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Das Mahavidya Name Mantra and Story / दस महाव‍िद्या कौन कौन सी हैं? नाम, मंत्र और कथा

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Das Mahavidya Name Mantra and Story / दस महाव‍िद्या कौन कौन सी हैं? नाम, मंत्र और कथा

दस महाव‍िद्याएं (Das Mahavidya) कौन कौन सी हैं? जानें नाम, बीज मंत्र और उत्पत्ति कथा

शास्त्रों और पुराणों में दस महाविद्याओं (Das Mahavidya) का वर्णन मिलता है। तंत्र साधना में और तंत्र विद्या में इस दस महाविद्याओं का विशेष महत्व रहा है। महाविद्या का शाब्दिक अर्थ “महा” अर्थात महान्, विशाल, विराट ; तथा “विद्या” अर्थात ज्ञान है। यह दस महाविद्या की उपासना और साधना करने से विशेष फल प्राप्त होता है। इस दस महाविद्याओ को दशावतार भी कहा जाता है। स्वयं माँ दुर्गा के ही दशावतार दस महाविद्या है।

परमपिता ब्रह्मा द्वारा रचित ब्रह्मांण्ड के मूल में और प्रकृति की समस्त शक्तियों में दस महाविद्यायें समाहित हैं। इन दस महाविद्या की साधना करके मनुष्य इस जीवन को तो सुधारता ही लेता है परन्तु परलोक को भी सुधार लेता है। दस के अंक का सनातन धर्म में अपना ही एक महत्व रहा है, जैसे की दिशाओं की कुल संख्या भी 10 है जो दस महाविद्याओ की प्रत्येक दिशा है।

दस महाविद्याओ (Das Mahavidya) विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठात्री शक्तियां हैं। महाकाली और तारा देवी- उत्तर दिशा की, छिन्नमस्ता पूर्व दिशा की, षोडशी ईशान दिशा की, भुवनेश्वरी पश्चिम दिशा की, त्रिपुर भैरवी दक्षिण दिशा की, धूमावती पूर्व दिशा की, बगलामुखी दक्षिण दिशा की, मातंगी वायव्य दिशा की और माता कमला र्नैत्य दिशा की अधिष्ठात्री शक्ति है।

काली, तारा महाविद्या, षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी, छिन्नमस्तिका च विद्या धूमावती तथा।।
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका।
एता दश-महाविद्याः सिद्ध-विद्याः प्रकीर्तिताः

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दस महाविद्याओ (Das Mahavidya):-

1) महाकाली
2) तारा (देवी)
3) छिन्नमस्ता
4) षोडशी
5) भुवनेश्वरी
6) भैरवी
7) धूमावती
8) बगलामुखी
9) मातंगी
10) कमला

1) महाकाली

माता दुर्गा के दस महाविद्या स्वरूपों में महाकाली का प्रथम स्वरुप माना जाता है। माता के इस स्वरूप की पूजा करने से सिद्धि प्राप्त होती है। माता काली ने देवताऔं और दानवों के युद्ध में देवताओ को विजय दिलवाई थी। गुजरात, कोलकाता और मध्यप्रदेश में महाकाली के जाग्रत मंदिर हैं।

बीज मंत्र:
ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिका
क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

 

2) तारा देवी

तारा देवी तांत्रिकों की मुख्य देवी है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में तारापीठ है, इसी स्थान पर तारा देवी की आराधना सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ऋषि ने की थी। आर्थिक उन्नति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए सती के इस रूप की आराधना की जाती है।

बीज मंत्र:
ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्॥

 

3) छिन्नमस्ता

छिन्नमस्ता का रूप कटा सिर और बहती रक्त की तीन धारा से अत्यंत शोभायमान् रहता है। छिन्नमस्ता महाविद्या का शांत स्वरूप का दर्शन करने के लिए शांत मन से उपासना की जाती है। उग्र रूप के दर्शन करने के लिए उग्र रूप में उपासना की जाती है। छिन्नमस्ता कामाख्या के बाद दूसरा लोकप्रिय शक्तिपीठ है।

बीज मंत्र:
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट् स्वाहा॥

 

4) षोडशी

महाविद्या षोडशी को ललिता, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि नाम से भी जाना जाता है। षोडशी माता 16 कलाओ से सम्पन है। त्रिपुरा स्थित जहा माता के वस्त्र गिरे थे वहा माँ का शक्तिपीठ है। षोडशी माहेश्वरी शक्तिकी सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओंमें इनका चौथा स्थान है। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वरमें कोई भेद नहीं रह जाता है।

बीज मंत्र:
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः॥

 

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5) भुवनेश्वरी

दश महाविद्याओ में भुवनेश्वरी पाँचवें स्थानपर उल्लेख हैं। देवीपुराण के अनुसार भुवनेश्वरी ही मूल प्रकृति का दूसरा नाम है। भक्तोंको अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना माता रानी भुवनेश्वरी का स्वाभाविक गुण है। भुवनेश्वरी माता की उपासना से पुत्र प्राप्ति के लिये विशेष फलप्रदा है । रुद्रयामल में इनका कवच, नीलसरस्वतीतन्त्र में इनका हृदय और महातन्त्रार्णव में इनका सहस्रनाम संकलित है।

बीज मंत्र:
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमः॥

 

6) भैरवी

महाविद्याओंमें भैरवी का छठा स्थान प्राप्त है, और भैरवी का मुख्य उपयोग घोर कर्म में होता है। महाविद्या भैरवी का मत्स्यपुराण में त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि रूपोंका वर्णन प्राप्त होता है।

बीज मंत्र:
ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥

 

7) धूमावती

महाविद्याओ में धूमावती देवी सातवें स्थानपर परिगणित हैं। धूमावती की उपासना विपत्ति-नाश, रोग निवारण, युद्ध-जय, उच्चाटन तथा मारण आदि के लिये की जाती है। ग्रन्थोंके अनुसार धूमावती देवी उग्रतारा ही हैं, जो धूम्रा होने से धूमावती कही जाती हैं। ऋग्वेद के रात्रिसूक्त में धूमावती को ‘सुतरा’ कहा गया है। सुतरा का अर्थ सुखपूर्वक तारनेयोग्य है।

बीज मंत्र:
ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा॥

 

8) बगलामुखी

महाविद्याओं में देवी बगलामुखी आठवे स्थान पर है। बगलामुखी को स्तंभन शक्ति की महादेवी भी कहा जाता है। बगलामुखी का स्वरुप पितांबरा हे, पीत अर्थात पीला जैसे पीत आभूषणों से, वस्त्रों से और पीत पुष्पों से शृंगारित है। इन की उपासना में हरिद्रामाला, पीत- पुष्प एवं पीतवस्त्रका विधान है। बगलामुखी सुधासमुद्र के मध्यमें स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासनपर विराज रही हैं।

बीज मंत्र:
ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नमः॥

 

9) मातंगी

महाविद्याओ में देवी मातंगी नौवीं महाविद्या है। दश महाविद्याओं (Das Mahavidya) में मातंगी की उपासना विशेष रूप से तंत्र-मंत्र योग के लिये की जाती है। देवी मातंगी की सिद्धि प्राप्त करता है वह मनुष्य खेल और कला के कौशल से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। मातंगी असुरों को मोहित करनेवाली और भक्तों को मनचाहा फल देनेवाली हैं। गृहस्थ- जीवनको सुखी बनाने, पुरुषार्थ सिद्धि और आनंद में पारंगत होने के लिये मातंगी की साधना सर्वोतम है ।

बीज मंत्र:
ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा॥

 

10) कमला

महाविद्याओ में देवी कमला दसवीं और अंतिम महाविद्या हैं। कमला को महालक्ष्मी का ही स्वरुप माना गया है। माता कमला की उपासना धन सम्पति और समृद्धि के लिए की जाती है। माता कमला को लक्ष्मी, भार्गवी और षोडशी भी कहा जाता है। इनकी उपासना से समस्त सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। देवी कमला एक रूपमें समस्त भौतिक या प्राकृतिक सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं और दूसरे रूप में सच्चिदानन्दमयी लक्ष्मी हैं; जो भगवान् विष्णुसे अभिन्न हैं।

बीज मंत्र:
ॐ ह्रीं अष्ट महालक्ष्म्यै नमः॥

 

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दस महाविद्या की उत्पत्ति की कथा:-

सती, शिव की पत्नी और ब्रह्मा के वंशज प्रजापति दक्ष की बेटी थीं। सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव के साथ विवाह किया था। अपनी इच्छा के विरुद्ध विवाह करने से प्रजापति दक्ष को शिव पसंद नहीं थे। शिव का अपमान करने के लिए व्यर्थ दक्ष ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने यज्ञ में दामाद भगवान शिव को छोड़कर समस्त देवी देवताओं को निमंत्रण दिया।

सती को अपने पिता के यज्ञ के बारे में नारद मुनि से ज्ञात हुआ तो यज्ञ में भाग लेने सती ने भगवान शिव से अनुमति मांगी, यह कहा की पिता के घर यज्ञ हो तो बेटी को पिता के निमंत्रण की आवश्यकता नहीं है। भगवान शिव ने सती को यज्ञ में अनुचित बताकर शामिल न होने का आदेश दिया।

भगवान शिव के मना करने पर सती उग्र हो गईं और उन्होंने भयानक रूप धारण किया यह देख भगवान शिव डर कर भागने लगे। भगवान शिव जिस दिशा से भागने की कोशिश की, माता सती ने उसे रोक दिया। शिवजी ने सभी दिशाओ में भागने की कोशिश की, परन्तु माता सती ने शिव को रोकने की इच्छा से अपने शरीर की अंगभूता से दशो दिशिओ में अलग-अलग रूपों से प्रत्येक दिशा की रखवाली की थी।

इसके बाद भगवान शिव ने सती को अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में जाने की आज्ञा दी। माता सती के इन दस रूपों को दस महाविद्या (Das Mahavidya) के नाम से जाना जाता है। सती के प्रत्येक स्वरुप का नाम, गुण और मंत्र है।

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