Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20
श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खण्ड अध्याय 11 से 20 |
Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20
श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खण्ड अध्याय 11 से अध्याय 20 (Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20) में ब्रह्माजी की काली देवी से प्रार्थना, राजा दक्ष की तपस्या, दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ करने का वर्णन, दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह करना, माता सती की तपस्या, रुद्रदेव का सती से विवाह, सती को शिव से वर की प्राप्ति, शिव और सती का विवाह वर्णन, ब्रह्मा और विष्णु द्वारा शिव की स्तुति करना और शिव-सती का विदा होकट कैलाश जाने का वर्णन कहा गया है।
सम्पूर्ण शिव महापुराण हिंदी में
ग्यारहवां अध्याय
ब्रह्माजी की काली देवी से प्रार्थना
नारद जी बोले- पूज्य पिताजी ! विष्णुजी के वहां से चले जाने पर क्या हुआ? ब्रह्माजी कहने लगे कि जब भगवान विष्णु वहां से चले गए तो मैं देवी दुर्गा का स्मरण करने लगा और उनकी स्तुति करने लगा। मैंने मां जगदंबा से यही प्रार्थना की कि वे मेरा मनोरथ पूर्ण करें। वे पृथ्वी पर अवतरित होकर भगवान शिव का वरण कर उन्हें विवाह बंधन में बांधें। मेरी अनन्य भक्ति-स्तुति से प्रसन्न हो योगनिद्रा चामुण्डा मेरे सामने प्रकट हुईं। उनकी कज्ज्ल सी कांति, रूप सुंदर और दिव्य था। वे चार भुजाओं वाले शेर पर बैठी थीं। उन्हें सामने देख मैंने उनको अत्यंत नम्रता से प्रणाम किया और उनकी पूजा-उपासना की। तब मैंने उन्हें बताया कि देवी ! भगवान शिव रुद्र रूप में कैलाश पर्वत पर निवास कर रहे हैं। वे समाधि लगाकर तपस्या में लीन हैं। वे पूर्ण योगी हैं। भगवान रुद्र ब्रह्मचारी हैं और वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करना चाहते। वे विवाह नहीं करना चाहते। अतः आप उन्हें मोहित कर उनकी पत्नी बनना स्वीकार करें। हे देवी! स्त्री के कारण ही भगवान शिव ने मेरा मजाक उड़ाया है और मेरी निंदा की है। इसलिए मैं भी उन्हें स्त्री के लिए आसक्त देखना चाहता हूं। देवी! आपके अलावा कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह भगवान शंकर को मोह में डाले। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या के रूप में जन्म लें और भगवान शिव का वरण कर उन्हें गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कराएं।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
देवी चामुण्डा बोलीं- हे ब्रह्मा ! भगवान शिव तो परम योगी हैं। भला उनको मोहित करके तुम्हें क्या लाभ होगा? इसके लिए तुम मुझसे क्या चाहते हो? मैं तो हमेशा से ही उनकी दासी हूं। उन्होंने अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए ही रुद्र अवतार धारण किया है। यह कहकर वे शिवजी का स्मरण करने लगीं। फिर वे कहने लगीं कि यह तो सच है कि कोई भगवान शिव को मोहमाया के बंधनों में नहीं बांध सकता। इस संसार में कोई भी शिवजी को मोहित नहीं कर सकता। मुझमें भी इतनी शक्ति नहीं है कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से विमुख कर सकूं। फिर भी आपकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर मैं इसका प्रयत्न करूंगी जिससे भगवान शिव मोहित होकर विवाह कर लें। मैं सती रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होऊंगी। यह कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गई।
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बारहवां अध्याय
दक्ष की तपस्या
नारद जी ने पूछा- हे ब्रह्माजी! उत्तम व्रत का पालन करने वाले प्रजापति दक्ष ने तपस्या करके देवी से कौन-सा वरदान प्राप्त किया? और वे किस प्रकार दक्ष की कन्या के रूप में जन्मीं?
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष क्षीरसागर के उत्तरी तट पर चले गए। वे उसी तट पर बैठकर देवी उमा को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्त करने के लिए, उन्हें हृदय से स्मरण करते हुए तपस्या करने लगे। मन को एकाग्र कर प्रजापति दक्ष दृढ़ता से कठोर व्रत का पालन करने लगे। उन्होंने तीन हजार दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की। वे केवल जल और हवा ही ग्रहण करते थे। तत्पश्चात देवी जगदंबा ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए। कालिका देवी अपने सिंह पर विराजमान थीं। उनकी श्यामल कांति व मुख अत्यंत मोहक था। उनकी चार भुजाएं थीं। वे एक हाथ में वरद, दूसरे में अभय, तीसरे में नीलकमल और चौथे हाथ में खड्ग धारण किए हुए थीं। उनके दोनों नेत्र लाल थे और केश लंबे व खुले हुए थे। देवी का स्वरूप बहुत ही मनोहारी था। उत्तम आभा से प्रकाशित देवी को दक्ष और उनकी पत्नी ने श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने देवी की श्रद्धाभाव से स्तुति की।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
दक्ष बोले- हे जगदंबा ! भवानी! कालिका ! चण्डिके ! महेश्वरी ! मैं आपको नमस्कार करता हूं। मैं आपका बहुत आभारी हूं, जो आपने मुझे दर्शन दिए हैं। हे देवी! मुझ पर प्रसन्न होइए।
ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद ! देवी जगदंबा ने स्वयं ही दक्ष के मन की इच्छा जान ली थी। वे बोलीं- दक्ष! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपने मन की इच्छा मुझे बताओ। मैं तुम्हारे सभी दुखों को अवश्य दूर करूंगी। तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग सकते हो। जगदंबा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और देवी को प्रणाम करने लगे। दक्ष बोले- हे देवी! आप धन्य हैं। आप ही प्रसन्न होने पर मनोवांछित फल देने वाली हैं। हे देवी! यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं तो मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें और मेरी इच्छा पूर्ण करें। हे जगदंबा, मेरे स्वामी शिव ने रुद्र अवतार धारण किया है परंतु अब तक आपने कोई अवतार धारण नहीं किया है। आपके सिवा कौन उनकी पत्नी होने योग्य है। अतः हे देवी ! आप मेरी पुत्री के रूप में धरती पर जन्म लें और भगवान शिव को अपने रूप लावण्य से मोहित करें। हे जगदंबा! आपके अलावा कोई भी शिवजी को कभी मोहित नहीं कर सकता। इसलिए आप हर मोहिनी अर्थात भगवान को मोहने वाली बनकर संपूर्ण जगत का हित कीजिए। यही मेरे लिए वरदान है।
दक्ष का यह वचन सुनकर जगदंबिका हंसने लगीं और मन में भगवान शिव का स्मरण कर बोलीं- हे प्रजापति दक्ष ! तुम्हारी पूजा-आराधना से मैं प्रसन्न हूं। तुम्हारे वर के अनुसार मैं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। तत्पश्चात बड़ी होकर मैं कठोर तप द्वारा महादेव जी को प्रसन्न कर, उन्हें पति रूप में प्राप्त करूंगी। मैं उनकी दासी हूं। प्रत्येक जन्म में शिव शंभु ही मेरे स्वामी होते हैं। अतः मैं तुम्हारे घर में जन्म लेकर शिवा का अवतार धारण करूंगी। अब तुम घर जाओ। परंतु एक बात हमेशा याद रखना। जिस दिन तुम्हारे मन में मेरा आदर कम हो जाएगा उसी दिन मैं अपना शरीर त्यागकर अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
यह कहकर देवी जगदंबिका वहां से अंतर्धान हो गईं तथा प्रजापति दक्ष सुखी मन से घर लौट आए।
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तेरहवां अध्याय
दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ
ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद ! प्रजापति दक्ष देवी का वरदान पाकर अपने आश्रम में लौट आए। मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष मानसिक सृष्टि की रचना करने लगे परंतु फिर भी प्रजा की संख्या में वृद्धि होती न देखकर वे बहुत चिंतित हुए और मेरे पास आकर कहने लगे- हे प्रभो! मैंने जितने भी जीवों की रचना की है वे सभी उतने ही रह गए अर्थात उनमें कोई भी वृद्धि नहीं हो पाई। हे तात ! मुझे कृपा कर ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे वे जीव अपने आप बढ़ने लगें।
ब्रह्माजी बोले- प्रजापति दक्ष ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। तुम त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की भक्ति करते हुए यह कार्य संपन्न करो। वे निश्चय ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। तुम प्रजापति वीरण की परम सुंदर पुत्री असिक्नी से विवाह करो और स्त्री के साथ मैथुन-धर्म का आश्रय लेकर प्रजा बढ़ाओ। असिक्नी से तुम्हें बहुत सी संतानें प्राप्त होंगी। मेरी आज्ञा के अनुसार दक्ष ने वीरण की पुत्री असिक्नी से विवाह कर लिया। उनकी पत्नी के गर्भ से उन्हें दस हजार पुत्रों की प्राप्ति हुई। ये हर्यश्व नाम से जाने गए। सभी पुत्र धर्म के पथ पर चलने वाले थे। एक दिन अपने पिता दक्ष से उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश मिला। तब इस उद्देश्य से तपस्या करने के लिए वे पश्चिम दिशा में स्थित नारायण सर नामक तीर्थ पर गए। वहां सिंधु नदी व समुद्र का संगम हुआ है। उस पवित्र तीर्थ के जल के स्पर्श से उनका मन उज्ज्वल और ज्ञान से संपन्न हो गया। वे उसी स्थान पर प्रजा की वृद्धि के लिए तप करने लगे।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
नारद! इस बात को जानने के बाद तुम श्रीहरि विष्णु की इच्छा से उनके पास गए और बोले- दक्षपुत्र हर्यश्वगण ! तुम पृथ्वी का अंत देखे बिना सृष्टि की रचना करने के लिए कैसे उद्यत हो गए?
ब्रह्माजी बोले- हर्यश्व बड़े ही बुद्धिमान थे। वे तुम्हारा प्रश्न सुनकर उस पर विचार करने लगे। वे सोचने लगे, कि जो उत्तम शास्त्ररूपी पिता के निवृत्तिपरक आदेश को नहीं समझता, वह केवल रजो गुण पर विश्वास करने वाला पुरुष सृष्टि निर्माण का कार्य कैसे कर सकता है? इस बात को समझकर वे नारद जी की परिक्रमा करके ऐसे रास्ते पर चले गए, जहां से वापस लौटना असंभव है।
जब प्रजापति दक्ष को यह पता चला कि उनके सभी पुत्र नारद से शिक्षा पाकर मेरी आज्ञा को भूलकर ऐसे स्थान पर चले गए, जहां से लौटा नहीं जा सकता, तो दक्ष इस बात से बहुत दुखी हुए। वे पुत्रों के वियोग को सह नहीं पा रहे थे। तब मैंने उन्हें बहुत समझाया और उन्हें सांत्वना दी। तब पुनः दक्ष की पत्नी असिक्नी के गर्भ से शबलाश्व नामक एक सहस्र पुत्र हुए। वे सभी अपने पिता की आज्ञा को पाकर पुनः तपस्या के लिए उसी स्थान पर चले गए, जहां उनके बड़े भाई गए थे। नारायण सरोवर के जल के स्पर्श से उनके सभी पाप नष्ट हो गए और मन शुद्ध हो गया। वे उसी तट पर प्रणव मंत्र का जाप करते हुए तपस्या करने लगे। तब नारद तुमने पुनः वही बातें, जो उनके भाइयों को कहीं थीं, उन्हें भी बता दीं और तुम्हारे दिखाए मार्ग के अनुसार वे अपने भाइयों के पथ पर चलते उर्ध्वगति को प्राप्त हुए। दक्ष को इस बात से बहुत दुख हुआ और वे दुख से बेहोश हो गए। जब प्रजापति दक्ष को ज्ञात हुआ कि यह सब नारद की वजह से हुआ है तो उन्हें बहुत क्रोध आया। संयोग से तुम भी उसी समय वहां पहुंच गए। तुम्हें देखते ही क्रोध के कारण वे तुम्हारी निंदा करने लगे और तुम्हें धिक्कारने लगे।
वे बोले- तुमने सिर्फ दिखाने के लिए ऋषियों का रूप धारण कर रखा है। तुमने मेरे पुत्रों को ठगकर उन्हें भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है। तुमने लोक और परलोक दोनों के श्रेय का नाश कर दिया है। जो मनुष्य ऋषि, देव और पितृ ऋणों को उतारे बिना ही मोक्ष की इच्छा मन में लिए माता-पिता को त्यागकर घर से चला जाता है, संन्यासी बन जाता है वह अधोगति को प्राप्त हो जाता है। हे नारद ! तुमने बार-बार मेरा अमंगल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम कहीं भी स्थिर नहीं रह सकोगे। तीनों लोकों में विचरते हुए तुम्हारा पैर कहीं भी स्थिर नहीं रहेगा अर्थात तुम्हें ठहरने के लिए सुस्थिर ठिकाना नहीं मिलेगा। नारद ! यद्यपि तुम साधुपुरुषों द्वारा सम्मानित हो, परंतु तुम्हें शोकवश दक्ष ने ऐसा शाप दिया, जिसे तुमने शांत मन से ग्रहण कर लिया और तुम्हारे मन में किसी प्रकार का विकार नहीं आया।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
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चौदहवां अध्याय
दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिराज ! दक्ष के इस रूप को जानकर मैं उसके पास गया। मैंने उसे शांत करने का बहुत प्रयत्न किया और सांत्वना दी। मैंने उसे तुम्हारा परिचय दिया। दक्ष को मैंने यह जानकारी भी दी कि तुम भी मेरे पुत्र हो। तुम मुनियों में श्रेष्ठ एवं देवताओं के प्रिय हो। तत्पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी से साठ सुंदर कन्याएं प्राप्त कीं। तब उनका धर्म आदि के साथ विवाह कर दिया। दक्ष ने अपनी दस कन्याओं का विवाह धर्म से, तेरह कन्याओं का ब्याह कश्यप मुनि से और सत्ताईस कन्याओं का विवाह चंद्रमा से कर दिया। दो- दो भूतागिरस और कृशाश्व को और शेष चार कन्याओं का विवाह तार्क्ष्य के साथ कर दिया। इन सबकी संतानों से तीनों लोक भर गए। पुत्र-पुत्रियों की उत्पत्ति के पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी सहित देवी जगदंबिका का ध्यान किया। देवी की बहुत स्तुति की। प्रजापति दक्ष की सपत्नीक स्तुति से देवी जगदंबिका ने प्रसन्न होकर दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लेने का निश्चय किया। उत्तम मुहूर्त देखकर दक्ष पत्नी ने गर्भ धारण किया। उस समय उनकी शोभा बढ़ गई।
भगवती के निवास के प्रभाव से दक्ष पत्नी महामंगल रूपिणी हो गई। देवी को गर्भ में जानकर सभी देवी-देवताओं ने जगदंबा की स्तुति की। नौ महीने बीत जाने पर शुभ मुहूर्त में देवी भगवती का जन्म हुआ। उनका मुख दिव्य आभा से सुशोभित था। उनके जन्म के समय आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। देवता आकाश में खड़े मांगलिक ध्वनि करने लगे। यज्ञ की बुझी हुई अग्नि पुनः जलने लगी। साक्षात जगदंबा को प्रकट हुए देखकर दक्ष ने भक्ति भाव से उनकी स्तुति की।
स्तुति सुनकर देवी प्रसन्न होकर बोली- हे प्रजापते ! तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का जो वर दिया था, वह आज पूर्ण हो गया है। यह कहकर उन्होंने पुनः शिशु रूप धारण कर लिया तथा रोने लगीं। उनका रोना सुनकर दासियां उन्हें चुप कराने हेतु वहां एकत्र हो गईं। जन्मोत्सव में गीत और अनेक वाद्य यंत्र बजने लगे। दक्ष ने वैदिक रीति से अनुष्ठान किया और ब्राह्मणों को दान दिया। उन्होंने अपनी पुत्री का नाम ‘उमा’ रखा। देवी उमा का पालन बहुत अच्छे तरीके से किया जा रहा था। वह बालकपन में बहुत सी लीलाएं करती थीं। देवी उमा इस प्रकार बढ़ने लगीं जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है। जब भी वे अपनी सखियों के साथ बैठतीं, वे भगवान शिव की मूर्ति को ही चित्रित करती थीं। वे सदा प्रभु शिव के भजन गाती थीं। उन्हीं का स्मरण करतीं और भगवान शिव की भक्ति में ही लीन रहतीं।
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पंद्रहवां अध्याय
सती की तपस्या
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! एक दिन मैं तुम्हें लेकर प्रजापति दक्ष के घर पहुंचा। वहां मैंने देवी सती को उनके पिता के पास बैठे देखा। मुझे देखकर दक्ष ने आसन से उठकर मुझे नमस्कार किया। तत्पश्चात सती ने भी प्रसन्नतापूर्वक मुझे नमस्कार किया। हम दोनों वहां आसन पर बैठ गए। तब मैंने देवी सती को आशीर्वाद देते हुए कहा-सती ! जो केवल तुम्हें चाहते हैं और तुम्हारी ही कामना करते हैं। तुम भी मन में उन्हीं को सोचती हो और उसी के रूप का स्मरण करती हो। उन्हीं सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव को तुम पति रूप में प्राप्त करो। वे ही तुम्हारे योग्य हैं। कुछ देर बाद दक्ष से विदा लेकर मैं अपने धाम को चल दिया। दक्ष को मेरी बातें सुनकर बड़ा संतोष एवं प्रसन्नता हुई। मेरे कथन से उनकी सारी चिंताएं दूर हो गईं। धीरे-धीरे सती ने कुमारावस्था पार कर ली और वे युवा अवस्था में प्रवेश कर गईं। उनका रूप अत्यंत मनोहारी था। उनका मुख दिव्य तेज से शोभायमान था। देवी सती को देखकर प्रजापति दक्ष को उनके विवाह की चिंता होने लगी। तब पिता के मन की बात जानकर देवी सती ने महादेव को पति रूप में पाने की इच्छा अपनी माता को बताई। उन्होंने अपनी माता से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने की आज्ञा मांगी। उनकी माता ने आज्ञा देकर घर पर ही उनकी आराधना आरंभ करा दी।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
आश्विन मास में नंदा अर्थात प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियों में उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान शिव का पूजन कर उन्हें गुड़, भात और नमक का भोग लगाया व नमस्कार किया। इसी प्रकार एक मास बीत गया। कार्तिक मास की चतुर्दशी को देवी सती ने मालपुओं और खीर से भगवान शिव को भोग लगाया और उनका निरंतर चिंतन करती रहीं। मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वे तिल, जौ और चावल से शिवजी की आराधना करतीं और घी का दीपक जलातीं। पौष माह की शुक्ल पक्ष सप्तमी को पूरी रात जागरण कर सुबह खिचड़ी का भोग लगातीं। माघ की पूर्णिमा की रातभर वे शिव आराधना में लीन रहतीं और सुबह नदी में स्नान कर गीले वस्त्रों में ही पुनः पूजा करने बैठ जाती थीं। फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को जागरण कर शिवजी की विशेष पूजा करती थीं। उनका सारा समय शिवजी को समर्पित था। वे अपने दिन-रात शिवजी के स्मरण में ही बिताती थीं। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे ढाक के फूलों और दवनों से भगवान की पूजा करती थीं। वैशाख माह में वे सिर्फ तिलों को खाती थीं। वे नए जौ के भात से शिव पूजन करती थीं। ज्येष्ठ माह में वे भूखी रहतीं और वस्त्रों तथा भटकटैया के फूलों से शिव पूजन करती थीं। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे काले वस्त्रों और भटकटैया से रुद्रदेव का पूजन करती थीं। श्रावण मास में यज्ञोपवीत, वस्त्रों तथा कुश आदि से वे पूजन करती थीं। भाद्रपद मास में विभिन्न फूलों व फलों से वे शिव को प्रसन्न करने की कोशिश करतीं। वे सिर्फ जल ही ग्रहण करती थीं। देवी सती हर समय भगवान शिव की आराधना में ही लीन रहती थीं। इस प्रकार उन्होंने दृढ़तापूर्वक नंदा व्रत को पूरा किया। व्रत पूरा करने के पश्चात वे शिवजी का ध्यान करने लगीं। वे निश्चित आसन में स्थित हो निरंतर शिव आराधना करती रहीं।
हे नारद ! देवी सती की इस अनन्य भक्ति और तपस्या को अपनी आंखों से देखने मैं, विष्णु तथा अन्य सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि वहां गए। वहां सभी ने देवी सती को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और उनके सामने मस्तक झुकाए। सभी देवी-देवताओं ने उनकी तपस्या को सराहा। तब सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि मेरे (ब्रह्मा) और विष्णु सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां भगवान शिव ध्यानमग्न थे। हमने उनके निकट जाकर, दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति आरंभ कर दी। हमने कहा-
प्रभो! आप परम शक्तिशाली हैं। आप ही सत्व, रज और तप आदि शक्तियों के स्वामी हैं। वेदत्रयी, लोकत्रयी आपका स्वरूप है। आप अपनी शरण में आए भक्तों की सदैव रक्षा करते हैं। आप सदैव भक्तों का उद्धार करते हैं। हे महादेव! हे महेश्वर ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपकी महिमा जान पाना कठिन ही नहीं असंभव है। हम आपके सामने अपना मस्तक झुकाते हैं।
ब्रह्माजी बोले- नारद ! इस प्रकार भगवान शिव-शंकर की स्तुति करके सभी देवता मस्तक झुकाकर शिवजी के सामने चुपचाप खड़ हो गए।
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सोलहवां अध्याय
रुद्रदेव का सती से विवाह
ब्रह्माजी बोले- श्रीविष्णु सहित अनेक देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों द्वारा की गई स्तुति सुनकर सृष्टिकर्ता शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक हम सबके आगमन का कारण पूछा।
रुद्रदेव बोले- हे हरे! हे देवताओ और महर्षियो। मुझे अपने कैलाश पर आगमन के विषय में बताइए। आप लोग यहां किसलिए आए हैं? और आपको कौन-सा कार्य है? कृपया मुझे बताइए। मुने ! महादेव जी के इस प्रकार पूछने पर भगवान विष्णु की आज्ञा से मैंने इस प्रकार निवेदन किया।
मैं बोला- हे देवाधिदेव महादेव ! करुणासागर! हम सब यहां आपकी सहायता मांगने के लिए आए हैं। भगवन्, हम तीन होते हुए भी एक हैं। सृष्टि के चक्र को नियमित तथा सुचारु रूप से चलाने के लिए हम एक-दूसरे के सहयोगी की तरह कार्य करते हैं। हम एक-दूसरे के सहायक हैं। हम तीनों के परस्पर सहयोग के फलस्वरूप ही जगत के सभी कार्य संपन्न होते हैं। महेश्वर ! कुछ असुरों का वध आपके द्वारा, कुछ असुरों का वध मेरे द्वारा तथा कुछ असुरों का वध श्रीहरि द्वारा निश्चित है। हे प्रभो! कुछ असुर आपके वीर्य द्वारा उत्पन्न पुत्र के द्वारा नष्ट होंगे। हे भगवन्! आप घोर असुरों का विनाश कर जगत को स्वास्थ्य व अभय प्रदान करते हैं। हे प्रभो! सृष्टि की रचना, पालन और संहार ये तीनों ही हमारे कार्य हैं। यदि हम अपने कार्य सही तरह से नहीं करें तो हमारे अलग-अलग शरीर धारण करने का कोई उद्देश्य ही नहीं रहेगा। हे देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। वास्तव में शिव स्वतंत्र हैं। वे लीला के उद्देश्य से सृष्टि का कार्य करते हैं। भगवान विष्णु उनके बाएं अंग से प्रकट हुए हैं। मैं (ब्रह्मा) उनके दाएं अंग से प्रकट हुआ हूं। रुद्रदेव उनके हृदय से प्रकट हुए हैं। इसलिए वे ही भगवान शिव का पूर्ण रूप हैं। उनकी आज्ञा के अनुसार मैं सृष्टि की रचना और विष्णुजी जगत का पालन करते हैं। हम अपना कार्य करते हुए विवाह कर सपत्नीक हो गए हैं। अतः आप भी विश्व हित के लिए परम सुंदरी को पत्नी के रूप में ग्रहण करें। हे महेश्वर ! पूर्वकाल में आपने शिवरूप में हमें एक बात कही थी।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
आपने कहा था-मेरा एक अवतार तुम्हारे ललाट से होगा, जिसे ‘रुद्र’ नाम से जाना जाएगा। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता होओगे, भगवान विष्णु जगत का पालन करेंगे। मैं (शिव) सगुण रुद्ररूप संहार करने वाला होऊंगा। एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के कार्यों की सिद्धि करूंगा। हे महादेव! अब अपनी कही बात को पूरा कीजिए।
हे प्रभु! आपके बिना हम दोनों अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं। अतः प्रभु! आप ऐसी स्त्री को पत्नी रूप में धारण करें, जो कि लोकहित के कार्य कर सके। भगवन् जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु की और सरस्वती मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप भी अपने जीवनसाथीको स्वीकार कीजिए।
मेरी यह बात सुनकर महादेव जी मुस्कराने लगे और हमसे इस प्रकार बोले, उन्होंने कहा – हे ब्रह्मा ! हे विष्णु ! तुम मुझे सदा से अत्यंत प्रिय हो। तुम समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा त्रिलोक के स्वामी हो। परंतु मेरे लिए विवाह करना उचित नहीं है। मैं सदैव तपस्या में लीन रहता हूं। इस संसार से मैं सदा विरक्त रहता हूं। मैं तो एक योगी हूं, जो सदैव निवृत्ति के मार्ग पर चलता है। घर-गृहस्थी से भला मेरा क्या काम? मैं तो सदैव आत्मरूप हूं। जो माया से दूर है, जिसका शरीर अवधूत है। जो ज्ञानी, आत्मा को जानने वाला और कामना से शून्य हो, भोगों से दूर रहता है, जो अविकारी है, भला उसे संसार में स्त्री से क्या प्रयोजन है? मैं तो योग करते समय ही आनंद का अनुभव करता हूं। जो मनुष्य ज्ञान से रहित हैं, वे ही भोग को अधिक महत्व देते हैं। विवाह एक बहुत बड़ा बंधन है। इसलिए मैं विवाह के बंधनों में बंधना नहीं चाहता। आत्मा का चिंतन करने के कारण मेरी लौकिक स्वार्थ में कोई रुचि नहीं है। फिर भी जगत के हित के लिए तुमने जो कहा है वह मैं करूंगा। तुम्हारे कहे अनुसार मैं विवाह अवश्य ही करूंगा, क्योंकि मैं सदा अपने भक्तों के वश में रहता हूं। परंतु मैं ऐसी स्त्री से विवाह करूंगा जो योगिनी तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाली हो। जब मैं योग साधना करूं तो वह भी योगिनी हो जाए और जब मैं कामासक्त होऊं तब वह कामिनी बन जाए। ऐसी स्त्री ही मुझे पत्नी रूप में स्वीकार्य होगी। मैं सदैव शिव चिंतन में लगा रहता हूं। जो स्त्री मेरे चिंतन में विघ्न डालेगी, वह जीवित नहीं रह सकेगी। मैं, विष्णु और ब्रह्मा हम सभी शिव के अंश हैं। इसलिए हम सदा ही उनका चिंतन करते हैं। उनके चिंतन के लिए मैं बिना विवाह किए रह सकता हूं। अतः मुझे ऐसी पत्नी प्रदान कीजिए जो मेरे अनुसार ही कार्य करे। यदि वह स्त्री मेरे कार्यों में विघ्न डालेगी तो मैं उसे त्याग दूंगा।
विवाह हेतु शिव की स्वीकृति पाकर मैं और विष्णुजी प्रसन्न हो गए। फिर मैं विनम्रतापूर्वक भगवान शिव से बोला- हे नाथ! महेश्वर ! प्रभो! आपको जिस प्रकार की स्त्री की आवश्यकता है, ऐसी ही स्त्री के विषय में सुनो।
हे प्रभु! भगवान शिव की पत्नी उमा ही विभिन्न अवतार धारण करके पृथ्वी पर प्रकट होती हैं और सृष्टि के विभिन्न कार्यों को पूरा करने में अपना सहयोग प्रदान करती हैं। उन्हीं देवी उमा ने लक्ष्मी रूप धारण कर श्रीहरि को वरा। सरस्वती रूप में वे मेरी अर्द्धांगिनी बनीं। अब वही देवी लोकहित के लिए अपने तीसरे अवतार में अवतरित हुई हैं। उमा देवी प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में अवतार लेकर आपको पति रूप में पाने की इच्छा लिए घोर तपस्या कर रही हैं। उनका नाम देवी सती है। सती ही आपकी भार्या होने के योग्य हैं। वे महा तेजस्विनी ही आपको पति रूप में प्राप्त करेंगी।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
हे भगवन्! आप उनकी कठोर तपस्या को पूर्ण करके उन्हें फलस्वरूप वरदान प्रदान करिए। उनका तपस्या का प्रयोजन आपको पति रूप में प्राप्त करना ही है। अतः प्रभु आप देवी सती की मनोकामना को पूरा कीजिए। हम सभी देवी-देवताओं की यही इच्छा है। हम आपके विवाह का उत्सव देखना चाहते हैं। आपका विवाह तीनों लोकों को सुख प्रदान करेगा तथा सभी के लिए मंगलमय होगा।
तब भगवान शिव बोले- आप सबकी आज्ञा मेरे लिए सबसे ऊपर है क्योंकि मैं सदैव अपने भक्तों के अधीन हूं। आपकी इच्छानुसार मैं देवी सती द्वारा तपस्या पूरी कर उनसे विवाह अवश्य करूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर हम सभी बहुत प्रसन्न हुए और उनसे आज्ञा लेकर अपने-अपने धाम को चले गए।
यहां एक क्लिक में पढ़ें- “शिव महिम्न: स्तोत्रम्”
सत्रहवां अध्याय
सती को शिव से वर की प्राप्ति
ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद ! सती ने आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उपवास किया। नंदाव्रत के पूर्ण होने पर जब वे भगवान शिव के ध्यान में मग्न थीं तो भगवान शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए। भगवान शिव का रूप अत्यंत मनोहारी था। उनके पांच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन नेत्र थे। मस्तक पर चंद्रमा शोभित था। उनके कण्ठ में नील चिन्ह था। उनके हाथ में त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय था। उन्होंने पूरे शरीर पर भस्म लगा रखी थी। गंगा जी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थीं। उनका मुख करोड़ों चंद्रमाओं के समान प्रकाशमान था। सती ने उन्हें प्रत्यक्ष रूप में अपने सामने पाकर उनके चरणों की वंदना की। उस समय लज्जा और शर्म के कारण उनका सिर नीचे की ओर झुका हुआ था। तपस्या का फल प्रदान करने के लिए शिवजी बोले- उत्तम व्रत का पालन करने वाली हे दक्ष नंदिनी! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए तुम्हारी मनोकामना को पूरा करने के लिए स्वयं यहां प्रकट हुआ हूं। अतः तुम्हारे मन में जो भी इच्छा है, तुम्हारी जो भी कामना है, जिसके वशीभूत होकर तुमने इतनी घोर तपस्या की है, वह मुझे बताओ, मैं उसे अवश्य ही पूर्ण करूंगा।
ब्रह्माजी कहते हैं- हे मुनि ! जगदीश्वर महादेव जी ने सती के मनोभाव को समझ लिया था। फिर भी वे सती से बोले कि देवी वर मांगो। देवी सती शर्म से सिर झुकाए थीं। वे चाहकर भी कुछ नहीं कह पा रही थीं। भगवान शिव के वचन सुनकर सती प्रेम में मग्न हो गई थीं। शिवजी बार-बार सती से वर मांगने के लिए कह रहे थे। तब देवी सती ने महादेव जी से कहा – हे वर देने वाले प्रभु! मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ही वर दीजिए। इतना कहकर देवी चुप हो गईं। जब भगवान शिव ने देखा कि देवी सती लज्जावश कुछ कह नहीं पा रही हैं तो वे स्वयं उनसे बोले- हे देवी! तुम मेरी अर्द्धांगिनी बनो। यह सुनकर सती अत्यंत प्रसन्न हुईं, क्योंकि उन्हें अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हुई थी। वे अपने हाथ जोड़कर और मस्तक को झुकाकर भक्तवत्सल शिव के चरणों की वंदना करने लगीं। सती बोलीं- हे देवाधिदेव महादेव ! प्रभो! आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण करें।
ब्रह्माजी बोले- नारद ! सती की बात सुनकर शिवजी ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि ऐसा ही होगा।’ तब देवी सती ने भगवान शिव को हर्ष एवं मोह से देखा और उनसे आज्ञा लेकर अपने पिता के घर चली गईं। भगवान शिव कैलाश पर लौट गए और देवी सती का स्मरण करते हुए उन्होंने मेरा चिंतन किया। शिवजी के स्मरण करने पर मैं तुरंत कैलाश की ओर चल दिया। मुझे देखकर भगवान शिव बोले-
ब्रह्मन् ! दक्षकन्या सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है। उनके नंदाव्रत के प्रभाव से और आप सब देवताओं की इच्छाओं का सम्मान करते हुए मैंने देवी सती को उनका मनोवांछित वर प्रदान कर दिया है। देवी ने मुझसे यह वर मांगा कि मैं उनका पति हो जाऊं। उनके वर के अनुसार मैंने सती को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करने का वर दे दिया है। वर प्राप्त कर वे बड़ी प्रसन्न हुईं तथा उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उनके पिता प्रजापति दक्ष के समक्ष देवी सती से विवाह करने का प्रस्ताव रखूं और पाणिग्रहण कर उनका वरण करूं। उनके विनम्र अनुरोध को मैंने स्वीकार कर लिया है। इसलिए मैंने आपको यहां बुलाया है कि आप प्रजापति दक्ष के घर जाकर उनसे देवी सती का कन्यादान मुझसे करने का अनुरोध करें।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
भगवान शिव की आज्ञा से मैं बहुत प्रसन्न हुआ और मैंने उनसे कहा- भगवन्, मैं धन्य हो गया जो आपने हम सभी देवी-देवताओं के अनुरोध को स्वीकार कर देवी सती को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार करने और इस कार्य को पूरा करने के लिए ए मुझे चुना। मैं आपकी आज्ञानुसार अभी प्रजापति दक्ष के घर जाता हूं तथा उन्हें आपका संदेश सुनाकर देवी सती का हाथ आपके लिए मांगता हूं। यह कहकर मैं वेगशाली रथ से दक्ष के घर की ओर चल दिया।
नारद जी ने पूछा- हे पितामह! पहले आप मुझे यह बताइए कि देवी सती के घर लौटने पर क्या हुआ? दक्ष ने उनसे क्या कहा और क्या किया?
ब्रह्माजी नारद जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले- जब देवी सती तपस्या पूर्ण होने पर अपनी इच्छा के अनुरूप भगवान शिव से वर पाकर अपने घर लौटीं तो उन्होंने श्रद्धापूर्वक अपने माता-पिता को प्रणाम किया। उन्होंने अपनी सहेली द्वारा अपने माता-पिता को यह सूचना दी कि उन्हें भगवान शिव से वरदान की प्राप्ति हो गई है। वे सती की तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए हैं और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं। यह सुनकर प्रजापति दक्ष और उनकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने आनंदित होकर बड़े उत्सव का आयोजन किया। उन्होंने ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें दक्षिणा दी। उन्होंने गरीबों और दीनों को दान दिया।
कुछ समय बीतने पर प्रजापति दक्ष को पुनः चिंता होने लगी कि वे अपनी पुत्री का विवाह भगवान शिव से कैसे करें? क्योंकि वे अब तक मेरे पास सती का हाथ मांगने नहीं आए हैं।
इस प्रकार प्रजापति दक्ष चिंतामग्न हो गए। लेकिन उन्हें ऐसी चिंता ज्यादा दिनों तक नहीं करनी पड़ी। शिव तो कृपा के सागर और करुणा की खान हैं, तब वह कैसे चिंतित रह सकता है, जिसकी पुत्री ने तप द्वारा शिव का वरण किया है।
जब मैं सरस्वती सहित उनके घर उपस्थित हो गया, तब मुझे देखकर उन्होंने मुझे प्रणाम किया और बैठने के लिए आसन दिया। तत्पश्चात दक्ष ने मेरे आने का कारण पूछा तो मैंने अपने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा-
हे प्रजापति दक्ष! मैं भगवान शिव की आज्ञा से आपके घर आया हूं। मैं देवी सती का हाथ महादेव जी के लिए मांगने आया हूं। सती ने उत्तम आराधना करके भगवान शिव को प्रसन्न कर उन्हें अपने पति के रूप में प्राप्त करने का वर प्राप्त किया है। अतः तुम शीघ्र ही सती का पाणिग्रहण शिवजी के साथ कर दो।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
नारद ! मेरी यह बातें सुनकर दक्ष बहुत प्रसन्न हुआ। उसने हर्षित मन से इस विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। तब मैं प्रसन्न मन से कैलाश पर्वत पर चल दिया। वहां भगवान शिव मेरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर प्रजापति दक्ष, उनकी पत्नी और पुत्री सती विवाह प्रस्ताव आने पर हर्ष से विभोर हो रहे थे।
अठारहवां अध्याय
शिव और सती का विवाह
ब्रह्माजी बोले- नारद ! जब मैं कैलाश पर्वत पर भगवान शिव को प्रजापति दक्ष की स्वीकृति की सूचना देने पहुंचा तो वे उत्सुकतापूर्वक मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। तब मैंने महादेव जी से कहा-
हे भगवन् ! दक्ष ने कहा है कि वे अपनी पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से करने को तैयार हैं क्योंकि सती का जन्म महादेव जी के लिए ही हुआ है। यह विवाह होने पर उन्हें सबसे अधिक प्रसन्नता होगी। उनकी पुत्री सती ने महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करने हेतु ही उनकी घोर तपस्या की है। उन्हें इस बात की भी खुशी है कि मैं स्वयं आपकी आज्ञा से उनकी पुत्री के लिए आपका अर्थात भगवान शिव का विवाह प्रस्ताव लेकर वहां गया। उन्होंने कहा-
हे पितामह ! उनसे कहिए कि वे शुभ लग्न और मुहूर्त में अपनी बारात लेकर स्वयं आएं। मैं अपनी पुत्री का कन्यादान सहर्ष महादेव जी को कर दूंगा। हे भगवन् ! दक्ष ने मुझसे यह बात कही है, इसलिए आप शुभ मुहूर्त देखकर शीघ्र ही उनके घर चलें और देवी सती का वरण करें। हे नारद ! मेरे ऐसे वचन सुनकर शिवजी ने कहा-
हे संसार की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी! मैं तुम्हारे और नारद जी के साथ ही प्रजापति दक्ष के घर चलूंगा। इसलिए ब्रह्माजी आप नारद और अपने मानस पुत्रों का स्मरण कर उन्हें यहां बुला लें। साथ ही मेरे पार्षद भी दक्ष के घर चलेंगे।
नारद ! तब भगवान शिव की आज्ञा पाकर मैंने तुम्हारा और अपने अन्य मानस पुत्रों का स्मरण किया। उन तक मेरा संदेश पहुंचते ही वे तुरंत कैलाश पर्वत पर उपस्थित हो गए। उन्होंने हर्षित मन से महादेव जी को और मुझे प्रणाम किया। तत्पश्चात शिवजी ने भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ अपने विमान गरुड़ पर बैठ वहां आ गए। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में रविवार को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की बारात धूमधाम से कैलाश पर्वत से निकली। उनकी बारात में मैं, देवी सरस्वती, विष्णुजी, देवी लक्ष्मी, सभी देवी-देवता, मुनि और शिवगण आनंदमग्न होकर चल रहे थे। रास्ते में खूब उत्सव हो रहा था। भगवान शिव की इच्छा से बैल, बाघ, सांप, जटा और चंद्रकला उनके आभूषण बन गए। भगवन् स्वयं नंदी पर सवार होकर प्रजापति दक्ष के घर पहुंचे।
द्वार पर भगवान शिव की बारात देखकर सभी हर्ष से फूले नहीं समा रहे थे। प्रजापति दक्ष ने विधिपूर्वक भगवान शिव की पूजा अर्चना की। उन्होंने सभी देवताओं का खूब आदर- सत्कार किया तथा उन्हें घर के अंदर ले गए। दक्ष ने भगवान शिव को उत्तम आसन पर बैठाया और हम सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी यथायोग्य स्थान दिया। सभी का भक्तिपूर्वक पूजन किया। तत्पश्चात दक्ष ने मुझसे प्रार्थना की कि मैं ही वैवाहिक कार्य को संपन्न कराऊं। मैंने दक्ष की प्रार्थना को स्वीकार किया और वैवाहिक कार्य कराने लगा। शुभ लग्न और शुभ मुहूर्त देखकर प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती का हाथ भगवान शिव के हाथों में सौंप दिया और विधि-विधान से पाणिग्रहण-संस्कार संपन्न कराया। उस समय वहां बहुत बड़ा उत्सव हुआ और नाच-गाना भी हुआ। सभी आनंदमग्न थे। हम सभी देवी- देवताओं ने भगवान शिव और देवी सती की बहुत स्तुति की और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। भगवान शिव और सती का विवाह हो जाने पर उनके माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए और महादेव जी को अपनी कन्या का दान कर प्रजापति दक्ष कृतार्थ हो गए। महेश्वर का विवाह होने का पूरा संसार मंगल उत्सव मनाने लगा।
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उन्नीसवां अध्याय
ब्रह्मा और विष्णु द्वारा शिव की स्तुति करना
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! कन्यादान करके दक्ष ने भगवान शिव को अनेक उपहार प्रदान किए। उन्होंने सभी ब्राह्मणों को भी दान-दक्षिणा दी। तत्पश्चात भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी जी सहित भगवान शिव के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो उनकी आराधना करने लगे। वे बोले- हे दयासागर महादेव जी! आप संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी सती सबकी माता हैं। भगवन आप दोनों ही अपने भक्तों की रक्षा के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए अनेक अवतार धारण करते हैं। इस प्रकार उन्होंने शिव-सती की बहुत स्तुति की।
नारद ! मैं उनके पास आकर विधि के अनुसार फेरे कराने लगा। ब्राह्मणों की आज्ञा और मेरे सहयोग से सती और भगवान शिव ने विधिपूर्वक अग्नि के फेरे लिए। उस समय वहां बहुत अद्भुत उत्सव किया जा रहा था। वहां विभिन्न प्रकार के बाजे और शहनाइयां बज रहीं थी। स्त्रियां मंगल गीत गा रही थीं और खुशी से सभी नृत्य कर रहे थे।
तत्पश्चात भगवान विष्णु बोले- सदाशिव ! आप संपूर्ण प्रकृति के रचयिता हैं। आपका स्वरूप ज्योतिर्मय है। ब्रह्माजी, मैं और रुद्रदेव आपके ही रूप हैं। हम सभी सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। हे प्रभु! हम सब आपका ही अंश हैं। प्रभु! आप आकाश के समान सर्वव्यापी और ज्योतिर्मय हैं। जिस प्रकार हाथ, कान, नाक, मुंह, सिर आदि शरीर के विभिन्न रूप हैं। उसी प्रकार हम सब भी आपके शरीर के ही अंग हैं। आप निर्गुण निराकार हैं। समस्त दिशाएं आपकी मंगल कथा कहती हैं। सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि आपके ही चरणों की वंदना करते हैं। आपकी महिमा का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। भगवन, यदि हम सबसे कुछ गलती हो गई हो तो कृपया उसे क्षमा करें और प्रसन्न हों।
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार श्रीहरि ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। उनकी स्तुति सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। विवाह की सभी रीतियों के पूर्ण होने पर हम सभी ने महादेव जी एवं देवी सती को बधाइयां दीं तथा उनसे प्रार्थना की कि वे अपनी कृपादृष्टि सदैव सभी पर बनाए रखें। वे जगत का कल्याण करें। तत्पश्चात भगवान शिव ने मुझसे कहा- हे ब्रह्मान् ! आपने मेरा वैवाहिक कार्य संपन्न कराया है। अतः आप ही मेरे आचार्य हैं। आचार्य को कार्यसिद्धि के लिए दक्षिणा अवश्य दी जाती है। इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं दक्षिणा में आपको क्या दूं? महाभाग ! आप जो भी मांगेंगे मैं उसे अवश्य ही दूंगा।
मुने ! भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर मैं हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया। मैंने उन्हें प्रणाम करके कहा- हे देवेश! यदि आप मुझे अपना आचार्य मानकर कोई वर देना चाहते हैं तो मैं आपसे यह वर मांगता हूं कि आप सदा इसी रूप में इसी वेदी पर विराजमान रहकर अपने भक्तों को दर्शन दें। इस स्थान पर आपके दर्शन करने से सभी पापियों के पाप धुल जाएं। आपके यहां विराजमान होने से मुझे आपका साथ प्राप्त हो जाएगा। मैं इसी वेदी के पास आश्रम बनाकर यहां निवास करूंगा और तपस्या करूंगा। हे प्रभु! मेरी यही इच्छा है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में रविवार के दिन जो भी मनुष्य भक्तिभाव से आपका दर्शन करे उसके सभी पाप नष्ट हो जाएं। रोगी मनुष्य के सभी रोग दूर हो जाएं। इस दिन आपका दर्शन कर मनुष्य जिस इच्छा को आपके सामने व्यक्त करे उसे आप तुरंत पूरा करें। हे प्रभु! आप इस दिन सभी को मनोवांछित वर प्रदान करें। भगवन् यही वरदान मैं आपसे मांगता हूं।
मेरी यह बात सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। वे बोले- हे ब्रह्मा ! मैं आपकी इच्छा अवश्य ही पूरी करूंगा। तुम्हारे वर के अनुसार मैं देवी सती सहित इस वेदी पर विराजमान रहूंगा। यह कहकर भगवान शिव देवी सती के साथ मूर्ति रूप में प्रकट होकर वेदी के मध्य भाग में विराजमान हो गए। इस प्रकार मेरी इच्छा को पूरा कर जगत के हित के लिए प्रभु शिव वेदी पर अंशरूप में विराजमान हुए।
बीसवां अध्याय
शिव-सती का विदा होकट कैलाश जाना
ब्रह्माजी बोले- हे महामुनि नारद ! मुझे मेरा मनोवांछित वरदान देने के पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी देवी सती को साथ लेकर अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाने के लिए तैयार हुए। तब अपनी बेटी सती व दामाद भगवान शिव को विदा करते समय प्रजापति दक्ष ने अपने हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर महादेव जी की भक्तिपूर्वक स्तुति की। साथ ही श्रीहरि सहित सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों ने हर्ष से प्रभु का जय-जयकार किया। भगवान शिव ने अपने ससुर प्रजापति दक्ष से आज्ञा लेकर अपनी पत्नी को अपनी सवारी नंदी पर बैठाया और स्वयं भी उस पर बैठकर कैलाश पर्वत की ओर चले गए। उस समय वृषभ पर बैठे भगवान शिव व सती की शोभा देखते ही बनती थी। उनका रूप मनोहारी था। सब मंत्रमुग्ध होकर उन दोनों को जाते हुए देख रहे थे। प्रजापति दक्ष और उनकी पत्नी अपनी बेटी व दामाद के अनोखे रूप पर मोहित हो उन्हें एकटक देख रहे थे। उनकी विदाई पर चारों ओर मंगल गीत गाए जा रहे थे। विभिन्न वाद्य यंत्र बज रहे थे। सभी बाराती शिव के कल्याणमय उज्ज्वल यश का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चलने लगे। भगवान शिव देवी सती के साथ अपने निवास कैलाश पर पहुंचे। सभी देवता सहित मैं और विष्णुजी भी कैलाश पर्वत पर पहुंचे। भगवान शिव ने उपस्थित सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों का हृदय से धन्यवाद किया। भगवान शिव ने सभी को सम्मानपूर्वक विदा किया। तब सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की और प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम को चले गए। तत्पश्चात भगवान शिव और देवी सती सुखपूर्वक अपने वैवाहिक जीवन का आनंद उठाने लगे।(Rudra Samhita Khand-2 Chapter 11 to 20)
सूत जी कहते हैं- हे मुनियो! मैंने तुम्हें भगवान शिव के शुभ विवाह की पुण्य कथा सुनाई है। भगवान शिव का विवाह कब और किससे हुआ? वे विवाह के लिए कैसे तैयार हुए? इस प्रकार मैंने सभी प्रसंगों का वर्णन तुमसे किया है। विवाह के समय, यज्ञ अथवा किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में भगवान शिव का पूजन करने के पश्चात इस कथा को जो सुनता अथवा पढ़ता है उसका कार्य या वैवाहिक आयोजन बिना विघ्न और बाधाओं के पूरा होता है। इस कथा के श्रवण से सभी शुभकार्य निर्विघ्न पूर्ण होते हैं। इस अमृतमयी कथा को सुनकर जिस कन्या का विवाह होता है वह सुख, सौभाग्य, सुशीलता और सदाचार आदि सद्गुणों से युक्त हो जाती है। भगवान शिव की कृपा से पुत्रवती भी होती है।