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Mahabharata Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten

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Mahabharata Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten

॥ श्रीहरिः ॥

श्रीगणेशाय नमः 

॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

श्रीमहाभारतम् आदिपर्व

महाभारत आदि पर्व के इस पोस्ट में अध्याय 4 से अध्याय 10 (Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten) दिया गया है। अध्याय चार को कथा प्रवेश कहते है। अध्याय पांच में भृगुके आश्रमपर पुलोमा दानव का आगमन और उसकी अग्निदेव के साथ बातचीत का वर्णन किया गया है, अध्याय छे महर्षि च्यवन का जन्म, उनके तेजसे पुलोमा राक्षस का भस्म होना तथा भृगुका अग्निदेव को शाप देना, अध्याय सात में शाप से कुपित हुए अग्निदेव का अदृश्य होना और ब्रह्माजी का उनके शाप को संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करते हे, अध्याय आठवें में प्रमद्वराका जन्म, रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा विवाह के पहले ही साँप के काटने से प्रमद्वरा की मृत्यु का वर्णन किया गया है, अध्याय नवें में रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्वरा का जीवित होना, रुरुके साथ उसका विवाह, रुरुका सर्पोंको मारने का निश्चय तथा रुरु- डुण्डुभ-संवाद दिया गया है, अध्याय दस में रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद मिलता है।

Mahabharata in English ~ महाभारत हिंदी में

(पौलोमपर्व)

चतुर्थोऽध्यायः

कथा-प्रवेश

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको नैमिषारण्ये।
शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ॥ 1 ॥
नैमिषारण्यमें कुलपति शौनकके बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले सत्रमें उपस्थित महर्षियोंके समीप एक दिन लोमहर्षणपुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा आये। वे पुराणोंकी कथा कहनेमें कुशल थे ॥ 1 ॥

पौराणिकः पुराणे कृतश्रमः स कृताञ्जलिस्तानुवाच ।
किं भवन्तः श्रोतुमिच्छन्ति किमहं ब्रवाणीति ॥ 2 ॥
वे पुराणोंके ज्ञाता थे। उन्होंने पुराणविद्यामें बहुत परिश्रम किया था। वे नैमिषारण्यवासी महर्षियोंसे हाथ जोड़कर बोले- ‘पूज्यपाद महर्षिगण! आपलोग क्या सुनना चाहते हैं? मैं किस प्रसंगपर बोलूँ?’ ॥ 2 ॥

तमृषय ऊचुः परमं लौमहर्षणे वक्ष्यामस्त्वां नः
प्रतिवक्ष्यसि वचः शुश्रूषतां कथायोगं नः कथायोगे ॥ 3 ॥
तब ऋषियोंने उनसे कहा- लोमहर्षणकुमार ! हम आपको उत्तम प्रसंग बतलायेंगे और कथा-प्रसंग प्रारम्भ होनेपर सुननेकी इच्छा रखनेवाले हमलोगोंके समक्ष आप बहुत-सी कथाएँ कहेंगे ॥ 3 ॥

तत्र भगवान् कुलपतिस्तु शौनको ऽग्निशरणमध्यास्ते ॥ 4 ॥
किंतु पूज्यपाद कुलपति भगवान् शौनक अभी अग्निकी उपासनामें संलग्न हैं ॥ 4 ॥

योऽसौ दिव्याः कथा वेद देवतासुरसंश्रिताः ।
मनुष्योरगगन्धर्वकथा वेद च सर्वशः ॥ 5 ॥
वे देवताओं और असुरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी दिव्य कथाएँ जानते हैं। मनुष्यों, नागों तथा गन्धर्वोकी कथाओंसे भी वे सर्वथा परिचित हैं ॥ 5 ॥

स चाप्यस्मिन् मखे सौते विद्वान् कुलपतिर्द्विजः ।
दक्षो धृतव्रतो धीमाञ्छास्त्रे चारण्यके गुरुः ॥ 6 ॥
सूतनन्दन! वे विद्वान् कुलपति विप्रवर शौनकजी भी इस यज्ञमें उपस्थित हैं। वे चतुर, उत्तम व्रतधारी तथा बुद्धिमान् हैं। शास्त्र (श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण) तथा आरण्यक (बृहदारण्यक आदि) के तो वे आचार्य ही हैं ॥ 6 ॥

सत्यवादी शमपरस्तपस्वी नियतव्रतः ।
सर्वेषामेव नो मान्यः स तावत् प्रतिपाल्यताम् ॥ 7 ॥
वे सदा सत्य बोलनेवाले, मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर, तपस्वी और नियमपूर्वक व्रतको निबाहनेवाले हैं। वे हम सभी लोगोंके लिये सम्माननीय हैं; अतः जबतक उनका आना न हो, तबतक प्रतीक्षा कीजिये ॥ 7 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

तस्मिन्नध्यासति गुरावासनं परमार्चितम् ।
ततो वक्ष्यसि यत्त्वां स प्रक्ष्यति द्विजसत्तमः ॥ 8 ॥
गुरुदेव शौनक जब यहाँ उत्तम आसनपर विराजमान हो जायँ, उस समय वे द्विजश्रेष्ठ आपसे जो कुछ पूछें, उसी प्रसंगको लेकर आप बोलियेगा ॥ 8 ॥

सौतिरुवाच
एवमस्तु गुरौ तस्मिन्नुपविष्टे महात्मनि ।
तेन पृष्टः कथाः पुण्या वक्ष्यामि विविधाश्रयाः ॥ 9 ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- एवमस्तु (ऐसा ही होगा), गुरुदेव महात्मा शौनकजीके बैठ जानेपर उन्हींके पूछनेके अनुसार मैं नाना प्रकारकी पुण्यदायिनी कथाएँ कहूँगा ॥ 9 ॥

सोऽथ विप्रर्षभः सर्वं कृत्वा कार्य यथाविधि ।
देवान् वाग्भिः पितृनद्भिस्तर्पयित्वाऽऽजगाम ह ॥ 10 ॥
यत्र ब्रह्मर्षयः सिद्धाः सुखासीना धृतव्रताः ।
यज्ञायतनमाश्रित्य सूतपुत्रपुरःसराः ॥ 11 ॥
तदनन्तर विप्रशिरोमणि शौनकजी क्रमशः सब कार्योंका विधिपूर्वक सम्पादन करके वैदिक स्तुतियोंद्वारा देवताओंको और जलकी अंजलिद्वारा पितरोंको तृप्त करनेके पश्चात् उस स्थानपर आये, जहाँ उत्तम व्रतधारी सिद्ध-ब्रह्मर्षिगण यज्ञमण्डपमें सूतजीको आगे विराजमान करके सुखपूर्वक बैठे थे ॥ 10-11 ॥

ऋत्विक्ष्वथ सदस्येषु स वै गृहपतिस्तदा ।
उपविष्टेषूपविष्टः शौनकोऽथाब्रवीदिदम् ॥ 12 ॥
ऋत्विजों और सदस्योंके बैठ जानेपर कुलपति शौनकजी भी वहाँ बैठे और इस प्रकार बोले ॥ 12 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि कथाप्रवेशो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ 4 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें कथा-प्रवेश नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ 4 ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

पञ्चमोऽध्यायः

भृगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी अग्निदेवके साथ बातचीत

शौनक उवाच
पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान् पुरा ।
कच्चित् त्वमपि तत् सर्वमधीषे लौमहर्षणे ॥ 1 ॥
शौनकजीने कहा-तात लोमहर्षणकुमार ! पूर्वकालमें आपके पिताने सब पुराणोंका अध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? ॥ 1 ॥

पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम् ।
कथ्यन्ते ये पुरास्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव ॥ 2 ॥
पुराणमें दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परम बुद्धिमान् राजर्षियों और ब्रह्मर्षियोंके आदिवंश भी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिताके मुखसे सुना है ॥ 2 ॥

तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम् ।
कथयस्व कथामेतां कल्याः स्म श्रवणे तव ॥ 3 ॥
उनमेंसे प्रथम तो मैं भृगुवंशका ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अतः आप इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुननेके लिये सर्वथा उद्यत हैं ॥ 3 ॥

सौतिरुवाच
यदधीतं पुरा सम्यग् द्विजश्रेष्ठैर्महात्मभिः ।
वैशम्पायनविप्राग्र्यैस्तैश्चापि कथितं यथा ॥ 4 ॥
सूतपुत्र उग्रश्रवाने कहा- भृगुनन्दन ! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा द्विजवरोंने पूर्वकालमें जो पुराण भलीभाँति पढ़ा था और उन विद्वानोंने जिस प्रकार पुराणका वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है ॥ 4 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

यदधीतं च पित्रा मे सम्यक् चैव ततो मया ।
तावच्छृणुष्व यो देवैः सेन्द्रः सर्षिमरुद्गणैः ॥ 5 ॥
पूजितः प्रवरो वंशो भार्गवो भृगुनन्दन ।
इमं वंशमहं पूर्व भार्गवं ते महामुने ॥ 6 ॥
निगदामि यथा युक्तं पुराणाश्रयसंयुतम् ।
भृगुर्महर्षिर्भगवान् ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ॥ 7 ॥
वरुणस्य क्रतौ जातः पावकादिति नः श्रुतम् ।
भृगोः सुदयितः पुत्रश्यवनो नाम भार्गवः ॥ 8 ॥
मेरे पिताने जिस पुराणविद्याका भलीभाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हींके मुखसे पढ़ी और सुनी है। भृगुनन्दन ! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भृगुवंशका वर्णन सुनिये, जो देवता, इन्द्र, ऋषि और मरुद्गणोंसे पूजित है। महामुने ! आपके इस अत्यन्त दिव्य भार्गववंशका परिचय देता हूँ। यह परिचय अद्भुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणोंके आश्रयसे भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्माजीने वरुणके यज्ञमें महर्षि भगवान् भृगुको अग्निसे उत्पन्न किया था। भृगुके अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव भी कहते हैं ॥ 5-8 ॥

च्यवनस्य च दायादः प्रमतिर्नाम धार्मिकः ।
प्रमतेरप्यभूत् पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत ॥ 9 ॥
च्यवनके पुत्रका नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए। प्रमतिके घृताची नामक अप्सराके गर्भसे रुरु नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥ 9 ॥

रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः ।
प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहः ॥ 10 ॥
रुरुके पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रमद्वराके गर्भसे हुआ था। शुनक वेदोंके पारंगत विद्वान् और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे ॥ 10 ॥

तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान् ब्रह्मवित्तमः ।
धार्मिकः सत्यवादी च नियतो नियताशनः ॥ 11 ॥
वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन- इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे। उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था ॥ 11 ॥

शौनक उवाच
सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः ।
च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ 12 ॥
शौनकजी बोले-सूतपुत्र! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गवका नाम च्यवन कैसे प्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये ॥ 12 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

सौतिरुवाच
भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता ।
तस्यां समभवद् गर्भो भृगुवीर्यसमुद्भवः ॥ 13 ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- महामुने ! भृगुकी पत्नीका नाम पुलोमा था। वह अपने पतिको बहुत ही प्यारी थी। उसके उदरमें भृगुजीके वीर्यसे उत्पन्न गर्भ पल रहा था ॥ 13 ॥

तस्मिन् गर्भेऽथ सम्भूते पुलोमायां भृगूद्वह ।
समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः ॥ 14 ॥
अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगौ धर्मभृतां वरे ।
आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाभ्याजगाम ह ॥ 15 ॥
भृगुवंशशिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भृगुकी अनुकूल शील-स्वभाववाली धर्मपत्नी थी। उसकी कुक्षिमें उस गर्भके प्रकट होनेपर एक समय धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भृगुजी स्नान करनेके लिये आश्रमसे बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके आश्रमपर आया ॥ 14-15 ॥

तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् ।
हृच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत ॥ 16 ॥
आश्रममें प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगुकी पतिव्रता पत्नीपर पड़ी और वह कामदेवके वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा ॥ 16 ॥

अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना ।
न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा ॥ 17 ॥
सुन्दरी पुलोमाने उस राक्षसको अभ्यागत अतिथि मानकर वनके फल-मूल आदिसे उसका सत्कार करनेके लिये उसे न्योता दिया ॥ 17 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

तां तु रक्षस्तदा ब्रह्मन् हृच्छयेनाभिपीडितम् ।
दृष्ट्वा हृष्टमभूद् राजन् जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ॥ 18 ॥
ब्रह्मन् ! वह राक्षस कामसे पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमाको अकेली देख बड़े हर्षका अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमाको हर ले जाना चाहता था ॥ 18 ॥

जातमित्यब्रवीत् कार्यं जिहीर्षुर्मुदितः शुभाम् ।
सा हि पूर्व वृता तेन पुलोम्ना तु शुचिस्मिता ॥ 19 ॥
मनमें उस शुभलक्षणा सतीके अपहरणकी इच्छा रखकर वह प्रसन्नतासे फूल उठा और मन-ही-मन बोला, ‘मेरा तो काम बन गया।’ पवित्र मुसकानवाली पुलोमाको पहले उस पुलोमा नामक राक्षसने वरण किया था ॥ 19 ॥

तां तु प्रादात् पिता पश्चाद् भृगवे शास्त्रवत्तदा ।
तस्य तत् किल्बिषं नित्यं हृदि वर्तति भार्गव ॥ 20 ॥
किंतु पीछे उसके पिताने शास्त्रविधिके अनुसार महर्षि भृगुके साथ उसका विवाह कर दिया। भृगुनन्दन! उसके पिताका वह अपराध राक्षसके हृदयमें सदा काँटे-सा कसकता रहता था ॥ 20 ॥

इदमन्तरमित्येवं हर्तुं चक्रे मनस्तदा ।
अथाग्निशरणेऽपश्यज्ज्वलन्तं जातवेदसम् ॥ 21 ॥
यही अच्छा मौका है, ऐसा विचारकर उसने उस समय पुलोमाको हर ले जानेका पक्का निश्चय कर लिया। इतनेहीमें राक्षसने देखा, अग्निहोत्र-गृहमें अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं ॥ 21 ॥

तमपृच्छत् ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा ।
शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृच्छे ऋतेन वै ॥ 22 ॥
तब पुलोमाने उस समय उस प्रज्वलित पावकसे पूछा- ‘अग्निदेव! मैं सत्यकी शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है?’ ॥ 22 ॥

मुखं त्वमसि देवानां वद पावक पृच्छते ।
मया हीयं वृता पूर्व भार्यार्थे वरवर्णिनी ॥ 23 ॥
‘पावक! तुम देवताओंके मुख हो। अतः मेरे पूछनेपर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो मैंने ही इस सुन्दरीको अपनी पत्नी बनानेके लिये वरण किया था ॥ 23 ॥

पश्चादिमां पिता प्रादाद् भृगवेऽनृतकारकः ।
सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता ॥ 24 ॥
तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम् ।
स मन्युस्तत्र हृदयं प्रदहन्निव तिष्ठति ।
मत्पूर्वभार्या यदिमां भृगुराप सुमध्यमाम् ॥ 25 ॥
‘किंतु बादमें असत्य व्यवहार करनेवाले इसके पिताने भृगुके साथ इसका विवाह कर दिया। यदि यह एकान्तमें मिली हुई सुन्दरी भृगुकी भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रमसे हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदयको दग्ध-सा कर रहा है; इस सुमध्यमाको, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगुने अन्यायपूर्वक हड़प लिया है’ ॥ 24-25 ॥

सौतिरुवाच
एवं रक्षस्तमामन्त्र्य ज्वलितं जातवेदसम् ।
शङ्कमानं भृगोर्भार्यां पुनः पुनरपृच्छत ॥ 26 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-इस प्रकार वह राक्षस भृगुकी पत्नीके प्रति, यह मेरी है या भृगुकी-ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्निको सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा ॥ 26 ॥

त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्चरसि नित्यदा ।
साक्षिवत् पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः ॥ 27 ॥
‘अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियोंके भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने ! तुम पुण्य और पापके विषयमें साक्षीकी भाँति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ ॥ 27 ॥

मत्पूर्वापहृता भार्या भृगुणानृतकारिणा ।
सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि ॥ 28 ॥
‘असत्य बर्ताव करनेवाले भृगुने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्याका अपहरण किया है। यदि यह वही है, तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो ॥ 28 ॥

श्रुत्वा त्वत्तो भृगोर्भार्यां हरिष्याम्याश्रमादिमाम् ।
जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम ॥ 29 ॥
‘सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुखसे सब बातें सुनकर मैं भृगुकी इस भार्याको तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रमसे हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो’ ॥ 29 ॥

सौतिरुवाच
तस्यैतद् वचनं श्रुत्वा सप्तार्चिर्दुःखितोऽभवत् ।
भीतोऽनृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनैः ॥ 30 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- राक्षसकी यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिह्वाओंवाले अग्निदेव बहुत दुःखी हुए। एक ओर वे झूठसे डरते थे तो दूसरी ओर भृगुके शापसे; अतः धीरेसे इस प्रकार बोले ॥ 30 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

अग्निनरुवाच
त्वया वृता पुलोमेयं पूर्व दानवनन्दन ।
किन्त्वियं विधिना पूर्व मन्त्रवन्न वृता त्वया ॥ 31 ॥
अग्निदेव बोले- दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्हींने इस पुलोमाका वरण किया था, किंतु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया था ॥ 31 ॥

पित्रा तु भृगवे दत्ता पुलोमेयं यशस्विनी ।
ददाति न पिता तुभ्यं वरलोभान्महायशाः ॥ 32 ॥
पिताने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगुको ही दी है। तुम्हारे वरण करनेपर भी इसके महायशस्वी पिता तुम्हारे हाथमें इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मनमें तुमसे श्रेष्ठ वर मिल जानेका लोभ था ॥ 32 ॥

अथेमां वेददृष्टेन कर्मणा विधिपूर्वकम् ।
भार्यामृषिभृगुः प्राप मां पुरस्कृत्य दानव ॥ 33 ॥
दानव! तदनन्तर महर्षि भृगुने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रियाद्वारा विधिपूर्वक इसका पाणिग्रहण किया था ॥ 33 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

सेयमित्यवगच्छामि नानृतं वक्तुमुत्सहे ।
नानृतं हि सदा लोके पूज्यते दानवोत्तम ॥ 34 ॥
यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषयमें मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ ! लोकमें असत्यकी कभी पूजा नहीं होती है ॥ 34 ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि पुलोमाग्निसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ 5 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें पुलोमा-अग्निसंवादविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 5 ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

षष्ठोऽध्यायः

महर्षि च्यवनका जन्म, उनके तेजसे पुलोमा राक्षसका भस्म होना तथा भृगुका अग्निदेवको शाप देना

सौतिरुवाच
अग्नेरथ वचः श्रुत्वा तद् रक्षः प्रजहार ताम् ।
ब्रह्मन् वराहरूपेण मनोमारुतरंहसा ॥ 1 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं – ब्रह्मन् ! अग्निका यह वचन सुनकर उस राक्षसने वराहका रूप धारण करके मन और वायुके समान वेगसे उसका अपहरण किया ॥ 1 ॥

ततः स गर्भो निवसन् कुक्षौ भृगुकुलोद्वह ।
रोषान्मातुश्युतः कुक्षेश्यवनस्तेन सोऽभवत् ॥ 2 ॥
भृगुवंशशिरोमणे! उस समय वह गर्भ जो अपनी माताकी कुक्षिमें निवास कर रहा था, अत्यन्त रोषके कारण योगबलसे माताके उदरसे च्युत होकर बाहर निकल आया। च्युत होनेके कारण ही उसका नाम च्यवन हुआ ॥ 2 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

तं दृष्ट्वा मातुरुदराच्च्युतमादित्यवर्चसम् ।
तद् रक्षो भस्मसाद्भूतं पपात परिमुच्य ताम् ॥ 3 ॥
माताके उदरसे च्युत होकर गिरे हुए उस सूर्यके समान तेजस्वी गर्भको देखते ही वह राक्षस पुलोमाको छोड़कर गिर पड़ा और तत्काल जलकर भस्म हो गया ॥ 3 ॥

सा तमादाय सुश्रोणी ससार भृगुनन्दनम् ।
च्यवनं भार्गवं पुत्रं पुलोमा दुःखमूर्च्छिता ॥ 4 ॥
सुन्दर कटिप्रदेशवाली पुलोमा दुःखसे मूर्च्छित हो गयी और किसी तरह सँभलकर भृगुकुलको आनन्दित करनेवाले अपने पुत्र भार्गव च्यवनको गोदमें लेकर ब्रह्माजीके पास चली ॥ 4 ॥

तां ददर्श स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।
रुदतीं बाष्पपूर्णाक्षीं भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् ॥ 5 ॥
सान्त्वयामास भगवान् वधू ब्रह्मा पितामहः ।
अश्रुबिन्दूद्भवा तस्याः प्रावर्तत महानदी ॥ 6 ॥
सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने स्वयं भृगुकी उस पतिव्रता पत्नीको रोती और नेत्रोंसे आँसू बहाती देखा। तब पितामह भगवान् ब्रह्माने अपनी पुत्रवधूको सान्त्वना दी – उसे धीरज बँधाया। उसके आँसुओंकी बूँदोंसे एक बहुत बड़ी नदी प्रकट हो गयी ॥ 5-6 ॥

आवर्तन्ती सृतिं तस्या भृगोः पन्त्यास्तपस्विनः ।
तस्या मार्ग सृतवतीं दृष्ट्वा तु सरितं तदा ॥ 7 ॥
नाम तस्यास्तदा नद्याश्चक्रे लोकपितामहः ।
वधूसरेति भगवांश्यवनस्याश्रमं प्रति ॥ 8 ॥
वह नदी तपस्वी भृगुकी उस पत्नीके मार्गको आप्लावित किये हुए थी। उस समय लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने पुलोमाके मार्गका अनुसरण करनेवाली उस नदीको देखकर उसका नाम वधूसरा रख दिया, जो च्यवनके आश्रमके पास प्रवाहित होती है ॥ 7-8 ॥

स एव च्यवनो जज्ञे भृगोः पुत्रः प्रतापवान् ।
तं ददर्श पिता तत्र च्यवनं तां च भामिनीम् ।
स पुलोमां ततो भार्यां पप्रच्छ कुपितो भृगुः ॥ 9 ॥
इस प्रकार भृगुपुत्र प्रतापी च्यवनका जन्म हुआ। तदनन्तर पिता भृगुने वहाँ अपने पुत्र च्यवन तथा पत्नी पुलोमाको देखा और सब बातें जानकर उन्होंने अपनी भार्या पुलोमासे कुपित होकर पूछा- ।॥9॥

भृगुरुवाच
केनासि रक्षसे तस्मै कथिता त्वं जिहीर्षते ।
न हि त्वां वेद तद् रक्षो मद्भार्या चारुहासिनीम् ॥ 10 ॥
भृगु बोले- कल्याणी! तुम्हें हर लेनेकी इच्छासे आये हुए उस राक्षसको किसने तुम्हारा परिचय दे दिया? मनोहर मुसकानवाली मेरी पत्नी तुझ पुलोमाको वह राक्षस नहीं जानता था ॥ 10 ॥

तत्त्वमाख्याहि तं ह्यद्य शप्तुमिच्छाम्यहं रुषा ।
बिभेति को न शापान्मे कस्य चायं व्यतिक्रमः ॥ 11 ॥
प्रिये ! ठीक-ठीक बताओ। आज मैं कुपित होकर अपने उस अपराधीको शाप देना चाहता हूँ। कौन मेरे शापसे नहीं डरता है? किसके द्वारा यह अपराध हुआ है? ॥ 11 ॥

पुलोमोवाच
अग्निना भगवंस्तस्मै रक्षसेऽहं निवेदिता ।
ततो मामनयद् रक्षः क्रोशन्तीं कुररीमिव ॥ 12 ॥
पुलोमा बोली- भगवन्! अग्निदेवने उस राक्षसको मेरा परिचय दे दिया। इससे कुररीकी भाँति विलाप करती हुई मुझ अबलाको वह राक्षस उठा ले गया ॥ 12 ॥

साहं तव सुतस्यास्य तेजसा परिमोक्षिता ।
भस्मीभूतं च तद् रक्षो मामुत्सृज्य पपात वै ॥ 13 ॥
आपके इस पुत्रके तेजसे मैं उस राक्षसके चंगुलसे छूट सकी हूँ। राक्षस मुझे छोड़कर गिरा और जलकर भस्म हो गया ॥ 13 ॥

इति श्रुत्वा पुलोमाया भृगुः परममन्युमान् ।
शशापाग्निमतिक्रुद्धः सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ 14 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- पुलोमाका यह वचन सुनकर परम क्रोधी महर्षि भृगुका क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने अग्निदेवको शाप दिया- ‘तुम सर्वभक्षी हो जाओगे’ ॥ 14 ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापे षष्ठोऽध्यायः ॥ 6 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें अग्निशापविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ 6 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

भगवत गीता से अपनी समस्याओं का समाधान खोजें

सप्तमोऽध्यायः

शापसे कुपित हुए अग्निदेवका अदृश्य होना और ब्रह्माजीका उनके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना

सौतिरुवाच
शप्तस्तु भृगुणा वह्निः क्रुद्धो वाक्यमथाब्रवीत् ।
किमिदं साहसं ब्रह्मन् कृतवानसि मां प्रति ॥ 1 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- महर्षि भृगुके शाप देनेपर अग्निदेवने कुपित होकर यह बात कही – ‘ब्रह्मन्! तुमने मुझे शाप देनेका यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया हे?’ ॥ 1 ॥

धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदतः समम् ।
पृष्टो यदब्रवं सत्यं व्यभिचारोऽत्र को मम ॥ 2 ॥
‘मैं सदा धर्मके लिये प्रयत्नशील रहता और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ; अतः उस राक्षसके पूछनेपर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध है? ॥ 2 ॥

पृष्टो हि साक्षी यः साक्ष्यं जानानोऽप्यन्यथा वदेत् ।
स पूर्वानात्मनः सप्त कुले हन्यात् तथा परान् ॥ 3 ॥
‘जो साक्षी किसी बातको ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछनेपर कुछ-का-कुछ कह देता – झूठ बोलता है, वह अपने कुलमें पहले और पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंका नाश करता – उन्हें नरकमें ढकेलता है ॥ 3 ॥

यश्च कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोऽपि न भाषते ।
सोऽपि तेनैव पापेन लिप्यते नात्र संशयः ॥ 4 ॥
‘इसी प्रकार जो किसी कार्यके वास्तविक रहस्यका ज्ञाता है, वह उसके पूछनेपर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता – मौन रह जाता है तो वह भी उसी पापसे लिप्त होता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 4 ॥

शक्तोऽहमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम ।
जानतोऽपि च ते ब्रह्मन् कथयिष्ये निबोध तत् ॥ 5 ॥
‘मैं भी तुम्हें शाप देनेकी शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य हैं। ब्रह्मन् ! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो – ॥ 5 ॥

योगेन बहुधात्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु ।
अग्निहोत्रेषु सत्रेषु क्रियासु च मखेषु च ॥ 6 ॥
‘मैं योगसिद्धिके बलसे अपने-आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियोंमें, नित्य किये जानेवाले अग्निहोत्रोंमें, अनेक व्यक्तियोंद्वारा संचालित सत्रोंमें, गर्भाधान आदि क्रियाओंमें तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों) में सदा निवास करता हूँ ॥ 6 ॥

वेदोक्तेन विधानेन मयि यद् हूयते हविः ।
देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वै ॥ 7 ॥
‘मुझमें वेदोक्त विधिसे जिस हविष्यकी आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं ॥ 7 ॥

आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणास्तथा ।
दर्शश्च पौर्णमासश्च देवानां पितृभिः सह ॥ 8 ॥
‘जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओंके लिये किये जाते हैं ॥ 8 ॥

देवताः पितरस्तस्मात् पितरश्चापि देवताः ।
एकीभूताश्च पूज्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु ॥ 9 ॥
‘अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वोपर ये दोनों एक रूपमें भी पूजे जाते हैं और पृथक् पृथक् भी ॥ 9 ॥

देवताः पितरश्चैव भुञ्जते मयि यद् हुतम् ।
देवतानां पितॄणां च मुखमेतदहं स्मृतम् ॥ 10 ॥
‘मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भक्षण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरोंका मुख माना जाता हूँ ॥ 10 ॥

अमावास्यां हि पितरः पौर्णमास्यां हि देवताः ।
मन्मुखेनैव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः ॥ 11 ॥
सर्वभक्षः कथं त्वेषां भविष्यामि मुखं त्वहम् ।
‘अमावास्याको पितरोंके लिये और पूर्णिमाको देवताओंके लिये मेरे मुखसे ही आहुति दी जाती है और उस आहुतिके रूपमें प्राप्त हुए हविष्यका वे देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होनेपर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ?’ ॥ 11 ॥

सौतिरुवाच
चिन्तयित्वा ततो वह्निश्चक्रे संहारमात्मनः ॥ 12 ॥
द्विजानामग्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च ।
निरोंकारवषट्काराः स्वधास्वाहाविवर्जिताः ॥ 13 ॥
विनाग्निना प्रजाः सर्वास्तत आसन् सुदुःखिताः ।
अथर्षयः समुद्विग्ना देवान् गत्वाब्रुवन् वचः ॥ 14 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- महर्षियो ! तदनन्तर अग्निदेवने कुछ सोच-विचारकर द्विजोंके अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कारसम्बन्धी क्रियाओंमेंसे अपने-आपको समेट लिया। फिर तो अग्निके बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदिसे वंचित होकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओंके पास जाकर बोले – ॥ 12-14 ॥

अग्निनाशात् क्रियाभ्रंशाद् भ्रान्ता लोकास्त्रयोऽनघाः ।
विदध्वमत्र यत् कार्यं न स्यात् कालात्ययो यथा ॥ 15 ॥
‘पापरहित देवगण! अग्निके अदृश्य हो जानेसे अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओंका लोप हो गया है। इससे तीनों लोकोंके प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषयमें जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आपलोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये’ ॥ 15 ॥

अथर्षयश्च देवाश्च ब्रह्माणमुपगम्य तु ।
अग्नेरावेदयञ्छापं क्रियासंहारमेव च ॥ 16 ॥
तत्पश्चात् ऋषि और देवता ब्रह्माजीके पास गये और अग्निको जो शाप मिला था एवं अग्निने सम्पूर्ण क्रियाओंसे जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले – ॥ 16 ॥

भृगुणा वै महाभाग शप्तोऽग्निः कारणान्तरे ।
कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाग्रभुक् तथा ॥ 17 ॥
हुतभुक् सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति ।
‘महाभाग! किसी कारणवश महर्षि भृगुने अग्निदेवको सर्वभक्षी होनेका शाप दे दिया है, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओंके मुख, यज्ञभागके अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकोंमें दी हुई आहुतियोंका उपभोग करनेवाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे?’ ॥ 17 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

श्रुत्वा तु तद् वचस्तेषामग्निमाहूय विश्वकृत् ॥ 18 ॥
उवाच वचनं श्लक्ष्णं भूताभावनमव्ययम् ।
लोकानामिह सर्वेषां त्वं कर्ता चान्त एव च ॥ 19 ॥
त्वं धारयसि लोकांस्त्रीन् क्रियाणां च प्रवर्तकः ।
स तथा कुरु लोकेश नोच्छिद्येरन् यथा क्रियाः ॥ 20 ॥
कस्मादेवं विमूढस्त्वमीश्वरः सन् हुताशन ।
त्वं पवित्रं सदा लोके सर्वभूतगतिश्च ह ॥ 21 ॥
देवताओं तथा ऋषियोंकी बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्माजीने प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले अविनाशी अग्निको बुलाकर मधुर वाणीमें कहा- ‘हुताशन! यहाँ समस्त लोकोंके स्रष्टा और संहारक तुम्हीं हो, तुम्हीं तीनों लोकोंको धारण करनेवाले हो, सम्पूर्ण क्रियाओंके प्रवर्तक भी तुम्हीं हो। अतः लोकेश्वर! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि क्रियाओंका लोप न हो। तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ (मोहग्रस्त) कैसे हो गये? तुम संसारमें सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियोंकी गति भी तुम्हीं हो ॥ 18-21 ॥

न त्वं सर्वशरीरेण सर्वभक्षत्वमेष्यसि ।
अपाने ह्यर्चिषो यास्ते सर्वं भक्ष्यन्ति ताः शिखिन् ॥ 22 ॥
‘तुम सारे शरीरसे सर्वभक्षी नहीं होओगे। अग्निदेव ! तुम्हारे अपानदेशमें जो ज्वालाएँ होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी ॥ 22 ॥

क्रव्यादा च तनुर्या ते सा सर्वं भक्षयिष्यति ।
यथा सूर्यांशुभिः स्मृष्टं सर्वं शुचि विभाव्यते ॥ 23 ॥
तथा त्वदर्चिर्निर्दग्धं सर्व शुचि भविष्यति ।
त्वमग्ने परमं तेजः स्वप्रभावाद् विनिर्गतम् ॥ 24 ॥
स्वतेजसैव तं शापं कुरु सत्यमृषेर्विभो ।
देवानां चात्मनो भागं गृहाण त्वं मुखे हुतम् ॥ 25 ॥
‘इसके सिवा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलानेवाली जो चिताकी आग है) वही सब कुछ भक्षण करेगी। जैसे सूर्यकी किरणोंसे स्पर्श होनेपर सब वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओंसे दग्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध हो जायगा। अग्निदेव! तुम अपने प्रभावसे ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; अतः विभो ! अपने तेजसे ही महर्षिके उस शापको सत्य कर दिखाओ और अपने मुखमें आहुतिके रूपमें पड़े हुए देवताओंके तथा अपने भागको भी ग्रहण करो’ ॥ 23-25 ॥

सौतिरुवाच
एवमस्त्विति तं वह्निः प्रत्युवाच पितामहम् ।
जगाम शासनं कर्तुं देवस्य परमेष्ठिनः ॥ 26 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- यह सुनकर अग्निदेवने पितामह ब्रह्माजीसे कहा- ‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ यों कहकर वे भगवान् ब्रह्माजीके आदेशका पालन करनेके लिये चल दिये ॥ 26 ॥

देवर्षयश्च मुदितास्ततो जग्मुर्यथागतम् ।
ऋषयश्च यथापूर्व क्रियाः सर्वाः प्रचक्रिरे ॥ 27 ॥
इसके बाद देवर्षिगण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये। फिर ऋषि- महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्ववत् पालन करने लगे ॥ 27 ॥

दिवि देवा मुमुदिरे भूतसङ्घाश्च लौकिकाः ।
अग्निश्च परमां प्रीतिमवाप हतकल्मषः ॥ 28 ॥
देवतालोग स्वर्गलोकमें आनन्दित हो गये और इस लोकके समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न हुए। साथ ही शापजनित पाप कट जानेसे अग्निदेवको भी बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ 28 ॥

एवं स भगवाञ्छापं लेभेऽग्निभृगुतः पुरा ।
एवमेष पुरावृत्त इतिहासोऽग्निशापजः ।
पुलोम्नश्च विनाशोऽयं च्यवनस्य च सम्भवः ॥ 29 ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान् अग्निदेवको महर्षि भृगुसे शाप प्राप्त हुआ था। यही अग्निशापसम्बन्धी प्राचीन इतिहास है। पुलोमा राक्षसके विनाश और च्यवन मुनिके जन्मका वृत्तान्त भी यही है ॥ 29 ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापमोचने सप्तमोऽध्यायः ॥ 7 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें अग्निशापमोचनसम्बन्धी सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 7 ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

अष्टमोऽध्यायः

प्रमद्वराका जन्म, रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा विवाहके पहले ही साँपके काटनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु

सौतिरुवाच
स चापि च्यवनो ब्रह्मन् भार्गवोऽजनयत् सुतम् ।
सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम् ॥ 1 ॥
प्रमतिस्तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत् ।
रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत् ॥ 2 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- ब्रह्मन् ! भृगुपुत्र च्यवनने अपनी पत्नी सुकन्याके गर्भसे एक पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमतिने घृताची अप्सरासे रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरुके द्वारा प्रमद्वराके गर्भसे शुनकका जन्म हुआ ॥ 1-2 ॥

(शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान् ।)
शुनकस्तु महासत्त्वः सर्वभार्गवनन्दनः ।
जातस्तपसि तीव्र च स्थितः स्थिरयशास्ततः ॥ 3 ॥
महाभाग शौनकजी! आप शुनकके ही पुत्र होनेके कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं। शुनक महान् सत्त्वगुणसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंशका आनन्द बढ़ानेवाले थे। वे जन्म लेते ही तीव्र तपस्यामें संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब ओर फैल गया ॥ 3 ॥

तस्य ब्रह्मन् रुरोः सर्वं चरितं भूरितेजसः ।
विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः ॥ 4 ॥
ब्रह्मन् ! मैं महातेजस्वी रुरुके सम्पूर्ण चरित्रका विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। वह सब का-सब आप सुनिये ॥ 4 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

ऋषिरासीन्महान् पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः ।
स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः ॥ 5 ॥
पूर्वकालमें स्थूलकेश नामसे विख्यात एक तप और विद्यासे सम्पन्न महर्षि थे; जो समस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे ॥ 5 ॥

एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान् ।
गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुरिति स्मृतः ॥ 6 ॥
विप्रर्षे! इन्हीं महर्षिके समयकी बात हैं- गन्धर्वराज विश्वावसुने मेनकाके गर्भसे एक संतान उत्पन्न की ॥ 6 ॥

अप्सरा मेनका तस्य तं गर्भ भृगुनन्दन ।
उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति ॥ 7 ॥
भृगुनन्दन ! मेनका अप्सराने गन्धर्वराजद्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भको समय पूरा होनेपर स्थूलकेश मुनिके आश्रमके निकट जन्म दिया ॥ 7 ॥

उत्सृज्य चैव तं गर्भ नद्यास्तीरे जगाम सा ।
अप्सरा मेनका ब्रह्मन् निर्दया निरपत्रपा ॥ 8 ॥
ब्रह्मन् ! निर्दय और निर्लज्ज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भको वहीं नदीके तटपर छोड़कर चली गयी ॥ 8 ॥

कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया ।
तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः ॥ 9 ॥
स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम् ।
स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विजः ॥ 10 ॥
जग्राह च मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च ।
ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे ॥ 11 ॥
तदनन्तर तेजस्वी महर्षि स्थूलकेशने एकान्त स्थानमें त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्याको देखा, जो देवताओंकी बालिकाके समान दिव्य शोभासे प्रकाशित हो रही थी। उस समय उस कन्याको वैसी दशामें देखकर द्विजश्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेशके मनमें बड़ी दया आयी; अतः वे उसे उठा लाये और उसका पालन-पोषण करने लगे। वह सुन्दरी कन्या उनके शुभ आश्रमपर दिनोदिन बढ़ने लगी ॥ 9-11 ॥

जातकाद्याः क्रियाश्चास्या विधिपूर्वं यथाक्रमम् ।
स्थूलकेशो महाभागश्चकार सुमहानृषिः ॥ 12 ॥
महाभाग महर्षि स्थूलकेशने क्रमशः उस बालिकाके जात-कर्मादि सब संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये ॥ 12 ॥

प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता ।
ततः प्रमद्वरेत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः ॥ 13 ॥
वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणोंसे सुशोभित हो संसारकी समस्त प्रमदाओं (सुन्दरी स्त्रियों) से श्रेष्ठ जान पड़ती थी; इसलिये महर्षिने उसका नाम ‘प्रमद्वरा’ रख दिया ॥ 13 ॥

तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम् ।
बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा ॥ 14 ॥
एक दिन धर्मात्मा रुरुने महर्षिके आश्रममें उस प्रमद्वराको देखा। उसे देखते ही उनका हृदय तत्काल कामदेवके वशीभूत हो गया ॥ 14 ॥

पितरं सखिभिः सोऽथ श्रावयामास भार्गवम् ।
प्रमतिश्चाभ्ययाचत् तां स्थूलकेशं यशस्विनम् ॥ 15 ॥
तब उन्होंने मित्रोंद्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमतिको अपनी अवस्था कहलायी। तदनन्तर प्रमतिने यशस्वी स्थूलकेश मुनिसे (अपने पुत्रके लिये) उनकी वह कन्या माँगी ॥ 15 ॥

ततः प्रादात् पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्धराम् ।
विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते ॥ 16 ॥
तब पिताने अपनी कन्या प्रमद्वराका रुरुके लिये वाग्दान कर दिया और आगामी उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रमें विवाहका मुहूर्त निश्चित किया ॥ 16 ॥

ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते ।
सखीभिः क्रीडती सार्धं सा कन्या वरवर्णिनी ॥ 17 ॥
तदनन्तर जब विवाहका मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियोंके साथ क्रीड़ा करती हुई वनमें घूमने लगी ॥ 17 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

नापश्यत् सम्प्रसुप्तं वै भुजङ्गं तिर्यगायतम् ।
पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्षुः कालचोदिता ॥ 18 ॥
मार्गमें एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वराने उसे नहीं देखा। वह कालसे प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्पको पैरसे कुचलती हुई आगे निकल गयी ॥ 18 ॥

स तस्याः सम्प्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा ।
विषोपलिप्तान् दशनान् भृशमङ्गे न्यपातयत् ॥ 19 ॥
उस समय कालधर्मसे प्रेरित हुए उस सर्पने उस असावधान कन्याके अंगमें बड़े जोरसे अपने विषभरे दाँत गड़ा दिये ॥ 19 ॥

सा दष्टा तेन सर्पण पपात सहसा भुवि ।
विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना ॥ 20 ॥
निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्धजा ।
व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाभवत् ॥ 21 ॥
उस सर्पके हँस लेनेपर वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसके शरीरका रंग उड़ गया, शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी। उसके बाल खुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनोंके हृदयमें विषाद उत्पन्न कर रही थी। जो कुछ ही क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एवं दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होनेके कारण अब देखनेयोग्य नहीं रह गयी ॥ 20-21 ॥

प्रसुप्ते वाभवच्चापि भुवि सर्पविषार्दिता ।
भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा ॥ 22 ॥
वह सर्पके विषसे पीड़ित होकर गाढ़ निद्रामें सोयी हुईकी भाँति भूमिपर पड़ी थी। उसके शरीरका मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्थामें भी अत्यन्त
मनोहारिणी जान पड़ती थी ॥ 22 ॥

ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विनः ।
विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम् ॥ 23 ॥
उसके पिता स्थूलकेशने तथा अन्य तपस्वी महात्माओंने भी आकर उसे देखा। वह कमलकी-सी कान्तिवाली किशोरी धरतीपर चेष्टारहित पड़ी थी ॥ 23 ॥

ततः सर्वे द्विजवराः समाजग्मुः कृपान्विताः ।
स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः ॥ 24 ॥
उद्दालकः कठश्चैव श्वेतश्चैव महायशाः ।
भरद्वाजः कौणकुत्स्य आर्टिषेणोऽथ गौतमः ॥ 25 ॥
प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः ।
तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी श्वेत, भरद्वाज, कौणकुत्स्य, आर्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र रुरुसहित प्रमति तथा अन्य सभी
वनवासी श्रेष्ठ द्विज दयासे द्रवित होकर वहाँ आये ॥ 24-25 ॥

तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजङ्गस्य विषार्दिताम् ॥ 26 ॥
रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वार्तो बहिर्ययौ ।
ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा ॥ 27 ॥
वे सब लोग उस कन्याको सर्पके विषसे पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणावश रोने लगे। रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँसे बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैठे रहे ॥ 26-27 ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वरासर्पदंशेऽष्टमोऽध्यायः ॥ 8 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें प्रमद्वराके सर्पदंशनसे सम्बन्ध रखनेवाला आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 8 ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रामोपासना अगस्त्य संहिता

नवमोऽध्यायः

रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्वराका जीवित होना, रुरुके साथ उसका विवाह, रुरुका सर्पोंको मारनेका निश्चय तथा रुरु- डुण्डुभ-संवाद

सौतिरुवाच
तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु महात्मसु ।
रुरुश्शुक्रोश गहनं वनं गत्वातिदुःखितः ॥ 1 ॥
शोकेनाभिहतः सोऽथ विलपन् करुणं बहु ।
अब्रवीद् वचनं शोचन् प्रियां स्मृत्वा प्रमद्वराम् ॥ 2 ॥
शेते सा भुवि तन्वङ्गी मम शोकविवर्धिनी ।
बान्धवानां च सर्वेषां किं नु दुःखमतः परम् ॥ 3 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! वे ब्राह्मण प्रमद्वराके चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसी समय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहन वनमें जाकर जोर-जोरसे रुदन करने लगा। शोकसे पीड़ित होकर उसने बहुत करुणाजनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वराका स्मरण करके शोकमग्न हो इस प्रकार बोला- ‘हाय! वह कृशांगी बाला मेरा तथा समस्त बान्धवोंका शोक बढ़ाती हुई भूमिपर सो रही है; इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है? ॥ 1-3 ॥

यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि ।
सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया ॥ 4 ॥
‘यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनोंकी भलीभाँति आराधना की हो तो उसके पुण्यसे मेरी प्रिया जीवित हो जाय ॥ 4 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

यथा च जन्मप्रभृति यतात्माहं धृतव्रतः ।
प्रमद्वरा तथा ह्येषा समुत्तिष्ठतु भामिनी ॥ 5 ॥
‘यदि मैंने जन्मसे लेकर अबतक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखा हो और ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे’ ॥ 5 ॥

(कृष्णे विष्णौ हृषीकेशे लोकेशेऽसुरविद्विषि ।
यदि मे निश्चला भक्तिर्मम जीवतु सा प्रिया ॥)
‘यदि पापी असुरोंका नाश करनेवाले, इन्द्रियोंके स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्णमें मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे’।

एवं लालप्यतस्तस्य भार्यार्थे दुःखितस्य च ।
देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं वने ॥ 6 ॥
इस प्रकार जब रुरु पत्नीके लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समय एक देवदूत उसके पास आया और वनमें रुरुसे बोला ॥ 6 ॥

देवदूत उवाच
अभिधत्से ह यद् वाचा रुरो दुःखेन तन्मृषा ।
यतो मर्त्यस्य धर्मात्मन् नायुरस्ति गतायुषः ॥ 7 ॥
गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसोः सुता ।
तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन ॥ 8 ॥
देवदूतने कहा- धर्मात्मा रुरु ! तुम दुःखसे व्याकुल हो अपनी वाणीद्वारा जो कुछ कहते हो, वह सब व्यर्थ है; क्योंकि जिस मनुष्यकी आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयु नहीं मिल सकती। यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सराकी पुत्री थी। इसे जितनी आयु मिली थी, वह पूरी हो चुकी है। अतः तात! तुम किसी तरह भी मनको शोकमें न डालो ॥ 7-8 ॥

उपायश्चात्र विहितः पूर्व देवैर्महात्मभिः ।
तं यदीच्छसि कर्तुं त्वं प्राप्स्यसीह प्रमद्धराम् ॥ 9 ॥
इस विषयमें महात्मा देवताओंने एक उपाय निश्चित किया है। यदि तुम उसे करना चाहो तो इस लोकमें प्रमद्वराको पा सकोगे ॥ 9 ॥

रुरुरुवाच
क उपायः कृतो देवैब्रूहि तत्त्वेन खेचर ।
करिष्येऽहं तथा श्रुत्वा त्रातुमर्हति मां भवान् ॥ 10 ॥
रुरु बोला- आकाशचारी देवदूत ! देवताओंने कौन-सा उपाय निश्चित किया है, उसे ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूँगा। तुम मुझे इस दुःखसे बचाओ ॥ 10 ॥

देवदूत उवाच
आयुषोउर्धं प्रयच्छ त्वं कन्यायै भृगुनन्दन ।
एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा ॥ 11 ॥
देवदूतने कहा- भृगुनन्दन रुरु ! तुम उस कन्याके लिये अपनी आधी आयु दे दो। ऐसा करनेसे तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी ॥ 11 ॥

रुरुरुवाच
आयुषोऽर्थं प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम ।
शृङ्गाररूपाभरणा समुत्तिष्ठतु मे प्रिया ॥ 12 ॥
रुरु बोला- देवश्रेष्ठ ! मैं उस कन्याको अपनी आधी आयु देता हूँ। मेरी प्रिया अपने शृंगार, सुन्दर रूप और आभूषणोंके साथ जीवित हो उठे ॥ 12 ॥

सौतिरुवाच
ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमौ ।
धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् ॥ 13 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं – तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषोंने धर्मराजके पास जाकर कहा- ॥ 13 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

धर्मराजायुषोऽर्धेन रुरोर्भार्या प्रमद्वरा ।
समुत्तिष्ठतु कल्याणी मृतैवं यदि मन्यसे ॥ 14 ॥
‘धर्मराज! रुरुकी भार्या कल्याणी प्रमद्वरा मर चुकी है। यदि आप मान लें तो वह रुरुकी आधी आयुसे जीवित हो जाय’ ॥ 14 ॥

धर्मराज उवाच
प्रमद्वरां रुरोर्भार्या देवदूत यदीच्छसि ।
उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्थेन रुरोरेव समन्विता ॥ 15 ॥
धर्मराज बोले- देवदूत! यदि तुम रुरुकी भार्या प्रमद्वराको जिलाना चाहते हो तो वह रुरुकी ही आधी आयुसे संयुक्त होकर जीवित हो उठे ॥ 15 ॥

सौतिरुवाच
एवमुक्ते ततः कन्या सोदतिष्ठत् प्रमद्वरा ।
रुरोस्तस्यायुषोऽर्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी ॥ 16 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं – धर्मराजके ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनिकन्या प्रमद्वरा रुरुकी आधी आयुसे संयुक्त हो सोयी हुईकी भाँति जाग उठी ॥ 16 ॥

एतद् दृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजसः ।
आयुषोऽतिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेऽर्धमलुप्यत ॥ 17 ॥
तत इष्टेऽहनि तयोः पितरौ चक्रतुर्मुदा ।
विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ ॥ 18 ॥
उत्तम तेजस्वी रुरुके भाग्यमें ऐसी बात देखी गयी थी। उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। जब उन्होंने भार्याके लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनोंके पिताओंने निश्चित दिनमें प्रसन्नतापूर्वक उनका विवाह कर दिया। वे दोनों दम्पति एक-दूसरेके हितैषी होकर आनन्दपूर्वक रहने लगे ॥ 17-18 ॥

स लब्ध्वा दुर्लभां भार्या पद्मकिञ्जल्कसुप्रभाम् ।
व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रतः ॥ 19 ॥
कमलके केसरकी-सी कान्तिवाली उस दुर्लभ भार्याको पाकर व्रतधारी रुरुने सर्पोंके विनाशका निश्चय कर लिया ॥ 19 ॥

स दृष्ट्वा जिह्मगान् सर्वांस्तीव्रकोपसमन्वितः ।
अभिहन्ति यथासत्त्वं गृह्य प्रहरणं सदा ॥ 20 ॥
वह सर्पोंको देखते ही अत्यन्त क्रोधमें भर जाता और हाथमें डंडा ले उनपर यथाशक्ति प्रहार करता था ॥ 20 ॥

स कदाचिद् वनं विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत् ।
शयानं तत्र चापश्यद् डुण्डुभं वयसान्वितम् ॥ 21 ॥
एक दिनकी बात है, ब्राह्मण रुरु किसी विशाल वनमें गया, वहाँ उसने डुण्डुभ जातिके एक बूढ़े साँपको सोते देखा ॥ 21 ॥

तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा ।
जिघांसुः कुपितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ॥ 22 ॥
उसे देखते ही उसके क्रोधका पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मणने उस समय सर्पको मार डालनेकी इच्छासे कालदण्डके समान भयंकर डंडा उठाया। तब उस डुण्डुभने मनुष्यकी बोलीमें कहा- ॥ 22 ॥

नापराध्यामि ते किञ्चिदहमद्य तपोधन ।
संरम्भाच्च किमर्थं मामभिहंसि रुषान्वितः ॥ 23 ॥
‘तपोधन! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है? फिर किसलिये क्रोधके आवेशमें आकर तुम मुझे मार रहे हो’ ॥ 23 ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वराजीवने नवमोऽध्यायः ॥ 9 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें प्रमद्वराके जीवित होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 9 ॥

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दशमोऽध्यायः

रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद

रुरुरुवाच
मम प्राणसमा भार्या दष्टासीद् भुजगेन ह ।
तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग वै कृतः ॥ 1 ॥
भुजङ्गं वै सदा हन्यां यं यं पश्येयमित्युत ।
ततोऽहं त्वां जिघांसामि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे ॥ 2 ॥
रुरु बोला- सर्प! मेरी प्राणोंके समान प्यारी पत्नीको एक साँपने डॅस लिया था। उसी समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्पको देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार डालूँगा। उसी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। अतः आज तुम्हें अपने प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा ॥ 1-2 ॥

डुण्डुभ उवाच
अन्ये ते भुजगा ब्रह्मन् ये दशन्तीह मानवान् ।
डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ 3 ॥
डुण्डुभने कहा- ब्रह्मन् ! वे दूसरे ही साँप हैं जो इस लोकमें मनुष्योंको हँसते हैं। साँपोंकी आकृति-मात्रसे ही तुम्हें डुण्डुभोंको नहीं मारना चाहिये ॥ 3 ॥

एकानर्थान् पृथगर्थानेकदुःखान् पृथक्सुखान् ।
डुण्डुभान् धर्मविद् भूत्वा न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ 4 ॥
अहो! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगनेमें सब सर्पोंके साथ एक हैं; परंतु उनका स्वभाव दूसरे सर्पोंसे भिन्न है तथा दुःख भोगनेमें तो वे सब सर्पोंके साथ एक हैं; किंतु सुख सबका अलग-अलग है। तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डुभोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये ॥ 4 ॥

सौतिरुवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा ।
नावधीद् भयसंविग्नमृषिं मत्वाथ डुण्डुभम् ॥ 5 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- डुण्डुभ सर्पका यह वचन सुनकर रुरुने उसे कोई भयभीत ऋषि समझा, अतः उसका वध नहीं किया ॥ 5 ॥

उवाच चैनं भगवान् रुरुः संशमयन्निव ।
कामं मां भुजग ब्रूहि कोऽसीमां विक्रियां गतः ॥ 6 ॥
इसके सिवा, बड़भागी रुरुने उसे शान्ति प्रदान करते हुए-से कहा- ‘भुजंगम ! बताओ, इस विकृत (सर्प)-योनिमें पड़े हुए तुम कौन हो?’ ॥ 6 ॥

डुण्डुभ उवाच
अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात् ।
सोऽहं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागतः ॥ 7 ॥
डुण्डुभने कहा- रुरो ! मैं पूर्वजन्ममें सहस्रपाद नामक ऋषि था; किंतु एक ब्राह्मणके शापसे मुझे सर्पयोनिमें आना पड़ा है ॥ 7 ॥

रुरुरुवाच
किमर्थं शप्तवान् क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम ।
कियन्तं चैव कालं ते वपुरेतद् भविष्यति ॥ 8 ॥
रुरुने पूछा- भुजगोत्तम ! उस ब्राह्मणने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया? तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समयतक रहेगा? ॥ 8 ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि रुरुडुण्डुभसंवादे दशमोऽध्यायः ॥ 10 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें रुरु-डुण्डुभसंवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 10 ॥(Adi Parva Chapter Four to Chapter Ten)

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महाभारत आदि पर्व अध्याय 11 से 16

 

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