Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10
।। ॐ नमः शिवाय ।।
श्रीरुद्र संहिता प्रथम खण्ड | Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10
प्रथम खण्ड अध्याय 1 से अध्याय 10
श्रीरुद्र संहिता प्रथम खंड अध्याय 1 से अध्याय 10 (Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10) में भगवान शिव और माँ पार्वती के दिव्य स्वरूपों का वर्णन किया गया है। प्रथम अध्याय में ऋषिगणों की वार्ता, दूसरे अध्याय में नारद जी की काम वासना की कथा, तीसरे अध्याय में नारद जी का भगवान विष्णु से उनका रूप मांगना, चौथे अध्याय में नारद जी का भगवान विष्णु को शाप देना पांचवे अध्याय में नारद जी का शिवतीर्थों में भ्रमण व ब्रह्माजी से प्रश्नो का वर्णन, छठे अध्याय में ब्रह्माजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन, सातवें अध्याय में विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णु के मध्य अग्नि-स्तंभ का प्रकट होना का वर्णन, आठवें अध्याय में ब्रह्मा-विष्णु को भगवान शिव के दर्शन होने का वर्णन, नौवें अध्याय में देवी उमा एवं भगवान शिव का प्राकट्य एवं उपदेश देना और दसवें अध्याय में श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं त्रिदेव को आयुर्बल देना का वर्णन किया गया है।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
सम्पूर्ण शिव महापुराण हिंदी में
पहला अध्याय
ऋषिगणों की वार्ता
जो विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि के एकमात्र कारण हैं, गिरिराजकुमारी उमा के पति हैं, जिनकी कीर्ति का कहीं अंत नहीं है, जो माया के आश्रय होकर भी उससे दूर हैं तथा जिनका स्वरूप दुर्लभ है, मैं उन भगवान शंकर की वंदना करता हूं। जिनकी माया विश्व की सृष्टि करती है। जैसे लोहा चुंबक से आकर्षित होकर उसके पास ही लटका रहता है, उसी प्रकार ये सारे जगत जिसके आसपास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने इन प्रपंचों को रचने की विधि बताई है, जो सभी के भीतर अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं, मैं उन भगवान शिव को नमन करता हूं।
ऋषि बोले- हे सूत जी! अब आप हमसे भगवान शिव व पार्वती के परम उत्तम व दिव्य स्वरूप का वर्णन कीजिए। सृष्टि की रचना से पूर्व, सृष्टि के मध्यकाल व अंतकाल में महेश्वर किस प्रकार व किस रूप में स्थित होते हैं? सभी लोकों का कल्याण करने वाले भगवान शिव कैसे प्रसन्न होते हैं? तथा प्रसन्न होने पर अपने भक्तों को कौन-कौन से उत्तम फल देते हैं? हमने सुना है कि भगवान शिव महान दयालु हैं। अपने भक्तों को कष्ट में नहीं देख सकते। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवता शिवजी के अंग से ही उत्पन्न हुए हैं। हम पर कृपा कर शिवजी के प्राकट्य, देवी उमा की उत्पत्ति, शिव-उमा विवाह, गृहस्थ धर्म एवं शिवजी के अनंत चरित्रों को सुनाइए।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
सूत जी बोले- हे ऋषियो ! आप लोगों के प्रश्न पतित-पावनी श्री गंगाजी के समान हैं। ये सुनने वालों, कहने वालों और पूछने वालों इन तीनों को पवित्र करने वाले हैं। आपकी इस कथा को सुनने की आंतरिक इच्छा है, इसलिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। ब्राह्मणो ! भगवान शंकर का रूप साधु, राजसी और तामसी तीनों प्रकृति के मनुष्यों को सदा आनंद प्रदान करने वाला है। वे मनुष्य, जिनके मन में कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे-ऐसे महात्मा पुरुष भगवान शिव के गुणों का ज्ञान करते हैं क्योंकि शिव की भक्ति मन और कानों को प्रिय लगने वाली और संपूर्ण मनोरथों को देने वाली है। हे ऋषियो! मैं आपके प्रश्नों के अनुसार ही शिव के चरित्रों का वर्णन करता हूं, आप उसे आदरपूर्वक श्रवण करें। आपके प्रश्नों के अनुसार ही नारद जी ने अपने पिता ब्रह्माजी से यही प्रश्न किया था, तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर शिव चरित्र सुनाया था। उसी संवाद को मैं तुम्हें सुनाता हूं क्योंकि उस संवाद में भवसागर से मुक्त कराने वाले गौरीश की अनेकों आश्चर्यमयी लीलाएं वर्णित हैं।
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दूसरा अध्याय
नारद जी की काम वासना
सूत जी बोले- हे ऋषियो ! एक समय की बात है। ब्रह्मा पुत्र नारद जी हिमालय पर्वत की एक गुफा में बहुत दिनों से तपस्या कर रहे थे। उन्होंने दृढ़तापूर्वक समाधि लगाई थी और तप करने लगे थे। उनके उग्र तप का समाचार पाकर देवराज इंद्र कांप उठे। उन्होंने सोचा कि नारद मुनि मेरे स्वर्गलोक के राज्य को छीनना चाहते हैं। यह खयाल आते ही इंद्र ने उनकी तपस्या में विघ्न डालने की कोशिश की। उन्होंने कामदेव को बुलाया और कहने लगे – हे कामदेव! तुम मेरे परम मित्र एवं हितैषी हो। नारद हिमाचल पर्वत की गुफा में बैठकर तपस्या कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि वह वरदान में ब्रह्माजी से मेरा स्वर्ग का राज्य ही मांग बैठे। अतः तुम वहां जाकर उसका तप भंग कर दो। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसंत को साथ ले बड़े गर्व से उस स्थान पर गए और अपनी सारी कलाएं रच डालीं। कामदेव और वसंत के बहुत प्रयत्न करने पर भी नारद मुनि के मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। महादेव जी के अनुग्रह से उन दोनों का गर्व चूर्ण हो गया।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि महादेव जी की कृपा से नारद मुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। पहले उस आश्रम में भगवान शिव ने भी तपस्या की थी। उसी स्थान पर उन्होंने ऋषि-मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को भस्म कर डाला था। कामदेव को भस्म देखकर उनकी पत्नी रति ने बिलखते हुए भगवान शंकर से उन्हें जीवित करने की प्रार्थना की तथा सभी देवता भी शिवजी से प्रार्थना करने लगे तो भगवान महादेव जी ने कहा था कि कुछ समय पश्चात कामदेव स्वयं जीवित हो जाएंगे। किंतु इस स्थान पर और इसके आस-पास जहां तक भस्म दिखाई देती है, वहां तक की पृथ्वी पर कामदेव की माया और काम बाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार उस स्थान से कामदेव लज्जित होकर वापस लौट आया। देवराज इंद्र ने जब यह सुना कि नारद जी पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उन्होंने नारद जी की खूब प्रशंसा की। भगवान शिव की माया के कारण वे भूल गए थे कि शिवजी के शाप के कारण उस स्थान पर कामदेव की माया नहीं चल सकती। नारद जी भगवान शिव की कृपा से बहुत समय तक तपस्या करते रहे। अपने तप को पूर्णं हुआ समझकर नारद जी उठे तो उन्हें कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ध्यान आया। तब उन्हें मन ही मन इस बात का घमंड हुआ कि उन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है। इस प्रकार अभिमान से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। वे यह समझ नहीं सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान शंकर की ही माया थी। तब वे अपनी काम विजय की कथा सुनाने के लिए शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे और भगवान शिव को नमस्कार करके अपनी तपस्या की सफलता का समाचार तथा कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समाचार कह सुनाया।
यह सब सुनकर महादेव जी ने नारद की प्रशंसा करते हुए कहा- हे नारद जी! आप परम धन्य हैं परंतु मेरी एक बात याद रखना कि यह समाचार किसी अन्य देवता को मत सुनाना, विशेषकर भगवान विष्णु से तो इस बात को कदापि न कहना। यह वृत्तांत सबसे छिपाकर रखने योग्य है। तुम मेरे प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूं कि यह बात किसी के सामने प्रकट मत करना। परंतु वे तो शिव की माया से मोहित हो चुके थे। इसलिए उनकी दी शिक्षा को ध्यान में न रखते हुए वे ब्रह्मलोक चले गए। वहां ब्रह्माजी को नमस्कार कर बोले- मैंने अपने तपोबल से कामदेव को जीत लिया है। यह सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान शिव के चरणों का चिंतन करके सारा कारण जान लिया तथा अपने पुत्र नारद को यह सब किसी और से कहने के लिए मना कर दिया।
नारद के मन में अभिमान के अंकुर उत्पन्न हो गए थे जिसके फलस्वरूप उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। वे तो तुरंत विष्णुलोक पहुंचकर भगवान विष्णु को यह सारा किस्सा सुनाना चाहते थे। अतः शीघ्र ही वे ब्रह्मलोक से चल दिए। नारद मुनि को आते देखकर भगवान विष्णु सिंहासन से उठ खड़े हुए। उन्होंने नारद को गले लगा लिया और आदर सहित आसन पर बैठाया। भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके भगवान विष्णु ने नारद जी से पूछा, नारद जी! आप कहां से आ रहे हैं और इस लोक में आपका शुभागमन किसलिए हुआ है? यह सुनकर नारद जी ने अहंकार सहित अपने तप के पूर्ण होने एवं कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समस्त हाल उन्हें कह सुनाया। भगवान विष्णु काम के विजय के असली कारण को समझ चुके थे। वे नारद जी से बोले – हे नारद जी! आपकी कीर्ति एवं निर्मल बुद्धि धन्य है। काम-क्रोध एवं लोभ-मोह उन मनुष्यों को पीड़ित करते हैं, जो भक्तिहीन हैं। आप तो ज्ञान, वैराग्य से युक्त एवं ब्रह्मचारी हैं, फिर भला यह काम आपका क्या बिगाड़ सकता था?
देवर्षि नारद बोले- हे भगवन्! यह सब आपकी कृपा का ही फल है। आपकी कृपा के आगे कामदेव की क्या सामर्थ्य है जो मेरा कुछ बिगाड़ सके। मैं तो सदा ही निर्भय हूं। इतना कहकर नारद जी विष्णु भगवान को नमस्कार कर वहां से चल दिए।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
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तीसरा अध्याय
नारद जी का भगवान विष्णु से उनका रूप मांगना
सूत जी बोले – महर्षियो ! नारद जी के चले जाने पर शिवजी की इच्छा से विष्णु भगवान ने एक अद्भुत माया रची। उन्होंने जिस ओर नारद जी जा रहे थे, वहां एक सुंदर नगर बना दिया। वह नगर बैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय था। वहां बहुत से विहार-स्थल थे। उस नगर के राजा का नाम ‘शीलनिधि’ था। उस राजा की एक बहुत सुंदर कन्या थी। उन्होंने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिए उत्सुक बहुत से राजकुमार पधारे थे। वहां बहुत चहल-पहल थी। इस नगर की शोभा देखते ही नारद जी का मन मोहित हो गया। जब राजा शीलनिधि ने नारद जी को आते देखा तो उन्हें सादर प्रणाम करके स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर अपनी देव-सुंदरी कन्या को बुलाया जिसने महर्षि के चरणों में प्रणाम किया। नारद जी से उसका परिचय कराते हुए शीलनिधि ने निवेदन किया – महर्षि ! यह मेरी पुत्री ‘श्रीमती’ है। इसके स्वयंवर का आयोजन किया गया है। इस कन्या के गुण दोषों को बताने की कृपा कीजिए।
राजा के ऐसे वचन सुनकर नारद जी बोले- राजन! आपकी कन्या साक्षात लक्ष्मी है। इसका भावी पति भगवान शिव के समान वैभवशाली, त्रिलोकजयी, वीर तथा कामदेव को भी जीतने वाला होगा। ऐसा कहकर नारद मुनि वहां से चल दिए। शिव की माया के कारण वे काम के वशीभूत हो सोचने लगे कि राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूं? स्वयंवर में आए सुंदर एवं वैभवशाली राजाओं को छोड़कर भला यह मेरा वरण कैसे करेगी? वे सोचने लगे कि नारियों को सौंदर्य बहुत प्रिय होता है। सौंदर्य को देखकर ही ‘श्रीमती’ मेरा वरण कर सकती है। ऐसा विचार कर नारद जी फिर विष्णुलोक में जा पहुंचे और उन्हें राजा शीलनिधि की कन्या के स्वयंवर के बारे में बताया तथा उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे अपना रूप उन्हें प्रदान करें ताकि श्रीमती उन्हें ही वरे।
सूत जी कहते हैं- महर्षियो ! नारद मुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े और भगवान शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया।भगवान विष्णु बोले- हे नारद ! वहां आप अवश्य जाइए, मैं आपका हित उसी प्रकार करूंगा, जिस प्रकार पीड़ित व्यक्ति का श्रेष्ठ वैद्य करता है क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो। ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने नारद मुनि को वानर का मुख तथा शेष अंगों को अपना मनोहर रूप प्रदान कर दिया। तब नारद जी अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने को परम सुंदर समझकर शीघ्र ही स्वयंवर में आ गए और उस राज्य सभा में जा बैठे। उस सभा में रुद्रगण ब्राह्मण के रूप में बैठे हुए थे। नारद जी का वानर रूप केवल कन्या और रुद्रगणों को ही दिखाई दे रहा था, बाकी सबको नारद जी का वास्तविक रूप ही दिखाई दे रहा था। नारद जी मन ही मन प्रसन्न होते हुए श्रीमती की प्रतीक्षा कर रहे थे।
हे ऋषियो! वह कन्या हाथ में जयमाला लिए अपनी सखियों के साथ स्वयंवर में आई। उसके हाथों में सोने की सुंदर माला थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी लक्ष्मी के समान अपूर्व शोभा पा रही थी। नारद मुनि का भगवान विष्णु जैसा शरीर और वानर जैसा मुख देख वह कुपित हो गई और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर मनोवांछित वर की तलाश में आगे चली गई। सभा में अपने मनपसंद वर को न पाकर वह उदास हो गई। उसने किसी के भी गले में वरमाला नहीं डाली। तभी भगवान विष्णु राजा की वेशभूषा धारण कर वहां आ पहुंचे। विष्णुजी को देखते ही उस परम सुंदरी ने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णुजी राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अपने लोक को चले गए। यह देखकर नारद जी विचलित हो गए। तब ब्राह्मणों के रूप में उपस्थित रुद्रगणों ने नारद जी से कहा- हे नारद जी! आप व्यर्थ ही काम से मोहित हो सौंदर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हैं। पहले जरा अपना वानर के समान मुख तो देख लीजिए। सूत जी बोले- यह वचन सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने दर्पण में अपना मुंह देखा। वानर के समान मुख को देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो उठे तथा दोनों रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले- तुमने एक ब्राह्मण का मजाक उड़ाया है। अतः तुम ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी राक्षस बन जाओ। यह सुनकर वे शिवगण कुछ नहीं बोले बल्कि इसे भगवान शिव की इच्छा मानते हुए उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गए और भगवान शिव की स्तुति करने लगे।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
चौथा अध्याय
नारद जी का भगवान विष्णु को शाप देना
ऋषि बोले- हे सूत जी! रुद्रगणों के चले जाने पर नारद जी ने क्या किया और वे कहां गए? इस सबके बारे में भी हमें बताइए।
सूत जी बोले- हे ऋषियो! माया से मोहित नारद जी उन दोनों शिवगणों को शाप देकर भी मौहवश कुछ जान न सके। तत्पश्चात क्रोधित होते हुए वे तालाब के पास पहुंचे और वहां जल में पुनः अपनी परछाईं देखी तो उन्हें फिर वानर जैसी आकृति दिखाई दी। उसे देखकर नारद जी को और अधिक क्रोध चढ़ आया। वे सीधे विष्णुलोक की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर भगवान विष्णु से वे बोले – हे हरि! तुम बड़े दुष्ट हो। अपने कपट से विश्व को मोहने वाले तुम दूसरों को सुखी होता नहीं देख सकते। तभी तो तुमने सागर मंथन के समय ‘मोहिनी’ का रूप धारण कर दैत्यों से अमृत का कलश छीन लिया था और उन्हें अमृत की जगह मदिरा पिलाकर पागल बना दिया था। यदि उस समय भगवान शंकर दया करके विष को न पीते तो तुम्हारा सारा कपट प्रकट हो जाता। तुम्हें कपटपूर्ण चालें अधिक प्रिय हैं। भगवान महादेव जी ने ब्राह्मणों को सर्वोपरि बताया है। आज तुम्हें मैं ऐसी सीख दूंगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कार्य नहीं कर सकोगे। अब तक तुम्हारा किसी शक्तिशाली मनुष्य से पाला नहीं पड़ा है। इसलिए तुम निडर बने हुए हो परंतु अब तुम्हें तुम्हारी करनी का पूरा फल मिलेगा। माया मोहित नारद जी क्रोध से खिन्न थे। वे भगवान विष्णु को शाप देते हुए बोले- विष्णु ! तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया है। तुम सभी को मोह में डालते हो। तुमने राजा का रूप धारण करके मुझे छला था। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम्हारे जिस रूप ने कपटपूर्वक मुझे छला है, तुम्हें वही रूप मिले। तुम राजा होगे और इसी तरह स्त्री का वियोग भोगोगे, जिस तरह मैं भोग रहा हूं। तुमने जिन वानरों के समान मेरी आकृति बना दी है, वही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। तुम दूसरों को स्त्री वियोग का दुख देते हो, इसलिए तुम्हें भी यही दुख भोगना पड़ेगा। तुम्हारी स्थिति अज्ञान से मोहित मनुष्य जैसी हो जाएगी।
अज्ञान से मोहित नारद जी का शाप विष्णु भगवान ने स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने महालीला करने वाली मोहिनी माया को समाप्त कर दिया। माया के जाते ही नारद जी का खोया हुआ ज्ञान लौट आया और उनकी बुद्धि पहले की तरह हो गई। उनकी सारी व्याकुलता चली गई तथा मन में आश्चर्य उत्पन्न हो गया। यह सब जानकर नारद जी बहुत पछताने लगे और अपने को धिक्कारते हुए भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और उनसे क्षमा मांगने लगे। नारद जी कहने लगे कि मैंने अज्ञानवश होकर और माया के कारण आपको जो शाप दे दिया है, वह झूठा हो जाए। भगवान मेरी बुद्धि खराब हो गई थी, जो मैंने आपके लिए बुरे वचन अपनी जबान से निकाले। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा कर मुझे ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे मेरा सारा पाप नष्ट हो जाए। कृपया मुझे प्रायश्चित का तरीका बताइए। तब श्रीविष्णु ने उन्हें उठाकर मधुर वाणी में कहा –
हे महर्षि! आप दुखी न हों, आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। नारद जी आप चिंता मत कीजिए, आप परम धन्य हैं। आपने अहंकार के वशीभूत होकर भगवान शिव की आज्ञा का पालन नहीं किया था। इसलिए उन्होंने ही आपका गर्व नष्ट करने के लिए यह लीला रची थी। वे निर्गुण और निर्विकार हैं और सत, रज और तम आदि गुणों से परे हैं। उन्होंने अपनी माया से ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों रूपों को प्रकट किया है। निर्गुण अवस्था में उन्हीं का नाम शिव है, वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनंत और महादेव नामों से जाने जाते हैं। उन्हीं की आज्ञा से ब्रह्माजी जगत के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकों का पालन करता हूं और शिवजी रुद्ररूप में सबका संहार करते हैं। वे शिवस्वरूप सबके साक्षी हैं। वे माया से भिन्न और निर्गुण हैं। वे अपने भक्तों पर सदा दया करते हैं। मैं तुम्हें समस्त पापों का नाश करने वाला, भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला उपाय बताता हूं। अपने सारे शकों एवं चिंताओं को त्यागकर भगवान शंकर की यश और कीर्ति का गुणगान करो और सदा अनन्य भाव से शिवजी के शतनाम स्तोत्र का पाठ करो। उनकी उपासना करो तथा प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना करो। जो मनुष्य शरीर, मन और वाणी द्वारा भगवान शिव की उपासना करते हैं, उन्हें पण्डित या ज्ञानी कहा जाता है। जो मनुष्य शिवजी की भक्ति करते हैं, उन्हें संसाररूपी भवसागर से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। जो लोग पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिए। वेदों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही ज्ञानी मनुष्यों ने शिवजी की पूजा को जन्म-मरण रूपी बंधनों से मुक्त होने का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है। इसलिए आज से ही रोज भगवान शिव की कथा सुनो और कहा करो तथा उनका पूजन किया करो। अपने हृदय में भगवान शिव के चरणों की स्थापना करो तथा उनके तीर्थों में निवास करते हुए उनकी स्तुति कर उनका गुणगान करो।
इसके बाद नारद जी तुम मेरी आज्ञा से अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए ब्रह्मलोक जाना। वहां अपने पिता ब्रह्माजी की स्तुति करके उनसे शिव महिमा के बारे में पूछना। ब्रह्माजी शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। वे तुम्हें भगवान शंकर का माहात्म्य और शतनाम स्तोत्र अवश्य सुनाएंगे। आज से तुम शिवभक्ति में लीन हो जाओ। वे अवश्य तुम्हारा कल्याण करेंगे। यह कहकर विष्णुजी अंतर्धान हो गए।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
पांचवां अध्याय
नारद जी का शिवतीर्थों में भ्रमण व ब्रह्माजी से प्रश्न
सूत जी बोले- महर्षियो! भगवान श्रीहरि के अंतर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिंगों का भक्तिपूर्वक दर्शन करने के लिए निकल गए। इस प्रकार भक्ति-मुक्ति देने वाले अनेक शिवलिंगों के उन्होंने दर्शन किए। जब उन रुद्रगणों ने नारद जी को वहां देखा तो वे दोनों गण अपने शाप की मुक्ति के लिए उनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे उनका उद्धार करें। नारद मुने ! हम आपके अपराधी हैं। राजकुमारी श्रीमती के स्वयंवर में आपका मन माया से मोहित था। उस समय भगवान शिव की प्रेरणा से आपने हमें शाप दे दिया था। अब आप हमारी जीवन रक्षा का उपाय कीजिए। हमने अपने कर्मों का फल भोग लिया हौ। कृपा कर हम पर प्रसन्न होकर हमें शापमुक्त कीजिए।
नारद जी ने कहा- हे रुद्रगणों ! आप महादेव के गण हैं एवं सभी के लिए आदरणीय हैं। उस समय भगवान शिव की इच्छा से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। इसलिए मोहवश मैंने आपको शाप दे दिया था। आप लोग मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें। परंतु मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता। इसलिए मैं आपको शाप से मुक्ति का उपाय बताता हूं। मुनिवर विश्रवा के वीर्य द्वारा तुम एक राक्षसी के गर्भ में जन्म लोगे। समस्त दिशाओं में रावण और कुंभकर्ण के नाम से प्रसिद्धि पाओगे। राक्षसराज का पद प्राप्त करोगे। तुम बलवान व वैभव से युक्त होओगे। तुम्हारा प्रताप सभी लोकों में फैलेगा। समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर भी भगवान शिव के परम भक्तों में होओगे। भगवान शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के अवतार के हाथों से मृत्यु पाकर तुम्हारा उद्धार होगा तथा फिर अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जाओगे।
सूत जी कहने लगे कि इस प्रकार नारद जी का कथन सुनकर वे दोनों रुद्रगण प्रसन्न होते हुए वहां से चले गए और नारद जी भी आनंद से सराबोर हो मन ही मन शिवजी का ध्यान करते हुए शिवतीर्थों का दर्शन करने लगे। इसी प्रकार भ्रमण करते-करते वे शिव की प्रिय नगरी काशीपुरी में पहुंचे और काशीनाथ का दर्शन कर उनकी पूजा-उपासना की। श्री नारद जी शिवजी की भक्ति में डूबे, उनका स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने ब्रह्माजी को आदरपूर्वक नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय शुद्ध हो चुका था और उनके हृदय में शिवजी के प्रति भक्ति भावना ही थी और कुछ नहीं।
नारद जी बोले- हे पितामह! आप तो परमब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को अच्छी प्रकार से जानते हो। आपकी कृपा से मैंने भगवान विष्णु के माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त किया है एवं भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग, तपो मार्ग, दान मार्ग तथा तीर्थ मार्ग के बारे में जाना है परंतु मैं शिव तत्व के ज्ञान को अभी तक नहीं जान पाया हूं। मैं उनकी पूजा विधि को भी नहीं जानता हूं। अतः अब मैं उनके बारे में सभी कुछ जानना चाहता हूं। मैं भगवान शिव के विभिन्न चरित्रर्गों, उनके स्वरूप तथा वे सृष्टि के आरंभ में, मध्य में, किस रूप में थे, उनकी लीलाएं कैसी होती हैं और प्रलय काल में भगवान शिव कहां निवास करते हैं? उनका विवाह तथा उनके पुत्र कार्तिकेय के जन्म आदि की कथाएं मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूं। भगवान शिव कैसे प्रसन्न होते है और प्रसन्न होने पर क्या-क्या प्रदान करते हैं? इस संपूर्ण वृत्तांत को मुझे बताने की कृपा करें। अपने पुत्र नारद की ये बातें सुनकर पितामह ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
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छठा अध्याय
ब्रह्माजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन
ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद ! तुम सदैव जगत के उपकार में लगे रहते हो। तुमने जगत के लोगों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से मनुष्य के सब जन्मों के पापों का नाश हो जाता है। उस परमब्रह्म शिवतत्व का वर्णन मैं तुम्हारे लिए कर रहा हूं। शिव तत्व का स्वरूप बहुत सुंदर और अद्भुत है। जिस समय महाप्रलय आई थी और पूरा संसार नष्ट हो गया था तथा चारों ओर सिर्फ अंधकार ही अंधकार था, आकाश व ब्रह्माण्ड तारों व ग्रहों से रहित होकर अंधकार में डूब गए थे, सूर्य और चंद्रमा दिखाई देने बंद हो गए थे, सभी ग्रहों और नक्षत्रों का कहीं पता नहीं चल रहा था, दिन-रात, अग्नि-जल कुछ भी नहीं था। प्रधान आकाश और अन्य तेज भी शून्य हो गए थे। शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, रस का अभाव हो गया था, सत्य-असत्य सबकुछ खत्म हो गया था, तब सिर्फ ‘सत्’ ही बचा था। उस तत्व को मुनिजन एवं योगी अपने हृदय के भीतर ही देखते हैं। वाणी, नाम, रूप, रंग आदि की वहां तक पहुंच नहीं है।
उस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से किए गए संबोधन के द्वारा कुछ समय बाद अर्थात सृष्टि का समय आने पर एक से अनेक होने के संकल्प का उदय हुआ। तब उन्होंने अपनी लौला से मूर्ति की रचना की। वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्य तथा गुणों से युक्त, संपन्न, सर्वज्ञानमयी एवं सबकुछ प्रदान करने वाली है। यही सदाशिव की मूर्ति है। सभी पण्डित, विद्वान इसी प्राचीन मूर्ति को ईश्वर कहते हैं। उसने अपने शरीर से स्वच्छ शरीर वाली एवं स्वरूपभूता शक्ति की रचना की। वही परमशक्ति, प्रकृति गुणमयी और बुद्धित्व की जननी कहलाई। उसे शक्ति, अंबिका, प्रकृति, संपूर्ण लोकों की जननी, त्रिदेवों की माता, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। उसकी आठ भुजाओं एवं मुख की शोभा विचित्र है। उसके मुख के सामने चंद्रमा की कांति भी क्षीण हो जाती है। विभिन्न प्रकार के आभूषण एवं गतियां देवी की शोभा बढ़ाती हैं। वे अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं।
सदाशिव को ही सब मनुष्य परम पुरुष, ईश्वर, शिव-शंभु और महेश्वर कहकर पुकारते हैं। उनके मस्तक पर गंगा, भाल में चंद्रमा और मुख में तीन नेत्र शोभा पाते हैं। उनके पांच मुख हैं तथा दस भुजाओं के स्वामी एवं त्रिशूलधारी हैं। वे अपने शरीर में भस्म लगाए हैं। उन्होंने शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया है। यह परम पावन स्थान काशी नाम से जाना जाता है। यह परम मोक्षदायक स्थान है। इस क्षेत्र में परमानंद रूप ‘शिव’ पार्वती सहित निवास करते हैं। शिव और शिवा ने प्रलयकाल में भी उस स्थान को नहीं छोड़ा। इसलिए शिवजी ने इसका नाम आनंदवन रखा है।
एक दिन आनंदवन में घूमते समय शिव-शिवा के मन में किसी दूसरे पुरुष की रचना करने की इच्छा हुई। तब उन्होंने सोचा कि इसका भार किसी दूसरे व्यक्ति को सौंपकर हम यहीं काशी में विराजमान रहेंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने वामभाग के दसवें अंग पर अमृत मल दिया। जिससे एक सुंदर पुरुष वहां प्रकट हुआ, जो शांत और सत्व गुणों से युक्त एवं गंभीरता का अथाह सागर था। उसकी कांति इंद्रनील मणि के समान श्याम थी। उसका पूरा शरीर दिव्य शोभा से चमक रहा था तथा नेत्र कमल के समान थे। उसने हाथ जोड़कर भगवान शिव और शिवा को प्रणाम किया तथा प्रार्थना की कि मेरा नाम निश्चित कीजिए। यह सुनकर भगवान शिव हंसकर बोले कि सर्वत्र व्यापक होने से तुम्हारा नाम ‘विष्णु’ होगा। तुम भक्तों को सुख देने वाले होओगे। तुम यहीं स्थिर रहकर तप करो। वही सभी कार्यों का साधन है। ऐसा कहकर शिवजी ने उन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा वहां से अंतर्धान हो गए। तब विष्णुजी ने बारह वर्ष तक वहां दिव्य तप किया। तपस्या के कारण उनके शरीर से अनेक जलधाराएं निकलने लगीं। उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्शमात्र से पापों का नाश करने वाला था। उस जल में भगवान विष्णु ने स्वयं शयन किया। नार अर्थात जल में निवास करने के कारण ही वे ‘नारायण’ कहलाए। तभी से उन महात्मा से सब तत्वों की उत्पत्ति हुई। पहले प्रकृति से महान और उससे तीन गुण उत्पन्न हुए तथा उनसे अहंकार उत्पन्न हुआ। उससे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध एवं पांच भूत प्रकट हुए। उनसे ज्ञानेंद्रियां एवं कर्मेंद्रियां बनीं। उस समय एकाकार 24 तत्व प्रकृति से प्रकट हुए एवं उनको ग्रहण करके परम पुरुष नारायण भगवान शिवजी की इच्छा से जल में सो गए।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
सातवां अध्याय
विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णु के मध्य अग्नि-स्तंभ का प्रकट होना
ब्रह्माजी कहते हैं- हे देवर्षि ! जब नारायण जल में शयन करने लगे, तब शिवजी की इच्छा से विष्णुजी की नाभि से एक बहुत बड़ा कमल प्रकट हुआ। उसमें असंख्य नालदण्ड थे। वह पीले रंग का था और उसकी ऊंचाई भी कई योजन थी। कमल सुंदर, अद्भुत और संपूर्ण तत्वों से युक्त था। वह रमणीय और पुण्य दर्शनों के योग्य था। तत्पश्चात भगवान शिव ने मुझे अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया। उन महेश्वर ने अपनी माया से मोहित कर नारायण देव के नाभि कमल में मुझे डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे प्रकट किया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझे जन्म मिला। मेरे चार मुख लाल मस्तक पर त्रिपुण्ड धारण किए हुए थे। भगवान शिव की माया से मोहित होने के कारण मेरी ज्ञानशक्ति बहुत दुर्लभ हो गई थी और मुझे कमल के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मेरा कार्य क्या है? मैं किसका पुत्र हूं? किसने मेरा निर्माण किया है? कुछ इसी प्रकार के प्रश्नों ने मुझे परेशानी में डाल दिया था। कुछ क्षण बाद मुझे बुद्धि प्राप्त हुई और मुझे लगा कि इसका पता लगाना बहुत सरल है। इस कमल का उद्गम स्थान इस जल में नीचे की ओर है और इसके नीचे मैं उस पुरुष को पा सकूंगा जिसने मुझे प्रकट किया है। यह सोचकर एक नाल को पकड़कर मैं सौ वर्षों तक नीचे की ओर उतरता रहा, परंतु फिर भी मैंने कमल की जड़ को नहीं पाया। इसलिए मैं पुनः ऊपर की ओर बढ़ने लगा। बहुत ऊपर जाने पर भी कमल कोश को नहीं पा सका। तब मैं और अधिक परेशान हो गया। उसी समय भगवान शिव की इच्छा से मंगलमयी आकाशवाणी प्रकट हुई। उस वाणी ने कहा, ‘तपस्या करो’।
उस आकाशवाणी को सुनकर अपने पिता का दर्शन करने हेतु मैंने तपस्या करना आरंभ कर दिया और बारह वर्ष तक घोर तपस्या की। तब चार भुजाधारी, सुंदर नेत्रों से शोभित भगवान विष्णु प्रकट हुए। उन्होंने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनका शरीर श्याम कांति से सुशोभित था। उनके मस्तक पर मुकुट विराजमान था तथा उन्होंने पीतांबर वस्त्र और बहुत से आभूषण धारण किए हुए थे। वे करोड़ों कामदेवों के समान मनोहर दिखाई दे रहे थे और सांवली व सुनहरी आभा से शोभित थे। उन्हें वहां देखकर मुझे बहुत हर्ष व आश्चर्य हुआ।
भगवान शिव की लीला से हम दोनों में विवाद छिड़ गया कि हम में बड़ा कौन है? उसी समय हम दोनों के बीच में एक ज्योतिर्मय लिंग प्रकट हो गया। हमने उसका पता लगाने का निश्चय किया। मैंने ऊपर की ओर और विष्णुजी ने नीचे की ओर उस स्तंभ के आरंभ और अंत का पता लगाने के लिए चलना आरंभ किया परंतु हम दोनों को उस स्तंभ का कोई ओर- छोर नहीं मिला। थककर हम दोनों अपने उसी स्थान पर आ गए। हम दोनों ही शिवजी की माया से मोहित थे। श्रीहरि ने सभी ओर से परमेश्वर शिव को प्रणाम किया। ध्यान करने पर भी हमें कुछ ज्ञात न हो सका। तब मैंने और श्रीहरि ने अपने मन को शुद्ध करते हुए अग्नि स्तंभ को प्रणाम किया।
हम दोनों कहने लगे – महाप्रभु! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो भी हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं! आप शीघ्र ही हमें अपने असली रूप में दर्शन दें। इस प्रकार हम दोनों अपने अहंकार को भूलकर भगवान शिव को नमस्कार करने लगे। ऐसा करते हुए सौ वर्ष बीत गए।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
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आठवां अध्याय
ब्रह्मा-विष्णु को भगवान शिव के दर्शन
ब्रह्माजी बोले- मुनिश्रेष्ठ नारद! हम दोनों देवता घमंड को भूलकर निरंतर भगवान शिव का स्मरण करने लगे। हमारे मन में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट परमेश्वर के वास्तविक रूप का दर्शन करने की इच्छा और प्रबल हो गई। शिव शंकर गरीबों के प्रतिपालक, अहंकारियों के गर्व को चूर करने वाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम पर दया करते हुए हमारी उपासना से प्रसन्न हो गए। उस समय वहां उन सुरश्रेष्ठ से ‘ॐ’ नाद स्पष्ट रूप से सुनाई देता था। उस नाद के विषय में मैं और विष्णुजी दोनों यही सोच रहे थे कि यह कहां से सुनाई पड़ रहा है। उन्होंने लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया। उत्तर भाग में उकार का, मध्य भाग में मकार का और अंत में ‘ॐ’ नाद का साक्षात दर्शन एवं अनुभव किया। दक्षिण भाग में प्रकट हुए आकार का सूर्य मण्डल के समान तेजोमय रूप देखकर, जब उन्होंने उत्तर भाग में देखा तो वह अग्नि के समान दीप्तिशाली दिखाई दिया। तत्पश्चात ‘ॐ’ को देखा, जो सूर्य और चंद्रमण्डल की भांति स्थित थे और जिनके शुरू एवं अंत का कुछ पता नहीं था तथा सत्य आनंद और अमृत स्वरूप परब्रह्म परायण ही दृष्टिगोचर हो रहा था। परंतु यह कहां से प्रकट हुआ है? इस अग्नि स्तंभ की उत्पत्ति कहां से हुई है? यह श्रीहरि सोचने लगे तथा इसकी परीक्षा लेने के संबंध में विचार करने लगे। तब श्रीहरि ने भगवान शिव का चिंतन करते हुए वेद और शब्द के आवेश से युक्त हो अनुपम अग्नि स्तंभ के नीचे जाने का निर्णय लिया। मैं और विष्णुजी विश्वात्मा शिव का चिंतन कर रहे थे, तभी वहां एक ऋषि प्रकट हुए। उन्हीं ऋषि के द्वारा परमेश्वर विष्णु ने जाना कि इस शब्द ब्रह्ममय शरीर वाले परम लिंग के रूप में साक्षात परब्रह्मस्वरूप महादेव जी प्रकट हुए हैं। ये चिंतारहित रुद्र हैं। परब्रह्म परमात्मा शिव का वाचक प्रणव ही है। वह एक सत्य परम कारण, आनंद, अकृत, परात्पर और परमब्रह्म है। प्रणव के पहले अक्षर ‘अकार’ से जगत के बीजभूत अर्थात ब्रह्माजी का बोध होता है। दूसरे अक्षर ‘उकार’ से सभी के कारण श्रीहरि विष्णु का बोध होता है। तीसरा अक्षर ‘मकार’ से भगवान शिव का ज्ञान होता है। ‘अकार’ सृष्टिकर्ता, ‘उकार’ मोह में डालने वाला और ‘मकार’ नित्य अनुग्रह करने वाला है। ‘मकार’ अर्थात भगवान शिव बीजी अर्थात बीज के स्वामी हैं, तो ‘अकार’ अर्थात ब्रह्माजी बीज हैं। ‘उकार’ अर्थात विष्णुजी योनि हैं। महेश्वर बीजी, बीज और योनि हैं। इन सभी को नाद कहा गया है। बीजी अपने बीज को अनेक रूपों में विभक्त करते हैं। बीजी भगवान शिव के लिंग से ‘उकार’ रूप योनि में स्थापित होकर चारों तरफ ऊपर की ओर बढ़ने लगा। वह दिव्य अण्ड कई वर्षों तक जल में रहा।
हजारों वर्ष के बाद भगवान शिव ने इस अण्ड को दो भागों में विभक्त कर दिया। तब इसके दो भागों में से पहला सुवर्णमय कपाल ऊपर की ओर स्थित हो गया, जिससे स्वर्गलोक उत्पन्न हुआ तथा कपाल के नीचे के भाग से पांच तत्वों वाली पृथ्वी प्रकट हुई। उस अण्ड से चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जो समस्त लोकों के सृष्टा हैं। भगवान महेश्वर ही ‘अ’, ‘उ’ व ‘म’ त्रिविध रूपों में वर्णित हैं। इसलिए ज्योतिर्लिंग स्वरूप सदाशिव को ‘ॐ’ कहा गया है। इसकी सिद्धि यजुर्वेद में भी होती है। देवेश्वर शिव को जानकर विष्णुजी ने शक्ति संभूत मंत्रों द्वारा उत्तम एवं महान अभ्युदय से शोभित भगवान शिव की स्तुति करनी शुरू कर दी। इसी समय मैंने और विश्वपालक भगवान विष्णु ने एक अद्भुत व सुंदर रूप देखा। जिसके पांच मुख, दस भुजा, कपूर के समान गौरवर्ण, परम कांतिमय, अनेक आभूषणों से विभूषित, महान उदार, महावीर्यवान और महापुरुषों के लक्षणों से युक्त था और जिसके दर्शन पाकर मैं और विष्णुजी धन्य हो गए। तब परमेश्वर महादेव भगवान प्रसन्न होकर अपने दिव्यमय रूप में स्थित हो गए। ‘अकार’ उनका मस्तक और आकार ललाट है। इकार दाहिना और ईकार बायां नेत्र है। उकार दाहिना और ऊकार बायां कान है। ऋकार दायां और ऋकार बायां गाल है। लृ, र्लिं उनकी नाक के छिद्र हैं। एकार और ऐकार उनके दोनों होंठ हैं। ओकार और औकार उनकी दोनों दंत पक्तियां हैं। अं और अः देवाधिदेव शिव के तालु हैं। ‘क’ आदि पांच अक्षर उनके दाहिने पांच हाथ हैं और ‘च’ आदि बाएं पांच हाथ हैं। ‘त’ और ‘ट’ से शुरू पांच अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है, फकार दाहिना और बकार बायां पार्श्व भाग है। भकार कंधा, मकार हृदय है। हकार नाभि है। ‘य’ से ‘स’ तक के सात अक्षर सात धातुएं हैं जिनसे भगवान शिव का शरीर बना है।
इस प्रकार भगवान महादेव व भगवती उमा के दर्शन कर हम दोनों कृतार्थ हो गए। हमने उनके चरणों में प्रणाम किया तब हमें पांच कलाओं से युक्त ॐकार जनित मंत्र का साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात महादेव जी ‘ॐ तत्वमसि’ महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ, जो परम उत्तम मंत्ररूप है। इसके बाद धर्म और अर्थ का साधक बुद्धिस्वरूप चौबीस अक्षरीय गायत्री मंत्र प्रकट हुआ, जो पुरुषार्थरूपी फल देने वाला है। तत्पश्चात मृत्युंजय मंत्र फिर पंचाक्षर मंत्र तथा दक्षिणामूर्ति व चिंतामणि का साक्षात्कार हुआ। इन पांचों मंत्रों को विष्णु भगवान ने ग्रहण कर जपना आरंभ किया। ईशों के मुकुट मणि ईशान हैं, जो पुरातत्व पुरुष हैं, हृदय को प्रिय लगने वाले, जिनके चरण सुंदर हैं, जो सांप को आभूषण के रूप में धारण करते हैं, जिनके पैर व नेत्र सभी ओर हैं, जो मुझ ब्रह्मा के अधिपति, कल्याणकारी तथा सृष्टिपालन एवं संहार करने वाले हैं। उन वरदायक शिव की मेरे साथ भगवान विष्णु ने प्रिय वचनों द्वारा संतुष्ट चित्त से स्तुति की।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
नवां अध्याय
देवी उमा एवं भगवान शिव का प्राकट्य एवं उपदेश देना
ब्रह्माजी बोले- नारद! भगवान विष्णु द्वारा की गई अपनी स्तुति सुनकर कल्याणमयी शिव बहुत प्रसन्न हुए और देवी उमा सहित वहां प्रकट हो गए। भगवान शिव के पांच मुख थे और हर मुख में तीन-तीन नेत्र थे, मस्तक में चंद्रमा, सिर पर जटा तथा संपूर्ण अंगों में विभूति लगा रखी थी। दसभुजा वाले गले में नीलकंठ, आभूषणों से विभूषित और माथे पर भस्म का त्रिपुण्ड लगाए थे। उनका यह रूप मन को मोहित करने वाला और परम आनंदमयी था। महादेव जी के साथ भगवती उमा ने भी हमें दर्शन दिए। उनको देखकर मैंने और विष्णुजी ने पुनः उनकी स्तुति करनी शुरू कर दी। तब पापों का नाश करने वाले तथा अपने भक्तों पर सदा कृपादृष्टि रखने वाले महेश्वर ने मुझे और भगवान विष्णु को श्वास से वेद का उपदेश दिया। तत्पश्चात उन्होंने हमें गुप्त ज्ञान प्रदान किया। वेद का ज्ञान प्राप्त कर कृतार्थ हुए विष्णुजी और मैंने भगवान शिव और देवी के सामने अपने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया तथा प्रार्थना की।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
विष्णुजी ने पूछा- हे देव! आप किस प्रकार प्रसन्न होते हैं? तथा किस प्रकार आपकी पूजा और ध्यान करना चाहिए? कृपया कर हमें इसके बारे में बताएं तथा सदुपदेश देकर धन्य करें।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! इस प्रकार श्रीहरि की यह बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए कृपानिधान शिव ने प्रीतिपूर्वक यह बात की।
श्रीशिव बोले- मैं तुम दोनों की भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं। मेरे इसी रूप का पूजन व चिंतन करना चाहिए। तुम दोनों महाबली हो। मेरे दाएं-बाएं अंगों से तुम प्रकट हुए हो। लोकपिता ब्रह्मा मेरे दाहिने पार्श्व से और पालनहार विष्णु मेरे बाएं पार्श्व से प्रकट हुए हो। मैं तुम पर भली-भांति प्रसन्न हूं और तुम्हें मनोवांछित फल देता हूं। तुम दोनों की भक्ति सुदृढ़ हो। मेरी आज्ञा का पालन करते हुए ब्रह्माजी आप जगत की रचना करें तथा भक्त विष्णुजी आप इस जगत का पालन करें।
भगवान विष्णु बोले- प्रभो! यदि आपके हृदय में हमारी भक्ति से प्रीति उत्पन्न हुई है और आप हम पर प्रसन्न होकर हमें वर देना चाहते हैं, तो हम यही वर मांगते हैं कि हमारे हृदय में सदैव आपकी अनन्य एवं अविचल भक्ति बनी रहे।
ब्रह्माजी बोले- नारद ! विष्णुजी की यह बात सुनकर भगवान शंकर प्रसन्न हुए। तब हमने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।
शिवजी कहते हैं- मैं सृष्टि, पालन और संहार का कर्ता हूं। मेरा स्वरूप सगुण और निर्गुण है! मैं ही सच्चिदानंद निर्विकार परमब्रह्म और परमात्मा हूं। सृष्टि की रचना, रक्षा और प्रलयरूप गुणों के कारण मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण कर तीन रूपों में विभक्त हुआ हूं। मैं भक्तवत्सल हूं और भक्तों की प्रार्थना को सदैव पूरी करता हूं। मेरे इसी अंश से रुद्र की उत्पत्ति होगी। पूजा की विधि-विधान की दृष्टि से हममें कोई अंतर नहीं होगा। विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र तीनों एकरूप होंगे। इनमें भेद नहीं है। इनमें जो भेद मानेगा, वह घोर नरक को भोगेगा। मेरा शिवरूप सनातन है तथा सभी का मूलभूत रूप है। यह सत्य ज्ञान एवं अनंत ब्रह्म है, ऐसा जानकर मेरे यथार्थ स्वरूप का दर्शन करना चाहिए। मैं स्वयं ब्रह्माजी की भृकुटि से प्रकट होऊंगा। ब्रह्माजी आप सृष्टि के निर्माता बनो, श्रीहरि विष्णु इसका पालन करें तथा मेरे अंश से प्रकट होने वाले रुद्र प्रलय करने वाले हैं। ‘उमा’ नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी है। इन्हीं की शक्तिभूता वाग्देवी सरस्वती ब्रह्माजी की अर्द्धांगिनी होंगी और दूसरी देवी, जो प्रकृति देवी से उत्पन्न होंगी, लक्ष्मी रूप में विष्णुजी की शोभा बढ़ाएंगी तथा काली नाम से जो तीसरी शक्ति उत्पन्न होगी, वह मेरे अंशभूत रुद्रदेव को प्राप्त होंगी। कार्यसिद्धि के लिए वे ज्योतिरूप में प्रकट होंगी। उनका कार्य सृष्टि, पालन और संहार का संपादन है। मैं ही सृष्टि, पालन और संहार करने वाले रज आदि तीन गुणों द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम से प्रसिद्ध हो तीन रूपों में प्रकट होता हूं। तीनों लोकों का पालन करने वाले श्रीहरि अपने भीतर तमोगुण और बाहर सत्वगुण धारण करते हैं, त्रिलोक का संहार करने वाले रुद्रदेव भीतर सत्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवन की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी बाहर और भीतर से रजोगुणी हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र तीनों देवताओं में गुण हैं तो शिव गुणातीत माने जाते हैं। हे विष्णो ! तुम मेरी आज्ञा से सृष्टि का प्रसन्नतापूर्वक पालन करो। ऐसा करने से तुम तीनों लोकों में पूजनीय होओगे।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गोविंद स्तोत्रम
दसवां अध्याय
श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं त्रिदेव को आयुर्बल देना
परमेश्वर शिव बोले- हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले विष्णु ! तुम सर्वदा सब लोकों में पूजनीय और मान्य होगे। ब्रह्माजी के द्वारा रचे लोक में कोई दुख या संकट होने पर दुखों और संकटों का नाश करने के लिए तुम सदा तत्पर रहना। तुम अनेकों अवतार ग्रहण कर जीवों का कल्याण कर अपनी कीर्ति का विस्तार करोगे। मैं तुम्हारे कार्यों में तुम्हारी सहायता करूंगा और तुम्हारे शत्रुओं का नाश करूंगा। तुममें और रुद्र में कोई अंतर नहीं है, तुम एक- दूसरे के पूरक हो। जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर तुम्हारी निंदा करेगा, उसका पुण्य नष्ट हो जाएगा और उसे नरक भोगना पड़ेगा। मनुष्यों को तुम भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले और उनके परम पूज्य देव होकर उनका निग्रह, अनुग्रह आदि करोगे।
ऐसा कहकर भगवान शिव ने मेरा हाथ विष्णुजी के हाथ में देकर कहा- तुम संकट के समय सदा इनकी सहायता करना तथा सभी को भोग और मोक्ष प्रदान करना तथा सभी मनुष्यों की कामनाओं को पूरा करना। तुम्हारी शरण में आने वाले मनुष्य को मेरा आश्रय भी मिलेगा तथा हममें भेद करने वाला मनुष्य नरक में जाएगा।
ब्रह्माजी कहते हैं- देवर्षि नारद ! भगवान शिव का यह वचन सुनकर मैंने और भगवान विष्णु ने महादेव जी को प्रणाम कर धीरे से कहा- हे करुणानिधि भगवान शंकर! मैं आपकी आज्ञा मानकर सब कार्य करूंगा। मेरा जो भक्त आपकी निंदा करे, उसे आप नरक प्रदान करें। आपका भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।
महादेव जी बोले-अब ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के आयुर्बल को सुनो। चार हजार युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है और चार हजार युग की एक रात होती है। तीस दिन का एक महीना और बारह महीनों का एक वर्ष होता है! इस प्रकार के वर्ष-प्रमाण से ब्रह्मा की सौ वर्ष की आयु होती है और ब्रह्मा का एक वर्ष विष्णु का एक दिन होता है। वह भी इसी प्रकार से सौ वर्ष जिएंगे तथा विष्णु का एक वर्ष रुद्र के एक दिन के बराबर होता है और वह भी इसी क्रम से सौ वर्ष तक स्थित रहेंगे। तब शिव के मुख से एक ऐसा श्वास प्रकट होता है, जिसमें उनके इक्कीस हजार छः सौ दिन और रात होते हैं। उनके छः बार सांस अंदर लेने और छोड़ने का एक पल और आठ घड़ी और साठ घड़ी का एक दिन होता है। उनके सांसों की कोई संख्या नहीं है इसलिए वे अक्षय हैं। अतः तुम मेरी आज्ञा से सृष्टि का निर्माण करो। उनके वचनों को सुनकर विष्णुजी ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है। यह सुनकर भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गए। उसी समय से लिंग पूजा आरंभ हो गई।(Rudra Samhita Chapter 1 to Chapter 10)
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