Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg in Hindi
वाल्मीकिकृत रामायण की कथा अयोध्यानगरी में महाराजा दशरथ के राज्य से प्रारम्भ होती है और श्री राम के पुत्रों तथा भाईयों के वृत्तान्त के उल्लेख के साथ समाप्त होती है। परन्तु महाकवि कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य (Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg) की कथा श्री राम के पूर्वज राजा दिलीप के वर्णन से प्रारम्भ होती है तथा विषयासक्त कामुक राजा अग्निवर्ण की मृत्यु के वर्णन के साथ अकस्मात् ही समाप्त हो जाती है।
महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य रघुवंश भगवान श्री राम के वंश का वर्णन करता है। महाकाव्य रघुवंश में कवि कालिदास ने 19 सर्ग में श्री राम के वंश के 37 राजाओ का उल्लेख किया है। रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग में श्री राम के पूर्वज राजा दिलीप का वर्णन किया गया है। इस पोस्ट में महाकाव्य रघुवंश के प्रथम सर्ग को अर्थ सहित दिया गया है।
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?
॥ श्रीः रघुवंशम् ॥
सनातनकविरेवाप्रसादद्विवेदिसंपादित
महाकविकालिदासकृतं गभीरमहाकाव्यं
॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः ॥
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ 1 ॥
अर्थ:
मैं वाणी और अर्थ की सिद्धिके निमित्त वाणी और अर्थ की समान मिलें- हुए जगत् के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूं ॥ 1 ॥
क सूर्य्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः ॥
तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ 2 ॥
अर्थ:
कहां तौ सूर्य से उत्पन्न हुआ वंश और कहां थोडे बुद्धिव्यवहार वाला मैं मूर्ख- तासे कठिनता से तरने योग्य समुद्रको फूंसकी नावके सहारे उतरना चाहता हूं ॥ 2 ॥
मंदः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् ॥
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुरिव वामनः ॥ 3 ॥
अर्थ:
कवीश्वरों के यशका चाहनेवाला मैं क्षुद्रबुद्धि हंसीको प्राप्त हूंगा. जैसे लंबे ( पुरुष ) के हाथ लगने योग्य फलकी ओर लोभसे ऊंची वाहें उठानेवाला बौना ॥3॥
अथ वा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वसूरिभिः ॥
मणौ वज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः ॥ 4 ॥
अर्थ:
थ वा पहले पंडितोंके वाग्द्वारा ( वचनरूपीदरवाजा ) किये हुए इस रघु वंश में मेरी गति हीरे से छेदन की हुई मणि में डोरे की समान है ॥ 4 ॥
सोऽहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम् ॥
आसमुद्रक्षितीशानामानांकरथवर्त्मनाम् ॥ 5॥
अर्थ:
सो मैं जन्म से लेकर शुद्धों का फलके प्राप्त होनेतक कर्म करने वालों का समु- तक पृथ्वी के अधिकारियों का स्वर्गतक रथके मार्ग वालोंका ॥ 5 ॥
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यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामार्चितार्थिनाम् ॥
यथाऽपराधदण्डानां यथाकालप्रबोधिनाम् ॥ 6 ॥
अर्थ:
विधिपूर्वक अग्निमें आहुति देनेवालोंका कामनाअनुसार याचकोंको (द्रव्या- से) पूजन करने वालोंका अपराधके अनुसार दण्ड देनेवालों का उचित समय (ऊषा कालमें ) जागनेवालोंका ॥ 6 ॥
त्यागाय संभृतार्थाना सत्याय मितभाषिणाम् ॥
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥ 7 ॥
अर्थ:
दान करने के वास्ते धन इकट्ठा करनेवालोंका, सत्य बोलने के निमित्त थोडा बोलने वालोंका कीर्ति के निमित्त जीत चाहने वालों का पुत्र के वास्ते विवाह करने वालोंका ॥ 7 ॥
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ॥
वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ 8 ॥
अर्थ:
लडकपन में विद्या पढने वालों का, युवा व्यवस्थामें भोग की इच्छा करने वालो का, बुढापे में मुनिवृत्ति होने वालों का, अन्तमें योगद्वारा शरीरत्याग करने वालों का ॥ 8॥
रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवाग्विभवोऽपि सन् ॥
तद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रणोदितः ॥ 9 ॥
अर्थ:
( इसप्रकार से) रघुवंशियों का वंश वाणी का प्रताप थोडा होनेसे भी कानमें . प्राप्त हुए उनके गुणों से चपलता की ओर प्रेरणा किया हुआ मैं वर्णन करता हूं ॥ 9 ॥
तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः ॥
‘हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥ 10 ॥
अर्थ:
उस (वंश) को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले संत ही योग्य ‘हैं, सोने की पवित्रता और कलौंच अग्निही में देखी जाती है ॥ 10 ॥
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
“वैवस्वत मनुर्नाम माननीयो मनीषिणाम् ॥
आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव ॥ 11॥
अर्थ:
वैवस्वत नाम मनु विद्वानों का पूजनीय राजाओं में प्रथम हुआ, जैसे छन्दो में ॐ कार ॥ 11 ॥
तदन्वये शुद्धिमति प्रसृतः शुद्धिमत्तरः ॥
दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव ॥ 12 ॥
अर्थ:
उसके पवित्र वंश में दिलीप नाम अति पवित्र राजेन्द्र ने जन्म लिया जैसे क्षीरसागर में से चन्द्रमाने ॥ 12 ॥
व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः ॥
आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रितः ॥ 13 ॥
अर्थ:
बडी चौंडी छाती वाला बैलकेसे ( ऊंचे ) कंधौवाला शालकी समान लम्बी वडी बहो वाला अपने कार्य में समर्थ मानो क्षत्रियों का धर्म देह धारण किये हुए हैं ॥ 13 ॥
सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोभिभाविना ॥
स्थितः सर्वोन्नतेनोर्वी क्रान्त्वा मेरुरिवात्मना ॥ 14 ॥
अर्थ:
सबसे अधिक वलवान् सबसे अधिक तेजस्वी सबसे ऊंचे शरीर से पृथ्वी कों दबा कर सुमेश्की नाई आक्रमण कर बैठा ॥ 14 ॥
आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः ॥
आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृशोदयः ॥ 15 ॥
अर्थ:
सूरत की समान बुद्धि वाला बुद्धि की संमान शास्त्र का अभ्यास करने वाला शास्त्र अभ्यास के समान उद्योग करने वाला आरम्भ की समान उदय वाला ॥ 15 ॥
भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम् ॥
अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरतैरिवार्णवः ॥ 16 ॥
अर्थ:
वह भयंकर और मनोहर राजगुणों से कर्मचारियों ( सेवकादि ) को दूर रखने वाला और धोरेबुलाने वाला भी हुआ जैसे (नाके आदि) जंतुओंसे और रत्नोंसे समुद्र । अर्थात् समुद्र मगरमच्छादिकोंके डरसे कोई नहीं घुस सक्ता और रत्नों के लालच से घुसते भी हैं ऐसेही राजाके पास जानेसे लोग डरते भी थे और जाते भी थे ॥ 16 ॥
रेखामात्रमपि क्षुण्णादामनोर्वर्त्मनः परम् ॥
न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः ॥ 17 ॥
अर्थ:
उस शिक्षा करने वाले की प्रजा मनुके मार्ग अभ्यास की हुई रथ के पहिये की भांति चलने वाली रेखामात्र भी बाहर नहीं गई ॥ 17 ॥
प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् ॥
सहस्रगुणमुत्त्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ॥ 18 ॥
अर्थ:
प्रजाओं के कल्याण करने के निमित्त ही उनसे उसने करलिया जैसे सूर्य हजार गुणा बरसाने ही को ( पृथ्वीसे ) जल लेता है ॥ 18 ॥
सेनापरिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनम् ॥
शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिर्वी धनुषि चातता ॥ 19 ॥
अर्थ:
सेनासे घिरेहुए उसके प्रयोजन के साधन दोही थे शास्त्र में तीक्ष्ण बुद्धि और धनुष चढी हुई प्रत्यंचा ( रोदा ) ॥ 19 ॥
तस्य संवृतमन्त्रस्य गूढाकारेङ्गितस्य च ॥
फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव ॥ 20 ॥
अर्थ:
उस गुप्त भेद रखने वाले तथा बाहर भीतर के ( इंद्रियोंके ) भावों के चिह्न छिपाने वाले के काम पूर्वजन्म के संस्कार की तरह फलों से जाने जाते थे ॥ 20 ॥
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुरः ॥
अगृध्नुराददे सोर्थमसक्तः सुखमन्वभूत् ॥ 21 ॥
अर्थ:
वह (राजा) निर्भय हो अपनी रक्षा करता अरोगी हो धर्म को भजता लोभको त्याग वनको ग्रहण करता आसक्तिरहित हो सुखका भोग करतताथा ॥21॥
ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः ॥
गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ॥ 22 ॥
अर्थ:
ज्ञान में मौन सामर्थ्य होने में क्षमा दान करने में बडाई की इच्छा न करना गुणों के सम्बन्ध से उसके गुण सहोदर (साथके जन्मे ) सेथे ॥ 22 ॥
अनाकृष्टस्य विषयैर्विद्यानां पारदृश्वनः ॥
तस्य धर्मरतेरासीद्धत्वं जरसा विना ॥ 23 ॥
अर्थ:
उसे जिस विषयोंने अपनी ओर न खँचा, विद्याओं के पार दीखने वाले को धर्म में रुचि रखने वाले को बीना वृद्धावस्था प्राप्त हुए बुढाई हुई ॥ 23 ॥
प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि ॥
स पिता पितरस्तासा केवलं जन्महेतवः ॥ 24 ॥
अर्थ:
वह नीति सिखलाने, रक्षा करने और पालनेसे प्रजाओं का पिता था उनके माता पिता केवल जन्म देनेकेही कारण थे ॥ 24 ॥
स्थित्यै दण्डयतो दंड्यान्परिणेतुः प्रसूतये ॥
अर्थकामौ तस्यास्ता धर्म एव मनीषिणः ॥ 25 ॥
अर्थ:
उस अपराधियों को मर्यादा में रखने के निमित्त दण्ड देने वाले के और सन्तान के निमित्त व्याह करनेवाले बुद्धिमान के अर्थ और कामभी धर्म ही थे || 25 ॥
दुहोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् ॥
संपद्विनिमयेनोभो दधतुर्भुवनद्वयम् ॥ 26 ॥
अर्थ:
उसने यज्ञ के निमित्त पृथ्वी को दुहा और इन्द्र ने धान्य के निमित्त आकाश को दुहा (अर्थात् वह यज्ञ करता इन्द्र जल वरसाते ) एक दूसरे को बदला देकर दोनोंने दोनों लोकोंको पाला ॥ 26 ॥
न किलानुययुस्तस्य राजानो रक्षितुर्यशः ॥
व्यावृत्ता यत्परस्वेभ्यः श्रुतौ तस्करता स्थिता ॥ 27 ॥
अर्थ:
उस रक्षा करने वाले के यश को और राजा न पहुंचसके क्योंकि दूसरे के धनसे निकली हुई चोरी नाममें अथवा कानमें रही ॥ 27 ॥
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
द्वेष्यपि संमतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम् ॥
त्याज्यो दुष्टः प्रियोप्यासीदंगुलीवोरगक्षता ॥ 28 ॥
अर्थ:
रोगी को (कडवी ) औषधी की समान सज्जनवैरी भी उसको प्रिय था सांप काटी उंगली की तरह दुष्ट प्यारा भी त्यागने योग्य था ॥ 28 ॥
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तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना ॥
तथा हि सर्वे तस्यासन्परार्थैकफला गुणाः ॥ 29॥
अर्थ:
मानों उसको विधाताने पंचमहाभूतों ( पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश ) की समाधि से बनाया था इसी कारण उसके सब गुण केवल पराये अर्थका फल देनेवाले हुए ॥ 29 ॥
स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् ॥
अनन्यशासनामुर्वी शशासैकपुरीमिव ॥ 30 ॥
अर्थ:
वह समुद्र के किनारे के परकोटे वाली समुद्र की खाई वाली जिसमें दूसरे का शासन नहीं ऐसी पृथ्वी को एक पुरी की समान मर्यादा में रखता था ॥ 30 ॥
तस्य दाक्षिण्यरूढेन नाम्ना मगधवंशजा ॥
पत्नी सुदक्षिणेत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा ॥ 31 ॥
अर्थ:
उसकी धर्मपत्नी थी सुदक्षिणा, मगधवंश में उत्पन्न वह दाक्षिण्य के कारण वस्तुतः सुदक्षिणा थी। वह पूरक भी थी जैसे यज्ञ की दक्षिणा ॥ 31 ॥
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
कलत्रवन्तमात्मानमवरोधे महत्यपि ।
तया मेने मनस्विन्या लक्ष्म्या च वसुधाधिपः ॥ 32 ॥
अर्थ:
उस (दिलीप) का रनिवास तो बहुत बड़ा था, किन्तु वह स्वयं को कलत्रवान् मानता था उस मनस्विनी सुदक्षिणा से साथ ही राजा होने के कारण लक्ष्मी से।
तस्यामात्मानुरूपायामात्मजन्मसमुत्सुकः ।
विलम्बितफलैः कालं स निनाय मनोरथैः ॥ 33 ॥
अर्थ:
दिलीप चाहता था अपनी उसी अनुरूप पत्नी से पुत्रसंतति । उसके इस मनोरथ के सफल होने में लम्बी अवधि बीत गई।
सन्तानार्थाय विधये स्वभुजादवतारिता ।
तेन धूर्जगतो गुर्व्वी सचिवेषु निचिक्षिपे ॥ 34 ॥
अर्थ:
अब उसने सन्तानार्थ उपाय करना आरम्भ किया। तदर्थं पृथिवी का भारी बोझ अपनी भुजाओं से उतारा और मंत्रियो पर कुछ समय के लिए डाल दिया।
अथाभ्यर्च्य विधातारं प्रयतौ पुत्रकाम्यया ।
तौ दम्पती वसिष्ठस्य गुरोर्जग्मतुराश्रमम् ॥ 35 ॥
अर्थ:
पहले सपत्नीक उसने पूजा की ब्रह्मा की, व्रत धारण किया और पुत्र की इच्छा लिए हुए दोनों दम्पती गुरु वसिष्ठ के आश्रम चले।
स्निग्धगम्भीरनिर्घोषमेकं स्यन्दनमास्थितौ ।
प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताविव ॥ 36 ॥
अर्थ:
वे दोनों एक ही रथ पर बैठे थे। रथ का निर्घोष स्निग्ध भी था और गम्भीर भी वे ऐसे लग रहे थे जैसे लगते है एक ही मेघ पर आरूढ़ विद्युत् और ऐरावत।
मा भूदाश्रमपीडेति परिमेयपुरस्सरौ ।
अनुभावविशेषात्तु सेनापरिगताविव ॥ 37॥
अर्थ:
आश्रम को पीड़ा न हो इस कारण उनके आगे चल तो रहे थे कुछ ही परिजन, परन्तु वे ऐसे लग रहे थे कि सेना से परिवृत हों, अपने विशिष्ट तेज के कारण।
सेव्यमानौ सुखस्पर्शेः सालनिर्यासगन्धिभिः ।
पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूतवनराजिभिः ॥ 38 ॥
अर्थ:
उन्हें सेवा अर्पित कर रहे थे वायु के झोंके, जिनका स्पर्श सुखद था, वृक्षों के निर्यासा फूटे रस से जो सुरभित थे, जिनमें पुष्पों से रेणु उड़ रही थी और जिनसे वनराजि कुछ कुछ काँप रही थी।
मनोभिरामाः शृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखैः ।
षड्जसंवादिनी: केका द्विधा भिन्नाः शिखण्डिभिः ॥ 39॥
अर्थ:
वे रथ की चकील की घरघराहट से उन्मुख मयूरों की दो प्रकार की मनोरम और षड्जसंवादिनी केका सुनते जा रहे थे। (दो प्रकार की = मोरों की ध्वनि मोरनी की ध्वनि से और विपरीत )
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
परस्पराक्षि- सादृश्यम – दूरोज्झित – वर्त्मसु ।
मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दनाबद्धदृष्टिषु ॥ 40 ॥
अर्थ:
वे रास्ते के पास खड़े होकर रथ पर टकटकी लगाए मृगों के जोड़ों में परस्पर का अक्षिसादृश्य देख रहे थे। (परस्पर मृग मृगी, राजा-रानी, मृग राजा, मृगी रानी ।)
श्रेणीबन्धाद् वितन्वद्भिरस्तम्भां तोरणस्रजम् ।
सारसैः कलनिर्ह्रादैः क्वचिदुन्नमिताननौ ॥ 41 ॥
अर्थ:
वे कहीं कहीं ऊपर दृष्टि डालते तो देखते कि सुन्दर निर्ह्राद कर रहे सारसों की पंक्तियों ने बिना स्तम्भ की तोरणमाला तान रखी है।
पवनस्यानुकूलत्वात् प्रार्थनासिद्धिशंसिनः ।
रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालकवेष्टनौ ॥ 42 ॥
अर्थ:
पवन अनुकूल पीछे से आगे की ओर बह रहा था। उससे सूचना मिल रही थी अभीष्टसिद्धि की और घोड़ों की टाप से उड़ी धूल उनका किरीट नहीं छू पा रही थी।
सरसीष्वरविन्दानां वीचिविक्षोभशीतलम् ।
आमोदमुपजिघ्रन्तौ स्वनि:श्वासानुकारिणम् ॥ 43 ॥
अर्थ:
जहाँ तलैये आतीं तो उन्हें सूँघने को मिलती अनेक प्रकार के अरविन्दों को सुगन्ध जो तरंगों के स्पर्श से शीतल होती और रहती अनुकरण करती अपने निःश्वासों का।
ग्रामेष्वात्मवि निसृष्टेषु यूपचिह्नेषु यज्वनाम् ।
अमोघाः प्रतिगृह्णन्तावर्ध्यानुपदमाशिषः ॥ 44 ॥
अर्थ:
उन्हें उनके ही द्वारा प्रदत्त गाँवों में, जिनमें यज्ञयूप खड़े दीखते, मिलते याज्ञिकों के अर्घ्य और (अमोघ) शुभाशीष उन्हें वे शिरोधार्य करते जा रहे थे।
हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥ 45 ॥
अर्थ:
रात को दुहे दूध के नवनीत का उपहार लेकर उपस्थित ग्रामवृद्धों से वे पूछते जाते मार्ग में मिले वृक्षों के नाम।
काप्यभिख्या तयोरासीद् व्रजतो: शुद्धवेषयोः ।
हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्राचन्द्रमसोरिव ॥ 46 ॥
अर्थ:
सफेद वस्त्र पहने निराली ही छवि लिए जाते हुए वे दोनों लग रहे थे, तुषारमुक्त ‘चित्रा चन्द्र’ की जोड़ी से ।
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
तत् तद् भूमिपतिः पत्न्यै दर्शयन् प्रियदर्शनः ।
अपि लङ्घितमध्वानं बुबुधे न बुधोपमः ॥ 47 ॥
अर्थ:
प्रियदर्शन और बुध (ग्रह) जैसे राजा को रास्ता बीत गया पर समझ न पड़ा, पत्नी को मार्ग की वे वे वस्तुएँ दिखाने में जो व्यस्त रहा।
स दुष्प्रापयशाः प्रापदाश्रमं श्रान्तवाहनः ।
सायं संयमिनस्तस्य महर्षेर्महिषीसखः ॥ 48 ॥
अर्थ:
किसी अन्य पुरुष से बड़ी कठिनता से प्राप्त करने योग्य यश वाले तथा जिनके रथ के घोड़े थक गए हैं ऐसे राजा दिलीप अपनी महारानी सुदक्षिणा के साथ सायंकाल के समय उन संयमी महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में पहुंचे।
वनान्तरादुपावृत्तैः समित्कुशफलाहरैः ।
पूर्यमाणमदृश्याग्निप्रत्युद्यातैस्तपस्विभि: ॥ 49 ॥
अर्थ:
वनान्तरों (दूसरे वनों) से लौटते हुए, समिधाएँ, कुशा और फल एकत्रित करके लिए हुए, तथा अदृश्य अग्नियों द्वारा स्वागत किए जाते हुए तपस्वियों से धीरे-धीरे परिपूर्ण होते हुए वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में राजा और रानी पहुँचे ।
आकीर्णमृषिपत्नीनामुटजद्वाररोधिभिः ।
अपत्यैरिव नीवारभागधेयोचितैर्मृगैः ॥ 50 ॥
अर्थ:
नीवार नामक धान को खाने के अभ्यासी, पर्णकुटियों के द्वारों को रोककर खड़े तथा ऋषिपत्नियों की सन्तान के समान मृगों से भरे हुए आश्रम में पहुंचे।
सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् ।
विश्वासाय विहंगानामालवालाम्बुपायिनाम् ॥ 51 ॥
अर्थ:
चक्रवर्ती सम्राट राजा दिलीप उस आश्रम में पहुंचे जहाँ वृक्षों को जल से सींचने के पश्चात् मुनि – कन्याएँ ( वृक्षों के) आलवालों में सींचे गए जल को पीने वाले पक्षियों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए तुरन्त ही दूर हट जाती थीं।
आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु निषादिभिः ।
मृगैर्वर्तितरोमन्थमुटजाXनभूमिषु ॥ 52 ॥
अर्थ:
वह आश्रम जहाँ पर्णशालाओं की आँगन – भूमियों में, जिनमें सायंकाल हो जाने के कारण धूप के चले जाने से नीवार नामक धान को ढेरों के रूप में एक कर रखा था, बैठे हुए हरिण जगाली (रोमन्थ) कर रहे थे।
अभ्युत्थिताग्निपिशुनैरतिथीनाश्रमोन्मुखान् ।
पुनानं पवनोद्भूतैर्धूमैराहुतिगन्धिभि: ॥ 53 ॥
अर्थ:
वह आश्रम जो प्रज्वलित अग्नि की सूचना देने वाले, वायु से इधर-उध र उड़ाये गए तथा हवन सामग्री की गंध वाले धुएँ से आश्रम की ओर आते हुए अतिथियों को पवित्र कर रहा था।
अथ यन्तारमादिश्य धुर्यान्विश्रामयेति सः ।
तामवारोहयत्पत्नीं रथादवतार च ॥ 54 ॥
अर्थ:
आश्रम में पहुँचकर राजा सारथि को ‘घोड़ों की थकान दूर करो’ ऐसा आदेश देकर रथ से पहले आप उतरे, तदनतर अपनी पत्नी सुदक्षिणा को उतारा ।
तस्मै सभ्याः सभार्याय गोप्त्रे गुप्ततमेन्द्रियाः ।
अर्हणामर्हते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे ॥ 55 ॥
अर्थ:
सभ्य जितेन्द्रिय मुनियों ने प्रजा के पालक, नीतिरूपी नेत्र वाले (नीतिज्ञ), तथा पूजा के योग्य राजा का, उसकी सुदक्षिणा के साथ, स्वागत किया ।
विधेः सायन्तनस्यान्ते स ददर्श तपोनिधिम् ।
अन्वासितमरुन्धत्या स्वाहयेव हविर्भुजम् ॥ 56 ॥
अर्थ:
राजा दिलीप ने सायंकालिक सन्ध्यावन्दनादि विधि के अनन्तर अपनी पत्नी अरुन्धती से सेवित तपस्वी ऋषि वशिष्ठ को इस प्रकार बैठे देखा जैसे अपनी पत्नी स्वाहा देवी से सेवित साक्षात् अग्निदेव हों।
तयोर्जगृहतुः पादान्राजा राज्ञी च मागधी ।
तौ गुरुर्गुरुपत्नी च प्रीत्या प्रतिननन्दतुः ॥ 57 ॥
अर्थ:
मगधराज की पुत्री रानी सुदक्षिणा और राजा दिलीप दोनों ने ही गुरु वसिष्ठ और गुरुपत्नी अरुन्धती के चरण स्पर्श किए। तब दोनों (गुरु वसिष्ठ और उनकी पत्नी अरुन्धती) ने प्रेमपूर्वक राजा-रानी को आशीर्वाद दिया।
तमातिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमम् ।
पप्रच्छ कुशलं राज्ये राज्याश्रममुनिं मुनिः ॥ 58 ॥
अर्थ:
तब वशिष्ठ ऋषि ने राज्य को आश्रम समझ उसमें मुनि के समान आचरण करने वाले राजा दिलीप से, जिसकी रथ के हिचकोलों के कारण हुई थकान अतिथि सत्कार से दूर हो गई थी, राज्य के विषय में कुशल-क्षेम पूछा।
अथाथर्वनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरः ।
अर्थ्यामर्थपतिर्वाचमाददे वदतां वरः ॥ 59 ॥
अर्थ:
अनन्तर शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले, वाओं में श्रेष्ठ, धन के स्वामी राजा दिलीप ने अथर्ववेद की विद्या के ज्ञाता वशिष्ठ के सामने इस प्रकार सार्थक वचन कहे।
उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वषु यस्य मे ।
दैवीनां मानुषीणां च प्रतिहर्ता त्वमापदाम् ॥ 60 ॥
अर्थ:
अनुवादः – मेरे राज्य के सातों अंगों में सर्वथा कुशल ही है क्योंकि मेरी दैवी तथा मानुषी दोनों प्रकार की विपत्तियों को हटाने वाले आप विद्यमान हैं।
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
तव मन्त्रकृतो मन्त्रैर्दूरात्प्रशमितारिभिः ।
प्रत्यादिश्यन्त इव मे दृष्टलक्ष्यभिदः शराः ॥ 61 ॥
अर्थ:
मन्त्रों की रचना अथवा प्रयोग करने वाले आप गुरु वशिष्ठ के उन मन्त्रों के कारण, जो दूर से ही मेरे शत्रुओं का विनाश कर देते हैं, प्रत्यक्ष लक्ष्य को बींध देने वाले मेरे बाण मानो निरर्थक हैं।
हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु ।
वृष्टिर्भवति सस्यानामवग्रहविशोषिणाम् ॥ 62 ॥
अर्थ:
हे हवन करने वाले मेरे गुरु ! आपके द्वारा विधिपूर्वक यज्ञाग्नि में डाली हुई (घी) आहुति अवग्रह (सूखा, वर्षा का अभाव ) के कारण सूखने वाले अन्न के लिए वृष्टि (वर्षा) रूप हो जाती है ।
पुरुषायुषजीविन्यो निरातंका निरीतयः ।
यन्मदीयाः प्रजास्तस्य हेतुस्त्वद्ब्रह्मवर्चसम् ॥ 63 ॥
अर्थ:
मेरी प्रजाएँ जो मनुष्य की पूर्ण आयु तक जीने वाली होती हैं, निर्भय रहती हैं एवं अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि उपद्रवों से बची रहती हैं, इन सबका कारण आपका ब्रह्मतेज ही है।
त्वयैव चिन्त्यमानस्य गुरुणा ब्रह्मयोनिना ।
सानुबन्धाः कथं न स्युः संपदो मे निरापदः ॥ 64 ॥
अर्थ:
ब्रह्मा से जन्म लेने वाले आप जैसे गुरु मेरी इस प्रकार देखभाल करने के कारण ( और इसी कारण से) विपत्तियों से मुक्त हुई मेरी सम्पतियाँ सदा अविच्छिन्न ( निरन्तर ) क्यों न बनी रहेंगी।
किन्तु वध्वां तवैतस्यामदृष्टसदृशप्रजम् ।
न मामवति सद्वीपा रत्नसूरपि मेदिनी ॥ 65 ॥
अर्थ:
तथापि आपकी इस वधू सुदक्षिणा से अनुरूप (योग्य) पुत्र न पाने के कारण मुझको द्वीपों से युक्त तथा (समस्त) रत्नों को उत्पन्न करने वाली यह (विशाल) पृथ्वी भी सन्तुष्ट नहीं करती है।
नूनं मत्तः परं वंश्याः पिण्डविच्छेददर्शिनः ।
न प्रकामभुजः श्राद्धे स्वधासंग्रहतत्पराः ॥ 66 ॥
अर्थ:
मेरे पश्चात् पुत्र के अभाव में पिण्ड के लोप की आशा करके पितर ( वंश्य ) श्राद्ध के अवसर पर स्वधा ( पितरों का भोजन ) संग्रह करने में लगे हुए निश्चय ही तृप्त होकर भोजन नहीं करते हैं।
मत्परं दुर्लभं मत्वा नूनमावर्जितं मया ।
पयः पूर्वैः स्वनिःश्वासैः कवोष्णमुपभुज्यते ॥ 67 ॥
अर्थ:
मेरे पश्चात् पुत्र न होने से दुर्लभ समझकर आजकल मेरे द्वारा किए गए तर्पण जल को (मेरे) पितर अपने दुःख भरे निःश्वासों से कुछ गर्म करके पीते हैं।
सोऽहमज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलितः ।
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोक इवाचल: ॥ 68 ॥
अर्थ:
यज्ञ आदि करने से मैं देवऋण से मुक्त होने के कारण प्रसन्नचित्त अथवा पुत्र के अभाव में पितृऋण से मुक्त होने के कारण मलिनचित्त (उद्दिग्न) हूँ। अतः मेरी दशा लोकालोक पर्वत के समान है जिसके एक ओर प्रकाश तथा दूसरी ओर अन्धकार रहता है।
लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् ।
सन्ततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे ॥ 69 ॥
अर्थ:
जो पुण्य तप अथवा दान से उत्पन्न होता है वह केवल परलोक में ही सुख देता है। परन्तु शुद्धवंश में उत्पन्न पुत्र तो इस लोक में तथा परलोक में भी सुख पहुँचाता है।
तया हीनं विधातः मां कथं पश्यन्न दूयसे ।
सिÑ स्वयमिव स्नेहाद्वन्ध्यमाश्रमवृक्षकम् ॥ 70 ॥
अर्थ:
हे नियमों के रचयिता गुरु, जिस प्रकार स्वयं प्रेमपूर्वक जल से सींचकर बढ़ाए हुए आश्रम के वृक्षों को फल से शून्य देखकर आपका दुःखी होना स्वाभाविक है उसी प्रकार आपके शिष्य मुझको भी पुत्र से रहित देखते हुए आप दुःखी क्यों नहीं होते ?
असह्यपीडं भगवन्नृणमन्त्यमवेहि मे ।
अरुन्तुदमिवालानमनिर्वाणस्य दन्तिनः ॥ 71 ॥
अर्थ:
हे भगवान् ! मेरे इस अन्तिम पैतृक ऋण को इस प्रकार दु:सह समझो जिस प्रकार न नहलाए हुए हाथी को उसके मर्मस्थल को बींधने वाला, बाँधने का खूँटा असह्य पीड़ा पहुंचाता है।
तस्मान्मुच्ये यथा तात संविधातुं तथार्हसि ।
इक्ष्वाकूणां दुरापेऽर्थे त्वदधीना हि सिद्धयः ॥ 72 ॥
अर्थ:
हे गुरु ! अतएव जिससे कि मैं पितृऋण से मुक्त हो सकूं ऐसा उपाय आप करें क्योंकि इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के कठिन कार्यों की सिद्धियाँ आपके अधीन हैं।
इति विज्ञापितो राज्ञा ध्यानस्तिमितलोचनः ।
क्षणमात्रमृषिस्तस्थौ सुप्तमीन इव हृदः ॥ 73 ॥
अर्थ:
इस प्रकार राजा द्वारा निवेदन किए जाने पर महर्षि वशिष्ठ, मछलियों के सो जाने पर शान्त हुए सरोवर की भांति, क्षणभर के लिए ध्यान में नेत्र बन्द कर निश्चल हो गए।
सोऽपश्यत्प्रणिधानेन सन्ततेः स्तम्भकारणम् ।
भावितात्मा भुवो भर्तुरथैनं प्रत्यबोधयत् ॥ 74 ॥
अर्थ:
महर्षि वशिष्ठ समाधि द्वारा शुद्ध चित्त होकर पृथ्वी के स्वामी दिलीप की सन्तान के न होने का कारण जाने गये और फिर उसे इस प्रकार कहने लगे ।
पुरा शक्रमुपस्थाय तवोर्वी प्रतियास्यतः ।
आसीत्कल्पतरुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि ॥ 75 ॥
अर्थ:
हे राजन् ! एक बार पूर्वकाल में जब आप इन्द्र की सेवा करके पृथ्वी की ओर लौट रहे थे तब मार्ग में कल्पवृक्ष की छाया में कामधेनु बैठी हुई थी ।
धर्मलोपभयाद्राज्ञीमृतुस्नातामिमां स्मरन् ।
प्रदक्षिणीक्रियार्हायां तस्यां त्वं साधु नाचर ॥ 76 ॥
अर्थ:
धर्म का लोप न हो जाए इस भय से ऋतुस्नान की हुई इस रानी सुदक्षिणा का ही केवल ध्यान करते हुए तुमने प्रदक्षिणा के द्वारा सत्कार करने योग्य कामधेनु का उचित सत्कार नहीं किया ।
अवजानासि मां यस्मादतस्ते न भविष्यति ।
मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा ॥ 77 ॥
अर्थ:
क्योंकि तुम मेरा तिरस्कार कर रहे हो, अतः मेरी सन्तान की आराधना किए बिना तुम्हारे सन्तान न होगी, ऐसा उसने ( कामधेनु ने) तुम्हें शाप दिया ।
स शापो न त्वया राजन्न च सारथिना श्रुतः ।
नदत्याकाशगङ्गाया स्रोतस्युद्दामदिग्गजे ॥ 78 ॥
अर्थ:
हे राजन्, कामधेनु का दिया हुआ वह शाप न तो तुमने और व ही तुम्हारे सारथि ने सुना क्योंकि बन्धन से मुक्त दिग्गजों से मुक्त आकाश – गंगा का जल-प्रवाह कोलाहल कर रहा था।
ईप्सितं तदवज्ञानाद्विद्धि सार्गलमात्मनः ।
प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ॥ 79 ॥
अर्थ:
इसलिए उस ( कामधेनु ) का अनादर करने से आप अपने मनोरथ को रुका हुआ समझो, क्योंकि पूजनीय व्यत्रियों की पूजा का उल्लंघन कल्याण को रोकता है।
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
हविषे दीर्घसत्रस्य सा चेदानीं प्रचेतसः ।
भुजंगपिहितद्वारं पातालमधितिष्ठति ॥ 80 ॥
अर्थ:
और वह कामधेनु इस समय चिरकाल तक चलने वाले वरुण के यज्ञ में हविष्य की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए सांपों के द्वारा रोके गए द्वार वाले पाताल लोक में निवास कर रही है।
सुतां तदीयां सुरभेः कृत्वा प्रतिनिधि शुचिः ।
आराधय सपत्नीकः प्रीता कामदुधा हि सः॥ 81 ॥
अर्थ:
इस समय तुम उसी (कामधेनु ) की पुत्री ( नन्दिनी) को कामधेनु का प्रतिनिधि मानकर शुद्ध पवित्र होकर पत्नी सहित उसकी पूजा करो क्योंकि सेवा से प्रसन्न हुई वह आपके मनोरथ को पूर्ण कर सकती है।
इतिवादिन एवास्य होतुराहुतिसाधनम् ।
अनिन्द्या नन्दिनी नाम धेनुराववृते वनात् ॥ 82 ॥
अर्थ:
वशिष्ठ ऋषि के ऐसा कहते हुए ही हवनशील के यज्ञ की आहुति का साधन, कामधेनु की पुत्री नन्दिनी नाम की प्रशंसनीय गाय वन से लौट आई।
ललाटोदयमाभुग्नं पल्लवस्निग्घपाटला ।
बिभ्रती श्वेतरोमा सन्ध्येव शशिनं नवम् ॥ 83॥
अर्थ:
जिस प्रकार नवीन किसलय के समान कोमल तथा लाल रंग वाली सन्ध्या पश्चिम दिशा में टेढ़े नवीन चन्द्रमा को धारण करती है उसी प्रकार कोमल किसलय के समान चिकनी तथा लाल रंग वाली नन्दिनी कुछ टेढ़े सफेद रंग के बालों के चिन्ह को मस्तक पर धारण करती हुई लौटी।
भुवं कोष्णेनेव कुण्डोध्नी मेध्येनावभृथादपि ।
प्रस्नवेनाभिवर्षन्ती वत्सालोकप्रवर्तिना ॥ 84 ॥
अर्थ:
कुछ गरम तथा यज्ञ समाप्ति पर किए गए जलस्नान से भी पवित्र एवं बछड़े को देखकर स्वयं टपकने वाले दूध से पृथ्वी को सींचती हुई कुण्ड के समान बड़े स्तनों वाली नन्दिनी गौ वन से लौटी।
रजःकणैः खुरोद्धूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात् ।
तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः ॥ 8 5 ॥
अर्थ:
अपने खुरों से उड़ाए गए समीप होने के कारण अंगों के स्पर्श करते हुए धूल के कणों से पृथ्वी के स्वामी दिलीप की तीर्थ जल में स्नान करने से उत्पन्न होने वाली शुद्धि को करती हुई नन्दिनी गौ।
तां पुण्यदर्शनां दृष्ट्वा निमित्तज्ञस्तपोनिधिः ।
याज्यमाशंसितावन्ध्यप्रार्थनं पुनरब्रवीत् ॥ 86 ॥
अर्थ:
शकुनशास्त्र के विद्वान तपस्वी वशिष्ठ पवित्र दर्शन वाली आई हुई उस नन्दिनी गौ को देखकर यजमान दिलीप से, जिनकी मनोरथ की प्रार्थना अवश्य सफल होने वाली थी, पुनः इस प्रकार बोले ।
अदूरवर्तिनीं सिद्धिं राजन् विगणयात्मनः ।
उपस्थितेयं कल्याणी नाम्नि कीर्तित एव यत् ॥ 87 ॥
अर्थ:
हे राजन् ! अब आप अपने मनोरथ की सिद्धि को निकट ही आई हुई जानो क्योंकि मंगल-मूर्ति नन्दिनी गाय नाम लेते ही सामने आ गई है।
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन गाम् ।
विद्यामभ्यसनेनेव प्रसादयितुमर्हसि ॥ 88 ॥
अर्थ:
हे राजन् ! कन्द मूल फल आदि खाकर मुनियों के समान आचरण करते हुए तुम निरन्तर इस गाय का अनुगमन करके इसे उस प्रकार प्रसन्न कर सकते हो, जैसे अभ्यास द्वारा विद्या प्रसन्न की जाती है।
प्रस्थितायां प्रतिष्ठेथाः स्थितायां स्थितिमाचरेः ।
निषण्णायां निषीदास्यां पीताम्भसि पिबेरप: ॥ 89 ॥
अर्थ:
जब यह चले तब तुम भी चलना, जब खड़ी हो जाए तो खड़े हो जाना और बैठे तो बैठना । जब यह जल पी चुके तो तब तुम जल पीना।
वधूर्भक्तिमती चैनामर्चितामातपोवनात् ।
प्रयातां प्रातरन्वेतु सायं प्रत्युद्व्रजेदपि ॥ 90 ॥
अर्थ:
वधू, सुदक्षिणा भी पवित्र होकर भक्ति पूर्वक इसकी पूजा करके प्रतिदिन प्रात:काल तपोवन की सीमा तक इसे पहुंचाने जाए तथा सायंकाल के समय भी तपोवन की सीमा पर पहुंचकर स्वागतपूर्वक इसे आश्रम में लाए।
इत्याप्रसादादस्यास्त्वं परिचर्यापरो भव ।
अविघ्नमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम् ॥ 91 ॥
अर्थ:
इस प्रकार प्रसन्न होने तक तुम इसकी सेवा करो। तुम्हारे विघ्न नष्ट हों। अपने पिता के समान तुम भी उत्तम पुत्रवालों में सबसे आगे ठहरो।
तथेति प्रतिजग्राह प्रीतिमान्सपरिग्रहः ।
आदेश देशकालज्ञः शिष्यः शासितुरानतः ॥ 92 ॥
अर्थ:
देश और काल के महत्त्व को समझने वाले राजा दिलीप ने प्रसन्न होकर अपनी पत्नी सुदक्षिणा के साथ अत्यन्त विनीतभाव से अपने गुरु वशिष्ठ की आज्ञा को उसी रूप में स्वीकार किया।
अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम् ।
सूनुः सुनृतवाक्स्रष्टुर्विससर्जोर्जितश्रियम् ॥ 93 ॥
अर्थ:
तब रात्रि के समय सत्यवादी तथा मधुर भाषी, ब्रह्मा के पुत्र, विद्वान् वशिष्ठ ऋषि ने उत्तम लक्ष्मी से सम्पन्न, प्रजा के स्वामी राजा दिलीप को शयन के लिए आज्ञा दी।
सत्यामति तपः सिद्धौ नियमपेक्षया मुनिः ।
कल्पवित्कल्पयामास वन्यामेवास्य संविधाम् ॥ 94 ॥
अर्थ:
यद्यपि व्रत के प्रयोगों को जानने वाले मुनि वशिष्ठ को तप की सिद्धि थी फिर भी उन्होंने दिलीप के लिए नन्दिनी की सेवारूपी व्रत का ध्यान रखते हुए वन में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों के योग्य ही सामग्री का आयोजन किया।
निर्दिष्टां कुलपतिना स पर्णशाला मध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयः ।
तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानाम् संविष्टः कुशशयने निशां निनाय ॥ 95 ॥
अर्थ:
राजा दिलीप नियमों का पालन करने वाली अपनी पत्नी सुदक्षिणा के साथ कुलपति वशिष्ठ द्वारा बताई गई कुटिया में निवास कर कुशा के बिस्तर पर सोये और जन के शिष्यों के वेदपाठ के घोष द्वारा सूचित रात्रि की समाप्ति पर जाग गए। इस प्रकार उन्होंने रात बिताई ।
(Raghuvansham mahakavya Pratham Sarg)
प्रथम सर्ग कथा:
वैवस्वत मनु के वंश में महाराज दिलीप नामक सुप्रसिद्ध सम्राट् हुए। मगध देश की राजकुमारी सुदक्षिणा उनकी रानी बनी। दुर्भाग्य से दिलीप को सुदक्षिणा से कोई संतान नहीं हुई। दिलीप इस बात से बहुत खिन्न रहते थे। एक दिन वे सुदक्षिणा को अपने साथ लेकर इस सम्बन्ध में अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। तब ऋषि ने ध्यान लगाकर राजा के सन्तान न होने का यह कारण ज्ञात किया कि एक बार स्वर्गलोक से भूलोक को लौटते हुए राजा ने मार्ग में खड़ी दिव्य गौ सुरभि ( कामधेनु ) के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित नहीं किया था।
इस उपेक्षावृत्ति से रुष्ट होकर सुरभि ने राजा को शाप दिया कि उसको तब तक सन्तान नहीं होगी जब तक वह उसकी पुत्री नन्दिनी गौ को सेवा से संतुष्ट नहीं कर लेगा । सौभाग्य से सुरभि की पुत्री नंदिनी गौ उस समय ऋषि के आश्रम में ही विद्यमान थी । अतः ऋषि ने राजा को आदेश दिया कि वह अपनी रानी के साथ नंदिनी की सेवा करके उसे प्रसन्न करे और पुत्र प्राप्ति के लिए उसका आशीर्वाद प्राप्त करे। राजा एवं रानी नियमापेक्षा से महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में मुनिवृत्ति से रहने लगे।
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