Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi
Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तेरह
Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi
श्रीमद भागवत गीता के अध्याय तेरह (Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi) को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग के नाम से जाना जाता है। भागवत गीता के तेरह अध्याय (Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi) में अर्जुन ने भगावन श्री कृष्ण को कहते हे की में क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ। तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा यह शरीर ‘क्षेत्र’ और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।
भागवत गीता के तेरह अध्याय (Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi) में भगवान श्री कृष्ण ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय का वर्णन किया है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहते हुऐ ज्ञानसहितप्रकृति-पुरुष का वर्णन भी किया गया है।
श्रीभगवानुवाच
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
ksetrajnan capi man viddhi sarvaksetresu bharata.
ksetraksetrajnayorjnanan yattajjnanan matan mama৷৷13.3৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है৷৷13.3৷৷
यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
tatksetran yacca yadrk ca yadvikari yatasca yat.
sa ca yo yatprabhavasca tatsamasena me srrnu৷৷13.4৷৷
भावार्थ : वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन৷৷13.4৷৷
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥
rsibhirbahudha gitan chandobhirvividhaih prthak.
brahmasutrapadaiscaiva hetumadbhirvinisicataih৷৷13.5৷৷
भावार्थ : यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है৷৷13.5৷৷
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
(Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi)
mahabhutanyahankaro buddhiravyaktameva ca.
indriyani dasaikan ca panca cendriyagocarah৷৷13.6৷৷
भावार्थ : पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध৷৷13.6৷৷
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
iccha dvesah sukhan duhkhan sanghatascetanadhrtih.
etatksetran samasena savikaramudahrtam৷৷13.7৷৷
भावार्थ : तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना और धृति इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया৷৷13.7৷৷
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
amanitvamadambhitvamahinsa ksantirarjavam.
acaryopasanan saucan sthairyamatmavinigrahah৷৷13.8৷৷
भावार्थ : श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह৷৷13.8৷৷
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
indriyarthesu vairagyamanahankara eva ca.
janmamrtyujaravyadhiduhkhadosanudarsanam৷৷13.9৷৷
भावार्थ : इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना৷৷13.9৷৷
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
asakitaranabhisvangah putradaragrhadisu.
nityan ca samacittatvamistanistopapattisu৷৷13.10৷৷
भावार्थ : पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥13.10॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
mayi cananyayogena bhakitaravyabhicarini.
viviktadesasevitvamaratirjanasansadi৷৷13.11৷৷
भावार्थ : मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥13.11॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
adhyatmajnananityatvan tattvajnanarthadarsanam.
etajjnanamiti proktamajnanan yadatonyatha৷৷13.12৷৷
भावार्थ : अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है- ऐसा कहा है॥13.12॥
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥
jneyan yattatpravaksyami yajjnatva.mrtamasnute.
anadimatparan brahma na sattannasaducyate৷৷13.13৷৷
भावार्थ : जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही৷৷13.13৷৷
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
sarvatah panipadan tatsarvato.ksisiromukham.
sarvatah srutimalloke sarvamavrtya tisthati৷৷13.14৷৷
भावार्थ : वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। ॥13.14॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
sarvendriyagunabhasan sarvendriyavivarjitam.
asaktan sarvabhrccaiva nirgunan gunabhoktr ca৷৷13.15৷৷
भावार्थ : वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥13.15॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
bahirantasca bhutanamacaran carameva ca.
suksmatvattadavijneyan durasthan cantike ca tat৷৷13.16৷৷
भावार्थ : वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है।
श्री कृष्ण ने कहा की सर्वोच्च पुरुष, प्रत्येक जीवित इकाई के बाहर और अंदर दोनों जगह निवास करते हैं। वह आध्यात्मिक और भौतिक जगत दोनों में मौजूद है। यद्यपि वह बहुत दूर है, फिर भी वह हमारे निकट है। ये वैदिक साहित्य के कथन हैं।
यह फिर से एक विरोधाभास प्रतीत होता है, लेकिन उनका तात्पर्य यह है कि भगवान को इंद्रियों, मन और बुद्धि से नहीं जाना जा सकता है। बुद्धि भौतिक ऊर्जा से बनी है, इसलिए यह ईश्वर तक नहीं पहुंच सकती जो दिव्य है। हालाँकि, यदि ईश्वर स्वयं किसी पर अपनी कृपा करता है, तो वह भाग्यशाली आत्मा उसे जान सकती है।॥13.16॥
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अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
avibhaktan ca bhutesu vibhaktamiva ca sthitam.
bhutabhartr ca tajjneyan grasisnu prabhavisnu ca৷৷13.17৷৷
भावार्थ : वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥13.17॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
jyotisamapi tajjyotistamasah paramucyate.
jnanan jneyan jnanagamyan hrdi sarvasya visthitam৷৷13.18৷৷
भावार्थ : वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है।
श्रीकृष्ण विभिन्न प्रकार से ईश्वर की सर्वोच्चता स्थापित करते हैं। सूर्य, चंद्रमा, तारे, अग्नि, रत्न आदि अनेक प्रकाश देने वाली वस्तुएं हैं। यदि इन्हें छोड़ दिया जाए तो इनमें से किसी में भी प्रकाश देने की शक्ति नहीं है। जब भगवान उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं, तभी वे कुछ भी प्रकाशित कर सकते हैं।
यदि कोई व्यक्ति मुक्ति चाहता है तो उसे भगवान के प्रति समर्पण करना होगा। वे सबके हृदय में परम नियंता के रूप में स्थित हैं। ईस्वर के पैर और हाथ हर जगह फैले हुए हैं, और यह बात व्यक्तिगत आत्मा के बारे में नहीं कही जा सकती। इसलिए, कार्य क्षेत्र के दो ज्ञाता हैं, व्यक्तिगत आत्मा और परमात्मा, यह स्वीकार किया जाना चाहिए। किसी के हाथ और पैर स्थानीय स्तर पर वितरित होते हैं, लेकिन कृष्ण के हाथ और पैर हर जगह वितरित होते हैं।॥13.18॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥
iti ksetran tatha jnanan jneyan coktan samasatah.
madbhakta etadvijnaya madbhavayopapadyate৷৷13.19৷৷
भावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥13.19॥
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥
prakrtin purusan caiva viddhyanadi ubhavapi.
vikaransca gunanscaiva viddhi prakrtisanbhavan৷৷13.20৷৷
भावार्थ : प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥13.20॥
श्रीभगवानुवाच
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
karyakaranakartrtve hetuh prakrtirucyate.
purusah sukhaduhkhanan bhoktrtve heturucyate৷৷13.21৷৷
भावार्थ : कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥13.21॥
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
purusah prakrtistho hi bhunkte prakrtijangunan.
karanan gunasango.sya sadasadyonijanmasu৷৷13.22৷৷
भावार्थ : प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। ॥13.22॥
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
upadrasta.numanta ca bharta bhokta mahesvarah.
paramatmeti capyukto dehe.sminpurusah parah৷৷13.23৷৷
भावार्थ : इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥13.23॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
ya evan vetti purusan prakrtin ca gunaihsaha.
sarvatha vartamano.pi na sa bhuyo.bhijayate৷৷13.24৷৷
भावार्थ : इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥13.24॥
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
dhyanenatmani pasyanti kecidatmanamatmana.
anye sankhyena yogena karmayogena capare৷৷13.25৷৷
भावार्थ : उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥13.25॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥
anye tvevamajanantah srutva.nyebhya upasate.
te.pi catitarantyeva mrtyun srutiparayanah৷৷13.26৷৷
भावार्थ : परन्तु इनसे दूसरे अर्थात जो मंदबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं॥13.26॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥
yavatsanjayate kincitsattvan sthavarajangamam.
ksetraksetrajnasanyogattadviddhi bharatarsabha৷৷13.27৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन!(Bhagwat Geeta Chapter 13 Hindi) यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान॥13.27॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥
saman sarvesu bhutesu tisthantan paramesvaram.
vinasyatsvavinasyantan yah pasyati sa pasyati৷৷13.28৷৷
भावार्थ : जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है॥13.28॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥
saman pasyanhi sarvatra samavasthitamisvaram.
na hinastyatmana৷৷tmanan tato yati paran gatim৷৷13.29৷৷
भावार्थ : क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है॥13.29॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
prakrtyaiva ca karmani kriyamanani sarvasah.
yah pasyati tatha৷৷tmanamakartaran sa pasyati৷৷13.30৷৷
भावार्थ : और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है॥13.30॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
yada bhutaprthagbhavamekasthamanupasyati.
tata eva ca vistaran brahma sampadyate tada৷৷13.31৷৷
भावार्थ : जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥13.31॥
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
anaditvannirgunatvatparamatmayamavyayah.
sarirastho.pi kaunteya na karoti na lipyate৷৷13.32৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है॥13.32॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
yatha sarvagatan sauksmyadakasan nopalipyate.
sarvatravasthito dehe tatha৷৷tma nopalipyate৷৷13.33৷৷
भावार्थ : जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥13.33॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
yatha prakasayatyekah krtsnan lokamiman ravih.
ksetran ksetri tatha krtsnan prakasayati bharata৷৷13.34৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है॥13.34॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
ksetraksetrajnayorevamantaran jnanacaksusa.
bhutaprakrtimoksan ca ye viduryanti te param৷৷13.35৷৷
भावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥13.35॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का अध्याय चौदहवाँ
अध्याय तेरह संपूर्णम्