Hindu Dharm Ke 6 Shastra [4 minute]
सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं, कौन-कौन से हैं और उनके नाम क्या हैं?
जब भी कभी सनातन धर्म की चर्चा होती है तब चार वेद, अठारह पुराण , 108 उपनिषद और छः शास्त्र (Hindu Dharm Ke 6 Shastra) की चर्चा जरूर होती है। चार वेद और अठारह पुराणों के नाम तो सभी जानते है। परंतु छः शास्त्र के बारे सब कोई नहीं जानते है।
शास्त्र संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ उपदेश, नियम या अनुशासन होता है। “शास्त्र” (Hindu Dharm Ke 6 Shastra) विशिष्ट क्षेत्र या विषय पर ग्रंथ को संबोधन करता है। छः शास्त्र को छः दर्शन या षड्दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। ऋषियों ने वेद और उपनिषद का अध्ययन करके ही छः शास्त्र का निर्माण किया है।
भारत की आध्यात्मिक परम्परा विश्व की सर्वाधिक प्राचीन परम्परा है जिसका मूल 4 वेद है। वेद को ही आधार मानकर कई ऋषियों ने इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि तैयार की। सर्वप्रथम अध्यात्म के रहस्यों को जाना तथा उसके अनुरूप ही अन्य छः शास्त्र ग्रन्थों की रचना की है।
छः शास्त्र (Hindu Dharm Ke 6 Shastra) कोन से हैं? छः शास्त्र एवं रचियता के नाम निम्नलिखित है।
1) महर्षि गौतम रचित – न्याय शास्त्र
2) महर्षि पतंजलि रचित – योग शास्त्र
3) महर्षि कपिल रचित – सांख्य शास्त्र
4) महर्षि कणाद रचित – वैशेषिक शास्त्र
5) महर्षि वेदव्यास रचित – वेदान्त शास्त्र
6) महर्षि जैमिनि रचित – मीमांसा शास्त्र
1) न्याय शास्त्र
न्याय शास्त्र महर्षि गौतम द्वारा रचित शास्त्र है। गौतम ऋषि ने इस शास्त्र में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्त करने का वर्णन किया है। न्याय शास्त्र में पदार्थो के ब्रह्मज्ञान से असत्य की मुक्ति, अशुभ कर्मो, दुखों से निवृत्ति और मोह से मुक्ति होती है। न्याय शास्त्र में ईश्वर को सृष्टिकर्ता, सर्व शक्तिमान, शरीर से आत्मा को अलग और प्रकृति को निर्जीव करने का कारण माना गया है। इसके अतिरिक्त न्याय शास्त्र में न्याय करने की पद्धति और विजय और पराजय कारणों का वर्णन किया गया है।
प्रमाणैरर्थ परीक्षणं न्याय।।
अर्थ: प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा को न्याय कहा जाता है।
न्याय शास्त्र को तर्क शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। न्याय शास्त्र को आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल में विभाजित किया गया है। न्याय शास्त्र में 16 विषय दिए गए है सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, निग्रहस्थान, जाति और छल। यह सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से आत्मतत्व का साक्षात्कार होता हे, और मोक्ष प्राप्त होता है।
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2) योग शास्त्र
महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग शास्त्र में परमात्मा, प्रकृति और जीवात्मा का सम्पूर्ण वर्णन किया गया है। इसमें योग, चित्त, प्राण, आत्मा की वृत्तियां, नियंत्रण के उपाय, जीव के बंधन का कारण आदि यौगिक क्रियाओं का वर्णन मिलता है। यौगिक क्रिया के द्वारा परमात्मा का ध्यान आंतरिक हो जाता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिर्गामी हो तो ध्यान असंभव हो जाता है।
महर्षि पतंजलि के योग शास्त्र में सांख्य शास्त्र के सिद्धांतों का समर्थन किया गया है। योग शास्त्र में भी पचीस तत्त्व है, जो सांख्य शास्त्र में दिए गए है।
पतंजलि द्वारा रचित योग शास्त्र चार भाग समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य में विभाजित है। समाधि भाग में कहा गया है की योग का संकेत और लक्ष्य क्या है, और योग का साधन किस प्रकार का है। इसके साधन भाग में कर्मफल, क्लेश आदि का वर्णन किया गया है। विभूति भाग में योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि सिद्धिया प्राप्त कैसे करे यह कहा गया है। और कैवल्य भाग में मोक्ष प्राप्त करने के लिए अध्ययन किया गया है।
योग शास्त्र का निचोड़ यह है की प्रकृति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर – इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व माने गये हैं; उनमे प्रकृति तो जड और परिणामशील है अर्थात् निरन्तर परिवर्तन होना उसका धर्म है तथा मुक्त पुरुष और ईश्वर ये दोनो नित्य, चेतन, स्वप्रकाश, असङ्ग, देशकालातीत, सर्वथा निर्विकार और अपरिणामी है।
3) सांख्य शास्त्र
महर्षि कपिल द्वारा रचित इस सांख्य शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त सत्कार्यवाद है। सत्कार्यवाद के अनुसार सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है। सांख्य शास्त्र का निश्चित मत हे की अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति असंभव है। वास्तविक कारण से सत कार्य की उत्पत्ति होती है। सांख्य शास्त्र में प्रकृति से इस सृष्टि रचना और संहार के क्रम का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। सांख्य शास्त्र में पुरुष चेतन तत्व है और प्रकृति अचेतन तत्व है। इसमें पुरुष प्रकृति का भोग करनेवाला है, परंतु प्रकृति स्वयं का भोग करनेवाली नहीं है।
सांख्य शास्त्र भारत का अत्यन्त प्राचीन और आस्तिक शास्त्र है। सांख्य शब्द का अर्थ सम्यक ज्ञान तथा संख्या बताया गया है। सांख्य शास्त्र के ज्ञान का प्रामाणिक स्रोत महर्षि कपिल, निर्मित ‘सांख्य सूत्र’ और भगवान कृष्ण रचित ‘सांख्यकारिका’ है। इस शास्त्र में विकासवाद का समर्थक किया गया है। यह पुरुष और प्रकृति के सहयोग से विश्व को उत्पन्न बताता है।
4) वैशेषिक शास्त्र
महर्षि कणाद रचित द्वारा रचित वैशेषिक शास्त्र में धर्म को सत्यपरायण रूप से वर्णन किया है। वैशेषिक शास्त्र के अनुसार लौकिक प्रशंसा और निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म बताया गया है। इसलिए मानव कल्याण के लिए धर्म का आचरण करना बहोत ही जरुरी है। वैशेषिक शास्त्र में सात पदार्थ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव है। और द्रव्य नौ पृथिवी, आप, तेज, आकाश, वायु, काल, दिक्, आत्मा और मन हैं।
वैशेषिक मत में जड़ पदार्थ के तत्व ज्ञान को छोड़कर आत्म-तत्व का ज्ञान नहीं होता है। अतः मुक्ति के लिए आत्मतत्व की ज्ञान प्राप्ति के लिए वैशेषिक शास्त्र में जड़ पदार्थों की भी विस्तार से आलोचना क्रमबद्ध है।
5) वेदान्त शास्त्र
महर्षि व्यास द्वारा रचित वेदांत शास्त्र का अर्थ वेदों का अंतिम सिद्धांत होता है। वेदव्यास रचित ‘ब्रह्मसूत्र’ वेदान्त शास्त्र का मूल ग्रन्थ माना जाता है। वेदान्त शास्त्र के अनुसार ब्रह्म सृष्टि का कर्ता-धर्ता और संहार कर्ता हे। वेदान्त शास्त्र में कहा हे की `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ अर्थात जिसे ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा है, वह ब्रह्म से अलग है, नहीं तो स्वयं को जानने की अभिलाषा कैसे होती है। सबकुछ जाननेवाला जीवात्मा हमेशा अपने दुखों से मुक्त होने के उपाय करता है। परंतु ब्रह्म का गुण जीवात्मा से भिन्न है।
वेदान्त शास्त्र ज्ञानयोग का स्रोत है, जो मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में उत्साहित करता है। वैदिक साहित्य का अंतिम भाग उपनिषद है, इसलिए उपनिषद को ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है। उपनिषद को वेदो, ग्रंथो और वैदिक साहित्य का सार माना जाता है।
6) मीमांसा शास्त्र
जैमिनि ऋषि द्वारा रचित मीमांसा शास्त्र में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का का विभाग और यज्ञों की प्रक्रियाओं वर्णन है। मीमांसा शास्त्र के अनुसार यज्ञों के मंत्रों, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या को मूल आधार माना जाता है। मीमांसा शास्त्र में राष्ट्र की उन्नति के लिए मनुष्य के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन के कर्तव्यों के वर्णन के साथ-साथ अकर्तव्यों का भी वर्णन है। महर्षि जैमिनि ने धर्म के लिए वेद को भी मुख्य प्रमाण माना है।
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छः शास्त्रों में कुछ समानताएं हैं, जो निम्नलिखित है-
1) शास्त्रों में वैदिक मङ्गलाचरण ‘अथ’ शब्द से प्रारंभ होता है।
2) शास्त्रों के प्रथम सूत्र में ही अपना-अपना प्रतिपाद्य विषय अवश्य होता है।
3) शास्त्रों के उद्देश्य कथन और उसका लक्षण बताते हैं, उसका पुनः शेष परीक्षण करते हैं।
4) शास्त्रों की शैली संक्षेप में की है।
5) शास्त्रों में प्रमुख विषय का ज्ञान देने के साथ-साथ शास्त्र के उपविषयों का भी ज्ञान दिया गया हैं।
6) शास्त्रों वेदों को ही अपना प्रमाण स्वीकार करते हैं।
7) शास्त्र एक-दूसरे की कमी दूर करने वाले हैं।