Mahabharata Adi Parva Chapter 27 to 31
॥ श्रीहरिः ॥
श्रीगणेशाय नमः
॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥
श्रीमहाभारतम् आदिपर्व (Adi Parva Chapter 27 to 31)
महाभारत आदि पर्व के इस पोस्ट में अध्याय 27 से अध्याय 31 (Adi Parva Chapter 27 to 31) दिया गया है। इसमे रामणीयक द्वीपके मनोरम वनका वर्णन तथा गरुडका दास्यभावसे छूटनेके लिये सर्पोंसे उपाय पूछने क वर्णन है। गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अनुसार निषादोंका भक्षण करना, कश्यपजीका गरुडको हाथी और कछुएके पूर्वजन्मकी कथा सुनाना, गरुडका उन दोनोंको पकड़कर एक दिव्य वटवृक्षकी शाखापर ले जाना और उस शाखाका टूटना, गरुडका कश्यपजीसे मिलना, उनकी प्रार्थनासे वालखिल्य ऋषियोंका शाखा छोड़कर तपके लिये प्रस्थान और गरुडका निर्जन पर्वतपर उस शाखाको छोड़ना और इन्द्रके द्वारा वालखिल्योंका अपमान और उनकी तपस्याके प्रभावसे अरुण एवं गरुडकी उत्पत्ति का वर्णन दिया गया है।(Adi Parva Chapter 27 to 31)
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अध्याय सत्ताईस
रामणीयक द्वीपके मनोरम वनका वर्णन तथा गरुडका दास्यभावसे छूटनेके लिये सर्पोंसे उपाय पूछना
सौतिरुवाच
सम्प्रहृष्टास्ततो नागा जलधाराप्लुतास्तदा ।
सुपर्णेनोह्यमानास्ते जग्मुस्तं द्वीपमाशु वै ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- गरुडपर सवार होकर यात्रा करनेवाले वे नाग उस समय जलधारासे नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही रामणीयक द्वीपमें जा पहुँचे ॥ १ ॥
तं द्वीपं मकरावासं विहितं विश्वकर्मणा ।
तत्र ते लवणं घोरं ददृशुः पूर्वमागताः ॥ २ ॥
विश्वकर्माजीके बनाये हुए उस द्वीपमें, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बार नाग आये थे तो उन्हें वहाँ भयंकर लवणासुरका दर्शन हुआ था ॥ २ ॥
सुपर्णसहिताः सर्पाः काननं च मनोरमम् ।
सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसङ्घनिनादितम् ॥ ३ ॥
सर्प गरुडके साथ उस द्वीपके मनोरम वनमें आये, जो चारों ओरसे समुद्रद्वारा घिरकर उसके जलसे अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी कलरव कर रहे थे ॥ ३ ॥
विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम् ।
भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि ॥ ४ ॥
विचित्र फूलों और फलोंसे भरी हुई वनश्रेणियाँ उस दिव्य वनको घेरे हुए थीं। वह वन बहुत-से रमणीय भवनों और कमलयुक्त सरोवरोंसे आवृत था ॥ ४ ॥
प्रसन्नसलिलैश्चापि हृदैर्दिव्यैर्विभूषितम् ।
दिव्यगन्धवहैः पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम् ॥ ५ ॥
स्वच्छ जलवाले कितने ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्धका भार वहन करनेवाली पावन वायु मानो वहाँ चंवर डुला रही थी ॥ ५ ॥
उत्पतद्भिरिवाकाशं वृक्षैर्मलयजैरपि ।
शोभितं पुष्पवर्षाणि मुञ्चद्भिर्मारुतोद्धतैः ॥ ६ ॥
वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों। वे वायुके वेगसे विकम्पित हो फूलोंकी वर्षा करते हुए उस प्रदेशकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ६ ॥
वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथान्यैरपि पादपैः ।
किरद्भिरिव तत्रस्थान् नागान् पुष्पाम्बुवृष्टिभिः ॥ ७ ॥
हवाके झोंकैसे दूसरे दूसरे वृक्षोंके भी फूल झड़ रहे थे, मानो वहाँके वृक्षसमूह वहाँ उपस्थित हुए नागोंपर फूलोंकी वर्षा करते हुए उनके लिये अर्घ्य दे रहे हों ॥ ७ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
मनः संहर्षजं दिव्यं गन्धर्वाप्ससां प्रियम् ।
मत्तभ्रमरसंघुष्टं मनोज्ञाकृतिदर्शनम् ॥ ८ ॥
वह दिव्य वन हृदयके हर्षको बढ़ानेवाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंद करती थीं। मतवाले भ्रमर वहाँ सब ओर गूँज रहे थे। अपनी मनोहर छटाके द्वारा वह अत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता था ॥ ८ ॥
रमणीयं शिवं पुण्यं सर्वैर्जनमनोहरैः ।
नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रूपुत्रप्रहर्षणम् ॥ ९ ॥
वह वन रमणीय, मंगलकारी और पवित्र होनेके साथ ही लोगोंके मनको मोहनेवाले सभी उत्तम गुणोंसे युक्त था। भाँति भाँतिके पक्षियोंके कलरवोंसे व्याप्त एवं परम सुन्दर होनेके कारण वह कटूके पुत्रोंका आनन्द बढ़ा रहा था ॥ ९ ॥
तत् ते वनं समासाद्य विजहुः पन्नगास्तदा ।
अनुवंश्च महावीर्य सुपर्ण पतगेश्वरम् ॥ १० ॥
उस वनमें पहुँचकर वे सर्प उस समय सब ओर विहार करने लगे और महापराक्रमी पक्षिराज गरुडसे इस प्रकार बोले ॥ १० ॥
वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विमलोदकम् ।
त्वं हि देशान् बहून् रम्यान् व्रजन् पश्यसि खेचर ॥ ११ ॥
‘खेचर ! तुम आकाशमें उड़ते समय बहुत-से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमें निर्मल जलवाले किसी दूसरे रमणीय द्वीपमें ले चलो’ ॥ ११ ॥
स विचिन्त्याब्रवीत् पक्षी मातरं विनतां तदा ।
किं कारणं मया मातः कर्तव्यं सर्पभाषितम् ॥ १२ ॥
गरुडने कुछ सोचकर अपनी माता विनतासे पूछा- ‘माँ! क्या कारण है कि मुझे सपोंकी आज्ञाका पालन करना पड़ता है?’ ॥ १२ ॥
विनतोवाच
दासीभूतास्मि दुर्योगात् सपत्न्याः पतगोत्तम ।
पणं वितथमास्थाय सर्पेरुपधिना कृतम् ॥ १३ ॥
विनता बोली-बेटा पक्षिराज ! मैं दुर्भाग्यवश सौतकी दासी हूँ, इन सर्पोंने छल करके मेरी जीती हुई बाजीको पलट दिया था ॥ १३ ॥
तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेचरः ।
उवाच वचनं सर्पास्तेन दुःखेन दुःखितः ॥ १४ ॥
माताके यह कारण बतानेपर आकाशचारी गरुडने उस दुःखसे दुःखी होकर साँसे कहा- ॥ १४ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
किमाहृत्य विदित्वा वा किं वा कृत्वेह पौरुषम् ।
दास्याद् वो विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहाः ॥ १५ ॥
‘जीभ लपलपानेवाले सर्पो! तुमलोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ? किस विद्याका लाभ करा दूँ अथवा यहाँ कौन-सा पुरुषार्थ करके दिखा दूँ; जिससे मुझे तथा मेरी माताको तुम्हारी दासतासे छुटकारा मिल जाय’ ॥ १५ ॥
सौतिरुवाच श्रुत्वा तमब्रुवन् सर्पा आहरामृतमोजसा ।
ततो दास्याद् विप्रमोक्षो भविता तव खेचर ॥ १६ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- गरुडकी बात सुनकर सर्पोंने कहा- ‘गरुड! तुम पराक्रम करके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभावसे छुटकारा मिल जायगा’ ॥ १६ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७ ॥
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अध्याय अठ्ठाईसवाँ
गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अनुसार निषादोंका भक्षण करना
सौतिरुवाच
इत्युक्तो गरुडः सर्वैस्ततो मातरमब्रवीत् ।
गच्छाम्यमृतमाहर्तु भक्ष्यमिच्छामि वेदितुम् ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- सपोंकी यह बात सुनकर गरुड अपनी मातासे बोले- ‘माँ! मैं अमृत लानेके लिये जा रहा हूँ, किंतु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जानना चाहता हूँ’ ॥ १ ॥
विनतोवाच
समुद्रकुक्षावेकान्ते निषादालयमुत्तमम् ।
निषादानां सहस्राणि तान् भुक्त्वामृतमानय ॥ २ ॥
विनताने कहा-समुद्रके बीचमें एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेशमें निषादों (जीवहिंसकों) का निवास है। वहाँ सहस्रों निषाद रहते हैं। उन्हींको मारकर खा लो और अमृत ले आओ ॥ २ ॥
न च ते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धिः कथंचन ।
अवध्यः सर्वभूतानां ब्राह्मणो ह्यनलोपमः ॥ ३ ॥
किंतु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मणको मारनेका विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि ब्राह्मण समस्त प्राणियोंके लिये अवध्य है। वह अग्निके समान दाहक होता है ॥ ३ ॥
अग्निरर्को विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोपितः ।
गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः परिकीर्तितः ॥ ४ ॥
कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्रके समान भयंकर होता है। ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंका गुरु कहा गया है ॥ ४ ॥
एवमादिस्वरूपैस्तु सतां वै ब्राह्मणो मतः ।
स ते तात न हन्तव्यः संक्रुद्धेनापि सर्वथा ॥५॥
इन्हीं रूपोंमें सत्पुरुषोंके लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है। तात! तुम्हें क्रोध आ जाय तो भी ब्राह्मणकी हत्यासे सर्वथा दूर रहना चाहिये ॥ ५ ॥
ब्राह्मणानामभिद्रोहो न कर्तव्यः कथंचन ।
न होवमग्निर्नादित्यो भस्म कुर्यात् तथानघ ॥ ६ ॥
यथा कुर्यादभिक्क्रुद्धो ब्राह्मणः संशितव्रतः ।
तदेतैर्विविधैर्लिङ्गैस्त्वं विद्यास्तं द्विजोत्तमम् ॥ ७ ॥
भूतानामग्रभूर्विप्रो वर्णश्रेष्ठः पिता गुरुः ।
ब्राह्मणोंके साथ किसी प्रकार द्रोह नहीं करना चाहिये। अनघ ! कठोर व्रतका पालन करनेवाला ब्राह्मण क्रोधमें आनेपर अपराधीको जिस प्रकार जलाकर भस्म कर देता है, उस तरह अग्नि और सूर्य भी नहीं जला सकते। इस प्रकार विविध चिह्नोंके द्वारा तुम्हें ब्राह्मणको पहचान लेना चाहिये। ब्राह्मण समस्त प्राणियोंका अग्रज, सब वर्णोंमें श्रेष्ठ, पिता और गुरु है ॥ ६-७३ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
गरुड उवाच
किंरूपो ब्राह्मणो मातः किंशीलः किंपराक्रमः ॥ ८ ॥
गरुडने पूछा-माँ! ब्राह्मणका रूप कैसा होता है? उसका शील स्वभाव कैसा है? तथा उसमें कौन-सा पराक्रम है ॥ ८ ॥
किंस्विदग्निनिभो भाति किंस्वित् सौम्यप्रदर्शनः ।
यथाहमभिजानीयां ब्राह्मणं लक्षणैः शुभैः ॥ ९ ॥
तन्मे कारणतो मातः पृच्छतो वक्तुमर्हसि । वह देखनेमें अग्नि-जैसा जान पड़ता है? अथवा सौम्य दिखायी देता है? माँ! जिस प्रकार शुभ लक्षणोंद्वारा में ब्राह्मणको पहचान सकूँ, वह सब उपाय मुझे बताओ ॥ ९३ ॥
विनतोवाच
यस्ते कण्ठमनुप्राप्तो निगीर्ण बडिशं यथा ॥ १० ॥
दहेदङ्गारवत् पुत्र तं विद्या ब्राह्मणर्षभम् ।
विप्रस्त्वया न हन्तव्यः संक्रुद्धेनापि सर्वदा ॥ ११ ॥
विनता बोली-बेटा! जो तुम्हारे कण्ठमें पड़नेपर अंगारकी तरह जलाने लगे और मानो बंसीका काँटा निगल लिया गया हो, इस प्रकार कष्ट देने लगे, उसे वर्णोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण समझना। क्रोधमें भरे होनेपर भी तुम्हें ब्रह्महत्या नहीं करनी चाहिये ॥ १०-११ ॥
प्रोवाच चैनं विनता पुत्रहार्दादिदं वचः ।
जठरे न च जीर्येद् यस्तं जानीहि द्विजोत्तमम् ॥ १२ ॥
विनताने पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण पुनः इस प्रकार कहा- ‘बेटा! जो तुम्हारे पेटमें पच न सके, उसे ब्राह्मण जानना’ ॥ १२ ॥
पुनः प्रोवाच विनता पुत्रहार्दादिदं वचः ।
जानन्त्यप्यतुलं वीर्यमाशीर्वादपरायणा ॥ १३ ॥
प्रीता परमदुःखार्ता नागैर्विप्रकृता सती ।
पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण विनताने पुनः इस प्रकार कहा- वह पुत्रके अनुपम बलको जानती थी तो भी नागोंद्वारा ठगी जानेके कारण बड़े भारी दुःखसे आतुर हो गयी थी। अतः अपने पुत्रको प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी ॥ १३ ॥
विनतोवाच
पक्षी ते मारुतः पातु चन्द्रसूर्यो च पृष्ठतः ॥ १४ ॥
विनतोवाच विनताने कहा-बेटा! वायु तुम्हारे दोनों पंखोंकी रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्य पृष्ठभागका संरक्षण करें ॥ १४ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
शिरश्च पातु वह्निस्ते वसवः सर्वतस्तनुम् ।
अहं च ते सदा पुत्र शान्तिस्वस्तिपरायणा ॥ १५ ॥
इहासीना भविष्यामि स्वस्तिकारे रता सदा ।
अरिष्टं व्रज पन्थानं पुत्र कार्यार्थसिद्धये ॥ १६ ॥
अग्निदेव तुम्हारे सिरकी और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीरकी सब ओरसे रक्षा करें। पुत्र ! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याणसाधक कर्ममें संलग्न हो यहाँ निरन्तर कुशल मनाती रहूँगी। वत्स ! तुम्हारा मार्ग विघ्नरहित हो, तुम अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये यात्रा करो ॥ १५-१६ ॥
सौतिरुवाच
ततः स मातुर्वचनं निशम्य वितत्य पक्षौ नभ उत्पपात ।
ततो निषादान् बलवानुपागतो बुभुक्षितः काल इवान्तकोऽपरः ॥ १७ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकादि महर्षियो! माताकी बात सुनकर महाबली गरुड पंख पसारकर आकाशमें उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराजकी भाँति उन निषादोंके पास जा पहुँचे ॥ १७ ॥
स तान् निषादानुपसंहरंस्तदा रजः समुद्भूय नभःस्पृशं महत् ।
समुद्रकुक्षौ च विशोषयन् पयः समीपजान् भूधरजान् विचालयन् ॥ १८ ॥
उन निषादोंका संहार करनेके लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जो पृथ्वीसे आकाशतक छा गयी। वहाँ समुद्रकी कुक्षिमें जो जल था, उसका शोषण करके उन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षोंको भी विकम्पित कर दिया ॥ १८ ॥
ततः स चक्रे महदाननं तदा निषादमार्ग प्रतिरुध्य पक्षिराट् ।
ततो निषादास्त्वरिताः प्रवव्रजुः यतो मुखं तस्य भुजङ्गभोजिनः ॥ १९ ॥
इसके बाद पक्षिराजने अपना मुख बहुत बड़ा कर लिया और निषादोंका मार्ग रोककर खड़े हो गये। तदनन्तर वे निषाद उतावलीमें पड़कर उसी ओर भागे, जिधर सर्पभोजी गरुडका मुख था ॥ १९ ॥
तदाननं विवृतमतिप्रमाणवत् समभ्ययुर्गगनमिवार्दिताः खगाः ।
सहस्रशः पवनरजोविमोहिता यथानिलप्रचलितपादपे वने ॥ २० ॥
जैसे आँधीसे कम्पित वृक्षवाले वनमें पवन और धूलसे विमोहित एवं पीड़ित सहस्रों पक्षी उन्मुक्त आकाशमें उड़ने लगते हैं, उसी प्रकार हवा और धूलकी वर्षासे बेसुध हुए हजारों निषाद गरुडके खुले हुए अत्यन्त विशाल मुखमें समा गये ॥ २० ॥
ततः खगो वदनममित्रतापनः समाहरत् परिचपलो महाबलः ।
निषूदयन् बहुविधमत्स्यजीविनो बुभुक्षितो गगनचरेश्वरस्तदा ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् शत्रुओंको संताप देनेवाले, अत्यन्त चपल, महाबली और क्षुधातुर पक्षिराज गरुडने मछली मारकर जीविका चलानेवाले उन अनेकानेक निषादोंका विनाश करनेके लिये अपने मुखको संकुचित कर लिया ॥ २१ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८ ॥
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अध्याय इकतीसवाँ
कश्यपजीका गरुडको हाथी और कछुएके पूर्वजन्मकी कथा सुनाना, गरुडका उन दोनोंको पकड़कर एक दिव्य वटवृक्षकी शाखापर ले जाना और उस शाखाका टूटना
सौतिरुवाच
तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मणः सह भार्यया ।
दहन् दीप्त इवाङ्गारस्तमुवाचान्तरिक्षगः ॥ १ ॥
द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात् ।
न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा ॥ २ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- निषादोंके साथ एक ब्राह्मण भी भार्यासहित गरुडके कण्ठमें चला गया था। वह दहकते हुए अंगारकी भाँति जलन पैदा करने लगा। तब आकाशचारी गरुडने उस ब्राह्मणसे कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ! तुम मेरे खुले हुए मुखसे जल्दी निकल जाओ। ब्राह्मण पापपरायण ही क्यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है’ ॥ १-२ ॥
ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः प्रत्यभाषत ।
निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह ॥ ३ ॥
ऐसी बात कहनेवाले गरुडसे वह ब्राह्मण बोला- ‘यह निषाद जातिकी कन्या मेरी भार्या है; अतः मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)’ ॥ ३ ॥
गरुड उवाच
एतामपि निषादर्दी त्वं परिगृह्याशु निष्पत ।
तूर्ण सम्भावयात्मानमजीर्ण मम तेजसा ॥ ४ ॥
गरुडने कहा- ब्राह्मण! तुम इस निषादीको भी लेकर जल्दी निकल जाओ। तुम अभीतक मेरी जठराग्निके तेजसे पचे नहीं हो; अतः शीघ्र अपने जीवनकी रक्षा करो ॥ ४ ॥
सौतिरुवाच
ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा ।
वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह ॥ ५ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- उनके ऐसा कहनेपर वह ब्राह्मण निषादीसहित गरुडके मुखसे निकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देशको चला गया ॥ ५ ॥
सहभायें विनिष्क्रान्ते तस्मिन् विप्रे च पक्षिराट् ।
वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः ॥ ६ ॥
भार्यासहित उस ब्राह्मणके निकल जानेपर पक्षिराज गरुड पंख फैलाकर मनके समान तीव्र वेगसे आकाशमें उडे ॥ ६ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
ततोऽपश्यत् स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान् पितुः ।
यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषिः ॥ ७ ॥
तदनन्तर उन्हें अपने पिता कश्यपजीका दर्शन हुआ। उनके पूछनेपर अमेयात्मा गरुडने पितासे यथोचित कुशल-समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले ॥ ७ ॥
कश्यप उवाच
कच्चिद् वः कुशलं नित्यं भोजने बहुलं सुत ।
कच्चिच्च मानुषे लोके तवान्नं विद्यते बहु ॥ ८ ॥
कश्यपजीने पूछा- बेटा! तुमलोग कुशलसे तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजनके सम्बन्धमें तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्यलोकमें तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता है ॥ ८ ॥
गरुड उवाच
माता मे कुशला शाश्वत् तथा भ्राता तथा हाहम् ।
न हि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा ॥ ९ ॥
गरुडने कहा- मेरी माता सदा कुशलसे रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। परंतु पिताजी ! पर्याप्त भोजनके विषयमें तो सदा मेरे लिये कुशलका अभाव ही है ॥ ९ ॥
अहं हि सर्वैः प्रहितः सोममाहर्तुमुत्तमम् ।
मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै ॥ १० ॥
मुझे सर्पोंने उत्तम अमृत लानेके लिये भेजा है। माताको दासीपनसे छुटकारा दिलानेके लिये आज में निश्चय ही उस अमृतको लाऊँगा ॥ १० ॥
मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान् भक्षयेति ह ।
न च मे तृप्तिरभवद् भक्षयित्वा सहस्रशः ॥ ११ ॥
भोजनके विषयमें पूछनेपर माताने कहा- ‘निषादोंका भक्षण करो’, परंतु हजारों निषादोंको खा लेनेपर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है ॥ ११ ॥
तस्माद् भक्ष्यं त्वमपरं भगवन् प्रदिशस्व मे ।
यद् भुक्त्वामृतमाहर्तुं समर्थः स्यामहं प्रभो ॥ १२ ॥
क्षुत्पिपासाविघातार्थ भक्ष्यमाख्यातु मे भवान् ।
अतः भगवन् ! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो! वह भोजन ऐसा हो जिसे खाकर में अमृत लानेमें समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख-प्यासको मिटा देनेके लिये आप पर्याप्त भोजन बताइये ॥ १२ ॥
कश्यप उवाच
इदं सरो महापुण्यं देवलोकेऽपि विश्रुतम् ॥ १३ ॥
कश्यपजी बोले- बेटा! यह महान् पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोकमें भी विख्यात है ॥ १३ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाङ्मुखः ।
तयोर्जन्मान्तरे वैरं सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥ १४ ॥
तन्मे तत्त्वं निबोधत्स्व यत्प्रमाणौ च तावुभौ ।
उसमें एक हाथी नीचेको मुँह किये सदा सूँड़से पकड़कर एक कछुएको खींचता रहता है। वह कछुआ पूर्वजन्ममें उसका बड़ा भाई था। दोनोंमें पूर्वजन्मका वैर चला आ रहा है। उनमें यह वैर क्यों और कैसे हुआ तथा उन दोनोंके शरीरकी लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई कितनी है, ये सारी बातें में ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो ॥ १४ ॥
आसीद् विभावसुर्नाम महर्षिः कोपनो भृशम् ॥ १५ ॥
भ्राता तस्यानुजश्चासीत् सुप्रतीको महातपाः ।
स नेच्छति धनं भ्राता सहैकस्थं महामुनिः ॥ १६ ॥
पूर्वकालमें विभावसु नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभावके बड़े क्रोधी थे। उनके छोटे भाईका नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक अपने धनको बड़े भाईके साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे ॥ १५-१६ ॥
विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यशः ।
अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः ॥ १७ ॥
सुप्रतीक प्रतिदिन बँटवारेके लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाई विभावसुने सुप्रतीकसे कहा- ॥ १७ ॥
विभागं बहवो मोहात् कर्तुमिच्छन्ति नित्यशः ।
ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं विक्क्रुध्यन्तेऽर्थमोहिताः ॥ १८ ॥
‘भाई! बहुत-से मनुष्य मोहवश सदा धनका बँटवारा कर लेनेकी इच्छा रखते हैं। तदनन्तर बँटवारा हो जानेपर धनके मोहमें फॅसकर वे एक-दूसरेके विरोधी हो परस्पर क्रोध करने लगते हैं ॥ १८ ॥
ततः स्वार्थपरान् मूढान् पृथग्भूतान् स्वकैर्धनैः ।
विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः ॥ १९ ॥
‘वे स्वार्थपरायण मूढ़ मनुष्य अपने धनके साथ जब अलग-अलग हो जाते हैं, तब उनकी यह अवस्था जानकर शत्रु भी मित्ररूपमें आकर मिलते और उनमें भेद डालते रहते हैं ॥ १९ ॥
विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ ।
भिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते ॥ २० ॥
‘दूसरे लोग, उनमें फूट हो गयी है, यह जानकर उनके छिद्र देखा करते हैं एवं छिद्र मिल जानेपर उनमें परस्पर वैर बढ़ानेके लिये स्वयं बीचमें आ पड़ते हैं। इसलिये जो लोग अलग-अलग होकर आपसमें फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र ही ऐसा विनाश हो जाता है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है ॥ २० ॥
तस्माद् विभागं भ्रातॄणां न प्रशंसन्ति साधवः ।
गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्येनाभिशङ्ङ्किनाम् ॥ २१ ॥
‘अतः साधु पुरुष भाइयोंके बिलगाव या बँटवारेकी प्रशंसा नहीं करते; क्योंकि इस प्रकार बँट जानेवाले भाई गुरुस्वरूप शास्त्रकी अलंघनीय आज्ञाके अधीन नहीं रह जाते और एक-दूसरेको संदेहकी दृष्टिसे देखने लगते हैं’ ॥ २१ ॥
नियन्तुं न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि ।
यस्मात् तस्मात् सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि ॥ २२ ॥
‘सुप्रतीक! तुम्हें वशमें करना असम्भव हो रहा है और तुम भेदभावके कारण ही बँटवारा करके धन लेना चाहते हो, इसलिये तुम्हें हाथीकी योनिमें जन्म लेना पड़ेगा’ ॥ २२ ॥
शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत् ।
त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः सम्भविष्यसि ॥ २३ ॥
इस प्रकार शाप मिलनेपर सुप्रतीकने विभावसुसे कहा- ‘तुम भी पानीके भीतर विचरनेवाले कछुए होओगे’ ॥ २३ ॥
एवमन्योन्यशापात् तौ सुप्रतीकविभावसू ।
गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थ मूढचेतसौ ॥ २४ ॥
इस प्रकार सुप्रतीक और विभावसु मुनि एक-दूसरेके शापसे हाथी और कछुएकी योनिमें पड़े हैं। धनके लिये उनके मनमें मोह छा गया था ॥ २४ ॥
रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावुभौ ।
परस्पर द्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ ॥ २५ ॥
सरस्यस्मिन् महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ ।
तयोरन्यतरः श्रीमान् समुपैति महागजः ॥ २६ ॥
यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः ।
उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं विक्षोभयन् सरः ॥ २७ ॥
रोष और लोभरूपी दोषके सम्बन्धसे उन दोनोंको तिर्यक्-योनिमें जाना पड़ा है। वे दोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्मके वैरका अनुसरण करके अपनी विशालता और बलके घमण्डमें चूर हो एक-दूसरेसे द्वेष रखते हुए इस सरोवरमें रहते हैं। इन दोनोंमें एक जो सुन्दर महान् गजराज है, वह जब सरोवरके तटपर आता है, तब उसके चिग्घाड़नेकी आवाज सुनकर जलके भीतर शयन करनेवाला विशालकाय कछुआ भी पानीसे ऊपर उठता है। उस समय वह सारे सरोवरको मथ डालता है ॥ २५-२७ ॥
यं दृष्ट्वा वेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम् ।
दन्तहस्ताग्रलाङ्गुलपादवेगेन वीर्यवान् ॥ २८ ॥
विक्षोभयंस्ततो नागः सरो बहुझषाकुलम् ।
कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान् ॥ २९ ॥
उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जलमें टूट पड़ता है तथा दाँत, सूँड़, पूँछ और पैरोंके वेगसे असंख्य मछलियोंसे भरे हुए समूचे सरोवरमें हलचल मचा देता है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्धके लिये निकट आ जाता है ॥ २८-२९ ॥
षडुच्छितो योजनानि गजस्तद्विगुणायतः ।
कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः ॥ ३० ॥
हाथीका शरीर छः योजन ऊँचा और बारह योजन लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा और दस योजन गोल है ॥ ३० ॥
तावुभौ युद्धसम्मत्तौ परस्परवधैषिणौ ।
उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मनः ॥ ३१ ॥
वे दोनों एक-दूसरेको मारनेकी इच्छासे युद्धके लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र जाकर उन्हीं दोनोंको भोजनके उपयोगमें लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्यका साधन करो ॥ ३१ ॥
महाभ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय ।
महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम् ॥ ३२ ॥
कछुआ महान् मेघ-खण्डके समान है और हाथी भी महान् पर्वतके समान भयंकर है। उन्हीं दोनोंको खाकर अमृत ले आओ ॥ ३२ ॥
सौतिरुवाच
इत्युक्त्वा गरुडं सोऽथ माङ्गल्यमकरोत् तदा ।
युध्यतः सह देवैस्ते युद्धे भवतु मङ्गलम् ॥ ३३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! कश्यपजी गरुडसे ऐसा कहकर उस समय उनके लिये मंगल मनाते हुए बोले- ‘गरुड! युद्धमें देवताओंके साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल हो ॥ ३३ ॥
पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत् किंचिदुत्तमम् ।
शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डज ॥ ३४ ॥
‘पक्षिप्रवर! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मांगलिक वस्तुएँ हैं, वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होंगी ॥ ३४ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
युध्यमानस्य संग्रामे देवैः सार्थ महाबल ।
ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च ॥ ३५ ॥
रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्च ते बलम् ।
इत्युक्तो गरुडः पित्रा गतस्तं हृदमन्तिकात् ॥ ३६ ॥
‘महाबली पक्षिराज ! संग्राममें देवताओंके साथ युद्ध करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, पवित्र हविष्य, सम्पूर्ण रहस्य तथा सभी वेद तुम्हें बल प्रदान करें।’ पिताके ऐसा कहनेपर गरुड उस सरोवरके निकट गये ॥ ३५-३६ ॥
अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम् ।
स तत् स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः ॥ ३७ ॥
नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत् ।
समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहंगमः ॥ ३८ ॥
उन्होंने देखा, सरोवरका जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकारके पक्षी इसमें सब ओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरुडने पिताके वचनका स्मरण करके एक पंजेसे हाथीको और दूसरेसे कछुएको पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराज आकाशमें ऊँचे उड़ गये ॥ ३७-३८ ॥
सोऽलम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत् ।
ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः ॥ ३९ ॥
न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः ।
प्रचलाङ्गान् स तान् दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान् ॥ ४० ॥
अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः ।
काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैदूर्यशाखिनः ।
सागराम्बुपरिक्षिप्तान् भ्राजमानान् महाद्रुमान् ॥ ४१ ॥
उड़कर वे फिर अलम्बतीर्थमें जा पहुँचे। वहाँ (मेरुगिरिपर) बहुत-से दिव्य वृक्ष अपनी सुवर्णमय शाखा-प्रशाखाओंके साथ लहलहा रहे थे। जब गरुड उनके पास गये, तब उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर वे सभी दिव्य वृक्ष इस भयसे कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमें तोड़ न डालें। गरुड रुचिके अनुसार फल देनेवाले उन कल्पवृक्षोंको काँपते देख अनुपम रूप-रंग तथा अंगोंवाले दूसरे दूसरे महावृक्षोंकी ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्य मणिकी थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलोंसे सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महावृक्ष समुद्रके जलसे अभिषिक्त होते रहते थे ॥ ३९-४१ ॥
तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः ।
अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम् ॥ ४२ ॥
वहीं एक बहुत बड़ा विशाल वटवृक्ष था। उसने मनके समान तीव्र-वेगसे आते हुए पक्षियोंके सरदार गरुडसे कहा ॥ ४२ ॥
रौहिण उवाच
येषा मम महाशाखा शतयोजनमायता ।
एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमी गजकच्छपी ॥ ४३ ॥
वटवृक्ष बोला-पक्षिराज ! यह जो मेरी सौ योजनतक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसीपर बैठकर तुम इस हाथी और कछुएको खा लो ॥ ४३ ॥
ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन् ।
खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान् बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम् ॥ ४४ ॥
तब पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, पक्षियोंमें श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड सहस्रों विहंगमोंसे सेवित उस महान् वृक्षको कम्पित करते हुए तुरंत उसपर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्य वेगसे उन्होंने सघन पल्लवोंसे सुशोभित उस विशाल शाखाको तोड़ डाला ॥ ४४ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्र-विषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गायत्री कवचम्
अध्याय तीस
गरुडका कश्यपजीसे मिलना, उनकी प्रार्थनासे वालखिल्य ऋषियोंका शाखा छोड़कर तपके लिये प्रस्थान और गरुडका निर्जन पर्वतपर उस शाखाको छोड़ना
सौतिरुवाच
स्पृष्टमात्रा तु पद्भयां सा गरुडेन बलीयसा ।
अभज्यत तरोः शाखा भग्नां चैनामधारयत् ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकादि महर्षियो! महाबली गरुडके पैरोंका स्पर्श होते ही उस वृक्षकी वह महाशाखा टूट गयी; किंतु उस टूटी हुई शाखाको उन्होंने फिर पकड़ लिया ॥ १ ॥
तां भङ्क्त्वा स महाशाखां स्मयमानो विलोकयन् ।
अथात्र लम्बतोऽपश्यद् वालखिल्यानधोमुखान् ॥ २ ॥
उस महाशाखाको तोड़कर गरुड मुसकराते हुए उसकी ओर देखने लगे। इतनेहीमें उनकी दृष्टि वालखिल्य नामवाले महर्षियोंपर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखामें लटक रहे थे ॥ २ ॥
ऋषयो ह्यत्र लम्बन्ते न हन्यामिति तानृषीन् ।
तपोरतान् लम्बमानान् ब्रह्मर्षीनभिवीक्ष्य सः ॥ ३ ॥
हन्यादेतान् सम्पतन्ती शाखेत्यथ विचिन्त्य सः ।
नखैर्दृढतरं वीरः संगृह्य गजकच्छपौ ॥ ४ ॥
स तद्विनाशसंत्रासादभिपत्य खगाधिपः ।
शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया ॥ ५ ॥
तपस्यामें तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियोंको वटकी शाखामें लटकते देख गरुडने सोचा – ‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाय। यह गिरती हुई शाखा इन ऋषियोंका अवश्य वध कर डालेगी।’ यह विचारकर वीरवर पक्षिराज गरुडने हाथी और कछुएको तो अपने पंजोंसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियोंके विनाशके भयसे झपटकर वह शाखा अपनी चोंचमें ले ली। उन मुनियोंकी रक्षाके लिये ही गरुडने ऐसा अद्भुत पराक्रम किया था ॥ ३-५ ॥
अतिदैवं तु तत् तस्य कर्म दृष्ट्वा महर्षयः ।
विस्मयोत्कम्पहृदया नाम चक्क्रुर्महाखगे ॥ ६ ॥
जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुडका ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्यसे चकित हो उठे। उनके हृदयमें कम्प छा गया और उन्होंने उस महान् पक्षीका नाम इस प्रकार रखा (उनके गरुड नामकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की) ॥ ६ ॥
गुरुं भारं समासाद्योडीन एष विहंगमः ।
गरुडस्तु खगश्रेष्ठस्तस्मात् पन्नगभोजनः ॥ ७ ॥
ये आकाशमें विचरनेवाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (‘गुरुम् आदाय उड्डीन इति गरुडः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार) ये गरुड कहलायेंगे ॥ ७ ॥
ततः शनैः पर्यपतत् पक्षैः शैलान् प्रकम्पयन् ।
एवं सोऽभ्यपतद् देशान् बहून् सगजकच्छपः ॥ ८ ॥
तदनन्तर गरुड अपने पंखोंकी हवासे बड़े-बड़े पर्वतोंको कम्पित करते हुए धीरे-धीरे उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुएको साथ लिये हुए ही अनेक देशोंमें उड़ते फिरे ॥ ८ ॥
दयार्थं वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत ।
स गत्वा पर्वतश्रेष्ठं गन्धमादनमञ्जसा ॥९॥
वालखिल्य ऋषियोंके ऊपर दयाभाव होनेके कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते- उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादनपर जा पहुँचे ॥ ९ ॥
ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम् ।
ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहंगमम् ॥ १० ॥
तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम् ।
शैलशृङ्गप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् ॥ ११ ॥
वहाँ उन्होंने तपस्यामें लगे हुए अपने पिता कश्यपजीको देखा। पिताने भी अपने पुत्रको देखा। पक्षिराजका स्वरूप दिव्य था। वे तेज, पराक्रम और बलसे सम्पन्न तथा मन और वायुके समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वतके शिखरका भान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्डके समान जान पड़ते थे ॥ १०-११ ॥
अचिन्त्यमनभिध्येयं सर्वभूतभयंकरम् ।
महावीर्यधरं रौद्रं साक्षादग्निमिवोद्यतम् ॥ १२ ॥
उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यानमें नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान् पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूपमें स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं ॥ १२ ॥
अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसैः ।
भेत्तारं गिरिशृङ्गाणां समुद्रजलशोषणम् ॥ १३ ॥
देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकता था। वे पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करने और समुद्रके जलको सोख लेनेकी शक्ति रखते थे ॥ १३ ॥
लोकसंलोडनं घोरं कृतान्तसमदर्शनम् ।
तमागतमभिप्रेक्ष्य भगवान् कश्यपस्तदा ।
विदित्वा चास्य संकल्पमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥
वे समस्त संसारको भयसे कम्पित किये देते थे। उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वे साक्षात् यमराजके समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान् कश्यपने उनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा ॥ १४ ॥
कश्यप उवाच
पुत्र मा साहसं कार्षीर्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम् ।
मा त्वां दहेयुः संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपाः ॥ १५ ॥
कश्यपजी बोले- बेटा! कहीं दुःसाहसका काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारी दुःखमें पड़ जाओगे। सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकर तुम्हें भस्म न कर डालें ॥ १५ ॥
सौतिरुवाच
ततः प्रसादयामास कश्यपः पुत्रकारणात् ।
वालखिल्यान् महाभागांस्तपसा हतकल्मषान् ॥ १६ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तदनन्तर पुत्रके लिये महर्षि कश्यपने तपस्यासे निष्पाप हुए महाभाग वालखिल्य मुनियोंको इस प्रकार प्रसन्न किया ॥ १६ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
कश्यप उवाच
प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधनाः ।
चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमर्हथ ॥ १७ ॥
कश्यपजी बोले- तपोधनो ! गरुडका यह उद्योग प्रजाके हितके लिये हो रहा है। ये महान् पराक्रम करना चाहते हैं, आपलोग इन्हें आज्ञा दें ॥ १७ ॥
सौतिरुवाच
एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः ।
मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ॥ १८ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- भगवान् कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्य मुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चले गये ॥ १८ ॥
ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः ।
शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ॥ १९ ॥
उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारण कठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा- ॥ १९ ॥
भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम् ।
वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ॥ २० ॥
‘भगवन्! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों’ ॥ २० ॥
ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम् ।
अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ॥ २१ ॥
तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फसे ढँकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकता था ॥ २१ ॥
तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः ।
जवेनाभ्यपतत् तार्थ्यः सशाखागजकच्छपः ॥ २२ ॥
उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान् पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े ॥ २२ ॥
न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ् ।
शाखिनो महर्ती शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ॥ २३ ॥
गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी ॥ २३ ॥
स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः ।
कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ॥ २४ ॥
पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चले आये ॥ २४ ॥
स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः ।
अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ॥ २५ ॥
पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ ॥ २५ ॥
पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट् ।
मुमोच पुष्पवर्ष च समागलितपादपः ॥ २६ ॥
वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर काँप उठा। उसपर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा ॥ २६ ॥
शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः ।
मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ॥ २७ ॥
उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान् शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े ॥ २७ ॥
शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया ।
काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ॥ २८ ॥
उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे ॥ २८ ॥
ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः ।
व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्याशुप्रतिरञ्जिताः ॥ २९ ॥
सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त हो सूर्यकी किरणोंद्वारा रंगे हुए-से सुशोभित होते थे ॥ २९ ॥
ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः ।
भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ॥ ३० ॥
तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुएको खाया ॥ ३० ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्थ्यः कूर्मकुञ्जरौ ।
ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ॥ ३१ ॥
इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान् वेगशाली गरुड पर्वतकी उस चोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े ॥ ३१ ॥
प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयशंसिनः ।
इन्द्रस्य वञ्चं दयितं प्रजज्वाल भयात् ततः ॥ ३२ ॥
उस समय देवताओंके यहाँ बहुत-से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्रका प्रिय आयुध वज्र भयसे जल उठा ॥ ३२ ॥
सधूमा न्यपतत् सार्चिर्दिवोल्का नभसश्युता ।
तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वशः ॥ ३३ ॥
साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणाः ।
स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत् ॥ ३४ ॥
स्वं अभूतपूर्व संग्रामे तदा देवासुरेऽपि च ।
ववुर्वाताः सनिर्घाताः पेतुरुल्काः सहस्रशः ॥ ३५ ॥
आकाशसे दिनमें ही धूएँ और लपटोंके साथ उल्का गिरने लगी। वसु, रुद्र, आदित्य, साध्य, मरुद्गण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखनेमें नहीं आया था। देवासुर संग्रामके समय भी ऐसी अनहोनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके साथ बड़े जोरकी आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं ॥ ३३-३५ ॥
निरभ्रमेव चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम् ।
देवानामपि यो देवः सोऽप्यवर्षत शोणितम् ॥ ३६ ॥
आकाशमें बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाजमें विकट गर्जना होने लगी। देवताओंके भी देवता पर्जन्य रक्तकी वर्षा करने लगे ॥ ३६ ॥
मम्लुर्माल्यानि देवानां नेशुस्तेजांसि चैव हि ।
उत्पातमेधा रौद्राश्च ववृक्षुः शोणितं बहु ॥ ३७ ॥
देवताओंके दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत- से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रामें रुधिरकी वर्षा करने लगे ॥ ३७ ॥
रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन् ।
ततस्त्राससमुद्विग्नः सह देवैः शतक्रतुः ।
उत्पातान् दारुणान् पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम् ॥ ३८ ॥
बहुत-सी धूलें उड़कर देवताओंके मुकुटोंको मलिन करने लगीं। ये भयंकर उत्पात देखकर देवताओं-सहित इन्द्र भयसे व्याकुल हो गये और बृहस्पतिजीसे इस प्रकार बोले ॥ ३८ ॥
इन्द्र उवाच
किमर्थ भगवन् घोरा उत्पाताः सहसोत्थिताः ।
न च शत्रु प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत् ॥ ३९ ॥
इन्द्रने पूछा- भगवन्! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शुत्र नहीं देखता, जो युद्धमें हम देवताओंका तिरस्कार कर सके ॥ ३९ ॥
बृहस्पतिरुवाच
तवापराधाद् देवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो ।
तपसा वालखिल्यानां महर्षीणां महात्मनाम् ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेः पुत्रो विनतायाश्च खेचरः ।
हर्तु सोममभिप्राप्तो बलवान् कामरूपधृक् ॥ ४१ ॥
बृहस्पतिजीने कहा- देवराज इन्द्र ! तुम्हारे ही अपराध और प्रमादसे तथा महात्मा वालखिल्य महर्षियोंके तपके प्रभावसे कश्यप मुनि और विनताके पुत्र पक्षिराज गरुड अमृतका अपहरण करनेके लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान् और इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ हैं ॥ ४०-४१ ॥
समर्थो बलिनां श्रेष्ठो हर्तुं सोमं विहंगमः ।
सर्वं सम्भावयाम्यस्मिन्नसाध्यमपि साधयेत् ॥ ४२ ॥
बलवानोंमें श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड अमृत हर ले जानेमें समर्थ हैं। में उनमें सब प्रकारकी शक्तियोंके होनेकी सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकते हैं ॥ ४२ ॥
सौतिरुवाच
श्रुत्वैतद् वचनं शक्रः प्रोवाचामृतरक्षिणः ।
महावीर्यबलः पक्षी हर्तुं सोममिहोद्यतः ॥ ४३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- बृहस्पतिजीकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृतकी रक्षा करनेवाले देवताओंसे बोले- ‘रक्षको ! महान् पराक्रमी और बलवान् पक्षी गरुड यहाँसे अमृत हर ले जानेको उद्यत हैं ॥ ४३ ॥
युष्मान् सम्बोधयाम्येष यथा न स हरेद् बलात् ।
अतुलं हि बलं तस्य बृहस्पतिरुवाच ह ॥ ४४ ॥
‘मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृतको न ले जा सकें। बृहस्पतिजीने कहा है कि उनके बलकी कहीं तुलना नहीं है’ ॥ ४४ ॥
तच्छ्रुत्वा विबुधा वाक्यं विस्मिता यत्नमास्थिताः ।
परिवार्यामृतं तस्थुर्वज्जी चेन्द्रः प्रतापवान् ॥ ४५ ॥
इन्द्रकी यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्यमें पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृतको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथमें वज्र लेकर वहाँ डट गये ॥ ४५ ॥
धारयन्तो विचित्राणि काञ्चनानि मनस्विनः ।
कवचानि महार्हाणि वैदूर्यविकृतानि च ॥ ४६ ॥
मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करने लगे ॥ ४६ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
चर्माण्यपि च गात्रेषु भानुमन्ति दृढानि च ।
विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकशः ॥ ४७ ॥
शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सुरोत्तमाः ।
सविस्फुलिङ्गज्वालानि सधूमानि च सर्वशः ॥ ४८ ॥
चक्राणि परिघांश्चैव त्रिशूलानि परश्वधान् ।
शक्तीश्च विविधास्तीक्ष्णाः करवालांश्च निर्मलान् ।
स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः ॥ ४९ ॥
उन्होंने अपने अंगोंमें यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़ेके बने हुए हाथके मोजे आदि धारण किये। नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधोंकी धार बहुत तीखी थी। वे श्रेष्ठ देवता सब प्रकारके आयुध लेकर युद्धके लिये उद्यत हो गये। उनके पास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिनसे सब ओर आगकी चिनगारियाँ और धूमसहित लपटें प्रकट होती थीं। उनके सिवा परिघ, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँतिकी तीखी शक्तियाँ चमकीले खड्ग और भयंकर दिखायी देनेवाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीरके अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रोंको लेकर देवता डट गये ॥ ४७-४९ ॥
तैः शस्त्रैर्भानुमद्भिस्ते दिव्याभरणभूषिताः ।
भानुमन्तः सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषाः ॥ ५० ॥
दिव्य आभूषणोंसे विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रोंके साथ अधिक प्रकाशमान हो रहे थे ॥ ५० ॥
अनुपमबलवीर्यतेजसो धृतमनसः परिरक्षणेऽमृतस्य ।
असुरपुरविदारणाः सुरा ज्वलनसमिद्धवपुः प्रकाशिनः ॥ ५१ ॥
उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरोंके नगरोंका विनाश करनेमें समर्थ एवं अग्निके समान देदीप्यमान शरीरसे प्रकाशित होनेवाले थे; उन्होंने अमृतकी रक्षाके लिये अपने मनमें दृढ निश्चय कर लिया था ॥ ५१ ॥
इति समरवरं सुराः स्थितास्ते परिघसहस्रशतैः समाकुलम् ।
विगलितमिव चाम्बरान्तरं तपनमरीचिविकाशितं बभासे ॥ ५२ ॥
इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समरके लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखों परिघ आदि आयुधोंसे व्याप्त होकर सूर्यकी किरणोंद्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरे आकाशके समान सुशोभित हो रहा था ॥ ५२ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३० ॥
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अध्याय इकतीसवाँ
इन्द्रके द्वारा वालखिल्योंका अपमान और उनकी तपस्याके प्रभावसे अरुण एवं गरुडकी उत्पत्ति
शौनक उवाच
कोऽपराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च सूतज ।
तपसा वालखिल्यानां सम्भूतो गरुडः कथम् ॥ १ ॥
शौनकजीने पूछा-सूतनन्दन! इन्द्रका क्या अपराध और कौन-सा प्रमाद था? वालखिल्य मुनियोंकी तपस्याके प्रभावसे गरुडकी उत्पत्ति कैसे हुई थी? ॥ १ ॥
कश्यपस्य द्विजातेश्च कथं वै पक्षिराट् सुतः ।
अधृष्यः सर्वभूतानामवध्यश्चाभवत् कथम् ॥ २ ॥
कश्यपजी तो ब्राह्मण हैं, उनका पुत्र पक्षिराज कैसे हुआ? साथ ही वह समस्त प्राणियोंके लिये दुर्धर्ष एवं अवध्य कैसे हो गया? ॥ २ ॥
कथं च कामचारी स कामवीर्यश्च खेचरः ।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते ॥ ३ ॥
उस पक्षीमें इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम करनेकी शक्ति कैसे आ गयी? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि पुराणमें कहीं इसका वर्णन हो तो सुनाइये ॥ ३ ॥
सौतिरुवाच
विषयोऽयं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।
शृणु मे वदतः सर्वमेतत् संक्षेपतो द्विज ॥ ४ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, वह पुराणका ही विषय है। मैं संक्षेपमें ये सब बातें बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ४ ॥
यजतः पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापतेः ।
साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्च ददुः किल ॥ ५ ॥
कहते हैं, प्रजापति कश्यपजी पुत्रकी कामनासे यज्ञ कर रहे थे, उसमें ऋषियों, देवताओं तथा गन्धोंने भी उन्हें बड़ी सहायता दी ॥ ५ ॥
तत्रेध्मानयने शक्रो नियुक्तः कश्यपेन ह।
मुनयो वालखिल्याश्च ये चान्ये देवतागणाः ॥ ६ ॥
उस यज्ञमें कश्यपजीने इन्द्रको समिधा लानेके कामपर नियुक्त किया था। वालखिल्य मुनियों तथा अन्य देवगणोंको भी यही कार्य सौंपा गया था ॥ ६ ॥
शक्रस्तु वीर्यसदृशमिध्यभारं गिरिप्रभम् ।
समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छ्रादिव प्रभुः ॥ ७ ॥
इन्द्र शक्तिशाली थे। उन्होंने अपने बलके अनुसार लकड़ीका एक पहाड़-जैसा बोझ उठा लिया और उसे बिना कष्टके ही वे ले आये ॥ ७ ॥
अथापश्यद्दीन् हस्वानङ्गुष्ठोदरवर्मणः ।
पलाशवर्तिकामेकां वहतः संहतान् पथि ॥ ८ ॥
उन्होंने मार्गमें बहुत-से ऐसे ऋषियोंको देखा जो कदमें बहुत ही छोटे थे। उनका सारा शरीर अँगूठेके मध्यभागके बराबर था। वे सब मिलकर पलाशकी एक बाती (छोटी-सी टहनी) लिये आ रहे थे ॥ ८ ॥
प्रलीनान् स्वेष्विवाङ्गेषु निराहारांस्तपोधनान् ।
क्लिश्यमानान् मन्दबलान् गोष्पदे सम्प्लुतोदके ॥ ९ ॥
उन्होंने आहार छोड़ रखा था। तपस्या ही उनका धन था। वे अपने अंगोंमें ही समाये हुए-से जान पड़ते थे। पानीसे भरे हुए गोखुरके लाँघनेमें भी उन्हें बड़ा क्लेश होता था। उनमें शारीरिक बल बहुत कम था ॥ ९ ॥
तान् सर्वान् विस्मयाविष्टो वीर्योन्मत्तः पुरन्दरः ।
अवहस्याभ्यगाच्छीघ्रं लङ्घयित्वावमन्य च ॥ १० ॥
अपने बलके घमंडमें मतवाले इन्द्रने आश्चर्य चकित होकर उन सबको देखा और उनकी हँसी उड़ाते हुए वे अपमानपूर्वक उन्हें लाँघकर शीघ्रताके साथ आगे बढ़ गये ॥ १० ॥
तेऽथ रोषसमाविष्टाः सुभृशं जातमन्यवः ।
आरेभिरे महत् कर्म तदा शक्रभयंकरम् ॥ ११ ॥
इन्द्रके इस व्यवहारसे वालखिल्य मुनियोंको बड़ा रोष हुआ। उनके हृदयमें भारी क्रोधका उदय हो गया। अतः उन्होंने उस समय एक ऐसे महान् कर्मका आरम्भ किया, जिसका परिणाम इन्द्रके लिये भयंकर था ॥ ११ ॥
जुहुवुस्ते सुतपसो विधिवज्जातवेदसम् ।
मन्त्रैरुच्चावचैर्विप्रा येन कामेन तच्छृणु ॥ १२ ॥
ब्राह्मणो! वे उत्तम तपस्वी वालखिल्य मनमें जो कामना रखकर छोटे-बड़े मन्त्रोंद्वारा विधिपूर्वक अग्निमें आहुति देते थे, वह बताता हूँ, सुनिये ॥ १२ ॥
कामवीर्यः कामगमो देवराजभयप्रदः ।
इन्द्रोऽन्यः सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रताः ॥ १३ ॥
संयमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महर्षि यह संकल्प करते थे कि – ‘सम्पूर्ण देवताओंके लिये कोई दूसरा ही इन्द्र उत्पन्न हो, जो वर्तमान देवराजके लिये भयदायक, इच्छानुसार पराक्रम करने वाला और अपनी रुचिके अनुसार चलनेकी शक्ति रखनेवाला हो ॥ १३ ॥
इन्द्राच्छतगुणः शौर्ये वीर्ये चैव मनोजवः ।
तपसो नः फलेनाद्य दारुणः सम्भवत्विति ॥ १४ ॥
‘शौर्य और वीर्यमें इन्द्रसे वह सौगुना बढ़कर हो। उसका वेग मनके समान तीव्र हो। हमारी तपस्याके फलसे अब ऐसा ही वीर प्रकट हो जो इन्द्रके लिये भयंकर हो’ ॥ १४ ॥
तद् बुद्ध्वा भृशसंतप्तो देवराजः शतक्रतुः ।
जगाम शरणं तत्र कश्यपं संशितव्रतम् ॥ १५ ॥
उनका यह संकल्प सुनकर सौ यज्ञोंका अनुष्ठान पूर्ण करनेवाले देवराज इन्द्रको बड़ा संताप हुआ और वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले कश्यपजीकी शरणमें गये ॥ १५ ॥
तच्छ्रुत्वा देवराजस्य कश्यपोऽथ प्रजापतिः ।
वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत ॥ १६ ॥
देवराज इन्द्रके मुखसे उनका संकल्प सुनकर प्रजापति कश्यप वालखिल्योंके पास गये और उनसे उस कर्मकी सिद्धिके सम्बन्धमें प्रश्न किया ॥ १६ ॥
एवमस्त्विति तं चापि प्रत्यूचुः सत्यवादिनः ।
तान् कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्व प्रजापतिः ॥ १७ ॥
सत्यवादी महर्षि वालखिल्योंने ‘हॉ ऐसी ही बात है’ कहकर अपने कर्मकी सिद्धिका प्रतिपादन किया। तब प्रजापति कश्यपने उन्हें सान्त्वनापूर्वक समझाते हुए कहा ॥ १७ ॥
अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद् ब्रह्मणः कृतः ।
इन्द्रार्थे च भवन्तोऽपि यत्नवन्तस्तपोधनाः ॥ १८ ॥
‘तपोधनो! ब्रह्माजीकी आज्ञासे ये पुरन्दर तीनों लोकोंके इन्द्र बनाये गये हैं और आपलोग भी दूसरे इन्द्रकी उत्पत्तिके लिये प्रयत्नशील हैं ॥ १८ ॥
न मिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमाः ।
भवतां हि न मिथ्यायं संकल्पो वै चिकीर्षितः ॥ १९ ॥
‘संत-महात्माओ ! आप ब्रह्माजीका वचन मिथ्या न करें। साथ ही मैं यह भी चाहता हूँ कि आपके द्वारा किया हुआ यह अभीष्ट संकल्प भी मिथ्या न हो ॥ १९ ॥
भवत्वेष पतत्त्रीणामिन्द्रोऽतिबलसत्त्ववान् ।
प्रसादः क्रियतामस्य देवराजस्य याचतः ॥ २० ॥
‘अतः अत्यन्त बल और सत्त्वगुणसे सम्पन्न जो यह भावी पुत्र है, यह पक्षियोंका इन्द्र हो। देवराज इन्द्र आपके पास याचक बनकर आये हैं, आप इनपर अनुग्रह करें’ ॥ २० ॥
एवमुक्ताः कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधनाः ।
प्रत्यूचुरभिसम्पूज्य मुनिश्रेष्ठं प्रजापतिम् ॥ २१ ॥
महर्षि कश्यपके ऐसा कहनेपर तपस्याके धनी वालखिल्य मुनि उन मुनिश्रेष्ठ प्रजापतिका सत्कार करके बोले ॥ २१ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
वालखिल्या ऊचुः
इन्द्रार्थोऽयं समारम्भः सर्वेषां नः प्रजापते ।
अपत्यार्थ समारम्भो भवतश्चायमीप्सितः ॥ २२ ॥
तदिदं सफलं कर्म त्वयैव प्रतिगृह्यताम् ।
तथा चैवं विधत्स्वात्र यथा श्रेयोऽनुपश्यसि ॥ २३ ॥
वालखिल्योंने कहा- प्रजापते ! हम सब लोगोंका यह अनुष्ठान इन्द्रके लिये हुआ था और आपका यह यज्ञसमारोह संतानके लिये अभीष्ट था। अतः इस फलसहित कर्मको आप ही स्वीकार करें और जिसमें सबकी भलाई दिखायी दे, वैसा ही करें ॥ २२-२३ ॥
सौतिरुवाच
एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा ।
विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी ॥ २४ ॥
तपस्तप्त्वा व्रतपरा स्नाता पुंसवने शुचिः ।
उपचक्राम भर्तारं तामुवाचाथ कश्यपः ॥ २५ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- इसी समय शुभलक्षणा दक्षकन्या कल्याणमयी विनता देवी, जो उत्तम यशसे सुशोभित थी, पुत्रकी कामनासे तपस्यापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करने लगी। ऋतुकाल आनेपर जब वह स्नान करके शुद्ध हुई, तब अपने स्वामीकी सेवामें गयी। उस समय कश्यपजीने उससे कहा ॥ २४-२५ ॥
आरम्भः सफलो देवि भविता यस्त्वयेप्सितः ।
जनयिष्यसि पुत्रौ द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरी ॥ २६ ॥
‘देवि! तुम्हारा यह अभीष्ट समारम्भ अवश्य सफल होगा। तुम ऐसे दो पुत्रोंको जन्म दोगी, जो बड़े वीर और तीनों लोकोंपर शासन करनेकी शक्ति रखनेवाले होंगे ॥ २६ ॥
तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पजौ तथा ।
भविष्यतो महाभागी पुत्रौ त्रैलोक्यपूजितौ ॥ २७ ॥
‘वालखिल्योंकी तपस्या तथा मेरे संकल्पसे तुम्हें दो परम सौभाग्यशाली पुत्र प्राप्त होंगे, जिनकी तीनों लोकोंमें पूजा होगी’ ॥ २७ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
उवाच चैनां भगवान् कश्यपः पुनरेव ह ।
धार्यतामप्रमादेन गर्भोऽयं सुमहोदयः ॥ २८ ॥
इतना कहकर भगवान् कश्यपने पुनः विनतासे कहा- ‘देवि! यह गर्भ महान् अभ्युदयकारी होगा, अतः इसे सावधानीसे धारण करो ॥ २८ ॥
एतौ सर्वपतत्त्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यतः ।
लोकसम्भावितौ वीरौ कामरूपौ विहंगमौ ॥ २९ ॥
‘तुम्हारे ये दोनों पुत्र सम्पूर्ण पक्षियोंके इन्द्रपदका उपभोग करेंगे। स्वरूपसे पक्षी होते हुए भी इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ और लोक-सम्भावित वीर होंगे’ ॥ २९ ॥
शतक्रतुमथोवाच प्रीयमाणः प्रजापतिः ।
त्वत्सहायौ महावीर्यो भ्रातरी ते भविष्यतः ॥ ३० ॥
नैताभ्यां भविता दोषः सकाशात् ते पुरन्दर ।
व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्रो भविष्यसि ॥ ३१ ॥
विनतासे ऐसा कहकर प्रसन्न हुए प्रजापतिने शतक्रतु इन्द्रसे कहा- ‘पुरन्दर! ये दोनों महापराक्रमी भ्राता तुम्हारे सहायक होंगे। तुम्हें इनसे कोई हानि नहीं होगी। इन्द्र ! तुम्हारा संताप दूर हो जाना चाहिये। देवताओंके इन्द्र तुम्हीं बने रहोगे ॥ ३०-३१ ॥
न चाप्येवं त्वया भूयः क्षेप्तव्या ब्रह्मवादिनः ।
न चावमान्या दर्पात् ते वाग्वज्रा भृशकोपनाः ॥ ३२ ॥
‘एक बात ध्यान रखना- आजसे फिर कभी तुम घमंडमें आकर ब्रह्मवादी महात्माओंका उपहास और अपमान न करना; क्योंकि उनके पास वाणीरूप अमोघ वज्र है तथा वे तीक्ष्ण कोपवाले होते हैं’ ॥ ३२ ॥
एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशङ्कस्त्रिविष्टपम् ।
विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तथा ॥ ३३ ॥
कश्यपजीके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र निःशंक होकर स्वर्गलोकमें चले गये। अपना मनोरथ सिद्ध होनेसे विनता भी बहुत प्रसन्न हुई ॥ ३३ ॥(Adi Parva Chapter 27 to 31)
जनयामास पुत्रौ द्वावरुणं गरुडं तथा ।
विकलाङ्गोऽरुणस्तत्र भास्करस्य पुरःसरः ॥ ३४ ॥
उसने दो पुत्र उत्पन्न किये- अरुण और गरुड। जिनके अंग कुछ अधूरे रह गये थे, वे अरुण कहलाते हैं, वे ही सूर्यदेवके सारथि बनकर उनके आगे-आगे चलते हैं ॥ ३४ ॥
पतत्त्रीणां च गरुडमिन्द्रत्वेनाभ्यषिञ्चत ।
तस्यैतत् कर्म सुमहच्छूयतां भृगुनन्दन ॥ ३५ ॥
भृगुनन्दन ! दूसरे पुत्र गरुडका पक्षियोंके इन्द्र-पदपर अभिषेक किया गया। अब तुम गरुडका यह महान् पराक्रम सुनो ॥ ३५ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१ ॥