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Mahabharata Adi Parva Chapter 22 to 26

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Mahabharata Adi Parva Chapter 22 to 26

॥ श्रीहरिः ॥

श्रीगणेशाय नमः 

॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

श्रीमहाभारतम् आदिपर्व (Adi Parva Chapter 22 to 26)

महाभारत आदि पर्व के इस पोस्ट में अध्याय 22 से अध्याय 26 (Adi Parva Chapter 22 to 26) दिया गया है। इसमे नागों द्वारा उच्चैःश्रवा की पूँछ को काली बनाना; कद्रू और विनता का समुद्र को देखते हुए आगे बढ़ना, पराजित विनता का कद्रू की दासी होना, गरुड की उत्पत्ति तथा देवताओं द्वारा उनकी स्तुति, गरुड के द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच तथा सूर्य के क्रोधजनित तीव्र तेज की शान्ति के लिये अरुण का उनके रथपर स्थित होना, सूर्य के तापसे मूर्च्छित हुए सर्पों की रक्षा के लिये कद्रू द्वारा इन्द्रदेवकी स्तुति और इन्द्र द्वारा की हुई वर्षा से सर्पों की प्रसन्नता का वर्णन दिया गया है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ संपूर्ण महाभारत हिंदी में

अध्याय बाईसवां

नागोंद्वारा उच्चैःश्रवाकी पूँछको काली बनाना; कद्रू और
विनताका समुद्रको देखते हुए आगे बढ़ना

सौतिरुवाच
नागाश्च संविदं कृत्वा कर्तव्यमिति तद्वचः ।
निःस्नेहा वै दहेन्माता असम्प्राप्तमनोरथा ৷৷ १ ৷৷
प्रसन्ना मोक्षयेदस्मांस्तस्माच्छापाच्च भामिनी ।
कृष्णं पुच्छं करिष्यामस्तुरगस्य न संशयः ৷৷ २ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- महर्षियो! इधर नागोंने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि ‘हमें माताकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। यदि इसका मनोरथ पूरा न होगा तो वह स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देगी। यदि इच्छा पूर्ण हो जानेसे प्रसन्न हो गयी तो वह भामिनी हमें अपने शापसे मुक्त कर सकती है; इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़ेकी पूँछको काली कर देंगे’ ৷৷ १-२ ৷৷

तथा हि गत्वा ते तस्य पुच्छे वाला इव स्थिताः ।
एतस्मिन्नन्तरे ते तु सपत्न्यौ पणिते तदा ৷৷ ३ ৷৷
ततस्ते पणितं कृत्वा भगिन्यौ द्विजसत्तम ।
जग्मतुः परया प्रीत्या परं पारं महोदधेः ৷৷ ४ ৷৷
कद्रूश्च विनता चैव दाक्षायण्यौ विहायसा ।
आलोकयन्त्यावक्षोभ्यं समुद्रं निधिमम्भसाम् ৷৷ ५ ৷৷
वायुनातीव सहसा क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ।
तिमिंगिलसमाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ৷৷ ६ ৷৷
संयुतं बहुसाहस्रैः सत्त्वैर्नानाविधैरपि ।
घोरैर्घोरमनाधृष्यं गम्भीरमतिभैरवम् ৷৷ ७ ৷৷
ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंगके बाल बनकर उसकी पूँछमें लिपट गये। द्विजश्रेष्ठ ! इसी बीचमें बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहनें पुनः अपनी शर्तको दुहराकर बड़ी प्रसन्नताके साथ समुद्रके दूसरे पार जा पहुँचीं। दक्षकुमारी कद्रू और विनता आकाशमार्गसे अक्षोभ्य जलनिधि समुद्रको देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागर अत्यन्त प्रबल वायुके थपेड़े खाकर सहसा विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोरकी गर्जना होती थी। तिमिंगिल और मगरमच्छ आदि जलजन्तु उसमें सब ओर व्याप्त थे। नाना प्रकारके भयंकर जन्तु सहस्रोंकी संख्यामें उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारण वह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होनेके साथ ही अत्यन्त भयंकर था ৷৷ ३-७ ৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च ।
नागानामालयं चापि सुरम्यं सरितां पतिम् ৷৷ ८ ৷৷
नदियोंका वह स्वामी सब प्रकारके रत्नोंकी खान, वरुणका निवासस्थान तथा नागोंका सुरम्य गृह था ৷৷ ८ ৷৷

पातालज्वलनावासमसुराणां तथाऽऽलयम् ।
भयंकराणां सत्त्वानां पयसो निधिमव्ययम् ৷৷ ९ ৷৷
वह पातालव्यापी बड़वानलका आश्रय, असुरोंके छिपनेका स्थान, भयंकर जन्तुओंका घर, अनन्त जलका भण्डार और अविनाशी था ৷৷ ९ ৷৷

शुभ्रं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम् ।
अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलसम्मितम् ৷৷ १० ৷৷
वह शुभ्र, दिव्य, अमरोंके अमृतका उत्तम उत्पत्ति-स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परम पवित्र जलसे परिपूर्ण था ৷৷ १० ৷৷

महानदीभिर्बह्वीभिस्तत्र तत्र सहस्रशः ।
आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यन्तमिव चोर्मिभिः ৷৷ ११ ৷৷
बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्रोंकी संख्यामें आकर उसमें यत्र-तत्र मिलतीं और उसे अधिकाधिक भरती रहती थीं। वह भुजाओंके समान ऊँची लहरोंको ऊपर उठाये नृत्य-सा कर रहा था ৷৷ ११ ৷৷

इत्येवं तरलतरोर्मिसंकुलं तं गम्भीरं विकसितमम्बरप्रकाशम् ।
पातालज्वलनशिखाविदीपिताङ्ग गर्जन्तं द्रुतमभिजग्मतुस्ततस्ते ৷৷ १२ ৷৷
इस प्रकार अत्यन्त तरल तरंगोंसे व्याप्त, आकाशके समान स्वच्छ, बड़वानलकी शिखाओंसे उद्भासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करनेवाले महासागरको देखती हुई वे दोनों बहनें तुरंत आगे बढ़ गयीं ৷৷ १२ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे समुद्रदर्शनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ৷৷ २२ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें समुद्रदर्शन नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ २२ ৷৷

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

अध्याय तेईसवाँ

पराजित विनताका कद्रूकी दासी होना, गरुडकी उत्पत्ति तथा
देवताओंद्वारा उनकी स्तुति

सौतिरुवाच
तं समुद्रमतिक्रम्य कद्रूर्विनतया सह ।
न्यपतत् तुरगाभ्याशे नचिरादिव शीघ्रगा ৷৷ १ ।
ततस्ते तं हयश्रेष्ठं ददृशाते महाजवम् ।
शशाङ्ककिरणप्रख्यं कालवालमुभे तदा ৷৷ २ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! तदनन्तर शीघ्रगामिनी कद्रू विनताके साथ उस समुद्रको लाँघकर तुरंत ही उच्चैःश्रवा घोड़ेके पास पहुँच गयीं। उस समय चन्द्रमाकी किरणोंके समान श्वेत वर्णवाले उस महान् वेगशाली श्रेष्ठ अश्वको उन दोनोंने काली पूँछवाला देखा ৷৷ १-२ ৷৷

निशम्य च बहून् बालान् कृष्णान् पुच्छसमाश्रितान् ।
विषण्णरूपां विनतां कद्रूर्दास्ये न्ययोजयत् ৷৷ ३ ৷৷
पूँछके घनीभूत बालोंको काले रंगका देखकर विनता विषादकी मूर्ति बन गयी और कद्रूने उसे अपनी दासीके काममें लगा दिया ৷৷ ३ ৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

ततः सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता ।
अभवद् दुःखसंतप्ता दासीभावं समास्थिता ৷৷ ४ ৷৷
पहलेकी लगायी हुई बाजी हारकर विनता उस स्थानपर दुःखसे संतप्त हो उठी और उसने दासीभाव स्वीकार कर लिया ৷৷ ४ ৷৷

एतस्मिन्नन्तरे चापि गरुडः काल आगते ।
विना मात्रा महातेजा विदार्याण्डमजायत ৷৷ ५ ৷৷
इसी बीचमें समय पूरा होनेपर महातेजस्वी गरुड माताकी सहायताके बिना ही अण्डा फोड़कर बाहर निकल आये ৷৷ ५ ৷৷

महासत्त्वबलोपेतः सर्वा विद्योतयन् दिशः ।
कामरूपः कामगमः कामवीर्यो विहंगमः ৷৷ ६ ৷৷
वे महान् साहस और पराक्रमसे सम्पन्न थे। अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करनेकी शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जाना चाहें जा सकते थे और अपनी रुचिके अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षीके रूपमें हुआ था ৷৷ ६ ৷৷

अग्निराशिरिवोद्भासन् समिद्धोऽतिभयंकरः ।
विद्युद्विस्पष्टपिङ्गाक्षो युगान्ताग्निसमप्रभः ৷৷ ७ ৷৷
वे प्रज्वलित अग्नि-पुंजके समान उद्भासित होकर अत्यन्त भयंकर जान पड़ते थे। उनकी आँखें बिजलीके समान चमकनेवाली और पिंगलवर्णकी थीं। वे प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे ৷৷ ७ ৷৷

प्रवृद्धः सहसा पक्षी महाकायो नभोगतः ।
घोरो घोरस्वनो रौद्रो वह्निरौर्व इवापरः ৷৷ ८ ৷৷
उनका शरीर थोड़ी ही देरमें बढ़कर विशाल हो गया। पक्षी गरुड आकाशमें उड़ चले। वे स्वयं तो भयंकर थे ही, उनकी आवाज भी बड़ी भयानक थी। वे दूसरे बड़वानलकी भाँति बड़े भीषण जान पड़ते थे ৷৷ ८ ৷৷

तं दृष्ट्वा शरणं जग्मुर्देवाः सर्वे विभावसुम् ।
प्रणिपत्याब्रुवंश्चैनमासीनं विश्वरूपिणम् ৷৷ ९ ৷৷
उन्हें देखकर सब देवता विश्वरूपधारी अग्निदेवकी शरणमें गये और उन्हें प्रणाम करके बैठे हुए उन अग्निदेवसे इस प्रकार बोले- ৷৷९৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

अग्ने मा त्वं प्रवर्धिष्ठाः कच्चिन्नो न दिधक्षसि ।
असौ हि राशिः सुमहान् समिद्धस्तव सर्पति ৷৷ १० ৷৷
‘अग्ने ! आप इस प्रकार न बढ़ें। आप हमलोगोंको जलाकर भस्म तो नहीं कर डालना चाहते हैं? देखिये, वह आपका महान्, प्रज्वलित तेजःपुंज इधर ही फैलता आ रहा है’ ৷৷ १० ৷৷

अग्निरुवाच
नैतदेवं यथा यूयं मन्यध्वमसुरार्दनाः ।
गरुडो बलवानेष मम तुल्यश्च तेजसा ৷৷ ११ ৷৷
अग्निदेवने कहा- असुरविनाशक देवताओ! तुम जैसा समझ रहे हो, वैसी बात नहीं है। ये महाबली गरुड हैं, जो तेजमें मेरे ही तुल्य हैं ৷৷ ११ ৷৷

जातः परमतेजस्वी विनतानन्दवर्धनः ।
तेजोराशिमिमं दृष्ट्वा युष्मान् मोहः समाविशत् ৷৷ १२ ৷৷
विनताका आनन्द बढ़ानेवाले ये परम तेजस्वी गरुड इसी रूपमें उत्पन्न हुए हैं। तेजके पुंजरूप इन गरुडको देखकर ही तुमलोगोंपर मोह छा गया है ৷৷ १२ ৷৷

नागक्षयकरश्चैव काश्यपेयो महाबलः ।
देवानां च हिते युक्तस्त्वहितो दैत्यरक्षसाम् ৷৷ १३ ৷৷
कश्यपनन्दन महाबली गरुड नागोंके विनाशक, देवताओंके हितैषी और दैत्यों तथा राक्षसोंके शत्रु हैं ৷৷ १३ ৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

न भीः कार्या कथं चात्र पश्यध्वं सहिता मम ।
एवमुक्तास्तदा गत्वा गरुडं वाग्भिरस्तुवन् ৷৷ १४ ৷৷
ते दूसदभ्युपेत्यैनं देवाः सर्षिगणास्तदा ।
इनसे किसी प्रकारका भय नहीं करना चाहिये। तुम मेरे साथ चलकर इनका दर्शन करो। अग्निदेवके ऐसा कहनेपर उस समय देवताओं तथा ऋषियोंने गरुडके पास जाकर अपनी वाणीद्वारा उनका इस प्रकार स्तवन किया (यहाँ परमात्माके रूपमें गरुडकी स्तुति की गयी है) ৷৷ १४ ৷৷

देवा ऊचुः
त्वमृषिस्त्वं महाभागस्त्वं देवः पतगेश्वरः ৷৷ १५ ৷৷
देवता बोले- प्रभो! आप मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं; आप ही महाभाग देवता तथा आप ही पतगेश्वर (पक्षियों तथा जीवोंके स्वामी) हैं ৷৷ १५ ৷৷

त्वं प्रभुस्तपनः सूर्यः परमेष्ठी प्रजापतिः ।
त्वमिन्द्रस्त्वं हयमुखस्त्वं शर्वस्त्वं जगत्पतिः ৷৷ १६ ৷৷
आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी तथा प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र हैं, आप ही हयग्रीव हैं
, आप ही शिव हैं तथा आप ही जगत के स्वामी हैं ৷৷ १६ ৷৷

त्वं मुखं पद्मजो विप्रस्त्वमग्निः पवनस्तथा ।
त्वं हि धाता विधाता च त्वं विष्णुः सुरसत्तमः ৷৷ १७ ৷৷
आप ही भगवान के मुखस्वरूप ब्राह्मण, पद्मयोनि ब्रह्मा और विज्ञानवान् विप्र हैं, आप ही अग्नि तथा वायु हैं, आप ही धाता, विधाता और देवश्रेष्ठ विष्णु हैं ৷৷ १७ ৷৷

त्वं महानभिभूः शश्वदमृतं त्वं महद् यशः ।
त्वं प्रभास्त्वमभिप्रेतं त्वं नस्त्राणमनुत्तमम् ৷৷ १८ ৷৷
आप ही महत्तत्त्व और अहंकार हैं। आप ही सनातन, अमृत और महान् यश हैं। आप ही प्रभा और आप ही अभीष्ट पदार्थ हैं। आप ही हमलोगोंके सर्वोत्तम रक्षक हैं ৷৷ १८ ৷৷

बलोर्मिमान् साधुरदीनसत्त्वः समृद्धिमान् दुर्विषहस्त्वमेव ।
त्वत्तः सृतं सर्वमहीनकीर्ते ह्यनागतं चोपगतं च सर्वम् ৷৷ १९ ৷৷
आप बलके सागर और साधु पुरुष हैं। आपमें उदार सत्त्वगुण विराजमान है। आप महान् ऐश्वर्यशाली हैं। युद्धमें आपके वेगको सह लेना सभीके लिये सर्वथा कठिन है। पुण्यश्लोक ! यह सम्पूर्ण जगत् आपसे ही प्रकट हुआ है। भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ आप ही हैं ৷৷ १९ ৷৷

त्वमुत्तमः सर्वमिदं चराचरं गभस्तिभिर्भानुरिवावभाससे ।
समाक्षिपन् भानुमतः प्रभां मुहु- स्त्वमन्तकः सर्वमिदं ध्रुवाध्रुवम् ৷৷ २० ৷৷
आप उत्तम हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आप इस सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं। आप ही सबका अन्त करनेवाले काल हैं और बारम्बार सूर्यकी प्रभाका उपसंहार करते हुए इस समस्त क्षर और अक्षररूप जगत का संहार करते हैं ৷৷ २० ৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

दिवाकरः परिकुपितो यथा दहेत् प्रजास्तथा दहसि हुताशनप्रभ ।
भयंकरः प्रलय इवाग्निरुत्थितो विनाशयन् युगपरिवर्तनान्तकृत् ৷৷ २१ ৷৷
अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले देव! जैसे सूर्य क्रुद्ध होनेपर सबको जला सकते हैं, उसी प्रकार आप भी कुपित होनेपर सम्पूर्ण प्रजाको दग्ध कर डालते हैं। आप युगान्तकारी कालके भी काल हैं और प्रलयकालमें सबका विनाश करनेके लिये भयंकर संवर्तकाग्निके रूपमें प्रकट होते हैं ৷৷ २१ ৷৷

खगेश्वरं शरणमुपागता वयं महौजसं ज्वलनसमानवर्चसम् ।
तडित्प्रभं वितिमिरमभ्रगोचरं महाबलं गरुडमुपेत्य खेचरम् ৷৷ २२ ৷৷
आप सम्पूर्ण पक्षियों एवं जीवोंके अधीश्वर हैं। आपका ओज महान् है। आप अग्निके समान तेजस्वी हैं। आप बिजलीके समान प्रकाशित होते हैं। आपके द्वारा अज्ञानपुंजका निवारण होता है। आप आकाशमें मेघोंकी भाँति विचरनेवाले महापराक्रमी गरुड हैं। हम यहाँ आकर आपके शरणागत हो रहे हैं ৷৷ २२ ৷৷

परावरं वरदमजय्यविक्रमं तवौजसा सर्वमिदं प्रतापितम् ।
जगत्प्रभो तप्तसुवर्णवर्चसा त्वं पाहि सर्वांश्च सुरान् महात्मनः ৷৷ २३ ৷৷
आप ही कार्य और कारणरूप हैं। आपसे ही सबको वर मिलता है। आपका पराक्रम अजेय है। आपके तेजसे यह सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो उठा है। जगदीश्वर ! आप तपाये हुए सुवर्णके समान अपने दिव्य तेजसे सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा पुरुषोंकी रक्षा करें ৷৷ २३ ৷৷

भयान्विता नभसि विमानगामिनो विमानिता विपथगतिं प्रयान्ति ते ।
ऋषेः सुतस्त्वमसि दयावतः प्रभो महात्मनः खगवर कश्यपस्य ह ৷৷ २४ ৷৷
पक्षिराज ! प्रभो! विमानपर चलनेवाले देवता आपके तेजसे तिरस्कृत एवं भयभीत हो आकाशमें पथभ्रष्ट हो जाते हैं। आप दयालु महात्मा महर्षि कश्यपके पुत्र हैं ৷৷ २४ ৷৷

स मा क्रुधः कुरु जगतो दयां परां त्वमीश्वरः प्रशममुपैहि पाहि नः ।
महाशनिस्फुरितसमस्वनेन ते दिशोऽम्बरं त्रिदिवमियं च मेदिनी ৷৷ २५ ৷৷
चलन्ति नः खग हृदयानि चानिशं निगृह्यतां वपुरिदमग्निसंनिभम् ।
तव द्युतिं कुपितकृतान्तसंनिभां निशम्य नश्चलति मनोऽव्यवस्थितम्
प्रसीद नः पतगपते प्रयाचतां शिवश्च नो भव भगवन् सुखावहः ৷৷ २६ ৷৷
प्रभो! आप कुपित न हों, सम्पूर्ण जगत्पर उत्तम दयाका विस्तार करें। आप ईश्वर हैं, अतः शान्ति धारण करें और हम सबकी रक्षा करें। महान् वज्रकी गड़गड़ाहटके समान आपकी गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्वर्ग तथा यह पृथ्वी सब-के-सब विचलित हो उठे हैं और हमारा हृदय भी निरन्तर काँपता रहता है। अतः खगश्रेष्ठ ! आप अग्निके समान तेजस्वी अपने इस भयंकर रूपको शान्त कीजिये। क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान आपकी उग्र कान्ति देखकर हमारा मन अस्थिर एवं चंचल हो जाता है। आप हम याचकोंपर प्रसन्न होइये। भगवन्! आप हमारे लिये कल्याणस्वरूप और सुखदायक हो जाइये ৷৷ २५-२६ ৷৷

एवं स्तुतः सुपर्णस्तु देवैः सर्षिगणैस्तदा ।
तेजसः प्रतिसंहारमात्मनः स चकार ह ৷৷ २७ ৷৷
ऋषियोंसहित देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर उत्तम पंखोंवाले गरुडने उस समय अपने तेजको समेट लिया ৷৷ २७ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयोविंशोऽध्यायः ৷৷ २३ ৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ २३ ৷৷

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गोविंद स्तोत्रम

अध्याय चौबीस

गरुडके द्वारा अपने तेज और शरीरका संकोच तथा सूर्यके क्रोधजनित तीव्र
तेजकी शान्तिके लिये अरुणका उनके रथपर स्थित होना

सौतिरुवाच
स श्रुत्वाथात्मनो देहं सुपर्णः प्रेक्ष्य च स्वयम् ।
शरीरप्रतिसंहारमात्मनः सम्प्रचक्रमे ৷৷ १ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकादि महर्षियो ! देवताओंद्वारा की हुई स्तुति सुनकर गरुडजीने स्वयं भी अपने शरीरकी ओर दृष्टिपात किया और उसे संकुचित कर लेनेकी तैयारी करने लगे ৷৷ १ ৷৷

सुपर्ण उवाच
न मे सर्वाणि भूतानि विभियुर्देहदर्शनात् ।
भीमरूपात् समुद्विग्नास्तस्मात् तेजस्तु संहरे ৷৷ २ ৷৷
गरुडजीने कहा-देवताओ ! मेरे इस शरीरको देखनेसे संसारके समस्त प्राणी उस भयानक स्वरूपसे उद्विग्न होकर डर न जायँ इसलिये मैं अपने तेजको समेट लेता हूँ ৷৷ २ ৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

सौतिरुवाच
ततः कामगमः पक्षी कामवीर्यो विहंगमः ।
अरुणं चात्मनः पृष्ठमारोप्य स पितुर्गृहात् ৷৷ ३ ৷৷
मातुरन्तिकमागच्छत् परं तीरं महोदधेः ।
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तदनन्तर इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम प्रकट करनेवाले पक्षी गरुड अपने भाई अरुणको पीठपर चढ़ाकर पिताके घरसे माताके समीप महासागरके दूसरे तटपर आये ৷৷ ३ ৷৷

तत्रारुणश्च निक्षिप्तो दिशं पूर्वा महाद्युतिः ৷৷ ४ ৷৷
सूर्यस्तेजोभिरत्युग्रैर्लोकान् दग्धुमना यदा ।
जब सूर्यने अपने भयंकर तेजके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध करनेका विचार किया, उस समय गरुडजी महान् तेजस्वी अरुणको पुनः पूर्व दिशामें लाकर सूर्यके समीप रख आये ৷৷ ४ ৷৷

रुरुरुवाच
किमर्थं भगवान् सूर्यो लोकान् दग्धुमनास्तदा ৷৷ ५ ৷৷
किमस्यापहृतं देवैर्येनेमं मन्युराविशत् ।
रुरुने पूछा-पिताजी ! भगवान् सूर्यने उस समय सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध कर डालनेका विचार क्यों किया? देवताओंने उनका क्या हड़प लिया था, जिससे उनके मनमें क्रोधका संचार हो गया? ৷৷ ५ ৷৷

प्रमतिरुवाच
चन्द्रार्काभ्यां यदा राहुराख्यातो ह्यमृतं पिबन् ৷৷ ६ ৷৷
वैरानुबन्धं कृतवांश्चन्द्रादित्यौ तदानघ ।
वध्यमाने ग्रहेणाथ आदित्ये मन्युराविशत् ৷৷ ७ ৷৷
प्रमतिने कहा- अनघ ! जब राहु अमृत पी रहा था, उस समय चन्द्रमा और सूर्यने उसका भेद बता दिया; इसीलिये उसने चन्द्रमा और सूर्यसे भारी वैर बाँध लिया और उन्हें सताने लगा। राहुसे पीड़ित होनेपर सूर्यके मनमें क्रोधका आवेश हुआ ৷৷ ६-७ ৷৷

सुरार्थाय समुत्पन्नो रोषो राहोस्तु मां प्रति ।
बह्वनर्थकरं पापमेकोऽहं समवाप्नुयाम् ৷৷ ८ ৷৷
वे सोचने लगे, ‘देवताओंके हितके लिये ही मैंने राहुका भेद खोला था जिससे मेरे प्रति राहुका रोष बढ़ गया। अब उसका अत्यन्त अनर्थकारी परिणाम दुःखके रूपमें अकेले मुझे प्राप्त होता है ৷৷ ८ ৷৷

सहाय एव कार्येषु न च कृच्छ्रेषु दृश्यते ।
पश्यन्ति ग्रस्यमानं मां सहन्ते वै दिवौकसः ৷৷ ९ ৷৷
‘संकटके अवसरोंपर मुझे अपना कोई सहायक ही नहीं दिखायी देता। देवतालोग मुझे राहुसे ग्रस्त होते देखते हैं तो भी चुपचाप सह लेते हैं ৷৷ ९ ৷৷

तस्माल्लोकविनाशार्थं ह्यवतिष्ठे न संशयः ।
एवं कृतमतिः सूर्यो ह्यस्तमभ्यगमद् गिरिम् ৷৷ १० ৷৷
‘अतः सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये निःसंदेह मैं अस्ताचलपर जाकर वहीं ठहर जाऊँगा।’ ऐसा निश्चय करके सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये ৷৷ १० ৷৷

तस्माल्लोकविनाशाय संतापयत भास्करः ।
ततो देवानुपागम्य प्रोचुरेवं महर्षयः ৷৷ ११ ৷৷
और वहींसे सूर्यदेवने सम्पूर्ण जगत का विनाश करनेके लिये सबको संताप देना आरम्भ किया। तब महर्षिगण देवताओंके पास जाकर इस प्रकार बोले- ৷৷ ११ ৷৷(Adi Parva Chapter 22 to 26)

अद्यार्धरात्रसमये सर्वलोकभयावहः ।
उत्पत्स्यते महान् दाहस्त्रैलोक्यस्य विनाशनः ৷৷ १२ ৷৷
‘देवगण ! आज आधी रातके समय सब लोकोंको भयभीत करनेवाला महान् दाह उत्पन्न होगा, जो तीनों लोकोंका विनाश करनेवाला हो सकता है’ ৷৷ १२ ৷৷

ततो देवाः सर्षिगणा उपगम्य पितामहम् ।
अब्रुवन् किमिवेहाद्य महद् दाहकृतं भयम् ৷৷ १३ ৷৷
न तावद् दृश्यते सूर्यः क्षयोऽयं प्रतिभाति च ।
उदिते भगवन् भानौ कथमेतद् भविष्यति ৷৷ १४ ৷৷
तदनन्तर देवता ऋषियोंको साथ ले ब्रह्माजीके पास जाकर बोले- ‘भगवन्! आज यह कैसा महान् दाहजनित भय उपस्थित होना चाहता है? अभी सूर्य नहीं दिखायी देते तो भी ऐसी गरमी प्रतीत होती है मानो जगत का विनाश हो जायगा। फिर सूर्योदय होनेपर गरमी कैसी तीव्र होगी, यह कौन कह सकता है?’ ৷৷ १३-१४ ৷৷

पितामह उवाच
एष लोकविनाशाय रविरुद्यन्तुमुद्यतः ।
दृश्यन्नेव हि लोकान् स भस्मराशीकरिष्यति ৷৷ १५ ৷৷
ब्रह्माजीने कहा- ये सूर्यदेव आज सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये ही उद्यत होना चाहते हैं। जान पड़ता है, ये दृष्टिमें आते ही सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगे ৷৷ १५ ৷৷

तस्य प्रतिविधानं च विहितं पूर्वमेव हि ।
कश्यपस्य सुतो धीमानरुणेत्यभिविश्रुतः ৷৷ १६ ৷৷
किंतु उनके भीषण संतापसे बचनेका उपाय मैंने पहलेसे ही कर रखा है। महर्षि कश्यपके एक बुद्धिमान् पुत्र हैं, जो अरुण नामसे विख्यात हैं ৷৷ १६ ৷৷

महाकायो महातेजाः स स्थास्यति पुरो रवेः ।
करिष्यति च सारथ्यं तेजश्चास्य हरिष्यति ৷৷ १७ ৷৷
लोकानां स्वस्ति चैवं स्वाद् ऋषीणां च दिवौकसाम् ।
उनका शरीर विशाल है। वे महान् तेजस्वी हैं। वे ही सूर्यके आगे रथपर बैठेंगे। उनके सारथिका कार्य करेंगे और उनके तेजका भी अपहरण करेंगे। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण लोकों, ऋषि-महर्षियों तथा देवताओंका भी कल्याण होगा ৷৷ १७ ৷৷

प्रमतिरुवाच
ततः पितामहाज्ञातः सर्वं चक्रे तदारुणः ৷৷ १८ ৷৷
उदितश्चैव सविता ह्यरुणेन समावृतः ।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यत् सूर्य मन्युराविशत् ৷৷ १९ ৷৷
प्रमति कहते हैं- तत्पश्चात् पितामह ब्रह्माजीकी आज्ञासे अरुणने उस समय सब कार्य
उसी प्रकार किया। सूर्य अरुणसे आवृत होकर उदित हुए। वत्स ! सूर्यके मनमें क्यों क्रोधका आवेश हुआ था, इस प्रश्नके उत्तरमें मैंने ये सब बातें कही हैं ৷৷ १८-१९ ৷৷

अरुणश्च यथैवास्य सारथ्यमकरोत् प्रभुः ।
भूय एवापरं प्रश्नं शृणु पूर्वमुदाहृतम् ৷৷ २० ৷৷
शक्तिशाली अरुणने सूर्यके सारथिका कार्य क्यों किया, यह बात भी इस प्रसंगमें स्पष्ट हो गयी है। अब अपने पूर्वकथित दूसरे प्रश्नका पुनः उत्तर सुनो ৷৷ २० ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुर्विंशोऽध्यायः ৷৷ २४ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ २४ ৷৷

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

अध्याय पच्चीसवाँ

सूर्यके तापसे मूर्च्छित हुए सर्पोंकी रक्षाके लिये कद्रूद्वारा इन्द्रदेवकी स्तुति

सौतिरुवाच
ततः कामगमः पक्षी महावीर्यो महाबलः ।
मातुरन्तिकमागच्छत् परं पारं महोदधेः ৷৷ १ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकादि महर्षियो ! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करनेवाले महान् पराक्रमी तथा महाबली गरुड समुद्रके दूसरे पार अपनी माताके समीप आये ৷৷ १ ৷৷

यत्र सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता ।
अतीव दुःखसंतप्ता दासीभावमुपागता ৷৷ २ ৷৷
जहाँ उनकी माता विनता बाजी हार जानेसे दासी-भावको प्राप्त हो अत्यन्त दुःखसे संतप्त रहती थीं ৷৷ २ ৷৷

ततः कदाचिद् विनतां प्रणतां पुत्रसंनिधौ ।
काले चाहूय वचनं कद्रूरिदमभाषत ৷৷ ३ ৷৷
एक दिन अपने पुत्रके समीप बैठी हुई विनय-शील विनताको किसी समय बुलाकर कढूने यह बात कही- ৷৷ ३ ৷৷

नागानामालयं भद्रे सुरम्यं चारुदर्शनम् ।
समुद्रकुक्षावेकान्ते तत्र मां विनते नय ৷৷ ४ ৷৷
‘कल्याणी विनते ! समुद्रके भीतर निर्जन प्रदेशमें एक बहुत रमणीय तथा देखनेमें अत्यन्त मनोहर नागोंका निवासस्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल’ ৷৷ ४ ৷৷

ततः सुपर्णमाता तामवहत् सर्पमातरम् ।
पन्नगान् गरुडश्चापि मातुर्वचनचोदितः ৷৷ ५ ৷৷
तब गरुडकी माता विनता सर्पोंकी माता कद्रूको अपनी पीठपर ढोने लगी। इधर माताकी आज्ञासे गरुड भी सौंको अपनी पीठपर चढ़ाकर ले चले ৷৷ ५ ৷৷

स सूर्यमभितो याति वैनतेयो विहंगमः ।
सूर्यरश्मिप्रतप्ताश्च मूर्च्छिताः पन्नगाभवन् ৷৷ ६ ৷৷
पक्षिराज गरुड आकाशमें सूर्यके निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्यकी किरणोंसे संतप्त हो मूर्च्छित हो गये ৷৷ ६ ৷৷

तदवस्थान् सुतान् दृष्ट्वा कद्रूः शक्रमथास्तुवत् ।
नमस्ते सर्वदेवेश नमस्ते बलसूदन ৷৷ ७ ৷৷
अपने पुत्रोंको इस दशामें देखकर कद्रू इन्द्रकी स्तुति करने लगी- ‘सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर ! तुम्हें नमस्कार है। बलसूदन ! तुम्हें नमस्कार है ৷৷ ७ ৷৷

नमुचिघ्न नमस्तेऽस्तु सहस्राक्ष शचीपते ।
सर्पाणां सूर्यतप्तानां वारिणा त्वं प्लवो भव ৷৷ ८ ৷৷
‘सहस्र नेत्रोंवाले नमुचिनाशन! शचीपते ! तुम्हें नमस्कार है। तुम सूर्यके तापसे संतप्त हुए सर्पोको जलसे नहलाकर नौकाकी भाँति उनके रक्षक हो जाओ ৷৷ ८ ৷৷

त्वमेव परमं त्राणमस्माकममरोत्तम ।
ईशो ह्यसि पयः स्रष्टुं त्वमनल्पं पुरन्दर ৷৷ ९ ৷৷
‘अमरोत्तम ! तुम्हीं हमारे सबसे बड़े रक्षक हो। पुरन्दर! तुम अधिक-से-अधिक जल बरसानेकी शक्ति रखते हो ৷৷ ९ ৷৷

त्वमेव मेघस्त्वं वायुस्त्वमग्निर्विद्युतोऽम्बरे ।
त्वमभ्रगणविक्षेप्ता त्वामेवाहुर्महाघनम् ৷৷ १० ৷৷
‘तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं आकाशमें बिजली बनकर प्रकाशित होते हो। तुम्हीं बादलोंको छिन्न-भिन्न करनेवाले हो और विद्वान् पुरुष तुम्हें ही महामेघ कहते हैं ৷৷ १० ৷৷

त्वं वज्रमतुलं घोरं घोषवांस्त्वं बलाहकः ।
स्रष्टा त्वमेव लोकानां संहर्ता चापराजितः ৷৷ ११ ৷৷
‘संसारमें जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वज्र तुम्हीं हो, तुम्हीं भयंकर गर्जना करनेवाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ) हो। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि और संहार
करनेवाले हो। तुम कभी परास्त नहीं होते ৷৷ ११ ৷৷

त्वं ज्योतिः सर्वभूतानां त्वमादित्यो विभावसुः ।
त्वं महद्भूतमाश्चर्य त्वं राजा त्वं सुरोत्तमः ৷৷ १२ ৷৷
‘तुम्हीं समस्त प्राणियोंकी ज्योति हो। सूर्य और अग्नि भी तुम्हीं हो। तुम आश्चर्यमय महान् भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ हो ৷৷ १२ ৷৷

त्वं विष्णुस्त्वं सहस्राक्षस्त्वं देवस्त्वं परायणम् ।
त्वं सर्वममृतं देव त्वं सोमः परमार्चितः ৷৷ १३ ৷৷
‘तुम्हीं सर्वव्यापी विष्णु, सहस्रलोचन इन्द्र, द्युतिमान् देवता और सबके परम आश्रय हो। देव! तुम्हीं सब कुछ हो। तुम्हीं अमृत हो और तुम्हीं परम पूजित सोम हो ৷৷ १३ ৷৷

त्वं मुहूर्तस्तिथिस्त्वं च त्वं लवस्त्वं पुनः क्षणः ।
शुक्लस्त्वं बहुलस्त्वं च कला काष्ठा त्रुटिस्तथा ।
संवत्सरर्तवो मासा रजन्यश्च दिनानि च ৷৷ १४ ৷৷
‘तुम मुहूर्त हो, तुम्हीं तिथि हो, तुम्हीं लव तथा तुम्हीं क्षण हो। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष भी तुमसे भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। संवत्सर, ऋतु,
मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्हीं हो ৷৷ १४ ৷৷

त्वमुत्तमा सगिरिवना वसुन्धरा सभास्करं वितिमिरमम्बरं तथा ।
महोदधिः सतिमितिमिंगिलस्तथा महोर्मिमान् बहुमकरो झषाकुलः ৷৷ १५ ৷৷
‘तुम्हीं पर्वत और वनोंसहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्हीं अन्धकाररहित एवं सूर्यसहित आकाश हो। तिमि और तिमिंगिलोंसे भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्योंसे व्याप्त तथा उत्ताल तरंगोंसे सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो ৷৷ १५ ৷৷

महायशास्त्वमिति सदाभिपूज्यसे मनीषिभिर्मुदितमना महर्षिभिः ।
अभिष्टुतः पिबसि च सोममध्वरे वषट्कृतान्यपि च हवींषि भूतये ৷৷ १६ ৷৷
‘तुम महान् यशस्वी हो। ऐसा समझकर मनीषी पुरुष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं। तुम यजमानकी अभीष्टसिद्धि करनेके लिये यज्ञमें मुदित मनसे सोमरस पीते हो और वषट्कारपूर्वक समर्पित किये हुए हविष्य भी ग्रहण करते हो ৷৷ १६ ৷৷

त्वं विप्रैः सततमिहेज्यसे फलार्थ वेदाङ्गेष्वतुलबलौघ गीयसे च ।
त्वद्धेतोर्यजनपरायणा द्विजेन्द्रा वेदाङ्गान्यभिगमयन्ति सर्वयत्नैः ৷৷ १७ ৷৷
‘इस जगत्में अभीष्ट फलकी प्राप्तिके लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं। अतुलित बलके भण्डार इन्द्र ! वेदांगोंमें भी तुम्हारी ही महिमाका गान किया गया है। यज्ञपरायण श्रेष्ठ द्विज तुम्हारी प्राप्तिके लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदांगोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं (यहाँ कद्रूके द्वारा ईश्वररूपसे इन्द्रकी स्तुति की गयी है)’ ৷৷ १७ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे पञ्चविंशोऽध्यायः ৷৷ २५ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ २५ ৷৷

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम 

अध्याय छब्बीस

इन्द्रद्वारा की हुई वर्षासे सर्पोंकी प्रसन्नता

सौतिरुवाच
एवं स्तुतस्तदा कवा भगवान् हरिवाहनः ।
नीलजीमूतसंघातैः सर्वमम्बरमावृणोत् ৷৷ १ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- नागमाता कद्रूके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् इन्द्रने मेघोंकी काली घटाओंद्वारा सम्पूर्ण आकाशको आच्छादित कर दिया ৷৷ १ ৷৷

मेघानाज्ञापयामास वर्षध्वममृतं शुभम् ।
ते मेघा मुमुचुस्तोयं प्रभूतं विद्युदुज्ज्वलाः ৷৷ २ ৷৷
साथ ही मेघोंको आज्ञा दी- ‘तुम सब शीतल जलकी वर्षा करो।’ आज्ञा पाकर बिजलियोंसे प्रकाशित होनेवाले उन मेघोंने प्रचुर जलकी वृष्टि की ৷৷ २ ৷৷

परस्परमिवात्यर्थं गर्जन्तः सततं दिवि ।
संवर्तितमिवाकाशं जलदैः सुमहाद्भुतैः ৷৷ ३ ৷৷
सृजद्भिरतुलं तोयमजस्रं सुमहारवैः ।
सम्प्रनृत्तमिवाकाशं धारोर्मिभिरनेकशः ৷৷ ४ ৷৷
वे परस्पर अत्यन्त गर्जना करते हुए आकाशसे निरन्तर पानी बरसाते रहे। जोर-जोरसे गर्जने और लगातार असीम जलकी वर्षा करनेवाले अत्यन्त अद्भुत जलधरोंने सारे आकाशको घेर-सा लिया था। असंख्य धारारूप लहरोंसे युक्त वह व्योमसमुद्र मानो नृत्य-सा कर रहा था ৷৷ ३-४ ৷৷

मेघस्तनितनिर्घोषैर्विद्युत्पवनकम्पितैः ।
तैर्मेधैः सततासारं वर्षद्भिरनिशं तदा ৷৷ ५ ৷৷
नष्टचन्द्रार्ककिरणमम्बरं समपद्यत ।
नागानामुत्तमो हर्षस्तथा वर्षति वासवे ৷৷ ६ ৷৷
भयंकर गर्जन-तर्जन करनेवाले वे मेघ बिजली और वायुसे प्रकम्पित हो उस समय निरन्तर मूसलाधार पानी गिरा रहे थे। उनके द्वारा आच्छादित आकाशमें चन्द्रमा और सूर्यकी किरणें भी अदृश्य हो गयी थीं। इन्द्रदेवके इस प्रकार वर्षा करनेपर नागोंको बड़ा हर्ष हुआ ৷৷ ५-६ ৷৷

आपूर्यत मही चापि सलिलेन समन्ततः ।
रसातलमनुप्राप्तं शीतलं विमलं जलम् ৷৷ ७ ৷৷
पृथ्वीपर सब ओर पानी-ही-पानी भर गया। वह शीतल और निर्मल जल रसातलतक पहुँच गया ৷৷ ७ ৷৷

तदा भूरभवच्छन्ना जलोर्मिभिरनेकशः ।
रामणीयकमागच्छन् मात्रा सह भुजङ्गमाः ৷৷ ८ ৷৷
उस समय सारा भूतल जलकी असंख्य तरंगोंसे आच्छादित हो गया था। इस प्रकार वर्षासे संतुष्ट हुए सर्प अपनी माताके साथ रामणीयक द्वीपमें आ गये ৷৷ ८ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे षड्विंशोऽध्यायः ৷৷ २६ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ २६ ৷৷

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