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Garga Samhita Mathurakhand Chapter 1 to 5

Garga Samhita
Garga Samhita Mathurakhand Chapter 1 to 5

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Mathurakhand Chapter 1 to 5
श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड अध्याय 1 से 5 तक

श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड पहले अध्याय (Mathurakhand Chapter 1 to 5) में कंसका नारदजीके कथनानुसार बलराम और श्रीकृष्णको अपना शत्रु समझकर वसुदेव-देवकीको कैद करना, न दोनों भाइयोंको मारनेकी व्यवस्थामें लगना तथा उन्हें मथुरा ले आनेके लिये अक्रूरजीको नन्दके व्रजमें जानेकी आज्ञा देना कहा गया है। दूसरे अध्याय मेंकेशी का वध वर्णन है। तीसरे अध्याय में अक्रूरका नन्दग्राम-गमन, मार्गमें उनकी बलराम-श्रीकृष्णसे भेंट तथा उन्हींके साथ नन्द-भवनमें प्रवेश; श्रीकृष्णसे बातचीत और उनका मथुरा-गमनके लिये निश्चय, मथुरा-यात्राकी चर्चा सब ओर फैल जानेपर गोपियों का विरह की आशङ्का से उद्विग्न हो उठने वर्णन है। चौथे अध्याय में श्रीकृष्णका गोपियोंके घरोंमें जाकर उन्हें सान्त्वना देना तथा मार्गमें रथ रोककर खड़ी हुई गोपाङ्गनाओंको समझाकर उनका मथुरापुरीकी ओर प्रस्थित होना और पांचवे अध्याय में अक्रूर को भगवान श्रीकृष्ण के परब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार तथा उनकी स्तुतिः श्रीकृष्ण का ग्वाल बालों के साथ पुरी-दर्शन के लिये जाना, नागरी स्त्रियों का उनपर मोहित होना तथा भगवान के हाथ से एक रजक का उद्धार वर्णन दिया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

श्रीमथुराखण्ड

पहला अध्याय

कंसका नारदजीके कथनानुसार बलराम और श्रीकृष्णको अपना शत्रु समझकर वसुदेव-देवकीको कैद करना, उन दोनों भाइयोंको मारनेकी व्यवस्थामें लगना तथा उन्हें मथुरा ले आनेके लिये अक्रूरजीको नन्दके व्रजमें जानेकी आज्ञा देना

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥

जो वसुदेवजी के यहाँ पुत्र-रूपसे प्रकट हुए हैं, जिन्होंने कंस एवं चाणूरका मर्दन किया है तथा जो देवकीको परमानन्द प्रदान करनेवाले हैं, उन जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ॥१॥

राजा बहुलाश्वने पूछा- मुने ! भगवान् श्रीकृष्णने मथुरामें कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं? उन्होंने कंसको क्यों और कैसे मारा? यह सब मुझसे ठीक- ठीक बताइये ॥ २ ॥

नारदजीने कहा- नृपेश्वर ! एक दिन साक्षात् परमात्मा श्रीहरिके मनसे प्रेरित होकर मैं दैत्यवध- सम्बन्धी उद्यमको आगे बढ़ानेके लिये उत्कृष्ट पुरी मथुराके दर्शनार्थ वहाँ आया। आकर राजा कंसके दरबारमें गया। वहाँ कंस इन्द्रसे छीनकर लाये हुए सिंहासनके ऊपर, जहाँ श्वेत-छत्र तना हुआ था और सुन्दर चंवर डुलाये जा रहे थे, विराजमान था। वह बल, पराक्रम और क्रूरताके कारण नागराजके समान दुस्सह प्रतीत होता था। वहाँ पहुँचनेपर उसने मेरा पूजन-स्वागत सत्कार किया। उस समय मैंने उससे जो कुछ कहा, वह सुनो- ‘मथुरानरेश! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर आकाशमें उड़ गयी थी, वह देवकीकी नहीं, यशोदाकी पुत्री थी। देवकीसे तो श्रीकृष्ण ही उत्पन्न हुए और रोहिणीके पुत्र बलराम हैं। दैत्यराज ! वसुदेवने तुम्हारे शत्रुभूत अपने दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्णको अपने मित्र नन्दराजके यहाँ धरोहरके रूपमें रख दिया है इसलिये कि तुम्हारे भयसे उनकी रक्षा हो सके। पूतनासे लेकर अरिष्टासुरतक जो-जो उत्कट बलशाली दैत्य नष्ट हुए हैं, वे सब बनमें उन्हीं दोनोंके द्वारा मारे गये हैं। कहा जाता है कि वे ही दोनों तुम्हारी मृत्यु हैं’ ॥ ३-७॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

मेरे यों कहनेपर भोजराज कंस क्रोधसे काँपने लगा। उसने शूरनन्दन वसुदेवको सभामें ही मार डालनेके लिये तीखी तलवार हाथमें ली, परंतु मैंने उसे रोक दिया; तथापि उसने सुदृढ़ और विशाल बेड़ियोंमें पत्नीसहित उन्हें बाँधकर कारागारमें बंद कर दिया। कंससे उक्त बात कहकर जब मैं चला गया, तब उस दैत्यराजने श्रीकृष्ण और बलरामका वध करनेके लिये दैत्यप्रवर केशीको भेजा। तदनन्तर बलवान् भोजराज कंसने चाणूर आदि मल्लों तथा कुवलयापीड नामक हाथीके महावतको बुलवाया और अपना कार्यभार सँभालनेवाले अन्य लोगोंको भी बुलवाकर उनसे इस प्रकार कहा ॥ ८-११॥

कंस बोला हे कूट! हे तोशल ! हे महाबली चाणूर ! बलराम और कृष्ण दोनों मेरी मृत्यु हैं, यह बात नारदजीने मुझे भलीभाँति समझा दी है। अतः वे दोनों जब यहाँ आ जायें, तब तुम सब लोग मल्लोंके खेल (कुश्तीके दाव-पेच) दिखाते हुए उन्हें मार डालना। अब शीघ्र ही मल्लभूमि (अखाड़े) को सुन्दर ढंगसे सुसज्जित कर दो। महावत! रङ्गशालाके द्वारपर मदमत्त हाथी कुवलयापीडको खड़ा रखो और मेरे शत्रु जब आ जायें, तो उन्हें मरवा डालो। कार्यकर्ता जनो! आगामी चतुर्दशीको शान्तिके लिये धनुर्यज्ञ करना है और अमावास्याके दिन यहाँ मल्लयुद्ध होगा ॥ १२-१५ ॥

नारदजी कहते हैं- राजेन्द्र ! आत्मीय जनोंसे इस प्रकार कहकर कंसने अक्रूरको तुरंत अपने पास बुलवाया और एकान्त स्थानमें मन्त्रिजनोंको प्रिय लगनेवाली मन्त्रणाकी बात कही ॥ १६ ॥

कंस बोला- दानपते। तुम मेरे माननीय मन्त्री हो, अतः मेरी यह उत्तम बात सुनो। महामते। कल प्रातःकाल होते ही तुम नन्दके व्रजमें जाओ और मेरा यह कार्य करो। लोग कहते हैं कि वसुदेवके दोनों बेटे वहीं रहते हैं। वे दोनों मेरे शत्रु हैं, यह बात देवर्षि नारदजीने मुझे अच्छी तरह समझा दी है। गोपगण नन्दराज आदिके साथ भेंट लेकर यहाँ आयें और उन्हींके साथ मथुरा नगरी दिखानेके बहाने उन दोनोंको रथपर बिठाकर शीघ्र यहाँ ले आओ। यहाँ आनेपर हाथीसे अथवा बड़े-बड़े पहलवानोंके द्वारा उन दोनों बालकोंको मरवा डालूँगा। उसके बाद वसुदेवकी सहायता करनेवाले नन्दराज, वृषभानुवर, नौ नन्दों और उपनन्दोंको मौतके घाट उतार दूँगा। तदनन्तर वसुदेव, उनके सहायक देवक तथा अपने बूढ़े पिता उग्रसेनको भी, जो राज्य लेनेके लिये उत्सुक रहता है, मार डालूँगा। यह सब हो जानेके बाद समस्त यादवों- का संहार कर डालूँगा, इसमें संशय नहीं है। मन्त्रिन् ! ये सब के सब देवता हैं, जो मनुष्यके रूपमें प्रकट हुए हैं। चन्द्रावतीपति बलवान् शकुनि मेरा बहुत बड़ा मित्र है। भूतसंतापन, हृष्ट, वृक, संकर, कालनाभ, महानाभ तथा हरिश्मश्रु- ये सब मेरे मित्र हैं और बलपूर्वक मेरे लिये अपने प्राणतक दे सकते हैं। जरासंध तो मेरा श्वशुर ही है और द्विविद मेरा सखा। बाणासुर और नरकासुर भी मेरे प्रति ही सौहार्द रखते हैं। ये सब लोग इस पृथ्वीको जीतकर, इन्द्रसहित देवताओंको बाँधकर और द्रव्य राशिके स्वामी बने हुए कुबेरको मेरुपर्वतकी दुर्गम कन्दरामें फेंककर सदा तीनों लोकोंका राज्य करेंगे, इसमें संशय नहीं है। दानपते। तुम कवियों (नीतिज्ञ विद्वानों) में शुक्राचार्यके समान हो और बातचीत करनेमें इस भूतलपर बृहस्पतिके तुल्य हो; अतः इस कार्यको तुरंत सम्पन्न करो ॥ १७-२८ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

अक्रूर बोले- यदुपते ! तुमने मनोरथका महासागर ही रच डाला है। यदि दैवकी इच्छा होगी तो यह सागर गोष्पद (गायकी खुरी) के समान हो जायगा और यदि दैव अनुकूल न हुआ, तब तो यह अपार महासागर है ही ॥ २९ ॥

कंस बोला – बलवान् पुरुष दैवका भरोसा छोड़कर कार्य करते हैं और निर्बल दैवका सहारा पकड़े बैठे रहते हैं। कर्मयोगी पुरुष कालस्वरूप श्रीहरिके प्रभावसे सदा निराकुल (शान्त) रहता है॥३०॥

नारदजी कहते हैं- मन्त्रिप्रवर अक्रूरसे यों कहकर कंस सभास्थलसे उठ गया और कुछ कुपित हो धीरेसे अन्तःपुरमें चला गया ॥ ३१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कंसकी मन्त्रणा’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गोविंद स्तोत्रम

दूसरा अध्याय

केशी का वध

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर। उधर बलवान् एवं मदोन्मत्त महादैत्य केशी घोड़ेका रूप धारणकर रमणीय वृन्दावनमें गया और मेघकी भाँति गर्जना करने लगा। उसके पैरोंके आघातसे सुदृढ़ वृक्ष भी टूटकर धराशायी हो जाते थे। पूँछकी चोट खाकर आकाशमें घने बादल भी छिन्न-भिन्न हो जाते थे। मैथिलेन्द्र । उसका वेग दुस्सह था। उसे देखकर गोप- गोपियोंके समुदाय अत्यन्त भयसे व्याकुल हो भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये ॥ १-३॥

पाप और पापियोंको पीड़ा देनेवाले भगवान्ने ‘डरो मत’- यह कहकर उन सबको अभयदान दिया और कमरमें पीताम्बर कसकर वे उस दैत्यको मार डालनेकी चेष्टामें लग गये। राजन्। उस महान् असुरने अपने पिछले पैरोंसे श्रीहरिके ऊपर आघात किया और पृथ्वीको कँपाता हुआ वह आकाशमण्डलको अपनी गर्जनासे गुँजाने लगा। तब, जैसे हवा कमलको उखाड़कर फेंक देती है, उसी प्रकार श्रीकृष्णने उस दैत्यके दोनों पैर पकड़कर बाहुबलसे घुमाते हुए उसे एक योजन दूर फेंक दिया। उसने भी क्रोधसे भरे हुए वहाँ आकर व्रजके प्राङ्गणमें भगवान् श्रीहरिके ऊपर अपनी पूँछसे प्रहार किया। राजन् ! तब श्रीकृष्णने उसकी पूंछ पकड़ ली और बाहुवेगसे बलपूर्वक घुमाते हुए उसे आकाशमें सौ योजन दूर फेंक दिया। आकाशसे नीचे गिरनेपर उसे मन-ही-मन कुछ व्याकुलताका अनुभव हुआ, किंतु पुनः उठकर वह बलवान् दैत्य मेघके समान गर्जना करने लगा। अपनी गर्दनके अयालोंको कँपाता और पूँछके बालोंको आकाशमें बार-बार हिलाता हुआ वह दैत्य अपने पैरोंसे पृथ्वीको विदीर्ण करता हुआ श्रीहरिके सामने उछलकर आया। तब भगवान् मधुसूदनने केशीको एक मुक्का मारा। उनके मुक्केकी मारसे वह दो घड़ीतक बेहोश पड़ा रहा। तब उस अश्वरूपधारी असुरने श्रीहरिके गलेको अपने मुँहसे पकड़ लिया और उन्हें उठाकर वह भूमण्डलसे लाख योजन दूर आकाशमें उठ गया। वहाँ आकाशमें उन दोनोंके बीच दो पहरतक घोर युद्ध हुआ। राजन् ! वह अपने पैरोंसे, दाँतोंसे, गर्दनके अयालोंसे, पूँछ और तीखी खुरोंसे बार-बार श्रीहरिपर आघात करने लगा। तब श्रीहरिने उसे दोनों हाथोंसे पकड़कर इधर-उधर घुमाना आरम्भ किया और जैसे बालक कमण्डलु फेंक दे, उसी प्रकार उन्होंने आकाशसे उस दैत्यको नीचे गिरा दिया। फिर भगवान् श्रीहरिने उसके मुँहमें अपनी बाँह डाल दी। वह बाँह उसके उदरतक जा पहुँची और असाध्य रोगकी भाँति बड़े जोरसे बढ़ने लगी। इससे उस महान् असुरकी प्राणवायु अवरुद्ध हो गयी और वह मल त्यागने लगा। उसका पेट फट गया और वह अश्वरूपधारी असुर तत्काल प्राणोंसे हाथ धो बैठा। शरीरसे पृथक् होनेपर उसने तत्काल दिव्य रूप धारण कर लिया और मुकुट तथा कुण्डलोंसे मण्डित हो भगवान् श्रीकृष्णको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ ४-१७ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

कुमुद बोला- माधव ! मैं इन्द्रका अनुचर हूँ। मेरा नाम कुमुद है। मैं बड़ा तेजस्वी, रूपवान् और वीर था तथा देवराज इन्द्रपर छत्र लगाया करता था। पूर्वकालमें वृत्रासुरका वध हो जानेपर प्राप्त हुई ब्रह्म- हत्याकी शान्तिके लिये स्वर्गलोकके स्वामीने अश्वमेध नामक उत्तम यज्ञका अनुष्ठान किया। अश्वमेधका घोड़ा श्वेत वर्णका था। उसके कान श्याम रंगके थे और वह मनके समान तीव्र वेगसे चलनेवाला था। मेरे मनमें उसपर चढ़नेकी इच्छा हुई। इस कामनासे मैं प्रसन्न हो उठा और उस घोड़ेको चुराकर अतललोकमें चला गया। तब मरुद्रणोंने मुझ महादुष्टको पाशमें बाँधकर देवराज इन्द्रके पास पहुँचाया। देवेन्द्रने मुझे शाप देते हुए कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा। भूतलपर दो मन्वन्तरोंतक तेरी घोड़ेकी-सी आकृति रहे।’ प्रभो! आज आपका स्पर्श पाकर मैं उस शापसे तत्काल मुक्त हो गया हूँ। देव! अब मुझे अपना किंकर बना लीजिये। मेरा मन आपके चरणकमलमें लग गया है। आप समस्त लोकोंके एकमात्र साक्षी हैं, आप भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है॥ १८-२३ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मिथिलेश्वर ! यों कहकर, परमेश्वर श्रीकृष्णकी परिक्रमा करके, कुमुद अत्यन्त प्रकाशमान उत्तम विमानपर आरूढ़ हो, दिशामण्डलको उद्दीत करता हुआ वैकुण्ठलोकको चला गया ॥ २४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘केशीका वध’ नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ शिव पंचाक्षर स्तोत्र

तीसरा अध्याय

अक्रूरका नन्दग्राम-गमन, मार्गमें उनकी बलराम-श्रीकृष्णसे भेंट तथा उन्हींके साथ नन्द-भवनमें प्रवेश; श्रीकृष्णसे बातचीत और उनका मथुरा-गमनके लिये निश्चय, मथुरा-यात्राकी चर्चा सब ओर फैल जानेपर गोपियोंका विरहकी आशङ्कासे उद्विग्न हो उठना

श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिलेन्द्र ! अक्रूरजी रथपर आरूढ़ हो राजा कंसका कार्य करनेके लिये बड़ी प्रसन्नताके साथ नन्दगाँवको गये। पुरुषोत्तम श्रीकृष्णके प्रति उनकी पराभक्ति थी। परम बुद्धिमान् अक्रूर यात्रा करते हुए मार्गमें अपनी बुद्धिसे इस प्रकार विचार करने लगे ॥ १-२॥

अक्रूर बोले- मैंने भारतवर्षमें कौन-सा पुण्य किया, निस्स्वार्थभावसे कौन-सा दान दिया, कौन-सा उत्तम यज्ञ, तीर्थयात्रा अथवा ब्राह्मणोंकी शुभ सेवा की है, जिससे आज मैं भगवान् परमेश्वर श्रीहरिका दर्शन करूँगा ? मैंने पूर्वजन्ममें कौन-सा उत्तम तप किया और भक्तिभावसे कब किस संत पुरुषका सेवन किया था, जिससे आज मुझे अपने सामने भगवान् श्रीकृष्ण- का दुर्लभ दर्शन होगा। भगवान् सुरेश्वर श्रीकृष्ण जिनके नेत्रोंके गोचर होते हैं, भूतलपर उन्हींका जन्म सफल है। आज उन भगवान्‌का दुर्लभ दर्शन करके मैं सर्वतोभावेन कृतार्थ हो जाऊँगा ॥ ३-५ ॥

नारदजी कहते हैं- इस प्रकार श्रीकृष्णका चिन्तन और उत्तम शकुनका दर्शन करते हुए गान्दिनी- नन्दन अक्रूर संध्याकालमें रथपर बैठे-बैठे नन्दगोकुलमें जा पहुँचे। यव और अङ्कुश आदिसे युक्त श्री कृष्ण चरणारविन्दों के चिह्न तथा उनकी ललाईसे युक्त धूलिकण उन्हें पृथ्वीपर दिखायी दिये। उनके दर्शनकी उत्कण्ठा एवं भक्तिभावके आनन्दसे विह्वल हो अक्रूरजी रथसे कूद पड़े और उन धूलकणोंमें लोटते हुए नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे। मिथिलेश्वर ! जिनके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्णकी भक्ति प्रकट हो जाती है, उनके लिये ब्रह्मलोकपर्यन्त जगत्‌के सारे सुख तिनकेके समान तुच्छ हो जाते हैं॥ ६-९॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

तदनन्तर रथपर आरूढ़ हो अक्रूर क्षणभरमें नन्दगाँव जा पहुँचे। उन्होंने गोष्ठोंमें पहुँचकर देखा- बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण उधर ही आ रहे हैं। वे दोनों पुराणपुरुष श्यामल-गौरवर्ण परमेश्वर प्रफुल्ल कमलके समान नेत्रवाले थे। रास्तेमें बलराम और श्रीकृष्ण ऐसे जान पड़ते थे, मानो इन्द्रनील और हीरकमणिके दो पर्वत एक दूसरेके सम्पर्कमें आ गये हों। उन दोनोंके मुकुट बालसूर्यके समान और वस्त्र विद्युत्के सदृश थे। उनकी अङ्गकान्ति वर्षाकालके मेघकी भाँति श्याम तथा शरऋतुके बादलकी भाँति गौर थी। उन दोनोंको देखकर अक्रूर तुरंत ही रथसे नीचे उतर गये और भक्तिभावसे सम्पन्न हो उन दोनोंके चरणोंमें गिर पड़े। उनका मुख नेत्रोंसे झरते हुए आँसुओंकी धारासे व्याप्त तथा शरीर रोमाञ्चित था। उन्हें देख परमेश्वर श्रीहरिने दोनों हाथोंसे उठा लिया और वे माधव दयासे द्रवित हो भक्तको हृदयसे लगाकर अश्रुओंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार बलरामसहित श्रीहरि उनसे मिलकर शीघ्र ही उन्हें घर ले आये और वहाँ उन्होंने उनके लिये श्रेष्ठ आसन दिया। अतिथिसत्कारमें एक गाय देकर प्रेमपूर्वक सरस भोजन प्रस्तुत किया। नन्दने अक्रूरको दोनों हाथोंद्वारा हृदयसे लगाकर पूछा-‘अहो! तुम कंसके राज्यमें कैसे जी रहे हो? जिस निर्लज्जने अपनी बहिनके नन्हे-से शिशुओंको मार डाला, वह दूसरे लोगोंके प्रति दयालु कैसे होगा?’ नन्दजी जब घरमें चले गये, तब श्रीहरिने उनसे माता-पिताकी सारी कुशल पूछी। इसी प्रकार अपने बन्धु-बान्धव यादवोंका समाचार पूछकर कंसकी सारी विपरीत बुद्धिके विषयमें भी जिज्ञासा की ॥१०-१६ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

अक्कूर बोले- देव! परसोंकी बात है, भोजराज कंस हाथमें तलवार ले वसुदेवको मार डालनेके लिये उद्यत हो गया था; किंतु नारदजीने उसे रोक दिया था। समस्त यादव-बन्धु-बान्धव भयसे विह्नल और दुःखी हैं। भूमन् ! कितने ही कंसके भयसे कुटुम्बसहित दूसरे देशोंमें चले गये हैं। वह आज ही यादवोंको मार डालने और देवताओंको जीत लेनेके लिये उद्योगशील है। इस पृथ्वीपर बलवान् दैत्यराज कंस कुछ और भी करना चाहता है। अतः आप दोनोंको जगत् का अक्षय कल्याण करनेके लिये वहाँ अवश्य चलना चाहिये। आप दोनों प्रभुओंके बिना सत्पुरुषोंका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता ॥ १७-२० ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! अक्रूरजीकी बात सुनकर बलरामसहित भगवान् श्रीकृष्णने नन्दराज- की सलाह लेकर कार्यकर्ता गोपोंसे इस प्रकार कहा ॥ २१ ॥

श्रीभगवान बोले- बन्धुओ। बड़े-बूढ़े गोपोंके साथ बलरामसहित मैं तथा नन्दराज भी मथुरा जायेंगे। नवों नन्द और उपनन्द तथा छहों वृषभानु सब लोग प्रातःकाल उठकर मथुराकी यात्रा करेंगे; अतः तुम सब लोग दही, दूध और घी आदि गोरस एकत्र करो। उसके साथ राजाको देनेके लिये अन्यान्य उपायन भी होंगे। छकड़ोंके साथ रथोंको भी ठीक-ठाक करके शीघ्र तैयार कर लो ॥ २२-२४ ॥

नारदजी कहते हैं- यह सुनकर कार्य करने- वाले सब गोपोंने घर-घरमें जाकर गोपियोंके सुनते हुए वह सारा कथन ज्यों-का-त्यों दोहरा दिया। यह सुनकर गोपियोंका हृदय उद्विग्र हो उठा। वे भावी विरहकी आशङ्कासे विह्वल हो गयीं और घर-घरमें एकत्र हो, वे सब-की-सब परस्पर इसी विषयकी बातें करने लगीं। नृपेश्वर! महात्मा श्रीकृष्णके प्रस्थानकी यह बात वृषभानुवरके भी घरमें पहुँच गयी। ‘प्रियतम चले जायेंगे’- यह समाचार भरी सभामें अकस्मात् सुनकर वृषभानुनन्दिनी अत्यन्त दुःखित हो गयीं। वे हवाकी मारी हुई कदलीकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं और मूच्छित हो गयीं। किन्हीं गोपियोंकी मुखश्री अत्यन्त मलिन हो गयी। हाथकी अँगूठियाँ कलाइयोंके कंगन बन गयीं। उनके केशोंके बन्धन ढीले हो गये और उनमें गुथे हुए फूल शीघ्र ही शिथिल होकर गिर पड़े। वे गोपियाँ चित्र-लिखी-सी खड़ी रह गयीं। नृपेश्वर ! कुछ गोपियाँ अपने घरमें ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे’- यों कहती हुई अत्यन्त विह्वल हो गयीं और घरके सारे काम-काज छोड़कर योगीकी भाँति ध्यानानन्दमें मग्न हो गयीं। राजन् ! कुछ गोपियाँ समर्थ रहीं, वे एकत्र हो, एक साथ आपसमें इस प्रकार बातें करने लगीं। बात करते समय उनके कण्ठ गद्द हो गये थे और वाणी लड़खड़ा रही थी। उनके नेत्रोंसे स्वतः अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी ॥ २५-३१ ॥

गोपियाँ बोलीं- अहो! अत्यन्त निर्मोही जनका चरित्र बड़ा विचित्र होता है। वह कहनेयोग्य नहीं है। निर्मोही मनुष्य मुँहसे तो कुछ और कहता है, परंतु हृदयमें कुछ और ही भाव रखता है। उसके मनकी बात तो देवता भी नहीं जानता, फिर मनुष्य कैसे जान सकता है? रासमें इन्होंने जो-जो बात कही थी, उस सबको अधूरी ही छोड़कर वे चले जानेको उद्यत हो गये हैं। अहो! हमारे इन प्राणवल्लभके मथुरापुरी चले जानेपर हम सबको कौन-कौन-सा कष्ट नहीं होगा ॥ ३२-३३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें ‘अक्रूरका आगमन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

चौथा अध्याय

श्रीकृष्णका गोपियोंके घरोंमें जाकर उन्हें सान्त्वना देना तथा मार्गमें रथ रोककर खड़ी हुई गोपाङ्गनाओंको समझाकर उनका मथुरापुरीकी ओर प्रस्थित होना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार कहती हुई गोपाङ्गनाओंके अत्यन्त विरह-केशको जानकर भगवान् श्रीकृष्ण उन सबके घरोंमें गये। मिथिलेश्वर ! जितनी व्रजाङ्गनाएँ थीं, उतने ही रूप धारण करके भगवान् श्रीहरिने स्वयं सबको पृथक्-पृथक् समझाया। श्रीराधाके भवनमें जाकर देखा कि वे सखियोंसे घिरी हुई एकान्त स्थानमें मूच्छित पड़ी हैं; तब उन्होंने मधुर स्वरमें मुरली बजायी। वंशीकी ध्वनि सुनकर श्रीराधा सहसा आतुर होकर उठीं। उन्होंने आँख खोलकर देखा तो श्रीगोविन्द सामने उपस्थित दिखायी दिये। जैसे पद्मिनी कमलिनी-कुल-वल्लभ सूर्यका दर्शन करके प्रसन्न हो जाती है, उसी प्रकार पद्मिनी नायिका श्रीराधा अपने प्राणवल्लभको सामने देखकर आनन्दमें मग्र हो गयीं और उन्होंने उठकर वहाँ पधारे हुए श्यामसुन्दरके लिये सादर आसन दिया। कमलनयनी श्रीराधाके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वे अत्यन्त दीन होकर शोक कर रही थीं, अतः भगवान्ने मेधके समान गम्भीर वाणीमें उनसे कहा ॥ १-६ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

श्रीभगवान् बोले- भद्रे ! राधिके! तुम्हारा मन उदास क्यों है? तुम इस तरह शोक न करो। अथवा मेरी मथुरा जानेकी इच्छा सुनकर तुम विरहसे व्याकुल हो उठी हो? देखो, ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे मैं इस पृथ्वीका भार उतारने और कंसादि असुरोंका संहार करनेके लिये तुम्हारे साथ इस भूतलपर अवतीर्ण हुआ हूँ। अतः अपने अवतारके उद्देश्यको सिद्धिके लिये मैं मथुरा अवश्य जाऊँगा और भूमिका भार उतारूंगा। तत्पश्चात् शीघ्र यहाँ आऊँगा और तुम्हारा मङ्गल करूँगा ॥ ७-९॥

नारदजी कहते हैं- जगदीश्वर श्रीहरिके यों कहनेपर वियोगविह्नला श्रीराधा दावानलसे दग्ध लताकी भाँति मूच्छित हो गयीं और उनमें कम्प, रोमाञ्च आदि सात्त्विक भाव प्रकट हो गये। उस अवस्थामें वे अपने प्राणवल्लभसे बोलों ॥ १० ॥

श्रीराधाने कहा- प्राणनाथ! तुम पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अवश्य मथुरापुरीको जाओ, परंतु मेरी इस निश्चित प्रतिज्ञाको भी सुन लो। यहाँसे तुम्हारे चले जानेपर मैं शरीरको कदापि धारण नहीं करूँगी। यदि तुम मेरी इस प्रतिज्ञा या शपथपर ध्यान नहीं देते हो तो दूसरी बार पुनः अपने जानेकी बात कहकर देख लो। मैं तुरंत कथाशेष हो जाऊँगी। मेरे प्राण अधरोंकी राहसे निकल जानेको अत्यन्त आकुल हैं, ये कपूरकी धूलि-कणोंके समान शीघ्र ही उड़ जायेंगे ॥ ११-१२॥

श्रीभगवान् बोले- राधिके! मैं वेदस्वरूपा अपनी वाणीको तो टाल देनेमें समर्थ हूँ, किंतु अपने भक्तोंके वचनकी अवहेलना करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। पूर्वकालमें गोलोकमें जो कलह हुआ था, उस समय दिये गये श्रीदामाके शापसे मेरे साथ तुम्हारा सौ वर्षांतक वियोग अवश्य होगा- इसमें संशय नहीं है। कल्याणि ! राधिके! शोक न करो। मैंने तुम्हें जो वरदान दिया है, उसको स्मरण करो। प्रत्येक मासमें वियोग-दुःखकी शान्तिके लिये एक दिन मेरा दर्शन तुम्हें प्राप्त होगा ॥ १३-१५॥

श्रीराधाने कहा- हरे! प्रत्येक मासमें एक दिन मेरी वियोग-व्यथाको शान्त करनेके लिये यदि तुम दर्शन देने नहीं आओगे तो मैं असह्य दुःखके कारण अपने प्राणोंको अवश्य त्याग दूँगी। लोकाभिराम! जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! जगत्के पाप-तापको हर लेनेवाले ! आनन्दकंद ! यदुकुलनन्दन ! नन्दकिशोर! आज मेरे सामने अपने आगमनके विषयमें शपथ खाओ ॥ १६-१७ ॥

श्रीभगवान् बोले- रम्भोरु राधे! यदि तुम्हारे वियोग कालमें प्रतिमास एक दिन मैं तुम्हें दर्शन देनेके लिये न आऊँ तो मेरे लिये गौओंकी शपथ है। मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, मेरे उस वचनको तुम संशय- रहित और निष्कपट समझो। जो बिना किसी हेतुके निश्छल भावसे मैत्रीको निभाता है, वही पुरुष धन्यतम है। जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, वह स्वार्थरूपी पटसे आच्छादित लम्पट नटमात्र है, उसे धिक्कार है। जैसे यहाँ कर्मेन्द्रियाँ रस, रूप, गन्ध, स्पर्श एवं शब्दको नहीं जान पातीं, उसी प्रकार जो सकाम भाव रखनेवाले मुनि हैं, वे उस निरपेक्षस्वरूप एवं निर्गुण गूढ़ परम सुखको किंचिन्मात्र भी नहीं जानते। जो लोग समदर्शी, जितेन्द्रिय, अपेक्षारहित एवं महान् संत हैं, वे ही उस कामनारहित मेरे परम सुखका अनुभव करते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ ही रस आदि विषयोंको जान पाती हैं। भामिनि । मनके सारे भाव पारस्परिक हैं-एक-दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं। इसलिये किसी एक ही तरफसे प्रीति नहीं होती; दोनों ही ओरसे हुआ करती है। अतः सबको अपनी ओरसे मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिये। इस भूतलपर प्रेमके समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है। राधे! जैसे भाण्डौर-वनमें तुम्हारा मनोरथ सफल हुआ था, उसी प्रकार फिर होगा। सत्पुरुषोंद्वारा जिस हेतुरहित प्रेमका आश्रय लिया जाता है, उसे भी संत-महात्मा निर्गुण ही मानते हैं। जो लोग तुझ राधिका और मुझ केशवमें उसी प्रकार भेदकी कल्पना नहीं करते, जिस प्रकार दुग्ध और उसकी धवलतामें भेद सम्भव नहीं है, वे निष्काम भावके कारण उद्दीप्त हुई भक्तिसे युक्त महात्मा पुरुष ही मेरे उस ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं। रम्भोरु। जो कुबुद्धि मनुष्य इस भूतलपर तुझ राधिका और मुझ केशवमें भेद-दृष्टि रखते हैं, वे जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है, तबतक कालसूत्र नरकमें पड़कर दुःख भोगते हैं॥ १८-२५॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। इस प्रकार श्रीराधा तथा समस्त गोपीगणोंको आश्वासन दे नीतिकुशल भगवान् गोविन्द नन्दभवनमें लौट आये। तदनन्तर सूर्योदय होनेपर नन्द आदि गोप छकड़ों द्वारा भेंट-सामग्री भेजकर, स्वयं रथारूढ़ हो, वे सब के सब श्रीमथुरापुरीको गये। राजन् ! बलराम और श्रीकृष्णके साथ अपने रथपर आरूढ़ हो, गान्दिनीपुत्र अक्रूरने मथुरापुरीके दर्शनके लिये उद्यत हो वहाँसे प्रस्थान किया। मार्गमें कोटि-कोटि गोपाङ्गनाएँ खड़ी हो, क्रोध और मोहसे विह्वल होकर श्रीकृष्णका व्रजसे प्रस्थान देख रही थीं। वे अक्रूरको ‘क्रूर-क्रूर’ कहकर पुकारती हुई कटु वचन सुनाने लगीं और जैसे बादल सूर्यको आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार गोपियोंके समुदायने अक्रूरके रथको चारों ओरसे घेर लिया। राजन् ! भगवान्के विरहसे व्याकुल हुई गोपियोंने अक्रूरके रथको, उनके घोड़ोंको और सारथिको भी लाठियोंद्वारा जोर-जोरसे पीटना आरम्भ किया। लाठियोंके प्रहारसे घोड़े वहाँ इधर-उधर उछलने लगे। गोपियोंकी दो अँगुलियोंकी चोटसे सारथि उस रथसे नीचे जा गिरा। लोक लज्जाको तिलाञ्जलि दे, गोपियोंने बलराम और श्रीकृष्णके देखते-देखते अक्रूरको बल- पूर्वक रथसे नीचे खींच लिया और अपने कंगनोंसे उनके ऊपर चोट करना आरम्भ किया। गोपी-समुदाय- की वह सेना देखकर बलरामसहित भगवान् श्रीकृष्णने गान्दिनीनन्दन अक्रूरकी रक्षा करके गोपाङ्गनाओंको समझाया- ‘व्रजाङ्गनाओ! चिन्ता न करो। मैं आज संध्याको ही लौट आऊँगा। इन अक्रूरजीके सामने व्रजवासी हमारी हँसी न उड़ावें, ऐसा प्रयत्न तुम्हें करना चाहिये ‘ ॥ २६-३५ ॥

यों कहकर बलदेवजी तथा अक्रूरके साथ श्रीकृष्ण सुन्दर वेगशाली अश्वोंकी सहायतासे रथसहित उस मथुरापुरीकी ओर चल दिये, जो यादवोंके समुदायसे सुशोभित थी। जबतक उन्हें रथ, उसकी ध्वजा अथवा घोड़ोंकी टापसे उड़ायी गयी धूल दिखायी देती रही, तबतक अत्यन्त मोहवश गोपियाँ पथपर ही चित्र- लिखित-सी खड़ी रहीं। श्रीहरिकी कही हुई बातको याद करके उनके मनमें पुनर्मिलनकी आशा बँध गयी थी ॥ ३६-३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णका मथुरापुरीको प्रयाण’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

पाँचवाँ अध्याय

अक्रूरको भगवान् श्रीकृष्णके परब्रह्मस्वरूपका साक्षात्कार तथा उनकी स्तुतिः श्रीकृष्णका ग्वालबालोंके साथ पुरी-दर्शनके लिये जाना, नागरी स्त्रियोंका उनपर मोहित होना तथा भगवान के हाथसे एक रजकका उद्धार

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । अक्रूर और बलरामजीके साथ मधुराके उपवनके पास पहुँचकर, यमुनाके निकट रथ रोककर भगवान् श्रीकृष्ण उतर गये और यमुनाका जल पीकर पुनः रथपर आ गये। तब उन दोनों भाइयोंकी आज्ञा ले अक्रूरजी यमुनाजीमें नहानेके लिये गये और नित्य-नैमित्तिक कर्म करनेके लिये यमुनाके निर्मल जलमें उतरे। यमुनाजीका जल अगाध था, उसमें बड़ी-बड़ी भँवरें उठ रही थीं। अक्रूरजीने देखा, उसी जलमें बलराम और श्रीकृष्ण- दोनों भाई खड़े-खड़े परस्पर बातें कर रहे हैं। नरेश्वर! यह देख अक्रूरजी चकित हो उठे और रथपर जाकर देखा तो वहाँ भी वे दोनों बैठे दिखायी दिये। फिर जलमें आकर देखा तो वहाँ भी उनके दर्शन हुए। बलरामजी नागराज शेषके रूपमें कुंडली मारकर बैठे थे और उनकी गोदमें लोकवन्दित परम प्रकाशमय गोलोक, गोवर्धन पर्वत, यमुना नदी, मनोहर वृन्दावन तथा असंख्य कोटि सूर्योकी ज्योतियोंका प्रभावशाली मण्डल-ये क्रमशः परिलक्षित हुए। उसी ज्योति- र्मण्डलमें रासमण्डलके भीतर कोटि-कोटि कामदेवोंके सौन्दर्य-माधुर्यको तिरस्कृत करनेवाले साक्षात् परिपूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण श्रीराधारानीके साथ वहाँ अक्रूरके दृष्टिपथमें आये। तब श्रीकृष्णको परब्रह्म परमात्मा समझकर अक्रूरने बारंबार उन्हें नमस्कार किया और दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त हर्षके साथ उनकी स्तुति आरम्भ की ॥ १-८॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

अक्रूर बोले- असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधीश्वर तथा गोलोकधामके स्वामी परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है। प्रभो! आप श्रीराधाके प्राणवल्लभ तथा व्रजके अधीश्वर हैं, आपको बारंबार नमस्कार है। श्रीनन्दनन्दन तथा माता यशोदाको आमोद प्रदान करनेवाले श्रीहरिको नमस्कार है। देवकीपुत्र! गोविन्द ! वासुदेव ! जगदीश्वर ! यदुकुलतिलक! जगन्नाथ। पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है। मेरी वाणी सदा आपके गुणोंके वर्णनमें लगी रहे। मेरे कान आपकी कथा सुनते रहें। मेरी भुजाएँ आपकी प्रसन्नताके लिये कर्म करनेमें तल्लीन रहें। मन सदा आपके चरणारविन्दोंका चिन्तन करे तथा दोनों नेत्र आपके प्रकाशमान एवं भव्य धामविशेषके दर्शनमें संलग्न हों ॥ ९-१२ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! जब इस प्रकार चकित होकर भगवान का वैभव देखते हुए अक्रूरजी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण अपने लोकसहित वहीं अन्तर्धान हो गये। तब उन्हें नमस्कार करके नैमित्तिक कर्म पूर्ण करनेके पश्चात् अक्रूर श्रीकृष्णको परब्रह्मस्वरूप जानकर विस्मयपूर्वक रथपर आये। घनवत् गम्भीर नाद करने- वाले उस वायुवेगशाली रथके द्वारा अक्रूरने बलराम और श्रीकृष्णको दिन डूबते-डूबते मथुरा पहुँचा दिया। वहाँ नगरके उपवनमें नन्दराजको देखकर यदूत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें अक्रूरजीसे बोले ॥ १३-१६ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- मानद ! अब आप अपने रथके द्वारा मथुरापुरीमें पधारें। मैं पीछे ग्वाल-बालोंके साथ आऊँगा ॥ १७ ॥

अक्रूरने कहा- देवदेव! जगन्नाथ! गोविन्द ! पुरुषोत्तम । प्रभो! आप अपने बड़े भाई तथा ग्वालों- सहित मेरे घरपर चलें। जगत्पते! अपने चरणारविन्दों- की धूलसे आज मेरा घर पवित्र कीजिये। मैं आपको साथ लिये बिना अपने घर नहीं जाऊँगा ॥ १८-१९ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- अक्रूरजी! मैं यदु वंशियोंके वैरी कंसको मारकर बलरामजी तथा गोप- बन्धुओंके साथ आपके भवनमें अवश्य आऊँगा और आपका प्रिय करूँगा ॥ २० ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण वहीं ठहर गये और अक्रूरने मथुरापुरीमें प्रवेश किया। वहाँ कंसको श्रीकृष्णके आगमनका समाचार देकर वे अपने घर चले गये। दूसरे दिन बलराम और गोप- बालकोंके साथ मथुरापुरीको देखनेके लिये उद्यत हुए गोविन्दकी ओर देखकर नन्दने यह बात कही ॥ २१-२२ ॥

‘वत्स ! सीधी तरहसे मथुरापुरीको देखकर तुम सब लोग लौट आना। इसे गोकुल न समझो; यहाँ कंसका महाभयंकर राज्य है।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् श्रीकृष्ण नन्दद्वारा प्रेरित बड़े-बूढ़े ग्वालों और ग्वालबालोंके साथ पुरीमें गये। बलरामजी भी उनके साथ थे। दुर्गसे युक्त वह पुरी स्वर्ण एवं रत्नजटित सुन्दर गृहों तथा गगनचुम्बी महलोंसे देवताओंकी राजधानी अमरावतीके समान शोभा पाती थी। यमुनाके तटपर रत्नोंकी सीढ़ियाँ बनी थीं। वहाँ चञ्चल लहरोंका कौतूहल देखते ही बनता था। उन सबसे तथा दिव्य नर-नारियोंसे युक्त वह नगरी अलकापुरीके समान शोभा पा रही थी। मथुरापुरीकी शोभा निहारते और धनिकोंके भवनोंको देखते हुए श्रीकृष्ण ग्वाल-बालोंके साथ राजमार्ग (मुख्य सड़क) पर आ गये ॥ २३-२७ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके आगमनका समाचार सुनकर मथुरापुरीकी स्त्रियाँ, जो उनके विषयमें बहुत कुछ सुन चुकी थीं, सारे काम-काज और शिशुओंको भी छोड़कर उन्हें देखनेके लिये इस प्रकार दौड़ीं, मानो नदियाँ समुद्रकी ओर भागी जा रही हों। कुछ स्त्रियाँ महलोंकी छतसे, कुछ जालीदार झरोखोंके छेदसे, कोई-कोई दीवारोंकी ओटसे, कोई खिड़कियोंपर लगे हुए पर्दे हटाकर और कुछ नारियाँ दरवाजेके किवाड़ोंसे बाहर निकलकर घरके चबूतरोंपरसे उन्हें देखने लगीं। भगवान् श्रीकृष्णका एक चञ्चल कुन्तलभाग उनके मुखपर लटक रहा था मानो उन्होंने अपने सामनेवाले मनुष्योंके मनको हर लेनेके लिये उसे धारण किया था तथा दूसरा कुन्तलभाग उन्होंने मुकुटके नीचे दबाकर पीछेकी ओर लटका दिया था, मानो पीछेसे आनेवाले लोगोंके मनको मोहनेके लिये उसे उन्होंने पृष्ठभागकी और धारण किया था। उनका आधा पीताम्बर कमरमें बँधा हुआ चमक रहा था और आधा कंधेपर पड़ा नील मेघमें विद्युत्की-सी शोभा धारण कर रहा था। राजन् ! उन्होंने अपने एक हाथमें कमल और वक्षःस्थलमें वैजयन्ती माला धारण कर रखी थी। कानोंमें नवीन मकराकार कुण्डल पहने तथा बाल- सूर्यके समान कान्तिमान् सोनेके बाजूबंदसे विभूषित बाहुमण्डलवाले, असंख्य ब्रह्माण्डाधिपति परात्पर भगवान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको देखकर समस्त पुरवासिनी स्त्रियाँ मोहित हो गयीं ॥ २८-३२॥

नागरी स्त्रियाँ बोलीं- अहो! वह वृन्दावन कैसा रमणीय है, जहाँ ये नन्दनन्दन स्वयं निवास करते हैं। वे समस्त गोपगण भी धन्य हैं, जो प्रतिदिन इनके मनोहर रूपका दर्शन करते रहते हैं। वे गोपाङ्गनाएँ भी धन्य हैं-न जाने उन्होंने कौन-सा पुण्य किया है, जो रास-रङ्गमें वे बारंबार उनके अधरामृतका पान किया करती हैं॥ ३३-३४॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस राजमार्गपर एक कपड़ा रँगनेवाला रजक जा रहा था। वह बड़ा घमंडी और उन्मत्त जान पड़ता था। ग्वालबालोंकी अनुमतिसे मधुसूदनने उससे कहा- ‘मेरे महा- बुद्धिमान् मित्र! हमारे लिये सुन्दर वस्त्र दो; यदि दे दोगे तो तुम्हारा परम कल्याण होगा, इसमें संशय नहीं है।’ वह रजक कंसका सेवक और बड़ा भारी दुष्ट था। श्रीकृष्णकी बात सुनकर घृतसे अभिषिक्त अग्रिकी भाँति वह अत्यन्त रोषसे प्रज्वलित हो उठा और उस राजमार्गपर माधवसे इस प्रकार बोला ॥ ३५-३७ ॥(Mathurakhand Chapter 1 to 5)

रजकने कहा- अरे! तुम्हारे बाप-दादोंने ऐसे ही वस्त्र धारण किये हैं क्या? उदण्ड ग्वाल-बालो! क्या तुम्हारे पूर्वज कौपीनधारी नहीं थे? जंगलमें रहनेवाले गोपो! यदि जीवन चाहते हो तो तुम सब के सब नगरसे शीघ्र निकल जाओ; अन्यथा वस्त्रकी चोरी करनेवाले तुम सब लोगोंको मैं जेलमें बंद करा दूँगा ॥ ३८-३९ ॥

रजकने कहा- अरे! तुम्हारे बाप-दादोंने ऐसे ही वस्त्र धारण किये हैं क्या? उदण्ड ग्वाल-बालो! क्या तुम्हारे पूर्वज कौपीनधारी नहीं थे? जंगलमें रहनेवाले गोपो ! यदि जीवन चाहते हो तो तुम सब के सब नगरसे शीघ्र निकल जाओ; अन्यथा वस्त्रकी चोरी करनेवाले तुम सब लोगोंको मैं जेलमें बंद करा दूँगा ॥ ३८-३९ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस तरहकी बातें करनेवाले उस रजकके मस्तकको यदुकुल-तिलक श्रीकृष्णने खेल-खेलमें हाथके अग्रभागसे ही मरोड़ दिया। विदेहराज ! उसके शरीरकी ज्योति घनश्याम श्रीकृष्णमें लीन हो गयी। राजन् ! फिर तो उसके समस्त अनुगामी सेवक वस्त्रोंके गट्ठर वहीं छोड़कर उसी तरह सब ओर भाग गये, जैसे शरत्कालमें हवाके वेगसे बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। उन वस्त्रोंमेंसे बलराम और श्रीकृष्ण अपनी पसंदके कपड़े लेकर जब खड़े हो गये, तब शेष वस्त्रोंको ग्वालबालों तथा अन्य राहगीरोंने ले लिया। उन वस्त्रोंको कैसे पहनना चाहिये, यह बात ग्वालबाल नहीं जानते थे; अतः बलराम और श्रीकृष्णके देखते-देखते वे उन सुन्दर वस्त्रोंको अस्त-व्यस्त ढंगसे पहनने लगे। इसी समय एक बालकने उन दोनों भाइयोंको देखकर विचित्र वर्णवाले वस्त्रोंको धारण कराकर श्रीकृष्ण और बलदेवके दिव्य वेष बना दिये। राजन् ! इसी तरह अन्य गोप-बालकोंको भी यथोचित वस्त्र पहनाकर उसने बड़ी भक्तिसे श्रीकृष्णका पुनः दर्शन किया। उस बालकपर प्रसन्न हो भगवान्ने उसे अपना सारूप्य प्रदान किया तथा बलदेवजीने भी पुनः उसे बल, लक्ष्मी और ऐश्वर्य प्रदान किया ॥ ४०-४६ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णका मथुरामें प्रवेश’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५॥

 

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