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Chanakya Niti chapter 5 in Hindi

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Chanakya Niti chapter 5 in Hindi

चाणक्य नीति : पांचवा अध्याय | Chanakya Niti : Chapter 5 In Hindi

॥ अथ पंचमोऽध्यायः ॥

चाणक्य नीति का पांचवें अध्याय (Chanakya Niti chapter 5) में चाणक्य कहते हे की धन से धर्म की, योग से विद्या की, मधुरता से राजा की और अच्छी स्त्रियों से घर की रक्षा होती है। चाणक्य नीति के अध्याय 5 में जीवन के विभिन्न पहलुओं पर कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ दी गई हैं, जिनमें व्यक्तिगत व्यवहार, नेतृत्व और सामाजिक आचरण शामिल हैं।

चाणक्य नीति के अध्याय 5 (Chanakya Niti chapter 5) के ये सूत्र अनुशासित, समृद्ध और नैतिक जीवन जीने के लिए व्यावहारिक ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। शिक्षाएँ आत्म-नियंत्रण, ज्ञान, विवेकपूर्ण वित्तीय प्रबंधन, अच्छी संगति, बड़ों के प्रति सम्मान और भाग्य और प्रयास के प्रति संतुलित दृष्टिकोण के महत्व पर जोर देती हैं।

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पांचवां अध्याय

धन से धर्म की, योग से विद्या की, मधुरता से राजा की और अच्छी स्त्रियों से घर की रक्षा होती है।

 

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्वाऽभ्यागतो गुरुः ॥
अर्थ:
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि द्विजों के लिए अग्निहोत्र गुरु के समान आदरणीय है, चारों वर्णों में ब्राह्मण सबसे अधिक श्रेष्ठ और आदरणीय है। स्त्रियों के लिए पति ही गुरु है और घर में आया हुआ अतिथि सभी के आदर-सत्कार के योग्य माना गया है। ॥1॥

द्विजों का कर्तव्य है कि वे अग्निहोत्र आदि कर्म आदरपूर्वक नित्य करते रहें। अग्निहोत्र से वायुमंडल शुद्ध होता है। मनुष्य के स्वास्थ्य और पर्यावरण के सुधार के लिए हवन, यज्ञ आदि करना आवश्यक माना गया है। ब्राह्मण को पूजनीय इसलिए माना गया है क्योंकि वे सभी वर्गों को विद्या देते हैं। स्त्रियों के लिए पति ही उसका आदरणीय गुरु होता है, क्योंकि वही उसका भरण-पोषण करता है और उसे सन्मार्ग पर ले जाने में सहायता करता है। घर में आए हुए अतिथि का आदर-सत्कार सभी लोगों को करना चाहिए क्योंकि वह बहुत थोड़ी देर के लिए किसी के घर आता है। ‘अतिथि देवो भव’, ऐसा शास्त्र वचन भी है।

यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः ।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥
अर्थ:
जिस प्रकार सोने की परीक्षा चार प्रकार से की जाती है-उसे कसौटी पर घिसा जाता है, काटकर देखा जाता है, तपाया जाता है और कूटकर उसकी जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य कितना श्रेष्ठ है इसकी पहचान भी इन चार बातों से होती है।

चाणक्य के अनुसार, इन चारों प्रकारों से की गई परीक्षा में स्वयं को सही सिद्ध करने वाला व्यक्ति ही ‘खरा’ है। उसकी सज्जनता, उसका चरित्र, उसके गुण और उसका आचार- व्यवहार उसके खरेपन की पुष्टि करते हैं। ॥2॥

तावद् भयेषु भेतव्यं यावद्भयमनागतम् ।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशंकया॥
अर्थ:
संकट प्रत्येक मनुष्य पर आते हैं, परंतु बुद्धिमान व्यक्तियों को संकटों और आपत्तियों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे सिर पर न आ जाएं। संकट और दुख आने पर तो
व्यक्ति को अपनी पूरी शक्ति से उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। ॥3॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ चाणक्य नीति प्रथम अध्याय

एकोदरसमुद्भूता एक नक्षत्रजातकाः ।
न भवन्ति समाः शीले यथा बदरिकण्टकाः ॥
अर्थ:
एक ही माता के पेट और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न हुए बालक गुण, कर्म और स्वभाव में एक समान नहीं होते, जैसे बेर-वृक्ष के सभी फल और उनके कांटे एक जैसे नहीं होते, उनमें अंतर होता है। ॥4॥

चाणक्य ने बेर और कांटों की उपमा एक विशेष विचार से दी है। एक ही बेर के वृक्ष पर लगे हुए सभी फल मीठे नहीं होते। बेर वृक्ष पर कांटे भी होते हैं, परंतु वह कांटे भी एक जैसे कठोर नहीं होते।

इसी प्रकार यह आवश्यक नहीं कि एक ही माता-पिता के और एक ही नक्षत्र में पैदा होने वाले बच्चों के गुण, कर्म और स्वभाव एक जैसे हों। उनका भाग्य तथा उनकी रुचियां एक जैसी नहीं होतीं। माता-पिता के एक होने पर भी प्रारब्ध और परिस्थितियों का अंतर तो होता ही है।

निःस्पृहो नाऽधिकारी स्यान्नाकामी मण्डनप्रियः ।
नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्फुटवक्ता न वञ्चकः ॥
अर्थ:
कोई भी अधिकारी लोभरहित नहीं होता, शृंगार प्रेमी में कामवासना की अधिकता होती ही है। जो व्यक्ति चतुर नहीं है, वह मधुरभाषी भी नहीं हो सकता तथा साफ बात कहने वाला व्यक्ति कभी भी धोखेबाज नहीं होता। ॥5॥

प्रायः देखा जाता है कि जिस व्यक्ति में बड़ा बनने की लालसा होती है, वही अधिकार प्राप्त करना चाहता है। जो अपने शरीर को अच्छे वस्त्रों और खुशबू आदि से सजाता है, उसमें कामवासना की अधिकता होती है। मूर्ख और फूहड़ व्यक्ति मधुरभाषी नहीं होता। जो व्यक्ति साफ बात कहता है अर्थात स्पष्ट वक्ता होता है, वह किसी को धोखा नहीं देता। निर्दोष ही सच बोल सकता है।

मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः ।
वारांगनाः कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगाः ॥
अर्थ:
मूर्ख विद्वानों से वैर भाव रखते हैं। दरिद्र और निर्धन धनवानों को अपना शत्रु समझते हैं। वेश्याएं कुलीन स्त्रियों से द्वेषभाव रखती हैं और विधवा स्त्रियां सुहागिनों को अपना शत्रु मानती हैं। ॥6॥

यह संसार का नियम है कि विपरीत स्थिति वाले लोग एक-दूसरे को अपना शत्रु समझते हैं। चाहिए तो यह कि मूर्ख पण्डितों का आदर करें, जिससे उन्हें भी कुछ लाभ हो, परंतु वह उनका सम्मान करने के बजाय उनसे दुश्मनी रखते हैं। निर्धन और आलसी लोग मानते हैं कि धनी व्यक्ति दूसरों को लूट-खसोटकर धनवान होता है, परंतु उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि उन व्यक्तियों ने धन एकत्रित करने में कितना परिश्रम किया है। इतना ही नहीं, उसे संभालकर रखने के लिए भी एक विशेष प्रकार के धैर्य की आवश्यकता होती है। वेश्याएं भी कुलीन स्त्रियों से द्वेष करती हैं और विधवा स्त्रियां सुहागिनों को दुर्भावना की दृष्टि से देखती संकेत है कि अयोग्य और अभावग्रस्त ही द्वेष करते हैं।

आलस्योपहता विद्या परहस्तगताः स्त्रियः ।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम् ॥
अर्थ:
आलस्य के कारण विद्या नष्ट हो जाती है, दूसरे के हाथ में गई हुई स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं, कम बीज डालने से खेत बेकार हो जाता है और सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है। ॥7॥

इसका भाव यह है कि विद्या की प्राप्ति और उसकी वृद्धि के लिए व्यक्ति को आलस्य का त्याग कर देना चाहिए। आलसी किसी गुण को प्राप्त नहीं कर सकता। दूसरे के पास जाने वाली स्त्री का धर्म नष्ट हो जाता है अर्थात किसी दूसरे के अधिकार में जाने पर स्त्री का सतीत्व कायम नहीं रह पाता। यदि खेत में बीज बोते समय कंजूसी की जाएगी और बीज कम डाला जाएगा तो अच्छी फसल नहीं हो सकेगी। सेना का बल सेनापति से ही स्थिर रहता है। जब सेनापति मारा जाता है तो सेना का हार जाना स्वाभाविक ही है।

अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते ॥
अर्थ:
विद्या की प्राप्ति निरंतर अभ्यास से होती है। अभ्यास से ही विद्या फलवती होती है। उत्तम गुण और स्वभाव से ही कुल का गौरव और यश स्थिर रहता है। श्रेष्ठ पुरुष की पहचान सद्गुणों से होती है। मनुष्य की आंखें देखकर क्रोध का ज्ञान हो जाता है। ॥8॥(Chanakya Niti chapter 5)

जिन व्यक्तियों को उत्तम विद्या प्राप्त करनी है, वे निरंतर प्रयत्न करते हैं। वे यदि बार बार अभ्यास न करें तो विद्या की प्राप्ति असंभव होती है। किसी कुल का स्थिर होना, उसका यश फैलना, उसका प्रसिद्ध होना, गौरव की दृष्टि से देखा जाना आदि उसके उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही होता है। यदि गुण, कर्म और स्वभाव श्रेष्ठ नहीं होंगे तो कुल का गौरव नहीं बढ़ सकता। इसी प्रकार श्रेष्ठ व्यक्ति की पहचान उसके अच्छे गुणों के कारण होती है। किसी व्यक्ति के क्रोधित होने का ज्ञान उसकी आंखें देखकर हो जाता है, क्योंकि क्रोध के कारण व्यक्ति की आंखें लाल हो जाती हैं।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम् ॥
अर्थ:
धन से धर्म की रक्षा की जाती है। विद्या को योग के द्वारा बचाया जा सकता है। मधुरता के कारण राजा को बचाया जा सकता है और अच्छी स्त्रियां घर की रक्षक होती हैं। ॥9॥

धर्म की रक्षा के लिए भी धन की आवश्यकता होती है। धर्म, कर्म भी धन के द्वारा ही संपन्न हो सकता है। दूसरों का उपकार करना, दान देना, मंदिर आदि का निर्माण आदि कार्य धर्म माने जाते हैं। विद्या को स्थिर रखने के लिए चतुरतापूर्वक उसका अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, इसलिए कहा गया है कि ‘विद्या योगेन रक्ष्यते।’
राजा की रक्षा उसके मधुर व्यवहार के कारण ही होती है। यदि शासक क्रूर हो जाए तो प्रजा विद्रोह कर सकती है, इसलिए राजा का कर्तव्य है कि वह मधुर और उदार-व्यवहार से अपना राज्य नष्ट होने से बचाता रहे। राजा को अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार दयालुतापूर्ण होना ही चाहिए। जब तक स्त्रियों को अपने सतीत्व का ध्यान रहता है, उनके मन में अपने परिवार की प्रतिष्ठा सर्वोपरि रहती है, तब तक घर बचा रहता है अर्थात परिवार नष्ट नहीं होता, परंतु जब वे अपने शील और सतीत्व का परित्याग कर देती हैं तो वह घर नष्ट होता है।

अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा।
अन्यथा कुवचः शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा ॥
अर्थ:
विद्वान व्यक्ति के पांडित्य की निंदा करने वाले, शास्त्रों द्वारा कहे गए श्रेष्ठ आचरण को व्यर्थ बताने वाले, धीर, गंभीर और शांत रहने वाले व्यक्ति को ढोंगी और पाखंडी बताने वाले लोग हमेशा दुख उठाते हैं। इस परनिंदा रूप कार्य से कोई लाभ नहीं होता है। ॥10॥

बहुत से लोग अपने स्वभाव के कारण विद्वान पंडितों की विद्वत्ता को व्यर्थ बताते हैं, उनकी निंदा करते हैं। शास्त्रों में बताए गए नियमों के अनुसार आचरण करने वाले व्यक्ति को भी वे व्यर्थ का आचरण करने वाला बताते हैं। विद्वानों को ढोंगी और शास्त्रों को कल्पित बताते हैं। ऐसा करते हुए वे विद्वानों या शास्त्रों की सार्थकता को तो नकार नहीं पाते, अपितु लाभ से वंचित हो जाते हैं, जो उन्हें मिल सकता था।

शांत और चुपचाप रहने वाले की चुप्पी को मूर्षों की भाषा में कमजोरी ही माना जाता है। विद्वान, श्रेष्ठ आचरण करने वाले, धीर, गंभीर और शुद्ध व्यक्ति का निंदा से कुछ भी नहीं बिगड़ता, हां, निंदक सदैव दुखी रहते हैं। यदि कोई नदी का जल नहीं पीता, तो उससे नदी का क्या घटता है?

दारिद्र्यनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम् ।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी ॥
अर्थ:
दान देने से दरिद्रता नष्ट होती है, अच्छे आचरण से कष्ट दूर होते हैं, मनुष्य की दुर्गति समाप्त होती है, बुद्धि से अज्ञान नष्ट होता है अर्थात मूर्खता नष्ट होती है है और ईश्वर की भक्ति से भय दूर होता है। ॥11॥(Chanakya Niti chapter 5)

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दान देने से दरिद्रता नष्ट होती है। अनेक शास्त्रों और संतों ने भी कहा है कि ‘दान दिए धन ना घटे’। यदि मन के साथ इसे जोड़ा जाए, तो यह कथन और भी स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि धनी भी मन से दरिद्र हो सकता है और निर्धन भी श्रीमान्।

व्यक्ति अच्छे गुणों, नम्र व्यवहार और सुशीलता के कारण अपने कष्ट दूर करता है, क्योंकि सभी व्यक्ति सद्‌गुणी और सुशील व्यक्ति को आगे बढ़ाने की इच्छा रखते हैं।
प्रभु सबकी सहायता करने वाला है। जो व्यक्ति नित्य नियम से ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, वे सदैव दुर्गुणों से बचे रहते हैं। उन्हें न तो किसी व्यक्ति से डरने की आवश्यकता होती है और न ही वे संकटों के आने पर भयभीत होते हैं।

नाऽस्ति कामसमो व्याधिर्नाऽस्ति मोहसमो रिपुः।
नाऽस्ति कोपसमो व‌ह्निर्नाऽस्ति ज्ञानात् परं सुखम् ॥
अर्थ:
कामवासना के समान कोई रोग नहीं। मोह से बड़ा कोई शत्रु नहीं। क्रोध जैसी कोई आग नहीं और ज्ञान से बढ़कर इस संसार में सुख देने वाली कोई वस्तु नहीं। ॥12॥

अधिक कामवासना में लिप्त रहने वाला व्यक्ति शक्तिहीन होकर अनेक रोगों का शिकार हो जाता है। वह कामवासना की पूर्ति के लिए रोगी से संबंध बनाकर किसी रोग की गिरफ्त में भी आ सकता है।

व्यक्ति का क्रोध उसके लिए आग का काम करता है। उसका अपना क्रोध उसे जला डालता है। ज्ञान से बढ़कर संसार में सुख देने वाली कोई भी वस्तु नहीं है, जो व्यक्ति बुद्धि और विवेक से कार्य करता है, वह सदा सुखी रहता है। मोह को सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। मोह का अर्थ है मूर्च्छा अर्थात् अविवेक। यह बुद्धि को नष्ट कर देता है।

जन्ममृत्यु हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम् ।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम् ॥
अर्थ:
जिस प्रकार मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है, उसी प्रकार अकेले ही उसे पाप और पुण्य का फल भी भोगना पड़ता है। अकेले ही अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं अर्थात अकेले ही उसे नरक का दुख उठाना पड़ता है और अकेला ही वह मोक्ष को प्राप्त होता है। ॥ 13॥

मनुष्य के जन्म और मृत्यु के चक्र में उसका कोई साथ नहीं देता। वह जब जन्म लेता है तब भी अकेला होता है। जब उसकी मृत्यु होती है तब भी वह अकेला होता है। अतः बार- बार जन्म लेने और मरने के चक्र में मनुष्य को अकेले ही भागीदारी करनी होती है।

चाणक्य ने मनुष्य के अकेले ही नरक में जाने की बात कही है। नरक और कुछ नहीं है, मनुष्य द्वारा भोगे जाने वाले कष्टों का ही नाम है। व्यक्ति अकेला ही इस कष्ट को भोगने के लिए मजबूर होता है। उसके कष्ट में सहानुभूति तो जताई जा सकती है, परंतु उसका कष्ट बांटा नहीं जा सकता। यदि वह अच्छे कार्य करता है तो इसी जन्म में जीवन्मुक्त की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।

आचार्य चाणक्य ने यहां संकेत दिया है कि सब अकेले ही करना है, इसलिए उत्तरदायित्व को निभाने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। दूसरों की ओर क्यों देखना? दूसरों का सहारा लेने की आदत से मुक्त हों, यही श्रेयस्कर है।(Chanakya Niti chapter 5)

तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्।
जिताऽशस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥
अर्थ:
जिसे ब्रह्मज्ञान है, उसके लिए स्वर्ग तिनके के समान अर्थात तुच्छ है। शूरवीर के लिए जीवन तिनके के समान होता है। जितेन्द्रिय अर्थात संयमी व्यक्ति के लिए स्त्री (भोग पदार्थ) तिनके के समान होती है और इच्छारहित मनुष्यों के लिए सारा संसार ही तिनके के समान है। ॥14॥

जिसे ब्रह्मज्ञान है, उसके लिए स्वर्ग का कोई महत्व नहीं, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ग के सुख भी क्षणिक हैं। शूरवीर व्यक्ति जीवन की बलि देने से नहीं डरता, उसके लिए अपना जीवन एक तिनके के समान है, उसे अपने जीवन में किसी से भय नहीं होता। जिस व्यक्ति ने इन्द्रियों को अपने वश में किया है, उसे नारी अपने वश में नहीं कर सकती। यहां नारी शब्द का अर्थ है सभी भोग पदार्थ, नारी तो उसका प्रतीक मात्र है। इसी प्रकार इच्छारहित व्यक्ति के लिए सारा संसार तिनके के समान होता है क्योंकि उसकी किसी वस्तु में आसक्ति नहीं होती। आसक्ति ही व्यक्ति या वस्तु को मूल्य प्रदान करती है।

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥
अर्थ:
विदेश में विद्या ही मनुष्य की सच्ची मित्र होती है, घर में अच्छे स्वभाव वाली और गुणवती पत्नी ही मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती है। रोगी व्यक्ति की मित्र दवाई है और जो मनुष्य मर चुका है उसका धर्म-कर्म ही उसका मित्र होता है। ॥15॥

मित्र की परिभाषा करते हुए कहा गया है-जो सदैव अपने मित्र का हित चिंतन करे तथा विपत्ति में साथ न छोड़े, वही सच्चा मित्र होता है। इस संदर्भ में विद्या, गुणी पत्नी, औषधि और धर्म को देखने की आवश्यकता है। ये चारों मित्र की तरह हित करते हैं। धर्म की श्रेष्ठता की ओर भी आचार्य ने संकेत किया है क्योंकि जब सब साथ छोड़ जाते हैं, उस समय धर्म ही मृतात्मा को सद्गति देता है, उसके मोक्ष का कारण बनता है।(Chanakya Niti chapter 5)

वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च॥
अर्थ:
समुद्र में बारिश होना, भोजन से तृप्त हुए मनुष्य को फिर से भोजन कराना, धनी
लोगों को दान देना और दिन में दीपक जलाना आदि बातें व्यर्थ और निरर्थक होती हैं। ॥1611

नाऽस्ति मेघसमं तोयं नाऽस्ति चात्मसमं बलम् ।
नाऽस्ति चक्षुः समं तेजो नाऽस्ति धान्यसमं प्रियम्॥
अर्थ:
बादल के जल जैसा दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं, आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नहीं, नेत्र ज्योति के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं और अन्न के समान दूसरा कोई प्रिय पदार्थ नहीं होता। ॥17॥

मेघ के जल को सबसे अधिक पवित्र इसलिए माना जाता है कि वह स्वास्थ्यवर्धक होता है। जिस व्यक्ति में आत्मा का बल है अर्थात जो स्वयं पर विश्वास करता है, उसमें सभी प्रकार के बलों का सहज रूप में समावेश हो जाता है। आत्मबल क्या शरीर और इन्द्रियों के बल से बढ़कर नहीं है? चाणक्य ने नेत्र की ज्योति को सबसे अधिक उपयोगी माना है क्योंकि नेत्र की ज्योति के बिना मनुष्य के लिए सारा संसार अंधकारमय होता है। अन्न को मनुष्य के लिए सबसे अधिक प्रिय पदार्थ कहा गया है क्योंकि जब तक अन्न नहीं मिलता तब तक शरीर मन आदि अपना-अपना कार्य नहीं कर सकते। प्राणियों के अन्नमय कोष अर्थात् शरीर की पुष्टि तो अन्न से ही होती है।

अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः ॥
अर्थ:
धनहीन व्यक्ति और अधिक धन पाना चाहता है, चौपाये अर्थात चार पैर वाले पशु चाहते हैं कि वे बोल सकें, मनुष्य स्वर्ग चाहता है और देवता मोक्ष की कामना करते हैं। ॥ 18॥(Chanakya Niti chapter 5)

व्यक्ति हर समय चाहता है कि उसे धन की प्राप्ति हो परंतु उसे यह पता ही नहीं होता कि उसके लिए लगातार श्रम करना पड़ता है। पशु वाणी चाहते हैं ताकि वे अपने मन की बात किसी दूसरे से कर सकें। मनुष्य यह भी चाहता है कि उसे स्वर्ग मिले, देवता और विद्वान व्यक्ति इस जीनन से मुक्त होने की कामना करते, इसलिए तह जीनन में ऐसे कार्य करते हैं जिनसे जीवन-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्राणीमात्र का यह स्वभाव है कि जिसके पास जो नहीं है, वह उसकी कामना करता है।

सत्येन धार्यते पृथिवी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥
अर्थ:
सत्य के कारण पृथ्वी स्थिर है, सूर्य भी सत्य के बल से प्रकाश देता है, सत्य से ही वायु बहती है, सब सत्य में ही स्थिर है। ॥19॥

सत्य का आधार ब्रह्म है। पृथ्वी अथवा यह संसार सत्य के कारण ही टिका हुआ है। इसी सत्य और ब्रह्म से सूर्य का प्रकाश सारे संसार में फैलता है। सत्य अथवा प्रभु की शक्ति से ही इस संसार में वायु का संचार होता है। इस प्रकार सभी कुछ सत्य अथवा ब्रह्म में स्थित है।

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवित-यौवनम्।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ॥
अर्थ:
इस चराचर जगत् में लक्ष्मी (धन) चलायमान है अर्थात लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती, नष्ट हो जाती है, प्राण भी नाशवान हैं, जीवन और यौवन भी नष्ट होने वाले हैं, इस चराचर संसार में एकमात्र धर्म ही स्थिर है। ॥20॥

धन-सम्पत्ति मनुष्य के पास सदा नहीं रहती, उसके कर्मों के अनुसार आती-जाती है। जिस मनुष्य ने जीवन धारण किया है, उसका मरना भी आवश्यक है, इसीलिए प्राणों को स्थिर नहीं कहा जा सकता। मनुष्य का यौवन सदा स्थिर रहने वाली वस्तु नहीं, बुढ़ापा यौवन का क्षय है, परंतु धर्म ऐसा तत्त्व है जिसका नाश नहीं होता। मनुष्य की मृत्यु के बाद भी धर्म ही उसका साथ देता है। शास्त्र की भी मान्यता है कि आते भी हम अकेले हैं और जाते भी अकेले ही हैं, लेकिन धर्म हमेशा साथ रहता है। आचार्य के अनुसार जो हमेशा साथ रहने वाला है उसकी ओर मनुष्य को ध्यान देना चाहिए।

नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी ॥
अर्थ:
मनुष्य में नाई सबसे अधिक चालाक और होशियार होता है। पक्षियों में कौआ, चार पैरों वाले जानवरों में गीदड़ और स्त्रियों में मालिन अत्यधिक चतुर होती है। ॥21॥

यहां जिन जातियों की बात आचार्य चाणक्य ने की है, उसे आपत्तिजनक मानना
आचार्य के कथन को सही संदर्भ में न समझने की भूल करना है। जो जाति जितनी अधिक सामाजिक होती है, उसे इस बात का व्यावहारिक अनुभव होता है कि किस व्यक्ति से किस प्रकार कार्य करवाना है।

कुछ बिरादरियों में जो पुरानी परंपराओं का निर्वाह कर रही हैं, आज भी ‘नापित’ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पहले शादी-विवाह आदि में महत्वपूर्ण निर्णय भी इनके द्वारा लिए जाते थे। ये मीडिएटर का काम करते थे और अपने यजमान के प्रति वफादार होते थे। इनके सामने लोग अपने मन की बात खोलकर भी रख देते हैं। यही स्थिति फूल का व्यापार करने वाली जाति की स्त्रियों की भी है। उनका मेल हर तरह के लोगों के साथ होता था। अपनी बात रखने के बारे में तथा किसी के सवाल का तत्काल जवाब देने में आज भी उनकी कोई बराबरी नहीं है।(Chanakya Niti chapter 5)

यहां एक बात विशेष रूप से समझने की है कि इस दुनिया में कुछ भी नकारात्मक नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक वस्तु का, प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति का और प्रत्येक संवेग का सही प्रयोग और उपयोग करना जानता है। यही उसकी सफलता का मूलमंत्र है। इसीलिए वह ‘विशेष’ कहलाता है। और यह भी कि शब्दों का अर्थ रुढ़ की जगह यदि यौगिक रूप में किया जाए, तो सर्वसाधारण उसे खींचकर उसी ओर ले जाता, जो जनसामान्य में प्रचलित है। इस बारे में तो सभी एकमत से सहमत हैं कि कुछ शब्दों का एक अर्थ नहीं होता। उसके सही अर्थों को संदर्भ के अनुसार लगाना पड़ता है। जब शब्द का अर्थ भाव के विपरीत हो, तो लक्ष्यार्थ को समझने का प्रयास करना चाहिए।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

अध्याय का सार

गुरु की महिमा का वर्णन सर्वत्र किया गया है, परंतु चाणक्य ने यह भी स्पष्ट किया है कि सामान्य जीवन में कौन किसका गुरु होता है। उनका कहना है कि स्त्रियों का गुरु उसका पति होता है, गृहस्थ का गुरु अतिथि होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का गुरु अग्नि अर्थात अग्निहोत्र है और चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण होता है।

जिस प्रकार सोने को कसौटी पर घिसकर, आग में तपाकर उसकी शुद्धता की परख होती है, उसी प्रकार मनुष्य अपने अच्छे कर्मों और गुणों से पहचाना जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में ये निखरते हैं।(Chanakya Niti chapter 5)

चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को जीवन में भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। उसे निडर होकर कार्य करने चाहिए। यदि किसी भय की आशंका हो तो भी घबराना नहीं चाहिए बल्कि संकट आने पर उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि एक ही माता से उत्पन्न होने वाली संतान एक ही प्रकार के स्वभाव वाली हो, सबमें अलग-अलग गुण होते हैं। यह वैयक्तिक भिन्नता तो प्रकृति का विशेष गुण है।

चाणक्य का मानना है कि कोई भी व्यक्ति वह वस्तु प्राप्त नहीं कर सकता, जिसे प्राप्त करने की उसमें इच्छा न हो। जिसे विषय-वासनाओं से प्रेम नहीं, वह शृंगार अथवा सुंदरता बढ़ाने वाली वस्तुओं की मांग नहीं करता। जो व्यक्ति बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट बात कहता है, वह कपटी नहीं होता। विद्या अभ्यास से प्राप्त होती है और आलस्य से नष्ट हो जाती है। दूसरे के हाथ में दिया हुआ धन वापस मिलना कठिन होता है और जिस खेत में बीज कम डाला जाता है, वह फसल नष्ट हो जाती है। चाणक्य कहते हैं कि दान देने से धन घटता नहीं वरन् दानदाता की दरिद्रता समाप्त होती है। सद्बुद्धि द्वारा मूर्खता नष्ट होती है और मन में सकारात्मक विचारों से भय समाप्त हो जाते हैं।

मनुष्य में अनेक ऐसे दोष होते हैं, जिनसे उसे अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। चाणक्य कहते हैं कि कामवासना से बढ़कर कोई दूसरा रोग नहीं, मोह और क्रोध के समान स्वयं को नष्ट करने वाला कोई शत्रु नहीं। चाणक्य का कहना है कि क्रोध व्यक्ति को हर समय जलाता रहता है। मनुष्य जो कर्म करता है, अच्छा या बुरा, उसका फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है, वह अकेला ही इस संसार में जन्म लेता है और अकेला ही मरता भी है। स्वर्ग अथवा नरक में भी वह अकेला ही जाता है, केवल कर्म ही उसके साथ जाते हैं।

मनुष्य जब विदेश में जाता है तो उसका ज्ञान और बुद्धि ही साथ देती है। घर में पत्नी ही सच्ची मित्र होती है। औषधि रोगी के लिए हितकर होने के कारण उसकी मित्र है। मृत्यु के, बाद जब संसार की कोई वस्तु या व्यक्ति मनुष्य का साथ नहीं देता उस समय धर्म ही व्यक्ति का मित्र होता है।(Chanakya Niti chapter 5)

चाणक्य का कहना है कि वर्षा के जल से श्रेष्ठ दूसरा जल नहीं और व्यक्ति का आत्मबल ही उसका सबसे बड़ा बल है। मनुष्य का तेज उसकी आंखें हैं और उसकी सबसे प्रिय वस्तु है। अन्न। संसार में कोई भी अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। जो पास में नहीं है, उसी की चाह प्रत्येक व्यक्ति करता है। निर्धन धन चाहता है। पशु वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग की और देवत्व को प्राप्त जीव मोक्ष की कामना करते हैं। आचार्य यहां संकेत दे रहे हैं कि देवता भी असुरक्षित हैं। उन्हें भी पुण्य समाप्ति के बाद मृत्युलोक में आना पड़ता है इसीलिए वे देवयोनि से भी मुक्त होना चाहते हैं।

सत्य की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि सत्य के कारण ही दुनिया के समस्त कार्य-व्यापार चल रहे हैं। लक्ष्मी, मनुष्य के प्राण और यह संसार सभी नश्वर हैं, केवल धर्म ही शाश्वत है अर्थात मनुष्य को अपनी रुचि धर्म में रखनी चाहिए।

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