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Raghuvansham Sarg 10

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Raghuvansham Sarg 10

रघुवंश दशम सर्ग | Raghuvansh Sarg 10

॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य दशम सर्गः ॥

संस्कृत कवि कालिदास द्वारा रचित “रघुवंश महाकाव्य” के दसवें सर्ग (Raghuvansham Sarg 10) को “राम अवतार” कहा गया है। रघुवंश महाकाव्य के दशम सर्ग में श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के जन्म की कथा वर्णित है। इस सर्ग को “रामावतार सर्ग” भी कहा जाता है क्योंकि इसमें भगवान विष्णु के श्रीराम रूप में अवतार लेने की दिव्य लीला का वर्णन मिलता है। चारों राजकुमारों के जन्म से अयोध्या में आनंद छा गया। पूरे नगर में उत्सव मनाया गया, ब्राह्मणों को दान दिया गया। राजा दशरथ ने सभी को उपहार देकर प्रसन्न किया।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

॥ श्रीः रघुवंशम् Raghuvansham Sarg 10 ॥

पृथिवीं शासतस्तस्य पाकशासनतेजसः ।
किंचिदूनमनूनर्द्धेः शरदामयुतं ययौ ॥ 1॥
अर्थ:
पृथ्वी का पालन करने वाले, इन्द्र के समान तेजस्वी एवं महान ऐश्वर्ययुक्त राजा दशरथ का राज्य करते हुए दस हजार (१०,०००) वर्षों से कुछ कम समय बीत गया।

न चोपलेभे पूर्वेषामृणनिर्मोक्षसाधनम् ।
सुताभिधानं स ज्योतिः सद्यः शोकतमोपहम् ॥ 2॥
अर्थ:
परंतु राजा दशरथ अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त होने का साधन (पुत्र) प्राप्त नहीं कर सके। वह पुत्ररूपी प्रकाश, जो तुरंत ही उनके शोक रूपी अंधकार को नष्ट करने वाला था, उन्हें प्राप्त नहीं हुआ।

अतिष्ठत्प्रत्ययापेक्षसंततिः स चिरं नृपः ।
प्राङ्मन्थादनभिव्यक्तरत्नोत्पत्तिरिवार्णवः॥ 3॥
अर्थ:
वह राजा (दशरथ) पुत्र प्राप्ति की आशा में लंबे समय तक प्रतीक्षा करता रहा, जैसे समुद्र मंथन से पहले उसमें रत्न प्रकट नहीं हुए थे।

ऋष्यशृङ्गादयस्तस्य सन्तः सन्तानकाङ्क्षिणः ।
आरेभिरे जितात्मानः पुत्रीयामिष्टिमृत्विजः॥ 4॥
अर्थ:
ऋष्यशृंग और अन्य महान ऋषिगण, जो आत्मसंयमी एवं सिद्ध थे, राजा दशरथ के लिए पुत्र प्राप्ति की इच्छा से पुत्रेष्टि यज्ञ करने लगे।(Raghuvansham Sarg 10)

तस्मिन्नवसरे देवाः पौलस्त्योपप्लुता हरिम् ।
अभिजग्मुर्निदाघार्ताश्छायावृक्षमिवाध्वगाः॥ 5॥
अर्थ:
उसी समय, राक्षस रावण (पौलस्त्य) के अत्याचारों से पीड़ित देवगण भगवान विष्णु के पास पहुंचे, जैसे प्रचंड गर्मी से पीड़ित यात्री छाया देने वाले वृक्ष के पास जाता है।

ते च प्रापुरुदन्वन्तं बुबुधे चादिपूरुषः ।
अव्याक्षेपो भविष्यन्त्याः कार्यसिद्धेर्हि लक्षणम् ॥ 6॥
अर्थ:
वे देवता (रावण के अत्याचारों से पीड़ित होकर) क्षीरसागर (उदधि – समुद्र) के तट पर पहुंचे, और उनकी उपस्थिति को आदिपुरुष (भगवान विष्णु) ने जान लिया। क्योंकि आने वाले कार्य की सिद्धि का एक लक्षण यह भी होता है कि उसमें कोई व्यवधान न आए।

भोगिभोगासनासीनं ददृशुस्तं दिवौकसः ।
तत्फणामण्डलोदर्चिर्मणिद्योतितविग्रहम् ॥ 7॥
अर्थ:
देवताओं ने भगवान विष्णु को सर्पराज शेषनाग के कुंडलित फनों के आसन पर विराजमान देखा। उनके शरीर की कान्ति शेषनाग के फणों में जड़े रत्नों की प्रभा से प्रकाशित हो रही थी।

श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमान्तरितमेखले ।
अङ्के निक्षिप्तचरणमास्तीर्णकरपल्लवे ॥ 8॥
अर्थ:
देवताओं ने देखा कि भगवान विष्णु की अर्धांगिनी देवी लक्ष्मी उनके पास कमलासन पर विराजमान थीं। उनके कटि प्रदेश में उत्तम रेशमी वस्त्र सुशोभित था। वे अपने कोमल करकमलों को फैलाए हुए थीं और उनके अंक (गोद) में भगवान विष्णु ने अपने चरण रखे हुए थे।

प्रबुद्धपुण्डरीकाक्षं बालातपनिभांशुकम् ।
दिवसं शारदमिव प्रारम्भसुखदर्शनम् ॥ 9॥
अर्थ:
देवताओं ने कमल के समान विकसित नेत्रों वाले भगवान विष्णु को देखा, जिनके वस्त्र बाल (प्रातःकालीन) सूर्य के समान आभायुक्त थे। वे शरद ऋतु के प्रारंभ में स्पष्ट और सुखद दिखने वाले दिन के समान शोभायमान लग रहे थे।

प्रभानुलिप्तश्रीवत्सं लक्ष्मीविभ्रमदर्पणम् ।
कौस्तुभाख्यमपां सारं बिभ्राणं बृहतोरसा॥ 10॥
अर्थ:
भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर तेज से अंकित श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित था, जो लक्ष्मीजी की छवि को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण (आईना) प्रतीत हो रहा था। उनके विशाल वक्षस्थल पर समुद्र का सार कहलाने वाला कौस्तुभ मणि शोभा पा रहा था।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ उचित समय पर सही पाठ करें

बहुभिर्विटपाकारैर्दिव्याभरणभूषितैः ।
आविर्भूतमपां मध्ये पारिजातमिवापरम् ॥ 11॥
अर्थ:
भगवान विष्णु अनेक शाखाओं वाले, दिव्य आभूषणों से सुशोभित एक अद्भुत वृक्ष के समान जल के मध्य प्रकट हुए, जैसे समुद्र मंथन से पारिजात वृक्ष प्रकट हुआ था।

दैत्यस्त्रीगण्डलेखानां मदरागविलोपिभिः ।
हेतिभिश्चेतनावद्भिरुदीरितजयस्वनम् ॥ 12॥
अर्थ:
दैत्य स्त्रियों के गालों पर अंकित मदराग (प्रेमचिह्न) को मिटाने वाले, और सजीव प्रतीत होने वाले (शत्रुओं का नाश करने वाले) अस्त्र-शस्त्रों के साथ, जो विजय की घोषणा कर रहे थे, भगवान विष्णु प्रकट हुए।

मुक्तशेषविरोधेन कुलिशव्रणलक्ष्मणा ।
उपस्थितं प्राञ्जलिना विनीतेन गरुत्मता ॥ 13॥
अर्थ:
भगवान विष्णु के समक्ष गरुड़ विनीत भाव से, हाथ जोड़कर उपस्थित हुए, जिनका शरीर वज्र के घावों के चिह्नों से युक्त था, जो उन्होंने शेषनाग से संघर्ष करते समय प्राप्त किए थे।

योगनिद्रान्तविशदैः पावनैरवलोकनैः ।
भृग्वादीननुगृह्णन्तं सौखशायनिकानृषीन् ॥ 14॥
अर्थ:
भगवान विष्णु अपने योगनिद्रा से जाग्रत एवं निर्मल, पावन दृष्टि से भृगु आदि सौखशायनिक (विश्रामरत) ऋषियों को अनुग्रह प्रदान कर रहे थे।

प्रणिपत्य सुरास्तस्मै शमयित्रे सुरद्विषां ।
अथैनं तुष्टुवुः स्तुत्यमवाङ्मनसगोचरम् ॥ 15॥
अर्थ:
देवताओं ने उन भगवान विष्णु को प्रणाम किया, जो असुरों (देवशत्रुओं) का संहार करने वाले हैं। इसके बाद उन्होंने उन्हें स्तुति द्वारा प्रसन्न किया, जो वाणी और मन की सीमा से परे (वर्णनातीत) हैं।

नमो विश्वसृजे पूर्वं विश्वं तदनु बिभ्रते ।
अथ विश्वस्य संहर्त्रे तुभ्यं त्रेधास्थितात्मने ॥ 16॥
अर्थ:
हे भगवान! जो पहले इस संपूर्ण विश्व के स्रष्टा हैं, फिर इसके पालक हैं, और अंत में इसके संहारक हैं, ऐसे आप त्रिगुणस्वरूप परमात्मा को हमारा नमन है।

रसान्तराण्येकरसं यथा दिव्यं पयोऽश्नुते ।
देशे देशे गुणेष्वेवमवस्थास्तवमविक्रियः॥ 17॥
अर्थ:
हे प्रभु! जिस प्रकार दिव्य दुग्ध (अमृत तुल्य दूध) विभिन्न रसों में परिवर्तित होकर भी अपनी मूल प्रकृति (एकरसता) को बनाए रखता है, उसी प्रकार आप भी विभिन्न स्थानों और गुणों में स्थित होकर भी अपरिवर्तित रहते हैं।

अमेयो मितलोकस्त्वमनर्थी प्रार्थनावहः ।
अजितो जिष्णुरत्यन्तमव्यक्तो व्यक्तकारणम् ॥ 18॥
अर्थ:
हे प्रभु! आप अप्रमेय (जिसका मापन न किया जा सके), सीमित लोकों के स्वामी, निःस्वार्थ (जिसे किसी वस्तु की आवश्यकता न हो), परंतु भक्तों की प्रार्थना को पूर्ण करने वाले हैं। आप अजय (अजेय) हैं, परंतु फिर भी विजेता हैं; आप पूर्ण रूप से अव्यक्त हैं, परंतु सृष्टि के प्रकट होने का कारण भी आप ही हैं।(Raghuvansham Sarg 10)

हृदयस्थमनासन्नमकामं त्वां तपस्विनम् ।
दयालुमनघस्पृष्टं पुराणमजरं विदुः॥ 19॥
अर्थ:
हे प्रभु! आप हृदय में स्थित होते हुए भी दूर हैं, निःस्पृह (किसी इच्छा से रहित) हैं, परम तपस्वी हैं। आप दयालु, पापरहित, सनातन और अविनाशी हैं—ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं।

सर्वज्ञस्त्वमविज्ञातः सर्वयोनिस्त्वमात्मभूः ।
सर्वप्रभुरनीशस्त्वमेकस्त्वं सर्वरूपभाक्॥ 20॥
अर्थ:
हे प्रभु! आप सर्वज्ञ हैं, फिर भी किसी के द्वारा पूरी तरह से ज्ञेय (समझने योग्य) नहीं हैं।आप सभी सृष्टियों के कारण हैं, स्वयंभू (स्वयं उत्पन्न) हैं। आप संपूर्ण जगत के स्वामी होते हुए भी किसी सांसारिक आसक्ति से बंधे नहीं हैं। आप अद्वितीय हैं, फिर भी अनगिनत रूपों में प्रकट होते हैं।

सप्तसामोपगीतं त्वां सप्तार्णवजलेशयम् ।
सप्तार्चिमुखमाचख्युः सप्तलोकैकसंश्रयम्॥ 21॥
अर्थ:
हे प्रभु! आप उन सप्त (सात) सामवेदीय स्वरों द्वारा गाए जाते हैं। आप सात समुद्रों के जल पर शयन करने वाले हैं। आप सात प्रकाशरश्मियों के मूल स्रोत हैं। आप सातों लोकों के एकमात्र आश्रय हैं।

चतुर्वर्गफलं ज्ञानं कालावस्थाश्चतुर्युगाः ।
चतुर्वर्णमयो लोकस्त्वत्तः सर्वं चतुर्मुखात् ॥ 22॥
अर्थ:
हे प्रभु! आपसे ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों का ज्ञान प्राप्त होता है। आपसे ही समय के चार चरण उत्पन्न होते हैं। सम्पूर्ण संसार चार वर्णों से निर्मित है, और वह भी आप ही से उत्पन्न है। आप ही संपूर्ण सृष्टि के मूल कारण ब्रह्मा के भी स्रोत हैं।

अभ्यासनिगृहीतेन मनसा हृदयाश्रयम् ।
ज्योतिर्मयं विचिन्वन्ति योगिनस्त्वां विमुक्तये ॥ 23॥
अर्थ:
हे प्रभु! योगीजन अभ्यास द्वारा संयमित मन से आपके ज्योतिर्मय (प्रकाशस्वरूप) हृदय में स्थित स्वरूप का चिंतन करते हैं। वे आपकी खोज इस संसार के बंधनों से मुक्ति पाने के लिए करते हैं।

अजस्य गृह्णतो जन्म निरीहस्य हतद्विषः ।
स्वपतो जागरूकस्य याथार्थ्यं वेद कस्तव ॥ 24॥
अर्थ:
हे प्रभु! जो अजन्मा (अज), आसक्तिरहित (निरीह) और अपने शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, ऐसे आप जब जन्म धारण करते हैं, तो इसका वास्तविक रहस्य कौन जान सकता है?(Raghuvansham Sarg 10)

शब्दादीन्विषयान्भोक्तुं चरितुं दुश्चरं तपः ।
पर्याप्तोऽसि प्रजाः पातुमौदासीन्येन वर्तितुम् ॥ 25॥
अर्थ:
हे प्रभु! आप शब्द आदि सभी इंद्रिय-विषयों का भोग करने में समर्थ हैं, और कठिन से कठिन तप का पालन करने में भी सक्षम हैं।

बहुधाप्यागमैर्भिन्नाः पन्थानः सिद्धिहेतवः ।
त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया इवार्णवे ॥ 26॥
अर्थ:
यद्यपि विभिन्न आगम (शास्त्र) भिन्न-भिन्न मार्गों का वर्णन करते हैं, और वे सभी सिद्धि प्राप्ति के साधन हैं, परंतु वे अंततः आप में ही आकर समाहित हो जाते हैं, जैसे गंगा की अनेक धाराएँ अंत में सागर में मिल जाती हैं।

त्वय्यावेशितचित्तानां त्वत्समर्पितकर्मणाम् ।
गतिस्त्वं वीतरागाणामभूयःसंनिवृत्तये ॥ 27॥
अर्थ:
हे प्रभु! जिनका चित्त आप में पूर्णतः समर्पित है, जिनके समस्त कर्म आपको अर्पित हैं, जो समस्त राग-द्वेष से मुक्त हैं, उनके लिए आप ही परम गति (मोक्ष) हैं, जिससे पुनः इस संसार में लौटना न पड़े।

प्रत्यक्षोऽप्यपरिच्छेद्यो मह्यादिर्महिमा तव ।
आप्तवागनुमानाभ्यां साध्यं त्वां प्रति का कथा॥ 28॥
अर्थ:
हे प्रभु! यद्यपि आप प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हैं, फिर भी आपकी महिमा असीम और अपरिमेय है। जब प्रत्यक्ष रूप में ही आपका स्वरूप अनिर्वचनीय है, तो प्रमाणों (आप्तवचनों और अनुमान) के द्वारा आपको समझने की क्या चर्चा की जाए?

केवलं स्मरणेनैव पुनांसि पुरुषं यतः ।
अनेन वृत्तयः शेषा निवेदितफलास्त्वयि॥ 29॥
अर्थ:
हे प्रभु! सिर्फ आपके स्मरण (नाम-जप) मात्र से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। इसलिए अन्य सभी साधनाएँ और प्रवृत्तियाँ भी अंततः आपको समर्पित फल वाली ही होती हैं।

उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः ।
स्तुतिभ्यो व्यतिरिच्यन्ते दूराणि चरितानि ते ॥ 30॥
अर्थ:
हे प्रभु! जिस प्रकार समुद्र के रत्न अथवा सूर्य के तेज की सीमा नहीं होती, उसी प्रकार आपकी लीलाएँ (चरित्र) किसी भी स्तुति से कहीं अधिक उच्च और असीमित हैं।

अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किञ्चन विद्यते ।
लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः॥ 31॥
अर्थ:
हे प्रभु! आपके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो अभी तक प्राप्त न हुआ हो या जिसे आपको प्राप्त करना शेष हो। आपके जन्म और कर्म का एकमात्र कारण लोकों पर अनुग्रह (दया) करना ही है।(Raghuvansham Sarg 10)

महिमानं यदुत्कीर्त्य तव संह्रियते वचः ।
श्रमेण तदशक्त्या वा न गुणानामियत्तया॥ 32॥
अर्थ:
प्रभु! जब कोई आपकी महिमा का वर्णन करता है और उसका वचन (वाणी) रुक जाता है, तो वह या तो श्रम (थकान) के कारण होता है, या उसकी असमर्थता के कारण; न कि आपके गुणों की किसी सीमा के कारण।

इति प्रसादयामासुस्ते सुरास्तमधोक्षजम् ।
भूतार्थव्याहृतिः सा हि न स्तुतिः परमेष्ठिनः ॥ 33॥
अर्थ:
इस प्रकार देवताओं ने अदोक्षज (भगवान विष्णु) को प्रसन्न करने के लिए स्तुति की। किन्तु वह स्तुति वास्तव में परमेश्वर की प्रशंसा नहीं थी, बल्कि केवल उनके सत्यस्वरूप का वर्णन मात्र था।

तस्मै कुशलसंप्रश्नव्यञ्जितप्रीतये सुराः ।
भयमप्रलयोद्वेलादाचख्युर्नैरृतोदधेः॥ 34॥
अर्थ:
देवताओं ने भगवान विष्णु से कुशल-मंगल संबंधी प्रश्नों के माध्यम से उनकी प्रसन्नता प्रकट होते देखी। फिर उन्होंने नैरृतों (राक्षसों) के महासागर के समान अत्यधिक बढ़ते हुए संकट (रावण के आतंक) का भय उनके सामने व्यक्त किया।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ नीति शतक हिंदी में

अथ वेलासमासन्नशैलरन्ध्रानुवादिना ।
स्वरेणोवाच भगवान् परिभूतार्णवध्वनिः॥ 35॥
अर्थ:
तदनंतर, जिसका स्वर समुद्र की गूंजती हुई ध्वनि को भी पराजित कर रहा था, और जो समुद्र-तट के समीप स्थित पर्वत की गुफाओं में गूँज रहा था, ऐसे दिव्य स्वर में भगवान ने देवताओं को संबोधित किया।

पुराणस्य कवेस्तस्य वर्णस्थानसमीरिता ।
बभूव कृतसंस्कारा चरितार्थैव भारती ॥ 36॥
अर्थ:
उस प्राचीन (सनातन) कवि (भगवान) की वाणी वर्णों के उचित स्थान से प्रकट होकर वायुप्रवाह से प्रसारित हुई। वह (वाणी) पूर्णतया संस्कारित (पवित्र) थी और अपने उद्देश्य को सिद्ध करने वाली प्रतीत हुई।

बभौ सदशनज्योत्स्ना सा विभोर्वदनोद्गता ।
निर्यातशेषा चरणाद्गङ्गेवोर्ध्वप्रवर्तिनी॥ 37॥
अर्थ:
भगवान (विष्णु) के मुख से निकली हुई वह वाणी (भारती) चंद्रमा की किरणों के समान सुंदर प्रतीत हो रही थी। वह पूर्ण रूप से (अर्थात संपूर्ण तत्त्वों के साथ) मुख से प्रकट हुई और गंगा की तरह चरणों से निकलकर ऊपर की ओर प्रवाहित होती हुई प्रतीत हो रही थी।(Raghuvansham Sarg 10)

जाने वो रक्षसाक्रान्तावनुभावपराक्रमौ ।
अङ्गिनां तमसेवोभौ गुणौ प्रथममध्यमौ ॥ 38॥
अर्थ:
भगवान विष्णु कहते हैं की मैं जानता हूँ कि तुम (देवता लोग) राक्षसों द्वारा पीड़ित हो रहे हो। अनुभव (गंभीरता) और पराक्रम (साहस) – ये दोनों गुण जैसे अग्नि में प्रथम और मध्य स्थित धुएँ के समान हैं, वैसे ही तुम्हारे भीतर वर्तमान हैं।

विदितं तप्यमानं च तेन मे भुवनत्रयम् ।
अकामोपनतेनेव साधोर्हृदयमेनसा ॥ 39॥
अर्थ:
मैं जानता हूँ कि उस (रावण) के कारण संपूर्ण तीनों लोक (भूलोक, भुवर्लोक, और स्वर्लोक) अत्यंत पीड़ित हो रहे हैं, जैसे किसी पवित्र संत का हृदय अनिच्छा से प्राप्त हुए पाप (दुष्टता) से संतप्त हो जाता है।

कार्येषु चैककार्यत्वादभ्यर्थ्योऽस्मि न वज्रिणा ।
स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते ॥ 40॥
अर्थ:
कार्यों में स्वाभाविक एकत्व (संबंध) होने के कारण, मैं इन्द्र (वज्रधारी) द्वारा याचना किए जाने योग्य नहीं हूँ। क्योंकि जैसे वायु स्वयं ही अग्नि का सारथी बन जाता है, वैसे ही मैं भी धर्म की रक्षा के लिए स्वेच्छा से अवतरित होऊँगा।

स्वासिधारापरिहृतः कामं चक्रस्य तेन मे ।
स्थापितो दशमो मूर्धा लभ्यांश इव रक्षसा ॥ 41॥
अर्थ:
मेरे चक्र द्वारा (रावण का) सिर काटे जाने से बार-बार बचाया गया, क्योंकि उसने इसे वरदानस्वरूप प्राप्त किया था। इसलिए उसका दसवाँ सिर भी बचा रह गया, मानो कोई वस्तु राक्षसों (अधर्मियों) के लिए सहज उपलब्ध हो।

स्रष्टुर्वरातिसर्गात्तु मया तस्य दुरात्मनः ।
अत्यारूढं रिपोः सोढं चन्दनेनेव भोगिनः ॥ 42॥
अर्थ:
ब्रह्मा के वरदान के कारण उस दुरात्मा (रावण) की अत्यधिक बढ़ी हुई शक्ति को मैंने सहन किया, जैसे कोई साँप चंदन की शीतलता को सहन कर लेता है।

धातारं तपसा प्रीतं ययाचे स हि राक्षसः ।
दैवात्सर्गादवध्यत्वं मर्त्येष्वास्थापराङ्मुखः ॥ 43॥
अर्थ:
उस राक्षस (रावण) ने तपस्या करके धाता (ब्रह्मा) को प्रसन्न किया और वरदान माँगा। लेकिन (उसकी मूर्खता यह थी कि) उसने केवल देवताओं, दानवों और यक्षों से अवध्यता (अमरता) माँगी, किंतु मनुष्यों की ओर उसने ध्यान नहीं दिया।

सोऽहं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम् ।
करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरःकमलोच्चयम् ॥ 44॥
अर्थ:
इसलिए मैं दशरथ पुत्र (राम) के रूप में अवतार लेकर युद्धभूमि में बलि देने योग्य (राक्षसों के संहार के लिए) उपस्थित होऊँगा। और तीक्ष्ण बाणों से उस (रावण) के कमल के समान सुंदर सिरों के समूह को काट गिराऊँगा।(Raghuvansham Sarg 10)

अचिराद्यज्वभिर्भागं कल्पितं विधिवत्पुनः ।
मायाविभिरनालीढमादास्यध्वे निशाचरैः ॥ 45॥
अर्थ:
शीघ्र ही यज्ञ करने वाले (ऋषि-मुनि) विधिपूर्वक जो भाग (हवन सामग्री) अर्पित करेंगे,
उसे मायावी राक्षस बिना किसी बाधा के फिर से हड़प नहीं पाएंगे।

वैमानिकाः पुण्यकृतस्त्यजन्तु मरुतां पथि ।
पुष्पकालोकसंक्षोभं मेघावरणतत्पराः ॥ 46॥
अर्थ:
जो पुण्यात्मा देवताओं के विमान में स्थित हैं, वे अब वायुमार्ग में चलते हुए पुष्पों की ज्योति से उत्पन्न होने वाले संक्षोभ (चमक) को त्याग दें, क्योंकि अब मेघों की आड़ करने के लिए तत्पर हो जाना चाहिए।

मोक्ष्यध्वे स्वर्गबन्दीनां वेणीबन्धनदूषितान् ।
शापयन्त्रितपौलस्त्यबलात्कारकचग्रहैः ॥ 47॥
अर्थ:
(भगवान विष्णु कहते हैं:) तुम (देवगण) उन स्वर्ग में बंदी बनाए गए व्यक्तियों को मुक्त करोगे, जिनके केश (वेणी) बंधन से मलिन हो गए हैं और जो शाप के कारण रावण (पौलस्त्य) के बलात्कारी केश पकड़ने से पीड़ित हैं।

रावणावग्रहक्लान्तमिति वागमृतेन सः ।
अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधे ॥ 48॥
अर्थ:
जो (संसार) रावण के अत्याचार से पीड़ित है,” ऐसा कहकर उन्होंने (अपनी वाणी के अमृत के समान) वर्षा की, और फिर कृष्ण (काले) मेघ के समान अंतर्धान हो गए।

पुरहूतप्रभृतयः सुरकार्योद्यतं सुराः ।
अंशैरनुययुर्विष्णुं पुष्पैर्वायुमिव द्रुमाः ॥ 49॥
अर्थ:
इन्द्र (पुरहूत) आदि देवगण, जो देवकार्य (राक्षसों के विनाश) के लिए तत्पर थे, अपने अंशों से विष्णु के साथ चल पड़े, जैसे वायु के प्रवाह से वृक्षों के पुष्प उड़ने लगते हैं।

अथ तस्य विशांपत्युरन्ते कामस्य कर्मणः ।
पुरुषः प्रबभूवाग्नेर्विस्मयेन सहर्त्विजाम् ॥ 50॥
अर्थ:
जब राजा दशरथ (विशांपति) द्वारा किए गए पुत्रेष्टि यज्ञ का कार्य समाप्त हुआ, तो यज्ञाग्नि से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ, जिसे देखकर याजकगण विस्मित हो गए।

हेमपात्रगतं दोर्भ्यामादधानः पयश्चरुम् ।
अनुप्रवेशादाद्यस्य पुंसस्तेनापि दुर्वहम् ॥ 51॥
अर्थ:
उस दिव्य पुरुष ने अपने दोनों हाथों से सोने के पात्र में रखा हुआ दिव्य पायस (खीर) धारण किया, जिसका पान करने से वह पुरुष, जो सर्वप्रथम इसे ग्रहण करेगा, अत्यंत बलशाली और असाधारण होगा।

प्राजापत्योपनीतं तदन्नं प्रत्यग्रहीन्नृपः ।
वृषेव पयसां सारमाविष्कृतमुदन्वता ॥ 52॥
अर्थ:
वह दिव्य भोजन (पायस), जो प्रजापति (ब्रह्मा) के द्वारा प्रेरित (अग्निदेव द्वारा भेजा गया) था, राजा दशरथ ने ग्रहण किया। जिस प्रकार बैल (वृषभ) समुद्र द्वारा उत्पन्न दूध का सार ग्रहण करता है, उसी प्रकार दशरथ ने उस दिव्य खीर को स्वीकार किया।(Raghuvansham Sarg 10)

अनेन कथिता राज्ञो गुणास्तस्यान्यदुर्लभाः ।
प्रसूतिं चकमे तस्मिंस्त्रैलोक्यप्रभवोऽपि यत् ॥ 53॥
अर्थ:
इस (पायस प्रदान करने की) घटना से राजा दशरथ के वे गुण प्रकट होते हैं, जो अन्य लोगों के लिए दुर्लभ हैं। इसी कारण त्रैलोक्य के प्रभु (भगवान विष्णु) ने भी उनके (दशरथ के) यहाँ अवतार लेने की इच्छा की।

स तेजो वैष्णवं पत्न्योर्विभेजे चरुसंज्ञितम् ।
द्यावापृथिव्योः प्रत्यग्रमहर्पतिरिवातपम् ॥ 54॥
अर्थ:
राजा दशरथ ने उस वैष्णव तेज (पायस) को अपनी पत्नियों में बाँट दिया, जिसे ‘चरु’ कहा जाता था। यह वैसे ही था जैसे सूर्य अपने नये प्रकाश को आकाश (द्यौः) और पृथ्वी में समान रूप से वितरित करता है।

अर्चिता तस्य कौसल्या प्रिया केकयवंशजा ।
अतः संभावितां ताभ्यां सुमित्रामैच्छदीश्वरः ॥ 55॥
अर्थ:
राजा दशरथ ने पहले अपनी अग्रजा (प्रमुख रानी) कौसल्या को सम्मानपूर्वक चरु प्रदान किया और फिर अपनी प्रिय रानी कैकयी (जो केकयराज की पुत्री थीं) को दिया। इसके बाद, जो सम्मानपूर्वक शेष बचा था, वह उन्होंने सुमित्रा को दिया।

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ अध्यात्म रामायण

ते बहुज्ञस्य चित्तज्ञे पत्नौ पत्युर्महीक्षितः ।
चरोरर्धार्धभागाभ्यां तामयोजयतामुभे ॥ 56॥
अर्थ:
राजा दशरथ की दोनों पत्नियाँ, जो बहुज्ञ (बुद्धिमती) और चित्तज्ञ (पति के मन को समझने वाली) थीं, उन्होंने सुमित्रा को शेष चरु का आधा-आधा भाग देकर उसमें सम्मिलित कर लिया।

सा हि प्रणयवत्यासीत्सपत्न्योरुभयोरपि ।
भ्रमरी वारणस्येव मदनिस्यन्दरेखयोः ॥ 57॥
अर्थ:
सुमित्रा दोनों ही सह-पत्नियों (कौसल्या और कैकेयी) के प्रति प्रेमभाव रखने वाली थीं, जिस प्रकार मदोन्मत्त गजराज (हाथी) के दोनों गण्डस्थलों (मदमुक्त धाराओं) पर भँवरा (भ्रमरी) समान रूप से मंडराता है।

ताभिर्गर्भः प्रजाभूत्यै दध्रे देवांशसंभवः ।
सौरीभिरिव नाडीभिरमृताख्याभिरम्मयः ॥ 58॥
अर्थ:
उन (रानियों) के गर्भ में देवांश से उत्पन्न वह तेजस्वी गर्भ प्रजा की वृद्धि के लिए धारण किया गया, जिस प्रकार शरीर में स्थित अमृतमयी सूर्य-नाड़ियों द्वारा जीवन का पोषण होता है।

सममापन्नसत्त्वास्ता रेजुरापाण्डुरत्विषः ।
अन्तर्गतफलारम्भाः सस्यानामिव संपदः ॥ 59॥
अर्थ:
वे (तीनों रानियाँ) समान रूप से संतुलित एवं तेजस्विनी हो गईं, और गर्भधारण के प्रभाव से उनकी कान्ति उज्ज्वल हो उठी। वे ठीक वैसे ही दीप्त हो उठीं, जैसे अन्दर फल धारण कर लेने पर फसलें (खेत की फसलें) लहलहा उठती हैं।(Raghuvansham Sarg 10)

गुप्तं ददृशुरात्मानं सर्वाः स्वप्नेषु वामनैः ।
जलजासिकदाशार्ङ्गचक्रलाञ्छितमूर्तिभिः ॥ 60॥
अर्थ:
वे सभी (रानियाँ) स्वप्न में अपने भीतर छिपे (गर्भस्थ) को वामन रूप में देख रही थीं, जिनकी दिव्य मूर्तियाँ कमल, तलवार, गदा, धनुष और चक्र के चिन्हों से युक्त थीं।

हेमपक्षप्रभाजालं गगने च वितन्वता ।
उह्यन्ते स्म सुपर्णेन वेगाकृष्टपयोमुचा ॥ 61॥
अर्थ:
स्वर्ण (हेम) के समान चमकते पंखों की प्रभा से आकाश में प्रकाश फैलाते हुए, तेज गति से उड़ते हुए गरुड़ (सुपर्ण) द्वारा जल-वर्षा करने वाले मेघ आकाश में खींचे जा रहे थे।

बिभ्रत्या कौस्तुभन्यासं स्तनान्तरविलम्बितम् ।
पर्युपास्यन्त लक्ष्म्या च पद्मव्यजनहस्तया ॥ 62॥
अर्थ:
अपने उरःस्थल (वक्षःस्थल) के मध्य में सुशोभित और लटकते हुए कौस्तुभ मणि को धारण करते हुए, भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी द्वारा सेवा किए जा रहे थे, जो एक हाथ में कमल और दूसरे हाथ में चंवर (व्यजन) लिए उनकी सेवा में तत्पर थीं।

कृताभिषेकैर्दिव्यायां त्रिस्रोतसि च सप्तभिः ।
ब्रह्मर्षिभिः परं ब्रह्म गृणद्भिरुपतस्थिरे ॥ 63॥
अर्थ:
गंगा (त्रिस्रोतस्) के दिव्य जल में स्नान कर चुके सातों ब्रह्मर्षियों ने, परम ब्रह्म (भगवान विष्णु) का स्तवन करते हुए उनकी उपासना की।

ताभ्यस्तथाविधान्स्वप्नाञ्छ्रुत्वा प्रीतो हि पार्थिवः ।
मेने परार्ध्यमात्मानं गुरुत्वेन जगद्गुरोः ॥ 64॥
अर्थ:
उन पत्नियों (रानियों) से ऐसे दिव्य स्वप्नों को सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वयं को जगद्गुरु (भगवान विष्णु) के गुरुत्व (महत्व) के कारण परम मूल्यवान (परार्ध्य) माना।

विभक्तात्मा विभुस्तासामेकः कुक्षिष्वनेकधा ।
उवास प्रतिमाचन्द्रः प्रसन्नानामपामिव ॥ 65॥
अर्थ:
वह सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु, यद्यपि एक ही थे, फिर भी अनेक रूपों में विभक्त होकर उन (राजा दशरथ की) पत्नियों के गर्भों में स्थित हुए, जिस प्रकार निर्मल जल (शांत जलाशय) में अनेक प्रतिबिंबों के रूप में एक ही चंद्रमा दिखता है।

अथाग्र्यमहिषी राज्ञः प्रसूतिसमये सती ।
पुत्रं तमोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरिवौषधिः ॥ 66॥
अर्थ:
फिर राजा दशरथ की प्रधान रानी कौसल्या ने एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जो संसार के अज्ञान व अधर्म रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले थे। यह जन्म दिव्यता से परिपूर्ण था, जैसे रात्रि में औषधियाँ चंद्रकिरणों से प्रकाशित होती हैं।

राम इत्यभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः ।
नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममङ्गलम् ॥ 67॥
अर्थ:
उनके (राजकुमार के) अति मनोहर (आकर्षक) स्वरूप को देखकर, गुरु (वशिष्ठ) ने उन्हें ‘राम’ यह अत्यंत सुखदायक नाम प्रदान किया, जो समस्त जगत के लिए प्रथम (सर्वोत्तम) मंगल का प्रतीक बन गया।

रघुवंशप्रदीपेन तेनाप्रतिमतेजसा ।
रक्षागृहगता दीपाः प्रत्यादिष्टा इवाभवन् ॥ 68॥
अर्थ:
रघुवंश के उस अनुपम तेजस्वी (राम) प्रकाशपुंज के प्रकट होने से, रक्षा-कक्ष (रक्षागृह) में स्थित दीप ऐसे प्रतीत हुए मानो वे निष्प्रभ कर दिए गए हों।

शय्यागतेन रामेण माता शातोदरी बभौ ।
सैकताम्भोजबलिना जाह्नवीव शरत्कृशा ॥ 69॥
अर्थ:
शय्या पर लेटे हुए राम के कारण उनकी माता कौसल्या क्षीण उदर वाली (शातोदरी) प्रतीत हो रही थीं, जिस प्रकार शरद ऋतु में जल के ह्रास से पतली हुई गंगा, किनारे के कमल-पुष्पों से युक्त होती है।(Raghuvansham Sarg 10)

कैकेय्यास्तनयो जज्ञे भरतो नाम शीलवान् ।
जनयित्रीमलंचक्रे यः प्रश्रय इव श्रियम् ॥ 70॥
अर्थ:
कैकेयी का एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम “भरत” रखा गया, जो स्वभाव से ही शीलवान (सद्गुणी) था। जिस प्रकार विनम्रता (प्रश्रय) लक्ष्मी (श्री) को शोभित करती है, उसी प्रकार उसने अपनी माता को सम्मानित किया।

सुतौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्रा सुषुवे यमौ ।
सम्यगाराधिता विद्या प्रबोधविनयाविव ॥ 71॥
अर्थ:
सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया – लक्ष्मण और शत्रुघ्न, जो यमज (जुड़वा) थे। वे उसी प्रकार थे, जैसे सम्यक् (सही प्रकार से) आराधित (पूजी गई) विद्या से प्रबोधन (ज्ञान) और विनय (विनम्रता) उत्पन्न होते हैं।

निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत् ।
अन्वगादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम् ॥ 72॥
अर्थ:
जब पुरुषोत्तम (भगवान श्रीराम) पृथ्वी पर आए, तब संपूर्ण जगत निर्दोष (पाप-मुक्त) हो गया और सबके सद्गुण प्रकट हो गए। ऐसा प्रतीत हुआ मानो स्वर्ग स्वयं ही उस पुरुषोत्तम का अनुसरण करते हुए पृथ्वी पर आ गया हो।

तस्योदये चतुर्मूर्तेः पौलस्त्यचकितेश्वराः ।
विरजस्कैर्नभस्वद्भिर्दिश उच्छ्वसिता इव ॥ 73॥
अर्थ:
जब चतुर्मूर्ति (भगवान श्रीराम) का उदय हुआ (अर्थात् उनका जन्म हुआ), तब पौलस्त्य (राक्षसों) के स्वामी भयभीत हो गए। स्वच्छ और निर्मल वायुओं (समीर) के बहने से दिशाएँ ऐसे प्रतीत हो रही थीं मानो वे हर्ष और उत्साह में गहरी सांसें ले रही हों।

कृशानुरपधूमत्वात्प्रसन्नत्वात्प्रभाकरः ।
रक्षोविप्रकृतावास्तामपविद्धशुचाविव ॥ 74॥
अर्थ:
सूर्य, जो कि बिना धुएँ के जलने वाली अग्नि के समान तेजस्वी और निर्मल था, राक्षसों (रावण और उसके वंश) की पीड़ा से मुक्त होकर ऐसे प्रतीत हो रहा था, मानो वह किसी पवित्र कर्म के द्वारा अपवित्रता से शुद्ध कर दिया गया हो।

दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्षणं राक्षसश्रियः ।
मणिव्याजेन पर्यस्ताः पृथिव्यामश्रुबिन्दवः ॥ 75॥
अर्थ:
रावण के मुकुटों से उसी क्षण, राक्षसों के ऐश्वर्य के प्रतीक रत्न, अश्रु-बिंदुओं के समान पृथ्वी पर बिखर गए।

पुत्रजन्मप्रवेश्यानां तूर्याणां तस्य पुत्रिणः ।
आरम्भं प्रथमं चक्रुर्देवदुन्दुभयो दिवि ॥ 76॥
अर्थ:
उस पुत्रवान राजा के यहाँ पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में नगर के वाद्य-यंत्रों के बजने से पहले ही, स्वर्ग में देवताओं के दुन्दुभि (आकाशीय नगाड़े) सबसे पहले बज उठे।

संतानकमयी वृष्टिर्भवने चास्य पेतुषी ।
सन्मङ्गलोपचाराणां सैवादिरचनाऽभवत् ॥ 77॥
अर्थ:
राजा दशरथ के भवन में संतानों के जन्म के समय संतानकमयी (सुगंधित पुष्पों एवं औषधियों से युक्त) वर्षा हुई। और यही शुभ मंगल उपचारों (शुभ कर्मों) की आरंभिक रचना बनी।(Raghuvansham Sarg 10)

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ श्री राम स्तुति

कुमाराः कृतसंस्कारास्ते धात्रीस्तन्यपायिनः ।
आनन्देनाग्रजेनेव समं ववृधिरे पितुः ॥ 78॥
अर्थ:
वे सभी कुमार (राजकुमार) उचित संस्कारों से सुशोभित होकर, स्तनपान करते हुए, अपने ज्येष्ठ भ्राता (राम) के आनंद से युक्त होकर, पिता (राजा दशरथ) के स्नेह में समान रूप से बढ़ने लगे।

स्वाभाविकं विनीतत्वं तेषां विनयकर्मणा ।
मुमूर्च्छ सहजं तेजो हविषेव हविर्भुजाम् ॥ 79॥
अर्थ:
उन राजकुमारों का स्वाभाविक विनम्रता (विनीतता), विनयपूर्वक किए गए कर्मों द्वारा और अधिक विकसित हुआ। जैसे हविष्यान्न (यज्ञ में दी जाने वाली आहुति) से अग्निदेव का तेज बढ़ता है, वैसे ही उनका सहज (प्राकृतिक) तेज भी उत्तरोत्तर प्रबल होता गया।

परस्परविरुद्धास्ते तद्रघोरनघं कुलम् ।
अलमुद्योतयामासुर्देवारण्यमिवर्तवः ॥ 80 ॥
अर्थ:
राजकुमारों की विनम्रता जन्मजात थी, परंतु उनके उत्तम कर्मों से यह गुण और भी विकसित हुआ। जैसे यज्ञ में आहुति देने से अग्नि की ज्वाला अधिक तेजस्वी होती है, वैसे ही उनकी स्वाभाविक प्रतिभा और तेज कर्मों के प्रभाव से और अधिक निखर उठा।

समानेऽपि हि सौभ्रात्रे यथेभौ रामलक्ष्मणौ ।
तथा भरतशत्रुघ्नौ प्रीत्या द्वन्द्वं बभूवतुः ॥ 81॥
अर्थ:
यद्यपि चारों भाइयों में समान रूप से भ्रातृ-प्रेम (भाईचारा) था, फिर भी जैसे राम और लक्ष्मण एक युगल (जोड़ी) के रूप में प्रसिद्ध हुए, वैसे ही भरत और शत्रुघ्न भी अत्यंत प्रेमभाव से एक-दूसरे के प्रति समर्पित थे।

तेषां द्वयोर्द्वयोरैक्यं बिभिदे न कदाचन ।
यथा वायुर्विभावस्वोर्यथा चन्द्रसमुद्रयोः ॥ 82॥
अर्थ:
उन दोनों जोड़ों (राम-लक्ष्मण और भरत-शत्रुघ्न) के बीच का अखंड एकत्व (अटूट एकता) कभी भी विच्छिन्न नहीं हुआ, जैसे वायु और अग्नि का संबंध अटूट होता है, और जैसे चंद्रमा और समुद्र के बीच प्राकृतिक संबंध बना रहता है।

ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च ।
मनो जह्रुर्निदाघान्ते श्यामाभ्रा दिवसा इव ॥ 83॥
अर्थ:
वे सभी राजकुमार (राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न) अपनी तेजस्विता और विनम्रता के कारण प्रजा के प्रिय बन गए, जैसे ग्रीष्म ऋतु के अंत में वर्षा ऋतु के मेघयुक्त दिन लोगों को आनंद देते हैं।

स चतुर्धा बभौ व्यस्तः प्रसवः पृथिवीपतेः ।
धर्मार्थकाममोक्षाणामवतार इवाङ्गवान् ॥ 84॥
अर्थ:
राजा दशरथ का वह प्रसव (संतान जन्म) चार भागों में विभाजित होकर प्रकट हुआ, जैसे कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के अवतार स्वरूप।

गुणैराराधयामासुस्ते गुरुं गुरुवत्सलाः ।
तमेव चतुरन्तेशं रत्नैरिव महार्णवाः ॥ 85॥
अर्थ:
वे (राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न) गुरु के प्रति अत्यंत स्नेही थे और अपने गुणों से गुरु की आराधना (सेवा) करते थे। जैसे महा-सागर (समुद्र) अपने रत्नों से चतुरंतेश (सर्वव्यापी परमेश्वर) की सेवा करता है, वैसे ही वे अपने श्रेष्ठ गुणों से गुरु की सेवा में तत्पर रहते थे।

सुरगज इव दन्तैर्भग्नदैत्यासिधारै – र्नय इव पणबन्धव्यक्तयोगैरुपायैः ।
हरिरिव युगदीर्घैर्दोर्भिरंशैस्तदीयैःपतिरवनिपतीनांतैश्चकाशे चतुर्भिः ॥ 86॥
अर्थ:
राजकुमार (राम) चार भुजाओं से चारों दिशाओं में ऐसे प्रकाशित हुए जैसे इन्द्र का ऐरावत हाथी अपने प्रबल दाँतों से दैत्यों के तीक्ष्ण तलवारों को तोड़ देता है। जैसे राजनीति (नयशास्त्र) अपने कुशल उपायों से जटिल सौदों की गुत्थियों को सुलझा देती है। जैसे भगवान विष्णु अपनी दीर्घ बाहुओं से विश्व का पालन करते हैं। वैसे ही राजा दशरथ के चारों पुत्र (राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न) अपने गुणों से पृथ्वी के सम्राटों में अद्वितीय रूप से चमक रहे थे।

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ रामावतारू नाम दशमः सर्गः ॥१०॥
अर्थ:
इस प्रकार महाकवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य “रघुवंश” के दशवें सर्ग “रामावतार” का समापन हुआ।(Raghuvansham Sarg 10)

 

(Raghuvansham Sarg 10)कथा सार:

यह सर्ग राजा दशरथ के यज्ञ से प्रारंभ होता है। राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ आयोजित किया, क्योंकि उन्हें संतान सुख की प्राप्ति नहीं हो रही थी। यह यज्ञ आशीर्वाद स्वरूप परिणाम लाया और इसके फलस्वरूप दशरथ को चार पुत्रों का वरदान मिला – राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, और भरत। राजा दशरथ के यज्ञ का यह परिणाम धरती पर धर्म के संस्थापक के रूप में राम के अवतार को निर्धारित करता है।(Raghuvansham Sarg 10)

राम का जन्म माता कौसल्या से हुआ, और साथ ही लक्ष्मण, शत्रुघ्न, और भरत का भी जन्म हुआ। इस विशेष जन्म के साथ ही सम्पूर्ण राज्य में खुशहाली का वातावरण बन गया। भगवान राम के जन्म से यह संकेत मिलता है कि वे धर्म, सत्य और आदर्श के संस्थापक के रूप में अवतरित हो रहे थे। इस सर्ग में भगवान राम के जन्म को एक महत्वपूर्ण धार्मिक घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

राम का रूप, गुण, और कर्तव्य में संपूर्ण विश्व के लिए आदर्श थे। वे धार्मिक, नैतिक और मानवीय गुणों के पूर्ण प्रतीक थे। उनका जन्म एक विशेष उद्देश्य के लिए हुआ था— धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश। उनके जीवन का प्रत्येक कदम एक नवीन आदर्श प्रस्तुत करता है।

राम के साथ लक्ष्मण, जो उनके प्रिय भाई थे, भी साथ में थे। लक्ष्मण का जीवन भी राम के साथ-साथ धर्म और कर्तव्य के प्रति पूर्ण निष्ठा का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इन चारों भाईयों का पालन-पोषण बहुत ही कुशल तरीके से हुआ और उनका जीवन हर दृष्टिकोण से परिपूर्ण था। उनका अनुशासन, शिक्षा, और कार्यकलापों में कोई कमी नहीं थी, जिसके कारण वे समाज में आदर्श रूप से प्रस्तुत हुए।

इसके अलावा, इस सर्ग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि राम के जन्म से न केवल राज्य में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में एक नये धर्म की शुरुआत हो रही थी। यह विश्व में सद्गुणों की पुनःस्थापना और अधर्म के विनाश का प्रतीक था। भगवान राम का जन्म केवल एक दर्शन या चमत्कार नहीं था, बल्कि एक संपूर्ण धार्मिक और सामाजिक बदलाव का प्रारंभ था।(Raghuvansham Sarg 10)

इस सर्ग का मुख्य उद्देश्य भगवान राम के जन्म के साथ जुड़ी घटनाओं और उनके जीवन के पहले पहलू को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना था। राम के जन्म के साथ ही यह संकल्प लिया गया था कि वे धर्म की पुनर्स्थापना करेंगे और संसार को सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देंगे।

इस प्रकार, इस सर्ग में भगवान राम के जन्म, उनके उद्देश्य और उनके अद्वितीय गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है। राम का जन्म संसार के लिए एक महान घटना थी, जो आदर्शों, धर्म, और सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश देती है।

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