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Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11

Garga Samhita
Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

 

श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड अध्याय 6 से 11
Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11

श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड (Girirajkhand Chapter 6 to 11) छठे अध्याय से ग्यारहवाँ अध्याय में गोपोंका वृषभानुवरके वैभवकी प्रशंसा करके नन्दनन्दनकी भगवत्ताका परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवरका कन्याके विवाहके लिये वरको देनेके निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराज का वधूके लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना, गिरिराज गोवर्धन सम्बन्धी तीर्थों का वर्णन, विभिन्न तीर्थोंमें गिरिराजके विभिन्न अङ्गोंकी स्थितिका वर्णन, गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन, गोवर्द्धन-शिलाके स्पर्शसे एक राक्षसका उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्धके मुखसे गोवर्द्धनकी महिमाका वर्णन और सिद्धके द्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा गोलोकसे उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोकमें गमन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

श्री गर्ग संहिता गिरिराजखण्ड

छठा अध्याय

गोपोंका वृषभानुवरके वैभवकी प्रशंसा करके नन्दनन्दनकी भगवत्ताका परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवरका कन्याके विवाहके लिये वरको देनेके निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराज का वधूके लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वृषभानुवरकी यह बात सुनकर समस्त व्रजवासी शान्त हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ १ ॥

गोप बोले- राजन् ! तुम्हारा कथन सत्य है। निश्चय ही यह राधा श्रीहरिकी प्रिया है। इसीके प्रभावसे भूतलपर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चञ्चल घोड़े तथा देवताओंके विमान- सदृश करोड़ों सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं, सुवर्ण तथा रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकारके मणिरत्न, भोजन-पान आदिका सर्वविध सौख्य-यह सब इस समय तुम्हारे घरमें प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है।(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति। तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घरमें कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो! यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्दके वैभवकी परीक्षा कराइये ॥२-८॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर! उन्होंने स्थूल मोतियोंके एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके यहाँ भेजा। नन्दराजको सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा ॥ ९-१२॥

वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं। प्रभो ! वैश्य- प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको यहाँ भेजा है। आप वरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण कीजिये। फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये। यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है ॥ १३-१५॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस उत्कृष्ट द्रव्यराशिको देखकर नन्दराज बड़े विस्मित हुए; तो भी वे कुछ विचारकर यशोदाजीसे ‘उसके तुल्य रत्न- राशि है या नहीं’ इस बातको पूछनेके लिये वह सब सामान लेकर अन्तःपुरमें गये। वहाँ उस समय नन्द और यशस्विनी यशोदाने चिरकालतक विचार किया, किंतु (अन्ततोगत्वा) इसी निष्कर्षपर पहुँचे कि ‘इस मौक्तिकराशिके बराबर दूसरी कोई द्रव्यराशि मेरे घरमें नहीं है। आज लोगोंमें हमारी सारी लाज गयी। हम- लोगोंकी सब ओर हँसी उड़ायी जायगी। इस धनके बदलेमें हम दूसरा कौन-सा धन दें? क्या करें ? श्रीकृष्णके इस विवाहके निमित्त हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये? पहले तो जो कुछ वरके लिये आया है, उसे ग्रहण कर लेना चाहिये। पीछे अपने पास धन आनेपर वधूके लिये उपहार भेजा जायगा। ऐसा विचार करते हुए नन्द और यशोदाजीके पास भगवान् अघमर्दन श्रीकृष्ण अलक्षितभावसे ही वहाँ आ गये। उन मौक्तिक हारोंमेंसे सौ हार उन्होंने घरसे बाहर खेतोंमें ले जाकर, अपने हाथसे मोतीका एक-एक दाना लेकर, उन्होंने उसी भाँति सारे खेतमें छींट दिया, जैसे किसान अपने खेतोंमें अनाजके दाने बिखेर देता है। तदनन्तर नन्द भी जब उन मुक्तामालाओंकी गणना करने लगे, तब उनमें सौ मालाओंकी कमी देखकर उनके मनमें संदेह हुआ ॥ १६-२२ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

नन्दजी बोले- हाय! पहले तो मेरे घरमै जिस रत्नराशिके समान दूसरी कोई रनराशि थी ही नहीं, उसमें भी अब सौकी कमी हो गयी। अहो! चारों ओरसे भाई-बन्धुओंके बीच मुझपर बड़ा भारी कलङ्क पोता जायगा। अथवा यदि श्रीकृष्ण या बलरामने खेलनेके लिये उसमेंसे कुछ मोती निकाल लिये हों तो अब दीनचित्त होकर मैं उन्हीं दोनों बालकोंसे पूहूँगा ॥ २३-२४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार विचारकर नन्दने भी श्रीकृष्णसे उन मोतियोंके विषयमें आदरपूर्वक पूछा। तब जोरसे हँसते हुए गोवर्धनधारी भगवान् नन्दसे बोले ॥ २५ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- बाबा! हम सारे गोष किसान हैं, जो खेतोंमें सब प्रकारके बीज बोया करते हैं; अतः हमने खेतमें मोतीके बीज बिखेर दिये हैं॥ २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। बेटेके मुँहसे यह बात सुनकर व्रजेश्वर नन्दने उसे डाँट बतायी और उन सबको चुन-बीनकर लानेके लिये उसके साथ खेतोंमें गये। वहाँ मुक्ताफलके सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे पल्लवोंसे सुशोभित और विशालकाय थे। नरेश्वर! जैसे आकाशमें झुंड-के-झुंड तारे शोभा पाते हैं, उसी प्रकार उन वृक्षोंमें कोटि-कोटि मुक्ताफलोंके गुच्छे समूह-के-समूह लटके हुए सुशोभित हो रहे थे। तब हर्षसे भरे हुए ब्रजेश्वर नन्दराजने श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर पहलेके समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षोंसे तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार गाड़ियोंपर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओंको दे दिये। नरेश्वर। वह सब लेकर वे वरदर्शी लोग वृष- भानुवरके पास गये और सबके सुनते हुए नन्दराजके अनुपम वैभवका वर्णन करने लगे ॥ २७-३२ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द- नन्दनको साक्षात् श्रीहरि जानकर समस्त व्रज- वासियोंका संशय दूर हो गया और उन्होंने वृषभानुवरको प्रणाम किया। मिथिलेश्वर! उसी दिनसे व्रजके सब लोगोंने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरिकी प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधाके प्राणवल्लभ हैं। मिथिलापते। जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरिने मोती बिखेरे थे, वहाँ ‘मुक्ता-सरोवर’ प्रकट हो गया, जो तीर्थोंका राजा है। जो वहाँ एक मोतीका भी दान करता है, वह लाख मोतियोंके दानका फल पाता है, इसमें संशय नहीं है। राजन्। इस प्रकार मैंने तुमसे गिरिराज-महोत्सवका वर्णन किया, जो मनुष्योंके लिये भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३३-३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीहरिकी भगवत्ताका परीक्षण’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

सातवाँ अध्याय

गिरिराज गोवर्धन सम्बन्धी तीर्थों का वर्णन

बहुलाश्वने पूछा- महायोगिन् ! आप साक्षात् दिव्यदृष्टिसे सम्पन्न हैं; अतः यह बताइये कि महात्मा गिरिराजके आस-पास अथवा उनके ऊपर कितने मुख्य तीर्थ हैं? ॥१॥

श्रीनारद बोले – राजन् ! समूचा गोवर्धन पर्वत ही सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना जाता है। वृन्दावन साक्षात् गोलोक है और गिरिराजको उसका मुकुट बताकर सम्मानित किया गया है। वह पर्वत गोपों, गोपियों तथा गौओंका रक्षक एवं महान् कृष्णप्रिय है। जो साक्षात् पूर्णब्रह्मका छत्र बन गया, उससे श्रेष्ठ तीर्थ दूसरा कौन है। भुवनेश्वर एवं साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने, जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके स्वामी तथा परात्पर पुरुष हैं, अपने समस्त जनोंके साथ इन्द्रयागको धता बताकर जिसका पूजन आरम्भ किया, उस गिरिराजसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा। मैथिल! जिस पर्वतपर स्थित हो भगवान् श्रीकृष्ण सदा ग्वाल-बालोंके साथ क्रीड़ा करते हैं, उसकी महिमाका वर्णन करनेमें तो चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। जहाँ बड़े-बड़े पापोंकी राशिका नाश करनेवाली मानसी गङ्गा विद्यमान हैं, विशद गोविन्दकुण्ड तथा शुभ्र चन्द्रसरोवर शोभा पाते हैं, जहाँ राधाकुण्ड, कृष्णकुण्ड, ललिताकुण्ड, गोपाल- कुण्ड तथा कुसुमसरोवर सुशोभित हैं, उस गोवर्धनकी महिमाका कौन वर्णन कर सकता है। श्रीकृष्णके मुकुटका स्पर्श पाकर जहाँकी शिला मुकुटके चिह्नसे सुशोभित हो गयी, उस शिलाका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य देवशिरोमणि हो जाता है। जिस शिलापर श्रीकृष्णने चित्र अङ्कित किये हैं, वह चित्रित और पवित्र ‘चित्रशिला’ नामकी शिला आज भी गिरिराजके शिखरपर दृष्टिगोचर होती है। बालकोंके साथ क्रीड़ामें संलग्न श्रीकृष्णने जिस शिलाको बजाया था, वह महान् पापसमूहाँका नाश करनेवाली शिला ‘वादिनी शिला’ (बाजनी शिला) के नामसे प्रसिद्ध हुई। मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने ग्वाल-बालोंके साथ कन्दुक-क्रीड़ा की थी, उसे ‘कन्दुकक्षेत्र’ कहते हैं। वहाँ ‘शक्रपद’ और ‘ब्रह्मपद’ नामक तीर्थ हैं, जिनका दर्शन और जिन्हें प्रणाम करके मनुष्य इन्द्रलोक और ब्रह्मलोकमें जाता है। जो वहाँकी धूलमें लोटता है, वह साक्षात् विष्णुपदको प्राप्त होता है। जहाँ माधवने गोपोंकी पगड़ियाँ चुरायी थीं, वह महापापहारी तीर्थ उस पर्वतपर ‘औष्णीष’ नामसे प्रसिद्ध है ॥ २-१४॥

एक समय वहाँ दधि बेचनेके लिये गोपवधुओंका समुदाय आ निकला। उनके नूपुरोंकी झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्णने निकट आकर उनकी राह रोक ली। वंशी और वेत्र धारण किये श्रीकृष्णने ग्वाल- बालोंद्वारा उनको चारों ओरसे घेर लिया और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्गमें उन गोपियोंसे बोले- ‘इस मार्गपर हमारी ओरसे कर वसूल किया जाता है, सो तुमलोग हमारा दान दे दो’ ॥ १५-१६ ॥

गोपियाँ बोलीं- तुम बड़े टेढ़े हो, जो ग्वाल- बालोंके साथ राह रोककर खड़े हो गये ? तुम बड़े गोरस-लम्पट हो। हमारा रास्ता छोड़ दो, माँ-बापसहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कारागारमें डलवा देंगी ॥ १७ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

श्रीभगवान्ने कहा – अरी! कंसका क्या डर दिखाती हो? मैं गौओंकी शपथ खाकर कहता हूँ, महान् उग्रदण्ड धारण करनेवाले कंसको मैं उसके बन्धु-बान्धवसहित मार डालूंगा; अथवा मैं उसे मथुरासे गोवर्धनकी घाटीमें खींच लाऊँगा ॥ १८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बालकोंद्वारा पृथक् पृथक् सबके दहीपात्र मँगवाकर नन्दनन्दनने बड़े आनन्दके साथ भूमिपर पटक दिये। गोपियाँ परस्पर कहने लगीं-‘अहो! यह नन्दका लाला तो बड़ा ही ढीठ और निडर है, निरङ्कुश है। इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये। यह गाँवमें तो निर्बल बना रहता है और वनमें आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी और नन्दरायजीसे कहती हैं।’-यों कहकर गोपियाँ मुस्कराती हुई अपने घरको लौट गयीं ॥ १९-२१ ॥

इधर माधवने कदम्ब और पलाशके पत्तेके दोने बनाकर बालकोंके साथ चिकना चिकना दही ले- लेकर खाया। तबसे वहाँके वृक्षोंके पत्ते दोनेके आकारके होने लग गये। नृपेश्वर! वह परम पुण्य क्षेत्र ‘द्रोण’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। जो मनुष्य वहाँ दहीदान करके स्वयं भी पत्तेमें रखे हुए दहीको पीकर उस तीर्थको नमस्कार करता है, उसकी गोलोकसे कभी च्युति नहीं होती। जहाँ नेत्र मूंदकर माधव बालकोंके साथ लुका-छिपीके खेल खेलते थे, वहाँ ‘लौकिक’ नामक पापनाशन तीर्थ हो गया। श्रीहरिकी लीलासे युक्त जो ‘कदम्बखण्ड’ नामक तीर्थ है, वहाँ सदा ही श्रीकृष्ण लीलारत रहते हैं। इस तीर्थका दर्शन करने- मात्रसे नर नारायण हो जाता है। मैथिल! जहाँ गोवर्धनपर रासमें श्रीराधाने शृङ्गार धारण किया था, वह स्थान ‘शृङ्गारमण्डल’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ। नरेश्वर! श्रीकृष्णने जिस रूपसे गोवर्धन पर्वतको धारण किया था, उनका वही रूप शृङ्गारमण्डल-तीर्थमें विद्यमान है। जब कलियुगके चार हजार आठ सौ वर्ष बीत जायँगे, तब शृङ्गारमण्डल क्षेत्रमें गिरिराजकी गुफाके मध्यभागसे सबके देखते-देखते श्रीहरिका स्वतः सिद्ध रूप प्रकट होगा। नरेश्वर! देवताओंका अभिमान चूर्ण करनेवाले उस स्वरूपको सज्जन पुरुष ‘श्रीनाथजी’ के नामसे पुकारेंगे। राजन्। गोवर्धन पर्वतपर श्रीनाथजी सदा ही लीला करते हैं। मैथिलेन्द्र ! कलियुगमें जो लोग अपने नेत्रोंसे श्रीनाथजीके रूपका दर्शन करेंगे, वे कृतार्थ हो जायेंगे ॥ २२-३२ ॥

भगवान् भारतके चारों कोनोंमें क्रमशः जगन्नाथ, श्रीरङ्गनाथ, श्रीद्वारकानाथ और श्रीबद्रीनाथके नामसे प्रसिद्ध हैं। नरेश्वर ! भारतके मध्यभागमें भी वे गोवर्धननाथके नामसे विद्यमान हैं। इस प्रकार पवित्र भारतवर्षमें ये पाँचों नाथ देवताओंके भी स्वामी हैं। वे पाँचों नाथ सद्धर्मरूपी मण्डपके पाँच खंभे हैं और सदा आर्तजनोंकी रक्षामें तत्पर रहते हैं। उन सबका दर्शन करके नर नारायण हो जाता है। जो विद्वान् पुरुष इस भूतलपर चारों नाथोंकी यात्रा करके मध्यवर्ती देवदमन श्रीगोवर्धननाथका दर्शन नहीं करता, उसे यात्राका फल नहीं मिलता। जो गोवर्धन पर्वतपर देवदमन श्रीनाथका दर्शन कर लेता है, उसे पृथ्वीपर चारों नाथोंकी यात्राका फल प्राप्त हो जाता है ॥ ३३-३७ ॥

मैथिल ! जहाँ ऐरावत हाथी और सुरभि गौके चरणोंके चिह्न हैं, वहाँ नमस्कार करके पापी मनुष्य भी वैकुण्ठधाममें चला जाता है। जो कोई भी मनुष्य महात्मा श्रीकृष्णके हस्तचिह्नका और चरणचिह्नका दर्शन कर लेता है, वह साक्षात् श्रीकृष्णके धाममें जाता है। नरेश्वर! ये तीर्थ, कुण्ड और मन्दिर गिरिराजके अङ्गभूत हैं; उनको बता दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ३८-४० ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीगिरिराजके तीर्थोंका वर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७॥

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

आठवाँ अध्याय

विभिन्न तीर्थोंमें गिरिराजके विभिन्न अङ्गोंकी स्थितिका वर्णन

बहुलाश्वने पूछा- महाभाग ! देव !! आप पर, अपर-भूत और भविष्यके ज्ञाताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः बताइये, गिरिराजके किन-किन अङ्गोंमें कौन- कौन-से तीर्थ विद्यमान हैं? ॥१॥

श्रीनारदजी बोले – राजन्! जहाँ, जिस अङ्गकी प्रसिद्धि है, वही गिरिराजका उत्तम अङ्ग माना गया है। क्रमशः गणना करनेपर कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जो गिरिराजका अङ्ग न हो। मानद! जैसे ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है और सारे अङ्ग उसीके हैं, उसी प्रकार विभूति और भावकी दृष्टिसे गोवर्धनके जो शाश्वत अङ्ग माने जाते हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ॥ २-३ ॥

शृङ्गारमण्डलके अधोभागमें श्रीगोवर्धनका मुख है, जहाँ भगवान्ने व्रजवासियोंके साथ अन्नकूटका उत्सव किया था। ‘मानसी गङ्गा’ गोवर्धनके दोनों नेत्र हैं, ‘चन्द्रसरोवर’ नासिका, ‘गोविन्दकुण्ड’ अधर और ‘श्रीकृष्णकुण्ड’ चिबुक है। ‘राधाकुण्ड’ गोवर्धनकी जिह्ना और ‘ललितासरोवर’ कपोल है। ‘गोपालकुण्ड’ कान और ‘कुसुमसरोवर’ कर्णान्तभाग है। मिथिलेश्वर ! जिस शिलापर मुकुटका चिह्न है, उसे गिरिराजका ललाट समझो। ‘चित्रशिला’ उनका मस्तक और ‘वादिनी शिला’ उनकी ग्रीवा है। ‘कन्दुकतीर्थ’ उनका पार्श्वभाग है और ‘उष्णीषतीर्थ’ को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है। ‘द्रोणतीर्थ’ पृष्ठदेशमें और ‘लौकिकतीर्थ’ पेटमें है। ‘कदम्बखण्ड’ हृदयस्थलमें है। ‘शृङ्गारमण्डलतीर्थ’ उनका जीवात्मा है। ‘श्रीकृष्ण चरण-चिह्न’ महात्मा गोवर्धनका मन है। ‘हस्तचिह्नतीर्थ’ बुद्धि तथा ‘ऐरावत-चरणचिह्न’ उनका चरण है। सुरभिके चरण- चिह्नों में महात्मा गोवर्धनके पंख हैं। ‘पुच्छकुण्ड’ में पूँछकी भावना की जाती है। ‘वत्सकुण्ड’ में उनका बल, ‘रुद्रकुण्ड’ में क्रोध तथा ‘इन्द्रसरोवर’ में कामकी स्थिति है। ‘कुबेरतीर्थ’ उनका उद्योगस्थल और ‘ब्रह्मतीर्थ’ प्रसन्नताका प्रतीक है। पुराणवेत्ता पुरुष ‘यमतीर्थ ‘में गोवर्धनके अहंकारकी स्थिति बताते हैं ॥४-१२॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

मैथिल ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सर्वत्र गिरिराजके अङ्ग बताये हैं, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं। जो नरश्रेष्ठ गिरिराजकी इस विभूतिको सुनता है, वह योगिजनदुर्लभ ‘गोलोक’ नामक परमधाममें जाता है। गिरिराजोंका भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरिके वक्षःस्थलसे प्रकट हुआ है और पुलस्त्यमुनिके तेजसे इस व्रजमण्डलमें उसका शुभागमन हुआ है। उसके दर्शनसे मनुष्यका इस लोकमें पुनर्जन्म नहीं होता ॥ १३-१५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘गिरिराजकी विभूतियोंका वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥८॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “शिव तांडव स्तोत्र”

नवाँ अध्याय

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन

बहुलाश्व बोले- देवर्षे ! महान् आश्वर्यकी बात है, गोवर्धन साक्षात् पर्वतोंका राजा एवं श्रीहरिको बहुत ही प्रिय है। उसके समान दूसरा तीर्थ न तो इस भूतलपर है और न स्वर्गमें ही। महामते! आप साक्षात् श्रीहरिके हृदय हैं। अतः अब यह बताइये कि यह गिरिराज श्रीकृष्णके वक्षःस्थलसे कब प्रकट हुआ ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! महामते ! गोलोकके प्राकट्यका वृत्तान्त सुनो यह श्रीहरिकी आदिलीलासे सम्बद्ध है और मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है। प्रकृतिसे परे विद्यमान साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण पुरुष एवं अनादि आत्मा हैं। उनका तेज अन्तर्मुखी है। वे स्वयंप्रकाश प्रभु निरन्तर रमणशील हैं, जिनपर धामाभिमानी गणनाशील देवताओंका ईश्वर ‘काल’ भी शासन करनेमें समर्थ नहीं है। राजन्! माया भी जिनपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उनपर महत्तत्त्व और सत्त्वादि गुणोंका वश तो चल ही कैसे सकता है। राजन्। उनमें कभी मन, चित्त, बुद्धि और अहंकारका भी प्रवेश नहीं होता। उन्होंने अपने संकल्पसे अपने ही स्वरूपमें साकार ब्रह्मको व्यक्त किया ॥३-६३॥

सबसे पहले विशालकाय शेषनागका प्रादुर्भाव हुआ, जो कमलनालके समान श्वेतवर्णके हैं। उन्हींकी गोदमें लोकवन्दित महालोक गोलोक प्रकट हुआ, जिसे पाकर भक्तियुक्त पुरुष फिर इस संसारमें नहीं लौटता। फिर असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति गोलोकनाथ भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दसे त्रिपथगा गङ्गा प्रकट हुई। नरेश्वर । तत्पश्चात् श्रीकृष्णके बायें कंधेसे सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजीका प्रादुर्भाव हुआ, जो शृङ्गार-कुसुमोंसे उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ीके वस्त्रकी शोभा होती है। तदनन्तर भगवान् श्रीहरिके दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्ठियों) से हेमरत्नोंसे युक्त दिव्य रासमण्डल और नाना प्रकारके शृङ्गार-साधनोंके समूहका प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद महात्मा श्रीकृष्णकी दोनों पिंडलियोंसे निकुञ्ज प्रकट हुआ, जो सभाभवनों, आँगनों, गलियों और मण्डपोंसे घिरा हुआ था। वह निकुञ्ज वसन्तकी माधुरी धारण किये हुए था। उसमें कूजते हुए कोकिलोंकी काकली सर्वत्र व्यास थी। मोर, भ्रमर तथा विविध सरोवरोंसे भी वह परिशोभित एवं परिसेवित दिखायी देता था। राजन् ! भगवान्के दोनों घुटनोंसे सम्पूर्ण वनोंमें उत्तम श्रीवृन्दावनका आविर्भाव हुआ। साथ ही उन साक्षात् परमात्माकी दोनों जाँघोंसे लीला- सरोवर प्रकट हुआ। उनके कटिप्रदेशसे दिव्य रनोंद्वारा जटित प्रभामयी स्वर्णभूमिका प्राकट्य हुआ और उनके उदरमें जो रोमावलियाँ हैं, वे ही विस्तृत माधवी लताएँ बन गर्यो। उन लताओंमें नाना प्रकारके पक्षियों के झुंड सब ओर फैलकर कलरव कर रहे थे। गुंजार करते हुए भ्रमर उन लता-कुओंकी शोभा बढ़ा रहे थे। वे लताएँ सुन्दर फूलों और फलोंके भारसे इस प्रकार झुकी हुई थीं, जैसे उत्तम कुलको कन्याएँ लज्जा और विनयके भारसे नतमस्तक रहा करती हैं। भगवान्के नाभिकमलसे सहस्रों कमल प्रकट हुए, जो हरिलोकके सरोवरोंमें इधर-उधर सुशोभित हो रहे थे। भगवान के त्रिवली- प्रान्तसे मन्दगामी और अत्यन्त शीतल समीर प्रकट हुआ और उनके गलेकी हँसुलीसे ‘मथुरा’ तथा ‘द्वारका’ – इन दो पुरियोंका प्रादुर्भाव हुआ ॥७-१८ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

श्रीहरिकी दोनों भुजाओंसे ‘श्रीदामा’ आदि आठ पार्षद उत्पन्न हुए। कलाइयोंसे ‘नन्द’ और कराग्रभागसे ‘उपनन्द’ प्रकट हुए। श्रीकृष्णकी भुजाओंके मूल- भागोंसे समस्त वृषभानुओंका प्रादुर्भाव हुआ। नरेश्वर । समस्त गोपगण श्रीकृष्णके रोमसे उत्पन्न हुए हैं। श्रीकृष्णके मनसे गौओं तथा धर्मधुरंधर वृषभोंका प्राकट्य हुआ। मैथिलेश्वर! उनकी बुद्धिसे घास और झाड़ियाँ प्रकट हुईं। भगवान्के बायें कंधेसे एक परम कान्तिमान् गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे लीला, श्री, भूदेवी, विरजा तथा अन्यान्य हरिप्रियाएँ आविर्भूत हुई। भगवान्की प्रियतमा जो ‘श्रीराधा’ हैं, उन्हींको दूसरे लोग ‘लीलावती’ या ‘लीला’ के नामसे जानते हैं। श्रीराधाकी दोनों भुजाओंसे ‘विशाखा’ और ‘ललिता’- इन दो सखियोंका आविर्भाव हुआ। नरेश्वर! दूसरी दूसरी जो सहचरी गोपियाँ हैं, वे सब राधाके रोमसे प्रकट हुई हैं। इस प्रकार मधुसूदनने गोलोककी रचना की ॥ १९-२४ ॥

राजन् ! इस तरह अपने सम्पूर्ण लोककी रचना करके असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, परात्पर, परमात्मा, परमेश्वर, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाँ श्रीराधाके साथ सुशोभित हुए। उस गोलोकमें एक दिन सुन्दर रासमण्डलमें, जहाँ बजते हुए नूपुरोंका मधुर शब्द गूँज रहा था, जहाँका आँगन सुन्दर छत्रमें लगी हुई मुक्ताफलकी लड़ियोंसे अमृतकी वर्षा होती रहनेके कारण रसकी बड़ी-बड़ी बूँदोंसे सुशोभित था; मालतीके चंदोवोंसे स्वतः झरते हुए मकरन्द और गन्धसे सरस एवं सुवासित था; जहाँ मृदङ्ग, तालध्वनि और वंशीनाद सब ओर व्याप्त था; जो मधुरकण्ठसे गाये गये गीत आदिके कारण परम मनोहर प्रतीत होता था तथा सुन्दरियोंके रासरससे परिपूर्ण एवं परम मनोरम था; उसके मध्यभागमें स्थित कोटिमनोजमोहन हृदय- वल्लभसे श्रीराधाने रसदान-कुशल कटाक्षपात करके गम्भीर वाणीमें कहा ॥ २५-२८ ॥

श्रीराधा बोलीं- जगदीश्वर। यदि आप रासमें मेरे प्रेमसे प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मनकी प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ॥ २९ ॥

श्रीभगवान् बोले- प्रिये ! वामोरु !! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हें अदेय वस्तु भी दे दूँगा ॥ ३० ॥

श्रीराधाने कहा- वृन्दावनमें यमुनाके तटपर दिव्य निकुञ्जके पार्श्वभागमें आप रासरसके योग्य कोई एकान्त एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये। देवदेव । यही मेरा मनोरथ है॥ ३१ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

नारदजी कहते हैं- राजन्। तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान्ने एकान्त लीलाके योग्य स्थानका चिन्तन करते हुए नेत्र-कमलोंद्वारा अपने हृदयकी ओर देखा। उसी समय गोपी समुदायके देखते-देखते श्रीकृष्णके हृदयसे अनुरागके मूर्तिमान् अङ्करकी भाँति एक सघन तेज प्रकट हुआ। रासभूमिमें गिरकर वह पर्वतके आकारमें बढ़ गया। वह सारा-का-सारा दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था। सुन्दर झरनों और कन्दराओंसे उसकी बड़ी शोभा थी। कदम्ब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता-जाल उसे और भी मनोहर बना रहे थे। मन्दार और कुन्दवृन्दसे सम्पन्न उस पर्वतपर भाँति-भाँतिके पक्षी कलरव कर रहे थे। विदेहराज ! एक ही क्षणमें वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत और शेषकी तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया। उसकी ऊँचाई पचास करोड़ योजनकी हो गयी। पचास कोटि योजनमें फैला हुआ वह पर्वत सदाके लिये गजराजके समान स्थित दिखायी देने लगा। मैथिल! उसके कोटि योजन विशाल सैकड़ों शिखर दीप्तिमान् होने लगे। उन शिखरोंसे गोवर्धन पर्वत उसी प्रकार सुशोभित हुआ, मानो सुवर्णमय उन्नत कलशोंसे कोई ऊँचा महल शोभा पा रहा हो ॥ ३२-३८ ॥

कोई-कोई विद्वान् उस गिरिको गोवर्धन और दूसरे लोग ‘शतशृङ्ग’ कहते हैं। इतना विशाल होनेपर भी वह पर्वत मनसे उत्सुक-सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक भयसे विह्वल हो गया और वहाँ सब ओर कोलाहल मच गया। यह देख श्रीहरि उठे और अपने साक्षात् हाथसे शीघ्र ही उसे ताड़ना दी और बोले- ‘अरे! प्रच्छन्नरूपसे बढ़ता क्यों जा रहा है? सम्पूर्ण लोकको आच्छादित करके स्थित हो गया? क्या ये लोक यहाँ निवास करना नहीं चाहते?’ यों कहकर श्रीहरिने उसे शान्त किया-उसका बढ़ना रोक दिया। उस उत्तम पर्वतको प्रकट हुआ देख भगवत्प्रिया श्रीराधा बहुत प्रसन्न हुई। राजन् ! वे उसके एकान्तस्थलमें श्रीहरिके साथ सुशोभित होने लगीं ॥ ३९-४२ ॥

इस प्रकार यह गिरिराज साक्षात् श्रीकृष्णसे प्रेरित होकर इस व्रजमण्डलमें आया है। यह सर्वतीर्थमय है। लता-कुञ्जोंसे श्याम आभा धारण करनेवाला यह श्रेष्ठ गिरि मेघकी भाँति श्याम तथा देवताओंका प्रिय है। भारतसे पश्चिम दिशामें शाल्मलिद्वीपके मध्य- भागमें द्रोणाचलकी पत्नीके गर्भसे गोवर्धनने जन्म लिया। महर्षि पुलस्त्य उसको भारतके व्रजमण्डलमें ले आये। विदेहराज ! गोवर्धनके आगमनकी बात मैं तुमसे पहले निवेदन कर चुका हूँ। जैसे यह पहले गोलोकमें उत्सुकतापूर्वक बढ़ने लगा था, उसी तरह यहाँ भी बढ़े तो वह पृथ्वीतकके लिये एक ढक्कन बन जायगा-यह सोचकर मुनिने द्रोणपुत्र गोवर्धनको प्रतिदिन क्षीण होनेका शाप दे दिया ॥ ४३-४६ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्च-संवादमें ‘श्रीगिरिराजकी उत्पत्ति’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

दसवाँ अध्याय

गोवर्द्धन-शिलाके स्पर्शसे एक राक्षसका उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्धके मुखसे गोवर्द्धनकी महिमाका वर्णन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस विषयमें एक पुराने इतिहासका वर्णन किया जाता है, जिसके श्रवण- मात्रसे बड़े-बड़े पापोंका विनाश हो जाता है ॥१॥

गौतमी गङ्गा (गोदावरी) के तटपर विजय नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहता था। वह अपना ऋण वसूल करनेके लिये पापनाशिनी मथुरापुरीमें आया। अपना कार्य पूरा करके जब वह घरको लौटने लगा, तब गोवर्द्धनके तटपर गया। मिथिलेश्वर! वहाँ उसने एक गोल पत्थर ले लिया। धीरे-धीरे वनप्रान्तमें होता हुआ जब वह व्रजमण्डलसे बाहर निकल गया, तब उसे अपने सामनेसे आता हुआ एक घोर राक्षस दिखायी दिया। उसका मुँह उसकी छातीमें था। उसके तीन पैर और छः भुजाएँ थीं, परंतु हाथ तीन ही थे। ओठ बहुत ही मोटे और नाक एक हाथ ऊँची थी। उसकी सात हाथ लंबी जीभ लपलपा रही थी, रोएँ काँटोंके समान थे, आँखें बड़ी-बड़ी और लाल थीं, दाँत टेढ़े-मेढ़े और भयंकर थे। राजन्। वह राक्षस बहुत भूखा था, अतः ‘घुर-घुर’ शब्द करता हुआ वहाँ खड़े हुए ब्राह्मणके सामने आया। ब्राह्मणने गिरिराजके पत्थरसे उस राक्षसको मारा। गिरिराजकी शिलाका स्पर्श होते ही वह राक्षस- शरीर छोड़कर श्यामसुन्दररूपधारी हो गया। उसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलपत्रके समान शोभा पाने लगे। वनमाला, पीताम्बर, मुकुट और कुण्डलॉसे उसकी बड़ी शोभा होने लगी। हाथमें वंशी और बेंत लिये वह दूसरे कामदेवके समान प्रतीत होने लगा। इस प्रकार दिव्यरूपधारी होकर उसने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण- देवताको बारंबार प्रणाम किया ॥ २-१०॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

सिद्ध बोला – ब्राह्मणश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो; क्योंकि दूसरोंको संकटसे बचानेके पुण्यकार्यमें लगे हुए हो। महामते! आज तुमने मुझे राक्षसकी योनिसे छुटकारा दिला दिया। इस पाषाणके स्पर्शमात्रसे मेरा कल्याण हो गया। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मेरा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं था ॥ ११-१२॥

ब्राह्मण बोले- सुव्रत! मैं तो तुम्हारी बात सुनकर आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। मुझमें तुम्हारा उद्धार करनेकी शक्ति नहीं है। पाषाणके स्पर्शका क्या फल है, यह भी मैं नहीं जानता; अतः तुम्हीं बताओ ॥ १३ ॥

सिद्धने कहा- ब्रह्मन् ! श्रीमान् गिरिराज गोवर्द्धन पर्वत साक्षात् श्रीहरिका रूप है। उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। गन्धमादनकी यात्रा करनेसे मनुष्यको जिस फलकी प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना पुण्य गिरिराजके दर्शनसे होता है। विप्रवर! केदारतीर्थमें पाँच हजार वर्षोंतक तपस्या करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही फल गोवर्द्धन पर्वतपर तप करनेसे मनुष्यको क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है ॥ १४-१६ ॥

मलयाचलपर एक भार स्वर्णका दान करनेसे जिस पुण्यफलकी प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना पुण्य गिरिराजपर एक माशा सुवर्णका दान करनेसे ही मिल जाता है। जो मङ्गलप्रस्थ पर्वतपर सोनेकी दक्षिणा देता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त होनेपर भी भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान्के उसी पदको मनुष्य गिरिराजका दर्शन करनेमात्रसे पा लेता है। गिरिराजके समान पुण्यतीर्थ दूसरा कोई नहीं है। ऋषभ पर्वत, कूटक पर्वत तथा कोलक पर्वतपर सोनेसे मढ़े सींगवाली एक करोड़ गौओंका जो दान करता है, वह भी ब्राह्मणोंका यलपूर्वक पूजन करके महान् पुण्यका भागी होता है। ब्रह्मन् ! उसकी अपेक्षा भी लाखगुना पुण्य गोवर्द्धन पर्वतकी यात्रा करनेमात्रसे सुलभ होता है। ऋष्यमूक, सह्यगिरि तथा देवगिरिकी एवं सम्पूर्ण पृथ्वीकी यात्रा करनेपर मनुष्य जिस पुण्यफलको पाता है, गिरिराज गोवर्धनकी यात्रा करनेपर उससे भी कोटिगुना अधिक फल उसे प्राप्त हो जाता है। अतः गिरिराजके समान तीर्थ न तो पहले कभी हुआ है और न भविष्यमें होगा ही ॥ १७-२३ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

श्रीशैलपर दस वर्षोंतक रहकर वहाँक विद्याधर- कुण्डमें जो प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुण्यात्मा मनुष्य सौ यज्ञोंके अनुष्ठानका फल पा लेता है; परंतु गोवर्द्धन पर्वतके पुच्छकुण्डमें एक दिन स्नान करने- वाला मनुष्य कोटियज्ञोंके साक्षात् अनुष्ठानका पुण्य- फल पा लेता है, इसमें संशय नहीं है। वेङ्कटाचल, वारिधार, महेन्द्र और विन्ध्याचलपर एक अश्वमेध- यज्ञका अनुष्ठान करके मनुष्य स्वर्गलोकका अधिपति हो जाता है; परंतु इस गोवर्द्धन पर्वतपर जो यज्ञ करके उत्तम दक्षिणा देता है, वह स्वर्गलोकके मस्तकपर पैर रखकर भगवान् विष्णुके धाममें चला जाता है। द्विजोत्तम ! चित्रकूट पर्वतपर श्रीरामनवमीके दिन पयस्विनी (मन्दाकिनी) में, वैशाखकी तृतीयाको पारियात्र पर्वतपर, पूर्णिमाको कुकुराचलपर, द्वादशीके दिन नीलाचलपर और सप्तमीको इन्द्रकील पर्वतपर जो स्नान, दान और तप आदि पुण्यकर्म किये जाते हैं, वे सब कोटिगुने हो जाते हैं। ब्रह्मन् ! इसी प्रकार भारतवर्षके गोवर्द्धन तीर्थमें जो स्रानादि शुभकर्म किया जाता है, वह सब अनन्तगुना हो जाता है। बृहस्पतिके सिंहराशिमें स्थित होनेपर गोदावरीमें और कुम्भराशिमें स्थित होनेपर हरद्वारमें, पुष्यनक्षत्र आनेपर पुष्करमें, सूर्यग्रहण होनेपर कुरुक्षेत्रमें, चन्द्रग्रहण होनेपर काशीमें, फाल्गुन आनेपर नैमिषारण्यमें, एकादशीके दिन शूकरतीर्थमें, कार्तिककी पूर्णिमाको गढ़मुक्तेश्वरमें, जन्माष्टमीके दिन मथुरामें, द्वादशीके दिन खाण्डव-वनमें, कार्तिककी पूर्णिमाको वटेश्वर नामक महावटके पास, मकर संक्राति लगनेपर प्रयाग- तीर्थमें, वैधृतियोग आनेपर बर्हिष्मतिमें, श्रीरामनवमीके दिन अयोध्यागत सरयूके तटपर, शिव-चतुर्दशीको शुभ वैद्यनाथ-वनमें, सोमवारगत अमावास्या को गङ्गासागर- संगममें, दशमीको सेतुबन्धपर तथा सप्तमीको श्रीरङ्गतीर्थमें किया हुआ दान, तप, स्नान, जप, देवपूजन, ब्राह्मणपूजन आदि जो शुभकर्म किया जाता है, द्विजोत्तम! वह कोटिगुना हो जाता है। इन सबके समान पुण्य-फल केवल गोवर्धन पर्वतकी यात्रा करनेसे प्राप्त हो जाता है। मैथिलेन्द्र ! जो भगवान् श्रीकृष्णमें मन लगाकर निर्मल गोविन्दकुण्डमें स्नान करता है, वह भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त कर लेता है- इसमें संशय नहीं है। हमारे गोवर्द्धन पर्वतपर जो मानसी गङ्गा है, उनमें डुबकी लगानेकी समानता करनेवाले सहस्त्रों अश्वमेध यज्ञ तथा सैकड़ों राजसूय यज्ञ भी नहीं हैं। विप्रवर! आपने साक्षात् गिरिराजका दर्शन, स्पर्श तथा वहाँ स्रान किया है, अतः इस भूतलपर आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। यदि आपको विश्वास न हो तो मेरी ओर देखिये। मैं बहुत बड़ा महापातकी था, किंतु गोवर्द्धनकी शिलाका स्पर्श होनेमात्रसे मैंने भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त कर लिया ॥ २४-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीगिरिराजका माहालय’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०॥

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ग्यारहवाँ अध्याय

सिद्धके द्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा गोलोकसे उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोकमें गमन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! सिद्धकी यह बात सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। गिरिराजके प्रभावको जानकर उसने सिद्धसे पुनः प्रश्न किया ॥ १॥

ब्राह्मणने पूछा- महाभाग ! इस समय तो तुम साक्षात् दिव्यरूपधारी दिखायी देते हो। परंतु पूर्वजन्ममें तुम कौन थे और तुमने कौन-सा पाप किया था ? ॥२॥

सिद्धने कहा- पूर्वजन्ममें मैं एक धनी वैश्य था। अत्यन्त समृद्ध वैश्य-बालक होनेके कारण मुझे बचपनसे ही जुआ खेलनेकी आदत पड़ गयी थी। धूर्तों और जुआरियोंकी गोष्ठीमें मैं सबसे चतुर समझा जाता था। आगे चलकर मैं वेश्यामें आसक्त हो गया, कुपथपर चलने और मदिराके मदसे उन्मत्त रहने लगा। ब्रह्मन् ! इसके कारण मुझे अपने माता-पिता और पत्नीकी ओरसे बड़ी फटकार मिलने लगी। एक दिन मैंने माँ-बापको तो जहर देकर मार डाला और पत्नीको साथ लेकर कहीं जानेके बहाने निकला और रास्तेमें मैंने तलवारसे उसकी हत्या कर दी। इस तरह उन सबके धनको हथियाकर मैं उस वेश्याके साथ दक्षिण दिशामें चला गया। यह है मेरी दुष्टताका परिचय। दक्षिण जाकर मैं अत्यन्त निर्दयतापूर्वक लूट-पाटका काम करने लगा। एकदिन उस वेश्याको भी मैंने अँधेरे कुएँमें डाल दिया। डाकू तो मैं हो ही गया था, मैंने फाँसी लगाकर सैकड़ों मनुष्योंको मौतके घाट उतार दिया। विप्रवर! धनके लोभसे मैंने सैकड़ों ब्रह्महत्याएँ कों। क्षत्रिय-हत्या, वैश्य-हत्या और शूद्र-हत्याकी संख्या तो हजारोंतक पहुँच गयी होगी। एक दिनकी बात है कि मैं मांस लानेके निमित्त मृगोंका वध करनेके लिये वनमें गया। वहाँ एक सर्पके ऊपर मेरा पैर पड़ गया और उसने मुझे डस लिया। फिर तो तत्काल मेरी मृत्यु हो गयी और यमराजके भयंकर दूतोंने आकर मुझ दुष्ट और महापातकीको भयानक मुद्गरोंसे पीट-पीटकर बाँधा और नरकमें पहुँचा दिया। मुझे महादुष्ट मानकर ‘कुम्भीपाक’ में डाला गया और वहाँ एक मन्वन्तर तक रहना पड़ा। तत्पश्चात् ‘तप्तसूर्मि’ नामक नरकमें मुझ दुष्टको एक कल्पतक महान् दुःख भोगना पड़ा। इस तरह चौरासी लाख नरकोंमेंसे प्रत्येकमें अलग-अलग यमराजकी इच्छासे मैं एक-एक वर्षतक पड़ता और निकलता रहा। तदनन्तर भारतवर्षमें कर्मवासनाके अनुसार मेरा दस बार तो सूअर की योनि में जन्म हुआ और सौ बार व्याघ्रकी योनिमें। फिर सौ जन्मोंतक कैंट और उतने ही जन्मोंतक भैंसा हुआ। इसके बाद एक सहस्त्र जन्मतक मुझे सर्पकी योनिमें रहना पड़ा। फिर कुछ दुष्ट मनुष्योंने मिलकर मुझे मार डाला। विप्रवर! इस तरह दस हजार वर्ष बीतनेपर जलशून्य विपिनमें मैं ऐसा विकराल और महाखल राक्षस हुआ, जैसा कि तुमने अभी-अभी देखा है। एक दिन किसी शूद्रके शरीरमें आविष्ट होकर ब्रजमें गया। वहाँ वृन्दावनके निकटवर्ती यमुनाके सुन्दर तटसे हाथमें छड़ी लिये हुए कुछ श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्णके पार्षद उठे और मुझे पीटने लगे। उनके द्वारा तिरस्कृत होकर मैं व्रजभूमिसे इधर भाग आया; तबसे बहुत दिनोंतक मैं भूखा रहा और तुम्हें खा जानेके लिये यहाँ आया। इतनेमें ही तुमने मुझे गिरिराजके पत्थरसे मार दिया। मुने ! मुझपर साक्षात् श्रीकृष्णकी कृपा हो गयी, जिससे मेरा कल्याण हो गया ॥ ३-१८ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। वह इस प्रकार कह ही रहा था कि गोलोकसे एक विशाल रथ उतरा। वह सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी था और उसमें दस हजार घोड़े जुते हुए थे। नरेश्वर। उससे हजारों पहियोंके चलनेकी ध्वनि होती थी। लाखों पार्षद उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। मञ्जीर और क्षुद्र-घण्टिकाओंके समूहसे आच्छादित वह रथ अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। ब्राह्मणके देखते-देखते उस सिद्धको लेनेके लिये जब वह रथ आया, तब ब्राह्मण और सिद्ध दोनोंने उस दिव्य रथको नमस्कार किया। मिथिलेश्वर! तदनन्तर वह सिद्ध – उस रथपर आरूढ़ हो दिङ्मण्डलको प्रकाशित करता हुआ परात्पर श्रीकृष्ण-लोकमें पहुँच गया, जो निकुञ्ज- लीलाके कारण ललित एवं परम मनोहर है। मैथिल! वह ब्राह्मण भी गोवर्द्धनका प्रभाव जान गया था, इसलिये वहाँसे लौटकर समस्त गिरिराजोंके देवता गोवर्द्धन गिरिपर आया और उसकी परिक्रमा एवं उसे प्रणाम करके अपने घरको गया ॥ १९-२४ ॥

राजन् ! इस प्रकार मैंने यह विचित्र एवं उत्तम मोक्षदायक श्रीगिरिराजखण्ड तुम्हें कह सुनाया। पापी मनुष्य भी इसका श्रवण करके स्वप्नमें भी कभी उग्रदण्डधारी प्रचण्ड यमराजका दर्शन नहीं करता। जो मनुष्य गिरिराजके यशसे परिपूर्ण गोपराज श्रीकृष्णकी नूतन केलिके रहस्यको सुनता है, वह देवराज इन्द्रकी भाँति इस लोकमें सुख भोगता है और नन्दराजके समान परलोकमें शान्तिका अनुभव करता है ॥ २५-२६ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें श्रीगिरिराज-प्रभाव प्रस्ताव-वर्णनके प्रसङ्गमें ‘सिद्धमोक्ष’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥११॥

गिरिराजखण्ड सम्पूर्ण ॥ ३ ॥

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