Bhagavad Gita Chapter 18 in Hindi [15 Minute]
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता ~ Bhagavad Gita Chapter 18 in Hindi
अध्याय अट्ठारह मोक्षसंन्यासयोग
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय अट्ठारहवाँ (Bhagavad Gita Chapter 18) को मोक्षसंन्यासयोग कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण द्वारा विस्तारपूर्वक गीता के समस्त उपदेशों का सार बताया गया हैं। इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण त्याग के विषय, कर्मों के सांख्यसिद्धांत का वर्णन, तीनों गुणों के अनुसार सुख के अलग-अलग भेद, ज्ञाननिष्ठा का विषय, कर्मयोग का विषय, और श्री गीताजी का माहात्म्य कहते है।
भगवद गीता के इस अध्याय (Bhagavad Gita Chapter 18) में कहा गया हे की मनुष्यों को पवित्र रखने वाले यज्ञ, दान और तप किसी भी अवस्था में त्याग करने योग्य नहीं है। इस अध्याय में बताया गया है कि मनुष्य और देवताओ में कोई भी ऐसा नहीं जो तीनो गुण से बचपाया हो। मनुष्य को कार्य और अकार्य क्या हे, यह पहचान होनी चाहिए।
भगवद गीता का अध्याय 18 का शीर्षक मोक्ष, संन्यास, योग और “त्याग है। यह भगवद गीता का अंतिम अध्याय है। इस अध्याय में 78 श्लोक सम्मिलित हैं और यह अध्याय पूरे गीता ग्रंथ में विशेष रूप से शिक्षा का फलरूप में कार्य करता है। इस अध्याय में तीन प्रकार के विश्वास और किसी के कार्यों और चेतना पर चर्चा की गई है।
Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi
अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ৷৷18.1৷৷
arjuna uvaca
sannyasasya mahabaho tattvamicchami veditum.
tyagasya ca hrsikesa prthakkesinisudana৷৷18.1৷৷
अर्थ:
अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ ৷৷18.1॥
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ৷৷18.1৷৷
sri bhagavanuvaca
kamyanan karmanan nyasan sannyasan kavayo viduh.
sarvakarmaphalatyagan prahustyagan vicaksanah৷৷18.2৷৷
अर्थ:
श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं ৷৷18.2॥
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ৷৷18.2৷৷
tyajyan dosavadityeke karma prahurmanisinah.
yajnadanatapahkarma na tyajyamiti capare৷৷18.3৷৷
अर्थ:
कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं ৷৷18.3॥
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निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ৷৷18.4৷৷
niscayan srrnu me tatra tyage bharatasattama.
tyago hi purusavyaghra trividhah sanprakirtitah৷৷18.4৷৷
अर्थ:
हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ৷৷18.4॥
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ৷৷18.5৷৷
yajnadanatapahkarma na tyajyan karyameva tat.
yajno danan tapascaiva pavanani manisinam৷৷18.5৷৷
अर्थ:
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं ৷৷18.5॥
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ৷৷18.6৷৷
etanyapi tu karmani sangan tyaktva phalani ca.
kartavyaniti me partha nisicatan matamuttamam৷৷18.6৷৷
अर्थ:
इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ৷৷18.6॥
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ৷৷18.7৷৷
niyatasya tu sannyasah karmano nopapadyate.
mohattasya parityagastamasah parikirtitah৷৷18.7৷৷
अर्थ:
परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ৷৷18.7॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ৷৷18.8৷৷
duhkhamityeva yatkarma kayaklesabhayattyajet.
sa krtva rajasan tyagan naiva tyagaphalan labhet৷৷18.8৷৷
अर्थ:
जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ৷৷18.8॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ৷৷18.9৷৷
karyamityeva yatkarma niyatan kriyate.rjuna.
sangan tyaktva phalan caiva sa tyagah sattviko matah৷৷18.9৷৷
अर्थ:
हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है ৷৷18.9॥
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ৷৷18.10৷৷
na dvesṭyakusalan karma kusale nanusajjate.
tyagi sattvasamavisṭo medhavi chinnasansayah৷৷18.10৷৷
अर्थ:
जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ৷৷18.10॥
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ৷৷18.11৷৷
na hi dehabhrta sakyan tyaktun karmanyasesatah.
yastu karmaphalatyagi sa tyagityabhidhiyate৷৷18.11৷৷
अर्थ:
क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है ৷৷18.11॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ৷৷18.12৷৷
anisṭamisṭan misran ca trividhan karmanah phalam.
bhavatyatyaginan pretya na tu sannyasinan kvacit৷৷18.12৷৷
अर्थ:
कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता ৷৷18.12॥
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ৷৷18.13৷৷
pancaitani mahabaho karanani nibodha me.
sankhye krtante proktani siddhaye sarvakarmanam৷৷18.13৷৷
अर्थ:
हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान ৷৷18.13॥
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ৷৷18.14৷৷
adhisṭhanan tatha karta karanan ca prthagvidham.
vividhasca prthakcesṭa daivan caivatra pancamam৷৷18.14৷৷
अर्थ:
इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव है ৷৷18.14॥
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः৷৷18.15৷৷
sariravanmanobhiryatkarma prarabhate narah.
nyayyan va viparitan va pancaite tasya hetavah৷৷18.15৷৷
अर्थ:
मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं ৷৷18.15॥
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ৷৷18.16৷৷
tatraivan sati kartaramatmanan kevalan tu yah.
pasyatyakrtabuddhitvanna sa pasyati durmatih৷৷18.16৷৷
अर्थ:
परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ৷৷18.16॥
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ৷৷18.17৷৷
yasya nahankrto bhavo buddhiryasya na lipyate.
hatvapi sa imaollokanna hanti na nibadhyate৷৷18.17৷৷
अर्थ:
जिस पुरुष के अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। ৷৷18.17॥
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ৷৷18.18৷৷
jnanan jneyan parijnata trividha karmacodana.
karanan karma karteti trividhah karmasangrahah৷৷18.18৷৷
अर्थ:
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- ये तीनों प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता, करण तथा क्रिया ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है ৷৷18.18॥
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ৷৷18.19৷৷
jnanan karma ca karta ca tridhaiva gunabhedatah.
procyate gunasankhyane yathavacchrnu tanyapi৷৷18.19৷৷
अर्थ:
गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति सुन ৷৷18.19॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ৷৷18.20৷৷
sarvabhutesu yenaikan bhavamavyayamiksate.
avibhaktan vibhaktesu tajjnanan viddhi sattvikam৷৷18.20৷৷
अर्थ:
जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान ৷৷18.20॥
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ৷৷18.21৷৷
prthaktvena tu yajjnanan nanabhavanprthagvidhan.
vetti sarvesu bhutesu tajjnanan viddhi rajasam৷৷18.21৷৷
अर्थ:
किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान ৷৷18.21॥
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्৷৷18.22৷৷
yattu krtsnavadekasminkarye saktamahaitukam.
atattvarthavadalpan ca tattamasamudahrtam৷৷18.22৷৷
अर्थ:
परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है ৷৷18.22॥
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते৷৷18.23৷৷
niyatan sangarahitamaragadvesatah krtam.
aphalaprepsuna karma yattatsattvikamucyate৷৷18.23৷৷
अर्थ:
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ৷৷18.23॥
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्৷৷18.24৷৷
yattu kamepsuna karma sahankarena va punah.
kriyate bahulayasan tadrajasamudahrtam৷৷18.24৷৷
अर्थ:
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ৷৷18.24॥
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अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते৷৷18.25৷৷
anubandhan ksayan hinsamanapeksya ca paurusam.
mohadarabhyate karma yattattamasamucyate৷৷18.25৷৷
अर्थ:
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ৷৷18.25॥
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते৷৷18.26৷৷
muktasango.nahanvadi dhrtyutsahasamanvitah.
siddhyasiddhyornirvikarah karta sattvika ucyate৷৷18.26৷৷
अर्थ:
जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है।
यह श्लोक एक ऐसे कर्ता का वर्णन करता है जो सत्त्वगुण का है, सात्विक है। श्री कृष्ण कहते हैं कि सात्विक कर्ता कार्य के किसी भी परिणाम के लिए तैयार रहता है, चाहे वह सफलता हो या विफलता। वे बाहरी परिस्थितियों को अपनी मन:स्थिति में बदलाव नहीं आने देंगे। यदि कार्य विफल हो जाता है, तो वे उस पर ध्यान नहीं देते बल्कि अपनी गलतियों से सीखते हैं और आगे बढ़ते हैं।
सफलता या विफलता के अलावा, हमें कार्रवाई के दौरान अस्थायी असफलताओं का भी सामना करना पड़ता है। एक सात्विक कर्ता के पास इन असफलताओं से निपटने के लिए अत्यधिक सहनशक्ति होती है। अपना कर्तव्य निभाने का उनका उत्साह उन्हें किसी भी अस्थायी दुःख की भावना से बाहर निकाल देता है।
किसी भी प्रकार के लगाव से मुक्ति सात्विक कर्ता का महत्वपूर्ण गुण है। वे कार्य के परिणाम से, स्वयं क्रिया से, या अपनी वैयक्तिकता की भावना, अपने अहंकार से जुड़े नहीं होते हैं। उन्होंने उच्च स्तर का वैराग्य, भौतिक संसार के खिंचाव से वैराग्य प्राप्त कर लिया है৷৷18.26॥
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः৷৷18.27৷৷
ragi karmaphalaprepsurlubdho hinsatmako.sucih.
harsasokanvitah karta rajasah parikirtitah৷৷18.27৷৷
अर्थ:
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ৷৷18.27॥
आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते৷৷18.28৷৷
ayuktah prakrtah stabdhah saṭho naiskrtiko.lasah.
visadi dirghasutri ca karta tamasa ucyate৷৷18.28৷৷
अर्थ:
जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है ৷৷18.28॥
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ৷৷18.29৷৷
buddherbhedan dhrtescaiva gunatastrividhan srrnu.
procyamanamasesena prthaktvena dhananjaya৷৷18.29৷৷
अर्थ:
हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन ৷৷18.29॥
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ৷৷18.30৷৷
pravrttin ca nivrttin ca karyakarye bhayabhaye.
bandhan moksan ca ya vetti buddhih sa partha sattviki৷৷18.30৷৷
अर्थ:
हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्ति मार्ग को कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ৷৷18.30॥
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी৷৷18.31৷৷
yaya dharmamadharman ca karyan cakaryameva ca.
ayathavatprajanati buddhih sa partha rajasi৷৷18.31৷৷
अर्थ:
हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ৷৷18.31॥
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी৷৷18.32৷৷
adharman dharmamiti ya manyate tamasa৷৷vrta.
sarvarthanviparitansca buddhih sa partha tamasi৷৷18.32৷৷
अर्थ:
हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ৷৷18.32॥
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ৷৷18.33৷৷
dhrtya yaya dharayate manahpranendriyakriyah.
yogenavyabhicarinya dhrtih sa partha sattviki৷৷18.33৷৷
अर्थ:
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ৷৷18.33॥
यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी৷৷18.34৷৷
yaya tu dharmakamarthan dhrtya dharayate.rjuna.
prasangena phalakanksi dhrtih sa partha rajasi৷৷18.34৷৷
अर्थ:
परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है ৷৷18.34॥
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी৷৷18.35৷৷
yaya svapnan bhayan sokan visadan madameva ca.
na vimuncati durmedha dhrtih sa partha tamasi৷৷18.35৷৷
अर्थ:
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ৷৷18.35॥
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति৷৷18.36৷৷
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्৷৷18.37৷৷
sukhan tvidanin trividhan srrnu me bharatarsabha.
abhyasadramate yatra duhkhantan ca nigacchati৷৷18.36৷৷
yattadagre visamiva pariname.mrtopamam.
tatsukhan sattvikan proktamatmabuddhiprasadajam৷৷18.37৷৷
अर्थ:
हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ৷৷18.36-37॥
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्৷৷18.38৷৷
visayendriyasanyogadyattadagre.mrtopamam.
pariname visamiva tatsukhan rajasan smrtam৷৷18.38৷৷
अर्थ:
जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ৷৷18.38॥
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्৷৷18.39৷৷
yadagre canubandhe ca sukhan mohanamatmanah.
nidralasyapramadotthan tattamasamudahrtam৷৷18.39৷৷
अर्थ:
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
बहुत अधिक सोना, आलस्य और प्रमाद तामसी स्वभाव के लक्षण हैं। ऐसा व्यक्ति घोर भ्रम में जीता और मर जाता है। अज्ञानता अपने सबसे बुरे रूप में उनके दिमागों पर छा जाती है और उनके कार्य जानवरों की तरह हो जाते हैं। अत: तामसिक सुख निकृष्टतम प्रकार का होता है। जो लोग इसकी चाहत रखते हैं वे बिल्कुल भी पुरुष नहीं हैं। उनका जीवन समझ से रहित है। फिर बहुमूल्य मानव जीवन पाशविक सुखों में बर्बाद हो जाता है।
अज्ञानता का बीज मनुष्य पर अपना प्रभाव डालता रहता है और उसे जन्म-जन्मान्तर तक धकेलता रहता है, और हर बार मनुष्य को विनाश के पतन के मार्ग पर खींचता है। इसलिए, जो लोग प्रबुद्ध हैं उन्हें भगवान की आज्ञा का पालन करना चाहिए और सभी तामसिक और राजसिक सुखों को त्याग देना चाहिए। सत्त्व को धारण करके मनुष्य को स्वयं को शुद्ध करना चाहिए और उच्चतम अवस्था तक पहुंचना चाहिए।৷৷18.39॥
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः৷৷18.40৷৷
na tadasti prthivyan va divi devesu va punah.
sattvan prakrtijairmuktan yadebhih syatitrabhirgunaih৷৷18.40৷৷
अर्थ:
पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो ৷৷18.40॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः৷৷18.41৷৷
brahmanaksatriyavisan sudranan ca parantapa.
karmani pravibhaktani svabhavaprabhavairgunaih৷৷18.41৷৷
अर्थ:
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ৷৷18.41॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ৷৷18.42৷৷
samo damastapah saucan ksantirarjavameva ca.
jnanan vijnanamastikyan brahmakarma svabhavajam৷৷18.42৷৷
अर्थ:
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ৷৷18.42॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्৷৷18.43৷৷
sauryan tejo dhrtirdaksyan yuddhe capyapalayanam.
danamisvarabhavasca ksatran karma svabhavajam৷৷18.43৷৷
अर्थ:
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ৷৷18.43॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्৷৷18.44৷৷
krsigauraksyavanijyan vaisyakarma svabhavajam.
paricaryatmakan karma sudrasyapi svabhavajam৷৷18.44৷৷
अर्थ:
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ৷৷18.44॥
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु৷৷18.45৷৷
sve sve karmanyabhiratah sansiddhin labhate narah.
svakarmaniratah siddhin yatha vindati tacchrnu৷৷18.45৷৷
अर्थ:
अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन ৷৷18.45॥
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यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः৷৷18.46৷৷
yatah pravrttirbhutanan yena sarvamidan tatam.
svakarmana tamabhyarcya siddhin vindati manavah৷৷18.46৷৷
अर्थ:
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.46॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्৷৷18.47৷৷
sreyansvadharmo vigunah paradharmatsvanusṭhitat.
svabhavaniyatan karma kurvannapnoti kilbisam৷৷18.47৷৷
अर्थ:
अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ৷৷18.47॥
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः৷৷18.48৷৷
sahajan karma kaunteya sadosamapi na tyajet.
sarvarambha hi dosena dhumenagnirivavrtah৷৷18.48৷৷
अर्थ:
अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।
क्रिया इंद्रियों और भौतिक अंगों द्वारा की जाती है, यह तीन गुणों द्वारा वातानुकूलित, वस्तुगत दुनिया के क्षेत्र के भीतर है। इसलिए सभी कार्यों में किसी न किसी प्रकार की बुराई शामिल होती है। समस्त क्रिया ‘अनात्मा’ है; यह उद्देश्यपूर्ण है, और यह गुणों से दूषित है, इसलिए सभी कार्य बुराई का हिस्सा हैं। आग धुएं से घिरी हुई है. धुएँ की बुराई को ढके बिना आग नहीं हो सकती। इसके बावजूद, व्यक्ति को उस कर्तव्य को नहीं छोड़ना चाहिए जिसके लिए वह पैदा हुआ है, क्योंकि यदि इसे वैराग्य के साथ और भगवान के प्रति समर्पण की भावना से किया जाता है, तो यह मन को शुद्ध करता है और मुक्ति की ओर ले जाता है।
सभी कार्यों में शामिल अपरिहार्य बुराइयों को विभिन्न अनुष्ठानों और अनुष्ठानों द्वारा शुद्ध किया जाता है। ब्रह्म की प्रकृति की जांच, मध्यस्थता और आध्यात्मिक अभ्यास के अन्य पवित्र तरीके मन पर चिपकी हुई अशुद्धियों को धो देंगे। इसलिए व्यक्ति को जिस स्थिति में रखा गया है, फल की आसक्ति के बिना और आत्म-समर्पण की भावना से कार्य करते रहना चाहिए। वह मनुष्य परम गति को प्राप्त करता है৷৷18.48॥
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति৷৷18.49৷৷
asaktabuddhih sarvatra jitatma vigatasprhah.
naiskarmyasiddhin paraman sannyasenadhigacchati৷৷18.49৷৷
अर्थ:
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ৷৷18.49॥
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा৷৷18.50৷৷
siddhin prapto yatha brahma tathapnoti nibodha me.
samasenaiva kaunteya nisṭha jnanasya ya para৷৷18.50৷৷
अर्थ:
जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ৷৷18.50॥
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च৷৷18.51৷৷
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः৷৷18.52৷৷
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते৷৷18.53৷৷
buddhya visuddhaya yukto dhrtya৷৷tmanan niyamya ca.
sabdadin visayanstyaktva ragadvesau vyudasya ca৷৷18.51৷৷
viviktasevi laghvasi yatavakkayamanasah.
dhyanayogaparo nityan vairagyan samupasritah৷৷18.52৷৷
ahankaran balan darpan kaman krodhan parigraham.
vimucya nirmamah santo brahmabhuyaya kalpate৷৷18.53৷৷
अर्थ:
विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है ৷৷18.51-53॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्৷৷18.54৷৷
brahmabhutah prasannatma na socati na kanksati.
samah sarvesu bhutesu madbhaktin labhate param৷৷18.54৷৷
अर्थ:
फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.54॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्৷৷18.55৷৷
bhaktya mamabhijanati yavanyascasmi tattvatah.
tato man tattvato jnatva visate tadanantaram৷৷18.55৷৷
अर्थ:
उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ৷৷18.55॥
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्৷৷18.56৷৷
sarvakarmanyapi sada kurvano madvyapasrayah.
matprasadadavapnoti sasvatan padamavyayam৷৷18.56৷৷
अर्थ:
मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.56॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव৷৷18.57৷৷
cetasa sarvakarmani mayi sannyasya matparah.
buddhiyogamupasritya maccittah satatan bhava৷৷18.57৷৷
अर्थ:
सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो ৷৷18.57॥
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि৷৷18.58৷৷
maccittah sarvadurgani matprasadattarisyasi.
atha cettvamahankaranna srosyasi vinanksyasi৷৷18.58৷৷
अर्थ:
उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।
श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से बताना चाहते थे कि एक योद्धा के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करना ही उनकी दुविधा का समाधान है। इसका मतलब यह भी था कि उसे अपने अहंकार को सुनना बंद करना होगा, और ईश्वर की बात सुननी होगी। वास्तव में, उसे अपने मन या चित्त को ईश्वर पर केंद्रित करके और ईश्वर से एक उपहार, प्रसाद के रूप में सभी कार्यों के परिणामों को स्वीकार करके, ईश्वर की इच्छा के प्रति पूरी तरह से समर्पित होना था। श्री कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि यदि वह इसी प्रकार अपना कर्तव्य निभाएगा तो वह सभी कठिनाइयों, सभी चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर लेगा।
अर्जुन की तरह, हममें से अधिकांश लोग बेहद मजबूत अहंकार रखते हैं, जो हमारे जीवन के दौरान और शायद कई जन्मों के दौरान कठोर हो गया है। हमारे अंदर मजबूत लगाव, मजबूत पसंद और नापसंद है जो हमारी सोच को धूमिल कर सकती है, ठीक वैसे ही जैसे परिवार के प्रति मजबूत लगाव ने अर्जुन की सोच को ढक दिया है। केवल एक योग्य शिक्षक, गुरु ही हमें अहंकार से प्रेरित जीवन के स्तर से ऊपर उठा सकता है, और हमें निस्वार्थ सेवा के मार्ग पर ले जा सकता है৷৷18.58॥
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ৷৷18.59৷৷
yadahankaramasritya na yotsya iti manyase.
mithyaisa vyavasayaste prakrtistvan niyoksyati৷৷18.59৷৷
अर्थ:
जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा ৷৷18.59॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ৷৷18.60৷৷
svabhavajena kaunteya nibaddhah svena karmana.
kartun necchasi yanmohatkarisyasyavaso.pi tat৷৷18.60৷৷
अर्थ:
हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा ৷৷18.60॥
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया৷৷18.61৷৷
isvarah sarvabhutanan hrddese.rjuna tisṭhati.
bhramayansarvabhutani yantraruḍhani mayaya৷৷18.61৷৷
अर्थ:
हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।
भगवान कहाँ रहते हैं? उसकी शक्तियाँ कैसे काम करती हैं? इन सवालों का जवाब यहां दिया गया है। यह सोचना मनुष्य का सबसे मूर्खतापूर्ण भ्रम है कि ईश्वर बहुत दूर है, सुदूर आकाश में कहीं है, और किसी ऐसे स्थान पर है जहाँ मनुष्य नहीं पहुँच सकता। इस तरह सोचने का तरीका पूरी मानवजाति के दिमाग की आदत बन गया है, केवल कुछ बुद्धिमान लोगों को छोड़कर, जो इस रहस्य को जानते हैं।
प्रभु हमसे दूर नहीं हैं, वह हमारे साथ है, ठीक हमारे हृदय में। यह प्रभु की घोषणा है, वह सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं, इसलिए व्यक्ति को अपने विचारों और कार्यों में बहुत सावधान रहना चाहिए। वह सब देखते है, वह सर्वव्यापक आत्मा है। वह प्रत्येक प्राणी को उसके पुण्य और पाप कर्म के अनुसार पुरस्कार और दंड देने वाला है, इसलिए मनुष्य को अपने भीतर और बाहर भगवान की उपस्थिति को महसूस करना चाहिए।
भगवान हर जगह मौजूद हैं, और सबसे अधिक मनुष्य के हृदय में। उसे निकटतम और प्रियतम के रूप में पूजा जाना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के, वह सभी प्राणियों में है। अभिव्यक्ति का माध्यम चींटी जैसी छोटी चीज़ या हाथी जैसी बड़ी चीज़ हो सकती है। इससे भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता. वह सभी में समान रूप से विद्यमान है, पापी में भी और संत में भी।৷৷18.61॥
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्৷৷18.62৷৷
tameva saranan gaccha sarvabhavena bharata.
tatprasadatparan santin sthanan prapsyasi sasvatam৷৷18.62৷৷
अर्थ:
हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा ৷৷18.62॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ৷৷18.63৷৷
iti te jnanamakhyatan guhyadguhyataran maya.
vimrsyaitadasesena yathecchasi tatha kuru৷৷18.63৷৷
अर्थ:
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर ৷৷18.63॥
सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ৷৷18.64৷৷
sarvaguhyataman bhuyah srrnu me paraman vacah.
isṭo.si me drḍhamiti tato vaksyami te hitam৷৷18.64৷৷
अर्थ:
संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा ৷৷18.64॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ৷৷18.65৷৷
manmana bhava madbhakto madyaji man namaskuru.
mamevaisyasi satyan te pratijane priyo.si me৷৷18.65৷৷
अर्थ:
हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है ৷৷18.65॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ৷৷18.66৷৷
sarvadharmanparityajya mamekan saranan vraja.
ahan tva sarvapapebhyo moksayisyami ma sucah৷৷18.66৷৷
अर्थ:
संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
भगवान के प्रति समर्पण ही परम मुक्ति पाने का सीधा मार्ग है। शास्त्रों द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना निस्संदेह अच्छा है क्योंकि इससे ‘पुण्य’ उत्पन्न होता है जो मनुष्य को उच्च लोकों में ले जाता है। लेकिन भगवान के प्रति समर्पण मोक्ष-मुक्ति प्रदान करता है। सभी कर्तव्यों और धार्मिक अनुष्ठानों का फल समर्पण में निहित है। इसलिए भगवान अपने शिष्य को अन्य सभी कर्तव्यों को त्यागने और पूर्ण आत्म-समर्पण द्वारा सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करने की सलाह देते हैं।
सभी कर्तव्यों का फल मुक्ति के अनंत आनंद का एक हिस्सा बनता है, जैसे दस सौ का एक हिस्सा होते हैं। जब तने को पानी दिया जाता है, तो आखिरी टहनी तक की सभी शाखाओं को पोषण मिलता है। इसलिए भगवान यहां अंतिम मुक्ति के लिए पूर्ण आत्म-समर्पण को सबसे सरल और उच्चतम विधि बताते हैं।
आत्म-समर्पण का प्रभाव क्या होता है? धर्म शास्त्र मनुष्य द्वारा अपने जीवन के दौरान किए गए कुछ प्रकार के पापों के शुद्धिकरण के लिए कुछ प्रकार के प्रायश्चितों का वर्णन करते हैं, आत्म-समर्पण मनुष्य को सभी पापों से पूरी तरह से मुक्त कर देता है, भले ही वे असंख्य हों। दरअसल, आम आदमी को पता ही नहीं चलता कि वह रोजाना बिना जानकारी के कितने तरह के पाप कर रहा है। अत: वह अपने ही पापों से बंधा हुआ है, और बेचैन व्याकुलता में विभिन्न लोकों में भटकता रहता है।
ईश्वरीय विधान है कि अच्छा करने से मनुष्य को सुख मिलता है और बुरा करने से दुःख प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अच्छाई और बुराई अलग-अलग अनुपात में मिश्रित होती हैं। इसलिए सुख और दुःख समुद्र की लहरों की तरह मनुष्यों पर हावी हो जाते हैं। इसे ही हम संसार कहते हैं। जो मनुष्य इंद्रियों से चिपकता है उसे बारी-बारी से सुख और दुख का अनुभव करना पड़ता है।
गीता वास्तव में भगवान के शब्दों ‘अशोचं अन्वसोचस्तवम्’ से शुरू होती है और यहीं इस गौरवशाली वचन ‘मा शुच:’ के साथ समाप्त होती है।. अत: यह पूर्णतया स्पष्ट है कि संपूर्ण गीता संदेश का उद्देश्य मनुष्य को दुःख की घातक पकड़ से मुक्त कराना है।৷৷18.66॥
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ৷৷18.67৷৷
idan te natapaskaya nabhaktaya kadacana.
na casusrusave vacyan na ca man yo.bhyasuyati৷৷18.67৷৷
अर्थ:
तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ৷৷18.67॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ৷৷18.68৷৷
ya iman paraman guhyan madbhaktesvabhidhasyati.
bhakitan mayi paran krtva mamevaisyatyasansayah৷৷18.68৷৷
अर्थ:
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है ৷৷18.68॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ৷৷18.69৷৷
na ca tasmanmanusyesu kasicanme priyakrttamah.
bhavita na ca me tasmadanyah priyataro bhuvi৷৷18.69৷৷
अर्थ:
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ৷৷18.69॥
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ৷৷18.70৷৷
adhyesyate ca ya iman dharmyan sanvadamavayoh.
jnanayajnena tenahamisṭah syamiti me matih৷৷18.70৷৷
अर्थ:
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ৷৷18.70॥
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ৷৷18.71৷৷
sraddhavananasuyasca srrnuyadapi yo narah.
so.pi muktah subhaollokanprapnuyatpunyakarmanam৷৷18.71৷৷
अर्थ:
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।
श्रीकृष्ण और अर्जुन के जटिल संवाद को समझने की बुद्धि हर किसी में नहीं होती। यहां श्रीकृष्ण आश्वस्त करते हैं कि ऐसे लोग यदि केवल श्रद्धा से सुनेंगे तो उन्हें भी लाभ होगा। उनके भीतर भगवान विराजमान हैं; वह उनके ईमानदार प्रयास पर ध्यान देंगे और उन्हें इसके लिए पारितोषिक करेंगे।
ऐसे कई अशिक्षित व्यक्ति हो सकते हैं जो शास्त्रों को सीखने और जानने के लिए उत्सुक हैं, और जो पवित्र पुस्तकों को पढ़ने में असमर्थता से निराश महसूस करते हैं। यहां भगवान घोषणा करते हैं कि उन्हें बिल्कुल भी निराश होने की जरूरत नहीं है। वे गीता-शास्त्र सुन सकते हैं और आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त कर सकते हैं जो उन्हें धर्मी लोगों के सुखी संसार को प्राप्त करने का पुरस्कार प्रदान करता है। शर्त केवल इतनी है कि उनके हृदय शुद्ध, द्वेष और घृणा से मुक्त हों। आध्यात्मिक ज्ञान का केंद्र हृदय है, मस्तिष्क नहीं। यह हृदय की रोशनी है जो मनुष्य को मुक्त करती है। भगवान हृदय के कमल में निवास करते हैं।
दूसरी ओर, ऐसे अनपढ़ लोग हैं जिनके दिल शुद्ध और बेदाग हैं। वे सच्चे ज्ञान के रहस्यों में दीक्षित होने के योग्य हैं। भगवान ऐसी पवित्र आत्माओं को गीता सुनने और इस प्रकार आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त करने की सलाह देते हैं।৷৷18.71॥
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ৷৷18.72৷৷
kaccidetacchrutan partha tvayaikagrena cetasa.
kaccidajnanasanmohah pranasṭaste dhananjaya৷৷18.72৷৷
अर्थ:
हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?৷৷18.72॥
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ৷৷18.73৷৷
arjuna uvaca
nasṭo mohah smrtirlabdha tvatprasadanmayacyuta.
sthito.smi gatasandehah karisye vacanan tava৷৷18.73৷৷
अर्थ:
अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ৷৷18.73॥
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ৷৷18.74৷৷
sanjaya uvaca
ityahan vasudevasya parthasya ca mahatmanah.
sanvadamimamasrausamadbhutan romaharsanam৷৷18.74৷৷
अर्थ:
संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना ৷৷18.74॥
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्৷৷18.75৷৷
vyasaprasadacchrutavanetadguhyamahan param.
yogan yogesvaratkrsnatsaksatkathayatah svayam৷৷18.75৷৷
अर्थ:
श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना ৷৷18.75॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ৷৷18.76৷৷
rajansansmrtya sansmrtya sanvadamimamadbhutam.
kesavarjunayoh punyan hrsyami ca muhurmuhuh৷৷18.76৷৷
अर्थ:
हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ৷৷18.76॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ৷৷18.77৷৷
tacca sansmrtya sansmrtya rupamatyadbhutan hareh.
vismayo me mahan rajan hrsyami ca punah punah৷৷18.77৷৷
अर्थ:
हे राजन्! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम ‘हरि’ है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ৷৷18.77॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ৷৷18.78৷৷
yatra yogesvarah krsno yatra partho dhanurdharah.
tatra srirvijayo bhutirdhruva nitirmatirmama৷৷18.78৷৷
अर्थ:
हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है।
कृष्ण योग के भगवान हैं। अर्जुन गांडीव धनुष का धारक है। वह केवल कुरूक्षेत्र के युद्धक्षेत्र के नायक नहीं हैं। लेकिन वह एक भक्त भी है जिसने भ्रम और अज्ञान के आंतरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। गीता का ज्ञान अर्जुन के हाथ में गांडीव के समान है। अज्ञानता के साथ उनकी लड़ाई में ज्ञान, भक्ति और कर्म शक्तिशाली हथियार हैं। इस प्रकार सच्चे भक्त की विजय निश्चित है।
एक आम धारणा है कि ज्ञान और कर्म विरोधाभासी शब्द हैं। वे नहीं हैं। बुद्धि और कर्म में कोई विरोध नहीं है। एक व्यक्ति संसार में जीवन के असंख्य कर्तव्यों और दायित्वों से घिरा हुआ रह सकता है, और फिर भी अपने भीतर सर्वोच्च शांति का आनंद ले सकता है। वह एक आदर्श व्यक्ति है जो अपने जीवन में ज्ञान और कर्म को जोड़ता है।
भगवान ने पहले ही कहा है कि कोई भी मनुष्य एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। व्यक्ति इसे अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देखता है। पुरुष लगातार कार्य कर रहे हैं, कर्म की इस दुनिया में शांति कैसे प्राप्त करें? यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। गीता उस प्रश्न का ठोस उत्तर देती है। यह अंतिम श्लोक जो कृष्ण और अर्जुन को एक साथ एक केंद्र बिंदु पर लाता है, ज्ञान और कर्म का एक दृश्य प्रतिनिधित्व है, कृष्ण द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया क्रियाहीन ब्राह्मण, और अर्जुन द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया कार्य।
हर कोई विजय, शांति और समृद्धि चाहता है। वह उन्हें कैसे हासिल कर सकता है? इसका उत्तर कृष्ण को योग के भगवान के रूप में और अर्जुन को धनुष चलाने वाले के रूप में पूजा करने से है, अर्थात जीवन के रोजमर्रा के आचरण में ज्ञान और कर्म को मिलाकर। संजय ने धृतराष्ट्र को स्पष्ट कर दिया कि जीत पांडवों के पक्ष में है क्योंकि वे धर्म मार्ग पर चल रहे हैं।৷৷18.78॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः৷৷18.18॥