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Garga Samhita Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13

Garga Samhita
Garga Samhita Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Shribalabhadrakhand Chapter 7 to 13 |
श्री गर्ग संहिता के श्रीबलभद्रखण्ड अध्याय 7 से 13 तक

श्री गर्ग संहिता में श्रीबलभद्रखण्ड के सातवें (Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13) अध्याय में श्रीराम-कृष्ण की मथुरा-लीला का वर्णन कहा है। आठवां अध्याय में श्री राम-कृष्ण की द्वारका-लीला का वर्णन है। नवाँ अध्याय में श्री बलरामजी की रासलीला का वर्णन कहा गया है। दसवाँ अध्याय में श्रीबलभद्रजी की पूजा-पद्धति और पटल कहा है। ग्यारहवां अध्याय में श्री बलराम स्तोत्र दिया गया है। बारहवाँ अध्याय में श्रीबलराम कवच और तेरहवाँ अध्याय में बलभद्र सहस्त्रनाम दिया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

सातवाँ अध्याय

श्रीराम-कृष्ण की मथुरा-लीला का वर्णन

प्राड्विपाक मुनि बोले- युवराज दुर्योधन ! भगवान् बलरामजी और श्रीकृष्णचन्द्रने मथुरामें जो-जो लीलाएँ कीं, उनका संक्षेपमें वर्णन कर रहा हूँ; सुनो। कुछ समयके पश्चात् कालनेमिकुमार कंसने बलराम और श्रीकृष्णको बुलानेके लिये अक्रूरजीको भेजा। अक्रूरजी व्रजमें पधारे। श्रीकृष्णको मथुरा जानेके लिये प्रस्तुत देखकर गोपियाँ विरहसे आतुर हो गयीं। भगवान्ने उन सबको अलग-अलग बुलाकर आश्वासन दिया। फिर बलरामजीसहित स्वयं रथपर सवार होकर अक्रूरजीके साथ मथुराकी ओर चले। जाते समय रास्तेमें यमुनाजी पड़ीं। उसके जलमें भगवान्ने अक्रूरको अपने तेज या धामके दर्शन कराये। तदनन्तर पूर्वाह्नके समय वे मथुरामें जा पहुँचे और अपराह्नकालतक मथुरापुरीको सब ओरसे देखते रहे। लीलारूपमें मनुष्यका वेष धारण किये हुए श्रीराम-कृष्ण साक्षात् पुराण-पुरुष हैं। मथुरा नगरीके सभी नर-नारियोंके मनमें उनके दर्शनका आनन्द प्राप्त करनेकी अभिलाषा उत्पन्न हो गयी और वे अपना सारा काम-धाम छोड़कर, जैसे नदियाँ समुद्रकी ओर दौड़ती हैं, वैसे ही उनकी ओर दौड़ पड़े। कोटि-कोटि कामदेवोंका दर्प चूर्ण करनेवाले भगवान् राम-कृष्णने अपना सौन्दर्य सबको दिखलाया और उन सबका मन हरण करते हुए वे स्वेच्छासे विचरण करने लगे ॥ १-३॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

तदनन्तर राजमार्गमें भगवान ने धोबी और रंगरेजसे कपड़ोंकी याचना की; परंतु उन्होंने जब वस्त्र नहीं दिये, तब सबके देखते-देखते ही हाथोंसे प्रहार करके धोबी और रँगरेज दोनोंको उस जीवनसे मुक्त कर दिया। तदनन्तर भगवान को एक दर्जी मिला। उसने वस्त्रोंके द्वारा उनको सजाया और भगवान ने उसे अपना सारूप्य प्रदान कर दिया। फिर कुब्जा सैरन्ध्री मिली। वह तीन जगहसे टेढ़ी थी। चन्दन ग्रहण करनेके बहाने भगवान्ने उसको सीधी कर दिया। वह तीनों लोकोंमें सुन्दरी बन गयी। तत्पश्चात् वहाँके वैश्य व्यापारियोंसे बातचीत की और कुछ बच्चोंको साथ लेकर, जहाँ कंसका धनुष रखा था, उस स्थानपर वे जा पहुँचे। वह धनुष स्वर्णसे मण्डित था और सात ताड़ वृक्षोंके बराबर उसकी लंबाई थी। हजारों पुरुषोंके द्वारा भी वह उठाया नहीं जा सकता था। वह धनुष अष्टधातुसे बना हुआ था, अत्यन्त भारी था और उसका बोझ लाख भारके समान था। कंसने वह धनुष परशुरामजी- से प्राप्त किया था। वह वैष्णव (भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाला) धनुष साक्षात् भगवान् शेषके समान कुण्डलाकार था। भगवान् श्रीकृष्णने उसे देखा और बलपूर्वक उठा लिया; फिर सब लोगोंके देखते- देखते ही लीलापूर्वक उस धनुषको चढ़ाया और कानतक तानकर ले गये। तदनन्तर दोनों भुजाओंका सहारा लगाकर उसको बीचसे उसी प्रकार तोड़ डाला, जैसे हाथी अपनी सूँड़से गन्नेको तोड़ देता है। धनुषके टूटनेकी भयानक ध्वनिसे पातालसहित सप्तलोकमय सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा। तारे और दिग्गजगण अपने स्थानसे विचलित हो चले। इतना ही नहीं, सारा भूमण्डल दो घड़ीतक थालीकी तरह काँपता रह गया ॥ ४-७ ॥

अपराह्नके समय रङ्गशालाके द्वारपर कुवलयापीड़ हाथी दिखायी दिया। भगवान्ने उसके समीप आकर बाललीलाके रूपमें क्षणभर उसके साथ युद्ध किया, तदनन्तर उसकी सूँड़को पकड़कर उसे इधर-उधर घुमाया और फिर वैसे ही जमीनपर पटक दिया, जैसे बालक कमण्डलुको पटक दे। कुवलयापीड़ हाथीका इस प्रकार वध करके श्रीबलराम और कृष्णचन्द्र कंस-रचित रङ्गभूमिमें पहुँचे और उन्होंने वहाँपर बैठे हुए सभी लोगोंको उनके अपने-अपने भावके अनुसार यथायोग्य दर्शन दिये। फिर अखाड़ेमें पहुँचकर मल्लयुद्धके लिये जा डटे और कंसके सामने सब लोगोंके देखते-देखते ही भगवान् बलराम और कृष्णचन्द्रने चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तौशलको धराशायी कर दिया। श्रीकृष्णके इन कार्योंको देखकर कंस दुर्वचनोंके द्वारा उनका तिरस्कार करने लगा। इसी बीच भगवान् श्रीकृष्ण कूदकर उस कटुभाषी कंसके अत्यन्त ऊँचे मञ्चपर चढ़ गये। तुरंत मृत्युके समान श्रीकृष्णको सामने आया देखकर कंस मञ्चसे उठा और भगवान की भर्त्सना करते हुए उसने उसी क्षण ढाल और तलवारको हाथमें उठा लिया। श्रीकृष्णने तुरंत ढाल-तलवार लिये हुए कंसको, जैसे गरुड अपनी चोंचसे विषधर सर्पको पकड़ ले, वैसे ही बलपूर्वक अपनी प्रचण्ड भुजाओंसे पकड़ लिया। पर गरुडकी चोंचसे जिस प्रकार सर्प छूटकर निकल भागे, उसी प्रकार कंस भगवान के भुज-बन्धनसे निकल गया और ढाल-तलवार लेकर फिर लड़नेके लिये तैयार हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण और कंस दोनों मञ्चपर आ गये और वेगपूर्वक एक-दूसरेपर आक्रमण करते हुए वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पर्वतपर दो सिंह लड़ते हुए शोभित हों। तदनन्तर कंस उछलकर सौ हाथ ऊपर आकाशमें चला गया, तब भगवान् श्रीकृष्णने भी वैसे ही उछलकर बाजकी तरह उसे पकड़ लिया। कंस पुनः श्रीकृष्णके हाथोंसे छूटकर निकल भागा, तब त्रिलोकको धारण करनेवाले श्रीकृष्णने फिर अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंसे उसको पकड़ लिया और इधर- उधर घुमाते हुए महाकाशसे उसे मञ्चपर पटक दिया। जैसे बिजली गिरनेसे वृक्ष टूट जाता है, उसी प्रकार कंसके गिरते ही मञ्चके खंभे टूट गये। वज्रके समान कठोर शरीरवाला वह कंस नीचे गिर पड़ा। एक बार उसे कुछ व्याकुलता हुई; परंतु वह फिर सहसा उठा और महात्मा श्रीकृष्णके साथ जूझने लगा। भगवान श्रीकृष्णने अपनी भुजाओंसे पकड़कर उसे मञ्चपर पटक दिया और वे उसकी छातीपर चढ़ बैठे। तब उन्होंने उसके सिरको पकड़कर केश खींचते हुए, जैसे पर्वतसे कोई चट्टानको गिराये, वैसे ही उसे मञ्चसे नीचे अखाड़ेमें गिरा दिया। तदनन्तर सबके आधार-स्वरूप अनन्त-पराक्रमशाली सनातन पुरुष भगवान् स्वयं वेगपूर्वक मञ्चसे कूदकर कंसके ऊपर जा पड़े। इस प्रकार दोनोंके गिरनेसे पृथ्वी कुछ नीचे भैंस गयी और सारा भूमण्डल तीन घड़ीतक थालीकी तरह काँपता रह गया। कंसके प्राण निकल गये। सबके देखते-देखते ही जैसे भूमिपर पड़े हुए गजराजको सिंह खींच रहा हो, वैसे ही वे कंसके शरीरको घसीटने लगे। राजाओंमें हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे- ‘अहो! कैसे आश्वर्यकी बात है कि वैरभावसे स्मरण करनेवाला कंस भी उन प्रभुके सारूप्यको वैसे ही प्राप्त हो गया, जैसे कीड़ा भृङ्गीके रूपमें परिणत हो जाता है॥ ८-१५ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

कंसकी मृत्यु देखकर उसके छोटे भाई तत्काल ढाल-तलवार लेकर वहाँ आ डटे। उनपर बलभद्रजी- की दृष्टि पड़ी और उन्होंने मुगर उठाकर सब ओरसे प्रहार करते हुए सबको धराशायी कर दिया। तब देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। सर्वत्र जय- जयकारकी ध्वनि होने लगी। देवताओंने पुष्पोंकी वर्षा की। विद्याधरियाँ नृत्य करने लगीं और विद्याधर, गन्धर्व तथा किंनर भगवान् का यशोगान करने लगे। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने सबको आश्वासन देकर माता-पिताको बन्धनमुक्त किया और उग्रसेनको राज्य सौंप दिया। फिर यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न होनेपर सांदीपनि मुनिके समीप जाकर समस्त विद्याओंका अध्ययन किया। दक्षिणारूपमें मरे हुए गुरुपुत्रोंको लाकर प्रदान किया, शङ्खासुरका वध किया। फिर वे मथुरामें आकर निवास करने लगे। व्रजकी व्यथाको दूर करनेके लिये भगवान्ने उद्धवको वहाँ भेजा। फिर स्वयं वहाँ जाकर रासमण्डलमें श्रीराधा और गोपियोंको अपने दर्शन कराये। रासमें ऋभु ऋषिको मुक्ति दी, फिर मथुरामें मथुरानरेशके सदृश कार्य करते हुए विराजमान हुए। बलरामजीने भी कोलासुरका वध करके मथुरापुरीमें शुभागमन किया। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी हजारों-हजारों पवित्र और विचित्र लीलाएँ मथुरामें सम्पन्न हुई ॥ १६-१७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्रा विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीराम-कृष्णकी मथुरा-लीलाका वर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

आठवां अध्याय

श्री राम-कृष्ण की द्वारका-लीला का वर्णन

प्राड्विपाक मुनिने कहा- युवराज दुर्योधन । अब भगवान् श्रीबलराम और श्रीकृष्णकी द्वारका- लीलाओंको संक्षेपमें सुनो। धृतराष्ट्र-तनय! जब कंसका देहावसान हो गया, तब उसके न रहनेपर भी उसके साथ अन्तरङ्ग मैत्रीका निर्वाह करनेके लिये जरासंध आया। भगवान्ने उसपर विजय प्राप्त की। तदनन्तर समुद्रके बीचमें द्वारका दुर्गका निर्माण किया। फिर एक ही रात्रिमें अपने सारे बन्धु- बान्धवोंको वहाँ भेजकर उनके रहनेकी व्यवस्था की। कालयवनके आनेपर मुचुकुन्दद्वारा उसका वध करवाया। तदनन्तर बलरामजी और श्रीकृष्ण दोनों प्रवर्षण पर्वतपर गये और वहाँसे द्वारकाको प्रस्थान किया ॥ १ ॥

ब्रह्मलोकसे लौटे हुए राजा रेवतने रत्न आदि आभूषणोंसे अलंकृत कन्या रेवतीको लेकर आगमन किया और प्रतापी बलरामजीके हाथोंमें उसे सविधि समर्पण कर दिया। फिर राजा रेवत तप करनेके लिये बदरिकाश्रमको चले गये। उसके बाद श्रीकृष्णने कुण्डिनपुर जाकर शत्रुओंके देखते-देखते रुक्मिणीजीका हरण किया एवं जाम्बवती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, नाग्ग्रजिती, भद्रा और लक्ष्मणाका एवं भौमासुरका वध करके सोलह हजार एक सौ राजकन्याओंका पाणिग्रहण किया। राजन् ! भीष्मककुमारी रुक्मिणीके गर्भसे भगवान् श्रीकृष्णके प्रथम पुत्र प्रद्युम्न हुए। ये कामदेवके अवतार अपने पिता श्रीकृष्णके समान ही सुन्दर थे। इनसे अनिरुद्धका जन्म हुआ, जो ब्रह्माके अवतार हैं॥ २-४ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

तत्पश्चात् एक समय राजा उग्रसेनके यहाँ राजसूय यज्ञका प्रस्ताव हुआ और दिग्विजयके लिये प्रद्युम्रजीने बीड़ा उठा लिया। यादवों तथा अपने भाइयोंके साथ उन्होंने विजययात्रा आरम्भ की और जम्बूद्वीपके नौ खण्डोंपर विजय प्राप्त करके कामदुघ नदके समीप पहुँचे। वहाँ वसन्तमालती नामक नगरीके स्वामी गन्धर्वराज पतंगके साथ उनका युद्ध हुआ। गदा-युद्ध आरम्भ होनेपर बलदेवजीके छोटे भाई गदने गदाके द्वारा गदाधारी पतंगपर प्रहार किया। पतंगने भी गदाके द्वारा बड़े वेगसे गदके हृदयपर आधात किया। इस प्रकार दो घड़ीतक दोनोंका युद्ध होनेके पश्चात् पतंगकी गदाके प्रहारसे क्षणभरके लिये गदको मूर्च्छा आ गयी। उस समय हाहाकार मच गया और इसी बीच करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी बलभद्रजी वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने गन्धवौँकी सारी सेनाको हलकी नोकके द्वारा खींच लिया और उसके ऊपर कठोर मुसलका प्रहार करना आरम्भ कर दिया। इससे पतंगकी सारी सेना-शूरवीर योद्धा, हाथी और रथ सभी चूर-चूर हो गये।तब तो रथहीन पतंग भयभीत होकर अपने नगरको चला गया और यादवोंसे युद्ध करनेके लिये फिरसे व्यूहाकार सेना सजाने लगा। बलभद्रजीको जब इसका पता लगा, तब वे अत्यन्त क्क्रुद्ध होकर गन्धवाँकी वसन्तमालती नामकी उस विशाल नगरीको, जिसका विस्तार सौ योजनमें था, हलके द्वारा उखाड़ लिया और कामदुघ नदमें डुबा देनेके लिये उसे खींचने लगे। नगरीके महलों और घरोंका गिरना-ढहना आरम्भ हो गया। चारों ओर हाहाकार मच उठा। सारी नगरी समुद्रमें चक्कर खाती हुई टेढ़ी नावकी तरह घूमने लगी। यह देखकर गन्धर्व- राज पतंग भयभीत हो गये और अपने गन्धर्व भाई- बन्धुओंके साथ हाथ जोड़कर बलभद्रजीके समीप उपस्थित हुए। उन्होंने विश्वकर्माके द्वारा निर्मित दो लाख विमान, चार लाख हाथी, एक करोड़ घोड़े और दस करोड़ स्वर्ण तथा दिव्य रत्नोंका भार बलदेवजीकी सेवामें समर्पण किया और प्रदक्षिणा करके उनको प्रणाम किया ॥ ५-९॥

फिर साम्बको छुड़ानेके लिये बलरामजी यहाँ तुम्हारे हस्तिनापुरमें पधारे और तुम सबके सामने ही उन्होंने हलकी नोकसे तुम्हारे नगरको उखाड़ लिया और गङ्गामें डुबोनेके लिये खींचने लगे। फिर नाग कन्या गोपियोंके साथ रास-मण्डलमें यमुनाजीको भी उन्होंने अपने हलकी नोकसे खींचा। तदनन्तर, एक समयकी बात है, नारदजीकी प्रेरणासे भौमासुरका सखा और सुग्रीवका मन्त्री द्विविद नामक बंदर युद्ध करनेके लिये आया। रैवतक पर्वतपर बलरामजीके साथ चार घड़ीतक उसका युद्ध हुआ। वह वृक्ष और शिलाओंके द्वारा बलरामजीपर प्रहार कर रहा था। उसी स्थितिमें बलरामजीने मुसलके द्वारा उसके मस्तकपर चोट पहुंचायी; पर वह मरा नहीं और फिरसे बलरामजीको मुक्का मारकर दौड़ा। भगवान् अच्युतके बड़े भाई बलरामजीने अपने दोनों हाथोंसे उसे पकड़ लिया और रैवतक पर्वतपर दे मारा, फिर उसके हृदयमें बड़े जोरसे मुष्टि-प्रहार किया। तब बंदर नीचे गिर गया। उसके गिरनेसे वृक्षसहित सारा पर्वत कमण्डलुकी तरह काँपने लगा ॥ १०-११॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

प्रिय दुर्योधन। तदनन्तर पाण्डवोंके साथ तुम- लोगोंके युद्धका उद्योग सुनकर बलरामजी तीर्थयात्राके बहाने नागरिकों और ब्राह्मणोंको साथ लेकर द्वारकाकी प्रदक्षिणा करके पुरीसे बाहर निकले। फिर उन्होंने सिद्धाश्रम और प्रभासमें स्नान किया। पश्चिम दिशामें स्थित सरस्वती, प्रतिस्रोता, सैन्धवारण्य, जम्बूमार्ग, उत्पलावर्त, अर्बुद (आबू), हेमवन्त और सिन्धुनदमें पृथक् पृथक् स्रान किया। तदनन्तर बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शन, अत्रितीर्थ, औशनस, आग्नेय, वायव, सौदास, गुहतीर्थ और श्राद्धदेव आदि तीर्थोंमें ज्ञान किया। तदनन्तर उत्तर दिशामें जाकर कैलास, करवीर, महायोग, गणेश, कौबेर, प्राग्ज्योतिष, रङ्गवल्ली, सीताराम आदि क्षेत्र, चैत्रदेश, वसन्ततिलक, दशार्ण, भद्र, कूर्मतीर्थ, पुष्पमाला, चित्रवण, चन्द्रकान्त, नैश्रेयस, मनु पर्वत, चक्षु, कामशालिनी, कामवन, वेदक्षेत्र सीता, पृथुतीर्थ, तपोभूमि, लीलावती, वेदनगर, गान्धर्व, शक्र, भीमरथी, श्रीजाह्नवी, कालिन्दी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, मथुरा और पुष्कर आदि तीर्थोंमें स्नान किया। फिर वहाँसे संभलग्राम और सूकरक्षेत्र (सौरौं) में गये। इस प्रकार तीर्थोंकी यात्रा करते हुए साक्षात् संकर्षण श्रीबलरामजी नैमिषारण्यमें पहुँचे ॥ १२-१३ ॥

बलरामजीको आया देखकर शौनकादि मुनियोंने खड़े होकर उनको प्रणाम किया और उनकी अर्चा की। वहाँ वेदव्यासजीके शिष्य रोमहर्षणजी विराजमान थे। वे खड़े नहीं हुए। बलरामजीने यह देखकर हाथमें जो कुशा लिये हुए थे, उसीकी नोकसे मुनिको निहत कर दिया। यह देखकर सब मुनि हाहाकार करने लगे। बलरामजीने यह सब देखा। समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले होनेपर भी उन्होंने लोक-संग्रहके लिये अपनी शुद्धिकी कामनासे बारह महीनेतक तीर्थ-स्रान करनेका व्रत ले लिया। वहाँ इल्वलका पुत्र बल्वल नामक दैत्य रहता था। वह नैमिषारण्यमें पर्वर्वोके अवसरपर भयानक आँधीके साथ-साथ धूलकी तथा दुर्गन्धपूर्ण पीब, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, मंदिरा और मांस आदिकी वर्षा करता। उसकी जीभ सदा लपलपाया करती, वज्रके समान दृढ़ उसके अङ्ग थे। कज्जलगिरिके समान उसकी काली आकृति थी और तपाये हुए ताँबेके समान मूँछ दाढ़ीवाला वह असुर बड़ा ही भयानक दीख पड़ता था। ऋषि-ब्राह्मणोंकी शान्तिके लिये उस भयानक असुरको बलरामजीने आकाशमें खींचकर उसके मस्तकपर मुसलके द्वारा प्रहार किया। मुसलकी चोट लगते ही उसके प्राण निकल गये और वह आकाशसे कमण्डलुकी तरह नीचे गिर पड़ा। तदनन्तर प्रसन्नतासे खिले हुए मुखवाले मुनियोंने बलरामजीका स्तवन किया, उनको बड़े-बड़े आशीर्वाद दिये और जिस प्रकार वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्रका देवतालोगोंने अभिषेक किया था, उसी प्रकार बलरामजीका अभिषेक किया। तदनन्तर मुनियोंसे आज्ञा लेकर बलरामजीने सरयू, कौशिकी (कोसी), मानसरोवर, गण्डकी और गौतमी आदि तीर्थोंमें स्त्रान किया। फिर अयोध्या, नन्दिग्राम, बर्हिष्मती और ब्रह्मावर्त आदि तीर्थोंमें स्नान करके वे तीर्थराज प्रयागमें पधारे और वहाँ दस हजार हाथियोंका दान किया। तदनन्तर चित्रकूट, विन्ध्याचल, काशी, विपाशा, शोण, मिथिला और गया आदि तीर्थोंमें स्नान करके गङ्गा- सागर-संगमपर गये और वहाँ स्वर्णके सींगोंसे और सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित सौ करोड़ गौएँ ब्राह्मणोंको दान दीं। प्रत्येक गौपर स्वर्ण और रत्नोंका भार पृथक् रूपसे लदा हुआ था। तदनन्तर वहाँसे दक्षिण दिशामें जाकर क्रमशः महेन्द्रादि पर्वत, सप्त गोदावरी, वेणी, पम्पा, भीमरथी, स्कन्दक्षेत्र, श्रीशैल, वेङ्कट, काञ्ची, कावेरी, श्रीरङ्ग, ऋषभाद्रि, समुद्रसेतु, कृतमाला, ताम्रपर्णी, मलयाचल, कुलाचल, दक्षिणसिन्धु, फाल्गुनतीर्थ, पंचाप्सर, गोकर्ण, शूर्पारक, तापी, पयोष्णी, निर्विन्ध्या, दण्डक, रेवा, माहिष्मती और अवन्तिका आदि तीर्थोंका स्वयं भगवान् संकर्षणने सेवन किया। तत्पश्चात् तुम्हारी सहायताके लिये विशसन (कुरुक्षेत्र) में पधारेंगे। यह मैंने बलभद्रजीका परम पावन तीर्थयात्रा-चरित्र तुम्हारे सामने वर्णन किया। कौरवेन्द्र। यह सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला, सर्वकल्याणकारी पवित्र प्रसङ्ग है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १४-१८॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राङ्ड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीराम-कृष्णकी द्वारका-लीलाका वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

नवाँ अध्याय

श्री बलरामजी की रासलीला का वर्णन

दुर्योधनने पूछा- भगवन् मुनिसत्तम । भगवान् बलभद्रजीने नागकन्या गोपियों के साथ यमुनाजी के तटपर कब विहार किया था ? ॥१॥

प्राड्विपाक मुनि बोले- एक समयकी बात है, व्रजके सुहृद्-बन्धुओंको देखनेकी बलरामजीके मनमें बड़ी उत्कण्ठा पैदा हो गयी। तब वे अपने तालध्वजसे युक्त रथपर सवार होकर द्वारकासे निकले और गौओं, गोपालों तथा गोपियोंसे भरे गोकुलमें जा पहुँचे। नन्दराज और यशोदाजी भी बहुत दिनोंसे उन्हें देखनेके लिये उत्कण्ठित थे, अतएव उन्होंने उनको हृदयसे लगा लिया। फिर बलभद्रजी गौओं, गोपियों और गोपालोंसे मिले और पूरे वसन्तके दो महीने उन्होंने वहाँ निवास किया। पहले जिन नागकन्याओंके गोपी होनेका वर्णन आ चुका है, उन्होंने गर्गाचार्यजीसे बलभद्रजीका पञ्चाङ्ग प्राप्त करके उसे सिद्ध किया था। उसीके प्रभावसे बलभद्रजीने प्रसन्न होकर कालिन्दीके तटपर उनके साथ रासमण्डलमें रास- क्रीड़ा की। उस दिन चैत्रकी पूर्णिमा थी। अरुण वर्णके पूर्ण चन्द्र उदित होकर सारे वनको अपनी रंग-विरंगी किरणोंसे रञ्जित कर रहे थे। शीतल पवन कमलके मकरन्द और परागको लिये सर्वत्र मन्द गतिसे प्रवाहित हो रहा था। आनन्ददायिनी यमुना अपनी चञ्चल लहरियोंसे निर्मल पुलिनभूमिको व्याप्त कर रही थी। कुओंकी प्राङ्गण-भूमि विविध निकुञ्ज-पुोंसे सुशोभित तथा चमचमाते हुए सुन्दर पल्लवों और पुष्पोंके परागसे आवृत थी। मोर और कोयल मधुर स्वरमें कूँज रहे थे और मधुपान-मत्त मधुकरोंकी मधुर ध्वनिसे मुखरित व्रज-भूमि अत्यन्त शोभाको प्राप्त हो रही थी।(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

बलरामजीके पैरोंमें नूपुरकी मधुर ध्वनि हो रही थी। चमकती हुई मणियोंके कड़े, करधनी, केयूर, हार, किरीट और कुण्डलोंसे वे अलंकृत थे। उनके वदनपर कमल-दलकी छटा छा रही थी। वे नीलाम्बर धारण किये हुए थे। उनके विमल कमल-दलके समान नेत्र थे। ऐसे श्रीबलदेवजी यक्षिणियोंके साथ यक्षराजकी भाँति रासमण्डलमें गोपियोंके द्वारा घिरे हुए विराजित थे ॥ २-५ ॥

तदनन्तर वरुणके द्वारा प्रेरित वारुणी देवी वृक्षोंके कोटरोंसे प्रकट होकर बहने लगीं। उस पुष्पासवकी सुगन्धसे सारा वन सुगन्धमय हो गया। मधुके लोभसे मधुकर-पुञ्ज मधुर गुजार करने लगा। वारुणि-पानसे मद-विह्वल, कमल-दलके समान विशाल और अरुण नेत्रवाले बलदेवजीके अङ्ग प्रेमावेशसे चञ्चल हो उठे। तदनन्तर लीला-विहारजन्य श्रमके कारण जलकणकी भाँति पसीनेकी बूंदें उनके मुखपर प्रकट हो गयीं और उन्होंने कपोलोंपर रचित चित्रकारीको धो दिया। तदनन्तर गजराजकी-सी चालवाले और गजेन्द्र ऐरावतकी सूँड़के समान विशाल भुजाओंवाले बलदेवजी गोपियोंके साथ वैसे ही क्रीड़ा करने लगे, जैसे उन्मत्त मातङ्ग हथिनियोंके साथ करता है। उनके सिंहस्कन्धतुल्य कंधेपर हल और हाथमें मुसल सुशोभित था। करोड़ों-करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओंकी प्रभाके समान उनका तेज छिटक रहा था। देदीप्यमान रत्नोंके मञ्जीर, चञ्चल नूपुर, मधुर शब्द करती हुई स्वर्णमयी किङ्किणी, कड़े, ताटङ्क, हार, श्रीकण्ठ, अँगूठियाँ और सिरपर दिव्य मणिभूषण सुशोभित थे। काली नागिनको लजानेवाली कृष्ण अलकावलौकी वेणीसे युक्त और कपोलोंपर चित्रित मनोहर पत्रावलियोंसे सुशोभित गोप-सुन्दरियोंके साथ अखिल भुवनपति भगवान् बलरामजी वहाँ विराजित होकर रास-विहार करने लगे ॥ ६ ॥

फिर यमुनाके किनारे वनमें विचरण और क्रीड़ा करते हुए बलदेवजीके मुख कमलपर पसीनेकी बूंदें दिखायी देने लीं। तब उन्होंने स्रान तथा जल-क्रीड़ा करनेके लिये दूरसे ही यमुनाजीको पुकारा, परंतु यमुना नहीं आर्यों। फिर तो बलदेवजीने क्रोधमें भरकर हलकी नौकसे यमुनाजीको खींच लिया और कहा ‘आज मैंने तुमको बुलाया, किंतु तुम मेरा अपमान करके नहीं आयी। तुम मनमाना बर्ताव करनेवाली हो। अच्छा, अभी इस मुसलके द्वारा मैं तुम्हारे सौ टुकड़े कर देता हूँ।’ यमुनाजीको जब बलरामजीने इस प्रकार डाँटा, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर उनके चरणकमलों पर गिर पड़ीं और बोलीं- ‘हे लोकाभिराम राम ! हे संकर्षण। बलभद्र। हे महाबाहो !! मैं आपके असीम बल-पराक्रमको नहीं जानती थी। आपके एक ही मस्तकपर सारा भूखण्ड मण्डल सरसोंके समान पड़ा रहता है। मैं आपके परम प्रभावसे अनभिज्ञ हूँ और आपकी शरणमें आयी हूँ। आप भक्तवत्सल हैं। मुझे छोड़ दीजिये।’ इस प्रकार प्रार्थना करनेपर गोपराज बलभद्रजीने यमुनाको छोड़ दिया और हथिनियोंके साथ गजराजकी भाँति वे गोपियोंके साथ जलक्रीड़ा करने लगे। तदनन्तर उनके यमुनासे बाहर निकलनेपर यमुनाजीने आकर उन्हें बहुत-से नील वस्त्र और स्वर्ण तथा रत्नोंके आभूषण भेंट किये। दुर्योधन! बलरामजीने उन सब वस्त्राभूषणोंको पृथक् पृथक् गोपियोंमें बाँट दिया और स्वयं नीलाम्बर तथा नवीन रत्नोंसे निर्मित स्वर्णमालाको धारण करके ऐरावतकी भाँति विराजमान हो गये। कौरवेन्द्र ! इस प्रकार क्रीड़ारत यादवश्रेष्ठ बलरामजीने वसन्त ऋऋतुकी रात्रिको व्यतीत किया। जिस प्रकार हस्तिनापुरको देखनेपर भगवान् बलरामजीके पराक्रमका दर्शन होता है, उसी प्रकार आजतक यमुनाजी टेढ़े मार्गसे प्रवाहित होती हुई उनकी शक्तिको सूचित कर रही हैं। भगवान् बलरामजीके इस रासलीलाके प्रसङ्गको जो मनुष्य सुनता अथवा सुनाता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर परमानन्द-पदको प्राप्त होता है। युवराज! अब क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ७-११॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीबलरामजीकी रासलीलाका वर्णन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥९॥

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दसवाँ अध्याय

श्रीबलभद्रजी की पूजा-पद्धति और पटल

दुर्योधनने कहा- भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं। यह बतानेकी कृपा कीजिये कि गोपियोंके यूधको श्रीगर्गाचार्यजीने बलभद्र-पञ्चाङ्ग किस प्रकार प्रदान किया था ॥ १॥

प्राड्विपाक मुनि बोले- कुरुराज! एक बार गर्गजी यमुना-स्नान करनेके लिये गर्गाचलसे चलकर ब्रजपुरमें पधारे। यमुनाजीकी तटकी ललित लताएँ पवनके प्रवाहसे हिल रही थीं। पुष्पोंके सौरभसे मत्त हुए भ्रमरोंके समूह गुंजार कर रहे थे। इस प्रकारके यमुना-तटपर एक निकुञ्जके नीचे एकान्तमें श्रीगर्गाचार्य भगवान् बलराम और श्रीकृष्णका ध्यान करने लगे। उस समय गोपियोंने आकर उनको प्रणाम किया। उनको स्मरण हो आया कि हम पूर्वजन्मकी नागेन्द्र- कन्याएँ हैं। तब उन्होंने बलभद्रजीको प्राप्त करनेके लिये गर्गजीसे सेवाका साधन पूछा। कन्याओंकी इस अनुपम भक्तिको देखकर उनके उद्देश्यको सिद्धिके लिये गर्गजीने उनको पद्धति, पटल, स्तोत्र, कवच और सहस्रनाम-यह पञ्चाङ्ग साधन प्रदान किया। अब बताओ, तुम और क्या सुनना चाहते हो ?॥ २ ॥

दुर्योधनने कहा- ब्रह्मन् गुरुदेव ! आप भक्तवत्सल हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप कृपया बलरामजीकी ‘पद्धति’ का वर्णन कीजिये, जिसे जानकर मैं सिद्धि प्राप्त कर सकूँ ॥ ३॥

प्राड्विपाक मुनि बोले- राजसत्तम । जिससे महाप्रभु बलरामजी प्रसन्न हो जाते हैं, उस बलभद्र- पद्धतिके नियम सुनो। वे भगवान् बलरामजी सहल- मुखवाले हैं। समस्त भुवनोंके अधीश्वर हैं। बहुत से दान और तीर्थ-सेवनसे उनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। वे तो केवल ‘अनन्य भक्ति’ से प्राप्त होते हैं। श्रीहरिके बड़े भाई उन बलरामजीकी भक्ति सत्सङ्ग के द्वारा शीघ्र प्राप्त हो सकती है। जिनमें प्रेमलक्षणा-भक्तिका उदय हो जाता है, वे ही सिद्ध पुरुष हैं। ब्राह्ममुहूर्तमें उठते ही भगवान् राम-कृष्णके नामोंका उच्चारण करे, फिर गुरुदेवको और पृथ्वीको (मनसे) प्रणाम करके पृथ्वी- पर पैर रखे। तदनन्तर स्नान-आचमन करके निर्जनमें कुशासनपर बैठ जाय, दोनों हाथ गोदमें रख ले और अपनी नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर परमदेव सनातन हरि भगवान् श्रीबलरामजीका ध्यान करे। उनका गौरवर्ण है। उन्होंने नीलाम्बर धारण कर रखा है। वे वनमालासे विभूषित हैं। बड़ी मनमोहन मूर्ति है। ऐसे हलधर भगवान् बलरामजीको प्रसन्न करनेके लिये नित्य उनका ध्यान करना चाहिये। साधकको चाहिये कि वह बाहर भीतरसे पवित्र हो, मौन धारण करे और क्रोधका त्याग करके तीनों कालमें संध्या- वन्दन करे। मनमें कोई कामना, लोभ और मोह न रहे। सत्यभाषण करे। जितेन्द्रिय होकर एक बार मात्र पायसका भोजन करे। दो बार जलपान करे। पवित्र रेशमी वस्त्र पहने और जमीनपर शयन करे। इस प्रकार छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर एकाग्र मनसे भजन करनेपर सम्पूर्ण कारणोंके कारण परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् श्रीसंकर्षणजी सदाके लिये प्रसन हो जाते हैं। महाबाहु कौरवराज! इस प्रकार मैंने महात्मा बलभद्रजीकी ‘पद्धति’ का वर्णन किया, अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ४-१४ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

दुर्योधनने कहा- मुनिराज ! अब देवदेव बलरामजीका ‘पटल’ सुनाइये, जिसका साधन करके मैं सदा उनके चरण-कमलोंकी सेवा कर सकूँ ॥ १५ ॥

प्राड्विपाक मुनि बोले- भगवान् बलरामजीका पटल महान् गोपनीय और सिद्धि प्रदान करनेवाला है। इसे पहले ब्रह्माजीने एकान्त स्थानमें महात्मा नारदजीको दिया था। पहले प्रणव (ॐ) लिखकर फिर कामबीज (कीं) लिखना चाहिये। तत्पश्चात् ‘कालिन्दीभेदन’ और ‘संकर्षण’ इन दो पदोंको चतुर्थ्यन्त लिखकर अन्तमें स्वाहा जोड़ देना चाहिये। यों करनेपर ‘ॐ कीं कालिन्दीभेदनाय संकर्षणाय स्वाहा’- यह मन्त्र बन जाता है। यह षोडशाक्षर मन्त्रराज ब्रह्माजीके द्वारा कहा गया है। मनुष्यको व्रत लेकर इस मन्त्रका एक लाख सोलह हजार जप करना चाहिये। इस प्रकार करनेपर साधक इस लोक और परलोकमें परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई संदेह नहीं। मन्त्र जपके बाद विशेष रूपसे महापूजा करनी चाहिये। (उसका विधान यह है-) राजन् ! मनोरम स्थण्डिलपर कर्णिकास्थित केसरोंसे उज्ज्वल बत्तीस दलोंवाला एक सुन्दर पाँच रंगका कमल अङ्कित करे। उसपर मङ्गलमय स्वर्ण- सिंहासन रखे। उसके ऊपर बलरामजीकी परम श्रेष्ठ मूर्तिको पधराकर उनकी भलीभाँति पूजा करे। ‘ॐ नमो भगवते पुरुषोत्तमाय वासुदेवाय संकर्षणाय सहस्त्रवदनाय महानन्ताय स्वाहा’ इस मन्त्रसे शिखा-बन्धन करे। तत्पश्चात् श्रीबलरामजीको सब दिशाओंमें प्रणाम करके उनके सम्मुख अत्यन्त विनयपूर्वक बैठ जाय। फिर ‘ॐ जय जयानन्त बलभद्र कामपाल तालाङ्क कालिन्दीभञ्जन आविराविर्भूय मम सम्मुखो भव।’ इसको पढ़कर आवाहन करे ॥ १६-२२॥

तदनन्तर ‘नमस्तेऽस्तु सीरपाणे हलमुसलधर रौहिणेय नीलाम्बर राम रेवतीरमण नमस्तेऽस्तु ।

इस मन्त्रके द्वारा आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्रानीय, यज्ञोपवीत, वस्त्र, भूषण, गन्ध, अक्षत, पुष्प, मधुपर्क, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्पाञ्जलि आदि उपचार प्रदान करे। अनन्तर

‘ॐ विष्णवे मधुसूदनाय वामनाय त्रिविक्रमाय दामोदराय श्रीधराय हृषीकेशाय पद्मनाभाय संकर्षणाय वासुदेवाय प्रद्युम्नायानिरुद्धायाधोक्षजाय पुरुषोत्तमाय श्रीकृष्णाय नमः ।’

– इस मन्त्रके द्वारा पाद, गुल्फ, जानु, ऊरु, कटि, उदर, पार्श्व, पीठ, भुजा, कंधे, अधर, नेत्र और मस्तक आदि सर्वाङ्गकी पृथक् पृथक् पूजा करे। इसके बाद शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, असि, धनुष, वेत्र, हल, मुसल, कौस्तुभ, वनमाला, श्रीवत्स, पीताम्बर, नीलाम्बर, वंशी, वेत्र, गरुडाङ्क और तालाङ्क ध्वजसे चिह्नित रथ, दारुक, सुमति, कुमुद, कुमुदाक्ष और श्रीदामा-इन शब्दोंके पहले ॐ और अन्तमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें ‘नमः’ शब्द जोड़ दे। इससे ‘ॐ शङ्खाय नमः’, ‘ॐ चक्राय नमः’ – ऐसा रूप बन जायगा। इन मन्त्रोंके द्वारा सबका पूजन करे। इसी प्रकार कमलके सब ओर अपने-अपने स्थानपर विष्वक्सेन, वेदव्यास, दुर्गा, गणेश, दिक्पाल और नवग्रह आदिका भी पृथक् पृथक् पूजन करना चाहिये। तदनन्तर परिसमूहन आदि स्थाली पाकके विधानसे अग्निदेवकी पूजा करके पूर्वोक्त ‘ॐ र्की कालिन्दीभेदनाय संकर्षणाय स्वाहा।‘ इस मन्त्रसे पचीस हजार आहुतियाँ दे। फिर इसी प्रकार ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर मन्त्रसे आठ हजार और चतुव्यूंहसंज्ञक ‘ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय साक्षिणे। प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः संकर्षणाय च॥‘- इस मन्त्रसे आठ हजार आहुतियाँ दे। इसके बाद अग्निकी प्रदक्षिणा करे और आचार्यको नमस्कार करके उन्हें मूल्यवान् वस्त्र, स्वर्णके आभूषण, ताम्रपात्र, सवत्सा गौ और स्वर्ण आदि दक्षिणा देकर प्रसन्न करे। फिर ब्राह्मणोंका पूजन-सत्कार करके उनको तथा नगरवासी जनोंको भोजन कराये। तत्पश्चात् आचार्यको प्रणाम करे। जो पुरुष इस पटल- पद्धतिके अनुसार श्रीबलरामजीका स्मरणपूजन करता है, वह इस लोक और परलोकमें विविध सिद्धियों और समृद्धियोंके द्वारा सुसम्पन्न होता है। हे राजन् ! भगवान बलरामजीका यह गोपनीय और सर्वसिद्धिप्रद ‘पटल’ तुमको सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २३-२५॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीबलभद्रजीकी पूजा-पद्धति और पटल’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०॥

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ग्यारहवां अध्याय

श्री बलराम स्तोत्र

दुर्योधनने कहा- महामुनि प्राड्विपाकजी! अब भगवान् श्रीबलरामजीका वह स्तोत्र, जो साक्षात् समस्त सिद्धियोंको प्रदान करनेवाला है, कृपापूर्वक मुझसे कहिये ॥ १ ॥

प्राड्विपाक मुनि बोले- राजन् ! बलरामजीका स्तोत्र श्रीवेदव्यासजीके द्वारा प्रणीत है, यह मनुष्योंको समस्त सिद्धियाँ और मोक्ष भी प्रदान करनेवाला है। इस शुभ स्तवराजको तुम सुनो ॥ २॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

“देवादिदेव ! भगवन्! कामपाल! आपको नमस्कार। हे बलरामजी! आप साक्षात् अनन्त और शेषजी हैं, आपको नमस्कार। आप पृथ्वीको धारण करनेवाले, परिपूर्ण ब्रह्म, स्वयं प्रकाशमान, हाथमें हल लिये हुए, हजार मस्तकोंसे युक्त संकर्षण हैं। आपको नित्य मेरे नमस्कार हैं। पुरुषश्रेष्ठ बलरामजी! आप भगवान् अच्युतके बड़े भाई हैं, रेवतीके स्वामी हैं, हल आपका शस्त्र है और आप प्रलम्बासुरका संहार करनेवाले हैं। आप मेरी रक्षा करें। भगवान् बलराम, बलभद्र और तालध्वजको मेरे बार-बार नमस्कार हैं। आप गौरवर्ण हैं, नीलाम्बर धारण किये हुए हैं, रोहिणीके कुमार हैं; आपको नमस्कार। आप धेनुकासुर, मुष्टिकासुर, कूट, बल्वल, रुक्मी, कूपकर्ण और कुम्भाण्डके शत्रु और उनके संहारक हैं। आप कालिन्दीका भेदन करनेवाले, हस्तिनापुरका आकर्षण करनेवाले, द्विविद वानरका वध करनेवाले, यादवोंके राजा और व्रज-मण्डलको सुशोभित करनेवाले हैं। आपने कंसके भाइयोंका वध किया है, आप सबके स्वामी और तीर्थोंमें भ्रमण करनेवाले हैं। आप दुर्योधनके साक्षात् गुरु हैं। प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। हे अच्युत ! आपकी जय हो, जय हो। हे परात्पर देव! आप स्वयं अनन्त एवं दिशा-विदिशाओंमें कीर्तित हैं। आप देवता, मुनि और सर्पोंके स्वामियोंमें श्रेष्ठ हैं। हल तथा मुसलको धारण करनेवाले भगवान् बलरामजीको मेरे नमस्कार हैं। जो मनुष्य इस स्तवराजका निरन्तर पाठ करता है, वह श्रीहरिके परमपदको प्राप्त होता है। जगत्में वह शत्रुका शमन करनेवाले सम्पूर्ण बलोंसे सम्पन्न हो जाता है और उसे धन तथा स्वजन प्रचुररूपसे प्राप्त रहते हैं॥ ३-११॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राड्विपाक मुनि और दुर्योधनके
संवादमें ‘श्रीबलरामस्तोत्र’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

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बारहवाँ अध्याय

श्रीबलराम कवच

दुर्योधनने कहा- महामुने। धीमान् गर्गाचार्यने गोपियोंको जो सब तरहसे रक्षा करनेवाला दिव्य कवच दिया था, आप उसे मुझको प्रदान कीजिये ॥ १ ॥

प्राड्विपाक मुनि बोले- मनुष्य जलमें स्नान करके रेशमी वस्त्र धारण करे, कुशासनपर बैठे और हाथमें कुशकी पवित्री पहनकर मन्त्रका शोधन करे। तदनन्तर अच्युताग्रज भगवान् बलरामजीका स्मरण करके उन्हें प्रणाम करे। फिर मनको एकाग्र करके मन्त्ररूपी कवचको धारण करे ॥ २ ॥

जो भगवान् गोलोकधामके अधिपति हैं, जिनका कीर्तन परम पवित्र है, वे परमेश्वर शत्रुओंसे मेरी रक्षा करें। जिनके मस्तकपर भूमण्डल सरसोंकी तरह प्रतीत होता है, वे भगवान् भूमण्डलमें मेरी रक्षा करें। हलधरभगवान् सेनामें और युद्धमें सदा मेरी रक्षा करें। मुसलधारी भगवान् दुर्गमें और आदिदेव भगवान् संकर्षण वनमें मेरी रक्षा करें। यमुनाके प्रवाहको रोकनेवाले भगवान् जलमें और नीलाम्बरधारी भगवान् अग्रिमें निरन्तर मेरी रक्षा करें। भगवान् राम वायु (आँधी) में मेरी रक्षा करें। शून्य (आकाश) में भगवान् बलदेव और महान् समुद्रमें अनन्तवपु भगवान् मेरी सदा रक्षा करें। पर्वतोंपर भगवान् वासुदेव मेरी रक्षा करें। घोर विवादमें हजार मस्तकाले प्रभु, रोगमें श्रीरोहिणीनन्दन तथा विपत्तिमें भगवान् कामपाल मेरी रक्षा करें। धेनुकासुरके शत्रु भगवान् काम (कामना) से मेरी सदा रक्षा करें। द्विविदपर प्रहार करनेवाले भगवान् क्रोधसे, बल्वलके शत्रु भगवान् लोभसे और जरासंधके शत्रु भगवान् मोहसे सदा मेरी रक्षा करें। भगवान् वृष्णिधुर्य प्रातः कालके समय, भगवान् मथुरापुरी-नरेश पूर्वाह्न (प्रहर दिन चढ़े), गोपसखा मध्याह्नमें और स्वराट् भगवान् पराह्न (दिनके पिछले पहर) में सदा मेरी रक्षा करें। भगवान् फणीन्द्र सायंकालमें तथा परात्पर प्रदोषके समय मेरी सदा रक्षा करें। मध्यरात्रि और प्रत्यूषकालके समय भगवान् दुरन्तवीर्य मेरी सदा रक्षा करें। कोनोंमें रेवतीपति, दिशाओंमें प्रलम्बासुरके शत्रु, नीचे यदूद्वह, ऊपर बलभद्र और दूर अथवा पास सब दिशाओंमें भगवान् बलदेवजी मेरी सदा रक्षा करें। भीतरसे पुरुषोत्तम और बाहरसे महाबल नागेन्द्रलील मेरी सदा रक्षा करें और पूर्ण परमेश्वर महान् हरि स्वयं सदा- सर्वदा मेरे हृदयमें निवास करते हुए उत्कृष्ट रूपमें सदा मेरी रक्षा करें ॥ ३-११॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

श्रीबलभद्रजीके इस उत्तम कवचको देव तथा असुरोंके भयका नाश करनेवाला, पापरूप ईंधनको जलानेके लिये साक्षात् अग्निरूप और विघ्नोंके घटका विनाश करनेवाला सिद्धासनरूप समझे ॥ १२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत श्रीप्राद्विपाक मुनि और दुर्योधनके संवादमें
‘श्रीबलरामकवच’ नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

तेरहवाँ अध्याय

बलभद्र-सहस्त्रनाम

दुर्योधनने कहा- महामुने प्राड्विपाकजी! भगवान् बलभद्रके सहस्रनामको, जो देवताओंके लिये भी गोपनीय-अज्ञात है, मुझसे कहिये ॥ १॥

साधु ! प्राड्विपाक मुनि बोले- साधु, महाराज ! तुम्हारा यश सर्वथा निर्मल है। तुमने जिसके लिये प्रश्न किया है, वह परम देवदुर्लभ सहस्रनाम गर्गजीके द्वारा कथित है। उन दिव्य सहस्रनामोंका वर्णन मैं तुम्हारे सामने कर रहा हूँ। गर्गाचार्यजीने यमुनाजीके मङ्गलमय तटपर यह सहस्त्रनाम गोपियोंको प्रदान किया था ॥ २॥

विनियोग
ॐ अस्य श्रीबलभद्रसहस्त्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य गर्गाचार्यऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, संकर्षणः परमात्मा देवता, बलभद्र इति बीजम्, रेवतीरमण इति शक्तिः, अनन्त इति कीलकम्, बलभद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ‘ ॥ ३ ॥

(इस बलभद्रसहस्रनामस्तोत्ररूपी मन्त्रके गर्गाचार्य ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, परमात्मा संकर्षण देवता हैं, बलभद्र बीज है, रेवतीरमण शक्ति है, अनन्त कीलक है, श्रीबलभद्रकी प्रीतिके लिये इसका विनियोग है॥ ३॥)(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

इसको पढ़कर सहस्रनाम पाठके लिये विनियोगका
जल छोड़ दे। तत्पश्चात् इस प्रकार ध्यान करे-

ध्यान
स्फुरदमलकिरीटं किङ्किणीकङ्कणाईं चलदलककपोलं कुण्डलश्रीमुखाब्जम् ।तुहिनगिरिमनोज्ञं नीलमेघाम्बराडचं हलमुसलविशालं कामपालं समीडे ॥४॥
जिनका निर्मल किरीट दमक रहा है, जो करधनी तथा कङ्कणोंसे अलंकृत हैं, चञ्चल अलकावलीसे जिनके कपोल सुशोभित हैं, जिनका मुख-कमल कुण्डलोंसे देदीप्यमान है, जो हिमाचल गिरिके समान मनोहर उज्ज्वल हैं तथा नीलाम्बर धारण किये हुए हैं। विशाल हल-मुसल धारण करनेवाले उन भगवान् कामपाल बलभद्रजीका मैं स्तवन करता हूँ ॥४॥

सहस्रनाम आरम्भ

१. ॐ बलभद्र, २. रामभद्र, ३. राम, ४. संकर्षण, ५. अच्युत, ६. रेवतीरमण, ७. देव, ८. कामपाल, ९. हलायुध ॥ ५ ॥

१०. नीलाम्बर, १९. श्वेतवर्ण, १२. बलदेव, १३. अच्युताग्रज, १४. प्रलम्बघ्न, १५. महावीर, १६. रौहिणेय, १७. प्रतापवान् ॥ ६ ॥

१८. तालाङ्क, १९. मुसली, २०. हली, २१. हरि, २२. यदुवर, २३. बली, २४. सीरपाणि, २५. पद्मपाणि, २६. लगुडी, २७. वेणुवादन ॥ ७॥

२८. कालिन्दीभेदन, २९. वीर, ३०. बल, ३१. प्रबल, ३२. ऊर्ध्वग, ३३. वासुदेवकला, ३४. अनन्त, ३५. सहस्त्रवदन, ३६. स्वराट् ॥ ८ ॥

३७. वसु, ३८. वसुमती, ३९. भर्ता, ४०० वासुदेव, ४१. वसूत्तम, ४२. यदूत्तम, ४३. यादवेन्द्र, ४४. माधव, ४५. वृष्णिवल्लभ ॥ ९॥

४६. द्वारकेश, ४७. माथुरेश, ४८. दानी, ४९. मानी, ५०. महामना, ५१. पूर्ण, ५२. पुराण, ५३. पुरुष, ५४. परेश, ५५. परमेश्वर ॥ १०॥

५६. परिपूर्णतम, ५७. साक्षात् परम, ५८. पुरुषोत्तम, ५९. अनन्त, ६०. शाश्वत, ६१. शेष, ६२. भगवान्, ६३. प्रकृतेः पर ॥ ११ ॥

६४. जीवात्मा, ६५. परमात्मा, ६६. अन्तरात्मा, ६७. ध्रुव, ६८. अव्यय, ६९. चतुर्यूह, ७०. चतुर्वेद, ७९. चतुर्मूर्ति, ७२. चतुष्पद ॥१२॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

७३. प्रधान, ७४. प्रकृति, ७५. साक्षी, ७६. संघात, ७७. संघवान्, ७८. सखी, ७९. महामना, ८०. बुद्धिसख, ८१. चेत, ८२. अहंकार, ८३. आवृत ॥ १३ ॥

८४. इन्द्रियेश, ८५. देवता, ८६. आत्मा, ८७. ज्ञान, ८८. कर्म, ८९. शर्म, ९०. अद्वितीय, ९१. द्वितीय, ९२. निराकार, ९३. निरञ्जन ॥ १४॥

९४. विराट्, ९५. सम्राट्, ९६. महौघ, ९७. आधार, ९८. स्थास्तु, ९९. चरिष्णुमान्, १००. फणीन्द्र, १०१. फणिराज, १०२. सहस्त्र फणमण्डित ॥ १५ ॥

१०३. फणीश्वर, १०४. फणी, १०५. स्फूर्ति, १०६. फूत्कारी, १०७. चीत्कर, १०८. प्रभु, १०९. मणिहार, ११०. मणिधर, १११. वितली, ११२. सुतली, ११३. तली ॥ १६ ॥

११४. अतली, ११५. सुतलेश, ११६. पाताल, ११७. तलातल, ११८. रसातल, ११९. भोगितल, १२०. स्फूरद्दन्त, १२१. महातल ॥ १७ ॥

१२२. वासुकि, १२३. शङ्खचूडाभ, १२४ देवदत्त, १२५. धनंजय, १२६. कम्बलाश्व, १२७. वेगतर, १२८. धृतराष्ट्र, १२९. महाभुज ॥ १८ ॥

१३०. वारुणीमदमत्ताङ्ग, १३१. मदघूर्णित- लोचन, १३२. पद्माक्ष, १३३. पद्ममाली, १३४. वनमाली, १३५. मधुश्रवा ॥ १९ ॥

१३६. कोटिकंदर्पलावण्य, १३७. नागकन्या- समर्चित, १३८. नूपुरी, १३९. कटकी, १४१. कनकाङ्गदी ॥ २० ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

कटिसूत्री, १४०. १४२. मुकुटी, १४३. कुण्डली, १४४. दण्डी, १४५. शिखण्डी, १४६. खण्डमण्डली, १४७. कलि, १४८. कलिप्रिय, १४९. काल, १५०. निवातकवचेश्वर ॥ २१॥

१५१. सहारकृत्, १५२. रुद्रवपु, १५३. कालाग्नि, १५४. प्रलय, १५५. लय, १५६. महाहि, १५७. पाणिनि, १५८. शास्त्रकार, १५९. भाष्य- कार, १६०. पतञ्जलि ॥ २२ ॥

१६१. कात्यायन, १६२. फक्किकाभू, १६३. स्फोटायन, १६४. उरंगम, १६५. वैकुण्ठ, १६६. याज्ञिक, १६७. यज्ञ, १६८. वामन, १६९. हरिण, १७०. हरि ॥ २३ ॥

१७१. कृष्ण, १७२. विष्णु, १७३. महाविष्णु, १७४. प्रभविष्णु, १७५. विशेषवित्, १७६. हंस, १७७. योगेश्वर, १७८. कूर्म, १७९. वाराह, १८०. नारद, १८१. मुनि ॥ २४ ॥

१८२. सनक, १८३. कपिल, १८४. मत्स्य, १८५. कमठ, १८६. देवमङ्गल, १८७. दत्तात्रेय, १८८. पृथु, १८९. वृद्ध, १९०० ऋषभ, १९९० भार्गवोत्तम ॥ २५ ॥

१९२. धन्वन्तरि, १९३. नृसिंह, १९४. कल्कि, १९५. नारायण, १९६. नर, १९७. रामचन्द्र, १९८० राघवेन्द्र, १९९. कोसलेन्द्र, २००. रघूद्वह ॥ २६ ॥

२०१. काकुत्स्थ, २०२. करुणासिन्धु, २०३. राजेन्द्र, २०४. सर्वलक्षण, २०५. शूर, २०६. दाशरथि, २०७. त्राता, २०८. कौसल्यानन्दवर्द्धन ॥ २७॥

२०९. सौमित्रि, २१०, भरत, २११. धन्वी, २१२. शत्रुघ्र, २१३. शत्रुतापन, २१४. निषङ्गी, २१५. कवची, २१६. खड्गी, २१७. शरी, २१८. ज्याहतकोष्ठक ॥ २८ ॥

२१९. बद्धगोधाङ्गुलित्राण, २२०. शम्भु- कोदण्डभञ्जन, २२९. यज्ञत्राता, २२२. यज्ञभर्ता, २२३. मारीचवधकारक ॥ २९ ॥

२२४. असुरारि, २२५. ताडकारि, २२६. विभीषणसहायकृत्, २२७. पितृवाक्यकर, २२८. हर्षी, २२९. विराधारि, २३०. वनेचर ॥ ३० ॥

२३१. मुनि, २३२. मुनिप्रिय, २३३. चित्र- कूटारण्यनिवासकृत्, २३४. कबन्धहा, २३५. दण्डकेश, २३६. राम, २३७. राजीवलोचन ॥ ३१ ॥

२३८. मतङ्ग, २३९. वनसंचारी, २४०. नेता, २४१. पञ्चवटीपति, २४२. सुग्ग्रीव, २४३. सुग्रीवसखा, २४४. हनुमत्प्रीतमानस ॥ ३२ ॥

२४५. सेतुबन्ध, २४६. रावणारि, २४७. लङ्कादहनतत्पर, २४८. रावण्यरि, २४९. पुष्पकस्थ, २५०. जानकीविरहातुर ॥ ३३ ॥

२५१. अयोध्याधिपति, २५२. श्रीमान्, २५३. लवणारि, २५४. सुरार्चित, २५५. सूर्यवंशी, २५६. चन्द्रवंशी, २५७. वंशीवाद्यविशारद ॥ ३४ ॥

२५८. गोपति, २५९. गोपवृन्देश, २६०. गोप, २६१. गोपीशतावृत, २६२. गोकुलेश, २६३. गोप- पुत्र, २६४. गोपाल, २६५. गोगणाश्रय ॥ ३५ ॥

२६६. पूतनारि, २६७. वकारि, २६८. तृणावर्त- निपातक, २६९. अघारि, २७०. धेनुकारि, २७१. प्रलम्बारि, २७२. व्रजेश्वर ॥ ३६ ॥

२७३. अरिष्टहा, २७४. केशिशत्रु, २७५. व्योमासुरविनाशकृत्, २७६. अग्निपान, २७७. दुग्धपान, २७८. वृन्दावनलता, २७९. आश्रित ॥ ३७ ॥

२८०. यशोमतीसुत, २८१. भव्य, २८२. रोहिणीलालित, २८३. शिशु, २८४. रासमण्डल- मध्यस्थ, २८५. रासमण्डलमण्डन ॥ ३८ ॥

२८६. गोपिकाशतयूथार्थी, २८७. शङ्खचूड वधोद्यत, २८८. गोवर्द्धनसमुद्धर्ता, २८९. शत्रुजित्, २९०. व्रजरक्षक ॥ ३९ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

२९१. वृषभानुवर, २९२. नन्द, २९३. आनन्द २९४. नन्दवर्द्धन, २९५. नन्दराजसुत, २९६. श्रीश, २९७. कंसारि, २९८. कालियान्तक ॥ ४० ॥

२९९. रजकारि, ३००. मुष्टिकारि, ३०१. कंसकोदण्डभञ्जन, ३०२. चाणूरारि, ३०३. कूट- हन्ता, ३०४. शलारि, ३०५. तोशलान्तक ॥ ४१ ॥

३०६. कंसभ्रातृनिहन्ता, ३०७. मल्लयुद्ध- प्रवर्तक, ३०८. गजहन्ता, ३०९. कंसहन्ता, ३१०. कालहन्ता, ३११. कलङ्कहा ॥ ४२ ॥

३१२. मागधारि, ३१३. यवनहा, ३१४. पाण्डु- पुत्रसहायकृत्, ३१५. चतुर्भुज, ३१६. श्यामलाङ्ग, ३१७. सौम्य, ३१८. औपगविप्रिय ॥ ४३ ॥

३१९. युद्धभुत्, ३२०. उद्धवसखा, ३२१. मन्त्री, ३२२. मन्त्रविशारद, ३२३. वीरहा, ३२४. वीरमधन, ३२५. शङ्खधर, ३२६. चक्रधर, ३२७. गदाधर ॥ ४४ ॥

३२८. रेवतीचित्तहर्ता, ३२९. रेवतीहर्ष- वर्द्धन, ३३०. रेवतीप्राणनाथ, ३३१. रेवतीप्रिय- कारक ॥ ४५ ॥

३३२. ज्योति, ३३३. ज्योतिष्मतीभर्ता, ३३४. रैवताद्रिविहारकृत्, ३३५. धृतिनाथ, ३३६. धनाध्यक्ष, ३३७. दानाध्यक्ष, ३३८. धनेश्वर ॥ ४६ ॥

३३९. मैथिलार्चितपादाब्ज, ३४०. मानद, ३४१. भक्तवत्सल, ३४२. दुर्योधनगुरु, ३४३. गुर्वी, ३४४. गदाशिक्षाकर, ३४५. क्षमी ॥ ४७ ॥

३४६. मुरारि, ३४७. मदन, ३४८. मन्द, ३५१० ३४९. अनिरुद्ध, ३५०. धन्विनांवर, कल्पवृक्ष, ३५२. कल्पवृक्षी, ३५३. कल्पवृक्षवन- प्रभु ॥ ४८ ॥

३५४. स्यमन्तकमणि, ३५५. मान्य, ३५६. गाण्डीवी, ३५७. कौरवेश्वर, ३५८. कूष्माण्ड- खण्डनकर, ३५९. कूपकर्णप्रहारकृत् ॥ ४९ ॥

३६०. सेव्य, ३६१. रेवतजामाता, ३६२. मधुसेवित, ३६३. माधवसेवित, ३६४. बलिष्ठ, ३६५. पुष्टसर्वाङ्ग, ३६६. हृष्ट, ३६७. पुष्ट, ३६८. प्रहर्षित ॥ ५० ॥

सर्व, ३६९. वाराणसीगत, ३७०. कुद्ध, ३७१. ३७२. पौण्डूकघातक, ३७३. सुनन्दी ३७४. शिखरी, ३७५. शिल्पी, ३७६. द्विविदाङ्ग निषूदन ॥ ५१ ॥

३७७. हस्तिनापुरसंकर्षी, ३७८. रथी, ३७९. कौरवपूजित, ३८०. विश्वकर्मा, ३८१. विश्वधर्मा, ३८२. देवशर्मा, ३८३. दयानिधि ॥ ५२ ॥

३८४. महाराज, ३८५. छत्रधर, ३८६. महा- राजोपलक्षण, ३८७. सिद्धगीत, ३८८. सिद्धकथ, ३८९. शुक्लचामरवीजित ॥ ५३ ॥

३९०. ताराक्ष, ३९१. कीरनास, ३९२. बिम्बोष्ठ, ३९३. सुस्मितच्छवि, ३९४. करीन्द्र, करदोर्दण्ड, मेधमण्डल ॥ ५४ ॥

३९६. प्रचण्ड, ३९७. ३९८. कपाटवक्षा, ३९९. पीनांस, ४००. पद्म- पाद, ४०१. स्फुरद्युति, ४०२. महाविभूति, ४०३. भूतेश, ४०४. बन्धमोक्षी, ४०५. समीक्षण ॥ ५५ ॥

४०६. चैद्यशत्रु, ४०७. शत्रुसंध, ४०८. दन्तवक्रनिषूदक, ४०९. अजातशत्रु, ४१०. पापघ्न, ४११. हरिदाससहायकृत् ॥ ५६ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

४१२. शालबाहु, ४१३. शाल्वहन्ता, ४१४. तीर्थयायी, ४१५. जनेश्वर, ४१६. नैमिषारण्य- यात्रार्थी, ४१७. गोमतीतीरवासकृत् ॥ ५७ ॥

४१८. गण्डकीस्त्रानवान्, ४१९. स्त्रग्वी, ४२०. वैजयन्तीविराजित, ४२१. अम्लान, ४२२. पङ्कज- धर, ४२३. विपाशी, ४२४. शोणसंप्लुत ॥ ५८ ॥

४२५. प्रयागतीर्थराज, ४२६. सरयू, ४२७. सेतुबन्धन, ४२८. गयाशिर, ४२९. धनद, ४३०. पौलस्त्य, ४३१. पुलहाश्रम ॥ ५९ ॥
४३२. गङ्गासागरसङ्गार्थी, ४३३. सप्तगोदावरी- पति, ४३४. वेणी, ४३५. भीमरथी, ४३६. गोदा, ४३७. ताम्रपर्णी, ४३८. वटोदका ॥ ६० ॥

४३९. कृतमाला, ४४०. महापुण्या, ४४१. कावेरी, ४४२. पयस्विनी, ४४३. प्रतीची, ४४४. सुप्रभा, ४४५. वेणी, ४४६. त्रिवेणी, ४४७. सरयूपमा ॥ ६१ ॥

४४८. कृष्णा, ४४९. पम्पा, ४५०. नर्मदा, ४५१. गड्डा, ४५२. भागीरथी, ४५३. नदी, ४५४. सिद्धाश्रम, ४५५. प्रभास, ४५६. बिन्दु, ४५७. बिन्दुसरोवर ॥ ६२ ॥

४५८. पुष्कर, ४५९. सैन्धव, ४६०. जम्बू, ४६१. नरनारायणाश्रम, ४६२. कुरुक्षेत्रपति, ४६३. राम, ४६४. जामदग्रन्थ, ४६५. महामुनि ॥ ६३ ॥

४६६. इल्वलात्मजहन्ता, ४६७. सुदामा, ४६८. सौख्यदायक, ४६९. विश्वजित्, ४७०. विश्वनाथ, ४७१. त्रिलोकविजयी, ४७२. जयी ॥ ६४ ॥

४७३. वसन्तमालतीकर्षी, ४७४. गद, ४७५. गद्य, ४७६. गदाग्रज, ४७७. गुणार्णव, ४७८. गुण- निधि, ४७९. गुणपात्री, ४८०. गुणाकर ॥ ६५ ॥

४८१. रङ्गवल्ली, ४८२. जलाकार, ४८३. निर्गुण, ४८४. सगुण, ४८५. बृहत्, ४८६. दृष्ट, ४८७. श्रुत, ४८८. भवत्, ४८९. भूत, ४९०. भविष्यत्, ४९१. अल्पविग्रह ॥ ६६ ॥

४९५० ४९२. अनादि, ४९३. आदि, ४९४. आनन्द, प्रत्यग्धामा, ४९६. निरन्तर, ४९७. गुणातीत, ४९८. सम, ४९९. साम्य, ५००. समदृक्, ५०१. निर्विकल्पक ॥ ६७ ॥

५०२. गूढ, ५०३. व्यूढ, ५०४. गुण, ५०५. गौण, ५०६. गुणाभास, ५०७. गुणावृत, ५०८. नित्य, ५०९. अक्षर, ५१०. निर्विकार, ५११. क्षर, ५१२. अजस्त्रसुख, ५१३. अमृत ॥ ६८ ॥

५१४. सर्वंग, ५१५. सर्ववित्, ५१६. सार्थ, ५१७. समबुद्धि, ५१८. समप्रभ, ५१९. अक्लेद्य, ५२०. अच्छेद्य, ५२१. आपूर्ण, ५२२. अशोष्य, ५२३. अदाह्य, ५२४. अनिवर्तक ॥ ६९ ॥

५२५. ब्रह्म, ५२६. ब्रह्मधर, ५२७. ब्रह्मा, ५२८. ज्ञापक, ५२९. व्यापक, ५३०. कवि, ५३१. अध्यात्म, ५३२. अधिभूत, ५३३. अधिदैव, ५३४. स्वाश्रय, ५३५. अश्रय ॥ ७० ॥

५३६. महावायु, ५३७. महावीर, ५३८. चेष्टा, ५३९. रूपतनुस्थित, ५४०. प्रेरक, ५४१. बोधक, ५४२. बोधी, ५४३. त्रयोविंशतिकगण ॥ ७१ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

५४४. अंशांश, ५४५. नरावेश, ५४६. अवतार, ५४७. भूपरिस्थित, ५४८. मह, ५४९. जन, ५५०. तप, ५५१. सत्य, ५५२. भू, ५५३. भुव, ५५४. स्व ॥ ७२ ॥

५५५. नैमित्तिक, ५५६. प्राकृतिक, ५५७. आत्यन्तिकमय लय, ५५८. सर्ग, ५५९. विसर्ग, ५६०. सर्गादि ५६१. निरोध, ५६२. रोध, ५६३. ऊतिमान् ॥ ७३ ॥

५६४. मन्वन्तरावतार, ५६५. मनु, ५६६. मनु- सुत, ५६७. अनघ, ५६८. स्वयम्भू, ५६९. शाम्भव, ५७०. शंकु, ५७१. स्वायम्भुवसहायकृत् ॥ ७४ ॥

५७२. सुरालय, ५७३. देवगिरि, ५७४. मेरु, ५७५.हेम, ५७६. अर्चित, ५७७. गिरि, ५७८. गिरीश, ५७९. गणनाथ, ५८०. गौरी, ५८१. ईश, ५८२. गिरिगह्वर ॥ ७५ ॥

५८३. विन्ध्य, ५८४. त्रिकूट, ५८५. मैनाक, ५८६. सुवेल, ५८७. पारिभद्रक, ५८८. पतंग, ५८९. शिशिर, ५९०. कङ्क, ५९१. जारुधि, ५९२. शैलसत्तम ॥ ७६ ॥

५९३. कालञ्जर, ५९४. बृहत्सानु, ५९५० दरीभृत्, ५९६. नन्दिकेश्वर, ५९७. संतान, ५९८. तरुराज, ५९९. मन्दार, ६००. पारिजातक ॥ ७७ ॥

६०१. जयन्तकृत्, ६०२. जयन्ताङ्ग, ६०३- जयन्ती, ६०४. दिग्, ६०५. जयाकुल, ६०६०- वृत्रहा, ६०७. देवलोक, ६०८. शशी, ६०९- कुमुदबान्धव ॥ ७८ ॥

६१०. नक्षत्रेश, ६११. सुधा, ६१२. सिन्धु, ६१३. मृग, ६१४. पुष्य, ६१५. पुनर्वसु, ६१६. हस्त, ६१७. अभिजित्, ६१८. श्रवण, ६१९. वैधृत, ६२०. भास्करोदय ॥ ७९ ॥

६२१. ऐन्द्र, ६२२. साध्य, ६२३. शुभ, ६२४. शुक्ल, ६२५. व्यतीपात, ६२६. ध्रुव, ६२७. सित, ६२८. शिशुमार, ६२९. देवमय, ६३०. ब्रह्मलोक, ६३१. विलक्षण ॥ ८० ॥

६३२. राम, ६३३. वैकुण्ठनाथ, ६३४. व्यापी, ६३५. वैकुण्ठनायक, ६३६. श्वेतद्वीप, ६३७. अजितपद, ६३८. लोकालोकचलाश्रित ॥ ८१ ॥

६३९. भूमि, ६४०. वैकुण्ठदेव, ६४१. कोटि- ब्रह्माण्डकारक, ६४२. असंख्यब्रह्माण्डपति, ६४३. गोलोकेश, ६४४. गां पति ॥ ८२ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

६४५. गोलोकधामधिषण, ६४६. गोपिका कण्ठभूषण, ६४७. ह्रीधर, ६४८. श्रीधर, ६४९. लीलाधर, ६५०. गिरिधर, ६५१. धुरी ॥ ८३ ॥

६५२. कुन्तधारी, ६५३. त्रिशूली. ६५४. बीभत्सी, ६५५. घर्घरस्वन, ६५६. शूलार्पितगज, ६५७. सूच्यर्पितगज, ६५८. गजचर्मधर, ६५९. गजी ॥ ८४ ॥

६६०. अन्त्रमाली, ६६१. मुण्डमाली, ६६२. व्याली, ६६३. दण्डकमण्डलु, ६६४. वेतालभृत्, ६६५. भूतसंघ, ६६६. कूष्माण्डगणसंवृत ॥ ८५ ॥

६६७. प्रमधेश, ६६८. पशुपति, ६६९. मृडानी, ६७०. ईश, ६७१. मृड, ६७२. वृष, ६७३. कृतान्त- संघारि, ६७४. कालसंघारि, ६७५. कूट, ६७६. कल्पान्तभैरव ॥ ८६ ॥

६७७, षडानन, ६७८. वीरभद्र, ६७९. दक्षयज्ञ- विघातक, ६८०. खर्पराशी, ६८१. विषाशी, ६८२. शक्तिहस्त, ६८३. शिवा, ६८४. अर्थद ॥ ८७ ॥

६८५. पिनाकटंकारकर, ६८६. चलझंकार- नूपुर, ६८७. पण्डित, ६८८. तर्क-विद्वान्, ६८९. वेदपाठी, ६९०. श्रुतीश्वर ॥ ८८ ॥

६९१. वेदान्तकृत्, ६९२. सांख्यशास्त्री, ६९३. मीमांसी, ६९४. कणनामभाक्, ६९५. काणादि, ६९६. गोतम, ६९७. वादी. ६९८. वाद, ६९९. नैयायिक, ७००. नय ॥ ८९ ॥

७०१. वैशेषिक, ७०२. धर्मशास्त्री, ७०३. सर्व- शास्त्रार्थतत्त्वग, ७०४. वैयाकरणकृत्, ७०५. छन्द ७०६. वैयास, ७०७. प्राकृति, ७०८. वच ॥ ९० ॥

७०९. पाराशरीसंहितावित्, ७१०. काव्यकृत्, ७११. नाटकप्रद, ७१२. पौराणिक, ७१३, स्मृति- कर, ७१४. वैद्य, ७९५. विद्याविशारद ॥ ९९ ॥

७१६. अलंकार, ७१७. लक्षणार्थ, ७९८. व्यङ्ग्यवित्, ७१९. ध्वनिवित्, ७२०. ध्वनि, ७२९. वाक्यस्फोट, ७२२. पदस्फोट, ७२३. स्फोटवृत्ति, ७२४. रसार्थवित् ॥ ९२ ॥

७२५. शृङ्गार, ७२६. उज्ज्वल, ७२७, स्वच्छ ७२८. अद्भुत, ७२९. हास्य, ७३०. भयानक, ७३९. अश्वत्थ, ७३२. यवभोजी, ७३३. यवक्रीत ७३४. यवाशन ॥ ९३ ॥

७३५. प्रह्लादरक्षक, ७३६. स्निग्ध, ७३७. ऐलवंशविवर्धन, ७३८. गताधि, ७३९. अम्बरीषाङ्ग, ७४०. विगाधि, ७४१. गाधीनां वर ॥ ९४ ॥

७४२. नानामणिसमाकीर्ण, ७४३. नानारत्न विभूषण, ७४४. नानापुष्पधर, ७४५. पुष्पी, ७४६. पुष्पधन्वा, ७४७. प्रपुष्यित ॥ ९५ ॥

७४८. नानाचन्दनगन्धाढन्ध, ७४९. नानापुष्प- रसार्चित, ७५०. नानावर्णमय, ७५१. वर्ण, ७५२. सदा नानावस्वधर ॥ ९६ ॥

७५३. नानापद्माकर, ७५४. कौशी, ७५५. नानाकौशेयवेषधृक्, ७५६. रनकम्बलधारी, ७५७. थौतवस्त्रसमावृत ॥ ९७ ॥

७५८. उत्तरीयधर, ७५९. पूर्ण, ७६०. घन- कञ्चकवान्, ७६१. संघवान्, ७६२. पीतोष्णीष, ७६३. सितोष्णीष, ७६४. रक्तोष्णीष, ७६५. दिगम्बर ॥ ९८ ॥

७६६. दिव्याङ्ग, ७६७. दिव्यरचन, ७६८. दिव्यालोकविलोकित, ७६९. सर्वोपम, ७७०. निरुपम, ७७१ गोलोकाङ्कीकृताङ्गन ॥ ९९ ॥

७७२. कृतस्वोत्सङ्गगोलोक, ७७३. कुण्डली, ७७४. भूत, ७७५. आस्थित, ७७६. माथुर, ७७७, मथुरा, ७७८. आदर्शी, ७७९. चलत्खञ्जन- लोचन ॥ १०० ॥

७८०. दधिहर्ता, ७८१. दुग्धहर, ७८२. नवनीत सिताशन, ७८३. तक्रभुक्, ७८४. तक्रहारी, ७८५- दधिचौर्यकृतश्रम ॥ १०१ ॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

७८६. प्रभावतीबद्धकर, ७८७. दामी, ७८८. दामोदर, ७८९. दमी, ७९०. सिकताभूमिचारी, ७९१. बालकेलि, ७९२. व्रजार्भक ॥ १०२ ॥

७९३. धूलिधूसरसर्वाङ्ग, ७९४. काकपक्षधर, ७९५. सुधी, ७९६. मुक्तकेश, ७९७. वत्सवृन्द, ७९८. कालिन्दीकूलवीक्षण ॥ १०३ ॥

७९९. जलकोलाहली, ८००, कूली, ८०९. पङ्कप्राङ्गणलेपक, ८०२. श्रीवृन्दावनसंचारी, ८०३. वंशीवटतटस्थित ॥ १०४ ॥

८०४. महावननिवासी ८०५. लोहार्गलवनाधिप, ८०६. साधु, ८०७. प्रियतम, ८०८. साध्य, ८०९. साध्वीश, ८१०. गतसाध्वस ॥ १०५ ॥

८९१. रङ्गनाथ, ८१२. विदुलेश, ८१३. मुक्तिनाथ, ८१४. अधनाशक, ८१५. सुकीर्ति, ८१६. सुयशा, ८१७. स्फीत, ८१८. यशस्वी, ८१९. रङ्गरञ्जन ॥ १०६ ॥

८२० रागषट्क, ८२१. रागपुत्र, ८२२. ८२३. रमणोत्सुक, रागिणी, ८२४. दीपक, ८२५. मेघमल्लार, ८२६. श्रीराग, ८२७. मालकोशक ॥ १०७ ॥

८२८. हिन्दोल, ८२९. भैरवाख्य, ८३०. स्वर- जातिस्मर, ८३१. मृदु ८३२. ताल, ८३३. मान, ८३४. प्रमाण, ८३५. स्वरगम्य, ८३६. कलाक्षर ॥ १०८ ॥

८३७. शमी, ८३८. श्यामी, ८३९. शतानन्द, ८४०. शतयाम, ८४१. शतक्रतु, ८४२. जागर, ८४३. सुप्त, ८४४. आसुप्त, ८४५. सुषुप्त, ८४६. स्वप्न, ८४७, उर्वर ॥ १०९ ॥

८४८. ऊर्ज, ८४९. स्फूर्ज, ८५०. निर्जर, ८५१. विण्चर, ८५२. ज्वरवर्जित, ८५३. ज्वरजित्, ८५४. ज्वरकर्ता, ८५५. ज्वरयुक्त, ८५६. त्रिज्वर, ८५७. ज्वर ॥ ११० ॥

८५८. जाम्बवान्, ८५९. जम्बुकाशङ्की, ८६०. जम्बूद्वीप, ८६१. द्विपारिहा, ८६२. शाल्मलि, ८६३. शाल्मलिद्वीप, ८६४. प्लक्ष, ८६५. प्लक्षवनेश्वर ॥ १११ ॥

८६६. कुशधारी, ८६७. कुश, ८६८. कौशी, ८६९. कौशिक, ८७०. कुशविग्रह, ८७१. कुशस्थलीपति ८७२. काशीनाथ, ८७३. भैरवशासन ॥ ११२ ॥

८७४. दाशाई, ८७५. सात्वत, ८७६ वृष्णि, ८७७. भोज, ८७८. अन्धकनिवासकृत्, ८७९. अन्धक, ८८०. दुन्दुभि, ८८१. द्योत, ८८२. प्रद्योत, ८८३. सात्वतां पति ॥ ११३ ॥

८८४. शूरसेन, ८८५. अनुविषय, ८८६. भोजेश्वर, ८८७, वृष्णीश्वर, ८८८. अन्धकेश्वर, ८८९. आहुक, ८९०. सर्वनीतिज्ञ, ८९१. उग्रसेन, ८९२. महोग्रवाक् ॥ ११४ ॥

८९३. उग्रसेनप्रिय, ८९४. प्रार्थ्य, ८९५. प्रार्थ, ८९६. यदुसभापति, ८९७ सुधर्माधिपति, ८९९. वृष्णिचक्रावृत, ९००. ८९८. सत्व, भिषक् ॥ ११५ ॥

९०१. सभाशील, ९०२. सभादीप, ९०३. सभाग्नि, ९०४. सभारवि, ९०५. सभाचन्द्र, ९०६. सभाभास, सभापति ॥ ११६ ॥

९०७. सभादेव, ९०८. ९०९. प्रजार्थद, ९१०. प्रजाभर्ता, ९११. प्रजा- ९१२. द्वारकादुर्गसंचारी, ९१३. पालनतत्पर, द्वारकाग्रहविग्रह ॥ ११७ ॥

९१४. द्वारकादुःखसंहर्ता, ९१५. द्वारकाजन- मङ्गल, ९१६. जगन्माता, ९१७. जगत्त्राता, ९१८. जगद्भर्ता, ९१९. जगत्पिता ॥ ११८ ॥

९२०. जगद्वन्धु, ९२१. जगद्धाता, ९२२. जगन्मित्र, ९२३. जगत्सख, ९२४. ब्रह्मण्य- देव, ९२५. ब्रह्मण्य ९२६. ब्रह्मपादरजो दधत् ॥ ११९ ॥

ब्रह्मपादजः स्पर्शी, ९२८. ब्रह्मपाद- ९२७. निषेवक, ९२९. विप्राङ्घ्रिजलपूताङ्ग, ९३०. विप्रसेवापरायण ॥ १२०॥(Shribalabhadrakhand chapter 7 to 13)

९३१. विप्रमुख्य, ९३२. विप्रहित, ९३३. विप्रगीतमहाकथ, ९३४. विप्रपादजलार्द्राङ्ग, ९३५० विप्रपादोदकप्रिय ॥ १२१ ॥

९३६. विप्रभक्त, ९३७. विप्रगुरु, ९३८. विप्र, ९३९. विप्रपदानुग, ९४०. अक्षौहिणीवृत, ९४१. योद्धा, ९४२. प्रतिमापञ्चसंयुत ॥ १२२ ॥

९४३. चतुर, ९४४. अङ्गिरा, ९४५. पद्मवर्ती, ९४६. सामन्तोद्धृतपादुक, ९४७. गजकोटि- प्रयायी, ९४८. रथकोटिजयध्वज ॥ १२३ ॥

९४९. महारथ, ९५०. अतिरथ, ९५१. जैत्रस्यन्दनमास्थित, ९५२. नारायणास्त्री, ९५३. ब्रह्मास्त्री, ९५४. रणश्लाधी, ९५५. रणोद्भट ॥ १२४ ॥

९५६. मदोत्कट, ९५७. युद्धवीर, ९५८. देवासुर-भयंकर, ९५९. करिकर्णमरुत्प्रेजत्कुन्तल- व्याप्तकुण्डल ॥ १२५ ॥

९६०. अग्रग, ९६१. वीरसम्मर्द, ९६२. मईल, ९६३. रणदुर्मद, ९६४. भटप्रतिभट, ९६५ प्रोच्य, ९६६. बाणवर्षी, ९६७. इयुतोयद ॥ १२६ ॥

९६८. खड्गखण्डितसर्वाङ्ग, ९६९. षोडशाब्द, ९७०. षडक्षर, ९७१. वीरघोष, ९७२. अक्लिष्टवपु, ९७३. वज्राङ्ग ९७४. वज्रभेदन ॥ १२७ ॥

९७५. रुग्णवज्र, ९७६. भग्ग्रदन्त, ९७७. शत्रु- निर्भर्त्सनोद्यत, ९७८. अट्टहास, ९७९. पट्टधर, ९८०. पट्टराज्ञीपति, ९८१. पटु ॥ १२८ ॥

९८२. कल, ९८३. पटहवादित्र, ९८४. हुंकार, ९८५. गर्जितस्वन, ९८६. साधु, ९८७. भक्तपराधीन, ९८८. स्वतन्त्र, ९८९. साधुभूषण ॥ १२९ ॥

९९०. अस्वतन्त्र, ९९१. साधुमय, ९९२. मनाक्साधुग्रस्तमना, ९९३. साधुप्रिय, ९९४. साधुधन, ९९५. साधुज्ञाति, ९९६. सुधा घन ॥ १३० ॥

९९७. साधुचारी, ९९८. साधुचित्त ९९९० साधुवश्य, १०००. शुभास्पद ।

इस प्रकार भगवान् बलभद्रजीके एक सहस्र- नामोंका वर्णन किया गया ॥ १३१ ॥

माहात्म्य अध्ययन

यह सहस्रनाम मनुष्योंको सब प्रकारकी सिद्धि और चतुर्वर्ग (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) फल प्रदान करनेवाला है। जो इसका सौ बार पाठ करता है, वह इस लोकमें विद्यावान् होता है। इस सहस्रनामका पाठ करनेसे मनुष्य लक्ष्मी, वैभव, सद्वंशमें जन्म, रूप, बल तथा तेज-सब कुछ प्राप्त करता है। गङ्गाजी एवं यमुनाजीके तटपर अथवा देवालय (देवमन्दिर) में इसके एक हजार पाठ करनेसे जबर्दस्ती सिद्धि मिलती है। इसके पाठसे पुत्रकी कामनावालेको पुत्र तथा धनार्थीको धन प्राप्त होता है। बन्धनमें पड़ा मनुष्य उससे मुक्त हो जाता है और रोगीका रोग चला जाता है। जो मनुष्य पुरश्चरणकी विधिसे पद्धति, पटल, स्तोत्र, कवचसहित इस सहस्रनामका दस हजार बार पाठ करता है तथा होम, तर्पण, गोदान तथा ब्राह्मणका पूजनरूप कर्म विधिवत् करता है, वह समस्त भूमण्डलका स्वामी चक्रवर्ती राजा होता है। वह अनेक सामन्त राजाओंसे घिरा रहता है। मदकी गन्धसे विह्वल भ्रमर मतवाले हाथियोंके कानोंकी चपेटसे आहत हो उड़ते हुए उसके द्वारपर जाकर उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं। राजेन्द्र । यदि कोई मनुष्य निष्कामभावसे रेवती- रमण भगवान् बलभद्रजीकी प्रसन्नताके लिये इस सहस्रनामका पाठ करता है तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है। अच्युताग्रज बलभद्रजी सदा-सर्वदा उसके घरमें निवास करते हैं। हे महाराज। घोर पापी मनुष्य भी यदि इस सहस्रनामका पाठ करता है तो उसके मेरुके समान सारे पाप कट जाते हैं और वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंका उपभोग करके अन्तमें परात्पर गोलोकधामको प्रयाण कर जाता है ॥ १३२-१४१ ॥

नारदजी कहते हैं- अच्युताग्रज श्रीबलभद्रजीके इस पञ्चाङ्गको सुनकर धृतिमान् दुर्योधनने सेवा-भाव तथा परम भक्तिके साथ प्राड्विपाक मुनिकी पूजा की। तदनन्तर मुनीन्द्र प्राड्विपाकजीने दुर्योधनको आशीर्वाद देकर उनकी अनुमति प्राप्त कर हस्तिनापुरसे अपने आश्रमको गमन किया। परमब्रह्म परमात्मा भगवान् अनन्त श्रीबलभद्रजीकी कथाको जो पुरुष सुनता अथवा सुनाता है, वह आनन्दमय बन जाता है। नृपेन्द्र। मैं आपके सामने इन सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले बलभद्रखण्डका वर्णन कर चुका। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है, वह भगवान् श्रीहरिके शोकरहित अखण्ड आनन्दमय धामको प्राप्त हो जाता है॥१४२-१४४॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीबलभद्रखण्डके अन्तर्गत प्राविपाक-दुर्योधन संवादमें
‘श्रीबलभद्रसहस्रनाम’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३॥

॥ श्रीबलभद्रखण्ड सम्पूर्ण ॥

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