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Garga Samhita Dwarkakhand Chapter 16 to 22

Garga Samhita
Garga Samhita Dwarkakhand Chapter 16 to 22

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Dwarkakhand Chapter 16 to 22 |
श्री गर्ग संहिता के द्वारकाखण्ड अध्याय 16 से 22 तक

श्री गर्ग संहिता के द्वारकाखण्ड (Dwarkakhand Chapter 16 to 22) सोलहवाँ अध्याय में सिद्धाश्रम की महिमा के प्रसङ्ग में श्रीराधा और गोपाङ्गनाओं के साथ श्रीकृष्ण और उनकी सोलह हजार रानियों का समागम वर्णन है। सत्रहवाँ अध्याय में सिद्धाश्रम में श्रीराधा और श्रीकृष्ण का मिलन; श्रीकृष्ण की रानियों का श्रीराधा को अपने शिविर में बुलाकर उनका सत्कार करना तथा श्रीहरि के द्वारा उनकी उत्कृष्ट प्रीति का वर्णन करना है। अठारहवाँ अध्याय में सिद्धाश्रम में व्रजाङ्गनाओं तथा सोलह सहस्त्र रानियों के साथ श्यामसुन्दर की रासक्रीड़ा का वर्णन तथा श्रीराधा के मुख से वृन्दावन के रास की उत्कृष्टता का प्रतिपादन किया गया है। उन्नीसवाँ अध्याय में लीला-सरोवर, हरिमन्दिर, ज्ञानतीर्थ, कृष्ण कुण्ड, बलभद्र सरोवर, दानतीर्थ, गणपतितीर्थ और मायातीर्थ आदिका वर्णन है। बीसवाँ अध्याय में इन्द्रतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, सूर्यकुण्ड, नीललोहित-तीर्थ और सप्तसामुद्रक-तीर्थका माहात्म्य दिया गया है। इक्कीसवाँ अध्याय में तृतीय दुर्ग के द्वार-देवताओं के दर्शन और पूजन की महिमा तथा पिण्डारक-तीर्थका माहात्म्य दिया गया है। बाईसवाँ अध्याय में सुदामा ब्राह्मण का उपाख्यान दिया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

सोलहवाँ अध्याय

सिद्धाश्रमकी महिमाके प्रसङ्गमें श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्ण
और उनकी सोलह हजार रानियोंका समागम

नारदजी कहते हैं- महामते विदेहराज ! अब सिद्धाश्रमका माहात्म्य सुनो, जिसका स्मरण करने- मात्रसे समस्त पाप छूट जाते हैं। जिसके स्पर्शमात्रसे साक्षात् श्रीहरिसे कभी वियोग नहीं होता, उसी तीर्थको पुराणवेत्ता पुरुष ‘सिद्धाश्रम’ कहते हैं। जिसके दर्शनसे सालोक्य, स्पर्शसे सामीप्य, जिसमें स्नान करनेसे सारूप्य और जहाँ निवास करनेसे सायुज्य मोक्षकी प्राप्ति होती है, उसे ही ‘सिद्धाश्रम’ जानो ॥ १-३ ॥

एक समय चद्ररानना सखीके मुखसे सिद्धाश्रम तीर्थका माहात्म्य सुनकर श्रीकृष्णके वियोगसे व्याकुल हुई श्रीराधाने उसमें नहानेका विचार किया। वैशाख मासमें सूर्यग्रहणके पर्वपर सिद्धाश्रम तीर्थकी यात्राके लिये कदली-वनसे उठकर श्रीराधाने गोपाङ्गनाओंके सौ यूथ और समस्त गोपगणोंके साथ वहाँ जानेका मन-ही-मन निश्चय किया। श्रीदामाके शापके कारण होनेवाले श्रीकृष्णवियोगके सौ वर्ष बीत चुके थे। श्रीराधिका शिविकामें आरूढ़ हुईं। उनपर छत्र-चैवर डुलाये जाने लगे। इस प्रकार वे सती श्रीराधा आनर्त- देशके महातीर्थ सिद्धाश्रमको गयीं ॥ ४-७ ।।

नरेश्वर! वहीं साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण अपनी सोलह हजार रानियोंके साथ यादवगणोंसे घिरे हुए तीर्थयात्राके लिये आये। करोड़ों बलिष्ठ गोपाल हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये श्रीराधिकाकी आज्ञाके अनुसार सिद्धाश्रमकी चारों ओरसे रक्षा कर रहे थे। गोपियोंके सौ यूथ भी बड़े शक्तिशाली थे। वे तथा अन्य गोपाङ्गनाएँ हाथों में बेंतकी छड़ी लिये सिद्धाश्रममें विधिपूर्वक स्रान करती हुई श्रीराधाकी सेवामें तत्पर थीं। द्वारकावासी स्त्रानकी इच्छासे वहाँ आकर खड़े थे। शस्त्र और वेत्र धारण करनेवाले गोपोंने उन्हें मार-मारकर दूर हटा दिया। इसी समय भगवान् श्रीकृष्णकी रानियोंने सिद्धाश्रममें प्रवेश किया। उन रानियोंने भगवान् श्रीकृष्णसे पूछा- ‘देवकीनन्दन ! आप सर्वज्ञ हैं, अतः हमें बताइये, यह कौन स्त्री स्नान कर रही है, जिसका वैभव अद्भुत दिखायी देता है तथा जिसका गौरव मानकर समस्त यादव-पुंगव यहाँ भयभीत से खड़े हैं। अहो! यह किसकी प्रिया है, इसका क्या नाम है और यह कहाँकी रहने- वाली है?॥८-१३ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

श्रीभगवान् बोले- ये साक्षात् वृषभानुकी पुत्री कीर्तिनन्दिनी श्रीराधा हैं, जो सम्पूर्ण व्रजकी अधीश्वरी, गोपाङ्गनाओंकी स्वामिनी तथा मेरी प्राणवल्लभा हैं। ये व्रजसे गोपीगणोंके साथ सिद्धाश्रममें स्नान करनेके लिये आयी हैं। इन्हींके गौरवसे ये यादव त्रस्त होकर खड़े हैं। इन्हींका यह अद्भुत वैभव है॥ १४-१५ ॥

श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर अपने अनुपम रूप और यौवनपर गर्व करनेवाली भामिनी सत्यभामा अपनी सौतोंके बीच धीरे-धीरे बोलीं- ‘क्या राधा ही रूपवती हैं, मैं रूपवती नहीं हूँ? पूर्वकालमें बहुतसे लोगोंने मेरी याचना की थी। मैं अपने रूप और औदार्य-गुणसे सदा ही पूजित रही हूँ। सखियो ! मेरे रूपके ही कारण शतधन्वाकी मृत्यु हुई, अक्रूर और कृतवर्माको यदुपुरीसे पलायन करना पड़ा। जो स्यमन्तकमणि प्रतिदिन अपने-आप आठ भार सुवर्णकी सृष्टि करती है, जिसके रहनेसे दुर्भिक्ष, महामारी आदि कष्ट स्वतः भाग जाते हैं तथा जिसकी पूजाके स्थानमें सर्प, आधि-व्याधि, अमङ्गल और मायावी लोग नहीं रह पाते, मेरे पिताने वही स्यमन्तक- मणि मेरे दहेजमें दी थी। उस मणिसे मेरे घरमें भी सम्पूर्ण अद्भुत वैभव प्रकट हो गया है। मैं अपने महान् प्रेमसे श्रीकृष्णको वशमें रखती हूँ, उनके साथ गरुडपर बैठकर यात्रा करती हूँ। प्राग्ज्योतिषपुरमें भौमासुरके साथ जो महान् युद्ध हुआ था, उसे मैंने अपनी आँखोंसे देखा है। मेरी ही कृपासे तुम सब प्राग्ज्योतिषपुरसे द्वारकापुरीमें आयीं और सब-की-सब श्रीकृष्णकी पत्नी हुई, इसमें संशय नहीं है। मेरी ही बातका आदर करके इन श्रीकृष्णने इन्द्रको छत्र दिया। मेरा ही प्रिय करनेकी इच्छासे इन्होंने देवमाता अदितिको उनके दोनों कुण्डल अर्पित किये। ऐरावतके वंशमें उत्पन्न बड़े-बड़े गजराज, जो भौमासुरकी सम्पत्ति थे, मेरी ही इच्छासे महात्मा श्रीकृष्णद्वारा द्वारकामें लाये गये। मेरे ही कारण श्रीहरिने देवराज इन्द्रसे भी महान् वैर ठान लिया। मेरे द्वारपर वृक्षराज पारिजात सदा सुशोभित होता है। मैंने अपने पातिव्रतधर्मसे ही श्रीकृष्णको वशमें कर रखा है। मैंने समस्त सामग्रियोंके साथ नारदजीके हाथ श्रीकृष्णका दान कर दिया था। मेरे समान गौरव और वैभव किसी भी स्त्रीको नहीं प्राप्त हो सकता। रूप और उदारता भी मेरे तुल्य किसी भी स्त्रीमें नहीं है। फिर राधाकी तो बात ही क्या है? जिनके रूपपर चेदिराज शिशुपाल आदिने रणभूमिमें श्रीकृष्णके साथ युद्ध छेड़ दिया था, उन रुक्मिणीका रूप-सौन्दर्य क्या किसीसे कम है? सुन्दर भौंहोंवाली बहिन रुक्मिणी! तुम क्योंकर रूपवती नहीं हो? सखियो ! राधा एक गोपकी कन्या है और तुम सब राजकुमारियाँ हो; सभी धन्य और मान्य हो तथा मानवती स्त्रियोंमें श्रेष्ठ हो’ ॥ १६-२९ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

मिथिलेश्वर ! सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर रुक्मिणी आदि सभी श्रेष्ठ रानियाँ मानवती हो गयीं। उन सबको अपने कुल, कौशल, शील, धन, रूप और यौवनपर गर्व था। वे आठों पटरानियाँ सबको मान देनेवाले श्रीकृष्णसे बोलीं ॥ ३०-३१ ॥

रानियाँ बोलीं- प्रभो! आपके मुँहसे पहले हमने राधाके रूपकी बड़ी बड़ाई सुनी है, जिनके प्रति तुम सदा अनुरक्त रहते हो और वे भी सदा तुम्हारे अनुरागके रंगमें रंगी रहती हैं। आज हम उन्हीं तुम्हारी व्रजवासिनी प्रियतमा राधाको देखना चाहती हैं, जो सदा तुम्हारे वियोगसे खिन्न रहती हैं और यहाँ स्नानके लिये आयी हुई हैं॥ ३२-३३ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब ‘तथास्तु’ कहकर पटरानियोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण सोलह हजार रानियोंके साथ श्रीराधाका दर्शन करनेके लिये गये। सोनेके रमणीय शिविरमें- जो ध्वजा पताकाओं से सुशोभित था और जिस सुन्दर शिविरमें चन्द्र- मण्डलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाला चंदोवा तना था; मोतियोंकी झालरोंसे युक्त परदा लगा था और जहाँ स्वच्छ वस्त्रोंका सुन्दर बिछौना बिछा था; मालतीके मकरन्द एवं इत्र आदिकी सुगन्ध जहाँ सब ओर छा रही थी और उसीके कारण भ्रमरावलियाँ जहाँ मधुर गुञ्जन कर रही थीं-पटरानी श्रीराधा, जिनका चित्त श्रीकृष्णने चुरा लिया था, विराजमान थीं और सखियाँ हंसके समान श्वेत एवं दिव्य व्यजन डुलाकर उनकी सेवा करती थीं। कोई सखी उनके ऊपर छत्र ताने हुए थीं, कुछ सखियाँ झूलेकी डोर पकड़कर झुला रही थीं और कुछ इधर-उधर आती- जाती दिखायी देती थीं। श्रीराधाके कानोंमें बालरविके समान कान्तिमान् कुण्डल झलमला रहे थे। विद्युत्के समान उद्दीप्त माला धारण करनेके कारण उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी थी। उनके श्रीअङ्गोंसे कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाश फैल रहा था। वे तन्वङ्गी तथा कोमलाङ्गी थीं। वे अपने पैरोंकी सुन्दर अङ्गुलियोंके अग्रभागसे पुष्पाच्छादित मनोहर भूमिपर अत्यन्त कोमल चरणारविन्द धीरे- धीरे रख रही थीं ॥ ३४-४० ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

महाराज ! उन श्रीराधाको दूरसे ही देखकर श्रीकृष्णकी वे सहस्त्र रानियाँ उनके रूपसे अत्यन्त मोहित होकर मूच्छित हो गयीं। उनके तेजसे इनकी कान्ति उसी तरह विलुप्त हो गयी, जैसे सूर्योदय होनेपर तारिकाएँ। इन्हें जो रूपका अभिमान था, वह जाता रहा। ये सब रानियाँ परस्पर इस प्रकार कहने लगीं-अहो! ऐसा अद्भुत रूप तो तीनों लोकों में कहीं भी नहीं है। हमने इनके अद्वितीय मनोहर रूपको जैसा सुना था, वैसा ही देखा।’ इस प्रकार आपसमें बात करती हुईं वे रानियाँ श्रीकृष्णको आगे करके श्रीराधिकाके पास जा पहुंचीं। गोपाङ्गनाओं तथा राजकुमारियोंके नेत्र आपसमें मिले ॥ ४१-४४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें सिद्धाश्रम-माहात्म्यके प्रसङ्गमें ‘श्रीराधाके रूपका दर्शन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

सत्रहवाँ अध्याय

सिद्धाश्रममें श्रीराधा और श्रीकृष्णका मिलन; श्रीकृष्णकी रानियोंका
श्रीराधाको अपने शिविरमें बुलाकर उनका सत्कार करना तथा
श्रीहरिके द्वारा उनकी उत्कृष्ट प्रीतिका प्रकाशन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! पटरानियोंसहित श्रीकृष्णको आया देख गोपाङ्गनाएँ अत्यन्त हर्षसे खिल उठीं और तत्काल जय-जयकार करने लगीं। श्रीराधा सहसा उठीं और हाथ जोड़, श्रीहरिकी परिक्रमा करके अपने कमलोपम नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाने लगीं। उन्होंने श्रीकृष्णके बैठनेके लिये एक सोनेका सिंहासन दिया, जिसके पार्योंमें स्यमन्तकमणि जड़ी हुई थी। पार्श्वभागमें चिन्तामणि जगमगा रही थी, मध्यभागमें पद्मरागमणि शोभा दे रही थी। वह सिंहासन चन्द्र- मण्डलसे मण्डित था; पारिजातके पुष्पोंसे सज्जित और अमृतवर्षी छत्रसे अलंकृत था ॥१-४॥

मण्डलके समान गोलाकार था। उसकी पादपीठिकामें कौस्तुभ-मणियाँ जड़ी गयी थीं। वह सिंहासन कुण्ड उन्हें सिंहासन देकर श्रीराधा हासयुक्त मुखसे बोलीं- ‘आज मेरा जन्म सफल हो गया, आज मेरी तपस्याका फल मिल गया। श्रीहरे। तुम आ गये तो आज मेरा धर्म-कर्म सफल हो गया। श्रीसिद्धाश्रमका स्त्रान धन्य है, जिससे मेरा मनोरथ अद्भुत रीतिसे सफल हुआ। मैंने तो कभी तुम्हारी भक्ति भी नहीं की। तुम भक्तोंके सहायक हो। देव! तुमने मेरी सहायताके लिये इस भूतलपर बहुत-से असुरोंको मार भगाया। जिससे त्रिलोकविजयी कंस भी डरता था, उस शङ्खचूडको तुमने मेरे कहने से मार गिराया। हरे! मेरे प्रति प्रेम रखनेके कारण ही तुमने व्रजमण्डलमें देवलोकका वैभव दिखाया। देव! तुमने बलपूर्वक इन्द्रका मान भङ्ग किया और मेरे ही कारण व्रजकी रक्षा करते हुए गोवर्धन पर्वतको धारण किया। रासमण्डलमें गोपियोंने तुम्हारा यथेष्ट आलिङ्गन किया और तुम उनके वशमें हो गये। देव! तुम्हारा यह चरित्र नरलोककी विडम्बनामात्र है’ ॥५-१०॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहती हुई श्रीराधाने चन्द्राननाकी प्रेरणासे तुरंत श्रीकृष्णकी रानियोंपर दृष्टिपात किया और बड़े आदरके साथ उन सबको सम्मान दिया। रुक्मिणी, जाम्बवती, सत्यभामा, सत्या, भद्रा, लक्ष्मणा, कालिन्दी और मित्रविन्दासे परस्पर गले मिलकर, रोहिणी आदि सोलह हजार रानियोंको भी प्रेमानन्दमयी श्रीराधाने दोनों भुजाओंसे पकड़कर सानन्द हृदयसे लगाया ॥ ११-१३ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

श्रीराधा बोलीं- बहिनो! जैसे चन्द्रमा एक है, किंतु उससे स्नेह रखनेवाले चकोर बहुत हैं, जैसे सूर्य एक हैं, किंतु उन्हें देखनेवाली दृष्टियाँ बहुत हैं, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र एक हैं, किंतु इनमें भक्ति- भाव रखनेवाली हम सब बहुत-सी स्त्रियाँ हैं। जैसे कमलके प्रभावको भ्रमर जानता है तथा रत्नके प्रभावको उसकी परख करनेवाला जौहरी जानता है, जैसे विद्याके प्रभावको विद्वान् और काव्यके प्रभावको कवीन्द्र जानता है, जैसे सहस्रों मनुष्योंके होनेपर भी रसके प्रभावको केवल रसिक जानता है, उसी प्रकार, हे राजकुमारियो ! इस भूतलपर श्रीकृष्णके प्रभावको यथार्थरूपसे इनका भक्त ही जानता है॥ १४-१६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधाकी बात सुनकर उस समय सपनियोंसहित भीष्मनन्दिनी रुक्मिणीने कमललोचना श्रीराधासे कहा ॥ १७ ॥

रुक्मिणी बोलीं- श्रीराधे ! वृषभानुनन्दिनि ! तुम धन्य हो। तुम्हारे भक्ति भावसे ये श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे वशमें रहते हैं। तीनों लोकोंके लोग जिनकी कथा-वार्ता निरन्तर कहते-सुनते हैं, वे ही भगवान् दिन-रात तुम्हारी कथा कहा करते हैं। श्रीहरिके प्रति तुम्हारे प्रेम-भावका स्वरूप जैसा हमने सुना था, वैसा ही देखा। तुम्हारे लिये कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है। देवि ! तुम हमारे शिविरमें शीघ्र चलो; हम सब तुम्हें ले चलनेके लिये ही यहाँ आयी हैं॥ १८-१९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर भीष्मनन्दिनी रुक्मिणी कीर्तिकुमारी श्रीराधाको बड़े आदरसे महात्मा श्रीकृष्णके साथ अपने शिविरमें ले आर्यों। सर्वतोभद्र नामक शिविरमें, जो कमलोंके केसरसे सुवासित था, सोनेके पलंगपर, शिरीष-पुष्पके समान कोमल बिछावन बिछाकर, तकिया लगाकर, वस्त्र, माला और शृङ्गारसामग्रीसे सपत्नियों सहित सती रुक्मिणीने रात्रिके समय विधिवत् पूजा करके उन्हें सुखपूर्वक ठहराया। फिर गोपाङ्गनाओं के सौ यूथोंका भी पृथक् पृथक् पूजन करके उन कृष्ण- प्रियाओंने सबके साथ बहुविध वार्तालाप किया। फिर श्रीराधाको वहाँ सुलाकर वे रानियाँ प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने शिविरमें गर्यो। श्रीकृष्णके पास पहुँचकर रुक्मिणीने देखा कि वे बैठे-बैठे जग रहे हैं। तब उन्होंने श्रीकृष्णसे पूछा- ‘स्वामिन् ! आप सोते क्यों नहीं?’ ॥ २०-२४ ॥

श्रीभगवान् बोले- शुभ्र ! तुमने अगवानी करके, विनयपूर्वक प्रेमभरी बातें सुनाकर, आश्वासन देकर व्रजेश्वरी श्रीराधाकी भलीभाँति पूजा की है और वे अत्यन्त प्रसन्न हुई हैं; परंतु एक बातकी ओर तुमने ध्यान नहीं दिया। वे प्रतिदिन सोनेसे पहले उत्तम दूध पिया करती हैं, किंतु सुन्दरि ! आज श्रीराधाने दुग्धपान नहीं किया। महामते! इसीलिये अबतक उनके नेत्रोंमें नींद नहीं आयी है; और भीष्मनन्दिनि ! यही कारण है कि मैं भी नहीं सो सका हूँ ॥ २५-२७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! पतिदेवताकी यह उत्तम बात सुनकर रुक्मिणी अपनी सौतोंके साथ दूध लेकर बड़े आदरसे श्रीराधाके समीप गयीं। सोनेके कटोरेमें मिश्री मिलाया हुआ गरम दूध डालकर भीष्मकनन्दिनीने बड़े प्रेमसे श्रीराधाको पिलाया। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके उनके हाथमें पानका बीड़ा दिया और सत्यभामा आदि सपत्नियोंके साथ अपने शिविरमें लौट आयीं ॥ २८-३० ॥

श्रीकृष्णके समीप आकर शुभस्वरूपा श्रीरुक्मिणी अपने द्वारा की गयी दूध पहुँचाने और पिलानेकी सेवाका वर्णन करते हुए साक्षात् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंकी सेवामें लग गयीं। अपने कोमल कर-पल्लवोंसे निरन्तर श्रीचरणोंका लालन करती हुई रुक्मिणी श्रीकृष्णके पाद-तलमें नये छाले देख आश्चर्यसे चकित हो उठीं। उन्होंने पूछा- ‘प्रभो! आपके चरण-तलोंमें छाले कैसे उभड़ आये हैं? भगवन्! ये आज ही उभड़े हैं। मैं नहीं जानती कि इसका कारण क्या है।’ तब श्रीहरिने श्रीराधाकी भक्ति- को प्रकाशित करनेके लिये सोलह हजार रानियोंके सामने स्वयं रुक्मिणीसे कहा ॥ ३१-३४ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

श्रीभगवान् बोले- श्रीराधिकाके हृदयारविन्दमें मेरा चरणारविन्द सदा विराजमान रहता है; उनके प्रेमपाशमें बँधकर वह निरन्तर वहीं रहता है, कभी निमेषमात्रके लिये भी अलग नहीं होता। आज तुमलोगोंने उन्हें कुछ अधिक गरम दूध पिला दिया है। वह दूध मेरे पैरोंपर पड़ा और उनमें छाले पड़ गये। तुम सबने उन्हें थोड़ा गरम दूध नहीं दिया, अधिक गरम दूध दे दिया ॥ ३५-३६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! श्रीकृष्णकी बात सुनकर रुक्मिणी आदि सुन्दरियाँ बड़े प्रेमसे उनके पैर सहलाने लगीं और उन्हें सब ओरसे बड़ा विस्मय हुआ। वे परस्पर कहने लगीं- ‘मधुसूदन माधवमें श्रीराधाकी प्रीति बहुत ही उच्च कोटिकी है। उनकी समानता करनेवाली कोई स्त्री नहीं है। ये श्रीराधा इस भूतलपर अद्वितीय नारी हैं’ ॥ ३७-३८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें सिद्धाश्रममें श्रीराधाकृष्ण-समागमके प्रसङ्गमें ‘श्रीराधाके प्रेमका प्रकाश’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सरल गीता सार हिंदी मे

अठारहवाँ अध्याय

सिद्धाश्रम में व्रजाङ्गनाओं तथा सोलह सहस्त्र रानियों के साथ श्यामसुन्दर की
रासक्रीड़ा का वर्णन तथा श्रीराधा के मुख से वृन्दावन के
रासकी उत्कृष्टताका प्रतिपादन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधा और गोपीगणोंका उत्कृष्ट प्रेम जानकर रुक्मिणी आदि राजकुमारियोंने रासक्रीड़ा देखनेके लिये उत्सुक हो श्रीहरिसे कहा ॥ १ ॥

पटरानियाँ बोलीं- श्यामसुन्दर ! तुममें प्रेम- लक्षणाभक्ति रखनेवाली गोपसुन्दरियाँ धन्य हैं, जो रास-रङ्गमें सम्मिलित हुई थीं। इन सबके तपका क्या वर्णन हो सकता है। माधव! प्रभो! यदि तुम हमारी प्रार्थना स्वीकार करो तो, वृन्दावनमें तुमने जिस विधिसे रास रचाया था, उस विधिको हम देखना चाहती हैं। तुम यहीं हो, श्रीराधा यहीं विराज रही हैं, सम्पूर्ण गोपसुन्दरियाँ एवं व्रजाङ्गनाएँ भी यहीं हैं और हम सब भी यहीं हैं; अतः देवेश्वर! यहाँ रासका आयोजन सर्वथा उचित होगा। जगन्नाथ! तुम हमारे इस मनोरथको पूर्ण करो। मनोहर! प्राणवल्लभ ! हमने दूसरा कोई मनोरथ नहीं प्रकट किया है, केवल रासक्रीड़ाका दर्शन कराओ। रानियोंकी यह बात सुनकर भगवान् हँसने लगे। उन्होंने प्रेमपूरित होकर उन सबको अपने वचनोंद्वारा मोहित-सी करते हुए कहा ॥ २-६ ॥

श्रीभगवान् बोले- अङ्गनाओ! रासेश्वरी श्रीराधाके मनमें भी रासक्रीड़ाकी इच्छा हो तो यहाँ रास हो सकता है। अतः तुम्हीं सब जाकर उनसे पूछो। श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर रुक्मिणी आदि राज- कुमारियोंने श्रीराधाके पास जाकर हँसते हुए मुखसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहा ॥ ७-८ ॥

श्रीरानियाँ बोलीं- रम्भोरु ! चन्द्रवदने! व्रज- सुन्दरियोंकी स्वामिनि ! रासेश्वरि ! प्रियतमे ! सखि ! शीलरूपिणि । रासमें कीर्तिरानीके कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाली शुभाङ्गि ! हम सब तुम्हारी सखियाँ तुमसे एक बात पूछने आयी हैं। रासमें रस-प्रदान करनेवाले रासेश्वर यहीं हैं तथा रासकी अधीश्वरी तुम भी यहीं हो और अन्य समस्त गोपसुन्दरियाँ भी यहीं हैं। इसी प्रकार हम सब भी यहाँ हैं; अतः सब प्रकारसे रसका आस्वादन करनेके लिये तुम यहाँ रासका आयोजन करो। प्रियतमे। ऐसा हो तो यह हमारे लिये अत्यन्त प्रिय होगा ॥ ९-१०॥

श्रीराधाने कहा- सत्पुरुषोंपर कृपा करनेवाले परम रासेश्वर श्यामसुन्दरके मनमें यदि रासक्रीड़ाकी अभिलाषा हो तो यहाँ रास हो सकता है। अतः मेरी प्रियतमा सखियो ! तुम सब परम सेवा-शुश्रूषा और पराभक्तिसे उनकी पूजा करके उन्हें वशमें करो ॥ ११ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधाकी बात सुनकर रानियोंने श्रीकृष्णकी कही हुई बात बतायी। तब महामना श्रीराधा ‘तथास्तु’ कहकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। फिर वैशाख मासकी पूर्णिमाको उस शुभ एवं पुण्यतीर्थ सिद्धाश्रममें जब रात्रिका प्रथम प्रहर प्राप्त हुआ और चन्द्रमाकी चाँदनी सब ओर फैल गयी, तब रासक्रीड़ाका आरम्भ हुआ। रासेश्वरके रासका आनन्द प्राप्त करनेके लिये रासेश्वरी श्रीराधा तैयार हो गयीं और उनके साथ रसिकशेखर श्यामसुन्दर रासस्थलीमें उसी तरह सुशोभित हुए, जैसे रतिके साथ रतिपति मदन। जितनी सम्पूर्ण गोपसुन्दरियाँ और जितनी राजकन्याएँ वहाँ उपस्थित थीं, उतने ही रूप धारण करके दो-दो सुन्दरियोंके बीचमें एक-एक श्रीकृष्ण शोभा पाने लगे। ताल, वेणु और मृदङ्गोंकी ध्वनिके साथ मधुर कण्ठवाली सखियोंके गीत और उनके नूपुर-काञ्ची आदि आभूषणोंकी मधुर झनकारका मिला हुआ महान् शब्द वहाँ सब ओर गूंज उठा ॥ १२-१६ ॥

राजन् ! करोड़ों कामदेवोंके लावण्यको लज्जित करनेवाले, वनमालाधारी, कुण्डलमण्डित एवं किरीट, वलय और भुजबंदोंसे अलंकृत पीताम्बरधारी श्याम- सुन्दर रासेश्वर रासमें स्वयं रासेश्वरीके साथ गीत गाने लगे। विदेहराज ! जैसे तारागणोंसे घिरा हुआ चन्द्रमा शोभा पाता है, उसी प्रकार रासेश्वर श्रीकृष्ण उन सुन्दरियोंके साथ सुशोभित हो रहे थे। मिथिलेश्वर ! इस प्रकार वह महानन्दमयी सम्पूर्ण शुभ निशा रास- मण्डलमें एक क्षणके समान व्यतीत हो गयी। श्रीरास- मण्डलकी शोभा देख रुक्मिणी आदि समस्त पटरानियाँ परमानन्दको प्राप्त हुईं। उन सबका मनोरथ पूर्ण हो गया। रासकी समाप्ति होनेपर रुक्मिणी आदि रानियोंने प्रेमपरवश होकर साक्षात् परिपूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्णसे कहा ॥ १७-२१ ॥

रानियाँ बोलीं- प्रभो! मनोहर रास-रङ्गमें आपकी रूप-माधुरी देखकर हमारा मन उसी प्रकार आत्मानन्दमें निमग्र हो गया, जैसे ज्ञानी मुनि ब्रह्मानन्द- में डूब जाते हैं। ऐसा रास दूसरा न हुआ होगा न होगा। माधव ! यहाँ गोपाङ्गनाओंके सौ यूथ विद्यमान हैं। सखियोंसहित हम सोलह हजार आपकी पत्नियाँ भी इसमें सम्मिलित रही हैं। करोड़ों सखियोंके साथ आठों पटरानियाँ भी यहाँ उपस्थित हैं। माधवेश्वर! ऐसा रास तो वृन्दावनमें भी नहीं हुआ होगा ॥ २२-२४॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार अभिमान प्रकट करनेवाली रानियोंकी बात सुनकर श्यामसुन्दर श्रीहरि हँसने लगे और बोले- ‘यहाँका रास सर्वोत्कृष्ट है या वृन्दावनका, यह तुम श्रीराधासे ही पूछो’ ॥ २५ ॥

तब सत्यभामा आदि सब रानियोंने मनोहारिणी श्रीराधासे इसके विषयमें पूछा। श्रीराधा मन-ही-मन कुछ हँसती हुई यह उत्तम बात बोलीं ॥ २६ ॥

श्रीराधाने कहा- सखियो ! बहुत-सी सुन्दरियोंसे भरा हुआ यहाँका रास भी बहुत अच्छा रहा है; परंतु पहले-पहल वृन्दावनमें जो रास हुआ था, उसके समान यह कदापि नहीं था। यहाँ दिव्य वृक्षों और लताओंसे व्याप्त, प्रेमके भारसे झुकी हुई लता- वल्लरियोंसे विलसित और मधुमत्त मधुपोंसे सुशोभित वृन्दावन कहाँ है? पुष्प-समूहोंको बहाती हुई फूलोंके छापसे अलंकृत श्यामपटकी भाँति शोभा पानेवाली हंसों और पद्मवनोंसे व्याप्त यमुना नदी यहाँ कहाँ उपलब्ध है? फूलोंके भारसे झुकी हुई माधवी लताएँ यहाँ कहाँ दिखायी देती हैं? प्रेमपरवश पक्षी कहाँ मधुर स्वरोंमें गान कर रहे हैं? चञ्चल भ्रमर-पुञ्जोंसे युक्त कुञ्ज और दिव्य-मन्दिरोंसे मण्डित निकुञ्ज यहाँ कहाँ सुलभ हैं? कमलोंके परागको लेकर शीतल- मन्द-सुगन्ध वायु यहाँ कहाँ वह रही है? ऊँचे-ऊँचे मनोहर शिखरोंसे सुशोभित, सर्वत्र फल-फूलोंसे सम्पन्न तथा सुन्दर कन्दराओंसे अलंकृत महाकाय गजराजकी भाँति शोभा पानेवाला गिरिराज गोवर्धन यहाँ कहाँ दृष्टिगोचर होता है? जहाँ वायुने कोमल बालूका संचय कर रखा है, यमुनाके उस रमणीय पुलिनपर वंशी और बेंतकी छड़ी धारण किये, मल्ल अथवा नटवरके वेषमें विराजित श्यामसुन्दरकी झाँकी यहाँ कहाँ मिल रही है? इस स्थानपर श्रीकृष्णके लिये वनमालासे विभूषित शृङ्गार कहाँ उपलब्ध है? श्यामसुन्दरकी काली, घुँघराली और सुगन्धयुक्त अलकावलियोंका दर्शन यहाँ कहाँ होता है? श्रीकृष्णके स्निग्ध कपोलोंसे मनोहर मुखपर दोनों ओर कुण्डलोंका हिलना-डुलना कहाँ दीखता है? उनके मुखपर पत्र-रचना कहाँ की गयी है? कहाँ सुगन्धके लोभसे भ्रमरावलियाँ टूटी पड़ती हैं? कहाँ वह प्रेमपूर्ण निरीक्षण, स्पर्श और हर्षोल्लास यहाँ सुलभ हुआ है? कामदेवके तीखे बाणोंको तिरस्कृत करनेवाले नेत्रकोणोंसे निहारनेपर जो कटाक्षपातजनित रस प्रकट होता है, वह यहाँ कहाँ प्राप्त हुआ है? दोनों हाथोंसे एक-दूसरेको पकड़कर खींचना, हाथसे हाथ छुड़ाना, निकुञ्जमें छिपना, सामने होनेपर भी दिखायी न देना आदि लीलाएँ यहाँ कहाँ दिखायी देती हैं? यहाँ चीर उठा लेना अथवा वंशी और बेंतको चुरा लेना कहाँ सम्भव हुआ है? प्रेमसे दोनों भुजाओंद्वारा परस्पर खींचकर हृदयसे लगाना, बार-बार एक-दूसरेको पकड़ना, श्यामसुन्दरकी बाँहोंपर चन्दनका लेप लगाना आदि बातें यहाँ कहाँ सम्भव हुई हैं? जहाँ-जहाँकी जो लीला है, वहीं-वहीं वह शोभा पाती है। जहाँ वृन्दावन नहीं है, वहाँ मेरे मनको सुख नहीं मिल सकता ॥ २७-४० ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

नारदजी कहते हैं- श्रीराधाकी यह बात सुनकर सारी पटरानियोंने अपने रास-सम्बन्धी अभिमानको त्याग दिया। वे हर्षित और विस्मित हो गयीं। इस प्रकार राधिकावल्लभ श्रीकृष्ण सिद्धाश्रममें रासक्रीड़ा सम्पत्र करके, समस्त गोपियोंको साथ ले, श्रीराधा और अपनी रानियों सहित द्वारकामें प्रविष्ट हुए। उन्होंने श्रीराधाके लिये बहुत-से सुन्दर मन्दिर बनवाये। उन समस्त व्रजाङ्गनाओंके रहनेके लिये भी सुखपूर्वक व्यवस्था की ॥ ४१-४३३ ॥

नरेश्वर! इस प्रकार मैंने सिद्धाश्रमकी कथा तुम्हें सुनायी है, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाली, पुण्यमयी तथा सबको मोक्ष देनेवाली है ॥ ४४-४५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें सिद्धाश्रम-माहात्म्यके प्रसङ्गमें ‘रासोत्सव’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गायत्री कवचम्

उन्नीसवाँ अध्याय

लीला-सरोवर, हरिमन्दिर, ज्ञानतीर्थ, कृष्ण कुण्ड, बलभद्र सरोवर,
दानतीर्थ, गणपतितीर्थ और मायातीर्थ आदिका वर्णन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! द्वारावती- मण्डल सौ योजन विस्तृत है। उसकी पूरी परिक्रमा चार सौ योजनोंकी है। उसके बीचमें श्रीकृष्णनिर्मित दुर्ग बारह योजन विस्तृत है। दूसरा बाहरी दुर्ग नब्बे कोसोंमें महात्मा श्रीकृष्णद्वारा निर्मित हुआ है, जो शत्रुओंके लिये दुर्लङ्घय है। राजन् । तीसरा बाहरी दुर्ग दो कम दो सौ कोसोंमें संघटित हुआ है, जिसमें रत्नमय प्रासादोंका निर्माण हुआ था। इनके अन्तर्दुर्गमें भी महात्मा श्रीकृष्णके नौ लाख विचित्र मन्दिर हैं ॥ १-४ ॥

वहाँ राधा-मन्दिरके द्वारपर ‘लीला सरोवर’ है, जो समस्त तीर्थोंमें उत्तम माना गया है। राजन् ! उसका गोलोकसे आगमन हुआ है। उसमें स्रान करके व्रत- धारणपूर्वक एकाग्रचित्त हो, अष्टमी तिथिको विधिवत् सुवर्णका दान दे, तीर्थको नमस्कार करे तो पापी मनुष्य भी कोटिजन्मोंके किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है-इसमें संशय नहीं है। प्राणान्त होनेपर उस मनुष्यको लेनेके लिये निश्चय ही गोलोकसे एक विशाल विमान आता है, जो सहस्रों सूर्योके समान तेजस्वी होता है। वह मनुष्य दस कामदेवोंके समान लावण्यशाली, रत्नमय कुण्डलोंसे मण्डित, वनमाला धारी, पीताम्बरसे आच्छादित, श्यामकान्तिमान्, सहस्त्रों सूर्योंके समान दीप्तिमान्, सहस्रों पार्षदोंसे सेवित दिव्यरूप धारण कर लेता है। उसके दोनों ओर चैवर डुलाये जाते हैं, जय-जयकार की जाती है, वेणुध्वनिके साथ दुन्दुभियोंका गम्भीर नाद होता रहता है। इस अवस्थामें वह उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हो गोलोक धाममें जाता है, इसमें संशय नहीं है॥ ५-१० ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

महामते राजन् ! अब अन्य तीर्थोंका वर्णन सुनो ! वहाँ सोलह हजार एक सौ आठ तीर्थ हैं और वहाँ श्रीकृष्णकी उतनी ही पत्नियोंके पृथक् पृथक् भवन हैं। उन सबकी बारी-बारीसे परिक्रमा और वन्दना करके ‘ज्ञानतीर्थ’ में गोता लगाकर जो पारिजातका स्पर्श करता है, उसे तत्काल ज्ञान, वैराग्य और भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है। उसके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्ण सदा प्रसत्रचित्त होकर वास करते हैं। समूची सिद्धियाँ और समृद्धियाँ स्वभावतः उसकी सेवामें उपस्थित रहती हैं। जो श्रीहरिके मन्दिरका दर्शन करता है, वह मुक्त और कृतार्थ हो जाता है। उसके समान दूसरा कोई वैष्णव नहीं है और उस तीर्थके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है॥ ११-१५॥

भगवान्के मन्दिरका विस्तार पाँच योजन है। वहाँसे सौ धनुषकी दूरीपर ‘श्रीकृष्ण कुण्ड’ है, जो भगवान् श्रीकृष्णके तेजसे प्रकट हुआ है। उसी कुण्डमें स्नान करके जाम्बवतीनन्दन साम्ब कुष्ठरोगसे मुक्त हुए थे। उस कुण्डके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पा जाता है॥ १६-१७ ॥

मैथिल ! वहाँसे अठारह पदकी दूरीपर पूर्व दिशामें सब तीर्थोंमें उत्तम, पुण्यदायक और विशाल ‘बलभद्र-सरोवर’ है। महाबली बलदेवजीने पृथ्वीकी परिक्रमा करके जहाँ यज्ञ किया, वहीं उस सरोवरका निर्माण कराकर वे रेवती रानीके साथ विराजमान हुए। उसमें स्नान करके मनुष्य तत्काल समस्त पातकोंसे मुक्त हो जाता है। पृथ्वीकी परिक्रमाका फल उसके लिये दुर्लभ नहीं रह जाता ॥ १८-२०॥
राजन् ! भगवान के मन्दिरसे सहस्र धनुष आगे दक्षिण दिशामें गणनाथका महान् तीर्थ है। राजन् ! अपने पुत्र प्रद्युम्नको जन्म देनेपर, जब वे दस दिन बीतनेके पहले ही अपहृत कर लिये गये, तब रुक्मिणीने जहाँ गणेश-पूजाका अनुष्ठान किया था, वहीं गणनाथ ‘तीर्थ’ है। नृपेश्वर! वहाँ स्नान करके जो स्वर्णका दान देता है, उसे पुत्रकी प्राप्ति होती है और उसका वंश बढ़ता है॥ २१-२३॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

राजन् ! भगवान के मन्दिरसे पश्चिम दिशामें दो सौ धनुषकी दूरीपर परम मङ्गलमय ‘दानतीर्थ’ है। वहाँ श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रसन्नताके लिये जो प्रतिदिन दान करता है, वह उत्तम पुण्यका भागी होता है। विदेह- राज। उस तीर्थमें स्नान करके जो मनुष्य दो पल सोना, आठ पल चाँदी और सौ रेशमी पट्टाम्बर दान देता है तथा सहस्रों मोहर और नवरत्नोंका दान करता है, उस श्रेष्ठ मानवको मिलनेवाले पुण्यफलका वर्णन सुनो। सहस्त्र अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ भी दानतीर्थके पुण्यकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। बदरिकाश्रम-तीर्थकी यात्रासे मनुष्य जिस फलको पाता है, सूर्यके मेषराशिपर रहते समय सैन्धवारण्यकी यात्रा करनेपर जिस फलकी प्राप्ति होती है, सूर्यके वृषराशिमें रहते समय उत्पलावर्त्ततीर्थकी यात्रामें स्नान-दानका उन दोनों तीर्थोकी अपेक्षा लाखगुना फल मिलता है-इसमें संशय नहीं है। परंतु विदेहराज! दानतीर्थमें उससे भी कोटिगुना फल प्राप्त होता है। जो दानतीर्थमें एक मासतक स्नान करता है, उसको जिस अनन्त पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसका ज्ञान चित्रगुप्तको भी नहीं है। उस तीर्थका माहात्म्य बतलानेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। सब दानोंमें अश्वदान उत्तम माना गया है, अश्वदानसे श्रेष्ठ गजदान और गजदानसे श्रेष्ठ रथदान है। राजन् । रथदानसे भी बढ़कर भूमिदान है, भूमिदानसे अधिक माहात्म्य अन्नदानका बताया जाता है। अन्नदानके समान दूसरा कोई दान न हुआ है न होगा; क्योंकि देवताओं, ऋषियों, पितरों और भूतोंकी भी अन्नदानसे ही तृप्ति होती है। जो महामनस्वी मनुष्य दानतीर्थमें अन्नका दान करता है, वह तीनों ऋणोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके परमधाममें जाता है। राजेन्द्र ! मातृकुलकी दस, पितृकुलकी दस तथा पत्नीके कुलकी दस पीढ़ियोंका वह मनुष्य उद्धार कर देता है। दानतीर्थमें दान करनेवाले मानव देहत्यागके पश्चात् चतुर्भुज दिव्य रूप धारण करके, गरुडध्वज फहराते हुए, वनमाला और पीताम्बरसे अलंकृत हो भगवान् विष्णुके धाममें जाते हैं ॥ २४-३८ ॥

राजन् ! भगवान के मन्दिरसे उत्तर दिशामें आधे कोसकी दूरीपर मनोहर ‘मायातीर्थ’ है, जहाँ चण्ड- मुण्डका विनाश करनेवाली दुर्गतिनाशिनी सिंहवाहिनी भद्रकाली दुर्गा नित्य विराजती हैं। भगवान् श्रीकृष्ण स्यमन्तकमणि ले आनेके लिये जब ऋक्षराज जाम्बवान की गुफामें गये थे, तब देवकीने अपने पुत्रकी मङ्गल-कामनाके लिये श्रेष्ठ फलोंद्वारा इन्हीं दुर्गादेवीका पूजन किया था। इसी पूजाके प्रभावसे उस बिलसे निकलकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिया जाम्बवती तथा मणिके साथ घर लौटे थे। वही सुप्रसिद्ध ‘मायातीर्थ’ है, जो सेवकोंको उत्तम फल प्रदान करनेवाला है। जो मानव मायातीर्थमें स्रान करके मायादेवीका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है-इसमें संशय नहीं है॥ ३९-४३॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें प्रथम दुर्गके भीतर ‘लीला-सरोवर, हरिमन्दिर, ज्ञानतीर्थ, कृष्ण कुण्ड, बलभद्र सरोवर, दानतीर्थ, गणपतितीर्थ और मायातीर्थके माहात्म्यका वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री ललितासहस्रनाम स्तॊत्रम्

बीसवाँ अध्याय

इन्द्रतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, सूर्यकुण्ड, नीललोहित-तीर्थ और सप्तसामुद्रक-तीर्थका माहात्म्य

श्रीनारदजी कहते हैं- विदेहराज! द्वितीय दुर्गके भी पूर्वद्वारपर परम पुण्यमय ‘इन्द्रतीर्थ’ है, जो अभीष्ट भोगोंका देनेवाला तथा सिद्धिदायक है। राजन् ! उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य इन्द्रलोकको जाता है तथा इस लोकमें भी चन्द्रमाके समान उज्ज्वल वैभव प्राप्त कर लेता है॥ १-२ ॥

इसी प्रकार दक्षिणद्वारपर ‘सूर्यकुण्ड’ नामक तीर्थ बताया जाता है, जहाँ सत्राजितने स्यमन्तककी पूजा की थी। नृपेश्वर! वहाँ स्नान करके जो मनुष्य पद्मराग- मणिका दान करता है, वह सूर्यके समान तेजस्वी विमानके द्वारा सूर्यलोकको जाता है॥ ३-४॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

इसी प्रकार पश्चिमद्वारपर ‘ब्रह्मतीर्थ’ नामक एक विशिष्ट तीर्थ है। राजन् । जो बुद्धिमान् मानव वहाँ स्नान करके सोनेके पात्रमें खीरका दान करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन सुनो। वह ब्रह्मघाती, पितृघाती, गोहत्यारा, मातृहत्यारा और आचार्यका वध करनेवाला पापी भी क्यों न हो, इन्द्रलोकमें पैर रखकर ब्रह्ममय शरीर धारण करके चन्द्रमाके समान उज्ज्वल विमान- द्वारा ब्रह्मधामको जाता है॥ ५-७ ॥

इसी प्रकार उत्तरद्वारपर भगवान् नीललोहितका क्षेत्र है, जहाँ साक्षात् नीललोहित महादेव विराजते हैं। विदेहराज ! उस तीर्थमें समस्त देवता, मुनि, सप्तर्षि तथा सम्पूर्ण मरुद्रण निवास करते हैं। उसी तीर्थमें प्रयत्नपूर्वक ‘नीललोहित’ नामक शिवलिङ्गकी पूजा करके लोकरावण रावणने अनुपम ऐश्वर्य प्राप्त किया था। नरेश्वर! कैलासकी यात्रा करनेपर मनुष्य जिस फलको पाता है, उससे सौगुना पुण्य भगवान् नील-लोहितके दर्शनसे होता है। जो मनुष्य ‘नील- लोहितकुण्ड’ में तीन दिनोंतक स्रान करता है, वह सहस्रों पापोंसे युक्त होनेपर भी शिवलोकमें जाता है॥ ८-१२॥

जहाँ ‘सप्त-सामुद्रक’ अथवा ‘सप्त सागर’ तीर्थ सुशोभित है, वहाँ उस तीर्थमें स्नान करके पापी मनुष्य पाप-समूहोंसे छुटकारा पा जाता है तथा सात समुद्रोंमें स्नान करनेका पुण्य वह तत्काल प्राप्त कर लेता है। मनुजेश्वर ! उस तीर्थके आस-पास भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, पर्जन्य, कुबेर, सोम, पृथ्वी, अग्नि और जलके स्वामी वरुण-सदा निवास करते हैं। नरेश्वर ! ब्रह्माण्डमें जो कोई सात करोड़ तीर्थ हैं, वे सब उस ‘सप्तसामुद्रक तीर्थ’ में वास करते हैं। उसमें स्नान करनेके पश्चात् जो मनुष्य उस सम्पूर्ण तीर्थकी परिक्रमा करता है, वह द्वारका-यात्राका सारा फल पा लेता है। ‘सप्तसामुद्रक तीर्थ’ की यात्रा किये बिना द्वारका यात्रा फलवती नहीं होती। देवताओंने ‘सप्तसामुद्रक तीर्थ’ को भगवान् विष्णुका स्वरूप माना है॥१३-१८॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘द्वितीय दुर्गके भीतर इन्द्रतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, सूर्यकुण्ड, नीललोहिततीर्थ तथा सप्तसामुद्रक तीर्थके माहात्म्यका वर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

इक्कीसवाँ अध्याय

तृतीय दुर्गके द्वार-देवताओंके दर्शन और पूजनकी महिमा
तथा पिण्डारक-तीर्थका माहात्म्य

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तृतीय दुर्गके पूर्वद्वारपर अञ्जनीनन्दन महाबली हनुमान्जी अहर्निश पहरा देते हैं। जो मनुष्य वहाँ महाबली भगवद्भक्त हनुमान्जीका दर्शन कर लेता है, वह हनुमान्जीकी ही भाँति महान् भगवद्भक्त होता है॥१-२॥

इसी प्रकार दक्षिणद्वारकी सुदर्शनचक्र दिन-रात रक्षा करता है। राजन् ! उस सुदर्शनका चित्त सदा श्रीकृष्णमें ही लगा रहता है। उसके दर्शनमात्रसे मानव श्रीहरिका उत्तम भक्त होता है। सुदर्शनचक्र उस भक्तकी भी सदा रक्षा किया करता है॥ ३-४ ॥

इसी तरह पश्चिमद्वारकी बलवान् ऋक्षराज जाम्बवान् रक्षा करते हैं। राजन् ! वे निरन्तर भगवद्- भजनमें लगे रहते हैं। उन महाबली भगवद्भक्त जाम्बवान का दर्शन करके मनुष्य इस लोकमें चिरंजीवी तथा श्रीहरिका भक्त होता है। इस प्रकार महाबली विष्वक्सेन उत्तरद्वारकी अहर्निश रक्षा करते हैं। राजन् ! वे श्रीकृष्णके विशाल हृदय हैं। राजन् ! उनके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है॥५-७॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

दुर्गसे बाहर ‘पिण्डारक तीर्थ’ है, उसकी महिमा सुनो। राजशिरोमणे! पिण्डारक तीर्थका माहात्म्य ध्यान देकर सुनो, जिसके स्मरणमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे छुटकारा पा जाता है। रैवतक पर्वत और समुद्रके बीचमें पिण्डारक क्षेत्र है, जो तीथोंमें उत्तम तीर्थ और अर्थ-सिद्धिका द्वाररूप है। विदेहराज । उसी तीर्थमें महाबली यदुराजने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञा लेकर यज्ञोंके राजा राजसूयका अनुष्ठान किया था। राजन्। राजा उग्रसेनके उस उत्तम यज्ञमें समस्त तीर्थोंका आवाहन किया गया था और वे तीर्थ सब ओरसे आकर उसमें निवास करने लगे। सम्पूर्ण तीर्थोंके पिण्डीभूत होनेसे उस तीर्थका नाम ‘पिण्डारक’ हुआ। उसमें स्रान करके मनुष्य तत्काल राजसूय यज्ञका फल पा लेता है। वहीं तीन दिनतक स्नान करके व्रतका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो जो ब्राह्मणोंको स्वर्णदान देकर उनके चरणोंमें प्रणत होता है, वह महात्मा यहीं नरदेव होता है- इसमें संशय नहीं है। वह प्रतिदिन वन्दीजनोंके द्वारा अपना यशोगान सुनता है, स्वर्ण, रत्न और उत्तम वस्त्र आदिसे सम्पन्न होता है। चन्द्रमुखी ललनाओंके समुदाय उसकी सेवामें रहते हैं। वह नित्य हृष्ट-पुष्ट और महाबलवान् होता है। उसके दरवाजेपर दिन-रात घन-गर्जनके समान दुन्दुभियाँ बजती रहती हैं। वह देखता है कि उसके बाहरी एवं भीतरी आँगनमें गजराज चिग्धाड़ते और घोड़े हिनहिनाते रहते हैं तथा नरेशोंकी भीड़ लगी रहती है और उसके रत्नमय महलोंपर अनेकानेक ध्वज फहराते रहते हैं। मतवाले हाथियोंके कानोंसे प्रताड़ित भ्रमरमण्डली उसके सामन्त नरेशोंद्वारा मण्डित द्वारकी शोभा बढ़ाती है। पिण्डारक तीर्थमें स्त्रान किये बिना इस लोकमें किसीको राज्य कैसे प्राप्त हो सकता है और पापात्मा मनुष्य भी उस तीर्थमें स्नान किये बिना जीवनके अन्तमें मोक्ष कैसे पा सकता है ? पिण्डारक- तीर्थमें स्नान किये बिना किसीको शर्म (कल्याण) की प्रासि नहीं होती। पिण्डारक तीर्थमें स्रान किये बिना कर्म, धर्म और वर्म (रक्षाकवच) नहीं प्राप्त हो सकते। पिण्डारक तीर्थमें स्नान किये बिना मनुष्य वियोगका दुःख झेलता है। उसमें स्नान करनेवाला मानव उस दुःखसे दूर रहता अथवा विशिष्ट योगी होता है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला पुण्यात्मा मनुष्य उत्तम भोगोंसे सम्पन्न होता है। रोग उसे छू नहीं सकते ॥८-२२ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

विदेहराज ! जो वैशाख मासमें द्वारावतीकी परिक्रमा करके उसको नमस्कार करता है, उसके हाथमें इस लोक और परलोककी सारी सिद्धियाँ आ जाती हैं। जो चैत्रकी पौर्णमासीसे लेकर वैशाखकी पौर्णमासीतक द्वारकाकी यात्रा करता है और प्रतिदिन तीर्थ-स्रान, भूमिशयन, शौचाचार, मौनव्रत एवं नवान्न-भोजनके नियमसे रहता है, उसको मिलनेवाले पुण्यकी संख्या बतानेमें वेदमय चतुर्मुख ब्रह्मा भी समर्थ नहीं हैं। जो कदाचित् वर्षाकी धाराओंको गिन ले, वह भी श्रीकृष्णपुरीकी यात्रासे होनेवाले पुण्यकी परिगणना नहीं कर सकता। जैसे तिथियोंमें एकादशी, सर्पोंमें नागराज शेष, पक्षियोंमें गरुड, इतिहास- पुराणोंमें महाभारत और जैसे देवताओंमें देवाधिदेव यदुदेवदेव वासुदेव सर्वश्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण पुरियों और क्षेत्रोंमें पुण्यवती द्वारावती प्रशस्त है। अहो ! भूतलपर वैकुण्ठलीलाकी अधिकारिणी मनोहरा कुशस्थली (द्वारका) पुरी यदुमण्डलीसे उसी प्रकार सुशोभित होती है, जैसे विद्युन्मालाओंसे आकाशमें मेघमालाकी शोभा होती है। यह पुरी धन्य है, जिस पुरीमें साक्षात् परम पुरुष परमेश्वर चतुर्व्यहरूप धारण करके विराज रहे हैं। जिन्होंने उग्रसेनको राजाधिराजका पद दे रखा है, उन श्रीकृष्ण हरिको बारंबार नमस्कार है। विदेहराज ! जब भगवान् अपने परमधामको पधारेंगे, उस समय उस दिव्य पुरीको समुद्र डुबा देगा। केवल श्रीहरिका दिव्य मन्दिर अवशिष्ट रहेगा, उसीमें भगवान् सदा निवास करेंगे। कलियुगमें वहाँ रहनेवाले लोग प्रतिदिन और निरन्तर सागरकी जलध्वनिमें श्रीकृष्णकी कही हुई यह बात सुना करते हैं- ‘ब्राह्मण विद्वान् हो या अविद्वान् वह मेरा ही शरीर है।’ जो ब्राह्मण होकर समुद्रके तटसे अगाध जलमें जाकर वहाँसे परमेश्वरकी प्रतिमा लायेगा और उसकी स्थापना करके विशाल मन्दिर बनायेगा, वह साक्षात् सूर्य है। नरदेव! कलियुगमें जो भक्तजन श्रीद्वारकानाथके स्वरूपका दर्शन करते हैं, वे योगीश्वरोंके लिये भी दुर्लभ विष्णुपदको प्राप्त कर लेते हैं। राजन् ! यह मैंने श्रीकृष्णपुरीके माहात्म्यका तुमसे वर्णन किया है। जो भक्तिभावसे इसे सुनता और सुनाता है, वह द्वारका- पुरीमें निवासका फल पाता है॥ २३-३४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें तृतीय दुर्गके भीतर ‘पिण्डारक तीर्थका माहात्म्य’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

बाईसवाँ अध्याय

सुदामा ब्राह्मण का उपाख्यान

श्रीनारदजी कहते हैं- सुदामा नामक श्रीकृष्णके एक ब्राह्मण सखा थे। वे अपनी पत्नी सत्याके साथ अपने नगरमें रहते थे। सुदामा वेद वेदाङ्गके पारंगत थे, परंतु धनहीन थे और थे वैराग्यवान्। वे अपनी अनुकूल पत्नीके साथ अयाचित वृत्तिके द्वारा जीवन-निर्वाह करते। सुदामाने एक दिन दरिद्रतासे उत्पीड़ित दुःखिनी अपनी पत्नीसे कहा-‘पतिव्रते ! द्वारकाधीश श्रीकृष्ण मेरे मित्र हैं, सांदीपनि गुरुके घरमें मैंने उनके साथ विद्याध्ययन किया है; परंतु श्रीकृष्णके भोज, वृष्णि और अन्धकोंके अधीश्वर होनेके बाद मेरा उनसे मिलना नहीं हुआ। वे त्रिलोकीके नाथ भगवान् दुःखहारी और दीनवत्सल हैं’ ॥१-४॥

पतिके वचन सुनकर पतिव्रता सत्याने, जिसका कण्ठ सूख रहा था, जो फटे-पुराने कपड़े पहने हुए थी, भूखसे अत्यन्त पीड़ित थी, पतिदेवसे कहा- ‘ब्रह्मन् ! जब साक्षात् श्रीपति हरि आपके सखा हैं, तब हमलोग फटे चिथड़े पहने और भूखे क्यों रहें? लोग द्वारका जाकर साक्षात् कमलापतिके दर्शन करते हैं और धनवान् होकर घर लौटते हैं; अतएव आप भी वहाँ जाइये ‘ ॥ ५-७ ॥

सुदामाने कहा- मैं सबको सिखाया करता हूँ और आज तुम मुझीको सिखा रही हो? प्रिये ! तुम एक विद्वान् ब्राह्मणको माँगकर धन प्राप्त करनेका उपदेश दे रही हो ? ॥८॥

सत्याने कहा- आपके सखा साक्षात् लक्ष्मीपति हैं और यहाँसे बहुत दूर भी नहीं हैं; अतएव आप उनके पास जाइये। वे आपके दुःख-दारिद्रयका नाश कर देंगे। दुःख-दरिद्रता भोगते-भोगते हमारी उम्र बीत चली। स्वामिन् ! ऐसे कृपानिधि दाताकी मित्रताका क्या यही फल है? ॥ ९-१० ॥

सुदामाने कहा- विधाताने जो भाग्यमें लिख दिया है, वह होगा ही। भद्रे! जाने-आनेसे क्या होता है? घरमें रहकर श्रीहरिका ध्यान करना ठीक है। जिनके दरवाजेमें राजा, देवता, गन्धर्व और किन्नर भी बिना आज्ञाके प्रवेश नहीं कर सकते, वहाँ मुझ-सरीखे दीनको कौन पूछेगा ? ॥११-१२॥

सत्या बोली- यह सत्य है कि उनकी आज्ञाके बिना देवता, गन्धर्व और किंनर अंदर नहीं जा सकते; परंतु साक्षात् हरि तो अन्तर्यामी हैं, वे अपना दूत भेजकर आपको अंदर बुला लेंगे ॥ १३॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

ब्राह्मणने कहा- भामिनि ! मेरी बात सुनो। श्रीकृष्ण अवश्य ही ऐसे दयालु हैं, परंतु विपत्तिके समय धनवान् मित्रके घर जाना उचित नहीं है। विशेषतः बहुत दिनोंके बाद उन अन्तरङ्ग प्रेमास्पदको देखकर मैं उनसे क्या याचना करूँगा? लोभसे रहित होनेपर ही प्रेम हुआ करता है, माँगनेपर प्रेम नहीं रहा करता ॥ १४-१५ ॥

सत्या बोली- आप दुःख-दारिद्रयका नाश करनेवाले श्रीकृष्णके दर्शन करें, माँगना नहीं होगा। वे अपने-आप ही प्रचुर सम्पत्ति दे देंगे ॥ १५३ ॥

सुदामाने पत्नीके द्वारा बहुत तरहसे समझाये बुझाये जानेपर यह विचार किया- ‘इस निमित्तसे मित्रके दर्शनका परम लाभ तो हो ही जायगा, परंतु मैं उनको उपहार क्या दूँगा ? दरिद्रताके कारण कुछ देनेको है नहीं, इसीसे लज्जित हो रहा हूँ’ ॥ १६-१७ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

पतिके मुखसे यह बात सुनकर सती ब्राह्मणी दूसरे घरसे चार मुट्ठी तन्दुल (चिउड़ा) माँग लायी और एक पुराने चिथड़ेमें बाँधकर उन्हें पतिको दे दिया। तदनन्तर सुदामाजी मैले कपड़ेसे अपने मैले-कुचैले दुर्बल शरीरको ढककर उन चिउड़ोंको लेकर मन-ही- मन ब्रह्मण्यदेवका स्मरण करते हुए धीरे-धीरे श्रीकृष्ण- के नगरकी ओर चल दिये ॥ १८-२०॥

ब्राह्मणने नौकासे समुद्र पार करके स्वर्णमय विचित्र द्वारकापुरीके दर्शन किये। उस पुरीमें पताकाएँ फहरा रही थीं। कतार-की-कतार सभा-भवन और भाँति-भाँतिके दुर्ग सुशोभित थे। बलवान् यादव-वीर उसकी रक्षा कर रहे थे। उसमें चार सड़कें थीं। ब्राह्मणने श्रीकृष्णकी पुरीको देखकर लोगोंसे पूछा- श्रीकृष्ण- का भवन कौन-सा है, यह बताइये।’ इस बातको सुनकर माधवकी द्वारकापुरीके रक्षकोंने कहा-‘सभी भवनों में श्रीकृष्ण हैं।’ यह सुनकर ब्राह्मण किसी एक भवनमें घुस गये और अंदर जाकर देखा कि पलंगपर श्रीकृष्ण विराजमान हैं। उन्हें देखकर सुदामाको ब्रह्मानन्दकी प्राप्ति हुई। माधवने सखा सुदामाको आया देखकर सहसा उठकर उन्हें अपने बाहुपाशमें बाँधकर हृदयसे लगा लिया और वे आनन्दके आँसू बहाने लगे। तदनन्तर स्वर्ण-पात्रोंमें भरे जलके द्वारा उनके दोनों चरणोंका प्रक्षालन किया और उस जलको अपने मस्तकपर धारण करके ब्राह्मणको अपने पलंगपर बैठा लिया। फिर गन्ध, चन्दन, अगुरु, कुङ्कुम, धूप, दीप, मधुपर्क और पक्वान्नके द्वारा उनकी पूजा की। पश्चात् पानका बीड़ा देकर गोदान किया और मलिन-वस्त्रधारी दुबले-पतले, पके बालों- वाले ब्राह्मणसे पधारनेका कारण पूछा। मित्रविन्दाजी मुस्कुराती हुई पंखेके द्वारा सुदामाजीकी सेवा करने लगीं। श्रीकृष्णकी पटरानियाँ सब विस्मित होकर हँसने लगीं और ब्राह्मणको इस प्रकार पूजित देखकर परस्पर कहने लगीं ‘इन भिखारीने कौन-सी तपस्या की है, जिससे स्वयं त्रैलोक्यनाथ बड़े भाईकी तरह इनका सत्कार कर रहे हैं।’ इसी बीच दोनों मित्र आपसमें हाथ पकड़े हुए पुरानी गुरुके घरकी बातें करने लगे ॥ २१-३१॥

श्रीकृष्ण बोले- ब्रह्मन् ! सुनो। हम दोनोंने वहाँ सारी विद्याओंका अध्ययन साथ-साथ किया है, परंतु गुरु-दक्षिणा देनेके बाद तुमसे मिलना नहीं हुआ। मैं जरासंधके भयसे द्वारका चला आया। सखे ! तुम कहाँ रहते हो, बताओ। तुम्हें याद होगा, एक दिन गुरु-पत्नीकी आज्ञासे हम विद्यार्थीगण लकड़ी लानेके लिये भयंकर वनमें गये थे। वहाँ जानेपर वर्षा और तूफानके मारे भयानक विपत्तिमें पड़ गये। सूर्य अस्त हो गया, रात्रिका घोर अन्धकार छा गया। सब जगह जल-ही-जल हो रहा था, जमीन कहीं दिखायी नहीं देती थी। हम परस्पर हाथ पकड़े बिजलीके प्रकाशमें सब जगह इधर-उधर घूमते रहे। फिर सूर्योदय होनेपर महामना गुरु सांदीपनिजीने वनमें जाकर जलमें सर्दीसे ठिठुरते हुए हम छात्रोंको दर्शन दिया। गुरुजीकी आँखें आँसू बहा रही थीं। उन्होंने हम सबको जलसे निकालकर जमीनपर लाकर कहा- ‘मेरे बच्चो ! तुम मेरी आज्ञाका पूरा पालन करनेवाले हो। प्राणियोंके लिये सबसे प्रिय आत्मा है। तुमने उसका भी अनादर करके मुझको प्रधानता दी, इसलिये मैं संतुष्ट होकर तुमलोगोंको दुर्लभ वर दे रहा हूँ। तुमलोगोंकी सब अभिलाषाएँ पूर्ण हों। वेद और पुराणादि शास्त्र तुम्हारे कण्ठस्थ हो जायें।’ मित्र! गुरुजीकी इसी कृपासे तभीसे हमलोग सुखोंसे परिपूर्ण हैं॥ ३२-४१ ॥

सुदामाजीने कहा- तुम देवदेव हो, सबके गुरु हो और कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंके नायक हो। तुम श्रीपति हो। तुम्हारा गुरुकुलमें निवास करना अत्यन्त विडम्बना है॥ ४२ ॥

राजन् ! ब्राह्मण सुदामाने परमात्मा श्रीकृष्णको वे चिउड़े नहीं दिये। वे मुँह नीचा किये बैठे रहे। सर्वात्मा भगवान् उनके आनेका कारण जान गये- ‘ये ब्राह्मण धनके इच्छुक नहीं हैं, मुक्तिके लिये ही मेरा भजन करते हैं। इनकी दुःखिनी पतिव्रता पत्नी ही धनकी अभिलाषा रखती है; पर इन अदाता दम्पतिको मैं धन दूँ कैसे ?’- यों सोचते-सोचते श्रीहरिने जान लिया कि ‘मेरे लिये ये कुछ चिउड़ा लाये हैं, पर लज्जाके मारे दे नहीं पा रहे हैं; अतएव मैं ही माँग लूँगा।’ यों विचारकर श्रीकृष्णने कहा- ‘मित्र! घरसे मेरे लिये क्या उपहार लाये हो ? प्रेमका दान अणुमात्र होनेपर भी महान् होता है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक मुझे पत्र-पुष्प- फल-जल प्रदान करता है, भक्तके द्वारा दिये हुए उस पदार्थका मैं बड़े ही आदरके साथ भोग लगाता हूँ।’ भगवान्ने यह कहकर अदाता उस सुदामा ब्राह्मणके चिथड़ेको पकड़कर ‘यह क्या है’- यों कहते हुए स्वयं चिउड़ोंको ले लिया और बोले- ‘सखे! यह तो तुम मेरे लिये परम प्रीतिकर वस्तु लाये हो। ब्रह्मन् । इन तन्दुलोंसे मुझ विश्वरूप भगवान की तृप्ति हो जायगी। मैं गोकुलमें ऐसे श्रेष्ठ चिउड़े खाया करता था, यशोदा दिया करती थी; परंतु उसके बाद आजतक मुझे ये देखनेको भी नहीं मिले ‘१ ॥ ४३-५२ ॥

इतना कहकर श्रीहरिने एक मुट्ठी चिउड़े चबाकर सारी पृथ्वीकी सम्पत्ति सुदामाको दे दी और दूसरी मुट्ठी खाकर ज्यों ही पातालकी सम्पत्ति देनेको तैयार हुए, वक्षःस्थलनिवासिनी लक्ष्मीदेवीने उसी क्षण हाथ पकड़कर कहा-‘ नाथ! बिना अपराध आप मेरा त्याग क्यों कर रहे हैं? श्रीकृष्ण! आपने जो कुछ दिया है, वही पर्याप्त है। उसीसे ये ब्राह्मण इन्द्रके समान हो जायेंगे ॥ ५३-५४ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

इधर ब्राह्मणको इस दानका कुछ पता नहीं लगा। भगवान की मायाने सारी सम्पत्तिको उनके घर पहुँचा दिया। सुदामाजीने एक रात वहाँ सुखपूर्वक रहकर, भोजन-पान आदि करके, दूसरे दिन श्रीकृष्णको नमस्कार करके घर जानेकी अनुमति माँगी। भगवान्ने अनुमति देकर वन्दन और आलिङ्गन किया। ब्राह्मण लज्जावश कुछ भी न माँगकर घर लौट चले और एक ब्राह्मणके प्रति श्रीकृष्णकी श्रद्धा देखकर मन-ही-मन सोचने लगे- ‘दरिद्र होनेपर भी श्रीकृष्णने मुझे अपनी दोनों भुजाओंमें भरकर मेरा आलिङ्गन किया। मेरे- सरीखे दरिद्र ब्राह्मणको पर्यङ्कपर बैठाकर भाईके समान आदर दिया। रुक्मिणी-सत्यभामाने व्यजनके द्वारा मेरी सेवा की। मैं निर्धन धन पाकर रमापति भगवान को भूल न जाऊँ इसीसे करुणावश उन्होंने मुझे धन नहीं दिया’ ॥५५-६०॥

वे इस प्रकार विचारते हुए, पत्नीका स्मरण करते हुए सोचने लगे- “मैं घर जाकर कह दूँगा- ‘यह लो, कोटि-कोटि धनराशि ग्रहण करो।’ श्रीकृष्ण ब्रह्मण्यदेव हैं, दाता हैं, पर तुम्हारे लिये तो कृपण ही रहे। दूसरेके घरको रत्नोंसे भरा देखकर कोई कामना नहीं करनी चाहिये। ललाटमें जो कुछ विधिने लिखा है, उससे अन्यथा नहीं होता।” मन-ही-मन यों कहते हुए सुदामाजी अपनी पुरीमें आ पहुँचे। पुरीको देखकर वे चकित हो गये। बड़े-बड़े दरवाजे, ध्वजाओंसे सुशोभित सोनेके किले और महल खड़े हैं। विचित्र तोरण और कलशोंसे वह सुशोभित है। नगरी सज्जनोंसे भरी और उसमें इतने रत्न हैं कि दूसरी द्वारकापुरीकी-सी ही शोभा हो रही है॥ ६१-६६ ॥

ब्राह्मणने कहा- ‘यह क्या है? यह किसका स्थान है?’ वे रास्ते चलते रहे। नगरके नर-नारियोंने उन्हें साथ ले चलना चाहा; पर वे गये नहीं। यह देखकर दास-दासियोंने अपनी स्वामिनी (सुदामाकी पत्नी) के पास जाकर सुदामाजीके आनेकी बात कही। उनको बड़ा आनन्द हुआ और वे साक्षात् लक्ष्मीरूपा ब्राह्मणी बड़े सम्मानके साथ पतिके स्वागतके लिये शिविकापर सवार होकर दास- दासियोंके साथ घरसे निकलीं। सुदामा इधर-उधर घूम रहे थे। पत्नीने अपना मुख दिखाकर उन्हें विश्वास कराया। सुदामाजी स्वर्ण-रत्नादिसे विभूषित, प्रभा और रूपसे सम्पन्न, विमानवासिनी दूसरी लक्ष्मीकी तरह अपनी तरुणी भार्याको देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने समझा- ‘यह सब श्रीकृष्णकी ही कृपा है’ ॥ ६७-७१ ॥

भोजनकी सामग्री, रत्न, ऐश्वर्य, पर्यङ्क, व्यजन, आसन, चंदोवे, स्वर्णपात्र और तोरण आदिसे सुसज्जित अपनी पुरीमें सुदामाजीने पत्नीके साथ प्रवेश किया। उनका घर तो श्रीकृष्णके भवनके समान हो गया था। श्रीकृष्णकी कृपासे सुदामा भी तरुण हो गये, पर विषयोंसे सर्वथा अनासक्त रहकर वे बिना किसी हेतुके-अनायास प्राप्त हुई समृद्धिका उपभोग करने लगे। वे अपनी पत्नीके साथ ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके द्वारा उस सम्पत्तिको त्यागनेका विचार करके मन-ही-मन सोचने लगे- ‘मेरे पास इतनी समृद्धि कहाँसे आयी ? यह देव-दुर्लभ सम्पत्ति ब्रह्मण्यदेव श्रीकृष्णकी ही दी हुई है। इतनी सम्पत्ति देकर भी उन्होंने स्वयं मुझसे कुछ कहा भी नहीं। मेरे चिउड़ोंके दानोंको मुट्ठीमें लेकर बड़ी प्रीतिसे उन्होंने भोग लगाया। जन्म-जन्ममें मुझे उन्हींका सख्य और दास्य प्राप्त हो। मैं उनके चरण कमलोंका ध्यान करके संसार-सागरसे पार हो जाऊँगा’ ॥ ७२-७७ ॥

सुदामा ने मन ही मन इस प्रकारका निश्चय करके पत्नीके साथ श्रीकृष्णके चरणारविन्दमें अपना मन लगा दिया और सारा धन ब्राह्मणोंको बाँटकर भगवान के धाममें चले गये ॥ ७८ ॥

जो मनुष्य इस श्रीकृष्ण चरित का श्रवण करता है, वह दरिद्रता से मुक्त होकर उत्तम भगवद्भक्त हो जाता है॥ ७९ ॥(Dwarkakhand Chapter 16 to 22)

नरेश्वर । तुम्हारे सामने इस पुण्यमय द्वारकाखण्ड- का वर्णन किया गया। जो इस खण्डका सदा श्रवण करते हैं, उन्हें उत्तम कीर्ति, कुल, अतिशय भुक्ति-मुक्ति और राज्य प्राप्त होता है॥ ८० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें द्वारकाखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘सुदामा ब्राह्मणके उपाख्यानका वर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२॥

॥ द्वारकाखण्ड सम्पूर्ण ॥

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