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Mahabharata Adi Parva Chapter 32 to 36

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Mahabharata Adi Parva Chapter 32 to 36

॥ श्रीहरिः ॥

श्रीगणेशाय नमः 

॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व में (Adi Parva Chapter 32 to 36)

इस पोस्ट में श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व अध्याय 32 से अध्याय 36 (Adi Parva Chapter 32 to 36) दिया गया है। इसमें गरुड का देवताओं के साथ युद्ध और देवताओं की पराजय का वर्णन, गरुड का अमृत लेकर लौटना, मार्ग में भगवान विष्णु से वर पाना एवं उनपर इन्द्र के द्वारा वज्र-प्रहार, इन्द्र और गरुड की मित्रता, गरुड का अमृत लेकर नागों के पास आना और विनता को दासीभाव से छुड़ाना तथा इन्द्र द्वारा अमृत का अपहरण, मुख्य-मुख्य नागों के नाम और शेषनाग की तपस्या, ब्रह्माजी से वर प्राप्ति तथा पृथ्वी को सिरपर धारण करने का वर्णन कहा गया है।(Adi Parva Chapter 32 to 36)

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ संपूर्ण महाभारत हिंदी में

अध्याय बत्तीस

गरुडका देवताओंके साथ युद्ध और देवताओंकी पराजय

सौतिरुवाच
ततस्तस्मिन् द्विजश्रेष्ठ समुदीर्णे तथाविधे ।
गरुडः पक्षिराट् तूर्ण सम्प्राप्तो विबुधान् प्रति ॥ १ ॥
तं दृष्ट्वातिबलं चैव प्राकम्पन्त सुरास्ततः ।
परस्परं च प्रत्यघ्नन् सर्वप्रहरणान्युत ॥ २ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- द्विजश्रेष्ठ ! देवताओंका समुदाय जब इस प्रकार भांति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हो युद्धके लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरुड तुरंत ही देवताओंके पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान् गरुडको देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। उनके सभी आयुध आपसमें ही आघात प्रत्याघात करने लगे ॥ १-२ ॥

तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभः ।
भौमनः सुमहावीर्यः सोमस्य परिरक्षिता ॥ ३ ॥
वहाँ विद्युत् एवं अग्निके समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन ( विश्वकर्मा) अमृतकी रक्षा कर रहे थे ॥ ३ ॥

स तेन पतगेन्द्रेण पक्षतुण्डनखक्षतः ।
मुहूर्तमतुलं युद्धं कृत्वा विनिहतो युधि ॥ ४ ॥
वे पक्षिराजके साथ दो घड़ीतक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच और नखोंसे घायल हो उस रणांगणमें मृतकतुल्य हो गये ॥ ४ ॥

रजश्चोद्भूय सुमहत् पक्षवातेन खेचरः ।
कृत्वा लोकान् निरालोकांस्तेन देवानवाकिरत् ॥ ५ ॥
तदनन्तर पक्षिराजने अपने पंखोंकी प्रचण्ड वायुसे बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकोंमें अन्धकार फैला दिया और उसी धूलसे देवताओंको ढक दिया ॥ ५ ॥

तेनावकीर्णा रजसा देवा मोहमुपागमन् ।
न चैवं ददृशुश्छन्ना रजसामृतरक्षिणः ॥ ६ ॥
उस धूलसे आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृतकी रक्षा करनेवाले देवता भी इसी प्रकार धूलसे ढक जानेके कारण कुछ देख नहीं पाते थे ॥ ६ ॥

एवं संलोडयामास गरुडस्त्रिदिवालयम् ।
पक्षतुण्डप्रहारैस्तु देवान् स विददार ह ॥ ७ ॥
इस तरह गरुडने स्वर्गलोकको व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचोंकी मारसे देवताओंका अंग-अंग विदीर्ण कर डाला ॥ ७ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

ततो देवः सहस्राक्षस्तूर्ण वायुमचोदयत् ।
विक्षिपेमां रजोवृष्टिं तवेदं कर्म मारुत ॥ ८ ॥
तब सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रदेवने तुरंत ही वायुको आज्ञा दी- ‘मारुत! तुम इस धूलकी वृष्टिको दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वशका है’ ॥ ८ ॥

अथ वायुरपोवाह तद् रजस्तरसा बली ।
ततो वितिमिरे जाते देवाः शकुनिमार्दयन् ॥ ९ ॥
तब बलवान् वायुदेवने बड़े वेगसे उस धूलको दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआ अन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पक्षी गरुडको पीडित करने लगे ॥ ९ ॥

ननादोच्चैः स बलवान् महामेघ इवाम्बरे ।
वध्यमानः सुरगणैः सर्वभूतानि भीषयन् ॥ १० ॥
देवताओंके प्रहारको सहते हुए महाबली गरुड आकाशमें छाये हुए महामेघकी भाँति समस्त प्राणियोंको डराते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे ॥ १० ॥

उत्पपात महावीर्यः पक्षिराट् परवीरहा ।
समुत्पत्यान्तरिक्षस्थं देवानामुपरि स्थितम् ॥ ११ ॥
वर्मिणो विबुधाः सर्वे नानाशस्त्रैरवाकिरन् ।
पट्टिशैः परिधैः शूलैर्गदाभिश्च सवासवाः ॥ १२ ॥
शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाशमें बहुत ऊँचे उड़ गये। उड़कर अन्तरिक्षमें देवताओंके ऊपर (ठीक सिरकी सीधमें) खड़े हो गये। उस समय कवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनपर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा प्रहार करने लगे ॥ ११-१२ ॥

क्षुरप्रैज्वलितैश्चापि चक्रैरादित्यरूपिभिः ।
नानाशस्त्रविसर्गेस्तैर्वध्यमानः समन्ततः ॥ १३ ॥
अग्निके समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्यके समान उद्भासित होनेवाले चक्र तथा नाना प्रकारके दूसरे-दूसरे शस्त्रोंके प्रहारद्वारा उनपर सब ओरसे मार पड़ रही थी ॥ १३ ॥

कुर्वन् सुतुमुलं युद्धं पक्षिराण्न व्यकम्पत ।
निर्दहन्निव चाकाशे वैनतेयः प्रतापवान् ।
पक्षाभ्यामुरसा चैव समन्ताद् व्याक्षिपत् सुरान् ॥ १४ ॥
तो भी पक्षिराज गरुड देवताओंके साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित न हुए। परम प्रतापी विनतानन्दन गरुडने, मानो देवताओंको दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकार रोषमें भरकर आकाशमें खड़े-खड़े ही पंखों और छातीके धक्केसे उन सबको चारों ओर मार गिराया ॥ १४ ॥

ते विक्षिप्तास्ततो देवा दुद्रुवुर्गरुडार्दिताः ।
नखतुण्डक्षताश्चैव सुसुवुः शोणितं बहु ॥ १५ ॥
गरुडसे पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों और चोंचसे क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगोंसे बहुत-सा रक्त बहाने लगे ॥ १५ ॥

साध्याः प्राचीं सगन्धर्वा वसवो दक्षिणां दिशम् ।
प्रजग्मुः सहिता रुद्राः पतगेन्द्रप्रधर्षिताः ॥ १६ ॥
पक्षिराजसे पराजित हो साध्य और गन्धर्व पूर्व दिशाकी ओर भाग चले। वसुओं तथा रुद्रोंने दक्षिण दिशाकी शरण ली ॥ १६ ॥

दिशं प्रतीचीमादित्या नासत्यावुत्तरां दिशम् ।
मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणा युध्यमाना महौजसः ॥ १७ ॥
आदित्यगण पश्चिम दिशाकी ओर भागे तथा अश्विनीकुमारोंने उत्तर दिशाका आश्रय लिया। ये महा-पराक्रमी योद्धा बार-बार पीछेकी ओर देखते हुए भाग रहे थे ॥ १७ ॥

अश्वक्रन्देन वीरेण रेणुकेन च पक्षिराट् ।
क्रथनेन च शूरेण तपनेन च खेचरः ॥ १८ ॥
उलूकश्वसनाभ्यां च निमेषेण च पक्षिराट् ।
प्ररुजेन च संग्रामं चकार पुलिनेन च ॥ १९ ॥
इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरुडने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर क्रथन, तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररुज तथा पुलिन- इन नौ यक्षोंके साथ युद्ध किया ॥ १८-१९ ॥

तान् पक्षनखतुण्डाग्रैरभिनद् विनतासुतः ।
युगान्तकाले संक्रुद्धः पिनाकीव परंतपः ॥ २० ॥
शत्रुओंका दमन करनेवाले विनताकुमारने प्रलय-कालमें कुपित हुए पिनाकधारी रुद्रकी भाँति क्रोधमें भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंचके अग्रभागसे विदीर्ण कर डाला ॥ २० ॥

महाबला महोत्साहास्तेन ते बहुधा क्षताः ।
रेजुरभ्रघनप्रख्या रुधिरौघप्रवर्षिणः ॥ २१ ॥
वे सभी यक्ष बड़े बलवान् और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्धमें गरुडद्वारा बार-बार क्षत-विक्षत होकर वे सूनकी धारा बहाते हुए बादलोंकी भाँति शोभा पा रहे थे ॥ २१ ॥

तान् कृत्वा पतगश्रेष्ठः पतगश्रेष्ठः सर्वानुत्क्रान्तजीवितान् ।
अतिक्रान्तोऽमृतस्यार्थे सर्वतोऽग्निमपश्यत ॥ २२ ॥
पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठानेके लिये आगे बढ़े, तब उसके चारों ओर उन्होंने आग जलती देखी ॥ २२ ॥

आवृण्वानं महाज्वालमर्चिर्भिः सर्वतोऽम्बरम् ।
दहन्तमिव तीक्ष्णांशुं चण्डवायुसमीरितम् ॥ २३ ॥
वह आग अपनी लपटोंसे वहाँके समस्त आकाशको आवृत किये हुए थी। उससे बड़ी ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थीं। वह सूर्यमण्डलकी भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायुसे प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी ॥ २३ ॥

ततो नवत्या नवतीर्मुखानां कृत्वा महात्मा गरुडस्तरस्वी ।
नदीः समापीय मुखैस्ततस्तैः सुशीघ्रमागम्य पुनर्जवेन ॥ २४ ॥
ज्वलन्तमग्निं तममित्रतापनः समास्तरत्पत्ररथो नदीभिः ।
ततः प्रचक्रे वपुरन्यदल्पं प्रवेष्टुकामोऽग्निमभिप्रशाम्य ॥ २५ ॥
तब वेगशाली महात्मा गरुडने अपने शरीरमें आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा नदियोंका जल पी लिया और पुनः बड़े वेगसे शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आगपर वह सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओंको ताप देनेवाले पक्षवाहन गरुडने नदियोंके जलसे उस आगको बुझाकर अमृतके पास पहुँचनेकी इच्छासे एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया ॥ २४-२५ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

अध्याय तैंतीस

गरुडका अमृत लेकर लौटना, मार्गमें भगवान् विष्णुसे वर पाना एवं उनपर इन्द्रके द्वारा वज्र-प्रहार

सौतिरुवाच
जाम्बूनदमयो भूत्वा मरीचिनिकरोज्ज्वलः ।
प्रविवेश बलात् पक्षी वारिवेग इवार्णवम् ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तदनन्तर जैसे जलका वेग समुद्रमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार पक्षिराज गरुड सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाशमान सुवर्णमय स्वरूप धारण करके बलपूर्वक जहाँ अमृत था, उस स्थानमें घुस गये ॥ १ ॥

सचक्रं क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके ।
परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम् ॥ २ ॥
उन्होंने देखा, अमृतके निकट एक लोहेका चक्र घूम रहा है। उसके चारों ओर छुरे लगे हुए हैं। वह निरन्तर चलता रहता है और उसकी धार बड़ी तीखी है ॥ २ ॥

ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदनं सोमहारिणाम् ।
घोररूपं तदत्यर्थं यन्त्रं देवैः सुनिर्मितम् ॥ ३ ॥
वह घोर चक्र अग्नि और सूर्यके समान जाज्वल्यमान था। देवताओंने उस अत्यन्त भयंकर यन्त्रका निर्माण इसलिये किया था कि वह अमृत चुरानेके लिये आये हुए चोरोंके
टुकड़े-टुकड़े कर डाले ॥ ३ ॥

तस्यान्तरं स दृष्ट्वैव पर्यवर्तत खेचरः ।
अरान्तरेणाभ्यपतत् संक्षिप्याङ्ग क्षणेन ह ॥ ४ ॥
पक्षी गरुड उसके भीतरका छिद्र- उसमें घुसनेका मार्ग देखते हुए खड़े रहे। फिर एक क्षणमें ही वे अपने शरीरको संकुचित करके उस चक्रके अरोंके बीचसे होकर भीतर घुस गये ॥ ४ ॥

अधश्चक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती ।
विद्युज्जिह्वौ महावीर्यों दीप्तास्यौ दीप्तलोचनौ ॥ ५ ॥
चक्षुर्विषौ महाघोरौ नित्यं क्रुद्धौ तरस्विनौ ।
रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ ॥ ६ ॥
वहाँ चक्रके नीचे अमृतकी रक्षाके लिये ही दो श्रेष्ठ सर्प नियुक्त किये गये थे। उनकी कान्ति प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ती थी। बिजलीके समान उनकी लपलपाती हुई जीभें, देदीप्यमान मुख और चमकती हुई आँखें थीं। वे दोनों सर्प बड़े पराक्रमी थे। उनके नेत्रोंमें ही विष भरा था। वे बड़े भयंकर, नित्य क्रोधी और अत्यन्त वेगशाली थे। गरुडने उन दोनोंको देखा ॥ ५-६ ॥

सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ ।
तयोरेकोऽपि यं पश्येत् स तूर्ण भस्मसाद् भवेत् ॥ ७ ॥
उनके नेत्रोंमें सदा क्रोध भरा रहता था। वे निरन्तर एकटक दृष्टिसे देखा करते थे (उनकी आँखें कभी बंद नहीं होती थीं। उनमेंसे एक भी जिसे देख ले, वह तत्काल भस्म हो सकता था ॥ ७ ॥

तयोश्चक्षूषि रजसा सुपर्णः सहसावृणोत् ।
ताभ्यामदृष्टरूपोऽसौ सर्वतः समताडयत् ॥ ८ ॥
सुंदर पंखवाले गरुडजीने सहसा धूल झोंककर उनकी आँखें बंद कर दीं और उनसे अदृश्य रहकर ही वे सब ओरसे उन्हें मारने और कुचलने लगे ॥ ८ ॥

तयोरङ्गे समाक्रम्य वैनतेयोऽन्तरिक्षगः ।
आच्छिनत् तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत् ततः ॥ ९ ॥
समुत्पाट्यामृतं तत्र वैनतेयस्ततो बली ।
उत्पपात जवेनैव यन्त्रमुन्मथ्य वीर्यवान् ॥ १० ॥
आकाशमें विचरनेवाले महापराक्रमी विनता-कुमारने वेगपूर्वक आक्रमण करके उन दोनों सर्पोंके शरीरको बीचसे काट डाला; फिर वे अमृतकी ओर झपटे और चक्रको तोड़-फोड़कर अमृतके पात्रको उठाकर बड़ी तेजीके साथ वहाँसे उड़ चले ॥ ९-१० ॥

अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्याशु निःसृतः ।
आगच्छदपरिश्रान्त आवार्यार्कप्रभां ततः ॥ ११ ॥
उन्होंने स्वयं अमृतको नहीं पीया, केवल उसे लेकर शीघ्रतापूर्वक वहाँसे निकल गये और सूर्यकी प्रभाका तिरस्कार करते हुए बिना थकावटके चले आये ॥ ११ ॥

विष्णुना च तदाकाशे वैनतेयः समेयिवान् ।
तस्य नारायणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा ॥ १२ ॥
उस समय आकाशमें विनतानन्दन गरुडकी भगवान् विष्णुसे भेंट हो गयी। भगवान् नारायण गरुडके लोलुपतारहित पराक्रमसे बहुत संतुष्ट हुए थे ॥ १२ ॥

तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम् ।
स वने तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरिक्षगः ॥ १३ ॥
अतः उन अविनाशी भगवान् विष्णुने आकाशचारी गरुडसे कहा- ‘मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ।’ अन्तरिक्षमें विचरनेवाले गरुडने यह वर माँगा – ‘प्रभो! मैं आपके ऊपर (ध्वजमें) स्थित होऊँ’ ॥ १३ ॥

उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः ।
अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम् ॥ १४ ॥
इतना कहकर वे भगवान् नारायणसे फिर यों बोले- ‘भगवन्! मैं अमृत पीये बिना ही अजर-अमर हो जाऊँ’ ॥ १४ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम् ।
प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत् ॥ १५ ॥
तब भगवान् विष्णुने विनतानन्दन गरुडसे कहा- ‘एवमस्तु’- ऐसा ही हो। वे दोनों वर ग्रहण करके गरुडने भगवान् विष्णुसे कहा- ॥ १५ ॥

भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि ।
तं वने वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम् ॥ १६ ॥
‘देव! मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ। भगवान् भी कोई वर माँगें।’ तब श्रीहरिने महाबली गरुत्मान्से अपना वाहन होनेका वर माँगा ॥ १६ ॥

ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम् ।
एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः ॥ १७ ॥
वनाज तरसा वेगाद् वायुं स्पर्धन् महाजवः ।
तं व्रजन्तं खगश्रेष्ठं वज्रेणेन्द्रोऽभ्यताडयत् ॥ १८ ॥
हरन्तममृतं रोषाद् गरुडं पक्षिणां वरम् ।
भगवान् विष्णुने गरुडको अपना ध्वज बना लिया-उन्हें ध्वजके ऊपर स्थान दिया और कहा- ‘इस प्रकार तुम मेरे ऊपर रहोगे।’ तदनन्तर उन भगवान् नारायणसे ‘एवमस्तु’ कहकर पक्षी गरुड वहाँसे वेग-पूर्वक चले गये। महान् वेगशाली गरुड उस समय वायुसे होड़ लगाते चल रहे थे। पक्षियोंके सरदार उन खगश्रेष्ठ गरुडको अमृतका अपहरण करके लिये जाते देख इन्द्रने रोषमें भरकर उनके ऊपर वज्रसे आघात किया ॥ १७-१८३ ॥

तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरुडः पततां वरः ॥ १९ ॥
प्रहसञ्श्लक्ष्णया वाचा तथा वज्रसमाहतः ।
ऋषेर्मानं करिष्यामि वज्रं यस्यास्थिसम्भवम् ॥ २० ॥
वज्रस्य च करिष्यामि तवैव च शतक्रतो ।
एतत् पत्रं त्यजाम्येकं यस्यान्तं नोपलप्स्यसे ॥ २१ ॥
विहंगप्रवर गरुडने उस युद्धमें वज्राहत होकर भी हँसते हुए मधुर वाणीमें इन्द्रसे कहा – ‘देवराज! जिनकी हड्डीसे यह वज्र बना है, उन महर्षिका सम्मान मैं अवश्य करूँगा। शतक्रतो ! ऋषिके साथ-साथ तुम्हारा और तुम्हारे वज्रका भी आदर करूँगा; इसीलिये मैं अपनी एक पाँख, जिसका तुम कहीं अन्त नहीं पा सकोगे, त्याग देता हूँ ॥ १९-२१ ॥

न च वज्रनिपातेन रुजा मेऽस्तीह काचन ।
एवमुक्त्वा ततः पत्रमुत्ससर्ज स पक्षिराट् ॥ २२ ॥
‘तुम्हारे वज्रके प्रहारसे मेरे शरीरमें कुछ भी पीड़ा नहीं हुई है।’ ऐसा कहकर पक्षिराजने अपना एक पंख गिरा दिया ॥ २२ ॥

तदुत्सृष्टमभिप्रेक्ष्य तस्य पर्णमनुत्तमम् ।
हृष्टानि सर्वभूतानि नाम चक्रुर्गरुत्मतः ॥ २३ ॥
उस गिरे हुए परम उत्तम पंखको देखकर सब प्राणियोंको बड़ा हर्ष हुआ और उसीके आधारपर उन्होंने गरुडका नामकरण किया ॥ २३ ॥

सुरूपं पत्रमालक्ष्य सुपर्णोऽयं भवत्विति ।
तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्य सहस्राक्षः पुरन्दरः ।
खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत ॥ २४ ॥
वह सुन्दर पाँख देखकर लोगोंने कहा- ‘जिसका यह सुन्दर पर्ण (पंख) है, वह पक्षी सुपर्ण नामसे विख्यात हो।’ (गरुडपर वज्र भी निष्फल हो गया) यह महान् आश्चर्यकी बात देखकर सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रने मन-ही-मन विचार किया- अहो! यह पक्षीरूपमें कोई महान् प्राणी है, ऐसा सोचकर उन्होंने कहा ॥ २४ ॥

शक्र उवाच
बलं विज्ञातुमिच्छामि यत् ते परमनुत्तमम् ।
सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम ॥ २५ ॥
इन्द्रने कहा- विहंगप्रवर! मैं तुम्हारे सर्वोत्तम उत्कृष्ट बलको जानना चाहता हूँ और तुम्हारे साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो ॥ २५ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

अध्याय चौंतीस

इन्द्र और गरुडकी मित्रता, गरुडका अमृत लेकर नागोंके पास आना और विनताको दासीभावसे छुड़ाना तथा इन्द्रद्वारा अमृतका अपहरण

गरुड उवाच
सख्यं मेऽस्तु त्वया देव यथेच्छसि पुरन्दर ।
बलं तु मम जानीहि महच्चासह्यमेव च ॥ १ ॥
गरुडने कहा-देव पुरन्दर! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी) मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भी जान लो, वह महान् और असह्य है ॥ १ ॥

कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम् ।
गुणसंकीर्तनं चापि स्वयमेव शतक्रतो ॥ २ ॥
शतक्रतो ! साधु पुरुष स्वेच्छासे अपने बलकी स्तुति और अपने ही मुखसे अपने गुणोंका बखान अच्छा नहीं मानते ॥ २ ॥

सखेति कृत्वा तु सखे पृष्टो वक्ष्याम्यहं त्वया ।
न ह्यात्मस्तवसंयुक्तं वक्तव्यमनिमित्ततः ॥ ३ ॥
किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ; क्योंकि अकारण ही अपनी प्रशंसासे भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये (किंतु किसी मित्रके पूछनेपर सच्ची बात कहनेमें कोई हर्ज नहीं है।) ॥ ३ ॥

सपर्वतवनामुर्वी ससागरजलामिमाम् ।
वहे पक्षेण वै शक्र त्वामप्यत्रावलम्बिनम् ॥ ४ ॥
इन्द्र ! पर्वत, वन और समुद्रके जलसहित सारी पृथ्वीको तथा इसके ऊपर रहनेवाले आपको भी अपने एक पंखपर उठाकर में बिना परिश्रमके उड़ सकता हूँ ॥ ४ ॥

सर्वान् सम्पिण्डितान् वापि लोकान् सस्थाणुजङ्गमान् ।
वहेयमपरिश्रान्तो विद्धीदं मे महद् बलम् ॥ ५ ॥
अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकोंको एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाय तो मैं सबको बिना परिश्रमके ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान् बलको समझ लो ॥ ५ ॥

सौतिरुवाच
इत्युक्तवचनं वीरं किरीटी श्रीमतां वरः ।
आह शौनक देवेन्द्रः सर्वलोकहितः प्रभुः ॥ ६ ॥
एवमेव यथात्थ त्वं सर्व सम्भाव्यते त्वयि ।
संगृह्यतामिदानीं मे सख्यमत्यन्तमुत्तमम् ॥ ७ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! वीरवर गरुडके इस प्रकार कहनेपर श्रीमानोंमें श्रेष्ठ किरीटधारी सर्वलोक-हितकारी भगवान् देवेन्द्रने कहा- ‘मित्र! तुम जैसा कहते हो, वैसी ही बात है। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकार करो ॥ ६-७ ॥

न कार्य यदि सोमेन मम सोमः प्रदीयताम् ।
अस्मांस्ते हि प्रबाधेयुर्येभ्यो दद्याद् भवानिमम् ॥ ८ ॥
‘यदि तुम्हें स्वयं अमृतकी आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनको यह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहुँचावेंगे’ ॥ ८ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

गरुड उवाच
किंचित् कारणमुद्दिश्य सोमोऽयं नीयते मया ।
न दास्यामि समादातुं सोमं कस्मैचिदप्यहम् ॥ ९ ॥
यत्रेमं तु सहस्राक्ष निक्षिपेयमहं स्वयम् ।
त्वमादाय ततस्तूर्ण हरेथास्त्रिदिवेश्वर ॥ १० ॥
गरुडने कहा-स्वर्गके सम्राट् सहस्राक्ष! किसी कारणवश में यह अमृत ले जाता हूँ। इसे किसीको भी पीनेके लिये नहीं दूँगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दूँ, वहाँसे तुरंत तुम उठा ले जा सकते हो ॥ ९-१० ॥

शक्र उवाच
वाक्येनानेन तुष्टोऽहं यत् त्वयोक्तमिहाण्डज ।
यमिच्छसि वरं मत्तस्तं गृहाण खगोत्तम ॥ ११ ॥
इन्द्र बोले-पक्षिराज ! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे में बहुत संतुष्ट हूँ। खगश्रेष्ठ ! तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो ॥ ११ ॥

सौतिरुवाच
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं कद्रूपुत्राननुस्मरन् ।
स्मृत्वा चैवोपधिकृतं मातुर्दास्यनिमित्ततः ॥ १२ ॥
ईशोऽहमपि सर्वस्य करिष्यामि तु तेऽर्थिताम् ।
भवेयुर्भुजगाः शक्र मम भक्ष्या महाबलाः ॥ १३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- इन्द्रके ऐसा कहनेपर गरुडको कद्रूपुत्रोंकी दुष्टताका स्मरण हो आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्तावकी भी याद आ गयी, जो माताको दासी बनानेमें कारण था। अतः उन्होंने इन्द्रसे कहा- ‘इन्द्र ! यद्यपि मैं सब कुछ करनेमें समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारी इस याचनाको पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरोंको न दिया जाय। साथ ही तुम्हारे कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजनकी सामग्री हो जायँ’ ॥ १२-१३ ॥

तथेत्युक्त्वान्वगच्छत् तं ततो दानवसूदनः ।
देवदेवं महात्मानं योगिनामीश्वरं हरिम् ॥ १४ ॥
तब दानवशत्रु इन्द्र ‘तथास्तु’ कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरिके पास गये ॥ १४ ॥

स चान्वमोदत् तं चार्थं यथोक्तं गरुडेन वै ।
इदं भूयो वचः प्राह भगवांस्त्रिदशेश्वरः ॥ १५ ॥
हरिष्यामि विनिक्षिप्तं सोममित्यनुभाष्य तम् ।
आजगाम ततस्तूर्ण सुपर्णो मातुरन्तिकम् ॥ १६ ॥
श्रीहरिने भी गरुडकी कही हुई बातका अनुमोदन किया। तदनन्तर स्वर्गलोकके स्वामी भगवान् इन्द्र पुनः गरुडको सम्बोधित करके इस प्रकार बोले- ‘तुम जिस समय इस अमृतको कहीं रख दोगे उसी समय में इसे हर ले आऊँगा’ (ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)। फिर सुन्दर पंखवाले गरुड तुरंत ही अपनी माताके समीप आ पहुँचे ॥ १५-१६ ॥

अथ सर्पानुवाचेदं सर्वान् परमहृष्टवत् ।
इदमानीतममृतं निक्षेप्स्यामि कुशेषु वः ॥ १७ ॥
स्नाता मंगलसंयुक्तास्ततः प्राश्नीत पन्नगाः ।
भवद्भिरिदमासीनैर्यदुक्तं तद्वचस्तदा ॥ १८ ॥
अदासी चैव मातेयमद्यप्रभृति चास्तु मे ।
यथोक्तं भवतामेतद् वचो मे प्रतिपादितम् ॥ १९ ॥
तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न-से होकर वे समस्त सर्पोंसे इस प्रकार बोले- ‘पन्नगो! मैंने तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशोंपर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान और मंगल-कर्म (स्वस्ति-वाचन आदि) करके इस अमृतका पान करो। अमृतके लिये भेजते समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, उनके अनुसार आजसे मेरी ये माता दासीपनसे मुक्त हो जायें; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था, उसे मैंने पूर्ण कर दिया है’ ॥ १७-१९ ॥

ततः स्नातुं गताः सर्पाः प्रत्युक्त्वा तं तथेत्युत ।
शक्रोऽप्यमृतमाक्षिप्य जगाम त्रिदिवं पुनः ॥ २० ॥
तब सर्पगण ‘तथास्तु’ कहकर स्नानके लिये गये। इसी बीचमें इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्गलोकको चले गये ॥ २० ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

अथागतास्तमुद्देशं सर्पाः सोमार्थिनस्तदा ।
स्नाताश्च कृतजप्याश्च प्रहृष्टाः कृतमंगलाः ॥ २१ ॥
यत्रैतदमृतं चापि स्थापितं कुशसंस्तरे ।
तद् विज्ञाय हृतं सर्पाः प्रतिमायाकृतं च तत् ॥ २२ ॥
इसके अनन्तर अमृत पीनेकी इच्छावाले सर्प स्नान, जप और मंगल-कार्य करके प्रसन्नतापूर्वक उस स्थानपर आये, जहाँ कुशके आसनपर अमृत रखा गया था। आनेपर उन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। तब सर्पोंने यह सोचकर संतोष किया कि यह हमारे कपटपूर्ण बर्तावका बदला है ॥ २१-२२ ॥

सोमस्थानमिदं चेति दर्भास्ते लिलिहुस्तदा ।
ततो द्विधाकृता जिह्वाः सर्पाणां तेन कर्मणा ॥ २३ ॥
फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रखा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ अंश लगा हो, सपोंने उस समय कुशोंको चाटना शुरू किया। ऐसा करनेसे सोंकी जीभके दो भाग हो गये ॥ २३ ॥

अभवंश्चामृतस्पर्शाद् दर्भास्तेऽथ पवित्रिणः ।
एवं तदमृतं तेन हृतमाहृतमेव च ।
द्विजिह्वाश्च कृताः सर्पा गरुडेन महात्मना ॥ २४ ॥
तभीसे पवित्र अमृतका स्पर्श होनेके कारण कुशोंकी ‘पवित्री’ संज्ञा हो गयी। इस प्रकार महात्मा गरुडने देवलोकसे अमृतका अपहरण किया और सर्पोंके समीपतक उसे पहुँचाया; साथ ही सर्पोको द्विजिह्व (दो जिह्वाओंसे युक्त) बना दिया ॥ २४ ॥

ततः सुपर्णः परमप्रहर्षवान् विहृत्य मात्रा सह तत्र कानने ।
भुजङ्गभक्षः परमार्चितः खगै रहीनकीर्तिर्विनतामनन्दयत् ॥ २५ ॥
उस दिनसे सुन्दर पंखवाले गरुड अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माताके साथ रहकर वहाँ वनमें इच्छानुसार घूमने-फिरने लगे। वे सर्पोंको खाते और पक्षियोंसे सादर सम्मानित होकर अपनी उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैलाते हुए माता विनताको आनन्द देने लगे ॥ २५ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

इमां कथां यः शृणुयान्नरः सदा पठेत वा द्विजगणमुख्यसंसदि ।
असंशयं त्रिदिवमियात् स पुण्यभाक् महात्मनः पतगपतेः प्रकीर्तनात् ॥ २६ ॥
जो मनुष्य इस कथाको श्रेष्ठ द्विजोंकी उत्तम गोष्ठीमें सदा पढ़ता अथवा सुनता है, वह पक्षिराज महात्मा गरुडके गुणोंका गान करनेसे पुण्यका भागी होकर निश्चय ही स्वर्गलोकमें जाता है ॥ २६ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र हिंदी में

अध्याय पैंतीस

मुख्य-मुख्य नागोंके नाम

शौनक उवाच
भुजङ्गमानां शापस्य मात्रा चैव सुतेन च ।
विनतायास्त्वया प्रोक्तं कारणं सूतनन्दन ॥ १ ॥
शौनकजीने कहा-सूतनन्दन ! सर्पोको उनकी मातासे और विनता देवीको उनके पुत्रसे जो शाप प्राप्त हुआ था, उसका कारण आपने बता दिया ॥ १ ॥

वरप्रदानं भर्त्रा च कद्रूविनतयोस्तथा ।
नामनी चैव ते प्रोक्ते पक्षिणोर्वैनतेययोः ॥ २ ॥
कट्टू और विनताको उनके पति कश्यपजीसे जो वर मिले थे, वह कथा भी कह सुनायी तथा विनताके जो दोनों पुत्र पक्षीरूपमें प्रकट हुए थे, उनके नाम भी आपने बताये हैं ॥ २ ॥

पन्नगानां तु नामानि न कीर्तयसि सूतज ।
प्राधान्येनापि नामानि श्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥ ३ ॥
किंतु सूतपुत्र ! आप सर्पोंके नाम नहीं बता रहे हैं। यदि सबका नाम बताना सम्भव न हो, तो उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उन्हींके नाम हम सुनना चाहते हैं ॥ ३ ॥

सौतिरुवाच
बहुत्वान्नामधेयानि पन्नगानां तपोधन ।
न कीर्तयिष्ये सर्वेषां प्राधान्येन तु मे शृणु ॥ ४ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- तपोधन! सर्पोंकी संख्या बहुत है; अतः उन सबके नाम तो नहीं कहूँगा, किंतु उनमें जो मुख्य मुख्य सर्प हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये ॥ ४ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

शेषः प्रथमतो जातो वासुकिस्तदनन्तरम् ।
ऐरावतस्तक्षकश्च कर्कोटकधनंजयौ ॥ ५ ॥
कालियो मणिनागश्च नागश्चापूरणस्तथा ।
नागस्तथा पिञ्जरक एलापत्रोऽथ वामनः ॥ ६ ॥
नीलानीलौ तथा नागौ कल्माषशबलौ तथा ।
आर्यकश्चोग्रकश्चैव नागः कलशपोतकः ॥ ७ ॥
सुमनाख्यो दधिमुखस्तथा विमलपिण्डकः ।
आप्तः कर्कोटकश्चैव शङ्खो वालिशिखस्तथा ॥ ८ ॥
निष्टानको हेमगुहो नहुषः पिङ्गलस्तथा ।
बाह्यकर्णो हस्तिपदस्तथा मुद्गरपिण्डकः ॥ ९ ॥
कम्बलाश्वतरौ चापि नागः कालीयकस्तथा ।
वृत्तसंवर्तकी नागौ द्वौ च पद्माविति श्रुतौ ॥ १० ॥
नागः शङ्खमुखश्चैव तथा कूष्माण्डकोऽपरः ।
क्षेमकश्च तथा नागो नागः पिण्डारकस्तथा ॥ ११ ॥
करवीरः पुष्पदंष्ट्रो बिल्वको बिल्वपाण्डुरः ।
मूषकादः शङ्खशिराः पूर्णभद्रो हरिद्रकः ॥ १२ ॥
अपराजितो ज्योतिकश्च पन्नगः श्रीवहस्तथा ।
कौरव्यो धृतराष्ट्रश्च शङ्खपिण्डश्च वीर्यवान् ॥ १३ ॥
विरजाश्च सुबाहुश्च शालिपिण्डश्च वीर्यवान् ।
हस्तिपिण्डः पिठरकः सुमुखः कौणपाशनः ॥ १४ ॥
कुठरः कुञ्जरश्चैव तथा नागः प्रभाकरः ।
कुमुदः कुमुदाक्षश्च तित्तिरिर्हलिकस्तथा ॥ १५ ॥
कर्दमश्च महानागो नागश्च बहुमूलकः ।
कर्कराकर्करी नागौ कुण्डोदरमहोदरी ॥ १६ ॥
नागोंमें सबसे पहले शेषजी प्रकट हुए हैं। तदनन्तर वासुकि, ऐरावत, तक्षक, कर्कोटक, धनंजय, कालिय, मणिनाग, आपूरण, पिंजरक, एलापत्र, वामन, नील, अनील, कल्माष, शबल, आर्यक, उग्रक, कलशपोतक, सुमनाख्य, दधिमुख, विमलपिण्डक, आप्त, कर्कोटक (द्वितीय), शंख, वालिशिख, निष्टानक, हेमगुह, नहुष, पिंगल, बाह्यकर्ण, हस्तिपद, मुद्गरपिण्डक, कम्बल, अश्वतर, कालीयक, वृत्त, संवर्तक, पद्म (प्रथम), पद्म (द्वितीय), शंखमुख, कूष्माण्डक, क्षेमक, पिण्डारक, करवीर, पुष्पदंष्ट्र, बिल्वक, बिल्वपाण्डुर, मूषकाद, शंखशिरा, पूर्णभद्र, हरिद्रक, अपराजित, ज्योतिक, श्रीवह, कौरव्य, धृतराष्ट्र, पराक्रमी शंखपिण्ड, विरजा, सुबाहु, वीर्यवान् शालिपिण्ड, हस्तिपिण्ड, पिठरक, सुमुख, कौणपाशन, कुठर, कुंजर, प्रभाकर, कुमुद, कुमुदाक्ष, तित्तिरि, हलिक, महानाग कर्दम, बहुमूलक, कर्कर, अकर्कर, कुण्डोदर और महोदर- ये नाग उत्पन्न हुए ॥ ५-१६ ॥

एते प्राधान्यतो नागाः कीर्तिता द्विजसत्तम ।
बहुत्वान्नामधेयानामितरे नानुकीर्तिताः ॥ १७ ॥
द्विजश्रेष्ठ ! ये मुख्य-मुख्य नाग यहाँ बताये गये हैं। सोंकी संख्या अधिक होनेसे उनके नाम भी बहुत हैं। अतः अन्य अप्रधान नागोंके नाम यहाँ नहीं कहे गये हैं ॥ १७ ॥

एतेषां प्रसवो यश्च प्रसवस्य च संततिः ।
असंख्येयेति मत्वा तान् न ब्रवीमि तपोधन ॥ १८ ॥
तपोधन ! इन नागोंकी संतान तथा उन संतानोंकी भी संतति असंख्य हैं। ऐसा समझकर उनके नाम मैं नहीं कहता हूँ ॥ १८ ॥

बहूनीह सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च ।
अशक्यान्येव संख्यातुं पन्नगानां तपोधन ॥ १९ ॥
तपस्वी शौनकजी! नागोंकी संख्या यहाँ कई हजारोंसे लेकर लाखों-अरबोंतक पहुँच जाती है। अतः उनकी गणना नहीं की जा सकती है ॥ १९ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पनामकथने पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पनामकथनविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ नीति शतक हिंदी में

अध्याय छत्तीस

शेषनागकी तपस्या, ब्रह्माजीसे वर-प्राप्ति तथा पृथ्वीको सिरपर धारण करना

शौनक उवाच
आख्याता भुजगास्तात वीर्यवन्तो दुरासदाः ।
शापं तं तेऽभिविज्ञाय कृतवन्तः किमुत्तरम् ॥ १ ॥
शौनकजीने पूछा-तात सूतनन्दन ! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागोंका वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कद्रूके उस शापकी बात मालूम हो जानेपर उन्होंने उसके निवारणके लिये आगे चलकर कौन-सा कार्य किया? ॥ १ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

सौतिरुवाच
तेषां तु भगवाञ्च्छेषः कद्रं त्यक्त्वा महायशाः ।
उग्रं तपः समातस्थे वायुभक्षो यतव्रतः ॥ २ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- शौनक ! उन नागोंमेंसे महा-यशस्वी भगवान् शेषनागने कद्रूका साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारम्भ की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रतका पालन करते थे ॥ २ ॥

गन्धमादनमासाद्य बदर्यां च तपोरतः ।
गोकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस्तटे ॥ ३ ॥
तेषु तेषु च पुण्येषु तीर्थेष्वायतनेषु च ।
एकान्तशीलो नियतः सततं विजितेन्द्रियः ॥ ४ ॥
अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेषजी गन्धमादन पर्वतपर जाकर बदरिकाश्रम तीर्थमें तप करने लगे। तत्पश्चात् गोकर्ण, पुष्कर, हिमालयके तटवर्ती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य-तीर्थों और देवालयोंमें जा-जाकर संयम-नियमके साथ एकान्तवास करने लगे ॥ ३-४ ॥

तप्यमानं तपो घोरं तं ददर्श पितामहः ।
संशुष्कमांसत्वक्स्नायुं जटाचीरधरं मुनिम् ॥ ५ ॥
तमब्रवीत् सत्यधृतिं तप्यमानं पितामहः ।
किमिदं कुरुषे शेष प्रजानां स्वस्ति वै कुरु ॥ ६ ॥
ब्रह्माजीने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उनके शरीरका मांस, त्वचा और नाड़ियाँ सूख गयी हैं। वे सिरपर जटा और शरीरपर वल्कल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्तिसे रहते हैं। उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तपमें संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पास आये और बोले- ‘शेष! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजाका कल्याण करो ॥ ५-६ ॥

त्वं हि तीव्रेण तपसा प्रजास्तापयसेऽनघ ।
ब्रूहि कामं च मे शेष यस्ते हृदि व्यवस्थितः ॥ ७ ॥
‘अनघ ! इस तीव्र तपस्याके द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजावर्गको संतप्त कर रहे हो। शेषनाग ! तुम्हारे हृदयमें जो कामना हो वह मुझसे कहो’ ॥ ७ ॥

शेष उवाच
सोदर्या मम सर्वे हि भ्रातरो मन्दचेतसः ।
सह तैर्नोत्सहे वस्तुं तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ८ ॥
शेषनाग बोले- भगवन्! मेरे सब सहोदर भाई बड़े मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छाका अनुमोदन करें ॥ ८ ॥

अभ्यसूयन्ति सततं परस्परममित्रवत् ।
ततोऽहं तप आतिष्ठं नैतान् पश्येयमित्युत ॥ ९ ॥
वे सदा परस्पर शत्रुकी भाँति एक-दूसरेके दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं तपस्यामें लग गया हूँ; जिससे में उन्हें देख न सकूँ ॥ ९ ॥

न मर्षयन्ति ससुतां सततं विनतां च ते ।
अस्माकं चापरो भ्राता वैनतेयोऽन्तरिक्षगः ॥ १० ॥
वे विनता और उसके पुत्रोंसे डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख-सुविधा सहन नहीं कर पाते। आकाशमें विचरने-वाले विनतापुत्र गरुड भी हमारे दूसरे भाई ही हैं ॥ १० ॥

तं च द्विषन्ति सततं स चापि बलवत्तरः ।
वरप्रदानात् स पितुः कश्यपस्य महात्मनः ॥ ११ ॥
किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यपजीके वरदानसे गरुड भी बड़े ही बलवान् हैं ॥ ११ ॥

सोऽहं तपः समास्थाय मोक्ष्यामीदं कलेवरम् ।
कथं मे प्रेत्यभावेऽपि न तैः स्यात् सह संगमः ॥ १२ ॥
इन सब कारणोंसे मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीरको त्याग दूँगा, जिससे मरनेके बाद भी किसी तरह उन दुष्टोंके साथ मेरा समागम न हो ॥ १२ ॥

तमेवंवादिनं शेषं पितामह उवाच ह ।
जानामि शेष सर्वेषां भ्रातृणां ते विचेष्टितम् ॥ १३ ॥
ऐसी बातें करनेवाले शेषनागसे पितामह ब्रह्माजीने कहा- ‘शेष! मैं तुम्हारे सब भाइयोंकी कुचेष्टा जानता हूँ’ ॥ १३ ॥

मातुश्चाप्यपराधाद् वै भ्रातृणां ते महद् भयम् ।
कृतोऽत्र परिहारश्च पूर्वमेव भुजङ्गम ॥ १४ ॥
‘माताका अपराध करनेके कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाइयोंके लिये महान् भय उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम ! इस विषयमें जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहलेसे ही कर रखी है ॥ १४ ॥

भ्रातृणां तव सर्वेषां न शोकं कर्तुमर्हसि ।
वृणीष्व च वरं मत्तः शेष यत् तेऽभिकाङ्क्षितम् ॥ १५ ॥
‘अतः अपने सम्पूर्ण भाइयोंके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो ॥ १५ ॥

दास्यामि हि वरं तेऽद्य प्रीतिर्मे परमा त्वयि ।
दिष्ट्या बुद्धिश्च ते धर्मे निविष्टा पन्नगोत्तम ।
भूयो भूयश्च ते बुद्धिर्धर्मे भवतु सुस्थिरा ॥ १६ ॥
‘तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पन्नगोत्तम ! यह सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्ममें दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्ममें स्थिर रहे’ ॥ १६ ॥

शेष उवाच
एष एव वरो देव काङ्क्षितो मे पितामह ।
धर्मे मे रमतां बुद्धिः शमे तपसि चेश्वर ॥ १७ ॥
शेषजीने कहा- देव ! पितामह! परमेश्वर! मेरे लिये यही अभीष्ट वर है कि मेरी बुद्धि सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्यामें लगी रहे ॥ १७ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

ब्रह्मोवाच
प्रीतोऽस्म्यनेन ते शेष दमेन च शमेन च ।
त्वया त्विदं वचः कार्य मन्नियोगात् प्रजाहितम् ॥ १८ ॥
ब्रह्माजी बोले-शेष! तुम्हारे इस इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अब मेरी आज्ञासे प्रजाके हितके लिये यह कार्य, जिसे मैं बता रहा हूँ, तुम्हें करना चाहिये ॥ १८ ॥

इमां महीं शैलवनोपपन्नां ससागरग्रामविहारपत्तनाम् ।
त्वं शेष सम्यक् चलितां यथावत् संगृह्य तिष्ठस्व यथाचला स्यात् ॥ १९ ॥
शेषनाग ! पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगरोंसहित यह समूची पृथ्वी प्रायः हिलती-डुलती रहती है। तुम इसे भलीभाँति धारण करके इस प्रकार स्थित रहो, जिससे यह पूर्णतः अचल हो जाय ॥ १९ ॥

शेष उवाच
यथाह देवो वरदः प्रजापति र्महीपतिर्भूतपतिर्जगत्पतिः ।
तथा महीं धारयितास्मि निश्चलां प्रयच्छतां मे शिरसि प्रजापते ॥ २० ॥
शेषनागने कहा- प्रजापते! आप वरदायक देवता, समस्त प्रजाके पालक, पृथ्वीके रक्षक, भूत-प्राणियोंके स्वामी और सम्पूर्ण जगत् के अधिपति हैं। आप जैसी आज्ञा देते हैं, उसके अनुसार मैं इस पृथ्वीको इस तरह धारण करूँगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आप इसे मेरे सिरपर रख दें ॥ २० ॥

ब्रह्मोवाच
अधो महीं गच्छ भुजङ्गमोत्तम स्वयं तवैषा विवरं प्रदास्यति ।
इमां धरां धारयता त्वया हि मे महत् प्रियं शेष कृतं भविष्यति ॥ २१ ॥
ब्रह्माजीने कहा-नागराज शेष! तुम पृथ्वीके नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें वहाँ जानेके लिये मार्ग दे देगी। इस पृथ्वीको धारण कर लेनेपर तुम्हारे द्वारा मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायगा ॥ २१ ॥

सौतिरुवाच
तथैव कृत्वा विवरं प्रविश्य स प्रभुर्भुवो भुजगवराग्रजः स्थितः ।
बिभर्ति देवीं शिरसा महीमिमां समुद्रनेमिं परिगृह्या सर्वतः ॥ २२ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- नागराज वासुकिके बड़े भाई सर्वसमर्थ भगवान् शेषने ‘बहुत अच्छा’ कहकर ब्रह्माजीकी आज्ञा शिरोधार्य की और पृथ्वीके विवरमें प्रवेश करके समुद्रसे घिरी हुई इस वसुधा-देवीको उन्होंने सब ओरसे पकड़कर सिरपर धारण कर लिया (तभीसे यह पृथ्वी स्थिर हो गयी) ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
शेषोऽसि नागोत्तम धर्मदेवो महीमिमां धारयसे यदेकः ।
अनन्तभोगैः परिगृह्य सर्वां यथाहमेवं बलभिद् यथा वा ॥ २३ ॥
तदनन्तर ब्रह्माजी बोले- नागोत्तम ! तुम शेष हो, धर्म ही तुम्हारा आराध्यदेव है, तुम अकेले अपने अनन्त फणोंसे इस सारी पृथ्वीको पकड़कर उसी प्रकार धारण करते हो, जैसे मैं अथवा इन्द्र ॥ २३ ॥

सौतिरुवाच
अधोभूमौ वसत्येवं नागोऽनन्तः प्रतापवान् ।
धारयन् वसुधामेकः शासनाद् ब्रह्मणो विभुः ॥ २४ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! इस प्रकार प्रतापी नाग भगवान् अनन्त अकेले ही ब्रह्माजीके आदेशसे इस सारी पृथ्वीको धारण करते हुए भूमिके नीचे पाताल-लोकमें निवास करते हैं ॥ २४ ॥

सुपर्णं च सहायं वै भगवानमरोत्तमः ।
प्रादादनन्ताय तदा वैनतेयं पितामहः ॥ २५ ॥
तत्पश्चात् देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् पितामहने शेषनागके लिये विनतानन्दन गरुडको सहायक बना दिया ॥ २५ ॥(Adi Parva Chapter 32 to 36)

(अनन्ते च प्रयाते तु वासुकिः सुमहाबलः ।
अभ्यषिच्यत नागैस्तु दैवतैरिव वासवः ॥)
अनन्त नागके चले जानेपर नागोंने महाबली वासुकिका नागराजके पदपर उसी प्रकार अभिषेक किया, जैसे देवताओंने इन्द्रका देवराजके पदपर अभिषेक किया था।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि शेषवृत्तकथने षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें शेषनागवृत्तान्त कथनविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)

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