पंचदेव अथर्वशीर्ष संग्रह हिंदी में
‘पंचदेव अथर्वशीर्ष’ (Panchdev Atharvashirsha in Hindi) अथर्ववेद का एक भाग ही है, जिसे हम उपनिषद भी कह सकते है। वेद के चार भाग हे, संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इसे श्रुति भी कहा जाता है। अधिकतम उपनिषद् करीब-करीब आरण्यक भाग के हैं। अथर्वशीर्ष अथर्ववेद के आखीर में आते हैं, यह उपनिषद् ही हैं। ये सभी विद्याओं में व्यापक ‘ब्रह्मविद्या’ को प्रतिपादन करनेवाला होने के कारण जैसा होना चाहिए ठीक वैसा अथर्वशीर्ष’ कहलाते हैं।
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पंचदेवों में गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य क्रमानुसार पाँच अथर्वशीर्ष हैं- जो निम्नलिखित है।
1) गणपत्यथर्वशीर्षम्
अथर्वशीर्ष की परंपरा में ‘गणपत्यथर्वशीर्ष’ का विशेष महत्व है। लगभग हर शुभ कार्य में गणपति की पूजा के बाद इसे प्रार्थना के रूप में पढ़ने की परंपरा है। यह भगवान गणपति की वैदिक स्तुति है। इसमें गणपति महामंत्र ‘ॐ गं गणपतये नमः’ और गणेश गायत्री मंत्र भी महात्म्य के साथ शामिल हैं। जो इसका पाठ करता है, वह किसी भी प्रकार की बाधा से रहित होकर महान संकटों से मुक्त हो जाता है और चारों पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
2) शिवाथर्वशीर्षम्
अथर्वशीर्ष (Panchdev Atharvashirsha in Hindi) की परंपरा में शिवथर्वशीर्ष अपेक्षाकृत सबसे बड़ा है। शिव पूजा में इसका विशेष महत्व है। इसमें देवताओं द्वारा भगवान रूद्र को सर्वशक्तिमान मानकर उनकी स्तुति की गयी है। साथ ही इनके स्वरूप की गूढ़ तात्विक व्याख्या भी दी गयी है। इस अथर्वशीर्ष को पढ़ने से अद्भुत फल का वर्णन किया गया है। इसके पाठ से सभी तीर्थों में स्नान, सभी यज्ञ करने, साठ हजार गायत्री जप, एक लाख रुद्र जप और दस हजार प्रणवजप का फल तो मिलता ही है, वेद और पुराणों के अध्ययन का फल भी मिलता है। वह न केवल स्वयं को सभी पापों से मुक्त करता है, बल्कि अपने से पहले की सात पीढ़ियों को भी मुक्त कराता है। इसके नतीजों में कई अन्य अनोखे नतीजे भी बताए गए हैं।
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3) देव्यथर्वशीर्षम्
अथर्वशीर्ष-देव्यथर्वशीर्ष परंपरा में बहुत प्रसिद्ध है। इसका पाठ करने से देवी की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। इसके पाठ से पांचों अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है-ऐसा इसके फल में बताया गया है। इसके परिणाम बहुत महत्वपूर्ण हैं जैसे सभी पापों का नाश, बड़े संकट से मुक्ति, मोक्ष, जीवन में सफलता, देवताओं का साथ आदि। मूर्ति के अभिषेक के समय इसका जाप करने से व्यक्ति को देवता के निकट प्राप्त होता है। इसमें मौत को भी टालने की ताकत होती है। इसमें देवी के नवार्णमंत्र ‘ऐ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ की शिक्षा और महिमा का भी वर्णन किया गया है।
4) नारायणाथर्वशीर्षम्
अथर्वशीर्ष (Panchdev Atharvashirsha in Hindi) की परंपरा में नारायणथर्वशीर्ष विशेष है; क्योंकि जहां इसकी गणना कृष्णयजुर्वेदिक परंपरा के उपनिषदों में की गई है, वहीं इसमें चारों वेदों ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद की शिक्षाओं का सार ‘शिर’ (शीर्ष) के रूप में वर्णित है। इसमें भगवान नारायण से ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और उनके सभी रूपों में प्रकट होने का वर्णन किया गया है। इस लघु अथर्वशीर्ष में भगवान नारायण के अष्टाक्षर मन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का उपदेश भी बताया गया है। इस अथर्वशीर्ष का पाठ करने से चारों वेदों के पाठ का फल प्राप्त होता है।
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5) सूर्याथर्वशीर्षम्
अथर्वशीर्ष – परंपरा में सूर्यअथर्वशीर्ष आकार की दृष्टि से छोटा है, लेकिन इसका महत्व व्यापक है। सूर्योपासना में यह कल्पवृक्ष के समान है। इसके अंतर्गत सूर्यगायत्री के अलावा भगवान सूर्य के अष्टाक्षर मंत्र ‘ॐ घृणिः सूर्य आदित्य ॐ’ का भी बड़ा महत्व बताया गया है। इसका जाप करने वाले को अनेक सांसारिक एवं पारलौकिक सुखों की प्राप्ति हो सकती है। इतना ही नहीं, विशेष समय पर इसका जाप करने से महामृत्यु से भी बचा जा सकता है।
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यह पंचदेवों की मान्यता हमारे शास्त्र में पूर्णब्रह्म रूप में है, अतः पंचदेवों में से किसी एक देव को इष्टदेव बनाकर उपासना करने की हमारी प्रणाली है। गणेशजी के उपासक को गाणपत्य, भगवान शिव के उपासक को शैव, शक्ति के उपासक को शाक्त, श्री हरी विष्णु के उपासक को वैष्णव और भगवान सूर्य के उपासक को सौर कहा जाता है।
उपरोक्त पांच देवताओं में सभी देवी-देवताओं का समावेश होने के कारण किसी भी स्वरूप का उपासक संबंधित अथर्वशीर्ष के माध्यम से अपने इष्ट देव की श्रेष्ठता के गूढ़ रहस्य को जानकर उनकी कृपा का भागी बन जाता है। प्रत्येक अथर्वशीर्ष में अपने-अपने ईश्वर को सर्वोच्च, सर्वोच्च नियंता एवं सर्वोच्च सत्ता बताया गया है। इससे पहली नजर में कुछ पाठक भ्रमित हो सकते हैं, लेकिन यह एक रहस्यमयी बात है।
वस्तुत: परमेश्वर स्वयं ही पंचदेवों के रूप में व्यक्त होते हैं, और संपूर्ण अस्तित्व में भी विद्यमान हैं – ‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़ः…’ साधक अपनी-अपनी प्रकृति और रुचि के अनुसार जो व्यक्ति इन पांच देवताओं में से किसी एक को अपना इष्ट मानकर उसकी पूजा करके आसानी से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है, उसके लिए वही स्वरूप सर्वोत्तम है। इसमें दूसरों के अपेक्षाकृत होने का सवाल ही नहीं उठता।
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