Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi [6 Minute]
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता ~ Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi
अध्याय सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय सत्रहवाँ (Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi) को श्रद्धात्रयविभागयोग कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को विस्तारपूर्वक गुणों के प्रभाव के संबंध में कहते हैं। श्री कृष्ण पहले श्रद्धा के विषय कहते हुए यह बताते हे की ऐसा मनुष्य कोई नहीं हे, जो श्रद्धा के विहीन हो, क्योकि मनुष्य प्रकृति का पूर्ण स्वरूप हे, परंतु मनुष्य की मन की प्रकृति से श्रद्धा सात्विक, राजसिक गुणों के समान होती है।
श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवाँ अध्याय (Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi) में भगवान श्री कृष्ण भोजन को तीन भागो में विभाजित करते हैं। उसके बाद श्री कृष्ण यज्ञ विषय में कहते है की प्रकृति के तीनो गुण से कैसे हर एक गुण में यज्ञ किस प्रकार अलग होने से समृद्ध होता है। इस अध्याय में तपस्या वर्णन और शरीर, वाणी एवं मन के तप का वर्णन किया है।
तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ॐतत्सत् के प्रयोग की व्याख्या का वर्णन करते है। जो सत्य के विभिन्न प्रतिक माने जाते है। ‘ॐ’ शब्द भगवान के निराकार स्वरुप को प्रकट करता है, ‘तत्’ शब्द परमपिता परमात्मा को अर्पित और ‘सत्’ शब्द का अर्थ सनातन तथा धर्माचरण है।
Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः৷৷17.1৷৷
arjuna uvaca
ye sastravidhimutsrjya yajante sraddhaya.nvitah.
tesan nistha tu ka krsna sattvamaho rajastamah৷৷17.1৷৷
अर्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी? ৷৷17.1॥
(Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi)
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु৷৷17.2৷৷
sri bhagavanuvaca
trividha bhavati sraddha dehinan sa svabhavaja.
sattviki rajasi caiva tamasi ceti tan srrnu৷৷17.2৷৷
अर्थ : श्री भगवान् बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ”स्वभावजा” श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन ৷৷17.2॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः৷৷17.3৷৷
sattvanurupa sarvasya sraddha bhavati bharata.
sraddhamayo.yan puruso yo yacchraddhah sa eva sah৷৷17.3৷৷
अर्थ : हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ৷৷17.3॥
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः৷৷17.4৷৷
yajante sattvika devanyaksaraksansi rajasah.
pretanbhutagananscanye yajante tamasa janah৷৷17.4৷৷
अर्थ : सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ৷৷17.4॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः৷৷17.5৷৷
asastravihitan ghoran tapyante ye tapo janah.
dambhahankarasanyuktah kamaragabalanvitah৷৷17.5৷৷
अर्थ : जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं ৷৷17.5॥
(Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi)
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्৷৷17.6৷৷
karsayantah sarirasthan bhutagramamacetasah.
man caivantahsarirasthan tanviddhyasuraniscayan৷৷17.6৷৷
अर्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ”कृश करना” है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ৷৷17.6॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु৷৷17.7॥
aharastvapi sarvasya trividho bhavati priyah.
yajnastapastatha danan tesan bhedamiman srrnu৷৷17.7৷৷
अर्थ : भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझ से सुन ৷৷17.7॥
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः৷৷17.8৷৷
ayuhsattvabalarogyasukhapritivivardhanah.
rasyah snigdhah sthira hrdya aharah sattvikapriyah৷৷17.8৷৷
अर्थ : आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार
अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ৷৷17.8॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः৷৷17.9৷৷
katvamlalavanatyusnatiksnaruksavidahinah.
ahara rajasasyesta duhkhasokamayapradah৷৷17.9৷৷
अर्थ : कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ৷৷17.9॥
(Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi)
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्৷৷17.10৷৷
yatayaman gatarasan puti paryusitan ca yat.
ucchistamapi camedhyan bhojanan tamasapriyam৷৷17.10৷৷
अर्थ : जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ৷৷17.10॥
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः৷৷17.11৷৷
aphalakanksibhiryajno vidhidrsto ya ijyate.
yastavyameveti manah samadhaya sa sattvikah৷৷17.11৷৷
अर्थ : जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है ৷৷17.11॥
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्৷৷17.12৷৷
abhisandhaya tu phalan dambharthamapi caiva yat.
ijyate bharatasrestha tan yajnan viddhi rajasam৷৷17.12৷৷
अर्थ : परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ৷৷17.12॥
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते৷৷17.13৷৷
vidhihinamasrstannan mantrahinamadaksinam.
sraddhavirahitan yajnan tamasan paricaksate৷৷17.13৷৷
अर्थ : शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ৷৷17.13॥
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷
devadvijaguruprajnapujanan saucamarjavam.
brahmacaryamahinsa ca sariran tapa ucyate৷৷17.14৷৷
अर्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते৷৷17.15৷৷
anudvegakaran vakyan satyan priyahitan ca yat.
svadhyayabhyasanan caiva vanmayan tapa ucyate৷৷17.15৷৷
अर्थ : जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम ‘यथार्थ भाषण’ है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.15॥
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते৷৷17.16৷৷
manahprasadah saumyatvan maunamatmavinigrahah.
bhavasansuddhirityetattapo manasamucyate৷৷17.16৷৷
अर्थ : मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.16॥
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श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷
sraddhaya paraya taptan tapastatitravidhan naraih.
aphalakanksibhiryuktaih sattvikan paricaksate৷৷17.17৷৷
अर्थ : फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्৷৷17.18৷৷
satkaramanapujarthan tapo dambhena caiva yat.
kriyate tadiha proktan rajasan calamadhruvam৷৷17.18৷৷
अर्थ : जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित (‘अनिश्चित फलवाला’ उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ৷৷17.18॥
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्৷৷17.19৷৷
muḍhagrahenatmano yatpiḍaya kriyate tapah.
parasyotsadanarthan va tattamasamudahrtam৷৷17.19৷৷
अर्थ : जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ৷৷17.19॥
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्৷৷17.20৷৷
datavyamiti yaddanan diyate.nupakarine.
dese kale ca patre ca taddanan sattvikan smrtam৷৷17.20৷৷
अर्थ : दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो देश तथा काल दान पात्र के (दुःखी, भूखे, अनाथ, रोगी और भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ৷৷17.20॥
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्৷৷17.21৷৷
yattu pratyupakararthan phalamuddisya va punah.
diyate ca pariklistan taddanan rajasan smrtam৷৷17.21৷৷
अर्थ : किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात् मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ৷৷17.21॥
(Bhagavad Gita Chapter 17 in Hindi)
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्৷৷17.22৷৷
adesakale yaddanamapatrebhyasca diyate.
asatkrtamavajnatan tattamasamudahrtam৷৷17.22৷৷
अर्थ : जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ৷৷17.22॥
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा৷৷17.23৷৷
tatsaditi nirdeso brahmanastrividhah smrtah.
brahmanastena vedasca yajnasca vihitah pura৷৷17.23৷৷
अर्थ : ॐ, तत्, सत्-ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए ৷৷17.23॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्৷৷17.24৷৷
tasmadomityudahrtya yajnadanatapahkriyah.
pravartante vidhanoktah satatan brahmavadinam৷৷17.24৷৷
अर्थ : इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं ৷৷17.24॥
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः৷৷17.25৷৷
tadityanabhisandhaya phalan yajnatapahkriyah.
danakriyasca vividhah kriyante moksakanksi৷৷17.25৷৷
अर्थ : “तत्” के उच्चारण के साथ और बिना किसी प्रतिफल की इच्छा के, मुक्ति चाहने वालों द्वारा बलिदान, तपस्या और उपहार के विभिन्न कार्य किए जाते हैं।
भगवान श्री कृष्ण कहते कि मुक्ति के इच्छुक लोग फल की इच्छा किए बिना त्याग, दान और तपस्या के कार्य करते हैं। इस प्रकार व्यक्तिगत पुरस्कार की लालसा के बिना किए गए ये कार्य मन को शुद्ध करते हैं और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कर्मों के फल का त्याग गीता के मुख्य सिद्धांतों में से एक है, और यह आत्म-साक्षात्कार के लिए बिल्कुल पूर्व शर्त है।
इसके अलावा, हम समझते हैं कि मोक्ष के आकांक्षी को अपने फल के बारे में चिंतित रहते हुए, बलिदान और दान के इन सभी कार्यों को करना चाहिए। इन कृत्यों को त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि ये मन को शुद्ध करने और मुक्ति के लक्ष्य तक पहुंचने में सहायक होते हैं।
कुछ लोगों का विचार है कि कोई भी अच्छा कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि अच्छे कार्य भी मनुष्य को बांधते हैं। गीता के उपदेशक इस मत से सहमत नहीं हैं। दूसरी ओर, वह इस बात पर जोर देते हैं कि अच्छे कार्यों को नहीं छोड़ा जाना चाहिए; उनका प्रदर्शन किया जाना चाहिए. इसलिए, मुक्ति के चाहने वालों को यज्ञ, दान, तपस्या आदि सभी अच्छे कर्म करने चाहिए, खुद को शुद्ध करना चाहिए और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए।৷৷17.25॥
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सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते৷৷17.26৷৷
sadbhave sadhubhave ca sadityetatprayujyate.
prasaste karmani tatha sacchabdah partha yujyate৷৷17.26৷৷
अर्थ : ‘सत्’- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है ৷৷17.26॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते৷৷17.27৷৷
yajne tapasi dane ca sthitih saditi cocyate.
karma caiva tadarthiyan sadityevabhidhiyate৷৷17.27৷৷
अर्थ : तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्-ऐसे कहा जाता है ৷৷17.27॥
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह৷৷17.28৷৷
asraddhaya hutan dattan tapastaptan krtan ca yat.
asadityucyate partha na ca tatpretya no iha৷৷17.28৷৷
अर्थ : हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त ‘असत्’- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ৷৷17.28॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का अट्ठारह अध्याय
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय : ৷৷17॥