Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42
श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खण्ड अध्याय 31 से 42 |
Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42
श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खण्ड अध्याय 31 से अध्याय 42 (Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42) में दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के बाद आकाशवाणी होती है, जो भगवान शिव के क्रोध की भविष्यवाणी करती है। शिवजी अत्यंत क्रोधित होते हैं और अपनी जटा से वीरभद्र को प्रकट कर उन्हें यज्ञ का विध्वंस करने का आदेश देते हैं। वीरभद्र विशाल सेना के साथ यज्ञशाला की ओर बढ़ते हैं। उनका भयंकर रूप देखकर देवता भयभीत हो जाते हैं। यज्ञशाला में उपस्थित देवता और ऋषि वीरभद्र के प्रकोप से भयभीत हो जाते हैं। वे भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना करते हैं।
वीरभद्र यज्ञशाला में पहुंचकर विध्वंस मचाते हैं। वे देवताओं और दक्ष के अनुयायियों से युद्ध करते हैं। श्रीहरि विष्णु और वीरभद्र में भयंकर युद्ध होता है। वीरभद्र दक्ष का सिर काटकर यज्ञकुंड में डाल देते हैं। पूरा यज्ञशाला तहस-नहस हो जाता है। दधीचि और क्षुव के बीच विवाद होता है। दधीचि ऋषि शाप देते हैं लेकिन बाद में शिवजी की कृपा से ध्रुव पर अनुग्रह किया जाता है।
इस प्रसंग में भगवान शिव के क्रोध, वीरभद्र के प्रलयंकारी स्वरूप, दक्ष प्रजापति के अहंकार के नाश और अंततः शिवजी की करुणा का वर्णन है। यह कथा हमें अहंकार त्यागकर भक्ति मार्ग अपनाने की सीख देती है।
सम्पूर्ण शिव महापुराण हिंदी में
इकतीसवां अध्याय
आकाशवाणी
ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद! जब दक्ष के उस महान यज्ञ में घोर उत्पात मचा हुआ था और सभी डर के कारण भयभीत हो रहे थे तो उस समय वहां पर एक आकाशवाणी हुई।
हे मूर्ख दक्ष ! तूने यह बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया है। तूने शिव भक्त दधीचि के कथन को प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिए परम मंगलकारी और आनंददायक था। तूने उनका भी अपमान किया और वे तुझे शाप देकर तेरी यज्ञशाला से चले गए। तब भी तू कुछ भी नहीं समझा। तूने अपने घर में स्वयं आई, साक्षात मंगल स्वरूपा अपनी पुत्री सती का अपमान किया। तूने सती और शंकर का पूजन भी नहीं किया। अपने को ब्रह्माजी का पुत्र समझकर तुझे बहुत घमंड हो गया था। तूने उस सती देवी का अपमान किया जो सत्पुरुषों की भी आराध्या हैं। वे समस्त पुण्यों का फल देती हैं। वे तीनों लोकों की माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी हैं। सती देवी प्रसन्न होने पर सुख और सौभाग्य प्रदान करती हैं। वे परम मंगलकारी हैं। देवी सती की पूजा करने से समस्त भयों से छुटकारा मिल जाता है और मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। देवी सभी उपद्रवों को नष्ट कर देती हैं। वे ही पराशक्ति हैं तथा कीर्ति, संपत्ति, भोग और मोक्ष प्रदान करती हैं। वे ही जन्मदात्री हैं अर्थात जन्म देने वाली माता हैं। वे ही इस जगत की रक्षा करने वाली आदि शक्ति हैं और वे ही प्रलयकाल में जगत का संहार करने वाली हैं। सती ही भगवान विष्णु सहित ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र, अग्नि, सूर्यदेव आदि सभी देवताओं की जननी हैं। वे साक्षात जगदंबा हैं। वे ही दुष्टों का नाश करने वाली और भक्तों की रक्षा करने वाली हैं। ऐसी उत्तम महिमा और गुणों वाली भगवान शिव की प्राणप्रिया धर्मपत्नी का तूने इस यज्ञ में अपमान किया है।
भगवान शिव तो परमब्रह्म परमेश्वर हैं। वे सबके स्वामी हैं। वे सबका कल्याण करते हैं। सभी मनुष्य प्रभु का दर्शन पाने की अभिलाषा सदैव अपने मन में रखते हैं। दर्शनों की इच्छा लिए घोर तपस्या करते हैं। वे भगवान शिव ही जगत को धारण कर उसका पालन-पोषण करते हैं। वे ही समस्त विद्याओं के ज्ञाता और मंगलों का भी मंगल करने वाले हैं। वे ही समस्त मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। हे दुष्ट दक्ष! तूने उन परम शक्तिशाली भगवान शिव की शक्ति की अवहेलना करके बहुत बुरा किया है। इसलिए तेरे इस महायज्ञ के विनाश को कोई नहीं रोक सकता। जिनके चरणों की धूल शेषनाग रोज अपने मस्तक पर धारण करता है, जिनके चरणकमल का ध्यान करने से ब्रह्मा को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ है, तूने उनका और उनकी पत्नी सती का पूजन न करके बहुत अनिष्ट किया है। भगवान शिव ही इस संपूर्ण जगत के पिता और उनकी पत्नी देवी सती इस जगत की माता हैं। तूने उन माता-पिता का सत्कार न कर उनका घोर अपमान किया है। अब तेरा कल्याण कैसे हो सकता है? तूने स्वयं दुर्भाग्य से अपना नाता जोड़ लिया है। तूने देवी सती और भगवान शिव की भक्तिभाव से आराधना नहीं की। तेरी यह सोच ही कि कल्याणकारी शिव का पूजन किए बिना भी में कल्याण का भागी हो सकता हूं, तुझे ले डूबी है। तेरा सारा घमंड नष्ट हो जाएगा। यहां बैठा कोई भी देवता शिवजी के विरुद्ध होकर तेरी सहायता नहीं कर पाएगा। यदि करना भी चाहेगा तो स्वयं भी नष्ट हो जाएगा। अब तेरा अमंगल निश्चित है। सभी देवता और मुनिगण यज्ञ मण्डप को छोड़कर तुरंत यहां से अपने-अपने धाम को चले जाएं अन्यथा सबका नाश हो जाएगा।
इस प्रकार यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोगों को चेतावनी देकर वह आकाशवाणी मौन हो गई।
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बत्तीसवां अध्याय
शिवजी का क्रोध
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवता और मुनि आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। वे अत्यंत भयभीत हो गए। उधर, भृगु के मंत्रों से उत्पन्न गणों द्वारा भगाए गए शिवगण, जो कि नष्ट होने से बच गए थे, शिवजी की शरण में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और वहां यज्ञ में जो कुछ भी हुआ था, उसका और सती के शरीर त्यागने का सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया।
शिवगण बोले- हे महेश्वर! दक्ष बड़ा ही दुरात्मा और घमंडी है। उसने माता सती का बहुत अपमान किया। वहां उपस्थित देवताओं ने भी उनका आदर-सत्कार नहीं किया। उस घमंडी दक्ष ने यज्ञ में आपका भाग भी नहीं दिया। हे प्रभु! दक्ष ने आपके प्रति बुरे शब्द कहे। आपके विषय में ऐसी बातें सुनकर माता क्रोधित हो गईं और उन्होंने पिता की बहुत निंदा की। जब दक्ष ने उनका भी अपमान किया तो वे शांत होकर सोचने लगीं। फिर उन्होंने वहां उपस्थित सभी देवताओं और मुनियों को फटकारा, जिन्होंने आपका अनादर किया था। उन्होंने कहा कि शिव निंदा सुनकर मैं जीवित नहीं रह सकती। यह कहकर उन्होंने योगाग्नि में जलकर अपना शरीर भस्म कर दिया। यह देखकर बहुत से पार्षदों ने माता के साथ ही अपने शरीर की आहुति दे दी। तब हम सब शिवगण उस यज्ञ को विध्वंस करने के लिए तेजी से आगे बढ़े परंतु भृगु ऋषि ने मंत्रों द्वारा गणों को उत्पन्न कर हम पर आक्रमण कर दिया। हममें से बहुत से गणों को उन भृगु के गणों ने मार डाला। तब वहां आकाशवाणी हुई, जिसने कहा कि दक्ष तुम्हारा अंत अब निश्चित है तथा जो भी देवता एवं मुनि तुम्हारा साथ देंगे वे भी पाप के भागी बनकर मृत्यु को प्राप्त होंगे। यह सुनकर सभी उपस्थित लोग वहां से चले गए और हम यहां आपको इस विषय में बताने के लिए आपके पास चले आए। हे कल्याणकारी भगवान शिव ! आप उस महादुष्ट अधर्मी दक्ष को उसके अपराध का कठोर दंड अवश्य दें। यह कहकर सभी गण चुप हो गए।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! अपने पार्षदों की बातें सुनकर भगवान शिव ने उस यज्ञ की सारी बातें और जानकारी जानने के लिए तुम्हारा स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही तुम वहां जा पहुंचे और भक्तिभाव से नमस्कार करके चुपचाप खड़े हो गए। तब महादेव जी ने तुमसे दक्ष के यज्ञ के विषय में पूछा। तब तुमने उत्तम भाव से उस यज्ञशाला में जो-जो हुआ था, वह सब वृत्तांत उन्हें सुना दिया। सारी बातों से अवगत होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। पराक्रमी शंकर के क्रोध का कोई अंत न रहा। तब लोकसंहारी शंकर ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर उसे कैलाश पर्वत पर दे मारा। जैसे ही वह बाल जमीन पर गिरा उसके दो टुकड़े हो गए। उस समय वहां बहुत भयंकर गर्जना हुई। बाल के प्रथम भाग से महापराक्रमी, महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों में शिरोमणि हैं। उनका शरीर बहुत बड़ा और विशाल था। उनकी एक हजार भुजाएं थीं। उस जटा के दूसरे भाग से अत्यंत भयंकर और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुईं। उस समय रुद्र देव के क्रोधपूर्वक सांस लेने से सौ प्रकार के ज्वर और अनेक प्रकार के रोग पैदा हो गए। वे सभी शरीरधारी, क्रूर और भयंकर थे। वे अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित थे। तब वीरभद्र और महाकाली ने दोनों हाथ जोडकर भगवान शिव को प्रणाम किया।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
वीरभद्र बोले- हे महारुद्र! आपने सोम, सूर्य और अग्नि को अपने तीनों नेत्रों में धारण किया है। हे प्रभु! कृपा कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मुझे क्या कार्य करना है? क्या मुझे पृथ्वी के सभी समुद्रों को एक क्षण में सुखाना है या संपूर्ण पर्वतों को पीसकर पल भर में ही मसलकर चूर्ण बनाना है? हे प्रभु! मैं इस ब्रह्माण्ड को भस्म कर दूं या मुनियों को जला दूं। भगवन्, आपका आदेश पाकर मैं समस्त लोकों में उलट-पुलट कर सकता हूं। आपके इशारा करने से ही में जगत के समस्त प्राणियों का विनाश कर सकता हूं। आपकी आज्ञा पाकर में इस संसार में सभी कार्यों को कर सकता हूं। हे प्रभु! मेरे समान पराक्रमी न तो कोई हुआ है और न ही होगा। भगवन, आपकी आज्ञा से हर कार्य सिद्ध हो सकता है। मुझे ये सभी शक्तियां आपकी ही कृपा से प्राप्त हुई हैं। बिना आपकी आज्ञा के एक तिनका भी नहीं हिल सकता है। हे करुणानिधान! में आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। आप अपने कार्य की सिद्धि की जिम्मेदारी मुझे सौंपिए। मैं उसे पूर्ण करने का पूरा प्रयास करूंगा। हे प्रभु! आपके चरणों का मैं हर समय चिंतन करता रहता हूं। आपकी भक्ति परम उत्तम है। आप बिना कहे ही अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूरा करके उन्हें मनोवांछित और अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। भगवन्, मुझे कार्य करने का आदेश दें तथा साथ ही उस कार्य की सफलता का भी आशीर्वाद दें।
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! वीरभद्र के ये वचन सुनकर शिवजी को बहुत संतोष हुआ तथा उन्होंने वीरभद्र को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान शिव बोले- पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र ! तुम्हारी जय हो। ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा ही दुष्ट है। उसे अपने पर बहुत घमंड है। इस समय वह एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा है। उसने उस यज्ञ में मेरा बहुत अपमान किया है। मेरी पत्नी ने मेरा अपमान होता हुआ देखकर उसी यज्ञ की अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर दिया है। अब तुम सपरिवार उस यज्ञ में जाओ। वहां यज्ञशाला में जाकर तुम उस यज्ञ को विनष्ट कर दो। यदि देवता, गंधर्व अथवा कोई अन्य तुम्हारा सामना करे और तुम्हें ललकारे तो तुम उसे वहीं भस्म कर देना।
दधीचि की दी हुई चेतावनी के बाद भी जो देवतागण वहां यज्ञ में मौजूद हैं, तुम उन्हें भी भस्म कर देना क्योंकि वे सभी मुझसे बैर रखते हैं। तुम उन सभी को बंधु-बांधवों सहित जलाकर भस्म कर देना। वहां कलशों में भरे हुए जल को पी लेना। इस प्रकार वैदिक मर्यादा के पालक, भक्तवत्सल करुणानिधान शिव ने क्रोधित होकर वीरभद्र को यज्ञ का विनाश करने का आदेश दिया।
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तेंतीसवां अध्याय
वीरभद्र और महाकाली का यज्ञशाला की ओर प्रस्थान
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! महेश्वर के आदेश को आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र ने शिवजी को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनसे आज्ञा लेकर वीरभद्र यज्ञशाला की ओर चल दिए। शिवजी ने प्रलय की अग्नि के समान और करोड़ों गणों को उनके साथ भेज दिया। वे अत्यंत तेजस्वी थे। वे सभी वीरगण कौतूहल से वीरभद्र के साथ-साथ चल दिए। उसमें हजारों पार्षद वीरभद्र की तरह ही महापराक्रमी और बलशाली थे। बहुत से काल के भी काल भगवान रुद्र के समान थे। वे शिवजी के समान ही शोभा पा रहे थे। तत्पश्चात वीरभद्र शिवजी जैसा वेश धारण कर ऐसे रथ पर चढ़कर चले, जो चार सौ हाथ लंबा था और इस रथ को दस हजार शेर खींच रहे थे और बहुत से हाथी, शार्दूल, मगर, मत्स्य उस रथ की रक्षा के लिए आगे-आगे चल रहे थे। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता और वैष्णवी नामक नव दुर्गाओं ने भी भूतों-पिशाचों के साथ दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए उस ओर प्रस्थान किया। डाकिनी, शाकिनी, भूत-पिशाच, प्रमथ, गुह्यक, कूष्माण्ड, पर्पट, चटक, ब्रह्मराक्षस, भैरव तथा क्षेत्रपाल आदि सभी वीरगण भगवान शिव की आज्ञा पाकर दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए यज्ञशाला की ओर चल दिए। वे भगवान शंकर के चौंसठ हजार करोड गणों की सेना लेकर चल दिए। उस समय भेरियों की गंभीर ध्वनि होने लगी। अनेकों प्रकार के शंख चारों दिशाओं में बजने लगे। उस समय जटाहर, मुखों तथा शृंगों के अनेक प्रकार के शब्द हुए। भिन्न-भिन्न प्रकार की सींगे बजने लगीं। महामुनि नारद! उस समय वीरभद्र की उस यात्रा में करोड़ों सैनिक (शिवगण एवं भूत पिशाच) शामिल थे। इसी प्रकार महाकाली की सेना भी शोभा पा रही थी।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
इस प्रकार वीरभद्र और महाकाली दोनों की विशाल सेनाएं उस दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ने लगीं। उस समय अनेक शुभ शगुन होने लगे।
चौंतीसवां अध्याय
यज्ञ-मण्डप में भय और विष्णु से जीवन रक्षा की प्रार्थना
ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! जब वीरभद्र और महाकाली की विशाल चतुरंगिणी सेना अत्यंत तीव्र गति से दक्ष के यज्ञ की ओर बढ़ी तो यज्ञोत्सव में अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के चलते ही यज्ञ में विध्वंस की सूचना देने वाला उत्पात होने लगा। दक्ष की बार्थी आंख, बाीं भुजा और बायीं जांघ फड़कने लगी। वाम अंगों का फड़कना बहुत अशुभ होता है। उस समय यज्ञशाला में भूकंप आ गया। दक्ष को कम दिखाई देने लगा। भरी दोपहर में उसे आसमान में तारे दिखने लगे। दिशाएं धुंधली हो गई। सूर्य में काले काले धब्बे दिखाई देने लगे। ये धब्बे बहुत डरावने लग रहे थे। बिजली और अग्नि के समान सारे नक्षत्र उन्हें टूट-टूटकर गिरते हुए दिखने लगे। वहां यज्ञशाला में हजारों गिद्ध दक्ष के सिर पर मंडराने लगे। उस यज्ञमण्डप को गिद्धों ने पूरा ढक दिया था। वहां एकत्र गीदड़ बड़ी भयानक और डरावनी आवाजें निकाल रहे थे। सभी दिशाएं अंधकारमय हो गई थीं। वहां अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। फिर उसी समय वहां आकाशवाणी हुई ओ महामूर्ख, दुष्ट दक्ष! तेरे जन्म को धिक्कार है। तू बहुत बड़ा पापी है। तूने भगवान शिव की बहुत अवहेलना की है। तूने देवी सती, जो कि साक्षात जगदंबा रूप हैं, का भी अनादर किया है। सती ने तेरी ही वजह से अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया है। तुझे तेरे कमर्मों का फल जरूर मिलेगा। आज तुझे तेरी करनी का फल अवश्य ही मिलेगा। साथ ही यहां उपस्थित सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी अवश्य ही उनकी करनी का फल मिलेगा। भगवान शिव तुम्हें तुम्हारे पापों का फल जरूर देंगे।
इस प्रकार कहकर वह आकाशवाणी मौन हो गई। उस आकाशवाणी को सुनकर और वहां यज्ञशाला में प्रकट हो रहे अनेक अशुभ लक्षणों को देखकर दक्ष तथा वहां उपस्थित सभी देवतागण भय से कांपने लगे। दक्ष को अपने द्वारा किए गए व्यवहार का स्मरण होने लगा। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। तब दक्ष सहित सभी देवता श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। वे डरे हुए थे। भय से कांपते हुए वे सभी लक्ष्मीपति विष्णुजी से अपने जीवन की रक्षा की प्रार्थना करने लगे।
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पैंतीसवां अध्याय
वीरभद्र का आगमन
दक्ष बोले- हे विष्णु ! कृपानिधान! में बहुत भयभीत हूं। आपको ही मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी है। प्रभु! आप ही इस यज्ञ के रक्षक है। आप साक्षात यज्ञस्वरूप है। आप हम सब पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए। हम सब आपकी शरण में आए हैं। प्रभु! हमारी रक्षा करें, ताकि यज्ञ का विनाश न हो।
ब्रह्मा जी कहते हैं- हे मुनि नारद! इस प्रकार जब दक्ष ने भगवान विष्णु के चरणों में गिरकर उनसे प्रार्थना की, उस समय दक्ष का मन भय से बहुत अधिक व्याकुल था। तब श्रीहरि ने दक्ष को उठाकर अपने मन में करुणानिधान भगवान शिव का स्मरण किया और शिवतत्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले- दक्ष ! तुम्हें तत्व का ज्ञान नहीं है, इसलिए तुमने सबके अधिपति भगवान शंकर की अवहेलना की है। भगवान की स्तुति के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। उस कार्य में अनेक परेशानियां आती हैं। जहां पूजनीय व्यक्तियों की पूजा नहीं होती, वहां गरीबी, मृत्यु तथा भय का निवास होता है। इसलिए तुम्हें भगवान शिव का सम्मान करना चाहिए। परंतु तुमने महादेव का सम्मान और आंदर-सत्कार नहीं किया, अपितु तुमने उनका घोर अपमान किया है। इसी के कारण तुम्हारे ऊपर घोर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मैं तुम पर छाए इस संकट से तुम्हें उबारने में पूर्णतः असमर्थ हूं।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! भगवान विष्णु का वचन सुनकर दक्ष सोच में डूब गया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया और वे घोर चिंता में पड़ गए। तभी भगवान शिव द्वारा भेजे गए गणों सहित वीरभद्र और महाकाली का उनकी सेनाओं सहित उस यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। वे सभी महान पराक्रमी थे। उनकी गणना करना असंभव था। उनके सिंहनाद से सारी दिशाएं गूंज रही थीं। पूरे आसमान में धूल और अंधकार के बादल छाए हुए थे। पूरी पृथ्वी पर्वतों, वनों और काननों सहित कांप रही थी। समुद्रों में ज्वार-भाटा उठ रहा था। उस विशालकाय सेना को देखकर समस्त देवता आश्चर्यचकित थे। उन्हें देखकर दक्ष अपनी पत्नी के साथ भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और बोले- हे प्रजापालक विष्णु ! आपके बल से ही मैंने इस विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। प्रभु! आप कर्मों के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं। आप ही धर्म के रक्षक हैं। अतः प्रभु श्रीहरि ! आप ही यज्ञ को विनाश से बचा सकते हैं।
इस प्रकार दक्ष की विनतीपूर्ण बातों को सुनकर श्रीहरि उन्हें समझाते हुए बोले- दक्ष ! निश्चय ही मुझे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिए परंतु देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य की उस घटना का स्मरण करो। इस यज्ञ के आयोजन में क्या तुम उस घटना को भूल गए हो? यहां इस यज्ञशाला की और तुम्हारी रक्षा करने में कोई भी देवता समर्थ नहीं है। इस समय जब महादेव जी के गण और उनके सेनापति वीरभद्र तुम्हें भगवान शिव का अपमान करने का दंड देने आए हैं, उस समय कोई मूर्ख ही तुम्हारी सहायता को आगे आ सकता है। दक्ष ! केवल कर्म ही समर्थ नहीं होता, अपितु कर्म को करने में जिसके सहयोग की आवश्यकता होती है, उसका भी उतना ही महत्व है। भगवान शिव ही कर्मों के कल्याण की शक्ति देते हैं। जो शांत मन से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करता है, महादेव जी उसे तत्काल ही उस कर्म का फल देते हैं। जो मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, वे नरक के भागी होते हैं।
दक्ष ! यह वीरभद्र शंकर के गणों का ऐसा सेनापति है, जो शिवजी के शत्रु का तुरंत नाश कर देता है। निःसंदेह यह तुम्हारा तथा यहां पर उपस्थित सभी लोगों का नाश कर देगा। शिवजी की आज्ञा का उल्लंघन करके, मैं तुम्हारे यज्ञ में आया हूं, जिसका दुष्परिणाम मुझे भी भोगना पड़ेगा। अब इस विनाश को रोकने की शक्ति मेरे पास नहीं है। यदि हम यहां से भागकर स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी कहीं भी छिप जाएं, तो भी वीरभद्र के शस्त्र हमें ढूंढ़ लेंगे। शिवजी के सभी गण बहुत शक्तिशाली हैं। विष्णुजी यह कह ही रहे थे कि वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा।
छत्तीसवां अध्याय
श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! जब शिवजी की आज्ञा पाकर वीरभद्र की विशाल सेना ने यज्ञशाला में प्रवेश किया तो वहां उपस्थित सभी देवता अपने प्राणों की रक्षा के लिए शिवगणों से युद्ध करने लगे परंतु शिवगणों की वीरता और पराक्रम के आगे उनकी एक न चली। सारे देवता पराजित होकर वहां से भागने लगे। तब इंद्र आदि लोकपाल युद्ध के लिए आगे आए। उन्होंने गुरुदेव बृहस्पति जी को नमस्कार कर उनसे विजय के विषय में पूछा। उन्होंने कहा- हे गुरुदेव बृहस्पति ! हम यह जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी?
उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे इंद्र ! समस्त कर्मों का फल देने वाले तो ईश्वर हैं। सभी को अपनी करनी का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। जो ईश्वर के अस्तित्व को जानकर और समझकर उनकी शरण में आकर अच्छे कर्म करता है उसी को उसके सत्कर्मों का फल मिलता है परंतु जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है, वह ईश्वरद्रोही कहलाता है और उसे किसी भी अच्छे फल की प्राप्ति नहीं होती। उन परमपुण्य भगवान शिव के स्वरूप को जानना अत्यंत कठिन है। वे सिर्फ अपने भक्तों के ही अधीन हैं। इसलिए उन्हें भक्तवत्सल भी कहा जाता है। भक्ति और ईश्वर सत्ता में विश्वास न रखने वाले मनुष्य यदि वेदों का दस हजार बार भी अध्ययन कर लें तो भी भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति नहीं जान पाएंगे। भगवान शिव के शांत, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से ध्यान करने एवं उनकी उपासना करने से ही शिवतत्व की प्राप्ति होती है। तुम उन करुणानिधान भगवान महेश्वर की अवहेलना करने वाले उस मूर्ख दक्ष के निमंत्रण पर यहां इस यज्ञ में भाग लेने आ गए हो। भगवान शिव की पत्नी देवी सती का भी इस यज्ञ में घोर अपमान हुआ है। उन्होंने इसी यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी है। इसी कारण भगवान शंकर ने रुष्ट होकर इस यज्ञ का विध्वंस करने के लिए वीरभद्र के नेतृत्व में अपने शिवगणों को भेजा है। अब इस यज्ञ के विनाश को रोक पाना किसी के भी वश में नहीं है। अब चाहकर भी तुम लोग कुछ नहीं कर सकते।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
बृहस्पति जी के ये वचन सुनकर इंद्र सहित अन्य देवता चिंता में पड़ गए। सभी वीरभद्र और अन्य शिवगण उनके निकट पहुंच गए। वहां वीरभद्र ने उन सभी को बहुत डांटा और फटकारा। गुस्से से वीरभद्र ने इंद्र सहित सभी देवताओं पर अपने तीखे बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। बाणों से घायल हुए सभी देवताओं में हाहाकार मच गया और वे अपने प्राणों की रक्षा के लिए यज्ञमण्डप से भाग खड़े हुए। यह देखकर वहां उपस्थित सभी ऋषि-मुनि भयभीत होकर श्रीहरि के सम्मुख प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब मैं और विष्णुजी वीरभद्र से युद्ध करने के लिए उनके पास गए। हमें देखकर वीरभद्र जो पहले से ही क्रोधित थे, हम सबको डांटने लगे। उनके कठोर वचनों को सुनकर विष्णुजी मुस्कुराते हुए बोले- हे शिवभक्त वीरभद्र ! में भी भगवान शिव का ही भक्त हूं। उनमें मेरी अपार श्रद्धा है। मैं उन्हीं का सेवक हूं परंतु दक्ष अज्ञानी और मूर्ख है। यह सिर्फ कर्मकाण्डों में ही विश्वास रखता है। जिस प्रकार महेश्वर भगवान अपने भक्तों के ही अधीन हैं उसी प्रकार में भी अपने भक्तों के ही अधीन हूं। दक्ष मेरा अनन्य भक्त है। उसकी बारंबार प्रार्थना पर मुझे इस यज्ञ में उपस्थित होना पड़ा। हे वीरभद्र ! तुम रुद्रदेव के रौद्र रूप अर्थात क्रोध से उत्पन्न हुए हो। तुम्हें भगवान शंकर ने इस यज्ञ का विनाश करने के लिए यहां भेजा है। उनकी आज्ञा तुम्हारे लिए शिरोधार्य है। में इस यज्ञ का रक्षक हूं। अतः इसे बचाना मेरा पहला कर्तव्य है। इसलिए तुम भी अपना कर्तव्य निभाओ और में भी अपना कर्तव्य निभाता हूं। हम दोनों को ही अपने उत्तरदायित्व की रक्षा के लिए आपस में युद्ध करना पड़ेगा।
भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर, वीरभद्र हंसकर बोला कि आप मेरे परमेश्वर भगवान शिव के भक्त हैं, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। भगवन्, में आपको नमस्कार करता हूं। आप मेरे लिए भगवान शिव के समान ही पूजनीय हैं। मैं आपका आदर करता हूं परंतु शिव आज्ञा के अनुसार मुझे इस यज्ञ का विनाश करना है। यह मेरा कर्तव्य है। यज्ञ का रक्षक होने के नाते इसे बचाना आपका उत्तरदायित्व है। अतः हम दोनों को ही अपना-अपना कार्य करना है। तब श्रीहरि और वीरभद्र दोनों ही युद्ध के लिए तैयार हो गए। तत्पश्चात दोनों में घोर युद्ध हुआ। अंत में वीरभद्र ने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को जड़ कर दिया। उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिए। वीरभद्र विष्णुजी पर भारी पड़ रहे थे। तब उन्होंने वहां से अंतर्धान होने का विचार किया। सभी देवता व ऋषिगण यह समझ चुके थे कि यह जो कुछ हो रहा है, वह देवी सती के प्रति अन्याय और शिवजी के अपमान का ही परिणाम है। इस संकट की घड़ी में कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। तब वे देवता और ऋषिगण शिवजी का स्मरण करते हुए अपने-अपने लोक को चले गए। मैं भी दुखी मन से अपने सत्यलोक को चला आया। उस यज्ञस्थल पर बहुत उपद्रव हुआ। वीरभद्र और महाकाली ने अनेकों मुनियों एवं देवताओं को प्रताड़ित करके उनका वध कर दिया। भृगु, पूषा और भग नामक देवताओं को उनकी करनी का फल देते हुए उन्हें पृथ्वी पर फेंक दिया।
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सैंतीसवां अध्याय
दक्ष का सिर काटकर यज्ञ कुंड में डालना
हे नारद ! यज्ञशाला में उपस्थित सभी देवताओं को डराकर और मारकर वीरभद्र ने वहां से भगा दिया और जो बाकी बचे उनको भी मार डाला। तब उन्होंने यज्ञ के आयोजक दक्ष को, जो कि भय के मारे अंतर्वेदी में छिपा था, बलपूर्वक पकड़ लिया। वीरभद्र ने दक्ष के शरीर पर अनेकों वार किए। वे दक्ष का सिर तलवार से काटने लगे। परंतु दक्ष के योग के प्रभाव से वह सिर काटने में असफल रहे। वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दोनों हाथों से उसकी गरदन मरोड़कर तोड़ दी। तत्पश्चात दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल दिया।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
उस महान यज्ञ का संपूर्ण विनाश करने के उपरांत वीरभद्र और सभी गण जीत की खुशी के साथ कैलाश पर्वत पर चले गए और शिवजी को अपनी विजय की सूचना दी। इस समाचार को पाकर महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए।
अड़तीसवां अध्याय
दधीचि-क्षुव विवाद
सूत जी कहते हैं- हे महर्षियो! ब्रह्माजी के द्वारा कही हुई कथा को सुनकर नारद जी आश्चर्यचकित हो गए तथा उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा कि भगवान विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गए? क्या वे अद्भुत पराक्रम वाले भगवान शिव को नहीं जानते थे? क्यों श्रीहरि ने रुद्रगणों के साथ युद्ध किया? कृपया कर मेरे अंदर उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी शंकाओं का समाधान कीजिए।
ब्रह्माजी ने नारद जी के प्रश्नों के उत्तर देते हुए कहा- हे मुनिश्रेष्ठ नारद । पूर्व काल में राजा ध्रुव की सहायता करने वाले श्रीहरि को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था। इसलिए वे भूल गए और दक्ष के यज्ञ में चले गए। प्राचीन काल में दधीचि मुनि महातेजस्वी राजा ध्रुव के मित्र थे परंतु बाद में उन दोनों के बीच बहुत विवाद खड़ा हो गया। विवाद का कारण मुनि दधीचि का चार वर्षों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताना था परंतु राजा ध्रुव, जो कि धन वैभव के अभिमान में डूबे हुए थे, इस बात से पूर्णतः असहमत थे। क्षुव सभी वर्णों में राजा को ही श्रेष्ठ मानते थे। राजा को सर्वश्रेष्ठ और सर्ववेदमय माना जाता है। यह श्रुति भी कहती है। इसलिए ब्राह्मण से ज्यादा राजा श्रेष्ठ है। हे दधीचि! आप मेरे लिए आदरणीय हैं। राजा क्षुव के कथन को सुनकर दधीचि को क्रोध आ गया। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और ध्रुव के सिर पर मुक्के का प्रहार कर दिया। दधीचि के इस व्यवहार से मद में चूर ध्रुव को और अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने वज्र से दधीचि पर प्रहार कर दिया। वज्र से घायल हुए दधीचि मुनि ने पृथ्वी पर गिरते हुए योगी शुक्राचार्य का स्मरण किया। शुक्राचार्य ने तुरंत आकर दधीचि मुनि के शरीर को पूर्ववत कर दिया। शुक्राचार्य ने दधीचि से कहा कि मैं तुम्हें महामृत्युंजय का मंत्र प्रदान करता हूं।
‘त्रयम्बकं यजामहे‘ अर्थात हम तीनों लोकों के पिता भगवान शिव, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों मण्डलों के पिता हैं, सत्व, रज और तम आदि तीनों गुणों के महेश्वर हैं, जो आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिव तत्व, पृथ्वी, जल व तेज सभी के स्रोत हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों आधारभूत देवताओं के भी ईश्वर महादेव हैं, उनकी आराधना करते हैं। ‘सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्’ अर्थात जिस प्रकार फूलों में खुशबू होती है, उसी प्रकार भगवान शिव भूतों में, गुणों में, सभी कार्यों में इंद्रियों में, अन्य देवताओं में और अपने प्रिय गणों में क्षारभूत आत्मा के रूप में समाए हैं। उनकी सुगंध से ही सबकी ख्याति एवं प्रसिद्धि है। ‘पुष्टिवर्धनम्’ अर्थात वे भगवान शिव ही प्रकृति का पोषण करते हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों एवं सभी देवताओं का पोषण करते हैं। ‘उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्’ अर्थात जिस प्रकार खरबूजा पक जाने पर लता से टूटकर अलग हो जाता है उसी प्रकार में भी मृत्युरूपी बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करूं। हे रुद्रदेव! आपका स्वरूप अमृत के समान है। जो पुण्यकर्म, तपस्या, स्वाध्याय, योग और ध्यान से उनकी आराधना करता है, उसे नया जीवन प्राप्त होता है। भगवान शिव अपने भक्त को मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर देते हैं और उसे मोक्ष प्रदान करते हैं। जैसे उर्वारुक अर्थात ककड़ी को उसकी बेल अपने बंधन में बांधे रखती है और पक जाने पर स्वयं ही उसे बंधन मुक्त कर देती है। यह महामृत्युंजय मंत्र संजीवनी मंत्र है। तुम नियमपूर्वक भगवान शिव का स्मरण करके इस मंत्र का जाप करो। इस मंत्र से अभिमंत्रित जल को पियो। इस मंत्र का जाप करने से मृत्यु का भय नहीं रहता। इसके विधिवत पूजन करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। वे सभी कार्यों की सिद्धि करते हैं तथा सभी बंधनों से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करते हैं।
ब्रह्माजी बोले-नारद ! दधीचि मुनि को इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य अपने निवास पर चले गए। उनकी बातों का दधीचि मुनि पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव का स्मरण कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने वन में चले गए। वन में उन्होंने प्रेमपूर्वक भगवान शिव का चिंतन करते हुए उनकी तपस्या आरंभ कर दी। दीर्घकाल तक वे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे। उनकी इस निःस्वार्थ भक्ति से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गए। दधीचि ने दोनों हाथ जोडकर शिवजी को प्रणाम किया। उन्होंने महादेव जी की बहुत स्तुति की।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
शिव ने कहा- मुनिश्रेष्ठ दधीचि ! मैं तुम्हारी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हुआ हूं। तुम वर मांगो। मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा। यह सुनकर दधीचि हाथ जोड़े नतमस्तक होकर कहने लगे- हे देवाधिदेव! करुणानिधान! महादेव जी! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे तीन वर प्रदान करें। पहला यह कि मेरी अस्थियां वज्र के समान हो जाएं। दूसरा-कोई मेरा वध न कर सके अर्थात में हमेशा अवध्य रहूं और तीसरा कि मैं हमेशा अदीन रहूं। कभी दीन न होऊं। शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर तीनों वर दधीचि को प्रदान कर दिए। तीनों मनचाहे वरदान मिल जाने पर दधीचि मुनि बहुत प्रसन्न थे। वे आनंदमग्न होकर राजा ध्रुव के स्थान की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर दधीचि ने ध्रुव के सिर पर लात मारी। ध्रुव विष्णु जी का परम भक्त था। राजा होने के कारण वह भी अहंकारी था। उसने क्रोधित हो तुरंत दधीचि पर वज्र से प्रहार कर दिया परंतु ध्रुव के प्रहार से दधीचि मुनि का बाल भी बांका नहीं हुआ। यह सब महादेव जी के वरदान से ही हुआ था। यह देखकर ध्रुव को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब उन्होंने वन में जाकर इंद्र के भाई मुकुंद की आराधना शुरू कर दी। तब विष्णुजी ने प्रसन्न होकर ध्रुव को दिव्य दृष्टि प्रदान की। क्षुव ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी भक्तिभाव से स्तुति की।
तत्पश्चात ध्रुव बोले- भगवन्, मुनिश्रेष्ठ दधीचि पहले मेरे मित्र थे परंतु बाद में हम दोनों के बीच में विवाद उत्पन्न हो गया। दधीचि ने परम पूजनीय भगवान शिव की तपस्या महामृत्युंजय मंत्र से कर उन्हें प्रसन्न किया तथा अवध्य रहने का वरदान प्राप्त कर लिया। तब उन्होंने मेरी राजसभा में मेरे समस्त दरबारियों के बीच मेरा घोर अपमान किया। उन्होंने सबके सामने मेरे मस्तक पर अपने पैरों से आघात किया। साथ ही उन्होंने कहा कि में किसी से नहीं डरता। भगवन् ! मुनि दधीचि को बहुत घमंड हो गया है।
ब्रह्माजी बोले- नारद! जब श्रीहरि को इस बात का ज्ञान हुआ कि दधीचि मुनि को महादेव जी द्वारा अवध्य होने का आशीर्वाद प्राप्त है, तो वे कहने लगे कि ध्रुव महादेव जी के भक्तों को कभी भी किसी प्रकार का भी भय नहीं होता है। यदि में इस विषय में कुछ करूं तो दधीचि को बुरा लगेगा और वे शाप भी दे सकते हैं। उन्हीं दधीचि के शाप से दक्ष यज्ञ में मेरी शिवजी से पराजय होगी। इसलिए मैं इस संबंध में कुछ नहीं करना चाहता परंतु ऐसा कुछ जरूर करूंगा, जिससे आपको विजय प्राप्त हो। भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर राजा चुप हो गए।
उन्तालीसवां
अध्याय दधीचि का शाप और ध्रुव पर अनुग्रह
ब्रह्माजी बोले- नारद! श्रीहरि विष्णु अपने प्रिय भक्त राजा क्षुव के हितों की रक्षा करने के लिए एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके दधीचि मुनि के आश्रम में पहुंचे। विष्णुजी भगवान शिव की आराधना में मग्न रहने वाले ब्रह्मर्षि दधीचि से बोले कि हे प्रभु, मैं आपसे एक वर मांगता हूं। दधीचि श्रीविष्णु को पहचानते हुए कहने लगे- में सब समझ गया हूं कि आप कौन हैं और क्या चाहते हैं? इसलिए मैं आपसे क्या कहूं। हे श्रीहरि विष्णु ! क्षुव का कल्याण करने के लिए आप यह ब्राह्मण का वेश बनाकर आए हैं। आप ब्राह्मण वेश का त्याग कर दें। लज्जित होकर भगवान विष्णु अपने असली रूप में आ गए और महामुनि दधीचि को प्रणाम करके बोले कि महामुनि ! आपका कथन पूर्णतया सत्य है। मैं यह भी जानता हूं कि शिवभक्तों को कभी भी, किसी भी प्रकार का कोई भी भय नहीं होता है। परंतु आप सिर्फ मेरे कहने से राजा ध्रुव के सामने यह कह दें कि आप राजा क्षुव से डरते हैं। श्रीविष्णु की यह बात सुनकर दधीचि हंसने लगे। हंसते हुए बोले कि भगवान शिव की कृपा से मुझे कोई भी डरा नहीं सकता। जब कोई वाकई मुझे डरा नहीं सकता तो मैं क्यों झूठ बोलकर पाप का भागी बनूं? दधीचि मुनि के इन वचनों को सुनकर विष्णु को बहुत अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने मुनि दधीचि को समझाने की बहुत कोशिश की। सभी देवताओं ने श्री विष्णुजी का ही साथ दिया। भगवान विष्णु ने दधीचि मुनि को डराने के लिए अनेक गण उत्पन्न कर दिए परंतु दधीचि ने अपने सत से उनको भस्म कर दिया। तब विष्णुजी ने वहां अपनी मूर्ति प्रकट कर दी। यह देखकर दधीचि मुनि बोले- हे श्रीहरि! अब अपनी माया को त्याग दीजिए। आप अपने क्रोध और अहंकार का त्याग कर दीजिए। आपको मुझमें ही ब्रह्मा, रुद्र सहित संपूर्ण जगत का दर्शन हो जाएगा। मैं आपको दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं। तब विष्णुजी को दधीचि मुनि ने अपने शरीर में पूरे ब्रह्मांड के दर्शन करा दिए। तब विष्णुजी का क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने चक्र उठा लिया और महर्षि को मारने के लिए आगे बढ़े, परंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी चक्र आगे नहीं चला।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
यह देखकर दधीचि हंसते हुए बोले कि हे श्रीहरि ! आप भगवान शिव द्वारा प्रदान किए गए इस सुदर्शन चक्र से उनके ही प्रिय भक्त को मारना चाहते हैं, तो भला यह चक्र क्यों चलेगा? शिवजी द्वारा दिए गए अस्त्र से आप उनके भक्तों का विनाश किसी भी तरह नहीं कर सकते परंतु फिर भी यदि आप मुझे मारना चाहते हैं तो ब्रह्मास्त्र आदि का प्रयोग कीजिए। लेकिन दधीचि को साधारण मनुष्य समझकर विष्णुजी ने उन पर अनेक अस्त्र चलाए।
तब दधीचि मुनि ने धरती से मुट्ठी पर कुशा उठा ली और कुछ मंत्रों के उच्चारण के उपरांत उसे देवताओं की ओर उछाल दिया। वे कुशाएं कालाग्नि के रूप में परिवर्तित हो गईं, जिनमें देवताओं द्वारा छोड़े गए सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर भस्म हो गए। यह देखकर वहां पर उपस्थित अन्य देवता वहां से भाग खड़े हुए परंतु श्रीहरि दधीचि से युद्ध करते रहे। उन दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। तब में (ब्रह्मा) राजा ध्रुव को साथ लेकर उस स्थान पर आया, जहां उन दोनों के बीच युद्ध हो रहा था। मैंने भगवान विष्णु से कहा कि आपका यह प्रयास निरर्थक है। क्योंकि आप भगवान शिव के परम भक्त दधीचि को हरा नहीं सकते हैं। यह सुनकर विष्णुजी शांत हो गए, उन्होंने दधीचि मुनि को प्रणाम किया। तब राजा ध्रुव भी दोनों हाथ जोड़कर मुनि दधीचि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे, उनसे माफी मांगने लगे और कहने लगे कि प्रभु आप मुझ पर कृपादृष्टि रखिए।
ब्रह्माजी बोले- नारद! इस प्रकार राजा ध्रुव द्वारा की गई स्तुति से दधीचि को बहुत संतोष मिला और उन्होंने राजा ध्रुव को क्षमा कर दिया परंतु विष्णुजी सहित अन्य देवताओं पर उनका क्रोध कम नहीं हुआ। तब क्रोधित मुनि दधीचि ने इंद्र सहित सभी देवताओं और विष्णुजी को भी भगवान रुद्र की क्रोधाग्नि में नष्ट होने का शाप दे दिया। इसके बाद राजा ध्रुव ने दधीचि को पुनः नमस्कार कर उनकी आराधना की और फिर वे अपने राज्य की ओर चल दिए। राजा ध्रुव के वहां से चले जाने के पश्चात इंद्र सहित सभी देवगणों ने भी अपने-अपने धाम की ओर प्रस्थान किया। तदोपरांत श्रीहरि विष्णु भी बैकुंठधाम को चले गए। तब से वह पुण्य स्थान ‘थानेश्वर’ नामक तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। इस तीर्थ के दर्शन से भगवान शिव का स्नेह और कृपा प्राप्त होती है।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह पूरी अमृत कथा का वर्णन सुनाया। जो मनुष्य क्षुव और दधीचि के विवाद से संबंधित इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता है, वह अपमृत्यु को जीत लेता है तथा मरने के बाद सीधा स्वर्ग को जाता है। इसका पाठ करने से युद्ध में मृत्यु का भय दूर हो जाता है तथा निश्चित रूप से विजयश्री की प्राप्ति होती है।
चालीसवां अध्याय
ब्रह्माजी का कैलाश पर शिवजी से मिलना
नारद जी ने कहा- हे महाभाग्य! हे विधाता ! हे महाप्राण! आप शिवतत्व का ज्ञान रखते हैं। आपने मुझ पर बड़ी कृपा की जो इस अमृतमयी कथा का श्रवण मुझे कराया। मैं आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूं। हे प्रभु! अब मुझे यह बताइए कि जब वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ का विनाश कर दिया और उनका वध करके कैलाश पर्वत को चले गए तब क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! जब भगवान शिव द्वारा भेजी गई उनकी विशाल सेना ने यज्ञ में उपस्थित सभी देवताओं और ऋषियों को पराजित कर दिया और उन्हें पीट-पीटकर वहां से भाग जाने को मजबूर कर दिया तो वे सभी वहां से भागकर मेरे पास आ गए। उन्होंने मुझे प्रणाम करके मेरी स्तुति की तथा वहां का सारा वृत्तांत मुझे सुनाया। तब अपने पुत्र दक्ष की मुझे बहुत चिंता होने लगी और मेरा दिल पुत्र शोक के कारण व्यथित हो गया। तत्पश्चात मैंने श्रीहरि का स्मरण किया और अन्य देवताओं और ऋषि-मुनियों को साथ लेकर बैकुंठलोक गया। वहां उन्हें नमस्कार करके हम सभी ने उनकी भक्तिभाव से स्तुति की। तब मैंने श्रीहरि से विनम्रता से प्रार्थना की कि भगवन् आप कुछ ऐसा करें, जिससे हम सभी का दुख कम हो जाए। देवेश्वर आप कुछ ऐसा करें, जिससे वह यज्ञ पूरा हो जाए तथा उसके यजमान दक्ष पुनः जीवित हो जाएं। अन्य सभी देवता और ऋषि-मुनि भी पूर्व की भांति सुखी हो जाएं।
मेरे इस प्रकार निवेदन करने पर लक्ष्मीपति विष्णुजी, जो अपने मन में शिवजी का चिंतन कर रहे थे, प्रजापति ब्रह्मा और देवताओं को संबोधित करते हुए इस प्रकार बोले- कोई भी अपराध किसी भी स्थिति में कभी भी किसी के लिए भी मंगलकारी नहीं हो सकता। हे विधाता ! सभी देवता, परमपिता परमेश्वर भगवान शिव के अपराधी हैं क्योंकि इन्होंने यज्ञ में शिवजी का भाग नहीं दिया। साथ ही वहां उनका अनादर भी किया। उनकी प्रिय पत्नी सती ने भी उनके अपमान के कारण ही अपनी देह का त्याग कर दिया। उनका वियोग होने के कारण भगवन् अत्यंत रुष्ट हो गए हैं। तुम सभी को शीघ्र ही उनके पास जाकर उनसे क्षमा मांगनी चाहिए। भगवान शिव के पैर पकड़कर उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न करो क्योंकि उनके कुपित होने से संपूर्ण जगत का विनाश हो सकता है। दक्ष ने शिवजी के लिए अपशब्द कहकर उनके हृदय को विदीर्ण कर दिया है। इसलिए उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगो। उन्हें शांत करने का यही सर्वोत्तम उपाय है। वे भक्तवत्सल हैं। यदि आप लोग चाहें तो मैं भी आपके साथ चलकर उनसे क्षमा याचना करूंगा।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि, में और अन्य देवता एवं ऋषि-मुनि आदि कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। वह पर्वत बहुत ही ऊंचा और विशाल है। उसके पास में ही शिवजी के मित्र कुबेर का निवास स्थल अलकापुरी है। अलकापुरी महा दिव्य एवं रमणीय है। वहां चारों ओर सुगंध फैली हुई थी। अनेक प्रकार के पेड़-पौधे शोभा पा रहे थे। उसी के बाहरी भाग में परम पावन नंदा और अलकनंदा नामक नदियां बहती हैं। इनका दर्शन करने से मनुष्य को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।
हम लोग अलकापुरी से आगे उस विशाल वट वृक्ष के पास पहुंचे, जहां दिव्य योगियों द्वारा पूजित भगवान शिव विराजमान थे। वह वट वृक्ष सौ योजन ऊंचा था तथा उसकी अनेक शाखाएं पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। वह परम पावन तीर्थ स्थल है। यहां भगवान शिव अपनी योगाराधना करते हैं। उस वट वृक्ष के नीचे महादेव जी के चारों ओर उनके गण थे और यज्ञों के स्वामी कुबेर भी बैठे थे। तब उनके निकट पहुंचकर विष्णु आदि समस्त देवताओं ने अनेकों बार नमस्कार कर उनकी स्तुति की। उस समय शिवजी ने अपने शरीर पर भस्म लगा रखी थी और वे कुशासन पर बैठे थे और ज्ञान का उपदेश वहां उपस्थित गणों को दे रहे थे। उन्होंने अपना बायां पैर अपनी दायीं जांघ पर रखा था और बाएं हाथ को बाएं पैर पर रख रखा था। उनके दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला थी।
भगवान शिव के साक्षात रूप का दर्शन कर विष्णुजी और सभी देवताओं ने दोनों हाथ जोड़कर और अपने मस्तक को झुकाकर दयासागर परमेश्वर शिव से क्षमा याचना की और कहा कि हे प्रभु! आपकी कृपा के बिना हम नष्ट-भ्रष्ट हो गए हैं। अतः प्रभु आप हम सबकी रक्षा करें। भगवन्! हम आपकी शरण में आए हैं। हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें। इस प्रकार सभी देवता व ऋषि-मुनि भगवान शिव का क्रोध कम करने और उनकी प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करने लगे।
इकतालीसवां अध्याय
शिव द्वारा दक्ष को जीवित करना
देवताओं ने महादेव जी की बहुत स्तुति की और कहा- भगवन्, आप ही परमब्रह्म हैं और इस जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं। आप मृत्युंजय हैं। चंद्रमा, सूर्य और अग्नि आपकी तीन आंखें हैं। आपके तेज से ही पूरा जग प्रकाशित है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और चंद्र आदि देवता आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। आप ही इस संसार का पोषण करते हैं। भगवन् आप करुणामय हैं। आप ही दुष्टों का संहार करते हैं। प्रभु! आपकी आज्ञानुसार अग्नि जलाती है और सूर्य अपनी तपन से झुलसाता है। मृत्यु आपके भय से कांपती है। हे करुणानिधान! जिस प्रकार आज तक आपने हमारी हर विपत्ति से रक्षा की है, उसी प्रकार हमेशा अपनी कृपादृष्टि बनाएं। भगवन्! हम अपनी सभी गलतियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हैं। आप प्रसन्न होकर यज्ञ को पूर्ण कीजिए तथा यजमान दक्ष का उद्धार कीजिए। वीरभद्र और महाकाली के प्रहारों से घायल हुए सभी देवताओं व ऋषियों को आरोग्य प्रदान करें। उन सभी की पीड़ा को कम कर दें। हे शिवजी! आप प्रजापति दक्ष के अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण कर दें और दक्ष को पुनर्जीवित कर दें। भग ऋषि को उनकी आंखें, पूषा को दांत प्रदान करें। साथ ही जिन देवताओं के अंग नष्ट हो गए हैं, उन्हें ठीक कर दें। आप सभी को आरोग्य प्रदान करें। हम आपको यज्ञ में पूरा-पूरा भाग देंगे। ऐसा कहकर हम सभी देवता त्रिलोकीनाथ महादेव के चरणों में लेट गए।
हमारी स्तुति और अनुनय-विनय से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न हो गए। शिवजी बोले – हे ब्रह्मा ! श्रीहरि विष्णु ! आपकी बातों को मैं हमेशा मानता हूं। इसलिए आपकी प्रार्थना को मैं नहीं टाल सकता परंतु में यह बताना चाहता हूं कि दक्ष के यज्ञ का विध्वंस मैंने नहीं किया है। उसके यज्ञ का विध्वंस इसलिए हुआ क्योंकि वह हमेशा दूसरों का बुरा चाहता है, उनसे द्वेष रखता है। परंतु जो दूसरों का बुरा चाहता है उसका ही बुरा होता है। अतः हमें कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को कष्ट हो। तुम्हारी प्रार्थना से मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तुम्हारी विनती मानकर मैं दक्ष को जीवित कर रहा हूं परंतु दक्ष का मस्तक अग्नि में जल गया है। इसलिए उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर जोड़ना पड़ेगा। भग सूर्य के नेत्र से यज्ञ भाग को देख पाएंगे तथा पूषा के टूटे हुए दांत सही हो जाएंगे। मेरे गणों द्वारा मारे गए देवताओं के टूटे हुए अंग भी ठीक हो जाएंगे। भृगु की दाढ़ी बकरे जैसी हो जाएगी। सभी अध्वर्यु प्रसन्न होंगे।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
यह कहकर वेदी के अनुसरणकर्ता, परम दयालु भगवान शंकर चुप हो गए। तत्पश्चात मैंने और विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने भगवान शिव का धन्यवाद किया। फिर देवर्षियों सहित शिवजी को उस यज्ञ में आने के लिए आमंत्रित कर, हम लोग यज्ञ के स्थान पर गए, जहां दक्ष ने अपना यज्ञ आरंभ किया था। उस कनखल नामक यज्ञ क्षेत्र में शिवजी भी पधारे। तब उन्होंने वीरभद्र द्वारा किए गए उस विध्वंस को देखा। स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति, समस्त ऋषि, पितर, अग्नि व यज्ञ, गंधर्व और राक्षस वहां पड़े हुए थे। कितने ही लोग अपने प्राणों से हाथ धो चुके थे। तब भगवान शिव ने अपने परम पराक्रमी सेनापति वीरभद्र का स्मरण किया। याद करते ही वीरभद्र तुरंत वहां प्रकट हो गए और उन्होंने भगवान शिव को नमस्कार किया। तब शिवजी हंसते हुए बोले कि हे वीरभद्र ! तुमने तो थोड़ी सी देर में सारा यज्ञ विध्वंस कर दिया और देवताओं को भी दंड दे दिया। हे वीरभद्र ! तुम इस यज्ञ का आयोजन करने वाले दक्ष को जल्दी से मेरे सामने ले आओ।
भगवान शिव की आज्ञा पाकर वीरभद्र गए और दक्ष का शरीर वहां लाकर रख दिया परंतु उसमें सिर नहीं था। दक्ष के शरीर को देखकर शिवजी ने वीरभद्र से पूछा कि दक्ष का सिर कहां है? तब वीरभद्र ने बताया कि दक्ष का सिर काटकर उसने यज्ञ की अग्नि में ही डाल दिया था। तब शिवजी के आदेशानुसार बकरे का सिर दक्ष के धड़ में जोड़ दिया गया। जैसे ही शिवजी की कृपादृष्टि दक्ष के शरीर पर पड़ी वह जीवित हो गया। दक्ष के शरीर में प्राण आ गए और वह इस प्रकार उठ बैठा जैसे गहरी नींद से उठा हो। उठते ही उसने अपने सामने महादेव जी को देखा। उसने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगा। उसके (दक्ष के) हृदय में प्रेम उमड़ आया और उसके प्रसन्नचित्त होते ही उसका कलुषित हृदय निर्मल हो गया। तब दक्ष को अपनी पुत्री का भी स्मरण हो गया और इस कारण दक्ष बहुत लज्जित महसूस करने लगा। तत्पश्चात अपने को संभालते हुए दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव से कहा- हे कल्याणमय महादेव जी! आप ही इस जगत के आदि और अंत हैं। आपने ही इस सृष्टि की रचना का विचार किया है। आपके द्वारा ही हर जीव की उत्पत्ति हुई है। मैंने आपके लिए अपशब्द कहे और आपको यज्ञ में भाग भी नहीं दिया। मेरे बुरे वचनों से आपको बहुत चोट पहुंची है। फिर भी आप मुझ पर कृपा कर यहां मेरा उद्धार करने आ गए। भगवन्! आप ऐश्वर्य से संपन्न हैं। आप ही परमपिता परमेश्वर हैं। प्रभु! आप मुझ पर एवं यहां उपस्थित सभी जनों पर प्रसन्न होइए और हमारी पूजा-अर्चना को स्वीकार कीजिए।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
ब्रह्माजी बोले- नारद! इस प्रकार भगवान शिव की स्तुति करने के बाद दक्ष चुप हो गए। तब श्रीहरि विष्णुजी ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। तत्पश्चात मैंने भी महादेव जी की बहुत स्तुति की। भगवन्! आपने मेरे पुत्र दक्ष पर अपनी कृपादृष्टि की और उसका उद्धार किया। देवेश्वर ! अब आप प्रसन्न होकर सभी शापों से हमें मुक्ति प्रदान करें।
महामुनि ! इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके मैं दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। हम सभी देवगणों की स्तुति सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उनका मुख खिल उठा। तब वहां उपस्थित इंद्र सहित अनेक सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियों ने भी भक्तवत्सल करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। यज्ञशाला में उपस्थित अनेक उपदेवों, नागों तथा ब्राह्मणों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनका प्रसन्न मन से स्तवन किया। इस प्रकार सभी देवों के मुख से अपना स्तवन सुनकर भगवान शिव को बहुत संतोष प्राप्त हुआ।
बयालीसवां अध्याय
दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद मुनि ! इस प्रकार श्रीहरि, मेरे, देवताओं और ऋषि-मुनियों की स्तुति से भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए। वे हम सबको कृपादृष्टि से देखते हुए बोले-प्रजापति दक्ष ! मैं तुम सभी पर प्रसन्न हूं। मेरा अस्तित्व सबसे अलग है। मैं स्वतंत्र ईश्वर हूं। फिर भी मैं सदैव अपने भक्तों के अधीन ही रहता हूं। चार प्रकार के पुण्यात्मा मनुष्य ही मेरा भजन करते हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। परंतु ज्ञानी को ही मेरा खास सान्निध्य प्राप्त होता है। उसे मेरा ही स्वरूप माना जाता है। वेदों को जानने वाले परम ज्ञानी ही मेरे स्वरूप को जानकर मुझे समझ सकते हैं। जो मनुष्य कर्मों के अधीन रहते हैं, वे मेरे स्वरूप को नहीं पा सकते। इसलिए तुम ज्ञान को जानकर शुद्ध हृदय एवं बुद्धि से मेरा स्मरण कर उत्तम कर्म करो। हे दक्ष! मैं ही ब्रह्मा और विष्णु का रक्षक हूं। मैं ही आत्मा हूं। मैंने ही इस संसार की सृष्टि की है। मैं ही संसार का पालनकर्ता हूं। मैं ही दुष्टों का नाश करने के लिए संहारक बन उनका विनाश करता हूं। बुद्धिहीन मनुष्य, जो कि सदैव सांसारिक बंधनों और मोह-माया में फंसे रहते हैं, कभी भी मेरा साक्षात्कार नहीं कर सकते। मेरे भक्त सदैव मेरे ही स्वरूप का चिंतन और ध्यान करते हैं।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
हम तीनों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव एक ही हैं। जो मनुष्य हमें अलग न मानकर हमारा एक ही स्वरूप मानता है, उसे सुख-शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है परंतु जो अज्ञानी मनुष्य हम तीनों को अलग-अलग मानकर हममें भेदभाव करते हैं, वे नरक के भागी होते हैं। हे प्रजापति दक्ष ! यदि कोई श्रीहरि का परम भक्त मेरी निंदा या आलोचना करेगा या मेरा भक्त होकर ब्रह्मा और विष्णु का अपमान करेगा, उसे निश्चय ही मेरे कोप का भागी होना पड़ेगा। तुम्हें दिए गए सभी शाप उसको लग जाएंगे।
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा श्रेष्ठ विद्वानों को हर्ष हुआ तथा दक्ष भी प्रभु की आज्ञा मानकर अपने परिवार सहित शिवजी की भक्ति में मग्न हो गया। सब देवता भी महादेव जी का ही गुणगान करने लगे। वे शिवभक्ति में लीन हो गए और उनके भजनों को गाने लगे। इस प्रकार जिसने जिस प्रकार से भगवान शिव की स्तुति और आराधना की, भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उसे ऐसा ही वरदान प्रदान दिया। तत्पश्चात, भक्तवत्सल भगवान शंकर जी से आज्ञा लेकर प्रजापति दक्ष ने अपना यज्ञ पुनः आरंभ किया। उस यज्ञ में उन्होंने सर्वप्रथम शिवजी का भाग दिया। सब देवताओं को भी उचित भाग दिया गया। यज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों को दक्ष ने सामर्थ्य के अनुसार दान दिया। महादेव जी का गुणगान करते हुए दक्ष ने यज्ञ के सभी कर्मों को भक्तिपूर्वक संपन्न किया। इस प्रकार सभी देवताओं, मुनियों और ऋत्विजों के सहयोग से दक्ष का यज्ञ सानंद संपन्न हुआ।
तत्पश्चात सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों ने महादेव जी के यश का गान किया और अपने-अपने निवास की ओर चले गए। वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी शिवजी से आज्ञा मांगकर वहां से प्रस्थान किया। तब मैं और विष्णुजी भी शिव वंदना करते हुए अपने-अपने लोक को चल दिए। दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की और शिवजी को बहुत सम्मान दिया। तब वे भी प्रसन्न होकर अपने गणों को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर चल दिए।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 31 to 42)
कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी को अपनी प्रिय पत्नी देवी सती की याद आने लगी। महादेव जी ने वहां उपस्थित गणों से उनके बारे में अनेक बातें कीं। वे उनको याद करके व्याकुल हो गए। हे नारद! मैंने तुम्हें सती के परम अद्भुत और दिव्य चरित्र का वर्णन सुनाया। यह कथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह उत्तम वृत्तांत सभी कामनाओं को अवश्य पूरा करता है। इस प्रकार इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला ज्ञानी मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। उसे यश, स्वर्ग और आयु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस कथा को पढ़ता है, उसे अपने सभी सत्कर्मों के फलों की प्राप्ति होती है।
।। श्रीरुद्र संहिता (सती खण्ड) संपूर्ण ।।