कलि और निवातकवचादि दैत्य उनके अनुयायी होकर आगे-आगे चल रहे थे। ग्यारह रुद्र व्यूहाकारसे उनके आगे-आगे और कस्तूरीमृग, कामधेनु तथा वरुण उनके पीछे चल रहे थे। वीणा, मृदङ्ग, ताल और दुन्दुभिके शब्द हो रहे थे। वे फणिधर गजराजके समान तीव्र गतिसे वहाँ पधारे। उनके एक फनपर यह सारा भूमण्डल सरसोंके दानेकी तरह प्रतीत हो रहा था। ऐसे शेषजी वहाँ आकर भगवान् महा अनन्तके श्रीविग्रहमें प्रविष्ट हो गये ॥ १-८ ॥
सभाके सम्पूर्ण पार्षदोंने इस विचित्र लीलाको देखा और वे उन्हें परिपूर्णतम भगवान् समझकर सर्वथा अवनत और आश्चर्यचकित हो गये। तदनन्तर अनन्त- मुख महान् अनन्त भगवान् संकर्षणने सिद्धपार्षदोंसे कहा-‘ भूमिका भार हरण करनेके लिये मैं भूमण्डल- पर चलूँगा। इसलिये तुमलोग जाकर यादवकुलमें जन्म ग्रहण करो।’ तदनन्तर वे सुमति सारथिसे बोले- ‘तुम बड़े बलवान् और शूरवीर हो। तुम यहाँ ही रहो। किसी प्रकारका शोक न करो। जिस समय युद्धाभिलाषी होकर मैं तुम्हें याद करूँगा, उसी समय तालचिह्नित दिव्य रथको लेकर तुम मेरे समीप आ जाना। हे हल और मुसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना। कवच ! तुम भी वैसे ही प्रकट होना। हे पाणिनि आदि, व्यास आदि तथा कुमुद आदि मुनियो! ग्यारह रुद्रो! हे कोटि-कोटि रुद्रो! गिरिजापति श्रीशंकरजी ! गन्धवों! वासुकि आदि नागराजो! निवातकवचादि दैत्यो! हे वरुण और कामधेनु ! मैं भूमण्डलपर भारतवर्षमें यदुकुलमें अवतार लूँगा। तुम सब वहाँ सदा-सर्वदा मेरा दर्शन करना’ ॥ ९-१४॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
प्राड्विपाक मुनि कहने आज्ञा पाकर वे सभी अपने-अपने लगे- इस प्रकार स्थानोंको चले गये। उनके चले जानेके अनन्तर भगवान् अनन्तने नागकन्याओंके यूथसे कहा- ‘मैं तुम्हारा अभिप्राय जानता हूँ, तुम सभी तपस्याके द्वारा गोपोंके घर जन्म लेकर मेरा दर्शन करना। किसी समय कालिन्दीके तटपर मनोहर रासमण्डलमें तुम्हारे साथ रास करके मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा।’ तदनन्तर निवातकवचोंके राजा कलिने हाथ जोड़कर प्रभुके चरण-कमलोंमें पुष्पाञ्जलि अर्पण की और भगवान के चरणोंमें मस्तक टेककर कहा- भगवन्! मुझे आज्ञा दीजिये, मेरे लिये क्या काम होगा? आप जहाँ पधारेंगे, वहाँ ही मैं भी चलूँगा। पिताजी! आपके वियोगमें मुझे महान् दुःख होगा; आप भक्तवत्सल हैं, अतएव मुझे साथ ले चलिये।’ इस प्रकार प्रार्थना सुनकर भगवान् अनन्तने प्रसन्न हो अपने भक्त कलिराजसे कहा-‘तुम मेरे साथ सुखपूर्वक भारतवर्षमें चलो। तुम वहाँ कौरवकुलमें धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनके नामसे विख्यात चक्रवर्ती राजा बनो। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, तुम्हें गदायुद्ध सिखाऊँगा।’ इस प्रकार कहनेपर उन्हें नमस्कार करके राजा कलि अपने स्थानपर चला गया। उसी कलि तुमने दुर्योधनके रूपमें जन्म लिया है। भगवान् विष्णुकी मायासे तुमको अपने स्वरूपकी स्मृति नहीं है॥ १५-२० ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘बलभद्रजीके अवतारकी तैयारी’ नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय
तीसरा अध्याय
ज्योतिष्मती का उपाख्यान
प्राविपाक मुनिने कहा- तदनन्तर करोड़ों शारदीय चन्द्रमाओंकी कान्तिवाली स्वयं नागलक्ष्मी महान् रथपर सवार होकर वहाँ पधारों। करोड़ों सखियाँ उनकी शोभा बढ़ा रही थीं। उन्होंने आकर स्वामी महान् अनन्त भगवान् संकर्षणसे कहा- भगवन्। मैं भी आपके साथ ही भूमण्डलपर चलूँगी। आपके वियोगकी व्यथा मुझे इतना व्याकुल कर देगी कि मैं अपने प्राणोंको नहीं रख सकूँगी। नागलक्ष्मीका गला भर आया था। भगवान् अनन्तने जो समस्त जगत् के कारणके भी कारण हैं, भक्तोंका दुःख निवारण करना ही जिनका स्वभाव है और जिनका श्रीविग्रह ऐरावतके समान बृहत् सर्परूप है। अपनी प्रियाकी यह दशा देखकर कहा-हे रम्भोरु ! तुम शोक मत करो। पृथ्वीपर जाकर रेवतीकी देहमें विलीन हो जाओ। फिर मेरी सेवामें उपस्थित हो जाओगी। यह सुनकर नागलक्ष्मी बोलीं- ‘रेवती कौन हैं, किनकी कन्या हैं और कहाँ रहती हैं- आप विस्तारसे मुझे बताइये।’ यह सुनकर भगवान् अनन्तने मुसकराते हुए अपनी प्रियासे कहा- ॥१-५ ॥
आदि सृष्टिकी बात है। कद्रुके गर्भसे कश्यपजीके पुत्ररूपमें मैं उत्पन्न हुआ था। भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे मैंने अखण्ड भूमण्डलको कमण्डलुके समान अपने एक फनपर धारण कर लिया और सब लोकोंसे नीचेके लोकमें जाकर मैं विराजित हो गया। मेरे इस प्रकार वहाँ स्थित होनेपर चक्षुष् के पुत्र अतिबल चाक्षुष नामक मनु सप्तद्वीपमय अखण्ड पृथ्वीमण्डलके सर्व- गुणसम्पन्न सम्राट् हुए, बड़े-बड़े मण्डलेश्वर राजा उनके चरणकमलोंपर अपने मस्तक घिसा करते थे। इन्द्रादि देवतागण भी उनका शासन मानते थे। प्रचण्ड धनुष वाले वे चाक्षुष मनु शत्रुओंके समस्त बल-गर्वको चूर्ण करके स्थित थे। उन चाक्षुष मनुके सुद्युम्नादि अनेक पुत्र हुए। तदनन्तर मनुने यज्ञ किया और उनके यज्ञकुण्डसे ज्योतिष्मती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। एक दिन चाक्षुष मनुने स्नेहवश अपनी उस कन्यासे पूछा- ‘बताओ, तुम कैसा वर चाहती हो?’ तब कन्याने उत्तर दिया कि जो सबसे अधिक बलवान् हों, वे ही मेरे स्वामी बनें। यह सुनकर राजाने इन्द्रको सबसे अधिक बलवान् समझकर बुलाया। वज्रधारी इन्द्रके सामने आनेपर राजाने आदरपूर्वक उन्हें आसनपर बैठाया और कहा- आपकी अपेक्षा कोई और अधिक बलवान् है कि नहीं, यह आप सत्य-सत्य बताइये। नहीं तो स्मृति कहती है पृथ्वी देवीने कहा है कि सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है; मैं सब कुछ सहन कर सकती हूँ, परंतु मिथ्यावादी मनुष्यका भार मुझसे नहीं सहा जाता।’ इन्द्रने कहा- ‘मैं बलवान् नहीं हूँ। वायु देवता मुझसे अधिक बलवान् हैं। मैं उन्हींको सहायतासे कार्य किया करता हूँ।’ यों कहकर इन्द्र चले गये। तब राजाने वायुका आवाहन किया और उनसे पूछा- ‘सच-सच बताइये, आपसे भी बढ़कर कोई बलवान् है?’ वायु बोले- ‘पर्वत मुझसे बलवान् हैं; क्योंकि मेरा वेग उन्हें उखाड़ नहीं सकता। यह कहकर वायु चले गये। तब राजाने पर्वतोंको बुलाया और कहा- ‘सच बताइये, धूमण्डलमें आपसे अधिक बलवान् कौन है?’ पर्वतोंने उत्तर दिया-‘हमलोगोंको अपने ऊपर धारण करनेके कारण भूमण्डल हमसे अधिक बलवान् है।’ पर्वत इतना कहकर चले गये। तव राजाने भूमण्डलको बुलाकर पूछा- ‘सत्य-सत्य बताओ, तुमसे भी अधिक कोई शक्ति सम्पन्न है या नहीं’ ॥ ६-१४॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
यह सुनकर भूमण्डलने कहा- ‘मुझसे अधिक बलवान् भगवान् संकर्षण हैं। वे नित्य अनन्त, अनन्त गुणोंके समुद्र हैं। वे आदिदेव हैं, वासुदेवरूप हैं, उनके हजार मुख हैं, उनका विग्रह गजराजके समान विशाल है, वे कैलासके सदृश उज्ज्वल प्रभावाले हैं, करोड़ों सूर्योके समान उनकी ज्योति है। वे सुन्दरतामें करोड़ों कामदेवोंके गर्वको चूर्ण करनेवाले हैं। कमल-पत्रके समान उनके सुन्दर नेत्र हैं। वे दिव्य निर्मल कमल- कर्णिकाओंकी मालासे सुशोभित हैं, जिनके परिमलका पान करनेके लिये भ्रमरोंके यूथ गुंजार करते रहते हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व और श्रेष्ठ विद्याधरोंके द्वारा जिनका यशोगान होता रहता है; देवता, दानव, सर्प और मुनिगण जिनका सदा आराधन करते हैं और जो सबसे ऊपर विराजमान हैं; जिनके एक मस्तकपर पर्वत, नदी, समुद्र, वन और करोड़ों-करोड़ों प्राणियोंसे अलंकृत अखण्ड भूमण्डल दिखायी देता है और तीनों लोकोंमें जिनका नाम-कीर्तन करनेसे त्रिलोकीका वध करनेवाला भी कैवल्य-मोक्षको प्राप्त करता है- ऐसे प्रभावसम्पन्न, समस्त कारणोंके कारण, सबके ईश्वर और सबसे अधिक शक्तिशाली भगवान् संकर्षण हैं। वे रसातलके मूलभागमें विराजमान हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है’ ॥ १५-१७॥
महानन्तने कहा- इस प्रकार भूमण्डलके चले जानेपर मेरे माधुर्य और प्रभावको जानकर ज्योतिष्मतीने पिताकी आज्ञा ली और मुझे प्राप्त करनेके लिये विन्ध्याचल पर्वतपर तप करने चली गयी। उसने लाख वर्षातक वहाँ तपस्या की। वह गर्मीक दिनोंमें पञ्चाग्निके बीचमें बैठकर तप करती, वर्षामें निरन्तर जल-धाराको सहन करती और सर्दीके दिनोंमें कण्ठ- पर्यन्त ठंडे जलमें डूबी रहती। वह तपस्याके कालमें नीचे जमीनपर ही सोया करती ॥ १८-१९ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘ज्योतिष्मतीका उपाख्यान’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ रामायण मनका 108
चौथा अध्याय
रेवती का उपाख्यान
श्रीमहानन्तने कहा- तदनन्तर सैकड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिवाली, तपस्यामें संलग्न, नवयौवना, सुन्दरी ज्योतिष्मतीपर इन्द्र, यम, कुबेर, अग्नि, वरुण, सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनैश्चरकी दृष्टि पड़ीं। उसके रूपको देखकर उनके अंदर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा उद्दीप्त हो उठी और वे सम्मोहितचित्त हो गये। तब उन्होंने ज्योतिष्मतीके आश्रमपर आकर कहा- ‘सुन्दरी! रम्भोरु ! तुम्हें धन्य है। तुम किसके लिये तप कर रही हो? तुम्हारी अवस्था अभी तपके योग्य नहीं है। तुम अपने मनका अभिप्राय हमलोगोंके सामने प्रकट करो।’ यह सुनकर ज्योतिष्मती बोली कि ‘हजार मुखवाले भगवान् अनन्त मेरे स्वामी हों, मैं इसीलिये तप कर रही हूँ।’ ज्योतिष्मतीकी यह बात सुनकर इन्द्रादि देवता हँस पड़े और अलग-अलग अपनी बात कहनेको तैयार हो गये। उनमें सबसे पहले इन्द्र यों बोले ॥ १-२ ॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
इन्द्रने कहा- सर्पराजको स्वामी बनानेके लिये तुम व्यर्थ ही तप कर रही हो। मैं देवताओंका राजा हूँ। मैंने सौ अश्वमेध यज्ञ किये हैं और मैं स्वयं तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ। तुम मुझे वरण कर लो ॥३॥
यमराज बोले- मैं सारे जगत्के प्राणियोंका दण्डविधान करनेवाला यमराज हूँ। तुम मुझे वरण कर लो और पितृलोकमें मेरी सबसे श्रेष्ठ पत्नी होकर रहो ॥ ४ ॥
कुबेरने कहा- वरानने! मैं सम्पूर्ण धनका स्वामी हूँ। तुम मुझे राजाधिराज समझो और संकर्षणके प्रति प्रीति छोड़कर शीघ्र मुझे पतिरूपमें वरण कर लो ॥ ५॥
अग्निदेव बोले- विशाललोचने ! मैं सम्पूर्ण यज्ञोंमें प्रतिष्ठित समस्त देवताओंका मुखरूप हूँ। अन्य सभीके प्रति वासनाका त्याग करके तुम मुझे भजो ॥ ६ ॥
वरुणने कहा- भामिनी! मैं जलचरोंका स्वामी एवं लोकपाल हूँ। मेरे हाथमें सदा पाश रहता है। सातों समुद्रोंका ऐश्वर्य मेरा ही वैभव है। यह समझकर तुम मुझे पतिरूपमें वरण करो ॥ ७॥
सूर्यदेवता बोले- हे चाक्षुषात्मजे! मैं जगत् का नेत्र हूँ। मेरी प्रचण्ड किरणें सर्वत्र व्याप्त रहती हैं। अतएव पातालमें रहनेवाले अनन्तका त्याग करके तुम स्वर्गके आभूषणरूप मुझको वरण करो ॥ ८ ॥
चन्द्रमाने कहा- मैं ओषधियोंका अधीश्वर, नक्षत्रोंका राजा, अमृतकी खान एवं ब्राह्मणश्रेष्ठ हूँ और कामिनियोंको बल प्रदान करनेवाला हूँ। हे गजगामिनी । तुम मेरी उपासना करो ॥ ९॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
मङ्गल बोले- यह पृथ्वी मेरी माता है और साक्षात् उरुक्रम भगवान् मेरे पिता हैं। मेरा नाम मङ्गल है। हे कल्याणी! संसारके विपुल कल्याणकी कामना करनेवाली तुम मुझे अपना पति बनाओ ॥१०॥
बुधने कहा- मैं बुद्धिमान्, शूरवीर और कामिनियोंके रसको बढ़ानेवाला बुध हूँ। तुम सब देवताओंका परित्याग करके मेरे साथ आनन्दका अनुभव करो ॥११॥
बृहस्पति बोले- मैं देवताओंका आचार्य, बुद्धिमान्, वाणीका स्वामी साक्षात् बृहस्पति हूँ। हे शुभे। यह समझकर तुम मेरी उपासना करो ॥१२॥
शुक्रने कहा- मैं दैत्योंका गुरु, भृगुके वंशमें उत्पन्न साक्षात् कवि हूँ। महाप्राज्ञे। तुम अपने कल्याणकी बात सोचकर मेरी भामिनी बन जाओ ॥ १३ ॥
शनि बोले- कल्याणी! मैं सबसे अधिक बलवान् हूँ। देवताओंके ऊपर भी मेरा प्रभाव है। अपनी दृष्टिसे सारे संसारको भस्म कर डालनेकी मुझमें शक्ति है। अतएव सारी चिन्ताओंका त्याग करके तुम मुझे पतिरूपमें वरण कर लो ॥१४॥
भगवान् महानन्तने कहा- इन सबकी बात सुनते ही ज्योतिष्मतीके नेत्र लाल हो गये, उनका अधर काँपने लगा और भौंहें टेढ़ी हो गयीं। क्रोधकी आग भड़क उठी। फिर उन्होंने मेरा स्मरण किया और अत्यन्त क्रोधके आवेशमें आ गयीं। ज्योतिष्मतीके क्रोधसे ब्रह्मलोकसे लेकर पाताल एवं भूमण्डल- सहित सारा ब्रह्माण्ड काँप उठा। सब और महान् भय छा गया ॥ १५-१६ ॥
यह देखते ही शापके भयसे काँपते हुए इन्द्रादि देवताओंने सब दिशाओंसे पूजनकी सामग्री ली और ज्योतिष्मतीके चरण कमलोंपर गिरकर वे ‘बचाओ! बचाओ !!’ पुकारने लगे। इन्द्रादि देवताओंके द्वारा इस प्रकार शान्त करनेका प्रयत्न करनेपर भी ज्योतिष्मतीने उन्हें पृथक् पृथक् शाप दे दिया ॥ १७ ॥
ज्योतिष्मती बोली- शनि ! तू दुष्ट है, मुझे छलनेके लिये यहाँ आया है। तू अभी पङ्गु हो जा। तेरी नीची दृष्टि हो जाय। तू अत्यन्त काला-कलूटा और दुबला-पतला हो जा, निन्दनीय काले उड़द खाया कर और काले तिलका तेल पिया कर। शुक्र । तू अभी एक आँखसे काना हो जा। बृहस्पति! तू स्त्रीभावको प्राप्त हो जा। बुध ! तेरा वार (दिन) निष्फल हो जाय। बुधवारको किसीके कुछ कहने और कहीं यात्रा करनेपर सफलता नहीं मिलेगी। मङ्गल! तू बंदरके समान मुखवाला हो जा। चन्द्रमा। तेरे राजयक्ष्माका रोग हो जाय। सूर्य। तेरे दाँत टूट जायें। वरुण! तू जलंधर रोगका शिकार हो जा। अग्नि ! तू सब कुछ खानेवाला बन जा। कुबेर ! तेरा पुष्पक विमान छिन जाय। यमराज ! बलवान् राक्षस युद्धमें तेरा मान-भङ्ग करें और तू शक्तिशाली राक्षसोंसे युद्धमें हार जा। देवाधम इन्द्र । तू मुझे हरनेके लिये आया है और अपने मुँहसे तूने परमात्माकी निन्दा की है। स्वर्गमें किसी राजाके द्वारा तेरी पत्नी शची हर ली जायगी, वह स्वर्ग सुखका भोग करेगा और तू वहाँसे भगा दिया जायगा। अरे स्वर्गके राजा! किसी राक्षसके द्वारा युद्धमें तेरी हार होगी। तू पाशमें बाँधा जायगा और वे लङ्कापुरीमें ले जाकर तुझे अन्धकारपूर्ण कारागारमें डाल देंगे ॥१८-२३॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
भगवान् महानन्त बोले- तदनन्तर ज्योतिष्मतीके द्वारा शापको प्राप्तकर देवताओंके बीच इन्द्र कुपित हो गये और इन्द्रने भी ज्योतिष्मतीको शाप दे दिया- ‘हे क्रोधकारिणी! संकर्षणको पतिके रूपमें प्राप्त करके भी इस जन्म अथवा दूसरे जन्ममें अथवा कभी तुम्हारे घरमें पुत्रोत्सव नहीं होगा।’ इन्द्र ज्योतिष्मतीके तेजसे बड़े तिरस्कृत हो गये थे। उन्होंने इस प्रकार कहकर सारे देवताओंके साथ स्वर्गकी यात्रा की। ज्योतिष्मती फिर तपस्यामें लग गयी ॥ २४ ॥
तदनन्तर सारे जगत् के कारणभूत ब्रह्माजीकी दृष्टि ज्योतिष्मतीके तपकी ओर गयी और वे हंसपर सवार होकर ब्रह्मविद् ब्राह्मण और ब्राह्मी आदि शक्तियोंके साथ अपने भवनसे वहाँ पधारे। आकाशमें ही स्थित हुए ब्रह्माने उसको सम्बोधन करके कहा- ‘ज्योतिष्मती, चाक्षुष मनुकी पुत्री । तुम्हारा तप सफल हो गया। इस तपमें तुम सिद्ध हो गयी। मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम वर माँगो’ ॥ २५-२६ ॥
ब्रह्माजीकी बात सुनकर ज्योतिष्मती कण्ठपर्यन्त जलसे बाहर निकली। उसने ब्रह्माजीको प्रणाम किया, उनका स्तवन किया और वह हाथ जोड़कर कहने लगी- ‘भगवन्! यदि निश्चय ही आप मुझपर प्रसन्न हैं तो हजार मुखवाले भगवान् संकर्षण मेरे पति हों, यह मुझे वर दीजिये।’ देवश्रेष्ठ ब्रह्माजीने यह सुनकर उत्तरमें कहा-‘पुत्री! तुम्हारा मनोरथ दुर्लभ है, तथापि मैं उसे पूर्ण करूँगा। आजसे ही वैवस्वत मन्वन्तर प्रारम्भ हुआ है। इसकी सत्ताईस चतुर्युगी बीत जानेपर भगवान् संकर्षण तुम्हारे पति होंगे।’ यह सुनकर ज्योतिष्मतीने ब्रह्माजीसे कहा- ‘देवदेव भगवन् ! यह तो बड़ा लंबा समय है। आप सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, अतएव मेरा मनोरथ शीघ्र पूर्ण कीजिये। नहीं तो, जैसे मैंने देवताओंको शाप दिया है, वैसे ही आपको भी शाप दे दूँगी।’ ज्योतिष्मतीके इस प्रकार कहनेपर ब्रह्माजी शापके भयसे डर गये और क्षणभर विचार करनेके बाद बोले- ‘राजकुमारी! तुम आनर्त देशके राजा रेवतके यहाँ कन्या बनो। वे राजा कुशस्थलीमें वर्तमान हैं। फिर इसी जन्ममें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जायगा। किसी कारणसे सत्ताईस चतुर्युगीका समय एक घड़ीके समान बीत जायगा।’ ज्योतिष्मती को इस प्रकार वर देकर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २७-३० ॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
तदनन्तर ज्योतिष्मतीने आनर्त देशमें कुशस्थलीके राजा रैवतकी पत्नीसे जन्म धारण किया। उस समय उसका नाम रेवती रखा गया। वह रूप, गुण और उदारतासे सुशोभित, नूतन कमलके समान नेत्रवाली रेवती विवाहके योग्य हो गयी ॥ ३१॥
एक दिन राजा रेवत अन्तः पुरमें अपनी भार्याके साथ बैठे थे। उन्होंने खेहवश कन्यासे कहा-‘तुम कैसा वर चाहती हो, बताओ।’ यह सुनकर उसी समय रेवतीने कहा- ‘जो सबमें बलवान् हैं, वही मेरे पति हों ॥ ३२ ॥
यह सुनकर राजा रैवत कन्याको लेकर, अपनी भार्याके साथ दीर्घायु बलवान् वरकी खोजके लिये रथपर सवार हो सभी लोकोंको लांघते हुए ब्रह्मलोकको गये। वहाँ घड़ीभर ठहरे। इतनेमें ही पृथ्वीलोकके सत्ताईस चतुर्युगोंका समय पूरा हो गया। महानन्तने नागलक्ष्मीसे कहा- ‘रम्भोरु ! वह रेवती अब भी ब्रह्मलोकमें ही है। तुम उसकी देहमें प्रवेश कर जाओ और आवेशावतारिणी बनो। तदनन्तर द्वारकामें जाकर मेरे साथ आनन्दका उपभोग करना’ ॥३३-३४ ॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
प्राड्विपाक मुनि बोले- नागलक्ष्मीने महानन्तके इन वचनोंको सुनकर अपने स्वामी भगवान् संकर्षणकी आज्ञा ली और ब्रह्मलोकमें जाकर रेवतीके विग्रहमें आविष्ट हो गयी ॥ ३५ ॥
कौरवेन्द्र दुर्योधन ! तदनन्तर भगवान् संकर्षण पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये सर्वलोकनमस्कृत गोलोकधामसे पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए। यही भगवान् बलभद्रजीका आगमन वृत्तान्त है। मैंने यह तुमको सुनाया है। यह समस्त पापोंका नाश करनेवाला और परम मङ्गलमय है। युवराज । अब आगे तुम क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राविपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘रेवती- उपाख्यान’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४॥
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पाँचवाँ अध्याय
श्री बलराम और श्री कृष्ण का प्राकट्य
दुर्योधनने कहा- मुनिराज ! पूर्वजन्ममें मैं भगवान् संकर्षणका भक्त था, अतः मैं धन्य हूँ। आपने मुझे यह स्मरण करा दिया। साथ ही भगवान् वासुदेवकी प्रभावयुक्त परम अद्भुत महिमा भी आपने सुनायी। अब यह बतलानेकी कृपा कीजिये कि भगवान् बलराम और श्रीकृष्णचन्द्रने पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर अपने पिताकी नगरी मथुरासे व्रजमें कैसे गमन किया और व्रजवासियोंसे वे गुप्तरूपमें किस प्रकार रहे ॥ १॥
प्राड्विपाक मुनि बोले- यादवोंकी पुरी मधुरामें राजा उग्रसेन थे। एक समय उनके बड़े भाई देवककी कन्या देवकीसे वसुदेवजीका विवाह हुआ। विवाहके उपरान्त वर-वधूकी विदाईके समय उग्रसेननन्दन कंस स्वयं वसुदेव देवकीका रथ चलाने लगा। उसी समय आकाशवाणी हुई ‘अरे निर्बोध ! तू जिसका रथ चला रहा है, उसीका आठवाँ गर्भ तेरा विनाश करेगा।’ यह सुनते ही कालनेमि-तनय महान् दैत्य कंस हाथमें तलवार लेकर बहिन देवकीका वध करनेको तैयार हो गया। उसी क्षण वसुदेवजीने कंसको समझाकर कहा कि ‘तुम इसका वध मत करो। जिनसे तुमको और मुझको भी भय हो रहा है, देवकीके गर्भसे उत्पन्न वे जितने पुत्र होंगे, मैं सबको लाकर तुम्हें दे दूंगा।’ वसुदेवजीकी बातपर विश्वास करके कंसने देवकी, वसुदेव दोनोंको कारागारमें बंद करवा दिया और वह निश्चिन्त हो गया। तदनन्तर देवकीके पहला पुत्र उत्पन्न हुआ। वसुदेवजीने उसे तुरंत लाकर कंसको दे दिया। कंसने समझा, वसुदेवजी बड़े सत्यवादी हैं। अतएव उसने लड़केका वध नहीं किया। इसके उपरान्त उसके यहाँ नारदजी पधारे और उन्होंने कहा- ‘जैसे अङ्कोंकी टेढ़ी चाल है, वैसे ही देवताओंकी चाल भी उलटी होती है। सम्भव है, इधर-उधरसे गिननेपर यही लड़का आठवाँ माना जाय और तुम्हारा शत्रु बने। विशेष बात तो यह है कि सारे यादवोंके रूपमें देवता ही अवतीर्ण हैं और वे सभी तुम्हारा वध चाहते हैं।’ नारदजीसे इस प्रकारकी बात सुनी, तबसे कंस देवकीसे उत्पन्न प्रत्येक लड़केको मारने लगा। उस समय कंसके भयसे यादवोंमें भगदड़ मच गयी और वे महान् कष्टोंका अनुभव करने लगे। तदनन्तर देवकीके सातवें गर्भमें भगवान् अनन्तका आगमन हुआ। वसुदेवजीकी एक दूसरी पत्नी रोहिणी भी कंसके भयसे नन्दबाबाके यहाँ गोकुलमें रहा करती थी। भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञा पाकर योगमाया भगवान् अनन्तको देवकीके उदरसे खींचकर वसुदेव-पत्नी रोहिणीके गर्भमें स्थापित करनेको तैयार हो गयीं ॥ २-७ ॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
वहाँ ये श्लोक हैं-
देवक्याः सप्तमे गर्ने हर्षशोकविवर्धने।
व्रजं प्रणीते रोहिण्यामनन्ते योगमायया ॥
अहो गर्भः क्व विगत इत्यूचुर्माथुरा जनाः ॥ ८ ॥
अथ व्रजे पञ्चदिनेषु भाद्रे स्वातौ च षष्ठयां च सिते बुधे च ।
उच्चैग्रहैः पञ्चभिरावृते च लग्ने तुलाख्ये दिनमध्यदेशे ॥ ९ ॥
सुरेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्ष घनेषु मुञ्चत्सु च वारिबिन्दून् ।
बभूव देवो वसुदेवपत्यां विभासयन् नन्दगृहं स्वभासा ॥ १०॥
नन्दोऽपि कुर्वन् शिशुजातकर्म ददौ द्विजेभ्यो नियुतं गवां च।
गोपान् समाहूय सुगायकानां रावैर्महामङ्गलमाततान ॥११॥
देवकीका सातवाँ गर्भ एक ही साथ हर्ष और शोक बढ़ानेवाला था। योगमायाने उसे व्रजमें ले जाकर रोहिणीके गर्भमें स्थापित कर दिया। तब मथुराके लोगोंने कहा- अहो! देवकीका गर्भ कहाँ चला गया ? बड़े आश्वर्यकी बात है।’ उसके पाँच दिन बाद भाद्रपद मासके शुकूपक्षकी षष्ठी तिथिको, जो स्वाति नक्षत्र और बुधवारसे युक्त थी, मध्याहके समय, तुला लग्ग्रमें, जब पाँच ग्रह उच्चके होकर स्थित थे, व्रजमें वसुदेवपत्नी रोहिणीके गर्भसे अपने तेजके द्वारा नन्द-भवनको उद्भासित करते हुए महात्मा बलरामजी प्रकट हुए। उस समय मेोंने जलबिन्दु बरसाये और देवताओंने पुष्पोंकी वृष्टि की। नन्दजीने शिशुका जातकर्म-संस्कार करवाया। ब्राह्मणोंको दस लाख गौएँ दानमें दीं, फिर गोपोंको बुलाकर अच्छे-अच्छे गायकोंके संगीतके साथ महामहोत्सव मनाया ॥ ८-११॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
तदनन्तर देवकीके आठवें गर्भसे अर्द्धरात्रिके समय परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अवतीर्ण हुए। उसी समय इधर नन्दरानी यशोदाजीके गर्भसे कन्याके रूपमें योगमाया प्रकट हुईं। योगमायाके प्रभावसे सारा जगत् सो गया था। तब भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे वसुदेवजी श्रीकृष्णचन्द्रको लेकर यमुनाके उस पार वृन्दावनमें पहुँच गये और यशोदाके शयनागारमें जाकर उन्होंने यशोदाकी गोदमें बालक श्रीकृष्णको सुला दिया और कन्याको लेकर वे अपने स्थानपर लौट आये। इसके बाद कारागारमें बालककी रुदन- ध्वनि सुनायी पड़ी। शत्रुके भयसे डरा हुआ कंस तुरंत आ पहुँचा और उसने तत्काल उत्पन्न हुई उस कन्याको उठा लिया एवं उसे एक शिलापर पटक दिया। ठीक उसी समय कंसके हाथसे छूटकर कन्या बड़े जोरसे उछली और ऊपर आकाशमें जाकर योगमायाके रूपमें परिणत हो गयी। सिद्ध, चारण, गन्धर्व और मुनिगण उनका स्तवन कर रहे थे। योगमायाने कंससे कहा-‘रे दुष्ट! तेरा पूर्वका शत्रु कहीं उत्पन्न हो चुका है। तू इन बेचारे दीन वसुदेव देवकीको व्यर्थ ही क्यों कष्ट दे रहा है?’ इस प्रकार कहकर वे योगमाया विन्ध्याचलको चली गयीं। देवीके इन वचनोंसे कंस बड़े आश्वर्यमें पड़ गया। फिर उसने देवकी और वसुदेवको तो छोड़ दिया और पूतना आदि दैत्योंको बुलाकर आज्ञा दी कि ‘दस दिनके अंदर पैदा हुए जितने भी बालक हों, सबको मार डालो।’ कंसकी आज्ञा पाकर दैत्यगण बालकोंका वध करने लगे। इधर नन्दने भी पुत्र-जन्म सुनकर महान् उत्सव मनानेकी योजना की। हे कुरुराज! इस प्रकार कंसके भयके बहाने भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण व्रजमें पधारे। वे अपनी मायासे ही वहाँ गुप्तरूपमें रहे और व्रजवासियोंपर कृपा करनेके लिये ब्रजमें प्रकट होते ही विविध प्रकारकी अद्भुत बाल-लीला करने लगे। अब तुम क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १२-१६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीबलराम और श्रीकृष्णका प्राकट्य’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
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छठा अध्याय
प्राड्विपाक मुनि के द्वारा श्रीराम कृष्ण की व्रज लीला का वर्णन
दुर्योधनने पूछा- मुनिराज ! भगवान् अनन्त श्रीबलरामजी और अनन्त-लीलाकारी भगवान् श्रीकृष्णने भूमण्डलपर अवतार लेकर विचरण किया। अब संक्षेपमें यह बतानेकी कृपा कीजिये कि व्रजमें, मथुरामें, द्वारकामें और अन्यत्र उन्होंने क्या-क्या लीलाएँ कीं ? ॥ १॥
प्राड्विपाक मुनिने उत्तर दिया- दुर्योधन ! भगवान् श्रीकृष्णने प्रकट होते ही अद्भुत लीला आरम्भ कर दी। उन्होंने पूतनाको मोक्ष प्रदान किया, शकटासुर और तृणावर्तका उद्धार किया, (माताको) विश्वरूप दिखलाया, दधिकी चोरी की, अपने श्रीमुखमें ब्रह्माण्ड के दर्शन करवाये, यमलार्जुन वृक्षोंको उखाड़ा और दुर्वासाजीको मायाका प्रभाव दिखलाया। श्रीमद्गर्गाचार्यजी के द्वारा राधाकृष्ण नामकी सुन्दरता और महिमाका वर्णन कराया। ब्रह्माजीने वृषभानु राजनन्दिनी राधिकाके साथ भाण्डीर-वनके रास मण्डलमें श्रीकृष्णका विवाह करवाया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण, बलराम दोनोंने वृन्दावन जाकर वत्सासुर और वकासुर आदि दानवोंका संहार किया, गोपालोंके साथ गायें चराते हुए वृन्दावनमें विचरण किया। फिर तालवनमें गधेके समान रेंकनेवाला जो धेनुकासुर दैत्य रहता था, उसने अपनी दुलत्ती चलाकर बलरामजीको चोट पहुँचानेकी चेष्टा की। तब शक्तिशाली बलदेवजी- ने दोनों हाथोंसे उसे पकड़कर ताड़के वृक्षपर दे मारा। वह फिर उठकर सामने आया तो बलरामजीने उसे पुनः जमीनपर दे पटका। फलतः उसका सिर फूट गया और वह मूच्छित हो गया। तब बलरामजीने शीघ्र ही उसके एक मुक्का मारा, जिससे उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। तदनन्तर श्रीकृष्णने कालियनागका दमन, दावाग्नि-पान आदि लीलाएँ कीं, फिर श्रीराधिकाजीके प्रति प्रेमप्रकाश करके उनके प्रेमकी परीक्षा ली, वृन्दावनमें विहार किया, हाव-भावयुक्त दानलीला और मानलीला, शङ्खचूडादिका वध और शिवासुरि- उपाख्यान इत्यादिके प्रवचनकी बहुत-सी लीलाएँ कीं। तदनन्तर एक समय गोवर्धन पूजा की गयी। इन्द्रने यज्ञ-भागसे वञ्चित होनेपर कुपित होकर सांवर्तक आदि मेघोंके द्वारा व्रजमण्डलपर घोर वर्षा आरम्भ कर दी। सारे व्रजवासी भवसे व्याकुल हो गये। भगवान् श्रीकृष्णने उनको आतुर देखकर- ‘डरो मत’ यों कहकर अभय दान दिया। फिर उन्होंने गिरिराज गोवर्धनको उखाड़कर, जैसे बालक छत्रक (कुकुरमुत्ता) को उठा लेता है, ठीक वैसे ही गोवर्धनको अपने एक हाथपर रख लिया। सात वर्षकी अवस्थावाले श्रीकृष्ण पूरे सात दिनोंतक पर्वतको हाथपर उठाये बिना हिले-डुले अविचल खड़े रहे। तब तो सम्पूर्ण देवताओंके साथ इन्द्र भयभीत हो गये और उन्होंने अत्यन्त नम्रताके साथ मुकुट झुकाकर भगवान् श्रीकृष्णके मङ्गलमय युगल चरणोंमें प्रणाम किया, उनकी स्तुति की और अभिषेक किया। तदनन्तर कामधेनु सुरभि और देवता तथा मुनियोंके साथ वे स्वर्गको चले गये। गोवर्धन-धारणकी इस अद्भुत लीलाको देखकर सभी गोप अत्यन्त विस्मित हो गये। फिर श्रीकृष्णने खेतमें मोती आदिके बीज बोकर मोती उपजानेका चमत्कारमय ऐश्वर्य गोपोंको दिखलाया ॥ २-८ ॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने श्रुतिरूपा, ऋषिरूपा, कोसलदेशनिवासिनी, अयोध्यावासिनी, मैथिली, यज्ञसीता, पुलिन्दका, रमावैकुण्ठवासिनी तथा श्वेत द्वीपनिवासिनी, ऊर्ध्ववैकुण्ठवासिनी अजितपद- वासिनी, श्रीलोकाचलनिवासिनी, दिव्या, अदिव्या, त्रिगुणावृत्ति, भूमि, गोपी, देवश्री, जालंधरी, बार्हिष्मती, पुरन्ध्री, अप्सरा, सुतलवासिनी और नागेन्द्रकन्या आदि गोपीयूथोंके साथ पृथक् पृथक् रास-मण्डलकी रचना की ॥ ९॥
एक समय श्रीबलरामजीके साथ श्रीकृष्णचन्द्र भाण्डीरवनमें गोपबालकोंके साथ गौएँ चराने गये। वहाँ जाकर एक-दूसरेको ढोने और ढोवानेका खेल करने लगे। उस समय वहाँ प्रलम्बासुर नामक एक दैत्य गोप-बालकका वेश धारणकर खेलमें शामिल हो गया, बलरामजी उसपर विजयी हुए। अतः उन्हें पीठपर चढ़ाकर वह चलने लगा। वह गिरिराजके समान विशाल देहवाला असुर मथुराकी ओर जाना चाहता था कि उस असुरकी पीठपर सवार अमित- पराक्रमी श्रीबलदेवजीने, रोषमें भरकर जैसे इन्द्र किसी पर्वतपर प्रहार करे, वैसे ही उसके मस्तकपर मुष्टि-प्रहार किया। उस प्रहारसे वज्रकी चोट खाये हुए पहाड़की तरह असुरका सिर टूक-टूक हो गया और उसी क्षण वह भूमिपर गिर पड़ा ॥ १०-११॥(Shribalbhadrakhand chapter 1 to 6)
एक समय गरमीके दिनोंमें सभी गौएँ और गोपाल किसी गूंजके वनमें जा पहुँचे। इतनेमें ही वहाँ बड़े जोरकी प्रलयाग्निके समान दावाग्नि जल उठी और वह चारों तरफ फैल गयी। तब गोपालगण ‘हे राम ! हे कृष्ण! हम शरणागत गोपालोंकी रक्षा करो, रक्षा करो।’ यों पुकार उठे। भगवान ने तुरंत कहा-‘डरो मत। तुम सब अपनी-अपनी आँखें मूंद लो।’ यों कहकर भगवान् उस भीषण दावाग्रिको पी गये। तदनन्तर गोपाल और गायोंके साथ भगवान् श्रीकृष्ण भाण्डीरवनसे यमुनाके तटपर पधारे और अशोकवनमें यज्ञदीक्षित द्विजोंकी पत्नियोंके द्वारा लाया हुआ भोजन ग्रहण किया। इसके बाद एक दिन व्रजमें नन्दबाबाको वरुण देवताने अपहरण कर लिया, तब भगवान्ने वरुणका मान-भङ्ग करके नन्द आदि गोपोंको सम्पूर्ण लोकोंके द्वारा नमस्कृत वैकुण्ठके दर्शन कराये। इसके अनन्तर एक दिन अम्बिका काननमें सरस्वती नदीके तटपर सुदर्शन नामक सर्प नन्दजीको निगलने लगा। तब भगवान् श्रीकृष्णने अखिल लोकपालोंके द्वारा वन्दनीय अपने चरणकमलका उससे स्पर्श कराया। चरण स्पर्श प्राप्त होते ही वह सर्प-शरीरसे मुक्त हो गया। एक समय श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ गोप-बालकोंको लिये आँखमिचौनी और चोर साहुकारका खेल खेल रहे थे। उसी समय कंसका सखा व्योमासुर चोरके रूपमें वहाँ आया। भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्रचण्ड दोनों भुजाओंसे उसे पकड़कर दसों दिशाओंमें घुमाते हुए पृथ्वीपर पटक दिया। इसी प्रकार कंसका – भेजा हुआ अरिष्टासुर बैलके रूपमें आया। भगवान्ने उसके दोनों सींग पकड़कर उसे भी धराशायी कर दिया। तब नारदजीने जाकर कंसको श्रीकृष्णकी ये सारी लीलाएँ सुनायीं। सुनकर कंसने केशीको भेजा, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने उसके मुँहमें अपनी भुजा प्रवेश कराकर उसके मर्मको भेद डाला। श्रीकृष्णने इस प्रकार बलरामजीके साथ व्रज-मण्डलमें अनेक अद्भुत लीलाओंकी रचना की ॥ १२-१७॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीरामकृष्णको व्रजलीलाका वर्णन’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६॥
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