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Raghuvansham Chaturth Sarg

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Raghuvansham Chaturth Sarg

रघुवंशम् महाकाव्य चतुर्थ सर्ग | Raghuvansham Chaturth Sarg

रघुवंशम् महाकाव्य का चौथा सर्ग (Raghuvansham Chaturth Sarg ) महाराज रघु की उल्लेखनीय यात्रा और विजय को दर्शाता है। रघुवंशम् महाकाव्य चतुर्थ सर्ग में आपको महाराज रघु के विजयपूर्वक अनेक समुद्रादि देशों पर अभियान करने का वर्णन है। इसमें महाराज रघु की वीरता, न्यायपालन, धर्मपरायणता, और देवीयों के साथ सम्बन्ध का भी उल्लेख है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य चतुर्थ सर्गः ।।

।। श्रीः रघुवंशम् ।।

स राज्यं गुरुणा दत्तं प्रतिपद्याधिकं बभौ ।
दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः ॥ १ ॥

अर्थ:
पिता द्वारा दिया राज्य पाकर वह (रघु) और अधिक सुशोभित हुआ जैसे सुशोभित होता है अग्नि सायंकाल सूर्य द्वारा निहित तेज पाकर। (वैदिक धारणा है कि सूर्य अस्त होते समय अपना तेज अग्नि में आहित कर देता है।)

दिलीपानन्तरं राज्ये तं निशम्य प्रतिष्ठितम् ।
पूर्व प्रधूमितो राज्ञां हृदयेऽग्निरिवोत्थितः ॥ २ ॥

अर्थ:
दिलीप के बाद उस (रघु) को राज्य में प्रतिष्ठित सुना तो शत्रु राजाओं के हृदय में धुआँ उगल रही अग्नि लपट फेंकने लगी।

पुरुहूतध्वजस्येव तस्योन्नयनपङ्क्तयः ।
नवाभ्युत्थानदर्शिन्यो ननन्दुः सप्रजाः प्रजाः ॥ ३ ॥

अर्थ:
प्रजावर्ग उसे प्रसन्न होता देख देखकर, जैसे उदित हुए चन्द्र को ऊँची दृष्टि करके देख देखकर प्रसन्न होता है। (‘पुरुहूत-ध्वजश्चन्द्रश्चन्द्रमा मृगलाञ्छन: हेमाद्रिः। पुरुहूतध्वज इन्द्रध्वज। वर्षा के लिए उसका उत्सव व.म. आदि।)(Raghuvansham Chaturth Sarg )

सममेव समाक्रान्तं द्वयं द्विरदगामिना ।
तेन सिंहासनं पित्र्यमखिलश्चारिमण्डलम् ॥ ४ ॥

अर्थ:
गजगामी रघु ने दोनों को एक साथ आक्रान्त किया (१) पिता के सिंहासन को और (२) शत्रुओं के पूरे मण्डल को। (सिंहासन पर बैठना उसको आक्रान्त करना ।)

छायामण्डललक्ष्येण तमदृश्या किल स्वयम् ।
पद्मा पद्यातपत्रेण भेजे साम्राज्यदीक्षितम् ॥ ५ ॥

अर्थ:
सम्राट् बने उस (रघु) की सेवा अदृश्य पद्मा (लक्ष्मी) ने की पद्माकार छत्र के रूप में। अदृश्य होने पर भी वह छायामण्डल से समझ में आ रही थी।

परिकल्पितसान्निध्या काले काले च वन्दिषु ।
स्तुत्यं स्तुतिभिरर्थ्याभिरुपतस्थे सरस्वती ॥ ६ ॥

अर्थ:
सरस्वती ने भी उस स्तुत्य रघु की स्तुति की, समय समय पर होती वन्दिजनों की सार्थक स्तुति में समाकर।

मनुप्रभृतिभिर्मान्यैर्भुक्ता यद्यपि राजभिः ।
तथाप्यनन्यपूर्वेव तस्मिन्नासीद् वसुन्धरा ॥ ७॥

अर्थ:
माना कि मनु आदि मान्य राजाओं द्वारा पृथिवी का भोग किया जा चुका था तथापि उस (रघु) के लिए वह नई सी ही थी।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

स हि सर्वस्य लोकस्य युक्तदण्डतया मनः ।
आददे नातिशीतोष्णो नभस्वानिव दक्षिणः ॥ ८ ॥

अर्थ:
उचित दण्ड देने से उस (रघु) ने लोगों का मन अपनी ओर खींच लिया, दक्षिण दिशा के पवन (मलयानिल) के समान वह न अधिक शीत था और न अधिक उष्ण।

मन्दोत्कण्ठाः कृतास्तेन गुणाधिकतया गुरौ ।
फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः ॥ ९॥

अर्थ:
रघु गुणों में अधिक था, अतः उसने उसके पिता के प्रति जनता की उत्कण्ठा कम कर दी, सहकार का फल जैसे सहकार के बौर के प्रति उत्कण्ठा कम कर देता है।

नयविद्भिर्नवे राज्ञि सदसच्चोपदर्शितम् ।
पूर्व एवाभवत् पक्षस्तस्मिन्नाभवदुत्तरः ॥ १०॥

अर्थ:
न्यायविद् विद्वानों ने उस नए राजा के समक्ष सत् और असत् दोनों पक्ष प्रस्तुत किए, किन्तु उसको प्रथम (सत्) पक्ष ही मान्य हुआ, दूसरा नहीं।

पञ्चानामपि भूतानामुत्कर्षं पुपुषुर्गुणाः ।
नवे तस्मिन् महीपाले सर्वं नवमिवाभवत् ॥ ११ ॥

अर्थ:
उस नए राजा के राजा होते ही पाँचो भूतों के गुणों में उत्कर्षवृद्धि हो उठी। ऐसा लगा जैसे उस नए राजा के लिए सब कुछ नया हो उठा हो।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

यथा प्रह्लादनाच्चन्द्रः प्रतापात् तपनो यथा ।
तथैव सोऽभूदन्वर्थों राजा प्रकृतिरञ्जनात् ॥ १२॥

अर्थ:
रघु उसी प्रकार प्रकृति के रञ्जन से अन्वर्थ राजा था जैसे प्रह्लादन के कारण चन्द्र और प्रतपन के कारण तपन (सूर्य)।(रञ्जनाद् राजा महाभारत की भाषा। द्र. ६.२१)

कामं कर्णान्तविश्रान्ते विशाले तस्य लोचने ।
चक्षुष्मत्ता तु शास्त्रेण सूक्ष्मकार्यार्थदर्शिना ॥ १३ ॥

अर्थ:
भले ही उसके नेत्र भी कर्णान्त तक विस्तृत थे, किन्तु वह चक्षुष्मान् था सूक्ष्म कार्य में अभीष्ट अर्थ दिखलाने वाले शास्त्र से।

लब्धप्रशमनस्वस्थमथैनं समुपस्थिता ।
पार्थिवश्रीद्वितीयेव शरत् पङ्कजलक्षणा ॥ १४ ॥

अर्थ:
नए राज्य में प्रशमन आवश्यक होता है। वह रघु ने प्राप्त कर लिया था और वह उधर से निश्चिन्त था। अब उसकी सेवा में शरत् उपस्थित हुई। वह द्वितीय राजश्री थी, क्योंकि वह भी पङ्कजलक्षणा थी। शरद ऋतु का लक्षण कमलपुष्प।

निर्वृष्टलघुभिर्मेधैर्मुक्तवर्मा सुदुःसहः ।
प्रतापस्तस्य भानोश्च युगपद् व्यानशे दिशः ॥ १५॥

अर्थ:
उस रघु और सूर्य इन दोनों का प्रताप एक साथ दिशाओं में फैल उठा। उस प्रताप का मार्ग मेघों ने छोड़ दिया था जो बरस कर हल्के पड़ गए थे। वह दुस्सह भी था।

वार्षिक सञ्जहारेन्द्रो धनुजैत्रं रघुर्दधौ ।
प्रजार्थसाधने तौ हि पर्यायोद्यतकार्मुकौ॥ १६ ॥

अर्थ:
इन्द्र ने वार्षिक धनुष बटोरा और रघु ने जैत्र धनुष उठाया। दोनों ही प्रजा के अर्थ की सिद्धि में एक-एक कर क्रमशः धनुष चढ़ाए रहते थे।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

पुण्डरीकातपत्रस्तं विकसत्काशचामरः ।
ऋतुर्विडम्बयामास न पुनः प्राप तच्छ्यिम् ॥ १७॥

अर्थ:
ऋतु (शरत्काल) ने प्रयत्न तो किया उस (खु) की तुलना का, उसने पा लिया सफेद कमल (पुण्डरीक) का छत्र और खिले काशपुष्पों का चामर, परन्तु वह रघु की श्री (शोभा और लक्ष्मी) नहीं पा सका।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

प्रसादसुमुखे तस्मिंश्चन्द्रे च विशदप्रभे ।
तदा चक्षुष्मतां प्रीतिरासीत् समरसा द्वयोः ॥१८॥

अर्थ:
शरद् ऋतु में आँखों वालों को या तो प्रिय था प्रसन्नमुख रघु या फिर उज्ज्वल कान्ति वाला चन्द्र, दोनों में आखें समान तृप्ति पातीं।

हंसश्रेणीषु तारासु कुमुद्वत्सु च वारिषु ।
विभूतयस्तदीयानां पर्यस्ता यशसामिव ॥१९॥

अर्थ:
हंस-पंक्तियों, तारों और कुमुदवाले जलाशयों में एक प्रकार से उस रघु के यशों की विभूतियाँ बिखरी हुई थीं।

इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम् ।
आकुमारकथोद्वातं शालिगोप्यो जगुर्यशः ॥ २० ॥

अर्थ:
उस गोप्ता की गुणमयी कथाएँ धान की रखवाली करने वाली वनिताएँ बचपन से ही आरम्भ कर गाती रहतीं।

प्रससादोदयादम्भः कुम्भयोनेर्महौजसः ।
रघोरभिभवाशङ्कि चुक्षुभे द्विषतां मनः ॥ २१ ॥

अर्थ:
तेजस्वी कुम्भयोनि (अगस्त्य) के उदय से पानी तो स्वच्छ हुआ, किन्तु शत्रुओं का मन हुआ धुभित, रघु से हार की आशंका से।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

मदोदग्राः ककुद्मन्तः सरितां कूलमुद्रुजः ।
लीलाखेलमनुप्रापुर्महोक्षास्तस्य विक्रमम् ॥ २२॥

अर्थ:
महोक्ष (बड़े बड़े बैलों) ने अनुकरण किया रघु की लीला के खेल का। मद से हुए वे उदग्र, ककुद्मान् वे थे ही और नदीतट को गिगने में लगे हुए थे।

प्रसवैः सप्तपर्णानां मदगन्धिभिराहताः ।
असूययेव तन्नागाः सप्तधैव प्रसुनुवुः ॥ २३ ॥

अर्थ:
उसके हाथी सात-सात अंगों से मदस्राव कर रहे थे, कदाचिन् उन्हें ठेस लगी थी मद जैसी गन्धवाले सप्तपर्ण के पुष्पों से। (सात अंग सूँड, कटद्वय, नेत्रद्वय और शिश्न।’ सुंद्र के दो छिद्रों के कारण वह भी दो। अतः सात ।)

सरितः कुर्वती गाधाः पथश्चाश्यानकर्द्दमान् ।
यात्रायै चोदयामास तं शक्तेः प्रथमं शरत् ॥ २४॥

अर्थ:
शक्ति के पहले शरद् ने ही उसे (दिग्विजय) यात्रा के लिए किया प्रेरित, क्योंकि शरद्ने नदियों को बना दिया थाहयोग्य और मार्गों की कीचड़ सुखा दी।

तस्मै सम्यग्धुतो वह्निर्वाजि-नीराजनाविधौ ।
प्रदक्षिणार्चिव्र्व्याजेन हस्तेनेव जयं ददौ ॥ २५ ॥

अर्थ:
यात्रा के पूर्व हुई वाजिनीराजना। उसमें जो अग्नि में ठीक से आहुति दी गई उसने अपनी लौ घुमा घुमाकर उसके बहाने उस (रघु) को मानों हाथों से प्रदान की जीत।

स गुप्तमूलप्रत्यन्तः शुद्धपार्ष्णिरयान्वितः ।
षड्विधं बलमादाय प्रतस्थे दिग्जिगीषया ॥ २६ ॥

अर्थ:
यात्रा के पहले उसने सुरक्षा की व्यवस्था की अपने आवास स्थान की भी और सीमा प्रान्त के दुर्गों को भी, पीछे से घात करने वाले शत्रुओं को हटाया, और भाग्योदय के शुभ मुहूर्त में छहों प्रकार की सेना लेकर दिग्विजय के लिए आरम्भ की यात्रा। (सेना मौल, भृत्य, सुहत्, श्रेणी, द्विषत्, आटविक और सेना’ इस प्रकार का बल।)

अवाकिरन् वयोवृद्धास्तं लाजैः पौरयोषितः ।
पृषतैर्मन्दरोद्भूतैः क्षीरोर्मय इवाच्युतम् ॥ २७ ॥

अर्थ:
नगर की वयोवृद्ध महिलाओं ने उस पर लाजा बरसाए, ठीक वैसे ही जैसे क्षीरोर्मियों ने फुहार बरसाई थी अच्युत पर (समुद्रमन्थन के समय)।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

स ययौ प्रथमं प्राचीं तुल्यः प्राचीनवर्हिषा ।
अहिताननिलोद्धूतैस्तर्जयन्निव केतुभिः ॥ २८ ॥

अर्थ:
पहले बला वह पूर्व की ओर। वह था भी प्राचीनबर्हो (इन्द्र) के हो समान। पूर्वी हवा से हिल रहे केतुओं से वह शत्रुओं की तर्जना सी करता जा रहा था।

रजोभिः स्यन्दनोद्भूतैर् गजैश्व घनसन्निभैः ।
भुवस्तलमिव व्योम कुर्वन् व्योमेव भूतलम् ॥ २९॥

अर्थ:
रथों से उड़ी धूल और घनतुल्य गजों से वह करता जा रहा था आकाशतल को भूमितल सा और भूमितल को आकाशतल सा।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

प्रतापोऽग्रे ततः शब्दः परागस्तदनन्तरम् ।
ययौ पश्चाद् रथादीति चतुः स्कन्धेव सा चमूः ॥ ३०॥

अर्थ:
वह सेना मानों अपने चारों अंगों के साथ आगे बढ़ रही थी। सबसे आगे चल रहा था प्रताप, उसके पीछे शब्द (कोलाहल), उसके पीछे धूल और सबके पश्चात् रथादि। (चार स्कन्ध पत्ति, अश्ववार, गजारोही तथा रथी॥ रघु की विजययात्रा का नक्शा संलग्न।)

मरुपृष्ठान्युदम्भांसि नाव्याः सुप्रतरा नदीः ।
विपिनानि प्रकाशानि शक्तिमत्त्वाच्चकार सः ॥ ३१ ॥

अर्थ:
रघु शक्तिशाली था, अतः मरुस्थलों को बदल दिया ” जलसंपूरित स्थलों में। गहरी और नावों से ही पार की जाने योग्य नदियों को बना दिया सुख से पार करने योग्य। घोर जंगलों को खुलवा दिया। (नहरों की व्यवस्था।)

स सेनां महतीं कर्षन् पूर्वसागरगामिनीम् ।
बभौ हरजटाभ्रष्टां गङ्गामिव भगीरथः ॥ ३२॥

अर्थ:
रघु विशाल सेना को लिए हुए पूर्व सागर की ओर बढ़ते समय पीछे पीछे गङ्गा की धारा को लिए चल रहे महाराज भगीरथ से दिखाई दे रहे थे।

त्याजितैः फलमुत्खातैर्भग्नैश्च बहुधा नृपैः ।
तस्यासीदुल्बणो मार्गः पादपैरिव दन्तिनः ॥ ३३॥

अर्थ:
जैसे हाथी जिस रास्ते निकलता है उसे साफ करता चलता है। वह उसको फलों से रहित बना देता, पेड़ों को उखाड़ और तोड़ देता है, उसी प्रकार रघु ने राजाओं से किया अपना मार्ग साफ। उनके कोश छीन लिए, उन्हें उखाड़ फेंका या उनकी कमर तोड़ दी।

पौरस्त्यानेवमाक्रामंस्ताँस्ताञ् जनपदाञ् जयी ।
प्राप तालीवनश्याममुपकण्ठं महोदधेः ॥ ३४॥

अर्थ:
इस प्रकार पूर्व दिशा के उन उन जनपदों को जीतता वह (रघु) समुद्र की तालीवन से श्याम तटभूमि तक जा पहुँचा।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

अनम्राणां समुद्धर्तुस्तस्मात् सिन्धुरयादिव ।
आत्मा संरक्षितः सुद्यैर्वृत्तिमाश्रित्य वैतसीम् ॥ ३५॥

अर्थ:
वहाँ मिले सुम्ह। उन्होंने रघु से आत्मरक्षा की, नदीवेग के सामने वेंत के समान झुककर। अनम्रों को तो रघु उखाड़ फेंकता था।

वङ्गानुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोद्यतान् ।
निचखान जयस्तम्भान् गङ्गास्रोतोऽन्तरेषु सः ॥ ३६ ॥

अर्थ:
इस प्रकार नौसेना से युक्त बङ्गजनपदों को जबरन उखाड़ कर रघु ने जयस्तम्भ स्थापित किए गङ्गा के स्रोतों के बीच (डेल्टा में)।

आपादपद्यप्रणताः कलमा इव ते रघुम् ।
फलै: संवर्धयामासुरुत्खातप्रतिरोपिताः ॥ ३७॥

अर्थ:
बङ्ग के राजा लोगों ने अपनी धान का अनुकरण किया। उन्हें रघु ने उखाड़ा अवश्य, परन्तु वहीं वापस रोप दिया। उन्होंने भी रघु को पर्याप्त फल दिया। (प्रस्तुतोभयोपमा।)

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ नवधा भक्ति

स तीर्ला कपिशां सैन्यैर्बद्धद्विरदसेतुभिः ।
उत्कलादर्शितपथः कलिङ्गाभिमुखो ययौ ॥ ३८॥

अर्थ:
वहाँ मिली उसे कपिशा (नदी)। उसे रघु ने सैनिकों सहित पार किया गजसेतु बनाकर। वहाँ मिले उत्कलों के द्वारा दिखलाए मार्ग से वह कलिङ्ग की ओर बढ़ा।

स प्रतापं महेन्द्रस्य मूर्ध्नि तीक्ष्णं न्यवेशयत् ।
अङ्कुशं द्विरदस्येव यन्ता गम्भीरवेदिनः ॥ ३९॥

अर्थ:
वहाँ मिले महेन्द्रगिरि के शिखर पर रघु ने खड़ा कर दिया अपना तीक्ष्ण प्रताप, वैसे ही जैसे पीलवान् गंभीरवेदी हाथी के सिर पर गँपा देता है अङ्कुश।

प्रतिजग्राह कालिङ्गस्तमखैर्गजसाधनः ।
पक्षच्छेदोद्यतं शक्रं शिलावर्षीव पर्व्वतः ॥४०॥

अर्थ:
कलिङ्ग के शासक गजसेना के साथ आगे बढ़े और उन्होंने अस्त्रों से रघु का सामना किया। यह वैसी ही चेष्टा थी जैसे पंख काटने के लिए उद्यत इन्द्र पर पर्वतों की ओर से शिला वर्षा की निरर्थक चेष्टा।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

द्विषां विषह्य काकुत्स्थस्तत्र नाराचदुर्दिनम् ।
सन्मङ्गलस्नात इव प्रतिपेदे जयश्रियम् ॥ ४१ ॥

अर्थ:
शत्रुओं ने वहाँ रघु पर बाणों की झड़ी लगा दी, किन्तु जयश्री मिली उसी को। वाणवर्षां से मानों रघु का मङ्गलाभिषेक हुआ।

ताम्बूलीनां दलैस्तत्र रचितापानभूमयः ।
नारिकेलासवं योधाः शात्रवं च पपुर्वशः ॥ ४२ ॥

अर्थ:
वहाँ रघु के योद्धाओं ने ताम्बूल के पत्ते बिछाकर रवी पानभूमि और पिया नारिकेल का आसव जो था शत्रुओं के यश जैसा श्वेतवर्ण का।

गृहीतप्रतिमुक्तस्य स धर्मविजयी नृपः ।
श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम् ॥ ४३ ॥

अर्थ:
रघु विजय यात्रा पर निकला अवश्य था, परन्तु था वह धर्मविजयी। अतः उसने महेन्द्रनाथ की केवल श्री ली, भूमि नहीं।

ततो वेलातटेनैव फलवत्पूगमालिना ।
अगस्त्यचरितामाशामनाशास्यजयो ययौ ॥ ४४॥

अर्थ:
अब चला अगस्त्य महर्षि की दिशा दक्षिण की ओर। तदर्थ अपनाया उसने मार्ग समुद्री तट का जिसमें मिले फल से लदे हुए सुपारी के पेड़। उसे जय का विचार नहीं करना था वह तो सुनिश्चित थी।

स सैन्यपरिभोगेण गजदानसुगन्धिना ।
कावेरी सरितां पत्युः शङ्कनीयामिवाकरोत् ॥ ४५॥

अर्थ:
वहाँ मिली कावेरी नदी। उसका किया सैनिकों ने जमकर परिभोग। गजमद से उसका जल सुगन्धित हो गया। एक प्रकार से वह अपने पति समुद्र के लिए संदेह का विषय बन गई।

बलैरध्युषितास्तस्य विजिगीषोर्गताध्वनः ।
मारीचोद्धान्तहारीता मलयाद्रेरुपत्यकाः ॥ ४६ ॥

अर्थ:
उस विजिगीषु राजा रघु को आगे बढ़ने पर मिला मलयाचल। उसकी तराई में
मरिच का वन था जिसमें फुदक रहे थे हारीत पक्षी। रघु के सैनिक इन तलहटियों पर छा गए।

ससनुरश्वक्षुण्णानामेलानामुत्पतिष्णवः
तुल्यगन्धिषु मत्तेभकटेषु फलरेणवः ॥ ४७॥

अर्थ:
वहाँ था उद्यान इलायची का। घोड़ों की टाप से उठी उसकी धूल गजों के उन्हीं जैसे सुगन्धित गण्डस्थलों में चिपक रही थी।

भोगिवेष्टनमार्गेषु चन्दनानां समर्पितम् ।
नास्त्रसत् करिणां ग्रैवं त्रिपदीछेदिनामपि ॥ ४८ ॥

अर्थ:
हाथियों ने पाँव की साकले तो तोड़ लीं, पर गले की साँकल वे नहीं सरका पाए, क्योंकि वे बंधी थीं चन्दन वृक्षों के उन कटानों में, जो बने थे लिपटे सर्पों की रगड़ से।

दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि ।
तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न विषेहिरे ॥ ४९॥

अर्थ:
यह थी दक्षिण दिशा जिसमें सूर्य का तेज भी मन्द पड़ जाता है, किन्तु रघु का प्रताप यहाँ पाण्ड्य लोग सह नहीं पाए।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

ताम्रपर्णीसमेतस्य मुक्तासारं पयोनिधेः ।
ते निपत्य ददुस्तस्मै यशः स्वमिव सञ्चितम् ॥ ५०॥

अर्थ:
उन्होंने प्रणत होकर रघु को भेंट किए ताम्रपर्णी और समुद्र के संगम के मोती। वे मोती उनका संचित यश ही था, वैसा ही धवल।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ विद्येश्वर संहिता प्रथम अध्याय से दसवें अध्याय तक

स निर्विश्य यथाकामं तटेष्वालीनचन्दनौ ।
स्तनाविव दिशस्तस्याः शैलौ मलयदुरौ ॥ ५१ ॥

अर्थ:
रघु ने पहले तो जमकर भोग किया मलय और दर्दुर नामक पर्वतों का जिनके तट पर लगा था चन्दनवन, अतः जो लग रहे थे उस दिशा के चन्दन चर्चित स्तन।

असह्यविक्रमः सह्यं दूरान्मुक्तमुदन्वता ।
नितम्बमिव मेदिन्याः स्वस्तांशुकमलङ्घयत् ॥ ५२॥

अर्थ:
फिर वह पहुँचा सह्य पर्वत जिसे समुद्र ने दूर तक छोड़ रखा था, अतः बना हुआ था वह मेदिनी का विवस्व नितम्ब। असह्यपराक्रमी रघु उस पर जा चढ़ा।

तस्याऽनीकैर् विसर्पन्द्भिरपरान्तजयोद्यतैः ।
रामास्त्रोत्सारितोऽप्यासीत् सह्यलग्न इवार्णवः ॥ ५३ ॥

अर्थ:
अपरान्त (पश्चिमी घाट) को जीतने के लिए आगे बढ़े रघु की सेना उधर फैली तो समुद्र सह्य से आ सटा, यद्यपि उसे परशुराम ने दूर हटा रखा था।

भयोत्सृष्टविभूषाणां तेन केरलयोषिताम् ।
अलकेषु चमूरेणुश्रूर्णप्रतिनिधी-कृतः ॥ ५४॥

अर्थ:
अब वह जा पहुँचा केरल जहाँ की महिलाओं ने भय से सजना छोड़ रखा था। उनके अलकों का सिन्दूर बनी रघु की सेनारेणु।

मुरलामारुतोद्धतमगमत् कैतकं रजः ।
तद्योधवारबाणानामयत्नपटवासताम् ॥ ५५॥

अर्थ:
वहाँ मिली मुरला (मुरवी, मुरुची) नामक नदी। उसके किनारे लगा था केतकीवन। हवा चली तो उसका ढेर सारा पराग रघु के योद्धाओं के कवचों पर अपने आप पटवास बन गया।

अभ्यभूयत वाहानाञ्चरतां गात्रसिञ्जितैः ।
मर्मरः पवनोद्धृतराजतालीवनध्वनिः ॥ ५६ ॥

अर्थ:
यहाँ लगा था राजतालीवन। पवन से उद्धृत उनके पत्तों से निकल रही थी मर्मर ध्वनि। उसे रघु के घोड़ों के शरीर की ध्वनि ने दबा दिया।

खर्जूरीस्कन्धनद्धानां मदोद्गारसुगन्धिषु ।
कटेषु करिणां पेतुः पुन्नागेभ्यः शिलीमुखाः ॥ ५७॥

अर्थ:
वहाँ लगा था वन पुंनागवृक्षों का। उनमें बैठे भौरे उड़े और वहीं खजूर के पेड़ों में बंधे मदचुआते हाथियों के सुगन्धित गण्डस्थलों पर आ टूटे ।

अवकाशं किलोदन्वान् रामायाभ्यर्थितो ददौ ।
अपरान्तमहीपालव्याजेन रघवे करम् ॥ ५८॥

अर्थ:
वहाँ समुद्र ने भगवान् परशु को तो मार्ग दिया था अभ्यर्थना करने पर, परन्तु अपरान्त जनपद के राजा के बहाने रघु को दिया कर।

मत्ते भरदनोत्कीर्णव्यक्तविक्रमलक्षणम् ।
त्रिकूटमेव तत्रोच्चैर्जयस्तम्भञ्चकार सः ॥ ५९॥

अर्थ:
वहाँ रघु ने अपना जयस्तम्भ बनाया त्रिकूटाचल को ही, जो ऊँचा तो था ही, जिस पर मदमत्त हाथियों ने अपने दातों से प्रशस्ति भी खोद रखी थी। चित्तौड़ का जयस्तम्भ आज भी ऐसा है।

पारसीकांस्ततो जेतुं प्रतस्थे (5) स्थलवर्त्मना ।
इन्द्रियाख्यानिव रिपुंस्तत्त्वज्ञानेन संयमी ॥ ६० ॥

अर्थ:
पश्चिमी घाट से अब रघु ने यात्रा शुरू की पारसीकों को जीतने हेतु। उसने अपनाया स्थल / अस्थल (जल) मार्ग। पारसीक लोग एक विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए थे। उन सबके केन्द्र को जीतने से सभी रघु की मुट्ठी में वैसे ही आ गए जैसे संयम (ध्यान धारणा समाधि) से तत्त्वज्ञानी के वश में इन्द्रियाँ।

यवनीमुखपद्मानां सेहे मधुमदं न सः ।
बालातपमिवाब्जानामकालजलदोदयः ॥ ६१ ॥

अर्थ:
वहाँ मिला देखने को उसे यवनवनिताओं का मधुमद। उसे वह सह नहीं सका। यह वैसे ही जैसे अकाल जलदोदय कमलों के बालातप को नहीं सह पाता।

सङ्ग्रामस्तुमुलस्तत्र पाश्चात्त्यैरश्वसाधनैः ।
शाङ्गकूजितविज्ञेयप्रतियोधे रजस्यभूत् ॥ ६२ ॥

अर्थ:
रघु का इन पारसियों से हुआ तुमुल युद्ध। अश्वसेना थी उनका साधन। उसमें ऐसी घनी धूल उड़ी कि धनुष की टंकार से समझ पड़ते प्रतियोद्धा ।

भल्लापवर्जितैस्तेषां शिरोभिः श्मश्रुलैर्महीम् ।
तस्तार सरघाव्याप्तैः स क्षौद्रपटलैरिव ॥ ६३ ॥

अर्थ:
पारसियों को दाढ़ी थी। रघु ने उनके सिर भल्ल (भालों या अर्धचन्द्र बाणों) से काट गिराए। भूमि उनसे छा गई। लगती थी जैसे इस पर मधुमक्खी के छत्ते छा गए हों।

अपनीतशिरस्त्राणाः शेषास्तं शरणं ययुः ।
प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मनाम् ॥ ६४॥

अर्थ:
शेष पारसीक अपने अपने शिरस्त्राण हटाकर रघु की शरण में आ गए। बड़े लोगों का क्षोभ शान्त होता है केवल प्रणिपात से।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

विनयन्ते स्म तद्योधा मधुभिर् विजयश्रमम् ।
आस्तीर्णाजिनरत्नासु द्राक्षावलयभूमिषु ॥ ६५ ॥

अर्थ:
वहाँ मिली अंगूर की भूमि। रघु के सैनिकों ने विजयश्रम को दूर किया उसी के मधु से, उत्तम मृगचर्मों को फैला फैलाकर।

ततः प्रतस्थे कौबेरी भास्वानिव रघुर्दिशम् ।
शरैरुस्त्रैरिवोदीच्यानुद्धरिष्यन् रसानिव ॥ ६६ ॥

अर्थ:
वहाँ से रघु ने प्रस्थान किया उत्तर दिशा की ओर सूर्य के ही समान। वह वहाँ बाणों से उदीच्यों को उखाड़ता जा रहा था जिस प्रकार किरणों से भास्वान् उड़ाते जाते हैं रस (जल)।

विनीताध्वश्रमास्तस्य वक्षुतीरविचेष्टनैः ।
दुधुवुव्र्वाजिनः स्कन्धौल्लग्नकुङ्कुमकेसरान् ॥ ६७॥

अर्थ:
वहाँ मिला बंधु नामक नद। उसके तीर पर रघु के घोड़ों ने मार्ग की थकावट हटाने के लिए लेट लगाई और खड़े होकर अपनी गरदनें हिलाई जिनमें केसर की धूल लगी थी।

तत्र हूणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् ।
कपोलपाटनाऽऽदेशि बभूव रघुचेष्टितम् ॥ ६८॥

अर्थ:
वहाँ रघु की, पतियों पर दिखलाई विक्रमचेष्टा बनी हूणस्त्रियों में कपोल-पाटन का आदेश। (हुण जाति की प्रथा में विधवा स्वियों के कपोल चौर दिए जाते थे।)

काम्बोजाः समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वराः ।
गजालानपरिक्लिष्टैरक्षोटैः सार्धमानताः ॥६९॥

अर्थ:
कम्बोज देश के वासी रघु के वीर्य को सह नहीं सके और अखरोटों के साथ झुक गए, हाथियों को बाँधने से अखरोट पहले से ही जर्जर थे।

तेषां सट्श्वभूयिष्ठास्तुङ्गद्रविणराशयः ।
उपदा विविशुः शश्वन्नोत्सेकाः कोसलेश्वरम् ॥ ७० ॥

अर्थ:
उनकी ऊँची धनराशियाँ, जिनमें उत्तम नस्ल के अश्व बड़ी संख्या में थे, तो कोसलेश्वर रघु में स्थान कर सकीं, किन्तु उनका गर्व नहीं।

ततो गौरीगुरुं शैलमारुरोहाश्वसाधनः ।
वर्धयन्निव तत्कूटानुद्धूतैर्धातुरेणुभिः ॥ ७१ ॥

अर्थ:
इसके आगे रघु चढ़ा हिमालय पर। अब उसके साथ थी घुड़सवारों की सेना। उससे जो धातु/रेणु उड़ी उससे वह उसके शृङ्गों को अधिक ऊँचाई देना चाह रहा था।

शशंस तुल्यसत्त्वानां सैन्यघोषेऽप्यसम्भ्रमम् ।
गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्त्यावलोकितम् ॥ ७२ ॥

अर्थ:
सैन्य घोष सुनकर भी गुहा में सोए तुल्यसत्त्व सिंह संरम्भ (क्रोध) में नहीं आए। उन्होंने केवल पीछे दृष्टि भर डाली।

भूर्जेषु मर्मरीभूताः कीचकध्वनिहेतवः ।
गङ्गासीकरिणो मार्गे मरुतस्तं सिषेविरे ॥ ७३ ॥

अर्थ:
गङ्गा की फुहार लिए आ रहे और कीचकों को बजा रहे हवा के झोंकों ने मार्ग में रघु की सेवा की।(Raghuvansham Chaturth Sarg )

विशश्रमुर्नमेरूणां छायास्वध्यास्य सैनिकाः ।
दृषदो वासितोत्सङ्गा निषण्णमृगनाभिभिः ॥ ७४ ॥

अर्थ:
रघु के सैनिकों ने विश्राम किया नमेरु वृक्षों की छाया में कस्तूरी से सुगन्धित चट्टानों पर बैठ बैठ कर।

सरलऽऽसक्त-मातङ्ग-ग्रैवेय-स्फुरित-त्विषः ।
आसन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेहदीपिकाः ॥ ७५ ॥

अर्थ:
रात में औषधियाँ बनीं रघु के लिए बिना तेल की दीपिकाएँ, उनकी प्रभा सरल वृक्षों में बँधे हाथियों की गले की साँकलों पर चमक रही थीं।

तस्योत्सृष्टनिवेशेषु कण्ठरज्जुक्षतत्वचः ।
गजवर्त्म किरातेभ्यः शशंसुर्देवदारवः ॥ ७६ ॥

अर्थ:
रघु के हाथी तो हट चुके थे, परन्तु किरातों को उनकी ऊँचाई का अनुमान हो जाता था देवदारु वृश्चों की त्वचा से, जो हाथियों की कण्ठरज्जु से उपटी थी।

तत्र जन्यं रघोर् घोरं पर्व्वतीयैर् गणैरभूत् ।
नाराच-क्षेपणीयाश्म-निष्पेषोत्पातितानलम् ॥ ७७ ॥

अर्थ:
वहाँ पर्वतीय गणों के साथ रघु का घोर युद्ध हुआ। रघु की ओर से चलते बाण और पर्वतीय गणों की ओर से गोफन से फिकते पत्थर दोनों रगड़ा जाते तो बिखर उठती चिनगारियाँ।

शरैरुत्सवसङ्केतान् स कृत्वा विरतोत्सवान् ।
जयोदाहरणं बाह्वोर्गापयामास किन्नरान् ॥ ७८ ॥

अर्थ:
रघु ने वहीं उत्सव / संकेत जनपद को बाणों से निरुत्सव बना दिया और किनरों से अपनी भुजाओं के जयगीत गववाए।

परस्परेण विज्ञातस्तेषूपायनपाणिषु ।
राज्ञा हिमवतः सारो राज्ञः सारो हिमाद्रिणा ॥ ७९ ॥

अर्थ:
किन्नर जब उपायन लेकर उपस्थित हुए तो राजा को पता चला हिमाद्रि के सार (संपत्ति) का और हिमाद्रि को पता चला राजा रघु के सार (बल) का। इस प्रकार दोनों को दोनों के सार का पता चला।

तत्राऽक्षोभ्यं यशोराशिं निवेश्यावरुरोह सः ।
पौलस्त्यतुलितस्याद्रेरादधान इव ह्रियम् ॥ ८०॥

अर्थ:
वहाँ रघु ने अपनी अक्षोभ्य यशोराशि स्थापित की और उतर आया। रावण द्वारा उठाए गए पर्वत (कैलाश) को लज्जित करते हुए की लज्जा हटाते हुए।

चकम्पे तीर्णलौहित्ये तस्मिन् प्राग्ज्यौतिषेश्वरः ।
तद्गजालानतां प्राप्तैः सह कालाग/गुरुद्रुमैः ॥ ८१ ॥

अर्थ:
जब वह लौहित्य नद पार हुआ तो प्राग्ज्योतिष जनपद का राजा काँप उठा उसके हाथियों के आलान बने कालागुरु वृक्षों के साथ।

न प्रसेहे स रुद्धार्कमधारावर्षि दुर्दिनम् ।
रथवर्त्मरजोऽप्यस्य कुत एव पताकिनीम् ॥ ८२॥

अर्थ:
वह तो सूर्य को ढँक देने वाले और धारावर्ष से रहित दुर्दिन बने उसके रथमार्ग की धूली को भी नहीं सह सका, सेना की तो बात ही कहाँ।

तमीशः कामरूपाणामत्याखण्डलविक्रमम् ।
भेजे भिन्नकटैर्नागैरन्यानुपरुरोध यैः ॥ ८३॥

अर्थ:
वहाँ कामरूप के स्वामी ने रघु की सेवा की फूटे गण्डस्थलों वाले हाथियों के उपहार से, जिनसे अन्यों का सामना करता रहा था वह।

कामरूपेश्वरस्तस्य हेमपीठाधिदेवताम् ।
रत्नपुष्पोपहारेणच्छायामानर्च पादयोः ॥ ८४॥

अर्थ:
कामरूपेश्वर ने रघु के पैरों की छाया की पूजा की, जो बनी हुई थी हेमपीठ की अधिदेवी। पूजा में उसने चढ़ाए रत्नपुष्पोपहार।

इति जित्वा दिशो जिष्णुर्व्यवर्त्तत रथोद्धतम् ।
रजो विश्रामयन् राज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु ॥ ८५॥

अर्थ:
इसी प्रकार निरन्तर विजय प्राप्त करता रघु लौट आया रथ से उठी धूली को राजाओं के छत्रशून्य सिरों पर उड़ेल कर।

स विश्वजितमाजहे यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम् ।
आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव ॥ ८६ ॥

अर्थ:
आकर उसने ठाना विश्वजित् नामक यज्ञ जिसकी दक्षिणा में सर्वस्व दे दिया जाता है। सत्पुरुषों का आदान तो होता ही है विसर्ग के लिए, मेघों के समान।

सत्त्रान्ते सचिवसखः पुरस्क्रियाभिर् गुर्वीभिः शमितपराजयव्यलीकान् ।
काकुत्स्थश्चिरविरहोत्युकाऽवरोधान् राजन्यान् स्वपुरनिवृत्तयेऽनुमेने ।। ८७ ।।

अर्थ:
सत्र हो जाने पर सचिव सहित रघु ने राजाओं को बड़े बड़े पुरस्कार दिए जिससे उनकी पराभव की ग्लानि हट गई। फिर उन्हें अपने अपने नगर लौट जाने की अनुज्ञा दी। उन सबकी रानियों को बिछुड़े अब तक काफी समय हो गया था।

ते रेखाध्वजकुलिशातपत्रचिह्न सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम् ।
प्रस्थानप्रणतिभिरङ्गुलीषु चक्रु- मौलिस्रक्च्युतमकरन्दरेणुगौरम् ॥ ८८ ॥

अर्थ:
जाते समय उन्होंने सम्राट् रघु के उनकी कृपा से ही प्राप्य चरणयुगल को प्रणाम किया, जिससे उनके सिर पर लगी माला के मकरन्द से उनकी उँगलियाँ धवल हो गई।

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

चतुर्थ सर्ग कथा:-

रघु के कुशल शासन से प्रभावित होकर प्रजा शीघ्र ही दिलीप को भूल गयी। न्याय करते समय, देवी लक्ष्मी और सरस्वती दोनों रघु के गुणों की ओर आकर्षित हुईं और उनके सामने नए रूपों में प्रकट हुईं।

जैसे ही शरद ऋतु आई, महाराज रघु ने विश्व विजय की इच्छा से प्रेरित होकर शुभ समय पर होम अनुष्ठान का आयोजन किया। सावधानीपूर्वक तैयारी के साथ, उसने अपनी सेनाओं को सजाया और पूर्व की ओर यात्रा पर निकल पड़ा। रास्ते में, रघु ने राजाओं को हराया और कलिंग क्षेत्र की ओर बढ़ते हुए समुद्र तक पहुँच गए। कलिंग के लोगों के प्रयासों के बावजूद, वे हार गए।

समुद्र के किनारे दक्षिण की ओर बढ़ते हुए, रघु ने पांड्यों का सामना किया और उन्हें हरा दिया। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाकों को पार करते हुए, वे पारसियों के साथ भीषण युद्ध करते हुए केरल की ओर बढ़े। इस तीव्र संघर्ष में अनेक विरोधी मारे गये। उत्तर की ओर बढ़ते हुए, रघु हूण लोगों के खिलाफ जीत हासिल करते हुए हूण देश पहुंचे।

रघु का नाम सुनकर कम्बोज देशवासी भय से भर गये और आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद, रघु ने कैलाश पर्वत पर एक बड़ी सेना का नेतृत्व किया, जहां उन्होंने पहाड़ियों पर युद्ध किया, महत्वपूर्ण स्थानों पर विजय प्राप्त की और तिशेश्वर की ओर आगे बढ़े। हालाँकि, निवासियों के गुस्से को सहन करने में असमर्थ, उसने कामरूप की ओर अपना रास्ता बदल दिया। उनसे प्रसन्न होकर रघु अपनी टोली सहित अयोध्या लौट आये।

अयोध्या में महाराज रघु ने सभी दिशाओं पर विजय प्राप्त करने के इरादे से विश्वजित्न मक यज्ञ करवाया। इस भव्य अनुष्ठान को दक्षिणा के उदार वितरण द्वारा चिह्नित किया गया था, जो दूर-दूर तक अपना शासन स्थापित करने के लिए उनकी उदारता और प्रतिबद्धता को दर्शाता था।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य पञ्चम सर्गः

इति रघुवंशे महाकाव्ये कालिदासकृतौ रघुदिग्विजयो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥

अर्थ:
इस प्रकार महाकवि कालिदास की कृति रघुवंश महाकाव्य में रघुदिग्विजय नामक पूर्ण हुआ चतुर्थ सर्गः ।। ४।।

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