Garga Samhita Girirajkhand Chapter 1 to 5
॥ श्रीहरिः ॥
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड अध्याय 1 से 5
Garga Samhita Girirajkhand Chapter 1 to 5
श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड (Girirajkhand Chapter 1 to 5) पहले अध्याय से पांचवे अध्याय में श्री कृष्ण के द्वारा गोवर्धनपूजन का प्रस्ताव और उसकी विधिका वर्णन, गोपोंद्वारा गिरिराज पूजन का महोत्सव, श्रीकृष्णका गोवर्धन पर्वतको उठाकर इन्द्रके द्वारा क्रोध पूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना, इन्द्रद्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति तथा सुरभि और ऐरावतद्वारा उनका अभिषेक और गोपोंका श्रीकृष्णके विषयमें संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज एवं वृषभानुवरके द्वारा समाधान दिया गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
श्री गर्ग संहिता गिरिराजखण्ड
पहला अध्याय
श्रीकृष्णके द्वारा गोवर्धनपूजनका प्रस्ताव और उसकी विधिका वर्णन
राजा बहुलाश्वने पूछा– देवर्षे ! जैसे बालक खेल-ही-खेलमें गोबर छत्तेको उखाड़कर हाथमें ले लेता है, उसी प्रकार भगवान्ने एक ही हाथसे महान् पर्वत गोवर्धनको लीलापूर्वक उठाकर छत्रकी भाँति धारण कर लिया था- ऐसी बात सुनी जाती है। सो यह प्रसङ्ग कैसे आया ? मुनिसत्तम । इन परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रके उसी दिव्य अद्भुत चरित्रका आप वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जैसे खेती करनेवाले किसान राजाको वार्षिक कर देते हैं, उसी प्रकार समस्त गोप प्रतिवर्ष शरद्ॠतुमें देवराज इन्द्रके लिये बलि (पूजा और भोग) अर्पित करते थे। एक समय श्रीहरिने महेन्द्रयागके लिये सामग्रीका संचय होता देख गोपसभामें नन्दजीसे प्रश्न किया। उनके उस प्रश्नको अन्यान्य गोप भी सुन रहे थे ।। ३-४ ॥
श्रीभगवान् बोले- यह जो इन्द्रकी पूजा की जाती है, इसका क्या फल है ? विद्वान् लोग इसका कोई लौकिक फल बताते हैं या पारलौकिक ? ॥५॥
श्रीनन्दने कहा- श्यामसुन्दर ! देवराज इन्द्रका यह पूजन भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला परम उत्तम साधन है। भूतलपर इसके बिना मनुष्य कहीं और कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ६ ॥
श्रीभगवान् बोले- पिताजी ! इन्द्र आदि देवता अपने पूर्वकृत पुण्यकर्मोंक प्रभावसे ही सब ओर स्वर्गका सुख भोगते हैं। भोगद्वारा शुभकर्मका क्षय हो जानेपर उन्हें भी मर्त्यलोकमें आना पड़ता है। अतः उनकी सेवाको आप मोक्षका साधन मत मानिये। जिससे परमेष्ठी ब्रह्माको भी भय प्राप्त होता है, फिर उनके द्वारा पृथ्वीपर उत्पन्न किये गये प्राणियोंकी तो बात ही क्या है, उस कालको ही श्रेष्ठ विद्वान् सबसे उत्कृष्ट, अनन्त तथा सब प्रकारसे बलिष्ठ मानते हैं। इसलिये उस कालका ही आश्रय लेकर मनुष्यको – सत्कर्मीद्वारा सुरेश्वर यज्ञपति परमात्मा श्रीहरिका भजन करना चाहिये। अपने सम्पूर्ण सत्कर्मोंक फलका मनसे परित्याग करके जो श्रीहरिका भजन करता है, वही परममोक्षको प्राप्त होता है; दूसरे किसी प्रकारसे उसको मोक्ष नहीं मिलता। गौ, ब्राह्मण, साधु, अग्नि, देवता, वेद तथा धर्म-ये भगवान् यज्ञेश्वरकी विभूतियाँ हैं। इनको आधार बनाकर जो श्रीहरिका भजन करते हैं, वे सदा इस लोक और परलोकमें सुख पाते हैं। भगवान् के वक्षःस्थलसे प्रकट हुआ वह गिरीन्द्रोंका सम्राट् गोवर्धन नामक पर्वत महर्षि पुलस्त्यके प्रभावसे इस व्रजमण्डलमें आया है। उसके दर्शनसे मनुष्यका इस जगत्में पुनर्जन्म नहीं होता। गौओं, ब्राह्मणों तथा देवताओंका पूजन करके आज ही यह उत्तम भेंट- सामग्री महान् गिरिराजको अर्पित की जाय। यह यज्ञ नहीं, यज्ञोंका राजा है। यही मुझे प्रिय है। यदि आप यह काम नहीं करना चाहते तो जाइये; जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये ॥ ७-१२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं राजन् ! उन गोपोंमें सन्नन्द नामक एक बड़े-बूढ़े गीप थे, जो बड़े नीतिवेत्ता थे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर नन्दजीके सुनते हुए श्रीकृष्णसे कहा ।। १३ ।।
सन्नन्द बोले – नन्दनन्दन ! तात ! तुम तो साक्षात् ज्ञानकी निधि हो। गिरिराजकी पूजा किस विधिसे करनी होगी, यह ठीक-ठीक बताओ ।॥ १४ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
श्रीभगवान्ने कहा- जहाँ गिरिराजकी पूजा करनी हो, वहाँ उनके नीचेकी धरतीको गोबरसे लीप- पोतकर वहीं सब सामग्री रखनी चाहिये। इन्द्रियोंको वशमें रखकर बड़े भक्ति भावसे ‘सहस्त्रशीर्षा०’ मन्त्र पढ़ते हुए, ब्राह्मणोंके साथ रहकर गङ्गाजल या यमुनाजलसे गिरिराजको स्नान कराना चाहिये। फिर श्वेत गोदुग्धकी धारासे तथा पञ्चामृतसे स्नान कराकर, पुनः यमुना-जलसे नहलाये। उसके बाद गन्ध, पुष्प, वस्त्र, आसन, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, माला, आभूषण- समूह तथा उत्तम दीपमाला समर्पित करके गिरिराजकी परिक्रमा करे। इसके बाद साष्टाङ्ग प्रणाम करके, दोनों हाथ जोड़कर, इस प्रकार कहे- ‘जो श्रीवृन्दावनके अङ्कमें अवस्थित तथा गोलोकके मुकुट हैं, पूर्णब्रह्म परमात्माके छत्ररूप उन गिरिराज गोवर्धनको हमारा बारंबार नमस्कार है।’ तदनन्तर पुष्पाञ्जलि अर्पित करे। उसके बाद घंटा, झाँझ और मृदङ्ग आदि मधुर ध्वनि करनेवाले बाजे बजाते हुए गिरिराजकी आरती करे। तदनन्तर ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्०’ इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए उनके ऊपर लावाकी वर्षा करे और श्रद्धा- पूर्वक गिरिराजके समीप अन्नकूट स्थापित करे। फिर चौसठ कटोरोंको पाँच पड्कियोंमें रखे और उनमें तुलसीदल-मिश्रित गङ्गा-यमुनाका जल भर दे। फिर एकाग्रचित्त हो गिरिराजकी सेवामें छप्पन भोग अर्पित करे। तत्पश्चात् अग्रिमें होम करके ब्राह्मणोंकी पूजा करे तथा गौओं और देवताओंपर भी गन्ध-पुष्प चढ़ाये । अन्तमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सुगन्धित मिष्टान्न भोजन कराकर, अन्य लोगोंको यहाँतक कि चण्डाल भी छूटने न पायें – उत्तम भोजन दे। इसके बाद गोपियों और गोपोंके समुदाय गौओंके सामने नृत्य करें, मङ्गल- गीत गायें और जय-जयकार करते हुए गोवर्धन- पूजनोत्सव सम्पन्न करें ।। १५-२६ ।।
जहाँ गोवर्धन नहीं हैं, वहाँ गोवर्धन पूजाकी क्या विधि है, यह सुनो। गोबरसे गोवर्धनका बहुत ऊँचा आकार बनाये। फिर उन्हें पुष्प-समूहों, लता-जाले और सींकोंसे सुशोभित करके, उसे ही गोवर्धन-गिर्गाः मानकर सदा भूतलपर मनुष्योंको उसकी पूजा करनं चाहिये। यदि कोई गोवर्धनकी शिला ले जाकर पूज करना चाहे तो जितना बड़ा प्रस्तर ले जाय, उतना है सुवर्ण उस पर्वतपर छोड़ दे। जो बिना सुवर्ण दि वहाँकी शिला ले जायगा, वह महारौरव नरक पड़ेगा। शालग्राम भगवान्की सदा सेवा कर चाहिये। शालग्रामके पूजकको पातक उसी तरह स्पः नहीं करते, जैसे पद्मपत्रपर जलका लेप नहीं होता। र श्रेष्ठ द्विज गिरिराज-शिलाकी सेवा करता है, वह सा द्वीपोंसे युक्त भूमण्डलके तीर्थोंमें स्नान करनेका फ पाता है। जो प्रतिवर्ष गिरिराजकी महापूजा करता। वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुख भोगकर परलोकमें मो प्राप्त कर लेता है ।। २७-३२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीगिरिराजकी पूजा विधिवर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
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दूसरा अध्याय
गोपोंद्वारा गिरिराज-पूजनका महोत्सव
श्रीनारदजी कहते हैं – साक्षात् श्रीनन्दनन्दनकी यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि ब्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होंने पहलेका निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज-पूजन का आयोजन किया। मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र – बलराम और श्रीकृष्णको तथा भेंटपूजाकी सामग्रीको लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नतापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे। वे अपनी पत्नीके साथ बहुत ऊँचे चित्र-विचित्र वण् रँगे हुए तथा सोनेकी साँकल धारण करनेवाले हाथं आरूढ़ हो, गौओंके साथ गोवर्धन पर्वतके स गये। मानो इन्द्राणीके साथ इन्द्र ऐरावतपर आरूत शरद्ॠतुके श्वेत बादलोंके साथ उपस्थित हुए नन्द, उपनन्द और वृषभानुगण अपने पुत्रों, पोतों पनियोंके साथ यज्ञका सारा सम्भार लिये गिरिराज के पास आ पहुँचे। सहस्त्रों बालरविके दीप्तिसे प्रकाश शिविकामें आरूढ़ हो दिव्य वस्त्रों तथा रलमय आभूषणोंसे विभूषित श्रीराधा सखी-समुदायके साथ वहाँ आकर उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे शची चकोरी और भ्रमरियोंके साथ शोभा पाती हो ॥ १-५ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
राजन् । श्रीराधाके दोनों बगलमें आयी हुई विविध अलंकारोंसे अलंकृत तथा करोड़ों सखियोंसे आवृत दो सर्वश्रेष्ठ चन्द्रमुखी सखियाँ-ललिता और विशाखा- चारु चैवर डुलाती हुई शोभा पाती थीं। नरेश्वर । इसी प्रकार रमा, विरजा, माधवी, माया, यमुना और गङ्गा आदि बत्तीस सखियाँ, आठ सखियाँ, सोलह सखियाँ और उन सबके बूथमें सम्मिलित असंख्य सखियाँ वहाँ आयीं। मिथिलानिवासिनी, कोसल-प्रदेशवासिनी तथा अयोध्यापुरनिवासिनी, श्रुतिरूपा, ऋषिरूपा, यज्ञसीतास्वरूपा तथा वनवासिनी गोपियोंका समुदाय भी वहाँ उपस्थित हुआ। रमा आदि वैकुण्ठबासिनी देवियाँ, वैकुण्ठसे भी ऊपरके लोकोंमें रहनेवाली दिव्याङ्गनाएँ, परम उज्ज्वल चेतद्वीपकी निवासिनी बालाएँ और धुवादि लोकों तथा लोकाचलमें रहने- बाली देवीरूपा गोपाङ्गनाओंका दल भी वहाँ आ गया। जो समुद्रसे उत्पन्न लक्ष्मीको सखियाँ थीं, दिव्य गुणत्रयमयी अङ्गनाएँ थीं, अदिव्य विमानचारियोंकी वनिताएँ थीं; जो ओषधिस्वरूपा थीं, जो जालन्धरके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ थी, जो समुद्र कन्याएँ थीं तथा जो बर्हिष्मतीनगरी तथा सुतल आदि लोकोंमे निवास करनेवाली थीं, उन समस्त दिव्याङ्गनाओंका समुदाय गिरिराज गोवर्धनके पास आकर विराजमान हुआ। इसी प्रकार अप्सराओं, समस्त नागकन्याओं तथा व्रजवासिनियोंके यूथ भी वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो, हाथोंमें पूजन-सामग्री और प्रदीप लिये गिरिराजके पास आ पहुँचे। बालक, युवक और वृद्ध गोप भी पीताम्बर, पगड़ी तथा मोरपंखसे मण्डित तथा सुन्दर हार, गुञ्जा और वनमालाओंसे विभूषित हो, नूतन यष्टि तथा वेणु लिये, वहाँ आकर शोभा पाने लगे। गिरिराज हिमालयके मुखसे उस उत्सवका समाचार सुनकर गङ्गाधर शिव मस्तकपर जटाजूट बाँध, हाथमें कपाल लिये, अन्नोंमें चिताकी भस्म लगाये, सर्पोको माला तथा कंगनोंसे विभूषित हो, भाँग, धतूर और विष पीकर मत्त हुए, गिरिराजनन्दिनी उमाके साथ आदि- वाहन नन्दीश्वरपर आरूढ़ हो, अमथगणोंसे घिरे हुए, गिरिराज-मण्डलमे आये। मुख्य मुख्य राजर्षि, आह्मर्षि, देवर्षि, सिद्धेश्वर, हेस आदि योगेश्वर तथा सहस्रों ब्राह्मण-वृन्द गिरिराजका दर्शन करनेके लिये आस-पास एकत्र हो गये ॥ ६-१५ ॥
गोवर्धन पर्वतकी एक-एक शिला रत्नमयों हो गयी। उसके सुवर्णमय शृङ्ग चारों ओर अपनी दीप्ति फैलाने लगे। राजन् । वह पर्वत मतवाले भ्रमरों तथा निर्झर- शोभित कन्दराओंसे उन्नतकाय गजराजकी शोभा धारण करने लगा। उसी समय मेरु और हिमालय आदि गिरीन्द्र दिव्य रूप धारण करके, भेंट और माङ्गलिक वस्तुएँ हाथमें लिये मूर्तिमान् गोवर्धनको प्रणाम करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णको बतायी हुई विधिके अनुसार द्विजोंद्वारा गोवर्धन पूजन सम्पत्र करके, ब्राह्मणों, अनियों तथा गोधनको सम्यक् पूजा करनेके पश्चात्, व्रजेश्वर नन्दने गिरिराजकी सेवामें बहुत-सा धन तथा बहुमूल्य भेंट-सामग्री प्रस्तुत की। नन्द, उपनन्द, वृषभानु, गोपीवृन्द तथा गोपगण नाचने, गाने और बाजे बजाने लगे। उन सबके साथ हर्षसे भरे हुए श्रीकृष्णने गिरिराजकी परिक्रमा की। आकाशसे देवता फूल बरसाने लगे और भूतलवासी जनसमुदाय लाजा (लावा या खोल) छींटने लगा। उस यज्ञमें गिरीन्द्रोंका सम्राट् गोवर्धन लोगोंसे घिरकर किसी महाराजके समान सुशोभित होने लगा। साक्षात् श्रीकृष्ण भी व्रजस्थित शैल गोवर्धनके बीचसे एक दूसरा विशाल रूप धारण करके निकले और ‘मैं गिरिराज गोवर्धन हूँ-यों कहते हुए वहाँका सारा अत्रकूट भोग लगाने लगे। गोपालों और गोपियोंके समुदायमें जो मुख्य- मुख्य लोग थे, उन्होंने गिरिका यह प्रभाव अपनी आँखों देखा तथा गिरिराजको वहाँ वर देनेके लिये उद्यत देख सब-के-सब आश्चर्यचकित हो उठे। सबके मनमें अपूर्व उल्लास छा गया ॥ १६-२२ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
उस समय गोपोंने कहा- प्रभो । आज हमने जान लिया कि आप साक्षात् गिरिराज देवता हैं। स्वयं नन्दनन्दनने हमें आपके दर्शनका अवसर दिया है। आपकी कृपासे हमारा गोधन और बन्धुवर्ग प्रतिदिन इस भूतलपर वृद्धिको प्राप्त हो। ‘ऐसा ही होगा’यों कहकर किरीट और केयूर आदि आभूषणोंसे मनोहर अङ्गवाले दिव्यरूपधारी गिरिराजराज गोवर्धन क्षण- भरमें वहाँ उनके निकट ही अन्तर्धान हो गये। तब नन्द-उपनन्द, वृषभानु, बलराम, वर्षभानुराज सुचन्द्र, श्रीनन्दराज, श्रीहरि एवं समस्त गोप-गोपीगण अपने गोधनोंक साथ वहाँस चले। ब्राह्मण, योगेश्वर-समुदाय, सिद्धसंघ, शिव आदि देवता तथ अन्य सब लोग गिरिराजको प्रणाम और उनका पूजन करके प्रसन्नतापूर्वक अनिच्छासे अपने-अपने घरको गये। राजन् ! श्रीकृष्णचन्द्रके इस उत्तम चरित्रका तथा गिरिराजराजके उस विचित्र महोत्सवका मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया। यह पावन प्रसङ्ग बड़े-बड़े पार्पाको हर लेनवाला है ॥ २३-२७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके अन्तर्गत नारद बहुताश्व-संवादमे ‘गिरिराज-महोत्सवका वर्णन नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
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तीसरा अध्याय
श्रीकृष्णका गोवर्धन पर्वतको उठाकर इन्द्रके द्वारा क्रोधपूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर मेरे मुखसे अपने यज्ञका लोप तथा गोवर्धन-पूजनोत्सवके सम्पन्न होनेका समाचार सुनकर देवराज इन्द्रने बड़ा क्रोध किया। उन्होंने उस सांवर्तक नामक मेघगणको, जिसका बन्धन केवल प्रलयकालमें खोला जाता है, बुलाकर तत्काल व्रजका विनाश कर डालनेके लिये भेजा। आज्ञा पाते ही विचित्र वर्णवाले मेघगण रोषपूर्वक गर्जना करते हुए चले। उनमें कोई काले, कोई पीले और कोई हरे रंगके थे। किन्हींकी कान्ति इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ोंकी तरह लाल थी। कोई कपूरके समान सफेद थे और कोई नील कमलके समान नीली प्रभासे युक्त थे। इस तरह नाना रंगोंके मेघ मदोन्मत्त हो हाथीके समान मोटी वारि- धाराओंकी वर्षा करने लगे। कुछ चञ्चल मेघ हाथीकी सूँड़के समान मोटी धाराएँ गिराने लगे। पर्वतशिखरके समान करोड़ों प्रस्तरखण्ड वहाँ बड़े वेगसे गिरने लगे। साथ ही प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जो वृक्षों और घरोंको उखाड़ फेंकती थी। मैथिलेन्द्र ! प्रलयंकर मेघों तथा वज्रपातोंका महाभयंकर शब्द व्रजभूमिपर व्याप्त हो गया। उस भयंकर नादसे सातों लोकों और पातालों- सहित ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और आकाशसे भूतलपर तारे टूट-टूटकर गिरने लगे। अब तो प्रधान-प्रधान गोप भयभीत हो, प्राण बचानेकी इच्छासे अपने-अपने शिशुओं और कुटुम्बको आगे करके नन्दमन्दिरमें आये। बलरामसहित परमेश्वर श्रीनन्दनन्दनकी शरणमें जाकर समस्त भयभीत व्रजवासी उन्हें प्रणाम करके कहने लगे ॥ १-१०॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
गोप बोले- महाबाहु राम ! राम !! और व्रजेश्वर कृष्ण ! कृष्ण !! इन्द्रके दिये हुए इस महान् कष्टसे आप अपने जनोंकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। तुम्हारे कहनेसे हमलोगोंने इन्द्रयाग छोड़कर गोवर्धन- पूजाका उत्सव मनाया, इससे आज इन्द्रका कोप बहुत बढ़ गया है। अब शीघ्र बताओ, हमें क्या करना चाहिये ? ॥ ११-१२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! गोपी और ग्वालोंसे युक्त गोकुलको व्याकुल देख तथा बछड़ों- सहित गो-समुदायको भी पीड़ित निहार, भगवान् बिना किसी घबराहटके बोले ॥१३॥
श्रीभगवान्ने कहा- आपलोग डरें नहीं। समस्त परिकरोंके साथ गिरिराजके तटपर चलें। जिन्होंने तुम्हारी पूजा ग्रहण की है, वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे ॥ १४ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर श्रीहरि स्वजनोंके साथ गोवर्धनके पास गये और उस पर्वतको उखाड़कर एक ही हाथसे खेल-खेलमें ही धारण कर लिया। जैसे बालक बिना श्रमके ही गोबर- छत्ता उठा लेता है; अथवा जैसे हाथी अपनी सूँड़से कमलको अनायास उखाड़ लेता है; उसी प्रकार कृपालु करुणामय प्रभु श्रीव्रजराजनन्दन गोवर्धन पर्वतको धारण करके सुशोभित हुए ॥ १५-१६ ॥
फिर वे गोपोंसे बोले- ‘मैया ! बाबा ! व्रज- वल्लभेश्वरगण! आप सब लोग सारी सामग्री, सम्पूर्ण धन तथा गौओंके साथ गिरिराजके गर्तमें समा जाइये। यही एक ऐसा स्थान है, जहाँ इन्द्रका कोई भय नहीं है’ ॥ १७ ॥
श्रीहरिका यह वचन सुनकर गोधन, कुटुम्ब तथा अन्य समस्त उपकरणोंके साथ वे गोवर्धन पर्वतके गड्ढेमें समा गये। नरेश्वर ! श्रीकृष्णका अनुमोदन पाकर बलरामजीसहित समस्त सखा ग्वाल-बालोंने पर्वतको रोकनेके लिये अपनी-अपनी लाठियोंको भी लगा लिया। पर्वतके नीचे जलप्रवाहको आता देख भगवान्ने मन-ही-मन सुदर्शनचक्र तथा शेषका स्मरण करके उसके निवारणके लिये आज्ञा प्रदान की। मिथिलेश्वर उस पर्वतके ऊपर स्थित हो, कोटि सूर्योंके समान तेजस्वी सुदर्शनचक्र गिरती हुई जलकी धाराओं- को उसी प्रकार पीने लगा, जैसे अगस्त्यमुनिने समुद्रको पी लिया था। उस पर्वतके नीचे शेषनागने चारों ओरसे गोलाकार स्थित हो, उधर आते हुए जलप्रवाहको उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको रोके रहती है। गोवर्धनधारी श्रीहरि एक सप्ताहतक सुस्थिरभावसे खड़े रहे और समस्त गोप चकोरोंकी भाँति श्रीकृष्णचन्द्रकी ओर निहारते हुए बैठे रहे। तदनन्तर मतवाले ऐरावत हाथीपर चढ़कर, अपनी सेना साथ ले, रोषसे भरे हुए देवराज इन्द्र व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने दूरसे ही नन्दव्रजको नष्ट कर डालनेकी इच्छासे अपना वज्र चलानेकी चेष्टा की। किंतु माधवने वज्रसहित उनकी भुजाको स्तम्भित कर दिया। फिर तो इन्द्र भयभीत हो गये और जैसे सिंहकी चोट खाकर हाथी भागे, उसी प्रकार वे सांवर्तकगणों तथा देवताओंके साथ सहसा भाग चले। नरेश्वर! उसी समय सूर्योदय हो गया। बादल इधर-उधर छँट गये। हवाका वेग रुक गया और नदियोंमें बहुत थोड़ा पानी रह गया। पृथ्वीपर पङ्कका नाम भी नहीं था। आकाश निर्मल हो गया। चौपाये और पक्षी सब ओर सुखी हो गये। तब भगवान्की आज्ञा पाकर समस्त गोप पर्वतके गर्तसे अपना-अपना गोधन लेकर धीरे-धीरे बाहर निकले ॥ १८- २९ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
उसके बाद गोवर्धनधारीने अपने सखाओंसे कहा-‘तुमलोग भी निकलो।’ तब वे बोले-‘नहीं, हम लोग अपने बलसे पर्वतको रोके हुए हैं; तुम्हीं निकल जाओ।’ उन सबको इस तरहकी बातें करते देख महामना गोवर्धनधारी श्रीहरिने पर्वतका आधा भार उन- पर डाल दिया। बेचारे निर्बल गोप-बालक उस भारसे दबकर गिर पड़े। तब उन सबको उठाकर श्रीकृष्णने उनके देखते-देखते पर्वतको पहलेकी ही भाँति लीला- पूर्वक रख दिया। नरेश्वर ! उस समय प्रमुख गोपियों और प्रधान-प्रधान गोपोंने नन्दनन्दनका गन्ध और अक्षत आदिसे पूजन करके उन्हें दही दूधका भोग अर्पित किया और उनको परमात्मा जानकर सबने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। राजन् ! नन्द, यशोदा, रोहिणी, बलराम तथा सन्नन्द आदि वृद्ध गोपोंने श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर धनका दान किया और दयासे द्रवित हो, उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान किये। तदनन्तर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके, समस्त व्रजवासी सफल- मनोरथ हो नन्दनन्दनके समीप गाने, बजाने और नाचने लगे तथा उन श्रीहरिको आगे करके अपने घरको लौटे। उसी समय हर्षसे भरे हुए देवता वहाँ नन्दन-वनके सुन्दर-सुन्दर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए प्रधान-प्रधान गन्धर्व और सिद्धोंके समुदाय गोवर्धनधारीके यश गाने लगे ॥ ३०-३७॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘गोवर्धनोद्धारण’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥
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चौथा अध्याय
इन्द्रद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति तथा सुरभि और ऐरावतद्वारा उनका अभिषेक
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गर्व गल जानेके कारण देवराज इन्द्र देवताओंके साथ उस पर्वतपर आये और एकान्तमें श्रीकृष्णको प्रणाम करके उनसे बोले ॥१॥
इन्द्रने कहा- आप देवताओंके भी देवता, सर्वसमर्थ, पूर्ण परमेश्वर, पुराण पुरुष, पुरुषोत्तमोत्तम, प्रकृतिसे परे तथा परात्पर श्रीहरि हैं। स्वर्गके स्वामी जगत्पते! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। धर्म, गौ तथा वेदकी रक्षा करनेके लिये दस अवतार धारण करनेवाले भगवान् आप ही हैं। इस समय भी आप परिपूर्णतम देवता कंसादि दैत्यराजोंके विनाशके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। आपकी मायासे जिसकी चित्तवृत्ति मोहित है, जो मदसे उन्मत्त और अवहेलनाका पात्र है, वही मैं आपका अपराधी इन्द्र हूँ। द्युपते ! जैसे पिता पुत्रके अपराधको क्षमा कर देता है, उसी प्रकार आप मुझ अपराधीको क्षमा करें। देवेश्वर ! जगन्निवास ! मुझपर प्रसन्न होइये। गोवर्धनको उठानेवाले आप गोविन्दको नमस्कार है। गोकुलनिवासी गोपालको नमस्कार है। गोपालोंके पति, गोपीजनोंके भर्ता और गिरिराजके उद्धर्ताको नमस्कार है। करुणाकी निधि तथा जगत्के विधाता, विश्वमङ्गलकारी तथा जगत्के निवासस्थान आप परमात्माको प्रणाम है। जो विश्व- मोहन तथा करोड़ों कामदेवोंके भी मनको मथ देनेवाले हैं, उन वृषभानुनन्दिनीके स्वामी नन्दराजकुलदीपक परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। असंख्य ब्रह्माण्डोंके पति, गोलोकधामके अधिपति एवं बलरामके साथ रहनेवाले आप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णको बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है॥ २-५ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
श्रीनारदजी कहते हैं- इन्द्रद्वारा किये गये इस स्तोत्रका जो प्रातःकाल उठकर पाठ करेगा, उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ सुलभ होंगी और उसे किसी संकटसे भय नहीं होगा। इस प्रकार भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करके देवराज इन्द्रने हाथ जोड़कर समस्त देवताओंके साथ उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद क्षीरसागरसे उत्पन्न हुई सुरभि गौने उस सुरम्य गोवर्धन पर्वतपर आकर अपनी दुग्धधारासे गोपेश्वर श्रीकृष्णको स्नान कराया। फिर मत्त गजराज ऐरावतने गङ्गाजलसे भरी हुई चार सूँड़ोंद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक किया। राजन् ! फिर हर्षोल्लाससे भरे हुए सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व और किंनर ऋषियोंको साथ ले वेद-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक पुष्पवर्षा करते हुए श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ॥ ६-१०॥
राजन् ! श्रीकृष्णका अभिषेक सम्पन्न हो जानेपर वह महान् पर्वत गोवर्धन हर्ष एवं आनन्दसे द्रवीभूत होकर सब ओर बहने लगा। तब भगवान्ने प्रसन्न होकर उसके ऊपर अपना हस्तकमल रखा। नरेश्वर ! उस पर्वतपर भगवान्के हाथका वह चिह्न आज भी दृष्टिगोचर होता है। वह परम पवित्र तीर्थ हो गया, जो मनुष्योंके पापोंका नाश करनेवाला है। वहीं चरणचिह्न भी है। मैथिल! उसे भी परम तीर्थ समझो। जहाँ हस्तचिह्न है, वहीं उतना ही बड़ा चरणचिह्न भी हुआ। मैथिल! उसी स्थानपर सुरभि देवीके चरणचिह्न भी बन गये। मिथिलेश्वर! श्रीकृष्णके नानके निमित्त जो आकाशगङ्गाका जल गिरा, उससे वहीं ‘मानसी गङ्गा’ प्रकट हो गयीं, जो सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली हैं। नरेश्वर! सुरभिकी दुग्ध-धाराओंसे गोविन्दने जो स्रान किया, उससे उस पर्वतपर ‘गोविन्दकुण्ड’ प्रकट हो गया, जो बड़े-बड़े पापोंको हर लेनेवाला परमपावन तीर्थ है। कभी-कभी उस तीर्थक जलमें दूधका-सा स्वाद प्रकट होता है। उसमें स्नान करके मनुष्य साक्षात् गोविन्दके धामको प्राप्त होता है। इस प्रकार वहाँ श्रीहरिकी परिक्रमा करके, उन्हें प्रणामपूर्वक बलि (पूजोपहार) समर्पित करनेके पश्चात्, इन्द्र आदि देवता जय-जयकारपूर्वक पुष्प बरसाते हुए बड़े सुखसे स्वर्गलोकको लौट गये। राजेन्द्र ! जो श्रीकृष्णाभिषेककी इस कथाको सुनता है, वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अवभृथ स्नानसे अधिक पुण्य- फलको पाता है। फिर वह परम विधाता परमेश्वर श्रीकृष्णके परमपदको प्राप्त होता है ॥ ११-१९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णका अभिषेक’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥
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पाँचवाँ अध्याय
गोपोंका श्रीकृष्णके विषयमें संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज एवं वृषभानुवरके द्वारा समाधान
श्रीनारदजी कहते हैं- एक समय समस्त गोपों और गोपियोंने नन्दनन्दनके उस अद्भुत चरित्रको देखकर यशोदासहित नन्दके पास जाकर कहा ॥ १॥
गोप बोले- हे यशोमय गोपराज ! तुम्हारे वंशमें पहले कभी कोई भी ऐसा बालक नहीं उत्पन्न हुआ था, जो पर्वत उठा ले। तुम स्वयं तो एक शिलाखण्ड भी सात दिनतक नहीं उठाये रह सकते। कहाँ तो सात वर्षका बालक और कहाँ उसके द्वारा इतने बड़े गिरिराजको हाथपर उठाये रखना। इससे तुम्हारे इस महाबली पुत्रके विषयमें हमें शङ्का होती है। जैसे गजराज एक कमल उठा ले और जैसे बालक गोबर- छत्ता हाथमें ले ले, उसी तरह इसने खेल-ही-खेलमें एक हाथसे गिरिराजको उठा लिया था ॥२-४॥
यशोदे ! तुम गोरी हो, और नन्दजी! तुम भी सुवर्णसदृश गौरवर्णके हो; किंतु यह श्यामवर्णका उत्पन्न हुआ है। इसका रूप-रंग इस कुलके लोगोंसे सर्वथा विलक्षण है। यह बालक तो ऐसा है, जैसे क्षत्रियोंके कुलमें उत्पन्न हुआ हो। बलभद्रजी भी विलक्षण हैं, किन्तु इनकी विलक्षणता कोई दोषकी बात नहीं है; क्योंकि इनका जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है। यदि तुम सच-सच नहीं बताओगे तो हम तुम्हें जातिसे बहिष्कृत कर देंगे। अथवा यह बताओ कि गोपकुलमें इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? यदि नहीं बताओगे तो हमसे तुम्हारा झगड़ा होगा ॥५-७ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
श्रीनारदजी कहते हैं- गोपोंकी बात सुनकर यशोदाजी तो भयसे काँप उठीं, किंतु उस समय क्रोधसे भरे हुए गोपगणोंसे नन्दराज इस प्रकार बोले ॥८॥
श्रीनन्दजीने कहा- गोपगण! मैं एकाग्रचित्त होकर गर्गजीकी कही हुई बात तुम्हें बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारे मनकी चिन्ता और व्यथा शीघ्र दूर हो जायगी। पहले ‘कृष्ण’ शब्दके अक्षरोंका अभिप्राय सुनो-‘ककार’ कमलाकान्तका वाचक है; ‘ऋकार’ रामका बोधक है; ‘षकार’ श्वेतद्वीपनिवासी षविध ऐश्वर्य-गुणोंके स्वामी भगवान् विष्णुका वाचक है; ‘णकार’ साक्षात् नरसिंहस्वरूप है; ‘अकार’ उस अक्षर पुरुषका बोधक है, जो अग्निको भी पी जाता है। अन्तमें जो ‘विसर्ग’ नामक दो बिन्दु हैं, ये ‘नर’ और नारायण’ ऋषियोंके प्रतीक हैं। ये छहों पूर्ण तत्त्व जिस परिपूर्णतम परमात्मामें लीन हैं, वही साक्षात् ‘कृष्ण’ है। इसी अर्थमें इस बालकका नाम ‘कृष्ण’ कहा गया है। युगके अनुसार इसका वर्ण सत्ययुगमें ‘शुकू’, त्रेतामें ‘रक्त’ तथा द्वापरमें ‘पीत’ होता आया है। इस समय द्वापरके अन्त और कलियुगके आदिमें यह बालक ‘कृष्ण’ रूपको प्राप्त हुआ है, इस कारणसे यह नन्दनन्दन ‘कृष्ण’ नामसे विख्यात है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि, चित्त- ये तीन प्रकारके अन्तःकरण ‘आठ वसु’ कहे गये हैं। इनके अधिष्ठाता देवता भी इसी नामसे प्रसिद्ध हैं। इन वसुओंमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित होकर ये श्रीकृष्णदेव ही चेष्टा करते हैं, इसलिये इन्हें ‘वासुदेव’ कहा गया है॥९-१५॥
“वृषभानुनन्दिनी राधा” जो कीर्तिके भवनमें प्रकट हुई है, उसके साक्षात् पति ये ही हैं; इसलिये इन्हें ‘राधापति’ भी कहा गया है। ये साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति हैं और सर्वत्र व्यापक होते हुए भी स्वरूपसे गोलोकधाममें विराजते हैं। नन्द! वे ही ये भगवान् भूतलका भार उतारने, कंसादि दैत्योंको मारने तथा भक्तोंका पालन करनेके लिये तुम्हारे पुत्ररूपमें प्रकट हुए हैं। भरतवंशी नन्द! इस बालकके अनन्त नाम हैं, जो वेदोंके लिये भी गोपनीय हैं तथा इसकी लीलाओंके अनुसार और भी बहुत-से नाम विख्यात होंगे। अतः इसके कितने ही महान् विलक्षण कर्म क्यों न हों, उनके सम्बन्धमें कोई विस्मय नहीं करना चाहिये। गोपगण! अपने पुत्रके विषयमें गर्गजीकी कही हुई इस बातको सुनकर मैं कभी संदेह नहीं करता; क्योंकि पृथ्वीपर वेद-वाक्य और ब्राह्मण-वचन ही प्रमाण हैं” ॥१६-२० ॥
गोप बोले- यदि महामुनि गर्गाचार्य तुम्हारे घर आये थे, तब उसी समय नामकरण संस्कारमें तुमने भाई-बन्धुओंको क्यों नहीं बुलाया? चुपचाप अपने घरमें ही बालकका नामकरण संस्कार कर लिया। यह तुम्हारी अच्छी रीति है कि सारा कार्य घरमें ही गुप- चुप कर लिया जाय ॥ २१-२२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! यों कहकर क्रोधसे भरे हुए गोप नन्दमन्दिरसे निकलकर वृषभानुवरके पास गये। वृषभानुवर नन्दराजके साक्षात् सहायक थे, तथापि इसकी परवाह न करके जातीय संघटनके बलसे उन्मत्त हुए गोप उनके पास जाकर बोले ॥ २३-२४ ॥(Girirajkhand Chapter 1 to 5)
गोपोंने कहा- हे वृषभानुवर ! तुम हमारे जातिवर्गमें प्रधान और महामनस्वी हो। अतः गोपेश्वर भूपाल ! तुम नन्दराजको जातिसे अलग कर दो ॥ २५ ॥
वृषभानुवर बोले- नन्दराजका क्या दोष है, जिससे मैं उनको त्याग दूँ? नन्दराज तो समस्त गोपोंके प्रिय, अपनी जातिके मुकुट तथा मेरे भी परम प्रिय हैं ॥ २६ ॥
गोप बोले- राजन् ! महामते ! यदि तुम नन्दराजको नहीं छोड़ोगे तो हम सब व्रजवासी तुम्हें छोड़ देंगे। तुम्हारे घरमें कन्या बड़ी आयुकी होकर विवाहके योग्य हो गयी है और तुमने हमारी जातिके प्रधान होकर भी धन-सम्पत्तिके मदसे मतवाले हो अबतक उसे किसी श्रेष्ठ वरके हाथमें नहीं सौंपा है, इसलिये तुम्हारे ऊपर पाप चढ़ा हुआ है। महामते नरेश! आजसे हम तुम्हें जातिभ्रष्ट तथा अपनेसे अलग मान लेंगे; नहीं तो शीघ्र नन्दराजको छोड़ दो, छोड़ दो ॥ २७-२९ ॥
वृषभानुवरने कहा- गोपगण! मैं एकाग्र- चित्त होकर गर्गजीकी कही हुई बात बता रहा हूँ जिससे शीघ्र ही तुम्हारी चिन्ता व्यथा दूर हो जायगी। उन्होंने बताया- “असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, लोकेश्वर, परात्पर भगवान् श्रीकृष्ण नन्दगृहमें बालक होकर अवतीर्ण हुए हैं। उनसे बढ़कर श्रीराधाके लिये कोई वर नहीं है। ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे भूमिका भार उतारने और कंसादिके वध करनेके लिये भूतलपर श्रीकृष्णका अवतार हुआ है। गोलोकमें ‘श्रीराधा’ नामको जो श्रीकृष्णकी पटरानी हैं, वे ही तुम्हारे घरमें कन्यारूपसे अवतीर्ण हुई हैं। उन ‘परा देवी’को तुम नहीं जानते। मैं इन दोनोंका विवाह नहीं कराऊँगा। इनका विवाह यमुनातटपर भाण्डीर-वनमें होगा। वृन्दावनके समीप निर्जन सुन्दर स्थलमें साक्षात् ब्रह्माजी पधारकर श्रीराधा तथा श्रीकृष्णका विवाह- कार्य सम्पन्न करायेंगे। अतः गोपप्रवर ! तुम श्रीराधाको लोकचूडामणि साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्णकी अर्धाङ्गस्वरूपा एवं गोलोकधामकी महारानी समझो। तुम समस्त गोपगण भी गोलोकमें इस भूतलपर आये हो। इसी तरह गोपियाँ और गौएँ भी श्रीराधाकी इच्छासे ही गोलोकसे गोकुलमें आयी हैं।” यों कहकर साक्षात् महामुनि गर्गाचार्य जब चले गये, उसी दिनसे श्रीराधाके विषयमें मैं कभी कोई संदेह या शङ्का नहीं करता। इस भूतलपर ब्राह्मणवचन वेदवाक्यवत् प्रमाण हैं। गोपो! यह सब रहस्य मैंने तुम्हें सुना दिया; अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३०-३९ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘गोपविवाद’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५ ॥
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