Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg
रघुवंश महाकाव्य सप्तम सर्ग | Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg
संस्कृत कवि कालिदास द्वारा रचित “रघुवंश महाकाव्य” का सातवाँ सर्ग (Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg) मुख्य रूप से राजा रघु के पुत्र अज के विवाह और उसके बाद के पराक्रमों पर विस्तृत वर्णन कहा गया है। इस खंड में अज और इंदुमती के विवाह और उसके बाद की घटनाओं का विवरण है। रघुवंश महाकाव्य का सातवाँ सर्ग की शुरुआत अज और इंदुमती के विवाह से होती है। कथा में विवाह समारोह की भव्यता और राजपरिवार में होने वाली खुशी पर जोर दिया गया है।
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः
॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य षष्ठः सर्गः ॥
॥ श्रीः रघुवंशम् ॥
अथोपयन्त्रा सदृशेन युक्तां स्कन्देन साक्षादिव देवसेनाम् ।
स्वसारमादाय विदर्भनाथः पुरप्रवेशाभिमुखो बभूव ৷৷१৷৷
अर्थ:
स्वयंवर संपन्न हो जाने के पश्चात् विदर्भनाथ प्रत्यक्ष स्कन्द से युक्त देवसना के समान अनुरूप पति से युक्त बहिन को लेकर पुरप्रवेश के लिए चले।
सेनानिवेशान् पृथिवीक्षितोऽपि जग्मुर्विभातग्रहमन्दभासः ।
भोज्यां प्रति व्यर्थमनोरथत्वाद् रूपेषु वेषेषु च साभ्यसूयाः ৷৷ २ ৷৷
अर्थ:
राजा लोग भी अपने अपने सेना-निवेशों को चले गए, वे प्रभातकालीन ग्रहों के समान धूमिल थे। इन्दुमती के प्रति अपनी इच्छा विफल होने के कारण उन्हें न अपना रूप अच्छा लग रहा था न अपना वेष।
सान्निध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयम्वरक्षोभकृतामभावः ।
काकुत्स्थमुद्दिश्य समत्सरोऽपि शशाम तेन क्षितिपाललोकः ৷৷ ३ ৷৷
अर्थ:
स्वयंवर स्थल में शची का निवास रहता है, अत्तः स्वयंवर में तो किसी ने कोई शोभ पैदा नहीं किया और अज के प्रति मात्सर्वग्रस्त होने पर भी असफल राजा शान्त रहे।
तावत् प्रकीर्णाभिनवोपचार-मिन्द्रायुध-द्योतित-तोरणाङ्कम् ।
वरः स वध्वा सह राजमार्ग प्राप ध्वजच्छायनिवारितोष्णम् ৷৷ ४ ৷৷
अर्थ:
तभी तक वह वर (अज) उस वधू (इन्दुमती) के साथ राजमार्ग पहुँचा। राजमार्ग पर पुष्यों की नई नई लड़ियाँ बिखरी हुई थीं, तोरण की गोद में इन्द्रधनुष झलक रहा था और ध्वजो की छाया से गर्मी शान्त थी।
ततस्तदालोकनतत्पराणां सौधेषु चामीकरजालवत्सु ।
बभूवुरित्थं पुरसुन्दरीणां त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि ৷৷ ५ ৷৷
अर्थ:
इसके बाद वर-वधू को देखने हेतु तत्पर पुरसुन्दरियाँ सब काम छोड़कर सुनहली जाली वाले सौधों पर इस प्रकार की चेष्टाओं में देखी गई।
आलोकमार्ग सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः ।
बन्धु न संभावित एव तावत् करेण रुद्धोऽपि न केशपाशः ৷৷ ६ ৷৷
अर्थ:
कोई चोटी गूँथ रही थी और एकाएक चल पड़ी, फलतः जूड़ा खुल गया और फूल गिर पड़े। वह जूड़ा बाँध तो पाई ही नहीं, उसे हाथ से रोक भी नहीं सकी।
प्रसाधिकालम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद् द्रवरागमेव ।
उत्सृष्टलीलागतिरागवाक्षादलक्तकाङ्कां पदवीं ततान ৷৷७৷৷
अर्थ:
कोई पैर में प्रसाधिका से अलता लगवा रही थी। उसने प्रसाधिका द्वारा पकड़ा पंजा खींचा और लीलापूर्ण गति छोड़कर भागी तो गवाक्ष तक का मार्ग अलते से रंग गया, वह गीला था।
विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन संभाव्य तद्वञ्चितवामनेत्रा ।
तथैव वातायनसन्निकर्ष ययौ शलाकामपरा वहन्ती ৷৷ ८ ৷৷
अर्थ:
एक आँख में अंजन लगा रही थी। वह दाहिनी आँख में तो अञ्जन लगा पाई, किन्तु बायीं आँख को अंजन से वंचित ली हुई हाथ में शलाका लिए जा पहुँची वातायन के पास।
जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्ध नीवीम् ।
नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेण हस्तेन तस्थाववलम्ब्य वासः ৷৷ ९ ৷৷
अर्थ:
कोई चली तो उसकी नीवी खिसक गई, उसने उसे बाँधा नहीं और वस्त्र को हाथ से पकड़े रही। किन्तु उसकी दृष्टि लगी रही खिड़की की जाली में ही।
अर्धाचिता सत्वरमुत्थितायाः पदे पदे दुर्निभिते गलन्ती ।
कस्याश्चिदासीद् रसना तदानीमङ्गुष्ठमूलार्पितसूत्रशेषा ৷৷१०৷৷
अर्थ:
कोई करधनी बुन रही थी। वह एकाएक उठ खड़ी हुई और आड़े टेढ़े पैर रखती हुई आगे बढ़ी। उसकी अधगुँथी करधनी के गुरिए टपकते गए। अन्त में उसके अंगुष्ठमूल में धागा ही शेष रह गया।
तासां मुखैरासवगन्धगर्नैव्र्व्याप्तान्तराः सान्द्रकुतूहलानाम् ।
विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्त्राभरणा इवासन् ৷৷ ११ ৷৷
अर्थ:
घने कुतूहल से भरी उन ललनाओं के मुखों से लग रहा था कि झरोखों में कमलपुष्प का सिंगार किया गया है। आसव की गन्ध उनमें फैली हुई ही। विलोल नेत्र बन रहे थे भ्रमर।
ता रावं दृष्टिभिरापिबन्त्यो नार्यो न जग्मुर्विषयान्तराणि ।
तथाहि शेषेन्द्रियवृत्तिरासां सर्वात्म चक्षुरिव प्रविष्टा ॥१२॥
अर्थ:
वे नारियाँ अज को बार बार देखती और देखती ही जाती। उनका मन अन्य किसी विषय की ओर जा ही नहीं रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे शेष इन्द्रियों की वृत्तियाँ भी चक्षुरिन्द्रिय में ही सर्वात्मना आ समाई थीं।
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री बटुक भैरव स्तोत्र
स्थाने वृता भूपतिभिः परोक्षैः स्वया रं साधुममंस्त बाला ।
पद्येव नारायणमन्यथाऽसौ लभेत कान्तं कथमात्मतुल्यम् ৷৷१३৷৷
अर्थ:
माँगा तो सहस्रों राजाओं ने था तब भी इस कुमारी ने स्वयंवर चाहा। ठीक ही किया इसने। नहीं तो यह अपने अनुरूप पति कैसे पाती नारायण को लक्ष्मी के समान।
परस्परेण स्पृहणीयशोभं न चेदिदं द्वन्द्वमयोजयिष्यत् ।
अस्मिन् द्वये रूपविधानयत्नः पत्युः प्रजानां वितथोऽभविष्यत् ৷৷१४৷৷
अर्थ:
परस्पर में स्पृहणीय शोभा वाली इस जोड़ी को न मिलाता तो इन दोनों में रूपविधान पर किया विधाता का परिश्रम व्यर्थ हो जाता।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
रतिस्मरी नूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्त्रेषु तथाहि बाला ।
गतेयमात्मप्रतिरूपमेव मनो हि जन्मान्तरसंगतिज्ञम् ৷৷१५৷৷
अर्थ:
निश्चित ही ये दोनों रति और काम रहे, तभी तो इस बाला ने सहस्रों राजाओं के बीच अपने अनुरूप का ही वरण किया। मन में पुराने जन्म की पहचान छिपी रहती है।
इत्युद्गताः पौरवधूमुखेभ्यः शृण्वन् कथाः श्रोत्रसुखाः कुमारः ।
उद्भासितं मङ्गलसविधाभिः संबन्धिनः सद्म समासाद ৷৷ १६ ৷৷
अर्थ:
ऐसे उद्गार नगर की महिलाओं के मुख से निकल रहे थे। उन कर्णप्रिय वाक्यों को सुनते-सुनते कुमार अज अपने सम्बन्धी के भवन आ पहुँचा, जो मांगलिक विधि विधानों से उन्द्रासित था।
ततोऽवतीर्याशु करेणुकायाः स कामरूपेश्वरदत्तहस्तः ।
वैदर्भनिर्दिष्टमथो विवेश नारीमनांसीव चतुष्कमन्तः ৷৷१७৷৷
अर्थ:
वहाँ अज हाथिनी से उतरा, उसे दिया हाथ कामरूप के महाराज ने। फिर स्वयं वैदर्भ भोज के द्वारा बतलाए गए भवन के भीतरी चौक और नारियों के मन में साथ ही प्रविष्ट हुआ कुमार।
महार्हसिंहासन संस्थितोऽसौ सरत्नमर्घ्य मधुपक्कमिश्रम् ।
भोजोपनीतं च दुकूलयुग्मं जग्राह सार्धं वनिताकटाक्षैः ৷৷१८৷৷
अर्थ:
वहाँ बहुमूल्य सिंहासन पर बैठे अज ने रत्नसहित अर्घ्य, मधुपर्क और भोज द्वारा उपहत दुकूल का जोड़ा वनिताओं के कटाक्षों के साथ ग्रहण किया।
दुकूलवासाः स बधूसमीपं निन्ये विनीतैरवरोधरक्षैः ।
वेलासकाशं स्फुटफेनराजिर्नवैरुदन्वानिव चन्द्रपादैः ৷৷१९৷৷
अर्थ:
दुकूल धारण किए हुए अज को सधे सभाए अन्तः पुररक्षक ले गए वधू के पास, उसी प्रकार जिस प्रकार नई चन्द्रकिरणे फेन से अलंकृत समुद्र को ले जाती हैं वेला के पास।
(वित्ता तटभूमि
तत्रार्चितो भोजपतेः पुरोधाः हुत्वाग्निमाज्यादिभिरग्निकल्पः ।
तमेव चाधाय विवाहसाक्ष्ये वधूवरौ संगमयाञ्चकार ৷৷ २० ৷৷
अर्थ:
वहाँ विराजमान थे भोजपति के अग्नि जैसे तेजस्वी पुरोधा, जिनकी पूजा हो चुकी थी। उन्होंने घृत आदि से हवन कर अग्नि प्रज्वलित की और उसी को विवाह का साक्षी बनाकर वर और वधू को मिला दिया।
हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वाः स राजसूनुः सुतरां चकासे ।
अनन्तराऽशोकलताप्रवालं प्राप्येव चूतः प्रतिपल्लवेन ৷৷ २१ ৷৷
अर्थ:
वह राजकुमार अपने हाथ से वधू का हाथ पकड़े और अधिक सुहावना लगा। पास की अशोकलता का प्रवाल अपने पल्लव में लिए आम्रवृक्ष भो ऐसा ही सुहावना लगता है।
आसीद् वरः कण्टकितप्रकोष्ठः स्विन्नाङ्गुलिः संववृते कुमारी ।
तस्मिन् द्वये तत्क्षणमात्मवृत्तिः समं विभक्तेव मनोभवेन ৷৷ २२ ৷৷
अर्थ:
एक दूसरे के स्पर्श से वर की कलाई में रोमांच दिखाई दिया और वधू की उँगलियों में पसीना। उस समय काम ने अपनी वृत्ति (सात्त्विक भाव) एक साथ बाँट सी दी।
तयोरुपान्त प्रतिसारितानि क्रियासमापत्ति-विवर्त्तितानि ।
ह्रीयन्त्रणामानशिरे मनोज्ञामन्योन्यलोलानि विलोचनानि ৷৷ २३ ৷৷
अर्थ:
उनके नेत्र बाजू की ओर बढ़े और काम पूरा हो जाते ही लौट पड़े। यह थी बड़ी ही मीठी लाज। दोनों के नेत्र थे इनकी यन्त्रणा में।
प्रदक्षिणप्रक्रमणात् कृशानोरुदर्चिषस्तन्मिथुनं चकासे ।
मेरोरुपान्तेष्विव वर्त्तमानमन्योन्यसंसक्तमहस्त्रियामम् ৷৷ २४৷৷
अर्थ:
अब हुई अग्नि प्रदक्षिणा। प्रज्वलित अग्नि की प्रदक्षिणा कर रहे वे दोनों ऐसे लग रहे थे जैसे मेरु के आसपास वर्त्तमान अन्योन्यसंसक्त ‘दिन और रात’ लगते हैं।
नितम्बगुर्वी गुरुणा प्रयुक्ता वधूर्विधातृप्रतिमेन तेन ।
चकार सा मत्तचकोरनेत्रा लज्जावती लाजविसर्गमग्नौ ৷৷ २५ ৷৷
अर्थ:
नितम्वगुर्वी और मत्तचकोरनेत्रा वधू ने गुरु के निर्देश पर अग्नि में लजाते लजाते लाजाहुति छोड़ी।
हविः- शमीपल्लवलाजगन्धी पुण्यः कृशानोरुदियाय धूमः ।
कपोलसंसर्पिशिखः स तस्या मुहूर्त्तकर्णोत्पलतां प्रपेदे ৷৷ २६ ৷৷
अर्थ:
हविष्य में शमीपल्लव थे और लाजा। अग्नि से उनकी सुगन्ध लिए धुँआ उठा। कपोल के पास आया वह क्षणभर उस वधू के लिए करनफूल बन गया।
तदअनक्लेदसमाकुलाक्षं प्रम्लानबीजाकुरकर्णपूरम् ।
वधूमुखं पाटलगण्डलेखमाचार धूमग्रहणाद् बभूव ৷৷ २७৷৷
अर्थ:
इस धूम के ग्रहण का प्रभाव वधू के मुखमण्डल पर दिखाई दिया। उसके नेत्रों में लगा काजल फैल गया, कान पर लगा बीजाङ्कुर कुम्हला गया और कपोल पर लाल रेखाएँ उभर उठीं।
तौ स्नातकैर्बन्धुमता च राज्ञा पुरन्ध्रिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम् ।
कन्याकुमारौ कनकासनस्थावार्द्राक्षतारोपणमन्वभूताम् ৷৷ २८ ৷৷
अर्थ:
अब कन्या और कुमार बैठाए गए सोने के सिंहासन पर। वहाँ उनको लगाए गए आक्षित। आक्षित लगाए स्नातकों ने, राजा ने, उसके बन्धु बान्धवों ने और सुहागिनों ने क्रम से।
इति स्वसुर्भोजकुलप्रदीपः संपाद्य पाणिग्रहणं स राजा ।
महीपतीनां पृथगर्हणार्थं समादिदेशाधिकृतानधिश्रीः ৷৷ २९ ৷৷
अर्थ:
इस प्रकार भोजकुलप्रदीप राजा ने अपनी बहिन का पाणिग्रहण संपन्न किया और समागत अन्य राजाओं की पूजा के लिए अधिकारियों को अधिकृत कर दिया। विदर्भराज श्री संपन्न था।
लिङ्गैर्मुदः संवृतविक्रियास्ते हृदाः प्रसन्ना इव गूढनक्राः ।
वैदर्भमामन्त्र्य ययुस्तदीयां प्रत्यर्च्य पूजामुपदाच्छलेन ৷৷ ३० ৷৷
अर्थ:
राजाओं के मन में था तो विकार, परन्तु उसे वे छिपाए रहे। वे उस समय ऐसे लगे जैसे घड़ियाल छिपाए स्वच्छ सरोवर लगते हैं। उन्होंने विदर्भनरेश से अनुज्ञा ली और चल दिए। चलते समय भेंट के बहाने लौटा भए भोज की सौगात।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
स राजलोकः कृतपूर्व्वसविदारम्भसिद्धौ समरोपलभ्यम् ।
आदास्यमानः प्रमदामिषं तमावृत्य पन्थानमजस्य तस्थौ ৷৷ ३१ ৷৷
अर्थ:
वे सब राजा सलाह कर अज का रास्ता रोककर खड़े हो गए, उन्हें ज्ञान था कि इन्दुमती की प्राप्ति में सफलता केवल युद्ध से ही संभव है। वे अभी भी उस इन्दुमतीरूपी वस्तु को पाने के इच्छुक थे।
भत्र्त्तापि तावत् क्रथकैशिकानामनुष्ठितानन्तरजाविवाहः ।
सत्त्वानुरूपाहरणीकृतश्रीः प्रास्थापयद् राघवमन्वगाच्च ৷৷ ३२৷৷
अर्थ:
विदर्भ के राजा भोज ने भी छोटी बहिन का विवाह संपन्न कर अपनी शक्ति के अनुसार दहेज दिया और अज को विदा किया। पीछे खुद भी चला।
तिस्स्रस्त्रिलोकप्रथितेन सार्धमजेन मार्गे वसतीरुषित्वा ।
तस्मादपावर्त्तत कुण्डिनेशः पर्वात्यये सोम इवोष्णरश्मेः ৷৷ ३३ ৷৷
अर्थ:
त्रैलोक्य में प्रसिद्ध अज के पीछे तीन रात चलकर कुण्डिनपुरेश भोज लौटे पूर्णिमा के बीत जाने पर सूर्य से चन्द्र की नॉई।
प्रमन्यवः प्रागपि कोसलेन्द्रे प्रत्येकमात्तस्वतया बभूवुः ।
अतो नृपाश्चक्षमिरे समेताः स्त्रीरत्नलाभं न तदात्मजस्य ৷৷ ३४৷৷
अर्थ:
ये राजा लोग कोसलेन्द्र पर पहले से ही नाराज थे, क्योंकि उनमें से प्रत्येक का धन दिग्विजय के समय छिना लिया गया था। इस कारण आज जब उसके पुत्र को स्वीरत्न का लाभ हुआ तो उसे वे सह नहीं सके।
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री राम चालीसा
तमुद्वहन्तं पथि भोजकन्यां रुरोध राजन्यगणः स सृष्टः ।
बलिप्रतिष्ठां श्रियमाददानं त्रैविक्रमं पादमिवेन्द्रशत्रुः ৷৷ ३५ ৷৷
अर्थ:
इन्दुमती के साथ जा रहे उस राजकुमार अज को उद्यत (सृष्ट) राजसमूह ने रास्ते में रोका, बलि द्वारा प्रदत्त श्री को धारण किए त्रिविक्रम के चरण को इन्द्रशत्रु (प्रह्लाद) के समान।
तस्याः स रक्षार्थमनल्पयोधमादिश्य पित्र्यं सचिवं कुमारः ।
प्रत्यग्रहीत् पार्थिववाहिनीं तां ज्योतीरथीं शोण इवोत्तरङ्गः ৷৷ ३६ ৷৷
अर्थ:
अज ने इन्दुमती की रक्षा में पिता के सचिव को पर्याप्त सैनिकों के साथ नियुक्त किया और उस राजसेना का सामना किया, जैसे उत्तरंग शोणभद्र नद करता है ज्योतीरथी नदी का सामना (अमरकण्टक के पहले)।
पत्तिः पदातिं रथिनं रथेशस्तुरङ्गसादी तुरगाधिरूढम् ।
यन्ता गजस्याभ्यपतद् गजस्थं तुल्यप्रतिद्वन्द्वि बभूव युद्धम् ৷৷ ३७৷৷
अर्थ:
अब युद्ध ठना। उसमें तुल्य को चुना गया प्रतिद्वन्द्वी। पदाति भिड़ा पदाति से, रथी से रथस्थ, असवार से असवार और हाथी पर आरूढ़ हाथी पर सवार के साथ।
नदत्सु तूर्येष्वविभाव्यवाचो नोदीरयन्ति स्म कुलाऽपदेशान् ।
बाणाक्षरैरेव परस्परस्य नामोञ्जितं चापभृतः शशंसुः ৷৷ ३८ ৷৷
अर्थ:
ऐसा घोर युद्ध हुआ कि नगाड़ों की गड़गड़ाहट में योद्धा अपने कुल का उल्लेख शब्दों में नहीं कर रहे थे। धनुषधारी वे परस्पर का नाम बाणों पर लिखे अक्षरों से ही बतला पाते थे।
उत्थापितः संयति रेणुरश्वैः सान्द्रीकृतः स्यन्दनवंशचक्रैः ।
विस्तारितः कुञ्जरकर्णतालैरनुक्रमेणोपरुरोध सूर्यम् ৷৷ ३९ ৷৷
अर्थ:
धूल इतनी उठी कि उसने क्रम से सूर्यबिम्ब को बैंक लिया। धूली उठी अश्वों की टाप से, घनी हुई रथचक्रों से और फैला दी गई हाथियों के कर्णतालों से।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
मत्स्यध्वजा वायुवशाद् विदीर्णैर्मुखैः प्रवृद्धध्वजिनीरजांसि ।
बभुः पिबन्तः परमार्थमत्स्याः पर्याविलानीव नवोदकानि ৷৷ ४० ৷৷
अर्थ:
ध्वजों पर बने मत्स्यों के मुख इवा की चोट से फट गए और पीने लगे वे सेना की धूल। तब वे बाढ़ का मटमैला पानी पीते हुऐ सचमुब के मत्स्य लग रहे थे।
रथो रथाङ्गध्वनिना विजज्ञे विलोलघण्टाक्वणितेन नागः ।
स्वभर्तृनामग्रहणाद् बभूव सान्द्रे रजस्यात्मपराऽवबोधः ৷৷ ४१ ৷৷
अर्थ:
धूल इतनी घनी थी कि रथ समझ में आता था बकों की ध्वनि से, हाथी समझ पड़ता था हिलते घण्टों की ध्वनि से और योद्धाओं को अपने पराए का ज्ञान होता था अपने स्वामी का नाम लेने से।
आवृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोऽन्धकारस्य विजृम्भितस्य ।
शस्त्रक्षताश्वद्विपवीरजन्मा बालारुणोऽभूद् रुधिरप्रवाहः ৷৷ ४२ ৷৷
अर्थ:
शस्त्रों से घायल अश्व, हाथी और वीरों के रक्त का प्रवाह बालारुण बन बैठा आँखों का मार्ग ढंके हुए रज के अंधकार के लिए।
सच्छिन्नमूलः क्षतजेन रेणुस्तस्योपरिष्टात् पवनावधूतः ।
अङ्गारशेषस्य हुताशनस्य पूर्वोत्थितो धूम इवाबभासे ৷৷ ४३ ৷৷
अर्थ:
उड़ी हुई धूल की जड़ तो रक्त से कट गई, किन्तु ऊपर उसे हवा उठाए ही रही। तब लगा कि वह अंगारों के रूप में परिणत अग्नि के पूर्वोत्थित धूम जैसा है।
प्रहारमूर्च्छापगमे रथस्था यन्तूनुपालभ्य विवर्त्तिताश्वान् ।
यैस्सादिता लक्षितपूर्वकेतूंस्तानेव सामर्षतया निजघ्नुः ।॥ ४४৷৷
अर्थ:
किसी रथस्थ योद्धा की प्रहारजन्य मूर्च्छा हटते ही उसने सारथि को फटकार कर रथ को लौटाया और जिनके प्रहार से मूर्च्छा आई थी उन्हीं पर गुस्से में भरकर आघात करना शुरू कर दिया। उन्हें पहचाना उनके पूर्वदृष्ट केतु देखकर।
अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भूतां हस्तवतां पृषत्काः ।
संप्रापुरेवात्मजवानुवृत्त्या पूर्वार्धभागैः फलिभिः शरव्यम् ৷৷ ४५ ৷৷
अर्थ:
कुशल धनुषधारी वीरों ने जो बाण छोड़े थे वे शत्रुबाणों से बीच में काट तो दिए गए, परन्तु अगले भाग से वे शत्रु तक पहुँच ही गए, उनमें वैसा वेग था ही।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
आधोरणानां गजसनिपाते शिरासि मुक्तैर्निशितैः क्षुरप्रैः ।
हृतान्यपि श्येननखाग्रकोटिव्यासक्तकेशानि चिरेण पेतुः ৷৷ ४६ ৷৷
अर्थ:
गजयुद्ध में गज पर बैठे वीरों के सिर तीक्ष्ण बाणों से कट तो गए थे, किन्तु बीच में उनके केश श्येनों के नखाग्र में फँस गए, फलतः उनके गिरने में कुछ समय लगा।
पूर्वप्रहर्त्ता न जघान भूयः प्रतिप्रहाराक्षममश्वसादी ।
तुरङ्गमस्कन्धनिषण्णदेहं प्रत्याश्वसन्तं रिपुमाचकाङ्क्ष ৷৷ ४७৷৷
अर्थ:
घुड़सवार सैनिकों में पहले जिसने प्रहार किया उसने दूसरा प्रहार नहीं किया। वह प्रतीक्षा करता रहा घायल होकर अश्व के कंधे पर लटके शत्रु के होश में आने की।
तनुत्यजां वर्मभृतां विकोशैर्वृहत्सु दन्तेष्वसिभिः पतद्भिः ।
उद्यन्तमग्निं शमयाम्बभूवुर्गजा विविग्नाः करसीकरेण ৷৷ ४८ ৷৷
अर्थ:
कवचधारी जो वीर प्राण छोड़ रहे थे उनकी नंगी तलवारें जब हाथियों के दाँतों पर पड़ी तो उनसे निकली चिनगारियाँ। हाथियों ने उन्हें अपनी सूँढ़ की फुहारों से बुझाया।
शिलीमुखोत्कृत्तशिरः-फलाढ्या च्युतैः शिरस्त्रैश्चषकोत्तरेव ।
रणक्षितिः शोणितमद्यकुल्या रराज मृत्योरिव पानभूमिः ৷৷ ४९ ৷৷
अर्थ:
रणभूमि मृत्यु की पानभूमि लग रही थी। बाणों से कटकर पड़े सिर थे उसमें ढेर सारे फल, गिरे शिरस्त्र थे चषक और शोणित था मद्य।
उपान्तयोर्निष्कुषितं विहङ्गैराक्षिप्य तेभ्यः पिशितप्रियाऽपि ।
केयूरकोटिक्षततालुदेशा शिवा भुजच्छेदमपाचकार ৷৷ ५० ৷৷
अर्थ:
किसी वीर की भुजा कटकर गिरो हुई थी। उसे पक्षी टोच चुके थे। उनसे उसे शिवा (लोमडी) ने छीना और मांसप्रिय होते हुए भी उसे छोड़कर दूर खड़ी हो गई। क्यों। इसलिए कि उसके केयूर के नीकदार सिरे से उसका तालु घायल हो गया था।
कश्चिद् द्विषत्खड्गहृतोत्तमाङ्गः सद्यो विमानप्रभुतामुपेत्य ।
वामाङ्गसंसक्तसुराङ्गनः स्वं नृत्यत्कबन्धं समरे ददर्श ৷৷ ५१ ৷৷
अर्थ:
किसी वीर का सिर शत्रुखड्ग से कट गया। तुरन्त ही वह स्वर्गीय विमान पर आरूढ़ हुआ। सुराङ्गना बाँए भाग में संसक्त हो गई और उसने देखा कि उसका कबन्ध युद्ध में नाच रहा है।
अन्योन्यसूतोन्मथनादभूतां तावेव सूतौ रथिनौ च कौचित् ।
व्यश्वौ गदाव्यायतसंप्रहारी भग्नायुधौ बाहुविमर्हनिष्ठौ ৷৷ ५२ ৷৷
अर्थ:
एक दूसरे के सूतों के कालकवलित हो जाने से कोई दो वीरों में से वे ही बन गए सूत और रथी दोनों। उनके घोड़ों के मर जाने पर वे ही करने लगे गदा से भीषण प्रहार और जब गदा भी कट गई तो लगे करने बाहुयुद्ध।
परस्परेण क्षतयोः प्रहर्वोरुत्क्रान्तवाय्वोः समकालमेव ।
अमर्त्यभावेऽपि कयोश्चिदासीदेकाप्सरः प्रार्थितयोर्विवादः ৷৷ ५३৷৷
अर्थ:
दो वीर समरभूमि में एक दूसरे के प्रहार से एक साथ निष्प्राण हो गए और चन गए देवता, किन्तु वहाँ भी उनका युद्ध चलता ही रहा। वे दोनों किसी एक अप्सरा को बाह रहे थे और लड़ रहे थे।
व्यूहावुभौ तावितरेतरस्माद् भङ्ग जयं चापतुरव्यवस्थम् ।
पश्चात्पुरोमारुतयोः प्रवृद्धौ पर्यायवृत्त्येव महार्णवोर्मी ৷৷ ५४৷৷
अर्थ:
वे दोनों व्यूह एक दूसरे से कभी हारते और कभी जीतते जाते। पीछे और सामने की हवा से उठी समुद्री तरङ्गों के समान एक एक कर।
परेण भग्नेऽपि बले महौजा ययावजः प्रत्यरिसैन्यमेव ।
धूमो निवत्त्र्येत समीरणेन यतस्तु कक्षस्तत एव वह्निः ৷৷ ५५৷৷
अर्थ:
शत्रु सेना ने अज की सेना तो नष्ट कर दी, परन्तु अज शत्रु सेना की ओर बढ़ता ही गया। हवा धूम को भगा दे, परन्तु अग्नि तो उस ओर बढ़ता ही जाता है जिधर घाँस रहती है।
रथी निषङ्गी कवची धनुष्मान् दृप्तं स राजन्यकमेकवीरः ।
विलोडयामास महावराहः कल्पक्षयोवृत्तमिवार्णवाम्भः ৷৷ ५६ ৷৷
अर्थ:
उस अकेले वीर अज ने रथी का भी काम किया, निषङ्गी का भी तथा धनुषधारी का भी और मथ डाला उस दृप्त राजसमूह को। कल्पक्षय में महार्णव के उफनते जल को भगवान महावराह ने अकेले ही मथ ही डाला था।
न दक्षिणं तूणमुखे न वामं व्यापारयन् हस्तमलक्ष्यतासौ ।
आकर्णकृष्टा सकृदस्य योद्धर्मोव्र्व्वव बाणान् सुषुवे रिपुघ्नान् ৷৷ ५७৷৷
अर्थ:
न वह दिखाई देता था दाहिने तूणीर पर हाथ घुमाते और न दिखाई देता था बाएँ तूणीर पर हाथ घुमाते। एक बार कान तक खिंची प्रत्यञ्चा ही, ऐसा लगता था, जैसे शत्रुघाती बाण पैदा करती जा रही थी।
स रोषदष्टाधरलोहिताक्षैर्व्यक्तोध्वरेखा भुकुटीर्वहद्भिः ।
तस्तार गां भल्लनिकृत्तकण्ठैर्दुङ्कारगभैर्द्विषतां शिरोभिः ৷৷ ५८ ৷৷
अर्थ:
उसने शत्रुओं के सिरों से भूमि पाट दी। सिरों की आँखें रोष से काटे अधर सी लाल थीं, भौहे ऊपर चढ़ी दिखाई दे रही थी, भल्ल (अर्धचन्द्राकार) बाणों से कण्ठ कट चुके थे और उनमें हुड्ङ्कार भरी हुई थी।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
सव्वैर्बलाङ्गैर्द्विरदप्रधानैः सर्व्वायुधैः कङ्कट भेदिभिश्च ।
सर्व्वप्रयत्नेन च भूमिपालास्तस्मिन् प्रजहुर्युधि सर्व एव ॥ ५९॥
अर्थ:
सेना के सभी अड्गों के द्वारा, जिनमें हाथी प्रधान थे, कवचभेदी सभी अस्त्रों के द्वारा और सभी प्रयत्नों से उन सभी राजाओं ने उस अकेले अज पर प्रहार किए, उस युद्ध में।
सोऽस्त्रव्रजैश्छन्नरथः परेषां ध्वजाग्रमात्रेण बभूव लक्ष्यः ।
नीहारमग्नो दिनपूर्वभागः किञ्चित्प्रकाशेन विवस्वतेव ৷৷ ६० ৷৷
अर्थ:
अस्खों से अज का रथ छिप गया। ध्वजाग्र मात्र से वह लक्षित हो रहा था, दिन का
कुहरे से आवृत पूर्वभाग जैसे लक्षित होता कुछ कुछ प्रकाशित सूर्यबिम्ब से।
प्रियम्वदात् प्राप्तमथो कुमारः प्रायुक्त राजस्वधिराजसूनुः ।
गान्धर्व्वमस्त्रं कुसुमास्त्रकान्तः प्रस्वापनं स्वप्ननिवृत्तलौल्यः ৷৷ ६१ ৷৷
अर्थ:
अब काम से सुन्दर अधिराजसूनु अज ने राजाओं पर चलाया प्रियम्वद से प्राप्त प्रस्वापननामक गान्धर्व अस्त्र। अज स्वयं स्वप्न की चपलता से दूर था।
ततो धनुष्कर्षणमूढहस्तमेकांसपर्यस्तशिरखजालम् ।
तस्थौ ध्वजस्तम्भनिषण्णदेहं निद्राविधेयं नरदेवसैन्यम् ৷৷ ६२ ৷৷
अर्थ:
परिणाम यह हुआ कि राजाओं की सेना नींद के वश में हो गई। उसके हाथ धनुष का खींचना भूल गए, शिरस्त्र एक कंधे पर लटक गए और ध्वज के स्तम्भ से उनके जा टिके शरीर।
ततः प्रियोपात्तरसेऽधरोष्ठे निवेश्य दध्मौ जलजं कुमारः ।
येन स्वहस्तार्जितमेकवीरः पिबन् यशो मूत्र्त्तमिवाबभासे ৷৷ ६३ ৷৷
अर्थ:
इसके पश्चात् कुमार अज ने प्रिया द्वारा चुम्बित अधरोष्ठ पर रखकर फूंका शङ्ख। मुँह से शङ्ख लगाए वह ऐसा लग रहा था कि वह मूर्त यश का पान कर रहा है। वह वीर था अपने बाहुबल पर।
शङ्खस्वनाभिज्ञतया निवृत्तास्तं सन्नशत्रु ददृशुः स्वयोधाः ।
निमीलितानामिव पङ्कजानां मध्ये स्फुरन्तं प्रतिमाशशाङ्कम् ৷৷ ६४৷৷
अर्थ:
युद्धभूमि से भागे योद्धा शत्रुओं को ध्वस्त कर चुके उस कुमार के पास लौटे, वे उसके शंख की ध्वनि से परिचित जो थे। उन ध्वस्त शत्रुओं के बीच वह ऐसा लगता था जैसे निमीलित कमलों के बीच स्फुरित चन्द्रबिम्ब लगता है।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
सशोणितैस्तेन शिलीमुखाग्रैर्निक्षेपिता केतुषु पार्थिवानाम् ।
यशो हृतं संयति राघवेण न जीवितं वः कृपयेति वर्णाः ৷৷ ६५৷৷
अर्थ:
अज ने शत्रु राजाओं के ध्वजपटों पर रक्तरंजित बाणों से ये अक्षर लिख दिए कि आप लोगों का यश ही युद्ध में छिनाया है कुमार अज ने, प्राण नहीं। वह कृपालु भी है।
स. चापकोटीनिहितैकबाहुः शिरस्त्रनिष्कर्षणभिन्नमौलिः ।
ललाटबद्धश्रमवारिबिन्दुर्भीतां प्रियामेत्य वचो बभाषे ৷৷ ६६ ৷৷
अर्थ:
अज अब पहुँचा डरी प्रिया के पास। उसका एक बाहु चाप के सिरे पर निहित था, शिरस्वाण निकालने से उसके केश बिखरे हुए थे और उसके ललाट पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं। उसने कहा।
यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ अध्यात्म रामायण
इतः परानर्भकहार्यशस्त्रान् वैदेहि! पश्यानुमता मयासि ।
एवंविधेनाहवचेष्टितेन त्वं प्रार्थ्यसे हस्तगता ममैभिः ৷৷ ६७ ৷৷
अर्थ:
‘वैदर्भि ! मेरी अनुमति है। तुम देखो तो क्या स्थिति है इन राजाओं की। इनके शस्त्र तो बच्चे भी खींच सकते हैं। ये मेरे द्वारा हस्तगत तुमको चाह रहे थे इस प्रकार की युद्धचेष्टा के द्वारा।’
तस्याः प्रतिद्वन्द्विभवाद् विषादात् सद्यो विमुक्त मुखमाबभासे ।
निःश्वासबाष्पापगमात् प्रपन्नः प्रसादमात्मीयमिवात्मदर्शः ৷৷ ६८ ৷৷
अर्थ:
प्रतिद्वन्द्वियों से उत्पन्न विषाद से उस (इन्दुमती) का मुखमण्डल तुरन्त मुक्त होकर ऐसा लगा, जैसा लगता है आदमकद आदर्श अपनी श्वास के हट जाने पर अपनी स्वाभाविक स्वच्छता को प्राप्त होने पर।
हृष्टापि सा हीविजिता न साक्षाद् वाग्भिः सखीनां प्रियमभ्यनन्दत् ।
स्थली नवाम्भः पृषताभिवृष्टा मयूरकेकाभिरिवाभ्रवृन्दम् ৷৷ ६९ ৷৷
अर्थ:
इन्दुमती को बड़ी प्रसन्नता हुई, किन्तु लज्जावश उसने स्वयं नहीं, अपितु, सखियों की वाणी में प्रिय का अभिनन्दन किया, उस स्थली के समान जो नई बूंदों की वर्षा पर अभ्रवृन्द का अभिवादन मयूर केका से करती है।(Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg)
इति शिरसि स वामं पादमाधाय राज्ञा- मुदवहदनवद्यां तामवद्यादपेतः ।
रथतुरगरजोभिस्तस्य रूक्षालकाग्रा समरविजयलक्ष्मीः सैव मूर्त्ता बभूव ৷৷ ७० ৷৷
अर्थ:
इस प्रकार वह अज शत्रुओं के सिर पर बाँया पैर रखकर उस अनवद्य राजकुमारी को ब्याह सका, स्वयं भी यह अनवद्य था। उसके लिए वह इन्दुमती ही मूर्त समरविजयलक्ष्मी बनी, जिसके अलकाग्र रथतुरगरज से रूक्ष थे ही।
प्रथमपरिगतार्थस्तं रघुः संनिवृत्तं विजयिनमभिनन्द्य श्लाघ्यजायासमेतम् ।
तदुपहितकुटुम्बः शान्तिमार्गोत्सुकोऽभू त्रहि सति कुलधुर्ये सूर्यवंश्या गृहाय ৷৷ ७१ ৷৷
अर्थ:
रघु को पहले ही मिल चुकी थी सारी सूचनाएँ। उसने श्लाध्य जाया के साथ आए विजयी पुत्र अज का अभिनन्दन किया और कुटुम्ब को उसे सौप वह शान्ति मार्ग के लिए उत्सुक हो गया। सूर्यवंश के वीरों का यही क्रम है कि कुल को सम्हालने वाला तैयार हो जाने पर वे घर में रहना पसन्द नहीं करते।
इति रघुवंशे महाकाव्ये कालिदासकृतौ अजविवाहो नाम सप्तमः सर्गः ৷৷ ७ ৷৷
इस प्रकार महाकवि कालिदास की कृति रघुवंश महाकाव्य में अजविवाह नामक पूरा हुआ सप्तम सर्ग ৷৷ ७ ৷৷
सातवाँ सर्ग की कथा :
रघुवंश महाकाव्य सातवाँ सर्ग (Raghuvansh Mahakavya 7 Sarg) की शुरुआत अज और इंदुमती के विवाह से होती है। कथा में विवाह समारोह की भव्यता और राजपरिवार में होने वाली खुशी पर जोर दिया गया है। इन्दुमती को विवाह कर जब राजा अज अयोध्याको चले, तब मार्ग में स्वयम्बर के राजों से उसका महा संग्राम हुआ, अज ने गन्धर्भ के दिये अस्त्र का उनपर प्रयोग किया, जिससे सब राजाओ की सेना को नींद आगई, उन्हें जीता छोड अज आनन्दपूर्वक अयोध्या में अये, तब. राजा रघुने उसे नए राजा के रूप में राज्याभिषेक करते हैं और फिर जीवन के बाद के चरणों में सांसारिक कर्तव्यों को त्याग ने की परंपरा का पालन करते हुए वन में चले जाते हैं।
सातवाँ सर्ग महाकाव्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यह अज की ताकत और नेतृत्व को दर्शाता है, जो एक शासक के रूप में उसकी भविष्य की भूमिका के लिए मंच तैयार करता है।