Garga Samhita Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5
श्रीगणेशाय नमः
Garga Samhita Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5 |
श्री गर्ग संहिता के श्री विज्ञानखंड अध्याय 1 से 5 तक
श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखंड (Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5) के पहला अध्याय में द्वारका में वेदव्यासजी का आगमन और उग्रसेन द्वारा उनका स्वागत-पूजन का वर्णन कहा गया है। दूसरा अध्याय में व्यासजी के द्वारा गतियों का निरूपण कहा गया है। तीसरा अध्याय में सकाम एवं निष्काम भक्तियोग का वर्णन मिलता है। चौथा अध्याय में भक्त-संत की महिमा का वर्णन और पांचवा अध्याय में भक्ति की महिमा का वर्णन कहा गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
श्री विज्ञानखंड
पहला अध्याय
द्वारका में वेदव्यासजी का आगमन और उग्रसेन द्वारा उनका स्वागत-पूजन
राजा बहुलाश्वने कहा- मुने ! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके उस भक्तिमार्गका, जो सर्वश्रेष्ठ है तथा जिसके प्रभावसे मैं भी भक्त बन जाऊँ, वर्णन कीजिये ॥ १ ॥
नारदजी बोले- राजन् ! वेदव्यासजीके मुखसे सुने हुए भक्तिमार्गका मैं वर्णन करता हूँ। यह वह मार्ग है, जिसपर चलनेसे भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं॥ २ ॥
जनकजी ! अपने भुजदण्डोंके बलसे उद्धत इन्द्रपर विजय प्राप्त करके भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें सुधर्मा नामकी दिव्य सभाकी प्रतिष्ठा की थी। राजन् ! विश्वकर्माके द्वारा रचे गये वैदूर्य-मणिके खंभोंकी करोड़ों पंक्तियाँ उसके मण्डपकी शोभा बढ़ाती थीं। वहाँकी भूमि पद्मराग-मणिसे जड़ी गयी थी। उसपर मूँगेकी दीवालोंसे कई विभाग बने थे, जिनपर रंग- बिरंगें चंदोवे शोभा दे रहे थे और मोतियोंकी झालरें लटकायी हुई थीं। उसकी दीवालें सिंहासनके आकारकी थीं। उनपर काले मेघमें कौंधनेवाली बिजलीका- सा प्रकाश फैलानेवाले जाम्बूनद सुवर्णके करोड़ों चमचमाते हुए कलश सुशोभित थे। वहाँ प्रातः- कालीन सूर्यकी भाँति चमकनेवाले रत्नमय केयूर, करधनी, कङ्कण और नूपुरोंसे सैकड़ों चन्द्रमाओंकी प्रभाको छिटकानेवाली गन्धर्वोकी स्त्रियाँ हर्षमें भरकर गान किया करती थीं और सुमधुर वाद्योंके साथ विद्याधरियाँ परस्पर लाग-डाँट रखती हुई नृत्य करती थीं। उसके चारों कोनोंमें मनोहर देववृक्षोंसहित नन्दन, सर्वतोभद्र, ध्रौव्य एवं चैत्ररथ नामक वन सुशोभित थे। महाराज! उस सभाप्रदेशके अन्तर्गत स्वच्छ जलवाले लाखों सरोवर तथा भ्रमरोंसे भरपूर बहुत-से हजार दलवाले कमल दिखायी पड़ते थे। इस प्रकारकी वह सुधर्मा सभा ध्वजा एवं पताकाओंसे अलंकृत तथा दस योजनके विस्तारवाली थी। पाँच योजनकी उसकी ऊँचाई थी। उसमें गया हुआ पुरुष अपनेको सर्वश्रेष्ठ समझता है। जिसे वहाँका सिंहासन उपलब्ध हो जाता, वह तो ‘मैं इन्द्र हूँ’- यों कल्पना करने लगता है। त्रिलोकीमें जितने चातुर्य गुण हैं, वे सभी उस पुरुषके शरीरमें आकर रहने लगते हैं। वहाँ जितनी देर मनुष्य ठहरता है, उतनी देरतक शोक मोह, जरा-मृत्यु तथा भूख-प्यास ये छः प्रकारकी ऊर्मियाँ (विकार) उसके पास नहीं फटकतीं। महाराज! जितने मनुष्य वहाँ प्रवेश करते हैं, उतनी ही बड़ी वह सभा अपने प्रभावसे दिखायी देने लगती है। जनकजी! यादवोंकी संख्या छप्पन करोड़ थी। अनुचरोंसहित वे सभी उक्त सभा-भवनके आँगनके एक चौथाई भागमें ही समाये हुए दीख पड़ते थे। महाराज ! जहाँ साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान रहते थे, उस सभाका वर्णन कौन कर सकता है।
उस सभामें एक दिन महाराज उग्रसेन विराजमान थे। करोड़ों यादव उन्हें घेरे हुए थे। सूत, मागध और वन्दियोंद्वारा महाराजका यशोगान हो रहा था। साक्षात् पराशरकुमार मुनिवर वेदव्यासजी आकाशमार्गसे वहाँ पधारे। उनके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्यामल थी और वे बिजलीके समान पीली जटा धारण किये हुए थे। उन्हें देखकर यदुराज तुरंत उठ खड़े हुए और उन्होंने हाथ जोड़कर मुनिको प्रणाम किया। फिर उन्हें आसनपर बिठाकर तथा पूजाके उपचार समर्पित कर वे मुनिके सामने खड़े हो गये ॥ ३-१९॥
राजा उग्रसेन बोले- ब्रह्मन् ! आज आपके यहाँ पधारनेपर मेरा जन्म, महल तथा धर्माचरण सब कुछ सफल हो गया। भगवन्! आप जैसे सदा आनन्दस्वरूप महानुभावों की कुशल तो स्वयं श्रीकृष्णचन्द्रको अभीष्ट है। फिर भी अपनी कुशल कहिये, जिससे मैं निश्चिन्त हो जाऊँ। प्रभो! आपके समान साधुपुरुष जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ लौकिकी और पारलौकिकी दोनों प्रकारकी सिद्धियाँ रहती ही हैं। मुनीवर व्यासजी! जहाँ संत पुरुष एक क्षण भी निवास करते हैं, वहाँ स्वयं श्रीहरि रहते हैं; ब्रह्मन् ! फिर लौकिक गुणोंकी तो बात ही क्या है। मुनिवर! मैंने पूर्व जन्ममें कौन-सा पुण्य अथवा यज्ञ किया था, जिसके फल- स्वरूप मुझे द्वारकाका राज्य प्राप्त हो गया। यही नहीं, आपके समान बड़े-बड़े ब्राह्मण देवता मेरे महलोंमें प्रतिदिन पधारते रहते हैं। इससे मैं अनुमान करता हूँ कि मैंने निस्संदेह सबसे बड़ा पुण्य किया है॥ २०-२५॥(Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5)
व्यासजी ने कहा- महाराज! तुम धन्य हो तथा तुम्हारी निर्मल बुद्धिको भी धन्यवाद है। राजन् ! पूर्वजन्ममें तुमने सबसे बड़ा पुण्य किया था। राजन् ! तुम्हारा नाम मरुत्त था। मनमें किसी भी प्रकारकी कामना न रखकर तुमने विश्वजित् नामका यज्ञ किया था। उससे भगवान् श्रीहरि प्रसन्न हुए। तुम्हारे निष्कामभावसे तुम्हें यह परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरि ही हैं। अनन्त ब्रह्माण्ड उनके अधीन हैं और वे परात्पर प्रभु गोलोकके स्वामी हैं। वे परम स्वतन्त्र होनेपर भी भक्तिके वशीभूत हो तुम्हारे महलोंमें विराजते हैं। यदुराज! यही बड़ी विचित्र बात है कि भजन करने वालोंको भगवान् मुक्ति दे देते हैं, किंतु भक्तिका साधन कभी नहीं देते। राजन् ! इसीलिये भक्तियोगको बहुत दुर्लभ समझो ॥ २६-३०॥
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवाद में ‘द्वारका में
श्री वेदव्यास का आगमन’ नामक पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥ १ ॥
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?
दूसरा अध्याय
व्यासजी के द्वारा गतियों का निरूपण
राजा उग्रसेन बोले- आपके द्वारा किये गये वर्णनको सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया तथा आनन्दसे भर गया हूँ। आपने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। मेरे मनमें उठे हुए संदेहको दूर करनेमें आप ही समर्थ हैं। ब्रह्मन् ! सकाम कर्मोंकी क्या गति होती है, उनका क्या लक्षण है और उनके कितने भेद हैं? इसे तत्त्वतः कहनेकी कृपा कीजिये ॥ १-२ ॥
व्यासजीने कहा- राजन् ! गुणोंके साथ सम्बन्धसे सभी कर्म सकाम हो जाते हैं, वे ही फलका त्याग कर देनेपर निष्काम हो जाते हैं। यदुराज ! जो सकाम कर्म है, उसे बन्धन समझो। जो निष्काम कर्म होता है, वह मोक्ष देनेवाला है। अतएव वह परम मङ्गलमय होता है। सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंकी उत्पत्ति प्रकृतिसे होती है। जैसे भगवान् विष्णुसे सारे पदार्थ व्याप्त हैं, उसी प्रकार गुणोंसे सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है। सत्त्वगुणकी स्थितिमें जिनके प्राण निकलते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं, रजोगुणमें प्रयाण करनेवाले नरलोकके अधिकारी होते हैं तथा तमोगुणकी अधिकतामें मरनेवालेको नरककी यातना भोगनी पड़ती है। जो गुणोंके सम्बन्धसे रहित होते हैं, वे श्रीकृष्णको प्राप्त होते हैं।
राजन् ! जिन्होंने वनवासी होकर पञ्चाग्नियोंका सेवनरूप तप किया है, वे निष्पाप होकर सप्तर्षियोंके लोकमें चले जाते हैं। जो संन्यास आश्रमके नियमोंका पालन करनेवाले त्रिदण्डधारी हैं तथा जिन्होंने इन्द्रिय एवं मनके स्वभावपर विजय पा ली है, वे सत्यलोकके यात्री होते हैं। जो निर्मल चित्तवाली ऊध्वरता योगिराज अष्टाङ्गयोगका सेवन करते हैं, वे उसके प्रभावसे जनलोक अथवा महर्लोकमें जाते हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष बहुत वर्षांतक इन्द्रलोकमें वास पाता है। दानशील व्यक्ति चन्द्रलोकको और व्रतशील पुरुष सूर्यलोकको जाता है। तीर्थोकी यात्रा करनेवाले अग्निलोकको, सत्यप्रतिज्ञ वरुणलोकको, विष्णुके उपासक वैकुण्ठलोकको तथा शिवकी आराधना करनेवाले शिवलोकको प्रयाण करते हैं। जो सुख, ऐश्वर्य और संतानकी कामनासे नित्य पितरोंका पूजन करते हैं, वे दक्षिण-मार्गसे अर्थमाके साथ पितृलोकको चले जाते हैं। इसी प्रकार पाँच देवोंकी उपासना करनेवाले स्मार्तलोग स्वर्ग- लोकके अधिकारी होते हैं, प्रजापतियोंके उपासक दक्ष आदि प्रजापतियोंके लोकको जाते हैं, भूतोंको पूजने- वाले भूतलोकको और यक्षोंको पूजनेवाले यक्षलोकमें प्रयाण करते हैं। राजन्! जो जिसके भक्त होते हैं, वे उसीके लोकमें जाते हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। राजन् ! वैसे ही बुरे सङ्गके वशीभूत होकर पापमें रचे- पचे रहनेवाले लोग यमलोकमें जाते हैं, जो दारुण नरकोंसे घिरा हुआ है। महामते। ब्रह्मलोकपर्यन्त जितने भी लोक हैं, उनमें जानेपर पुनरागमन होता है। राजन् । इससे तुम समझ लो कि सम्पूर्ण लोक पुनरावर्ती हैं। सकाम-कर्मियोंकी यही गमनागमनरूप गति होती है। जबतक जीवके पुण्य समाप्त नहीं होते, तबतक वह स्वर्गलोकमें विहार करता है। पुण्यके शेष हो जानेपर उसे न चाहनेपर भी कालकी प्रेरणासे नीचे गिरना पड़ता है। अतः हे महाबाहु यादवेन्द्र । कर्ममें फलका त्याग कर देना चाहिये। मनुष्यको चाहिये कि वह ज्ञान और वैराग्यसे युक्त होकर निष्काम भक्त हो जाय। फिर प्रेमलक्षणा भक्तिके द्वारा भगवान् श्रीहरिके भक्तजनोंका प्रीतिपात्र बनकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरण-कमलोंकी, जो अभय प्रदान करनेवाले हैं और जो परमहंसोंद्वारा सेवित हैं, उपासना करनी चाहिये। जो हठपूर्वक समस्त लोकोंका संहार करनेवाली है, वह मृत्यु भी उस भगवद्धाममें पहुँच जानेपर शान्त हो जाती है॥३-२१ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5)
राजा उग्रसेन बोले- भगवन् ! समस्त लोकोंको पुनरावर्ती कहा गया है। इस बातसे उन सभी लोकोंके प्रति मेरे अन्तःकरणमें निस्संदेह विराग उत्पन्न हो गया है। ब्रह्मन् ! जहाँ जाकर प्राणी वापस नहीं लौटता और जो सबसे परे है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वह परम धाम कहाँपर है-यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २२-२३ ॥
श्रीव्यासजीने कहा- जहाँ गये हुए प्राणी वहाँसे लौटते नहीं, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका वह धाम ब्रह्माण्डोंके बाहर है। विज्ञजन उसे ही उत्तम ‘गोलोकधाम’ कहते हैं। जीव-समूहसे भरा हुआ पचास करोड़ योजनमें विस्तृत यह ब्रह्माण्ड है। इसके आगे इससे दुगुनी अर्थात् सौ करोड़ योजनके विस्तार- वाली ब्रह्मद्रव नामकी जलराशि है, जिसमें यह ब्रह्माण्ड परमाणुके समान दिखायी पड़ता है। उसमें इसके अतिरिक्त करोड़ों ब्रह्माण्ड और हैं। उसके उस पार वह गोलोक है, जहाँ न सूर्यका प्रकाश है, न चन्द्रमाका और न अग्रिका ही। काम, क्रोध, लोभ और मोहकी वहाँ गति नहीं है। वहाँ न शोक है, न बुढ़ापा है, न मृत्यु है और न पीड़ा है। वहाँ प्रकृति और काल भी नहीं हैं, फिर गुणोंका तो प्रवेश वहाँ हो ही कैसे सकता है। जो स्वयं अनिर्वाच्य है, वह शब्दब्रह्म (वेद) भी उस लोकका वर्णन करनेमें असमर्थ हैं। भगवान् श्रीकृष्णके तेजसे प्रकट हुए अनेक पार्षद वहाँ रहते हैं। राजन् ! जो इन्द्रियों तथा मनपर विजय पाये हुए अकिंचन भक्त हैं, अर्थात् सांसारिक प्राणिपदार्थोंमें जिनका कहीं कुछ भी ममत्व नहीं रह गया है, जो सबमें समान भाव रखनेवाले हैं, जो भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंके मकरन्द-रसमें सदा निमग्न रहते हैं तथा जो प्रेमलक्षणा भक्तिसे युक्त एवं सर्वदाके लिये कामनासे सर्वथा रहित हो गये हैं, वे ही समस्त लोकोंको लाँधकर उस उत्तम भगवद्धाममें जाते हैं इसमें तनिक भी संदेह नहीं है॥ २४-३१॥
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवाद में ‘व्यासजी के
द्वारा गतियों का निरूपण’ नामक दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥ २॥
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तीसरा अध्याय
सकाम एवं निष्काम भक्तियोग का वर्णन
राजा उग्रसेनने कहा- ब्रह्मन् ! गुण और कर्मकी गति आपके श्रीमुखसे मैं सुन चुका। सभी लोक आवागमनसे युक्त हैं, यह भी भलीभाँति निश्चित हो गया। निष्कामभावसे साक्षात् श्रीहरिका सेवन करनेपर भक्तोंको वह उत्तम धाम, जो दिव्य एवं दूसरोंके लिये दुर्लभ है, मिलता है- यह भी सुन लिया। आप वर्णन करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। अब मुझे यह बताइये कि भक्तियोग, जिसके प्रभावसे भक्तवत्सल भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, कितने प्रकारका है?॥१-३॥(Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5)
श्रीव्यासजी बोले- द्वारकानरेश! तुम धन्य हो। तुम श्रीहरिके प्रेमी हो तथा भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे इष्टदेव हैं। तुमने भक्तियोगके सम्बन्धमें प्रश्न किया है, इससे तुम्हारी वह निर्मल बुद्धि भी धन्य है। यादव ! जिसे सुनकर संसारका संहार करनेवाला घोर पापी भी शुद्ध हो जाता है, उस भक्तियोगका वर्णन विस्तारपूर्वक तुम्हें सुनाता हूँ। राजन् ! सगुण और निर्गुण-भेदसे भक्तियोग दो प्रकारका है। सगुणके अनेक भेद हैं और निर्गुणका एक ही लक्षण है। देह- धारियोंके गुणानुसार सगुण भक्तिके विभिन्न प्रकार होते हैं। उन गुणोंसे युक्त तीन तरहके भक्त होते हैं। उनका वर्णन अलग-अलग सुनो। जो भेद-दृष्टि रखनेवाला क्रोधी पुरुष हिंसा, दम्भ और मात्सर्यका आश्रय लेकर श्रीहरिकी भक्ति करता है, उसे ‘तामस भक्त’ कहा गया है। राजन् ! जो यश, ऐश्वर्य तथा इन्द्रियोंके विषयोंको लक्ष्य करके यत्नपूर्वक श्रीहरिकी उपासना करता है, उसकी गणना ‘राजसिक’ भक्तोंमें है। जो कर्मक्षयका उद्देश्य लेकर अभेद-दृष्टिसे मोक्षके लिये भगवान् विष्णुकी उपासना करता है, वह भक्त ‘सात्त्विक’ कहा जाता है। महामते! अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- ये चार प्रकारके पुरुष भगवान् विष्णुका भजन करते हैं। इन्होंने स्वयं अपना कल्याण कर लिया है। यों भक्तियोगके अनेक प्रकार हैं। भक्तियोगके द्वारा जो श्रीहरिका पूजन करते हैं, वे सकामी भक्त भी बड़े सुकृती-पुण्यात्मा हैं॥४-१२ ॥
इसी प्रकार अब निर्गुण भक्तियोगका लक्षण सुनो। जैसे गङ्गाजीका जल स्वाभाविक ही समुद्रकी ओर प्रवाहित होता है, उसी प्रकार श्रवणमात्रसे साक्षात् परिपूर्णतम एवं सम्पूर्ण कारणोंके भी कारण भगवान् श्रीकृष्णके प्रति बिना ही कारण मनकी गति अविच्छिन एवं अखण्डितरूपसे प्रवाहित होने लगे, इसे ‘निर्गुण- भक्ति’ कहा गया है। मानद! अब निर्गुण भक्तोंके लक्षण सुनो। भगवान के उन भक्तोंकी अखण्ड भूमण्डलके राज्य, ब्रह्माके पद, इन्द्रासन, पातालके स्वामित्व तथा योगकी सिद्धियोंमें भी स्पृहा नहीं रहती। यादवेश्वर ! भगवदनुरागका आनन्द उनपर छाया रहता है, इसीलिये वे भगवान के द्वारा दिये जानेपर भी सालोक्य मुक्तिको कभी स्वीकार नहीं करते। दूर रहनेपर जैसा प्रेम होता है, समीप आनेपर वैसा नहीं होता, यह सोचकर वे निष्काम भक्त भगवान् के विरहमें व्याकुल रहना पसंद करते हैं, अतः सामीप्य मुक्तिकी भी इच्छा नहीं करते। किन्हीं भक्तोंको भगवान् सारूप्य मुक्ति देते हैं, किंतु निरपेक्ष होनेके कारण भक्त उसे भी स्वीकार नहीं करते। समानत्वकी अभिमति होनेपर भी केवल भगवान की सेवाके प्रति ही उनकी उत्कण्ठा बनी रहती है। ऐसे भक्त एकत्व (सायुज्य) अथवा ब्रह्मके साथ एकतारूप कैवल्यको भी कभी नहीं लेते। उनका अभिप्राय यह है कि यदि ऐसा हो जाय तो स्वामी और सेवकके धर्ममें अन्तर ही क्या रह जायगा। जो निरपेक्ष भक्त होते हैं, उनकी सबमें समान दृष्टि रहती है। उनका स्वभाव शान्त होता है और वे किसीसे वैर नहीं रखते। उनकी यह धारणा है कि कैवल्यसे लेकर सांसारिक समस्त पदोंका ग्रहण करना सकामभावके ही अन्तर्गत है। जिस प्रकार फूलोंकी गन्धको नासिका ही जानती है, आँखको उसका ज्ञान नहीं होता, ठीक वैसे ही निरपेक्षतारूप महान् आनन्दको भगवान के निष्काम भक्त ही जानते हैं। जैसे रसको बनानेवाला हाथ रसके स्वादसे सदा अनभिज्ञ ही रहता है, उसी प्रकार सकामी भक्त कभी भी उस आनन्दको नहीं जान सकते। अतएव राजन् ! इस भक्तियोगको ही तुम परम श्रेष्ठ पद समझो। अब निष्काम भक्तोंकी उपासना-पद्धतिका तुम्हारे सामने वर्णन करता हूँ, उसका स्वरूप है-भगवान् विष्णुका स्मरण, उनके नाम-गुणोंका कीर्तन, श्रवण, चरणोंकी सेवा, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और अपनेको भगवान के चरणोंमें निवेदित कर देना। राजन्! जो निरन्तर भगवान की प्रेमलक्षणा भक्ति करते हैं, वे भगवद्भावकी भावना करनेवाले भक्त जगत्में दुर्लभ हैं॥१३-२६ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5)
जो बड़ोंके प्रति सम्मान, छोटोंके प्रति सब तरहसे दया तथा अपनी बराबरीवालोंके साथ मित्रताका बर्ताव करते हैं, सम्पूर्ण जीवोंपर जिनकी सदा दया रहती है, जो भगवान् श्रीकृष्णके चरण कमलोंके मधुकर हैं, जिन्हें भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसा बनी रहती है, जो अपने विदेशस्थ स्वामीको याद करने- वाली स्त्रीकी भाँति भगवान् श्रीकृष्णको याद करते रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्णके स्मरणसे जिनका रोम-रोम पुलकित हो उठता है, नेत्रोंसे आनन्दकी धारा बहने लगती है, भगवान्के विरहमें कभी-कभी जिनके शरीरका रंग बदल जाता है, जो मधुर वाणीसे ‘श्रीकृष्ण! गोविन्द ! हरे! की रट लगाये रहते हैं तथा रात-दिन भगवान् श्रीहरिमें जिनकी लगन लगी रहती है, वे ही भागवतोत्तम भगवान के उत्तम भक्त हैं॥ २७-३०॥
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘सकाम
निष्काम भक्तियोग का वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम
चौथा अध्याय
भक्त-संत की महिमा का वर्णन
श्रीव्यासजी बोले- जो आकाश, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी तथा ग्रह-नक्षत्रों एवं तारागणोंमें भगवान् श्रीकृष्णकी झाँकी करते हुए बार-बार हर्षित होते हैं, करोड़ों कामदेवोंको मोहित करनेवाले-राधानायक सर्वात्मा नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र उन भक्तोंके सामने बोलते हुए दृष्टिगोचर होने लगते हैं। सदा आनन्द- स्वरूप उन भगवान का दर्शन प्राप्त करके वे अत्यन्त हर्षसे भर जाते हैं और ठहाका मारकर हँसने लगते हैं। वे कभी बोलते और कभी दौड़ लगाया करते हैं। कभी गाते, कभी नाचते और कभी चुप हो रहते हैं। भगवान् विष्णुके वे उत्तम भक्त कृतकृत्य हो गये रहते हैं। वे भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूप ही होते हैं। उनके दर्शन- मात्रसे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। काल अथवा यमराज कोई भी उन्हें दण्ड देनेमें समर्थ नहीं होता। ऐसे भक्तोंके वामभागमें कौमोदकी गदा, दक्षिणमें सुदर्शन चक्र, आगे शार्ङ्ग धनुष, पीछे बादलकी भाँति गर्जनेवाला पाञ्चजन्य शङ्ख, नन्दन नामकी महान् तलवार, शतचन्द्र नामक ढाल और अनेकों तीखे बाण-भगवान के ये सभी प्रधान-प्रधान आयुध रात- दिन सजग होकर उनकी रक्षा किया करते हैं। इसी प्रकार महान् कमल उनके ऊपर बारंबार छाया करनेके लिये प्रस्तुत रहता है। उन संतपुरुषोंके श्रमको गरुडजी पंखोंकी हवासे दूर करते रहते हैं। जहाँ-जहाँ उपर्युक्त इन महात्मा पुरुषोंका गमन होता है, वहाँ-वहाँ स्वयं श्रीहरि पधारते हैं और अपने शोभायुक्त चरण-कमलों- के परागसे उस भू-भागको तीर्थ बना देते हैं। जहाँ संतजन एक क्षण भी ठहरते हैं, वहाँ तीथौँका निवास हो जाता है। यदि उस स्थानपर किसी पापीका भी देहावसान हो जाय तो उसे भगवान् विष्णुका परमपद प्राप्त हो जाता है। जिन्हें भगवान् श्रीकृष्ण इष्ट हैं, उनको दूरसे ही देखकर आधि-व्याधि, भूत, प्रेत और पिशाच दसों दिशाओंमें भाग खड़े होते हैं। अनपेक्ष साधु पुरुषोंको नदी, नद, पर्वत, समुद्र तथा दूसरे व्यवधान भी सब जगह मार्ग दे देते हैं। जो साधु हैं, ज्ञानमें निष्ठा रखनेवाले हैं, जिनका विषयोंसे विराग हो चुका है, जिनकी जगत्में किसीसे शत्रुता नहीं होती-ऐसे महात्मा पुरुषोंका दर्शन पुण्यहीन मनुष्योंके लिये अत्यन्त कठिन है। भगवान् श्रीकृष्णका भक्त जिस कुलमें उत्पन्न होता है, वह कुल स्वयं मलिन ही क्यों न हो, उसे तुम ब्राह्मणवंशकी भौति अत्यन्त निर्मल समझो। राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णका भक्त तो अपने पितृकुलके दस पुरुषोंको तार देता है। इतना ही नहीं, उसके मातृ-कुल तथा पत्नीकुलकी भी दस-दस पीढ़ियाँ नरकयातना एवं पापोंके बन्धनसे मुक्त हो जाती हैं। महात्मा पुरुषोंके सम्बन्धी, पोष्यवर्ग, नौकर, सुहज्जन, शत्रु, भार ढोनेवाले, घरमें रहने वाले पक्षी, चीटियाँ, मच्छर तथा कीट-पतङ्ग भी सभी पावन बन जाते हैं। देवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णका भक्त ऐसे देशमें भी, जो ब्राह्मणके रहने योग्य नहीं है तथा जिसमें कृष्णसार मृग नहीं दिखायी देते अथवा सौवीर, कीकट, मगध एवं म्लेच्छोंके देशमें रहनेपर भी लोगोंको पवित्र करनेवाला होता है। राजन् ! जो संत पुरुषोंसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं, वे ज्ञानयोग, धर्म, तीर्थ एवं यज्ञसे वर्जित होते हुए भी भगवान श्रीहरि के मन्दिर (धाम) में चले जाते हैं। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके भक्तोंकी महिमा मैंने कह सुनायी। इसके वर्णनसे ही मनुष्योंको चारों पदार्थ उपलब्ध हो जाते हैं। अब आगे क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १-२० ॥(Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5)
राजा उग्रसेनने पूछा- भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा हैं। दुरात्मा दन्तवक्रकी ज्योति उनमें लीन हो गयी-ऐसी बात सुनी गयी है। विप्रवर! यह महान् आश्चर्यकी बात है; क्योंकि महात्मा पुरुषोंको प्राप्त होने योग्य सायुज्य-पद अन्य किसी साधारण व्यक्तिको, और वह भी एक शत्रुको कैसे सुलभ हो गया ? ॥ २१-२२ ॥
श्रीव्यासजी बोले- राजन् ! ‘यह मेरा है और यह मैं हूँ’- यह विषमता त्रिगुणात्मक प्राणियोंमें रहती है; क्योंकि वे काम-क्रोधादिमें रचे-पचे रहते हैं। परम प्रभु श्रीहरिके अंदर ऐसी भावना नहीं होती। जो किसी भी भावसे भगवान्में अपना मन लगाता है, उसे श्रीहरिकी सरूपता उपलब्ध हो जाती है-ठीक उसी प्रकार, जैसे कीड़ा भृङ्गीके रूपमें परिणत हो जाता है। सांख्ययोगके साधनके बिना भी मनुष्य स्नेह, काम, भय, क्रोध, एकता तथा सुहृदताका भाव रखकर भगवान्में तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं। राजन् ! नन्द यशोदा आदिने तथा वसुदेव आदि दूसरे दूसरे लोगोंने नेहसे और गोपियोंने कामभावसे भगवान को प्राप्त किया, न कि ब्रह्मभावनासे। कारण यह है कि वे भगवान के रूप, गुण एवं माधुर्यभावमें अपना मनभलीभाँति लगाये रहते थे। तुम्हारे पुत्र कंसको भयके कारण उनका सायुज्य प्राप्त हुआ। इस दन्तवक्रको और शिशुपाल आदि दूसरोंको क्रोधसे, तुम सभी यादवोंको एकता-सजातीयताके भावसे तथा हम लोगोंको सुहृदतासे भगवान् सुलभ हुए हैं। अतएव किसी भी उपायसे भगवान् श्रीकृष्णमें मन लगाना चाहिये। रात-दिन स्मरण करते रहना- यह शत्रुके लिये ही सम्भव है; और कहीं ऐसा नहीं होता। यही कारण है कि दैत्यगण भगवान् श्रीहरिमें शत्रुभाव किया करते हैं॥ २३-२९ ॥
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘भक्त
संतकी महिमा का वर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥
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पाँचवाँ अध्याय
भक्तिकी महिमा का वर्णन
श्रीव्यासजीने कहा- राजन् ! वत्सासुर, अघासुर, धेनुकासुर, वकासुर, पूतना, केशी, काल- यवन, अरिष्टासुर, प्रलम्बासुर, द्विविद नामक बंदर, बल्वल, शङ्ख और शाल्व-इन सभीने जब प्रकृति और पुरुषसे परे प्रभुको प्राप्त कर लिया, तब फिर भक्तिभाव रखनेवाले उन्हें प्राप्त कर लें, इसमें कहना ही क्या है। राजन् ! पूर्वकालकी बात है- अत्यन्त बलशाली मधु और कैटभ नामके दानव, इसी प्रकार हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु तथा रावण और कुम्भकर्ण भी भगवान् विष्णुके साथ वैर ठानकर उनके परमपदको प्राप्त हो गये। फिर जो सदा सत्सङ्गसे प्रेम करते थे तथा अत्यन्त आदरणीय भगवान के शोभायुक्त चरण-कमलोंके मकरन्द एवं परागमें जिनका मन लुभाया रहता था-ऐसे प्रह्लाद, बाणासुर, राजा बलि, शङ्खचूड़ एवं विभीषण आदि किस-किसने भगवान विष्णु के धामको नहीं प्राप्त किया? देवर्षि नारद, बृहस्पति, वसिष्ठ, पराशर आदि तथा सांख्यायन, असित, शुकदेव एवं सनक प्रभृति निष्काम भक्त-जो कमल-लोचन भगवान के चरण कमलोंके मकरन्दके प्रधान भ्रमर कहे जाते हैं- भूमण्डलमें बिना ही स्वार्थ के भ्रमण करते रहते हैं। यति, उत्कल, अङ्ग, भरत, अर्जुन, जनकजी, गाधि, प्रियव्रत, यदु आदि एवं अम्बरीष तथा अन्य निष्काम भक्त एवं श्रेष्ठ परमहंस गण भगवान् श्रीकृष्णकी अमृतमयी कथाके पानसे मस्त हुए घूमते हैं। मन्दोदरी, मतङ्गमुनिकी शिष्या भक्तिमती शबरी, तारा, अत्रिमुनिकी प्रिया साध्वी अनसूया, अहल्या, कुन्ती और द्रुपदराजकुमारी द्रौपदी- ये सभी प्रशंसनीय भक्त-महिलाएँ हो चुकी हैं। परमहंसों के समान ही इनकी भी ख्याति है। सुग्रीव, अङ्गद, हनुमान्, जाम्बवान्, गरुड, जटायु, काकभुशुण्डि आदि तिर्यक् योनियोंके संत, कुब्जा, वायक, सुदामा माली तथा गुह आदि भी भक्तोंका सङ्ग पाकर श्रीहरिके उत्तम भक्त बन गये। धर्म, तप, योग, सांख्य, यज्ञ, तीर्थ यात्रा, यम-नियम, चान्द्रायण आदि व्रत, वेदपाठ, दक्षिणा, पूजा अथवा दान-भक्तिके बिना ये कोई भी भगवान श्रीकृष्ण को वशमें नहीं कर सकते। यज्ञ, व्रत, स्वाध्याय, तप, तीर्थ, योग, पूजा, नियमादि और सांख्ययोग-इनसे जो फल मिलता है, वह सब-का- सब इस संसारमें भक्तिसे सुलभ है। इतना ही नहीं, भक्तिसे जिस पदकी उपलब्धि होती है, वह इन साधनोंसे कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। यह भक्ति जगत्भरके पापोंसे अधमोंका उद्धार करनेवाली, जगत्से तारने- वाली, संसाररूपी महासागरके भव-जल-प्रवाहसे उबारनेवाली, विषयसेवनके द्वारा संचित कर्मोंका नाश करनेवाली तथा परात्पर परम प्रभु भगवान का पद प्रदान करनेवाली है। यह भक्ति भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन- रूपी रसके प्रति औत्सुक्यसे सुशोभित परम उत्सव मनानेके लिये वसन्तपञ्चमीके समान है। साथ ही यह प्रचुर फल एवं पल्लवोंके भारसे झुकी हुई वसन्त- कालीन दिव्य लताके समान सदा शोभा पाती है। मोहरूपी काले बादलके बीच चमकती हुई बिजलीकी भाँति यह भक्ति शास्त्रोंमें छिपे हुए रहस्योंके वचनोंको प्रकट करनेवाली ज्योतिके समान है। इसे विजयरूप कार्तिककी दीपावली तथा सर्वजयी गुणोंपर विजय पानेके लिये विजयादशमी भी कह सकते हैं। सांख्य और योग जिसके अगल-बगलमें लगे हुए डंडे हैं, सैकड़ों गुणों और भावोंके भेद जिसकी कीले हैं, नवधा भक्तिके श्रवणकीर्तन आदि जो नौ भेद हैं, वे ही जिसके बीचके दण्ड (पैर टिकनेके पाये) हैं, भगवद्धामको पहुँचानेवाली ऐसी यह सरल सीढ़ी है॥१-१३ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 1 to 5)
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवाद में
‘भक्ति की महिमा का वर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५॥