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Chanakya Niti chapter 6 in Hindi

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Chanakya Niti chapter 6 in Hindi

चाणक्य नीति : छठा अध्याय | Chanakya Niti  Chapter 6 In Hindi

॥ अथ षष्ठोऽध्यायः ॥

चाणक्य नीति के छठे अध्याय (Chanakya Niti chapter 6 in Hindi) में चाणक्य यह महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए और सही समय का इंतजार करना चाहिए। वे बगुले का उदाहरण देते हैं, जो शांति और धैर्य से इंतजार करता है और उचित समय आने पर ही अपना शिकार करता है। इसी तरह, व्यक्ति को धैर्यपूर्वक अपने लक्ष्य की प्रतीक्षा करनी चाहिए और सही अवसर आने पर ही अपने कार्यों को पूरा करना चाहिए।

इससे यह शिक्षा मिलती है कि जल्दबाजी में लिए गए फैसले या कार्य विफलता की ओर ले जा सकते हैं। जीवन में संयम और धैर्य रखना आवश्यक है ताकि हम अपने कार्यों में सफल हो सकें। यह नीति जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, खासकर तब जब हमें कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

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छठा अध्याय

धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्॥
अर्थ:
मनुष्य वेद आदि शास्त्रों को सुनकर धर्म के रहस्य को जान लेता है। विद्वानों की बात सुनकर दुष्ट व्यक्ति बुरे ढंग से सोचना छोड़ देता है। गुरु से ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाता है। ॥1॥

चाणक्य का विश्वास है कि व्यक्ति वेद शास्त्रों के अध्ययन के अलावा उन्हें सुनकर भी लाभ उठा सकता है। उनका कहना है कि वेद आदि शास्त्रों के सुनने से व्यक्ति धर्म के रहस्य को समझ सकता है और विद्वानों के उपदेश सुनकर अपने बुरे विचारों को त्याग सकता है। सुनने का अर्थ वेद प्रतिपादित ज्ञान को गुरुमुख से श्रवण करना भी है। इस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति श्रवण से ही होती है, जिससे मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।(Chanakya Niti chapter 6 in Hindi)

आचार्य ने इस श्लोक द्वारा श्रवण के महत्व पर प्रकाश डाला है। यह श्रवण विद्वान और अनुभवी गुरु के मुख से होने पर ही फल देता है। ‘सुनो, मनन करो और उसे आत्मसात् करो’- यह श्रुतिवाक्य है।

पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां कोपी चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः ॥
अर्थ:
पक्षियों में कौआ, पशुओं में कुत्ता, मुनियों में क्रोध करने वाला और सामान्यजन में दूसरे लोगों की निंदा करने वाला व्यक्ति दुष्ट और चाण्डाल होता है। ॥2॥

भाव यह है कि दुष्ट और चाण्डाल प्राणी सभी स्थानों पर होते हैं परंतु दुष्टता की सीमा कहां होती है, इसकी व्याख्या चाणक्य ने की है। कौआ पक्षियों में इसलिए सबसे अधिक गंदा और दुष्ट माना गया है क्योंकि उसे किसी प्रकार की शुद्धता का कोई भी ज्ञान नहीं होता, वह सदैव गंदगी पर जाकर बैठता है, पशुओं में कुत्ते का भी वही हाल है। आचार्य का कहना है कि ऋषि-मुनियों में भी जो व्यक्ति क्रोध करता है, उसे दुष्ट और चांडाल मानना चाहिए, परंतु सामान्य व्यक्तियों में दुष्ट और चाण्डाल वह है, जो दूसरों की निंदा करता है।

भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति ।
रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति ॥
अर्थ:
कांसे का बर्तन राख से मांजने पर, तांबा खटाई से, स्त्री रजस्वला होने के बाद तथा नदी का जल तीव्र वेग से शुद्ध होता है। ॥3॥

भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन् सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति ॥
अर्थ:
अपनी प्रजा में घूम-फिरकर उसकी स्थिति को जानने वाले राजा की प्रजा उसकी पूजा करती है। जो द्विज अर्थात विद्वान ब्राह्मण देश प्रदेश की भूमि पर ज्ञान का प्रचार करता है, उसकी पूजा होती है। जो योगी सदा घूमता रहता है, वह आदर-सत्कार का भागी होता है, परंतु भ्रमण करने वाली स्त्री भ्रष्ट हो जाती है। ॥4॥

राजा का कर्तव्य यह है कि वह स्वयं भी अपने राज्य में घूम फिरकर प्रजा की वास्तविक स्थिति ज्ञात करने की कोशिश करे। वह अपने ज्ञान के अनुसार उसके दुख दूर करने का प्रयत्न कर सकता है।(Chanakya Niti chapter 6 in Hindi)

ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह घूम-फिरकर लोगों को शास्त्रों का ज्ञान दे। एक स्थान पर रुकने से उस स्थान और वहां संपर्क में आने वाले लोगों से संबंध स्थापित होने के कारण आसक्ति और मोह का हृदय में उठ खड़ा होना स्वाभाविक है। यह स्थिति योगी को बांधती है। इसके लिए योगी का एक स्थान पर 24 घंटों से ज्यादा नहीं रुकना चाहिए। इसके विपरीत इन लोगों के समान इधर-उधर घूमने वाली नारी अपने धर्म से विचलित हो जाती है। स्त्री का इधर-उधर घूमना परिवार के अपमान का कारण होता है और वह समाज की नजरों में गिर जाता है।

तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः ।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता ॥
अर्थ:
मनुष्य जैसा भाग्य लेकर जन्म लेता है, उसकी बुद्धि उसी के अनुसार प्रवृत्त होती है और वह व्यवसाय अथवा काम-धन्धा भी वैसा ही चुनता है तथा उसके सहायक भी उसी प्रकार के होते हैं। ॥ 5 ॥

आचार्य का कहना है कि जो होना है वह तो होकर ही रहता है। मनुष्य काम-धन्धे के लिए अपनी बुद्धि के अनुरूप ही व्यवसाय का चुनाव करता है और उसके काम-धन्धे में सहायता करने वाले भी उसके विचारों के अनुरूप मिल जाते हैं।

कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥
अर्थ:
समय सब प्राणियों को अपने पेट में पचा लेता है अर्थात सबको नष्ट कर देता है। काल ही सबकी मृत्यु का कारण होता है। जब सब लोग सो जाते हैं, तो काल ही जागता रहता है। इसमें संदेह नहीं कि काल बड़ा बलवान है। काल से पार पाना अत्यंत कठिन है। ॥ 6॥

व्यक्ति काल के प्रभाव से नहीं बच सकता है, जीवों सहित सभी वस्तुएं काल के प्रभाव से नष्ट हो जाती हैं। सबके सो जाने पर भी वह काल जागता रहता है। काल चक्र सृष्टि के आरंभ से लेकर प्रलय काल तक चलता रहता है कभी नहीं रुकता। जो उसकी उपेक्षा करता है, काल (समय) उसे पीछे छोड़कर आगे निकल जाता है। काल हम सबके साथ ऐसे खेलता है जैसे शिकार बने चूहे के साथ बिल्ली क्रीड़ा करती है।

न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति ।
न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थी दोषान् न पश्यति ॥
अर्थ:
जन्म से अंधे को, कामांध को और शराब आदि के नशे में मस्त व्यक्ति को कुछ दिखाई नहीं देता। स्वार्थी व्यक्ति की भी यही स्थिति है क्योंकि वह उस व्यक्ति के दोषों को देख नहीं पाता, जिससे उसके स्वाथों की पूर्ति होती हो। ॥7॥

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्रुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥
अर्थ:
जीवात्मा स्वयं कार्य करता है और उसका फल भी स्वयं भोगता है। वह स्वयं ही विभिन्न योनियों में जन्म लेकर संसार में भ्रमण करता है और स्वयं ही अपने पुरुषार्थ से संसार के बंधनों तथा आवागमन के चक्र से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करता है। ॥8॥

आचार्य के अनुसार, व्यक्ति जैसे कर्म करता है, उसके अनुसार ही उसे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। कर्मों के फल के अनुरूप ही उसे दुख और सुख मिलता है। वह स्वयं ही अपने कर्मों के अनुसार संसार में विभिन्न योनियों में जन्म लेता है और जन्म-मरण के चक्र में पड़ा रहता है। उसे इस चक्र से मुक्ति भी स्वयं उसके श्रेष्ठ कार्यों से ही मिलती है। आचार्य का कथन है कि बंधन और मुक्ति दोनों तुम्हारे हाथों में हैं। ‘स्वयं’ शब्द पर जोर दिया है, जो उत्तरदायित्व की ओर संकेत करता है।

राजा राष्ट्रकृतं भुक्ते राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा॥
अर्थ:
राजा को राष्ट्र के पापों का फल भोगना पड़ता है। राजा के पाप पुरोहित भोगता है। पत्नी के पाप उसके पति को भोगने पड़ते हैं और शिष्य के पाप गुरु भोगते हैं। ॥9॥

राजा यदि राष्ट्र को ठीक ढंग से नहीं चलाता अर्थात अपना कर्तव्य पालन नहीं करता तो उससे होने वाली हानि राजा को ही कष्ट पहुंचाती है। यदि पुरोहित अर्थात राजा को परामर्श देने वाला व्यक्ति राजा को ठीक तरह से मंत्रणा नहीं देता तो उसका पाप पुरोहित को भोगना पड़ता है। स्त्री यदि कोई बुरा कार्य करती है तो उसका पति दोषी होता है। इसी प्रकार शिष्य द्वारा किए गए पाप का वहन गुरु को करना पड़ता है। ‘अधीन’ द्वारा किए गए पाप का भागी स्वामी होता है।(Chanakya Niti chapter 6 in Hindi)

ऋणकर्ता पिता शत्रु माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्र शत्रुरपण्डितः ॥
अर्थ:
ऋणी पिता अपनी संतान का शत्रु होता है। यही स्थिति बुरे आचरण वाली माता की भी है। सुन्दर पत्नी अपने पति की और मूर्ख पुत्र अपने माता-पिता का शत्रु होता है। ॥10॥

किसी भी कारण से अपनी संतान पर ऋण छोड़कर मरने वाला पिता शत्रु कहा गया है, क्योंकि उसके ऋण की अदायगी संतान को करनी पड़ती है। व्यभिचारिणी माता भी शत्रु के समान मानी गई है, क्योंकि उससे परिवार कलंकित होता है। इसी प्रकार अत्यधिक सुंदर स्त्री पति के लिए शत्रु के समान है क्योंकि बहुत से लोग उसके रूप से आकृष्ट होकर उसे पथभ्रष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। मूर्ख पुत्र पुत्र के कार्यों की वजह से माता-पिता को नित्य अपमान सहना पड़ता है, इससे परिवार को दुख व हानि होती है। इसीलिए वह परिवार का शत्रु है।

यहां एक क्लिक में पढ़े ~ भृगु संहिता

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्खः छन्दोऽनुवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम् ॥
अर्थ:
लोभी को धन देकर, अभिमानी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करके और विद्वान को सच्ची बात बताकर वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। ॥ 11॥

लोभी व्यक्ति अपने स्वार्थ में इतना अंधा होता है कि वह धन प्राप्ति के बिना संतुष्ट नहीं होता। उसे धन देकर वश में किया जा सकता है। जिस व्यक्ति को अभिमान है, अहंकार है, उसे नम्रतापूर्वक व्यवहार करके वश में किया जा सकता है। मूर्ख व्यक्ति सदैव हठी होता है, इसलिए उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करके उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है और विद्वान व्यक्ति को वश में करने का सबसे सही उपाय यह है कि उसे वास्तविकता से परिचित करवाया जाए।

वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम् ।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः ॥
अर्थ:
बुरे राज्य की अपेक्षा किसी प्रकार का राज्य न होना अच्छा है, दुष्ट मित्रों के बजाय मित्र न होना अच्छा है, दुष्ट शिष्यों की जगह शिष्य न होना अधिक अच्छा है और दुष्ट पत्नी का पति कहलाने से अच्छा है कि पत्नी न हो। ॥12॥

चाणक्य मानते हैं कि शासन व्यवस्था से संपन्न राज्य में ही रहना चाहिए और मित्र भी सोच-विचारकर ही बनाने चाहिए।(Chanakya Niti chapter 6 in Hindi)

गुरु को भी चाहिए कि परखकर शिष्य बनाए तथा दुष्ट स्त्री को पत्नी बनाने की अपेक्षा अच्छा है कि विवाह ही न किया जाए।

कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽस्ति निर्वृतिः।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ॥
अर्थ:
दुष्ट राजा के शासन में प्रजा को सुख नहीं मिल सकता, धोखेबाज मित्र से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती, दुष्ट स्त्री को पत्नी बनाने से घर में सुख और शांति नहीं रह सकती, इसी प्रकार खोटे शिष्य को विद्या दान देने वाले गुरु को भी अपयश ही मिलता है। ॥13॥

सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ।
वायसात्पञ्च शिक्षेच्च षट्शुनस्त्रीणि गर्दभात् ॥
अर्थ:
व्यक्ति को शेर और बगुले से एक-एक, मुर्गे से चार, कौए से पांच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण सीखने चाहिए। ॥14॥

इस संसार की प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक प्राणी हमें कोई न कोई उपदेश दे रहे हैं। इन गुणों को सीखकर जीवन में सफलता, उन्नति और विकास किया जा सकता है। आगामी चार श्लोकों में ऐसे ही कुछ गुणों का वर्णन किया गया है।

प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ॥
अर्थ:
कार्य छोटा हो या बड़ा व्यक्ति को शुरू से ही उसमें पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए, यह शिक्षा हम सिंह से ले सकते हैं। ॥15॥

इसका भाव यह है कि व्यक्ति जो भी कार्य करे, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, उसे पूरी शक्ति लगाकर करना चाहिए, तभी उसमें सफलता प्राप्त होती है। सिंह पूरी शक्ति से शिकार पर झपटता है-वह बड़ा हो या छोटा। बड़े को देखकर घबराता नहीं और छोटे की उपेक्षा नहीं करता। सफलता पाने के लिए प्रयास पर विश्वास आवश्यक है।

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ॥
अर्थ:
बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को वश में करके समय के अनुरूप अपनी क्षमता को तौलकर बगुले के समान अपने कार्य को सिद्ध करना चाहिए। ॥ 16॥

बगुला जब मछली को पकड़ने के लिए एक टांग पर खड़ा होता है तो उसे मछली के शिकार के अतिरिक्त अन्य किसी बात का ध्यान नहीं होता। इसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति जब किसी कार्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न करे तो उसे अपनी इन्द्रियां वश में रखनी चाहिए। मन को चंचल नहीं होने देना चाहिए तथा चित्त एक ही दिशा में, एक ही कार्य की पूर्ति में लगा रहे, ऐसा प्रयास करना चाहिए। शिकार करते समय बगुला इस बात का पूरा अंदाजा लगा लेता है कि किया गया प्रयास निष्फल तो नहीं जाएगा।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बंधुषु ।
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ॥
अर्थ:
समय पर उठना, युद्ध के लिए सदा तैयार रहना, अपने बन्धुओं को उनका उचित हिस्सा देना और स्वयं आक्रमण करके भोजन करना मनुष्य को ये चार बातें मुर्गे से सीखनी चाहिए। ॥17॥

गूढमैथुनचरित्वं च काले काले च संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात् ॥
अर्थ:
छिपकर मैथुन करना, ढीठ होना, समय-समय पर कुछ वस्तुएं इकट्ठी करना, निरंतर सावधान रहना और किसी दूसरे पर पूरी तरह विश्वास नहीं करना, ये पांच बातें कौए से सीखने योग्य है। ॥18॥

बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः ।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः ॥
अर्थ:
बहुत भोजन करना लेकिन कम में भी संतुष्ट रहना, गहरी नींद लेकिन जल्दी से उठ बैठना, स्वामिभक्ति और बहादुरी ये छह गुण कुत्ते से सीखने चाहिए। ॥19॥

सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात् ॥
अर्थ:
व्यक्ति को ये तीन बातें गधे से सीख लेनी चाहिए- अपने मालिक के लिए बोझ ढोना, सर्दी-गर्मी की चिंता नहीं करना तथा सदा संतोष से अपना जीवन बिताना। ॥20॥

य एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः ।
कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति ॥
अर्थ:
जो व्यक्ति इन बीस गुणों को सीख लेता है अर्थात इन्हें अपने आचरण में ले आता है, वह सब कार्यों और अवस्थाओं में विजयी होता है अर्थात उसे किसी भी अवस्था में पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। ॥21॥

आचार्य का कथन है कि शास्त्रों में जो ज्ञान दिया गया है, वह सैद्धांतिक है। जिसने भी सफलता और उन्नति के तत्वों को स्वयं में, अपने आसपास या समूची प्रकृति में देखा, उसे उन्होंने जिज्ञासुओं के लिए लिपिबद्ध कर दिया, लेकिन उसे अपने जीवन में उतारने के लिए संदेह रहित होना जरूरी है।(Chanakya Niti chapter 6 in Hindi)

ये गुण पशु-पक्षियों में सहज रूप से देखने को मिलते हैं। इन्हें अपनाकर ही वे अस्तित्व की लड़ाई में स्वयं को बचा पाते हैं। कैसे? उसी की बानगी दी है आचार्य ने। भगवान दत्तात्रेय द्वारा 24 गुरुओं से कुछ-न-कुछ सीखना।

इसी तरह के अन्य उदाहरण हैं। अपनी जांच-पड़ताल के लिए आप यह देखें कि इनमें से आपके पास कौन-से गुण हैं और कौन से नहीं!

यहां एक क्लिक में पढ़े ~ श्री पाण्डव गीता

अध्याय का सार:

श्रवण का जीवन में अत्यंत महत्व है लेकिन उसकी भी एक सुनिश्चित विधि है। गुरुमुख से ही शास्त्र का श्रवण करना चाहिए। गुरु विद्वान और अनुभवी होता है, इसलिए उसके सुने वचनों को जीवन में धारण करने से भटकाव समाप्त होता है, निश्चित दिशा मिलती है।

चाणक्य का कहना है कि मनुष्य जीवन बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को शुभ कार्यों की ओर लगाए, दूसरों की निंदा आदि करना छोड़ दे। वेद आदि शास्त्रों के पढ़ने और शुभ कार्य करने से मनुष्य इस संसार में यश को प्राप्त होता है। चाणक्य कहते हैं, जिस मनुष्य के पास धन है, सभी उसके भाई-बंधु, मित्र बनने को तैयार हो जाते हैं और उसे ही श्रेष्ठ पुरुष मान लिया जाता है। वे यह भी कहते हैं कि जैसी होनी होती है, मनुष्य की बुद्धि और उसके कर्म भी उसी प्रकार के हो जाते हैं। इस संसार में समय ही ऐसी वस्तु है जिसे टाला नहीं जा सकता। चाणक्य के अनुसार जब मनुष्य अपने स्वार्थ में अंधा हो जाता है तो उसे अच्छे-बुरे में अंतर दिखाई नहीं देता। मनुष्य का बंधन और मुक्ति उसके द्वारा किए जाने वाले कर्मों पर ही आश्रित होते हैं, क्योंकि वह जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है।

आचार्य के अनुसार प्रजा के कार्यों का फल राजा को, पत्नी के कार्यों का फल पति को तथा पिता द्वारा छोड़ा गया ऋण पुत्रों को चुकाना पड़ता है। व्यभिचारिणी माता और मूर्ख पुत्र मनुष्य के लिए शत्रु के समान होते हैं। चाणक्य सामान्य जीवन में आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि किसी का लोभी व्यक्ति से पाला पड़ जाए तो उसे धन देकर, विद्वान को अपने मधुर व्यवहार से और मूर्ख तथा दुष्ट को उसके अनुकूल व्यवहार से वश में किया जा सकता है। ऐसे राज्य में रहना उचित नहीं, जहां सुव्यवस्था न हो। इसी प्रकार दुष्ट से मित्रता करने के बजाय मित्ररहित रहकर जीवन गुजार देना ज्यादा हितकर है।

चाणक्य का कहना है कि सिंह से एक गुण सीखना चाहिए- किसी भी कार्य को करते समय उसमें अपनी पूरी शक्ति लगाना। बगुला मछली पकड़ने के लिए आंखें बंद करके एक टांग पर खड़ा होता है, यह इंद्रियों को वश में करने का उदाहरण है। यह बगुले से सीखने योग्य गुण है। प्रयास करना महत्वपूर्ण है, इसलिए उसे करने से पहले अपनी क्षमता को परख लें। बगुला यह निश्चित हो जाने के बाद ही कि अब शिकार बच नहीं सकता, अपना प्रयास करता है। इसी प्रकार मुर्गे से चार बातें सीखनी चाहिए। मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठना, झगड़े का संकट उत्पन्न होने पर पीछे न हटना और जो कुछ भी प्राप्त हो उसे अपने भाई-बन्धुओं में बांटकर ही उपयोग में लाना। इसी प्रकार कौए में भी पांच गुण होते हैं, छिपकर मैथुन करना, हठी होना, समय-समय पर वस्तुओं को इकट्ठा करना, हमेशा चौकन्ना रहना तथा किसी पर विश्वास न करना। कुत्ते में बहुत अधिक खाने की शक्ति होती है, परंतु जब उसे बहुत कम भोजन मिलता है तब भी वह उसी में संतोष कर लेता है। वह एकदम गहरी नींद में सो जाता है, परंतु अत्यंत सतर्क रहता है और जरा-सी आहट होने पर ही जाग उठता है। उसे अपने मालिक से प्रेम होता है और समय पड़ने पर वह वीरतापूर्वक शत्रु से लड़ता भी है। इसी प्रकार गधा अत्यंत थका होने पर भी अपने काम में लगा रहता है, उसे सर्दी-गर्मी आदि किसी बात का कष्ट नहीं होता और अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट रहता है।

चाणक्य के अनुसार जो व्यक्ति इन गुणों को धारण कर लेता है, उसे जीवन में सफलता प्राप्त होती ही है। सफलता की कामना करने वाले को चाहिए कि वह इन गुणों को अपने जीवन में विशेष स्थान दे। इनके आधार पर हम अपनी संभावनाओं को भी आंक सकते हैं। देखिए, कसौटी पर घिसकर अपने खरेपन को।

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