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Garga Samhita Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 59 से 62 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62) के उनसठवाँ अध्याय में गर्गाचार्य के द्वारा राजा उग्रसेन के प्रति भगवान श्रीकृष्ण के सहस्त्रनामों का वर्णन कहा गया है। साठवाँ अध्याय में कौरवों के संहार, पाण्डवों के स्वर्गगमन तथा यादवों के संहार आदि का संक्षिप्त वृत्तान्तः श्रीराधा तथा व्रजवासियों सहित भगवान श्रीकृष्ण का गोलोक धाम में गमन कहा गया है। इकसठवाँ अध्याय में भगवान के श्यामवर्ण होने का रहस्य; कलियुग की पापमयी प्रवृत्ति; उससे बचने के लिये श्रीकृष्ण की समाराधना तथा एकादशी व्रतका माहात्म्य कहा है। बासठवाँ अध्याय में गुरु और गङ्गाकी महिमा; श्रीवज्रनाभ द्वारा कृतज्ञता-प्रकाशन और गुरुदेव का पूजन तथा श्रीकृष्ण के भजन-चिन्तन एवं गर्ग संहिता का माहात्म्य का वर्णन है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

उनसठवाँ अध्याय

गर्गाचार्य के द्वारा राजा उग्रसेन के प्रति भगवान श्रीकृष्ण के सहस्त्रनामों का वर्णन

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तब राजा उग्रसेनने पुत्रकी आशा छोड़कर सम्पूर्ण विश्वको मनका संकल्प- मात्र जानकर व्यासजीसे अपना संदेह पूछा- ‘ब्रह्मन् ! किस प्रकारसे लौकिक सुखका परित्याग करके मनुष्य परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णका भजन करे, यह मुझे विश्वासपूर्वक बतानेकी कृपा करें ॥ १-२ ॥

व्यासजी बोले- महाराज उग्रसेन ! मैं तुम्हारे सामने सत्य और हितकर बात कह रहा हूँ, इसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। राजेन्द्र ! तुम श्रीराधा और श्रीकृष्णकी उत्कृष्ट आराधना करो। इन दोनोंके पृथक्- पृथक् सहस्र नाम हैं। उनके द्वारा तुम दोनोंका भक्तिभावसे भजन करो। भूपते। राधाके सहस्त्र नामको ब्रह्मा, शंकर, नारद और कोई-कोई मेरे-जैसे लोग भी जानते हैं॥ ३-५ ॥

उग्रसेनने कहा- ब्रह्मन् ! मैंने पूर्वकालमें सूर्यग्रहणके अवसरपर कुरुक्षेत्रके एकान्त दिव्य शिविरमें नारदजीके मुखसे ‘राधिकासहस्रनाम’ का श्रवण किया था; परंतु अनायास ही महान् कर्म करने- वाले भगवान् श्रीकृष्णके सहस्र नामको मैंने नहीं सुना है। अतः कृपा करके मेरे सामने उसीका वर्णन कीजिये, जिससे मैं कल्याणका भागी हो सकूँ ॥ ६-७॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- उग्रसेनकी यह बात सुनकर महामुनि वेदव्यासने प्रसन्नचित्त होकर उनकी प्रशंसा की और श्रीकृष्णकी ओर देखते हुए कहा ॥ ८ ॥

व्यासजी बोले- राजन् ! सुनो। मैं तुम्हें श्रीकृष्णका सुन्दर सहस्त्रनामस्तोत्र सुनाऊँगा, जिसे पहले अपने परमधाम गोलोकमें इन भगवान् श्रीकृष्णने श्रीराधाके लिये प्रकट किया था ॥९॥

श्री भगवान बोले- प्रिये! यह सहस्त्रनाम- स्तोत्र, जो अभी बताया जायगा, गोपनीय रहस्य है। इसे हर एकके सामने प्रकट कर दिया जाय तो सदा हानि ही उठानी पड़ेगी। अधिकारीके सामने प्रकट किया गया यह स्तोत्र सम्पूर्ण सुखोंको देनेवाला, मोक्षदायक, कल्याणस्वरूप, उत्कृष्ट परमार्थरूप और समस्त पुरुषार्थीको देनेवाला है। श्रीकृष्णसहस्त्रनाम मेरा रूप है। जो इसका पाठ करेगा, वह मेरा स्वरूप होकर ही प्रसिद्ध होगा। कहीं किसी शठ और दाम्भिकको इसका उपदेश कदापि नहीं देना चाहिये। जो करुणासे भरा हुआ तथा गुरुके चरणोंमें निरन्तर भक्ति रखनेवाला है, उस संतोंके सेवक और मद एवं क्रोधसे रहित मुझ श्रीकृष्णके भक्तको ही इसका उपदेश देना चाहिये ॥ १०-१२॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

विनियोग

ॐ अस्य श्रीकृष्णसहस्त्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिर्भुजङ्गप्रयातं छन्दः श्रीकृष्णचन्द्रो देवता वासुदेवो बीजम् श्रीराधाशक्तिः मन्मथः कीलकम् श्रीपूर्णब्रह्मकृष्णचन्द्रभक्तिजन्यफल- प्राप्तये जपे विनियोगः ।

इस ‘श्रीकृष्णसहस्त्रनामस्तोत्रमन्त्र ‘के नारायण ऋषि हैं, भुजङ्गप्रयात छन्द है, श्रीकृष्णचन्द्र देवता हैं, वासुदेव बीज, श्रीराधा शक्ति और मन्मथ कीलक है। श्रीपूर्णब्रह्म कृष्णचन्द्रकी भक्तिजन्य फलकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है।

ध्यान

शिखिमुकुटविशेषं नीलपद्याङ्गदेशं विधुमुखकृतकेशं कौस्तुभापीतवेशम् ।
मधुररवकलेशं शं भजे भ्रातृशेषं व्रजजनवनितेशं माधवं राधिकेशम् ॥

जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट विशेष शोभा देता है, जिनका अङ्गदेश (सम्पूर्ण शरीर) नील कमलके समान श्याम है, चन्द्रमाके समान मनोहर मुखपर कुचित केश सुशोभित हैं, कौस्तुभमणिकी सुनहरी आभासे जिनका वेश कुछ पीतवर्णका दिखायी देता है (अथवा जो पीताम्बरधारी हैं) जो मीठी धुनमें मुरली बजा रहे हैं, कल्याणस्वरूप हैं, शेषावतार बलराम जिनके भाई हैं तथा जो व्रजवनिताओंके वल्लभ हैं, उन राधिकाके प्राणेश्वर माधवका मैं भजन (चिन्तन) करता हूँ ॥ १३ ॥

१. हरिः भक्तोंके पाप-तापका हरण करनेवाले, २. देवकीनन्दनः अपने आविर्भावसे माता देवकी एवं यशोदाको आनन्द प्रदान करनेवाले, ३. कंस- हन्ता-कंसका वध करनेवाले, ४. परात्मा-परमात्मा, ५. पीताम्बरः- पीतवस्त्रधारी, ६. पूर्णदेवः परिपूर्ण- देवता श्रीकृष्ण, ७. रमेशः- रमावल्लभ, ८. कृष्णः सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाले, ९. परेशः- सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मा आदि देवताओंके भी नियन्ता, १०. पुराणः पुरातन पुरुष या अनादिसिद्ध, ११. सुरेशः देवताओंपर भी शासन करनेवाले, १२. अच्युतः अपनी महिमा या मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले, १३. वासुदेवः वसुदेवनन्दन अथवा सबके अन्तःकरणमें निवास करनेवाले देवता, चार व्यूहोंमें से प्रथम व्यूहस्वरूप, १४. देवः- प्रकाशस्वरूप परम देवता ॥ १४ ॥

१५. धराभारहर्ता पृथ्वीका भार हरण करनेवाले, १६. कृती-कृतकृत्य अथवा पुण्यात्मा, १७. राधिकेशः राधाप्राणवल्लभ, १८. परः सर्वोत्कृष्ट, १९. भूवरः पृथ्वीके स्वामी, २०. दिव्यगोलोक- नाथः-दिव्यधाम गोलोकके स्वामी, २१. सुदाम्नस्तथा राधिकाशापहेतुः- सुदामा तथा राधिकाके पारस्परिक शापमें कारण, २२. घृणी दयालु, २३. मानिनी-मानदः मानिनीको मान देनेवाले, २४. दिव्यलोकः दिव्यधामस्वरूप ॥ १५ ॥

२५. लसद्गोपवेशः सुन्दर गोपवेषधारी, २६. अजः अजन्मा, २७. राधिकात्मा राधिकाके आत्मा अथवा राधिका हैं आत्मा जिनकी, वे, २८. चलत्कुण्डलः हिलते हुए कुण्डलोंसे सुशोभित, २९. कुन्तली-घुँघराली अलकोंसे शोभायमान, ३०. कुन्तलस्त्रक्-केशराशिमें फूलोंके हार धारण करनेवाले, ३१. कदाचिद् राधया रथस्थः- कभी-कभी राधिकाके साथ रथमें विराजमान, ३२. दिव्यरत्नः दिव्यमणि-कौस्तुभ धारण करनेवाले अथवा अखिल जगत्के दिव्यरत्नस्वरूप, ३३. सुधासौधभूचारणः चूनेसे लिपे-पुते छतकी महलपर घूमनेवाले, ३४. दिव्यवासाः दिव्य वस्त्रधारी ॥ १६ ॥

३५. कदा वृन्दकारण्यचारी कभी-कभी वृन्दावनमें विचरनेवाले, ३६. स्वलोके महारत्त्र- सिंहासनस्थः अपने धाममें महामूल्यवान् एवं विशाल रत्नमय सिहासनपर विराजमान, ३७. प्रशान्तः परम शान्त, ३८. महाहंस भैश्चामरैर्वी ज्यमानः- महान् हंसोंके समान श्वेत चामरोंसे जिनके ऊपर हवा की जाती है, ऐसे भगवान्, ३९. चलच्छत्रमुक्तावली- शोभमानः हिलते हुए श्वेतच्छत्र तथा मुक्ताकी मालाओंसे शोभित होनेवाले ॥ १७ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

४०. सुखी-आनन्दस्वरूप, ४१. कोटिकंदर्प- लीलाभिरामः करोड़ों कामदेवोंके समान ललित लीलाओंके कारण अतिशय मनोहर, ४२. क्वणन्नूपुरालं- कृताङ्घ्रिः झंकारते हुए नूपुरोंसे अलंकृत चरणवाले, ४३. शुभाङ्घ्रिः शुभ लक्षणसम्पन्न पैरवाले, ४४. सुजानुः-सुन्दर घुटनोंवाले, ४५. रम्भाशुभोरुः केलेके समान परम सुन्दर ऊरुयुगल (जाँघ) वाले, ४६. कुशाङ्गः- दुबले-पतले, ४७. प्रतापी तेजस्वी एवं प्रतापशाली, ४८. इभशुण्डासुदोर्दण्डखण्डः हाथीकी सूँड़के समान सुन्दर भुजदण्डमण्डलवाले ॥ १८ ॥

४९. जपापुष्पहस्तः अड़हुलके फूलके समान लाल-लाल हथेलीवाले, ५०. शातोदरश्रीः-पतली कमरकी शोभासे सम्पन्न, ५१. महापद्मवक्षःस्थलः- वक्षःस्थलमें प्रफुल्ल विशाल कमलकी मालासे अलंकृत, अथवा जिनका हृदयकमल विशाल है, ऐसे, ५२. चन्द्रहासः जिनके हँसते समय चन्द्रमाकी चाँदनीकी-सी छटा छिटक जाती है, ऐसे, ५३. लसत्कुन्ददन्तः शोभामयी कुन्दकलिकाके समान उज्ज्वल दाँतवाले, ५४. बिम्बाधरश्रीः जिनके अधरकी शोभा पक्व बिम्ब-फलसे अधिक अरुण है, ऐसे, ५५. शरत्पद्मनेत्रः शरत्कालके प्रफुल्ल कमलके सदृश नेत्रवाले, ५६. किरीटोज्ज्वलाभः कान्तिमान् किरीटकी उज्ज्वल आभा धारण करनेवाले ॥ १९ ॥

५७. सखीकोटिभिर्वर्तमानः करोड़ों सखियोंके साथ रहकर शोभा पानेवाले, ५८. निकुञ्ज प्रियाराधया राससक्तः निकुञ्जमें प्राणवल्लभा श्रीराधाके साथ रास- लीलामें तत्पर, ५९. नवाङ्गः अपने दिव्य अङ्गोंमें नित्य नूतन रमणीयता धारण करनेवाले, ६०. धराब्रह्यरुद्रा- दिभिः प्रार्थितः सन् धराभारदूरीक्रियार्थ प्रजातः पृथ्वी, ब्रह्मा तथा रुद्र आदि देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भूमिका भार दूर करनेके लिये अवतार ग्रहण करनेवाले ॥ २० ॥

६१. यदुः यादवकुलके प्रवर्तक राजा यदु जिनकी विभूति हैं, वे, ६२. देवकीसौख्यदः देवकीको सुख देनेवाले, ६३. बन्धनच्छित् भवबन्धनका उच्छेद करनेवाले अथवा अवतारकालमें माता-पिताके बन्धनको काट देनेवाले, ६४. सशेषः शेषावतार बलरामजीके साथ विराजमान, ६५. विभुः व्यापक अथवा सर्वसमर्थ, ६६. योगमायी योगमायाके प्रवर्तक तथा स्वामी, ६७. विष्णुः व्यापक या वैकुण्ठनाथ विष्णुस्वरूप, ६८. व्रजे नन्दपुत्रः- व्रज- मण्डलमें नन्दनन्दनके रूपमें लीला करनेवाले, ६९. यशोदासुताख्यः- यशोदाजीके पुत्ररूपमें विख्यात, ७०. महासौख्यदः महान् सौख्य प्रदान करनेवाले, ७१. बालरूपः शिशुरूपधारी, ७२. शुभाङ्गः- सुन्दर एवं शुभ लक्षणसम्पन्न शरीरवाले ॥ २१ ॥

७३. पूतनामोक्षदः पूतनाको मोक्ष देनेवाले, ७४. श्यामरूपः श्याम मनोहर रूपवाले, ७५. दयालुः- कृपालु, ७६. अनोभञ्जनः शकट-भङ्ग करनेवाले, ७७. पल्लवाङ्घ्रिः नूतन पल्लवोंके समान कोमल एवं अरुण चरणवाले, ७८. तृणावर्त- संहारकारी-तृणावर्तका संहार करनेवाले, ७९. गोपः- गोपालरूप, ८०. यशोदायशः- यशोदाके यशरूप ८१. विश्वरूपप्रदर्शी माताको अपने मुखमें (तथा अर्जुन, धृतराष्ट्र और उत्तङ्कको) सम्पूर्ण विश्वरूपका दर्शन करानेवाले ॥ २२ ॥

८२. गर्गदिष्टः गर्गजीके द्वारा जिनका नामकरण- संस्कार एवं भावी फलादेश किया गया, ऐसे, ८३. भाग्योदयश्रीः – भाग्योदयसूचक शोभासे सम्पन्न, ८४. लसद्वालकेलिः – सुन्दर बालोचित क्रीडा करनेवाले, ८५. सरामः बलरामजीके साथ विचरनेवाले, ८६. सुवाचः मनोहर बात करनेवाले, ८७. कृणन्नूपुरैः शब्दयुक् खनकते हुए नूपुरोंसे शब्दयुक्त, ८८. जानु- हस्तैर्ब्रजेशाङ्गणे रिङ्गमाणः घुटनों और हाथोंके बलपर व्रजराजनन्दके आँगनमें रेंगने या चलनेवाले ॥ २३ ॥

८९. दधिस्पृक्-दहीका स्पर्श (दान) करनेवाले, ९०. हैयंगवीदुग्धभोक्ता-ताजा माखन खानेवाले और दूध पीनेवाले, ९१. दधिस्तेयकृत्-व्रजाङ्गनाओंको सुख देनेके लिये दहीकी चोरी-लीला करनेवाले, ९२. दुग्धभुक् दूधका भोग आरोगनेवाले, ९३. भाण्डभेत्ता- दही-दूध आदिके मटके फोड़नेवाले, ९४. मृदं भुक्तवान्-मिट्टी खानेवाले, ९५. गोपजः नन्दगोपके पुत्र, ९६. विश्वरूपः सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है, ऐसे, – ९७. प्रचण्डांशुचण्डप्रभामण्डिताङ्गः सूर्यकी प्रखर किरणोंसे सुशोभित शरीरवाले ॥ २४ ॥

९८. यशोदाकरैर्बन्धनप्राप्तः यशोदाके हाथों ओखलीमें बाँधे गये, ९९. आद्यः आदिपुरुष या सबके आदिकारण, १००. मणिग्रीवमुक्तिप्रदः- कुबेरपुत्र मणिग्रीव और नलकूबरका शापसे उद्धार करनेवाले, १०१. दामबद्धः यशोदाद्वारा रस्सीसे बाँधे गये, १०२. कदा व्रजे गोपिकाभिः नृत्यमानः कभी व्रजमें गोपिकाओंके साथ नृत्य करनेवाले, १०३. कदा नन्दसन्नन्दकैर्लाल्यमानः कभी नन्द और सत्रन्द आदिके द्वारा लाड़ लड़ाये जानेवाले ॥ २५ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

१०४. कदा गोपनन्दाङ्कः-कभी गोपराज नन्दकी गोदमें समोद विराजमान, १०५. गोपालरूपी- ग्वाल- रूपधारी, १०६. कलिन्दाङ्गजाकूलगः कलिन्द- नन्दिनी यमुनाके तटपर विहार करनेवाले, १०७. वर्तमानः नित्य सत्तावाले, १०८. घनैर्मारुतैश्छन्न- भाण्डीरदेशे नन्दहस्ताद् राधया गृहीतो वरः एक समय प्रचण्ड वायु और घने बादलोंसे आच्छादित भाण्डीरवनके प्रदेशमें नन्दजीके हाथसे श्रीराधाद्वारा गृहीत वरस्वरूप ॥ २६ ॥

१०९. गोलोकलोकागते महारत्नसंधैर्युते कदम्बावृते निकुञ्ज राधिकासद्विवाहे ब्रह्मणा प्रतिष्ठानगतः गोलोक धामसे आये महान् रत्नसमूहों से शोभित तथा कदम्ब-वृक्षोंसे आवृत निकुञ्जमें राधिकाजीके साथ विवाहके अवसरपर ब्रह्माजीके द्वारा सादर स्थापित, ११०. साममन्त्रैः पूजितः सामवेदके मन्त्रोंद्वारा पूजित ॥ २७ ॥

१११. रसी-विविध रसोंके अधिष्ठान, परम रसिक, ११२. मालतीनां वनेऽपि प्रियाराधया सह राधिकार्थं रासयुक्-मालती-वनमें भी प्रियतमा राधिकाके साथ उन्हींको सुख पहुँचानेके लिये रास- विलासमें संलग्र, ११३. रमेशः धरानाथः- लक्ष्मीके पति और पृथ्वीके स्वामी, ११४. आनन्ददः आनन्द प्रदान करनेवाले, ११५. श्रीनिकेतः रमानिवास, ११६. वनेशः वृन्दावनके स्वामी, ११७. धनी- सोमातीत धन और ऐश्वर्यके स्वामी, ११८. सुन्दरः- अप्रतिम सौन्दर्यकी निधि, १९९. गोपिकेशः= गोपाङ्गनाओंके प्राणवल्लभ ॥ २८ ॥

१२०. कदा राधया नन्दगेहे प्रापितः किसी समय राधिकाद्वारा नन्दके घरमें पहुंचाये गये, १२१. यशोदाकरैर्लालितः यशोदाके हाथों दुलारे गये, १२२. मन्दहासः मन्द मन्द मनोरम हाससे सुशोभित, १२३. क्वापि भयी कहीं-कहीं डरे हुएकी भाँति लीला करनेवाले, १२४. वृन्दारकारण्यवासी- वृन्दावनमें निवास करनेवाले, १२५. महामन्दिरे वासकृत् नन्दरायके विशाल भवनमें रहनेवाले, १२६. देवपूज्यः देवताओंके पूजनीय ॥ २९ ॥

१२७. वने वत्सचारी वनमें बछड़े चरानेवाले, १२८. महावत्सहारी-महान् बछड़ेका रूप धारण करके आये हुए वत्सासुरके विनाशक, १२९. बकारिः- बकासुरके शत्रु, १३०. सुरैः पूजितः देवगणोंद्वारा सम्मानित, १३१. अधारिनामा अघासुरका वध करके ‘अधारि’ नामसे प्रसिद्ध, १३२. वने वत्सकृत् वनमें नूतन बछड़ोंकी सृष्टि करनेवाले, १३३. गोपकृत्- नूतन ग्वाल-बालोंका निर्माण करनेवाले, १३४. गोपवेशः ग्वालवेषधारी, १३५. कदा ब्रह्मणा संस्तुतः किसी समय ब्रह्माजीके मुखसे अपना गुणगान सुननेवाले, १३६. पद्मनाभः एकार्णवके जलमें अपनी नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले ॥ ३० ॥

१३७. विहारी वृन्दावनमें विचरण करनेवाले और भक्तोंके साथ नाना प्रकार विहार करनेवाले, १३८. तालभुक्-ताड़का फल खानेवाले, १३९. धेनुकारिः धेनुकासुरके शत्रु, १४०. सदा रक्षकः सदा सबके रक्षक, १४१. गोविषार्ति- प्रणाशी-यमुनाजीका विषाक्त जल पीनेसे गौओंके भीतर व्याप्त विषजनित पीड़ाका नाश करनेवाले, कलिन्दाङ्गजाकूलगः-कलिन्द-कन्या यमुनाके तटपर जानेवाले, १४२. कालियस्य दमी कालियनागका दमन करनेवाले, १४३. फणेषु नृत्यकारी- कालियनागके फणोंपर नृत्य करनेवाले, १४४. प्रसिद्धः सर्वत्र प्रसिद्धिको प्राप्त ॥ ३१ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

१४५. सलीलः लीलापरायण, १४६. शमी स्वभावतः शान्त, १४७. ज्ञानदः ज्ञानदाता, १४८. कामपूरः-कामनाओंके पूरक, १४९. गोपयुक् गोपोंके साथ विराजमान, १५०. गोपः गोपस्वरूप या गौओंके पालक, १५१. आनन्दकारी आनन्ददायिनी लीला प्रस्तुत करनेवाले, १५२. स्थिरः स्थैर्ययुक्त, १५३. अग्निभुक् दावानलको पी जानेवाले, १५४. पालक :- रक्षक, १५५. बाललीलः बालकों-जैसी क्रीडा करनेवाले, १५६. सुरागः मुरलीके स्वरोंमें सुन्दर राग गानेवाले, १५७. वंशीधरः मुरलीधारी, १५८. पुष्पशीलः- स्वभावतः फूलोंका शृङ्गार धारण करनेवाले ॥ ३२ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

१५९. प्रलम्बप्रभानाशकः बलरामरूपसे प्रलम्बासुरकी प्रभाके नाशक, १६०. गौरवर्ण:-गोरे वर्णवाले बलराम, १६१. बलः बलस्वरूप या बलभद्र, १६२. रोहिणीजः रोहिणीनन्दन, १६३. रामः बलराम, १६४. शेषः शेषके अवतार, १६५. बली बलवान्, १६६. पद्मनेत्रः कमलनयन, १६७. कृष्णाग्रजः-श्रीकृष्णके बड़े भाई, १६८. धरेशः = धरणीधर, १६९. फणीशः नागराज, १७०. नीलाम्बराभः – नीलवस्त्रकी शोभासे युक्त ॥ ३३ ॥

महासौख्यदः महान् सौख्य लेनेवाले, देनेवाले, १७१. अग्निहारकः मुञ्जाटवीमें लगी हुई आगको हर १७२. ब्रजेशः व्रजके स्वामी, १७३. शरग्रीष्मवर्षांकरः शरद्, ग्रीष्म और वर्षा प्रकट करनेवाले, १७४. कृष्णवर्णः श्यामसुन्दर, १७५. व्रजे गोपिकापूजितः व्रजमण्डलमें गोप- सुन्दरियोंद्वारा पूजित, १७६. चीरहर्ता चीरहरणकी लीला करनेवाले १७७. कदम्बे स्थितः चीर लेकर कदम्बपर जा बैठनेवाले, १७८. चीरदः गोपकिशोरियोंके माँगनेपर उन्हें चीर लौटा देनेवाले, १७९. सुन्दरीशः- सुन्दरी गोपकुमारियोंके प्राणेश्वर ॥ ३४ ॥

१८०. क्षुधानाशकृत्-ग्वाल-बालोंकी भूख मिटानेवाले, १८१. यज्ञपत्नीमनः स्पृक् यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणोंकी पल्लियोंके मनका स्पर्श करनेवाले- उनके मन-मन्दिरमें बस जानेवाले, १८२. कृपाकारकः- दया करनेवाले, १८३. केलिकर्ता-क्रीडापरायण, १८४. अवनीशः भूस्वामी, १८५. व्रजे शक्रयाग- प्रणाशः ब्रजमण्डलमें इन्द्रयागकी परम्पराको मिटा देनेवाले, १८६. अमिताशी गोवर्धन पूजामें समर्पित अपरिमित भोजन-राशिको आरोग लेनेवाले, १८७. शुनासीरमोहप्रदः इन्द्रको मोह प्रदान करनेवाले अथवा उनके मोहका खण्डन करनेवाले, १८८. बालरूपी बालरूपधारी ॥ ३५ ॥

१८९. गिरेः पूजकः गिरिराज गोवर्धनकी पूजा करनेवाले, १९०. नन्दपुत्रः नन्दरायजीके बेटे, १९१. अगधः गिरिवरधारी, १९२. कृपाकृत्-कृपा करनेवाले, १९३- गोवर्धनोद्धारिनामा- ‘गोवर्धनोद्धारी’ नामवाले, १९४. वातवर्षाहरः- आँधी और वर्षाक कष्टको हर लेनेवाले, १९५. रक्षकः- व्रजवासियोंकी रक्षा करनेवाले, १९६. व्रजाधीश- गोपाङ्गनाशङ्कितः व्रजराज नन्द और गोपाङ्गनाओंसे डरनेवाले, अथवा गोवर्धन उठानेके अलौकिक कर्मको देखकर व्रजराज नन्द तथा गोपियोंको जिनके प्रति यह शङ्का हुई थी कि ये साधारण गोप नहीं, साक्षात् नारायण हो सकते हैं, इस तरहकी शङ्खङ्कतके पात्र ॥ ३६ ॥

१९७. अगेन्द्रोपरि शक्रपूज्यः- गिरिराज गोवर्धन- के ऊपर इन्द्रके द्वारा पूजनीय, १९८. प्राक्स्तुतः- पहले जिनका स्तवन हुआ है, ऐसे, १९९. मृषा- शिक्षकः अपने ऊपर शङ्का करनेवाले नन्दादि गोपोंको व्यर्थकी बातोंसे बहला देनेवाले, २००. देवगोविन्द- नामा’गोविन्ददेव’ नाम धारण करनेवाले, २०१. व्रजाधीशरक्षाकरः- व्रजराज नन्दकी रक्षा करनेवाले (उन्हें वरुणलोकसे छुड़ाकर लानेवाले), २०२. पाशिपूज्यः पाशधारी वरुणके द्वारा पूजनीय, २०३. अनुगैर्गोपजैः दिव्यवैकुण्ठदर्शी अनुगामी ग्वालबालोंके साथ जाकर उन्हें दिव्य वैकुण्ठधामका दर्शन करानेवाले ॥ ३७ ॥

२०४. चलच्चारुवंशीक्वणः मनोहर वंशीकी ध्वनिको चारों ओर फैलानेवाले, २०५. कामिनीशः- गोप-सुन्दरियोंके प्राणेश्वर, २०६. व्रजे कामिनी- मोहदः व्रजकी कामिनियोंको मोह प्रदान करनेवाले, २०७. कामरूपः कामदेवसे भी सुन्दर रूपवाले, २०८. रसाक्तः रसमग्र, २०९. रसी रासकृत् – रासक्रीडा करनेवाले रसोंके निधि, २१०. राधिकेशः- राधिकाके स्वामी, २११. महामोहदः महान् मोह प्रदान करनेवाले, २१२. मानिनीमानहारी मानिनियों- के मान हर लेनेवाले ॥ ३८ ॥

२१३. विहारी वरः विहारशील श्रेष्ठ पुरुष, २१४. मानहृत मान हर लेनेवाले, २१५. राधिकाङ्गः- श्रीराधिका जिनकी वामाङ्गस्वरूपा हैं, वे, २१६. धराद्वीपगः भूमण्डलके सभी द्वीपोंमें जानेवाले, २१७. खण्डचारी-विभिन्न वनखण्डोंमें विचरनेवाले, २१८. वनस्थः वनवासी, २९९. प्रियः सबके प्रियतम, २२०. अष्टवक्रर्षिद्रष्टा अष्टावक्र ऋषिका दर्शन करनेवाले, २२१. सराधः राधिकाके साथ विचरनेवाले, २२२. महामोक्षदः महामोक्ष प्रदान करनेवाले, २२३. प्रियार्थं पद्महारी प्रियतमाकी प्रसन्नताके लिये कमलका फूल लानेवाले ॥ ३९ ॥

२२४. वटस्थः वटवृक्षपर विराजमान, २२५. सुरः- देवता, २२६. चन्दनाक्तः चन्दनसे चर्चित, २२७. प्रसक्तः श्रीराधाके प्रति अधिक अनुरक्त, २२८. राधया व्रजं ह्यागतः श्रीराधाके साथ व्रज- मण्डलमें अवतीर्ण, २२९. मोहिनीषु महामोहकृत्- मोहिनियोंमें महामोह उत्पन्न करनेवाले, २३०. गोपिका- गीतकीर्तिः- गोपिकाओंद्वारा गायी गयी कीर्तिवाले, २३१. रसस्थः अपने स्वरूपभूत रसमें स्थित, २३२. पटी- पीताम्बरधारी, २३३. दुःखिता कामिनीशः दुखिया नारियोंके रक्षक ॥ ४० ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

२३४. वने गोपिकात्यागकृत्-वनमें गोपियोंका त्याग करनेवाले, २३५. पादचिह्नप्रदर्शी वनमें ढूँढ़ती हुई गोपिकाओंको अपना चरणचिह्न प्रदर्शित करनेवाले, २३६. कलाकारकः चौंसठ कलाओंके कलाकार, २३७. काममोही-अपने रूप लावण्यसे कामदेवको भी मोहित करनेवाले, २३८. वशी-मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले, २३९. गोपिकामध्यगः गोपाङ्गनाओंके बीचमें विराजमान, २४०. पेशवाचः मधुरभाषी, २४१. प्रियाप्रीतिकृत्-प्रिया श्रीराधासे प्रेम करनेवाले अथवा प्रियाकी प्रसन्नताके लिये कार्य करनेवाले, २४२. रासरक्तः रासके रंगमें रंगे हुए, २४३. कलेशः सम्पूर्ण कलाओंके स्वामी ॥ ४१ ॥

२४४. रसारक्तचित्तः रसमग्न चित्तवाले, २४५. अनन्तस्वरूपः अनन्त रूपवाले अथवा शेषनाग-स्वरूप, २४६. स्त्रजासंवृतः आजानुलम्बिनी वनमाला धारण करनेवाले, २४७. वल्लवीमध्यसंस्थः – गोपाङ्गनामण्डलके मध्य बैठे हुए, २४८. सुबाहुः- सुन्दर बाँहवाले, २४९. सुपादः सुन्दर चरणवाले, २५०. सुवेशः सुन्दर वेशवाले, २५१. सुकेशो ब्रजेशः सुन्दर केशवाले व्रजमण्डलके स्वामी, २५२. सखा सख्य-रतिके आलम्बन, २५३. वल्लभेशः- प्राणवल्लभा श्रीराधाके हृदयेश, २५४. सुदेशः- सर्वोत्कृष्ट देशस्वरूप ॥ ४२ ॥

२५५. क्वणत्किङ्किणीजालभृत्-झनकारती हुई किङ्किणीकी लड़ोंको धारण करनेवाले, २५६. नूपुराढ्यः चरणोंमें नूपुरोंकी शोभासे सम्पन्न, २५७. लसत्कङ्कणः कलाइयोंमें सुन्दर कंगन धारण करनेवाले, २५८. अङ्गदी बाजूबंदधारी, २५९. हारभारः हारोंके भारसे विभूषित २६०. किरीटी-मुकुटधारी, २६१. चलत्कुण्डलः = कानोंमें हिलते हुए कुण्डलोंसे सुशोभित, २६२. अङ्गुलीयस्फुरत्कौस्तुभः हाथोंमें अँगूठीके साथ वक्षःस्थलपर जगमगाती हुई कौस्तुभमणि धारण करनेवाले, २६३. मालतीमण्डिताङ्गः- मालतीकी मालासे अलंकृत शरीरवाले ॥ ४३ ॥

२६४. महानृत्यकृत्-महारास-नृत्य करनेवाले, २६५. रासरङ्गः रासरंगमें तत्पर, २६६. कलाढগ্ন:- समस्त कलाओंसे सम्पन्न, २६७. चलद्वारभः-हिलते हुए रत्नहारकी छटा छिटकानेवाले, २६८. भामिनी- नृत्ययुक्तः भामिनियोंके साथ नृत्यमें संलग्र, कलिन्दाङ्गजाकेलिकृत् – कलिन्दनन्दिनी २६९. यमुनाजीके जलमें क्रीडा करनेवाले, २७०. कुङ्कुमश्रीः = केसर-कुङ्कुमकी शोभासे सम्पत्र, २७१. सुरैर्नायिका- नायकैर्गीयमानः- नायिकाओंके नायक, अर्थात् अपनी प्राणवल्लभाओंके साथ सुशोभित देवताओंद्वारा जिनके यशका गान किया जाता है, वे ॥४४॥

२७२. सुखाढधः स्वरूपभूत सुखसे सम्पन्न, २७३. राधापतिः राधिकाके प्राणवल्लभ, २७४. पूर्ण- बोधः पूर्ण ज्ञानस्वरूप, २७५. कटाक्षस्मिती कुटिल कटाक्षके साथ मन्द मुस्कान-शोभा प्रकट करनेवाले, २७६. वल्गितभूविलासः नचायी हुई भौंहोंके विलाससे शोभायमान, २७७. सुरम्यः अत्यन्त रमणीय, २७८. अलिभिः कुन्तलालोलकेशः मँडराते भ्रमरोंसे युक्त कुछ हिलते घुँघराले केशवाले, २७९. स्फुरद्वई- कुन्दत्रजाचारुवेशः फरफराते हुए मोरपंखके मुकुट और कुन्दकुसुमोंकी मालासे मनोहर वेषवाले ॥ ४५ ॥

२८०. महासर्पतो नन्दरक्षापराङ्घ्रिः-जिनके चरण महान् अजगरके भयसे नन्दकी रक्षा करनेवाले हैं, वे, २८१. सदा मोक्षदः सतत मोक्ष प्रदान करनेवाले, २८२. शङ्खचूडप्रणाशी’ शङ्खचूड़’ नामक यक्षको मार भगानेवाले, २८३. प्रजारक्षकः प्रजाजनोंके प्रतिपालक, २८४. गोपिकागीयमानः गोपाङ्गनाओंद्वारा जिनके यशका गान किया जाता है, वे, २८५. कुद्मिप्रणाशप्रयासः = अरिष्टासुरके वधके लिये प्रयास करनेवाले, २८६. सुरेज्यः देवताओंके पूजनीय ॥ ४६ ॥

२८७. कलिः कलिस्वरूप, २८८. क्रोधकृत्- दुष्टॉपर क्रोध करनेवाले, २८९. कंसमन्त्रोपदेष्टा- नारदरूपसे कंसको मन्त्रोपदेश करनेवाले, २९०. अक्रूरमन्त्रोपदेशी अक्रूरको अपने नाम-मन्त्रका उपदेश करनेवाले अथवा उनको मन्त्रणा देनेवाले, २९१. सुरार्थः देवताओंका प्रयोजन सिद्ध करनेवाले, २९२. बली केशिहा केशीका नाश करनेवाले महान् बलवान्, २९३. पुष्पवर्षांमलश्रीः- देवताओंद्वारा जिनपर पुष्पवर्षा की गयी है, वे भगवान्, २९४. अमलश्रीः उज्ज्वल शोभासे सम्पन्न, २९५. नारदादेशतो व्योमहन्ता नारदजीके कहनेसे व्योमासुरका वध करनेवाले ॥ ४७ ॥

२९६. अक्क्रूरसेवापरः नन्द-व्रजमें आये हुए अक्रूरकी सेवामें संलग्न, २९७. सर्वदर्शी सबके द्रष्टा, २९८. व्रजे गोपिकामोहदः व्रजमें गोपाङ्गनाओंको मोहित करनेवाले, २९९. कूलवर्ती यमुनाके तटपर विद्यमान, ३००. सतीराधिकाबोधदः मथुरा जाते समय सती राधिकाको बोध (आश्वासन) देनेवाले, ३०१. स्वप्नकर्ता-श्रीराधिकाके लिये सुखमय स्वप्नकी सृष्टि करनेवाले, ३०२. विलासी लीला-विलास- परायण, ३०३. महामोहनाशी महामोहके नाशक, ३०४. स्वबोधः आत्मबोधस्वरूप ॥ ४८ ॥

३०५. व्रजे शापतस्त्यक्तराधासकाशः व्रजमें शापवश राधाके समीप निवासका त्याग करनेवाले, ३०६. महामोहदावाग्निदग्धापतिः- श्रीकृष्णविषयक महामोहरूप दावानलसे दग्ध होनेवाली श्रीराधाके पालक या प्राणरक्षक, ३०७. सखीबन्धनान्मोचिताक्रूरः- सखियोंके बन्धनसे अक्रूरको छुड़ानेवाले, ३०८. आरात् सखीकङ्कणैस्ताडिताक्रूररक्षी निकट आयी हुई सखियोंके कंगनोंकी मारसे पीड़ित अक्रूरकी रक्षा करनेवाले ॥ ४९ ॥

३०९. व्रजे राधयारथस्थः व्रजमें राधाके साथ रथपर विराजमान, ३१०. कृष्णचन्द्रः- श्रीकृष्णचन्द्र, ३११. गोपकैः सुगुप्तो गमी ग्वाल-बालोंके साथ अत्यन्त गुप्तरूपसे मथुराकी यात्रा करनेवाले, ३१२. चारुलीलः मनोहर लीलाएँ करनेवाले, ३१३. जलेऽकूरसंदर्शितः यमुनाके जलमें अक्रूरको अपने रूपका दर्शन करानेवाले, ३१४. दिव्यरूपः- दिव्यरूपधारी, ३१५. दिदृक्षुः मथुरापुरी देखनेके इच्छुक, ३१६. पुरीमोहिनीचित्तमोही-मथुरापुरीकी मोहिनी स्त्रियोंके भी चित्तको मोह लेनेवाले ॥ ५० ॥

३१७. रङ्गकारप्रणाशी कंसके रंगकार या धोबीको नष्ट करनेवाले, ३१८. सुवस्त्रः-सुन्दर वस्त्रधारी, ३१९. स्त्रजी माली सुदामाकी दी हुई माला धारण करनेवाले, ३२०. वायकप्रीतिकृत्-दर्जीको प्रसन्न करनेवाले, ३२१. मालिपूज्यः मालीके द्वारा पूजित, ३२२. महाकीर्तिदः मालीको महान् सुयश प्रदान करनेवाले, ३२३. कुब्जाविनोदी कुब्जाके साथ हास-विनोद करनेवाले, ३२४. स्फुरच्चण्ड- कोदण्डरुग्णः कंसके कान्तिमान् कोदण्डका खण्डन (धनुष-भङ्ग) करनेवाले, ३२५. प्रचण्डः प्रचण्ड (महान् बलवान्) दिखायी देनेवाले ॥ ५१ ॥

३२६. भटात्र्त्तिप्रदः कंसके मल्ल योद्धाओंको पीड़ा देनेवाले, ३२७. कंसदुःस्वप्नकारी कंसको बुरे सपने दिखानेवाले, ३२८. महामल्लवेशः महान् मल्लोंके समान वेष धारण करनेवाले, ३२९. करीन्द्र- प्रहारी गजराज कुवलयापीड़पर प्रहार करनेवाले, ३३०. महामात्यहा महावतोंको मारनेवाले, ३३१. रङ्गभूमिप्रवेशी-कंसकी मल्लशालामें प्रवेश करनेवाले, ३३२. रसाळचः नौ रसोंसे सम्पन्न (भिन्न-भिन्न द्रष्टाओंको विभिन्न रसोंके आलम्बनके – रूपमें दिखायी देनेवाले), ३३३. यशःस्पृक् यशस्वी, ३३४. बलीवाक्पटुश्रीः अनन्त शक्तिसे सम्पन्न और बातचीत करनेमें प्रवीण ऐश्वर्यवान् ॥ ५२ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

३३५. महामल्लहा बड़े-बड़े मल्ल चाणूर और मुष्टिक आदिका वध करनेवाले, ३३६. युद्धकृत्-युद्ध करनेवाले, ३३७. स्त्रीवचोऽर्थी रंगोत्सव देखनेके लिये आयी हुई स्त्रियोंके वचनोंको सुननेकी इच्छावाले, ३३८. धरानायकः कंसहन्ता कंसका हनन करने- वाले भूतलके स्वामी, ३३९. प्राग्यदुः पूर्ववर्ती राजा यदुस्वरूप, ३४०. सदापूजितः सदा सबसे पूजित, ३४१. उग्रसेनप्रसिद्धः उग्रसेनकी प्रसिद्धिके कारण, ३४२. धराराज्यदः उग्रसेनको भूमण्डलका राज्य देनेवाले, ३४३. सुशोभित शरीरवाले ॥ ५३ ॥

यादवैर्मण्डिताङ्गः यादवोंसे ३४४. गुरोः पुत्रदः गुरुको पुत्र प्रदान करनेवाले, ३४५. ब्रह्मविद्-ब्रह्मवेत्ता, ३४६. ब्रह्मपाठी वेदपाठ करनेवाले, ३४७. महाशङ्खहा-महान् राक्षस शङ्खासुरका वध करनेवाले, ३४८. दण्डधृक्पूज्यः = दण्डधारी यमराजके लिये पूजनीय, ३४९. व्रजे उद्धव- प्रेषिता व्रजमें वहाँका समाचार जाननेके लिये उद्धवको भेजनेवाले, ३५०. गोपमोही अपने रूप, गुण और सद्भावसे गोपगणोंको मोह लेनेवाले, ३५१. यशोदाघृणी-मैया यशोदाके प्रति अत्यन्त कृपालु, ३५२. गोपिकाज्ञानदेशी गोपाङ्गनाओंको ज्ञानोपदेश करनेवाले ॥ ५४ ॥

३५३. सदा स्नेहकृत्-सदा स्नेह करनेवाले, ३५४. कुब्जया पूजिताङ्गः कुब्जाके द्वारा पूजित अङ्गवाले, ३५५. अक्रूरगेहंगमी अक्रूरके घर पधारने- वाले, ३५६. मन्त्रवेत्ता-मन्त्रणाके मर्मज्ञ, ३५७. पाण्डवप्रेषिताक्रूरः पाण्डवोंका समाचार लानेके लिये अक्रूरको भेजनेवाले, ३५८. सुखी सर्वदर्शी- सौख्ययुक्त, सबके साक्षी अथवा सर्वज्ञ, ३५९. नृपानन्द- कारी राजा उग्रसेनको आनन्द देनेवाले ॥ ५५ ॥

३६०. महाक्षौहिणीहा जरासंधकी तीस अक्षौहिणी सेनाका विनाश करनेवाले, ३६१. जरासंध मानोद्धरः जरासंधका मान भङ्ग करनेवाले, ३६२. द्वारकाकारकः- द्वारकापुरीका निर्माण करनेवाले, ३६३. मोक्षकर्ता-भव-बन्धनसे छुटकारा दिलाने- वाले, ३६४. रणी युद्धके लिये सदा उद्यत, ३६५. सार्वभौमस्तुतः सत्ययुगके चक्रवर्ती राजा मुचुकुन्दने जिनकी स्तुति की, ऐसे, ३६६. ज्ञानदाता- मुचुकुन्दको ज्ञान प्रदान करनेवाले, ३६७. जरासंध- संकल्पकृत्-एक बार अपनी पराजयका अभिनय करके जरासंधके संकल्पकी पूर्ति करनेवाले, ३६८. धावदङ्घ्रिः पैदल भागनेवाले ॥ ५६ ॥

३६९. नगादुत्पतन्द्वारकामध्यवर्ती प्रवर्षणगिरिसे उछलकर द्वारकापुरीके बीच विराजमान, ३७०. रेवती- भूषणः बलरामरूपसे रेवतीके सौभाग्यभूषण, ३७१. तालचिह्नो यदुः तालके चिह्नसे युक्त ध्वजा- वाले यदुवीर, ३७२. रुक्मिणीहारकः रुक्मिणीका अपहरण करनेवाले, ३७३. चैद्यभेद्यः चेदिराज शिशुपाल जिनका वध्य है, वे, ३७४. रुक्मिरूपप्रणाशी- रुक्मीकी आधी मूँछ मूँड़कर उसे कुरूप बनानेवाले, ३७५. सुखाशी-स्वरूपभूत आनन्दके आस्वादक ॥ ५७ ॥

३७६ अनन्तः शेषनागस्वरूप, ३७७. मारः- कामदेवावतार, ३७८. काष्णिः कृष्णकुमार प्रद्युम्न, ३७९. कामः कामदेव, ३८०. मनोजः काम, ३८१. शम्बरारिः शम्बरासुरके शत्रु कामदेव, ३८२. रतीशः रतिके स्वामी, ३८३. रथी रथारूढ़, ३८४. मन्मथः मनको मथ देनेवाले, ३८५. मीनकेतुः- मत्स्यचिह्न ध्वजासे युक्त, ३८६. शरी-वाणधारी, ३८७. स्मरः काम, ३८८. दर्पकः कामदेव, ३८९. मानहा मानमर्दन करनेवाले, ३९०. पञ्चबाणः- पञ्चबाणधारी कामदेव (ये सब नाम प्रद्युम्नस्वरूप श्रीहरिके पर्यायवाची हैं) ॥ ५८ ॥

३९१. प्रियः सत्यभामापतिः सत्यभामाके प्रिय पति, ३९२. यादवेशः यादवोंके स्वामी, ३९३. सत्राजित्प्रेमपूरः सत्राजित्‌के प्रेमको पूर्ण करनेवाले, ३९४. प्रहासः उत्कृष्ट हासवाले, ३९५. महारत्नदः महारत्न स्यमन्तकको ढूँढ़कर ला देनेवाले, ३९६. जाम्बवद्युद्धकारी-जाम्बवान्से युद्ध करनेवाले, ३९७. महाचक्रधृक्-महान् सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले, ३९८. खड्गधृक् ‘नन्दक’ नामक खड्ग धारण करनेवाले, ३९९. रामसंधिः बलरामजीके करनेवाले ॥ ५९ ॥

साथ संधि ४००, विहारस्थितः लीलाविहारपरायण, ४०१. पाण्डवप्रेमकारी पाण्डवोंसे प्रेम करनेवाले, ४०२. कलिन्दाङ्गजामोहनः कालिन्दीके मनको मोह लेनेवाले, ४०३. खाण्डवार्थी खाण्डव-वनको अग्निदेवके लिये अर्पित करनेके इच्छुक, ४०४. फाल्गुनप्रीतिकृत् सखा अर्जुनपर प्रेम रखनेवाले उनके सखा, ४०५. नग्रकर्ता खाण्डव-वनको जलाकर नग्न (शून्य) करनेवाले, ४०६. मित्रविन्दापतिः- ‘मित्रविन्दा’ नामवाली अवन्तीदेशकी राजकुमारीके पति, ४०७. क्रीडनार्थी-क्रीडा या खेलके इच्छुक ॥ ६० ॥

४०८. नृपप्रेमकृत्-राजा नग्रजित्से प्रेम करनेवाले, ४०९. सप्तरूपो गोजयी सात रूप धारण करके सात बिगड़ैल बैलोंको एक ही साथ नाथकर काबूमें कर लेनेवाले, ४१०. सत्यापतिः- नग्नजित्कुमारी सत्याके पति, ४११. पारिवहीं-राजा नग्ग्रजित्‌के द्वारा दिये दहेजको ग्रहण करनेवाले, ४१२. यथेष्टम् पूर्ण, ४१३. नृपैः संवृतः सत्याको लेकर लौटते समय मार्गमें युद्धार्थी राजाओंद्वारा घेर लिये जानेवाले, ४१४. भद्रापतिः भद्राके स्वामी, ४१५. मधोर्विलासी मधुमास चैत्रकी पूर्णिमाको रासविलास करनेवाले, ४१६. मानिनीशः मानिनी जनोंके प्राणवल्लभ, ४१७. जनेशः प्रजाजनोंके स्वामी ॥ ६१ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

४१८. शुनासीरमोहावृतः इन्द्रके प्रति मोह (स्नेह एवं कृपाभाव) से युक्त, ४१९. सत्सभार्यः सती भार्यासे युक्त, ४२०. सतायः गरुडपर आरूढ़, ४२१. मुरारिः मुर दैत्यका नाश करनेवाले, ४२२. पुरीसंघभेत्ता-भौमासुरको पुरीके दुर्गसमुदायका भेदन करनेवाले, ४२३. सुवीरः शिरः खण्डनः- श्रेष्ठवीर असुरोंका मस्तक काटनेवाले, ४२४. दैत्य- नाशी दैत्योंका नाश करनेवाले, ४२५. शरी भौमहा सायकधारी होकर भौमासुरका वध करनेवाले, ४२६. चण्डवेगः प्रचण्ड वेगशाली, ४२७. प्रवीरः- उत्कृष्ट वीर ॥ ६२ ॥

४२८. धरासंस्तुतः पृथ्वीदेवीके मुखसे अपना गुणगान सुननेवाले, ४२९. कुण्डलच्छत्रहर्ता अदिति- के कुण्डल और इन्द्रके छत्रको भौमासुरकी राजधानीसे लेकर उसे स्वर्गलोकतक पहुँचानेवाले, ४३०. महा- रत्नयुक्-महान् मणिरत्नोंसे सम्पन्न, ४३१. राजकन्या- अभिरामः सोलह हजार राजकुमारियोंके सुन्दर पति, ४३२. शचीपूजितः स्वर्गमें इन्द्रपत्नी शचीके द्वारा सम्मानित, ४३३. शक्रजित् पारिजातके लिये होने- वाले युद्धमें इन्द्रको जीतनेवाले, ४३४. मानहर्ता- इन्द्रका अभिमान चूर्ण कर देनेवाले, ४३५. पारि- जातापहारी रमेशः पारिजातका अपहरण करनेवाले रमावल्लभ ॥ ६३ ॥

४३६. गृही चामरैः शोभितः- गृहस्थरूपमें रहकर श्वेत चॅवर डुलाये जानेके कारण अतिशय शोभायमान, ४३७. भीष्मककन्यापतिः राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणीके पति, ४३८. हास्यकृत्-रुक्मिणीके साथ परिहास करनेवाले, ४३९. मानिनीमानकारी मानिनी रुक्मिणीको मान देनेवाले, ४४०. रुक्मिणीवाक्पटुः- रुक्मिणीको अपनी बातोंसे रिझानेमें कुशल, ४४१. प्रेमगेहः प्रेमके अधिष्ठान, ४४२. सतीमोहनः- सतियोंको भी मोह लेनेवाले, ४४३. कामदेवा- परश्रीः- दूसरे कामदेवके समान मनोरम सुषमासे सम्पन्न ॥ ६४ ॥

४४४. सुदेष्णः ‘सुदेष्ण’ नामक श्रीकृष्ण-पुत्र, ४४५. सुचारुः सुचारु, ४४६. चारुदेष्णः चारुदेष्ण, ४४७. चारुदेहः चारुदेह, ४४८. बली चारुगुप्तः- बली, चारुगुत, ४४९. सुती भद्रचारुः-पुत्रवान् भद्रचारु, ४५०. चारुचन्द्रः- चारुचन्द्र, ४५१. विचारुः- ४५३. रथी विचारु, ४५२. चारुः चारु, पुत्ररूपः रथी पुत्रस्वरूप ॥ ६५ ॥

४५४. सुभानुः सुभानु, ४५५. प्रभानुः- प्रभानु, ४५६. चन्द्रभानुः चन्द्रभानु, ४५७. बृहद्भानुः- बृहन्द्भानु, ४५८. अष्टभानुः अष्टभानु, ४५९. साम्बः = साम्ब, ४६०. सुमित्रः सुमित्र, ४६१. क्रतुः ऋतु, ४६२. चित्रकेतुः चित्रकेतु, ४६३. वीरः अश्व- सेनः वीर अश्वसेन, ४६४. वृषः वृष, ४६५. चित्रगुः- चित्रगु, ४६६. चन्द्रबिम्बः- चन्द्रबिम्व ॥ ६६ ॥

४६७. विशङ्कः विशङ्कु, ४६८. वसुः वसु, ४६९. श्रुतः श्रुत, ४७०. भद्रः भद्र, ४७१. सुबाहुः वृषः उत्तम भुजाओं-युक्त वृष, ४७२. पूर्णमासः – पूर्णमास, ४७३. सोमः वरः श्रेष्ठ सोम, ४७४. शान्तिः- शान्ति, ४७५. प्रघोषः प्रघोष, ४७६. सिंहः सिंह, ४७७. बलः ऊर्ध्वगः बल और ऊर्ध्वग, ४७८. वर्धनः वर्धन, ४७९. उन्नादः उन्नाद ॥ ६७ ॥

४८०. महाशः महाश, ४८१. वृकः वृक, ४८२. पावनः पावन, ४८३. वह्निमित्रः वह्निमित्र, ४८४. क्षुधिः क्षुधि, ४८५. हर्षक: हर्षक, ४८६. अनिलः अनिल, ४८७. अमित्रजित्ः- अमित्रजित्, ४८८. सुभद्रः सुभद्र, ४८९. जयः जय, ४९०. सत्यकः सत्यक, ४९१. वामः वाम, ४९२. आयुः- आयु, यदुः यदु, ४९३. कोटिशः पुत्रपौत्रैः प्रसिद्धः इस प्रकार करोड़ों पुत्र-पौत्रोंसे प्रसिद्ध ॥ ६८ ॥

४९४. हली दण्डधृक् ईषादण्डधारी हलधर बलराम, ४९५. रुक्महा रुक्मीका वध करनेवाले, ४९६. अनिरुद्धः किसीके द्वारा रोके न जा सकने- वाले, ४९७. राजभिर्हास्यगः अनिरुद्धके विवाहमें द्यूत-क्रीड़ाके समय राजाओंने जिनकी हँसी उड़ायी, वे, ४९८. द्यूतकर्ता विनोदके लिये द्यूत-क्रीड़ामें भाग लेनेवाले बलरामजी, ४९९. मधुः मधुवंशमें अवतीर्ण, ५००. ब्रह्मसूः ब्रह्माजीके अवतार अनिरुद्ध, ५०१. बाणपुत्रीपतिः- बाणासुरकी कन्या ऊषाके स्वामी, ५०२. महासुन्दरः अतिशय सौन्दर्य- शाली, ५०३. कामपुत्रः प्रद्युम्नके पुत्र अनिरुद्धरूप, ५०४. बलीशः बलवानोंके ईश्वर ॥ ६९ ॥

५०५. महादैत्यसंग्रामकृद् यादवेशः बड़े-बड़े दैत्योंके साथ युद्ध करनेवाले यादवोंके स्वामी, ५०६. पुरीभञ्जनः बाणासुरकी नगरीको नष्ट-भ्रष्ट करनेवाले, ५०७. भूतसंत्रासकारी-भूतगणोंको संत्रस्त कर देनेवाले, ५०८. मृधे रुद्रजित् युद्धमें रुद्रको जीतनेवाले, ५०९. रुद्रमोही जृम्भणास्त्रके प्रयोगसे रुद्रदेवको मोहित करनेवाले, ५१०. मुधार्थी युद्धाभिलाषी, ५११. स्कन्दजित् कुमार कीर्तिकेयको परास्त करनेवाले, ५१२. कूपकर्णप्रहारी’ कूपकर्ण’ नामक प्रमथगणपर प्रहार करनेवाले ॥ ७० ॥

५१३. धनुर्भञ्जनः धनुष भङ्ग करनेवाले, ५१४. बाणमानप्रहारी-बाणासुरके अभिमानको चूर्ण कर देनेवाले, ५१५. ज्वरोत्पत्तिकृत्-ज्वरकी उत्पत्ति करनेवाले, ५१६. ज्वरेण संस्तुतः- रुद्रके ज्वरद्वारा जिनकी स्तुति की गयी, वे, ५१७. भुजाछेदकृत्-बाणासुरकी बाँहोंको काट देनेवाले, ५१८. बाणसंत्रासकर्ता बाणासुरके मनमें त्रास उत्पन्न कर देनेवाले, ५१९. मृडप्रस्तुतः भगवान् शिवके द्वारा स्तुत, ५२०. युद्धकृत् युद्ध करनेवाले, ५२१. भूमिभर्त्ता-भूमण्डलका भरण-पोषण करनेवाले, अथवा भूदेवीके पति ॥ ७१ ॥

५२२. नृर्ग मुक्तिदः राजा नृगका उद्धार करने- वाले, ५२३. यादवानां ज्ञानदः यादवोंको ज्ञान देने- वाले, ५२४. रथस्थः दिव्य रथपर आरूढ़, ५२५. व्रजप्रेमपः व्रजविषयक प्रेमके पालक अथवा व्रजवासियोंके प्रेमरसका पान करनेवाले, ५२६. गोपमुख्यः गोपशिरोमणि, ५२७. महा- सुन्दरीक्क्रीडितः अपनी प्रेयसी परम सुन्दरियोंके साथ क्रीडा करनेवाले बलरामजी, ५२८. पुष्पमाली-पुष्प- मालाओंसे अलंकृत, ५२९. कलिन्दाङ्गजाभेदनः- कालिन्दीकी धाराको फोड़कर अपनी ओर खींच लाने- वाले, ५३०. सीरपाणिः हाथमें हल धारण करने- वाले ॥ ७२ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

५३१. महादम्भिहा-बड़े-बड़े दम्भी पाखण्डियोंका दमन करनेवाले, ५३२. पौण्ड्रमानप्रहारी पौण्ड्रकके घमंडको चूर्ण कर देनेवाले, ५३३. शिरश्छेदकः- उसके मस्तकको काट देनेवाले, ५३४. काशिराज- प्रणाशी-काशिराजका नाश करनेवाले, ५३५. महा- अक्षौहिणीध्वंसकृत् – शत्रुओंकी विशाल अक्षौहिणी सेनाका विनाश करनेवाले, ५३६. चक्रहस्तः- चक्र- पाणि, ५३७. पुरीदीपकः काशीपुरीको जलानेवाले, ५३८. राक्षसीनाशकर्ता राक्षसीके नाशक ॥७३॥

गौरवर्णवाले, ५३९. अनन्तः शेषनागरूप, ५४०. महीधः- धरणीको धारण करनेवाले, ५४१. फणी-फणधारी, ५४२. वानरारिः ‘द्विविद’ नामक वानरके शत्रु, ५४३. स्फुरगौरवर्णः प्रकाशमान ५४४. महापवानेत्रः प्रफुल्ल कमलके समान विशाल नेत्रवाले, ५४५. कुरुग्रामतिर्यग्गतिः कौरवोंके निवासस्थल हस्तिनापुरको गङ्गाकी ओर तिरछी दिशामें खींच लेनेवाले, ५४६. गौरवार्थं कौरवैः स्तुतः- जिनका गौरव प्रकट करनेके लिये कौरवोंने स्तुति की, वे बलरामजी, ५४७. ससाम्बः पारिबहीं-साम्बके साथ कौरवोंसे दहेज लेकर लौटनेवाले ॥ ७४ ॥

५४८. वैभवशाली, महावैभवी महान् ५४९. द्वारकेशः द्वारकानाथ, ५५०. अनेकः अनेक रूपधारी, ५५१. चलन्नारदः नारदजीको विचलित कर देनेवाले, ५५२. श्रीप्रभादर्शकः अपनी लक्ष्मी तथा प्रभावको दिखानेवाले, ५५३. महर्षिस्तुतः महर्षियोंसे संस्तुत, ५५४. ब्रह्मदेवः ब्राह्मणोंको देवता माननेवाले अथवा ब्रह्माजीके आराध्यदेव, ५५५. पुराणः-पुराणपुरुष, ५५६. सदा षोडशस्त्रीसहस्थितः – सर्वदा सोलह हजार पत्नियोंके साथ रहनेवाले ॥ ७५ ॥

५५७. गृही आदर्श गृहस्थ, ५५८. लोक- रक्षापरः समस्त लोकोंकी रक्षामें तत्पर, ५५९. लोकरीतिः लौकिक रीतिका अनुसरण करनेवाले, ५६०. प्रभुः अखिल विश्वके स्वामी, ५६१. उग्रसेनावृतः उग्र सेनाओंसे घिरे हुए, ५६२. दुर्गयुक्तः दुर्गसे युक्त, ५६३. राजदूतस्तुतः- जरासंधके बंदी राजाओंद्वारा भेजे गये दूतने जिनकी स्तुति की, वे, ५६४. बन्धभेत्ता स्थितः बन्दी राजाओंके बन्धन काटकर उनके लिये मुक्तिदाताके रूपमें स्थित नित्य विद्यमान, ५६५. नारदप्रस्तुतः नारदजीके द्वारा संस्तुत, ५६६. पाण्डवार्थी पाण्डवोंका अर्थ सिद्ध करनेवाले ॥ ७६ ॥

५६७. नृपैर्मन्त्रकृत्-राजाओंके साथ सलाह करनेवाले, ५६८. उद्धवप्रीतिपूर्णः उद्धवकी प्रीतिसे परिपूर्ण, ५६९. पुत्रपौत्रैर्वृतः पुत्र-पौत्रोंसे घिरे हुए, ५७०. कुरुग्रामगन्ता घृणी कुरुग्राम इन्द्रप्रस्थमें जानेवाले दयालु, ५७१. धर्मराजस्तुतः धर्मराज युधिष्ठिरसे संस्तुत, ५७२. भीमयुक्तः भीमसेनसे सप्रेम मिलनेवाले, ५७३. परानन्ददः परमानन्द प्रदान करनेवाले, ५७४. धर्मजेन मन्त्रकृत्-धर्मराज युधिष्ठिरसे सलाह करनेवाले ॥ ७७ ॥

५७५. दिशाजित् बली दिग्विजय बलवान्, ५७६. राजसूयार्थकारी युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञ-सम्बन्धी कार्यको सिद्ध करनेवाले, ५७७. जरासंधहा- जरासंधका वध करनेवाले, ५७८. भीमसेनस्वरूपः – भीमसेनस्वरूप, ५७९. विप्ररूपः ब्राह्मणका रूप धारण करके जरासंधके पास जानेवाले, ५८०. गदा- युद्धकर्ता-भीमरूपसे गदायुद्ध करनेवाले, ५८१. कृपालुः दयालु, ५८२. महाबन्धनच्छेदकारी- बड़े-बड़े बन्धनोंको काट देनेवाले अथवा महान् भवबन्धनका उच्छेद करनेवाले ॥ ७८ ॥

५८३. नृपैः संस्तुतः जरासंधके कारागारसे मुक्त राजाओंद्वारा संस्तुत, ५८४. धर्मगेहमागतः धर्मराजके घरमें आये हुए, ५८५. द्विजैः संवृतः ब्राह्मणोंसे घिरे हुए, ५८६. यज्ञसम्भारकर्ता यज्ञके उपकरण जुटाने- वाले, ५८७. जनैः पूजितः सब लोगोंसे पूजित, ५८८. चैद्यदुर्वाक्क्षमः चेदिराज शिशुपालके दुर्वचनोंको सह लेनेवाले, ५८९. महामोक्षदः- उसे महान् मोक्ष देनेवाले, ५९०. अरेः शिरश्छेदकारी- सुदर्शन चक्रसे शत्रु शिशुपालका सिर काट लेनेवाले ॥ ७९ ॥

५९१. महायज्ञशोभाकरः युधिष्ठिरके महान् यज्ञकी शोभा बढ़ानेवाले, ५९२. चक्रवर्ती नृपानन्दकारी- राजाओंको आनन्द प्रदान करनेवाले सार्वभौम सम्राद, ५९३. सुहारी विहारी-सुन्दर हारसे सुशोभित विहार- परायण प्रभु, ५९४. सभासंवृतः सभासदोंसे घिरे हुए, ५९५. कौरवस्य मानहृत् कुरुराज दुर्योधनका मान हर लेनेवाले, ५९६. शाल्वसंहारकः राजा शाल्वका संहार करनेवाले, ५९७. यानहन्ता शाल्वके सौभ विमानको तोड़ डालनेवाले ॥ ८० ॥

५९८. सभोजः – भोजवंशियों सहित, ५९९. वृष्णिः वृष्णिवंशी, ६००. मधुः मधुवंशी, ६०१. शूरसेनः शूरवीर सेनासे संयुक्त, अथवा शूरसेनवंशी, ६०२. दशार्हः दशार्हवंशी, ६०३. यदुः अन्धक :- यदुवंशी तथा अन्धकवंशी, ६०४. लोकजित् लोकविजयी, ६०५. द्युमन्मानहारी द्युमान्‌का मान हर लेनेवाले, ६०६. वर्मधूक कवचधारी, ६०७. दिव्य- शस्त्री-दिव्य आयुधधारी, ६०८. स्वबोधः आत्म- बोधस्वरूप, ६०९. सदा रक्षकः साधुपुरुषोंकी सदा रक्षा करनेवाले, ६१०. दैत्यहन्ता दैत्योंका वध करनेवाले ॥ ८१ ॥

६११. दन्तवकाप्रणाशी-दन्तवक्त्रका करनेवाले, नाश ६१२. गदाधृक्-गदाधारी, ६१३. जगत्तीर्थयात्राकरः सम्पूर्ण जगत्‌की तीर्थयात्रा करनेवाले बलरामजी, ६१४. पद्महारः कमलकी माला धारण करनेवाले, ६१५. कुशी सूतहन्ता-कुश हाथमें लेकर रोमहर्षण सूतका वध करनेवाले, ६१६. कृपाकृत्-कृपा करनेवाले, ६१७. स्मृतीशः- धर्मशास्त्रोंके स्वामी, ६१८. अमलः निर्मल स्वरूप, ६१९. बल्वलाङ्गप्रभाखण्डकारी बल्वलकी अङ्ग कान्तिको खण्डित करनेवाले ॥ ८२ ॥

६२०. भीमदुर्योधनज्ञानदाता भीमसेन और दुर्योधनको ज्ञान देनेवाले, ६२१. अपरः- जिनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है, ऐसे, ६२२. रोहिणी- सौख्यदः माता रोहिणीको सुख देनेवाले, ६२३. रेवतीशः रेवतीके पति बलरामजी, ६२४. महादानकृत्-बड़े भारी दानी, ६२५. विप्र- दारिद्रश्यहा-सुदामा ब्राह्मणकी दरिद्रता दूर कर देनेवाले, ६२६. सदा प्रेमयुक्-नित्य प्रेमी, ६२७. श्रीसुदाम्नः सहायः- श्रीसुदामाके सहायक ॥ ८३ ॥

६२८. सरामः भार्गवक्षेत्रगन्ताः बलरामसहित, परशुरामजीके शूर्पारक क्षेत्रकी यात्रा करनेवाले, ६२९. श्रुते सूर्योपरागे सर्वदर्शी विख्यात सूर्यग्रहणके अवसरपर सबसे मिलनेवाले, ६३०. महासेनयाऽऽ- स्थितः विशाल सेनाके साथ विद्यमान, ६३१. स्नान- युक्तः महादानकृत्-सूर्य ग्रहणपर्वपर स्नान करके महान् दान करनेवाले, ६३२. मित्रसम्मेलनार्थी- मित्रोंके साथ मिलनेके लिये इच्छुक अथवा मित्र सम्मेलनरूप प्रयोजनवाले ॥ ८४ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

६३३. पाण्डवप्रीतिदः पाण्डवोंको प्रीति प्रदान करनेवाले, ६३४. कुन्तिजार्थी कुन्ती और उनके पुत्रोंका अर्थ सिद्ध करनेवाले, ६३५. विशालाक्ष- मोहप्रदः-विशालाक्षको मोहमें डालनेवाले, ६३६. शान्तिदः शान्ति देनेवाले, ६३७. सखी- कोटिभिः गोपिकाभिः सहवटे राधिकाऽऽराधनः- सखीस्वरूप कोटिशः गोपकिशोरियोंके साथ वटके नीचे श्रीराधिकाकी आराधना करनेवाले, ६३८. राधिका- प्राणनाथः- श्रीराधाके प्राणेश्वर ॥ ८५ ॥

६३९. सखीमोहदावाग्निहा सखियोंके मोहरूपी दावानलको नष्ट करनेवाले, ६४०. वैभवेशः वैभवके स्वामी, ६४१. स्फुरत्कोटिकंदर्पलीलाविशेषः कोटि- कोटि कान्तिमान् कामदेवोंसे भी बढ़कर लीला-विशेष प्रकट करनेवाले, ६४२. सखीराधिकादुःखनाशी- सखियोंसहित श्रीराधाके दुःखका नाश करनेवाले, ६४३. विलासी-विलासशाली, ६४४. सखी- मध्यगः सखियोंकी मण्डलीमें विराजमान, ६४५. शापहा- शाप दूर करनेवाले, ६४६. माधवीशः- माधवी श्रीराधाके स्वामी ॥ ८६ ॥

६४७. शतं वर्षविक्षेपहृत्-सौ वर्षोंकी वियोग- व्यथाको हर लेनेवाले, ६४८. नन्दपुत्रः नन्दकुमार, ६४९. नन्दवक्षोगतः नन्दकी गोदमें बैठनेवाले, ६५०. शीतलाङ्गः शीतल शरीरवाले, ६५१. यशोदा- शुचः स्त्रानकृत्-यशोदाजीके प्रेमाश्रुओंसे नहानेवाले, ६५२. दुःखहन्ता दुःख दूर करनेवाले, ६५३. सदा गोपिकानेत्रलग्नः व्रजेशः नित्यनिरन्तर गोपाङ्गनाओंके नेत्रमें बसे रहनेवाले व्रजेश्वर ॥ ८७ ॥

६५४. देवकीरोहिणीभ्यां स्तुतः देवकी और रोहिणीसे संस्तुत, ६५५. सुरेन्द्रः- देवताओंके स्वामी, ६५६. रहो गोपिकाज्ञानदः एकान्तमें गोपिकाओंको ज्ञान देनेवाले, ६५७. मानदः मान देनेवाले अथवा मानका खण्डन करनेवाले, ६५८. पट्टराज्ञीभिः आरात् संस्तुतः धनी-पटरानियोंद्वारा निकट और दूरसे भी संस्तुत परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न, ६५९. सदा लक्ष्मणा- प्राणनाथः सदैव लक्ष्मणाके प्राणवल्लभ ॥ ८८ ॥

६६०. सदा षोडशस्त्रीसहस्त्रस्तुताङ्गः सोलह हजार रानियोंद्वारा जिनके श्रीविग्रहकी सदा स्तुति की गयी है, वे, ६६१. शुकः शुकमुनिस्वरूप, ६६२. व्यासदेवः- व्यासदेवरूप, (इसी प्रकार अन्य ऋषियोंके नामोंमें भी स्वरूप जोड़ लेना चाहिये) ६६३. सुमन्तुः सुमन्तु, ६६४. सितः सित, ६६५. भरद्वाजकः भरद्वाज, ६६६. गौतमः गौतम, ६६७. आसुरिः आसुरि, ६६८. सद्धसिष्ठः- श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि, ६६९. शतानन्दः शतानन्द, ६७०. आद्यः रामः- आद्य रामके रूपमें प्रसिद्ध परशुराम ॥ ८९ ॥

६७१. पर्वतो मुनिः पर्वतमुनि, ६७२. नारदः- नारदमुनि, ६७३. धौम्यः धौम्यमुनि, ६७४. इन्द्र- इन्द्रमुनि, ६७५. असितः असित, ६७६. अत्रिः- अत्रि, ६७७. विभाण्डः विभाण्ड, ६७८. प्रचेताः- प्रचेता, ६७९. कृपः कृप, ६८०. कुमारः- सनत्कुमार, ६८१. सनन्दः सनन्दन, ६८२. याज्ञवल्क्यः-याज्ञवल्क्य, ६८३. ऋभुः ऋभु ६८४. अङ्गिराः अङ्गिरा, ६८५. देवलः देवल, ६८६. श्रीमृकण्डः श्रीमृकण्ड ॥ ९० ॥

६८७. मरीचिः मरीचि, ६८८. क्रतुः क्रतु, ६८९. और्वकः और्व, ६९०. लोमशः- लोमश, ६९१. पुलस्त्यः- पुलस्त्य, ६९२. भृगुः भृगु, ६९३. ब्रह्मरातः ब्रह्मरात, वसिष्ठः वसिष्ठ, ६९४. नरः- नारायणः नर-नारायण, ६९५. दत्तः दत्तात्रेय, ६९६. पाणिनिः व्याकरण-सूत्रकार पाणिनि, ६९७. पिङ्गलः- छन्दः सूत्रकार महर्षि पिङ्गल, ६९८. भाष्यकारः- महाभाष्यकार पतञ्जलि ॥ ९१ ॥

६९९. कात्यायनः वार्तिककार कात्यायन, ७००. विप्रपातञ्जलिः ब्राह्मण पतञ्जलि, ७०१. गर्ग:- यदुकुलके आचार्य गर्ग, ७०२. गुरुः बृहस्पति, ७०३. गीष्पतिः वाचस्पति बृहस्पति, ७०४. गौतमीशः- गौतमीके स्वामी, ७०५. मुनिः जाजलिः महर्षि जाजलि, ७०६. कश्यपः कश्यप, ७०७. गालवः- गालव, ७०८. द्विजः सौभरिः ब्रह्मर्षि सौभरि, ७०९. ऋष्यशृङ्गः ऋष्यशृङ्ग, ७१०. कण्वः कण्व ॥ ९२ ॥

७११. द्वितः द्वित, ७१२. एकतः एकत, ७१३. जातूद्भवः जातूकर्ण्य, ७१४. घनः घन, कर्दमस्य-आत्मजः कर्दमपुत्र कपिल, ७१५. ७१६. कर्दमः कपिलके पिता महर्षि कर्दम, ७१७. भार्गवः- भृगुपुत्र च्यवन, ७१८. कौत्स्यः- कौत्स्य, ७१९. आरुणिः आरुणि, ७२०. शुचिः पिप्पलादः पवित्र पिप्पलाद मुनि, ७२१. मृकण्डस्य पुत्रः- मार्कण्डेय ॥ ९३ ॥

७२२. पैलः पैल, ७२३. जैमिनिः जैमिनि, ७२४. सत् सुमन्तुः सत्सुमन्तु, ७२५. वरो गाङ्गलः- श्रेष्ठ गाङ्गल मुनि, ७२६. स्फोटगेहः फलादः फल खानेवाले स्फोटगेह, ७२७. सदापूजितः ब्राह्मणः- नित्यपूजित ब्राह्मणस्वरूप, ७२८. सर्वरूपी सर्व- रूपधारी, ७२९. महामोहनाशः मुनीशः महान् मोहका नाश करनेवाले मुनीश्वर, ७३०. प्रागमरः- पूर्वदेवता जो उपेन्द्रावतारमें देवतारूपमें थे ॥ ९४ ॥

संस्तुत, ७३१. मुनीशस्तुतः मुनीश्वरोंद्वारा ७३२. शौरिविज्ञानदाता वसुदेवजीको ज्ञान देनेवाले, ७३३. महायज्ञकृत्-महान् यज्ञ करनेवाले, ७३४. आभृथस्त्रानपूज्यः यज्ञान्तमें किये जानेवाले अवभृथखानके द्वारा पूजनीय, ७३५. सदा दक्षिणादः सदा दक्षिणा देनेवाले, ७३६. नृपैः पारिबर्डी-राजाओंसे भेंट लेनेवाले, ७३७. व्रजानन्ददः- व्रजको आनन्द देनेवाले, ७३८. द्वारका गेहदर्शी- द्वारकापुरीके भवनोंको देखनेवाले ॥ ९५ ॥

७३९. महाज्ञानदः महान् ज्ञान प्रदान करनेवाले, ७४०. देवकीपुत्रदः देवकीको उनके मरे हुए पुत्र लाकर देनेवाले, ७४१. असुरैः पूजितः असुरोंसे पूजित, ७४२. इन्द्रसेनादृतः राजा बलिसे सम्मानित, ७४३. सदाफाल्गुनप्रीतिकृत्-अर्जुनसे सदा प्रेम करनेवाले, ७४४. सत्सुभद्राविवाहे द्विपाश्वप्रदः- सुभद्राके शुभ विवाहमें दहेजके रूपमें हाथी, घोड़े देनेवाले, ७४५. मानयानः वरपक्षको सम्मानित करनेवाले अथवा मानयुक्त वाहन अर्पित करनेवाले ॥ ९६ ॥

७४६. भुवं दर्शकः भूमण्डलको देखने और दिखानेवाले, ७४७. मैथिलेन प्रयुक्तः मिथिलापति राजा बहुलाश्च तथा मिथिलानिवासी ब्राह्मण श्रुतदेवसे एक ही समय दर्शन देनेके लिये प्रार्थित, ७४८. आशु ब्राह्मणैः सह राज्ञा स्थितः ब्राह्मणैश्च स्थितः उसी क्षण एक ही साथ राजा बहुलाश्वके साथ विराजमान तथा श्रुतदेव ब्राह्मणके साथ ब्राह्मणोंमें विराजमान, ७४९. मैथिले कृती मैथिल राजा और मैथिल ब्राह्मणके प्रति कर्तव्यका पालन करनेवाले, ७५०. लोकवेदोपदेशी लोक और वेदका उपदेश करनेवाले, ७५१. सदा वेदवाक्यैः स्तुतः सदा वेदवचनोंद्वारा स्तुत, ७५२. शेषशायी शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले ॥ ९७ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

७५३. अमरेषु ब्राह्मणैः परीक्षावृतः भृगु आदि ब्राह्मणोंने परीक्षा करके सब देवताओंमें श्रेष्ठरूपसे जिनका वरण किया है, ७५४. भृगुप्रार्थितः भृगुसे प्रार्थित, ७५५. दैत्यहा दैत्यनाशक, ७५६. ईशरक्षी- भस्मासुरको भस्म करके शिवजीकी रक्षा करनेवाले, ७५७. अर्जुनस्य सखा अर्जुनके ७५८. अर्जुनस्यापि मानप्रहारी अर्जुनका भी अभिमान भङ्ग करनेवाले, ७५९. विप्रपुत्रप्रदः ब्राह्मणको पुत्र प्रदान करनेवाले, ७६०. धामगन्ता ब्राह्मणके पुत्रोंको लानेके लिये अपने दिव्यधाममें जानेवाले ॥ ९८ ॥

७६१. माधवीभिर्विहारस्थितः अपनी भार्या स्वरूपा मधुकुलकी स्त्रियोंके साथ समुद्रमें जल विहार करनेवाले, ७६२. कलाङ्गः कलाएँ जिनके अङ्ग हैं, वे, ७६३. महामोहदावाग्निदग्धाभिरामः महामोहमय दावानलसे दग्ध (नष्ट) हुए लोगोंके भी मनको आकर्षित करनेवाले, ७६४. यदुः उग्रसेनः नृपः यदु, उग्रसेन, नृपति, ७६५. अक्रूरः अक्रूर अथवा क्रूरता- रहित, ७६६. उद्धवः उद्धव अथवा उत्सवरूप, ७६७. शूरसेनः शूरसेन, ७६८. शूरः शूर ॥ ९९ ॥

७६९. हृदीकः कृतवर्माक पिता हृदीक (समस्त यादव भगवत्स्वरूप या भगवान की विभूति हैं, इसलिये इन नामोंमें इनकी गणना की गयी है), ७७०. सत्राजितः- सत्राजित्, ७७१. अप्रमेयः प्रमाणातीत, ७७२. गदः- बलरामजीके छोटे भाई गद, ७७३. सारणः सारण, ७७४. सात्यकिः सत्यकपुत्र, ७७५. देवभागः देवभाग, ७७६. मानसः मानस, ७७७. संजयः संजय, ७७८. श्यामकः श्यामक, ७७९. वृकः वृक, ७८०. वत्सकः वत्सक, ७८१. देवकः देवक, ७८२. भद्रसेनः भद्रसेन ॥ १०० ॥

जय ७८३. नृप अजातशत्रुः- राजा युधिष्ठिर, ७८४. जयः- (अर्जुन), ७८५. माद्रीपुत्रः- नकुल- सहदेव, ७८६. भीष्मः दुर्योधन आदिके पितामह देवव्रत, ७८७. कृपः कृपाचार्य, ७८८. बुद्धिचक्षुः प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र, ७८९. पाण्डुः पाण्डवोंके पिता राजा पाण्डु, ७९०. शांतनुः भीष्मके पिता राजा शांतनु, ७९१. देवो बाह्लीकः देवस्वरूप बाह्रीक, ७९२. भूरिश्रवाः= भूरिश्रवा, ७९३. चित्रवीर्यः विचित्रवीर्य, ७९४. विचित्रः विचित्र या चित्राङ्गद ॥ १०१ ॥

७९५. शलः-शल, ७९६. दुर्योधनः जिसके साथ युद्ध करना कठिन हो, वह राजा दुर्योधन, ७९७. कर्ण:- कर्ण, ७९८. सुभद्रासुतः सुभद्राकुमार अभिमन्यु, ७९९. प्रसिद्धः विष्णुरातः भगवान् श्रीकृष्णने जिन्हें जीवनदान दिया था, वे सुप्रसिद्ध राजा परीक्षित्, ८००. जनमेजयः परीक्षित्के पुत्र राजा जनमेजय, ८०१. पाण्डवः पाँचों पाण्डव, ८०२. कौरवः- कुरुकुलमें उत्पन्न क्षत्रियसमुदाय, ८०३. सर्वतेजाः हरिः-सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न एवं भक्तोंके चित्तका हरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, ८०४. सर्वरूपी- सर्वस्वरूप ॥ १०२ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

राधया व्रजं ह्यागतः श्रीराधाके साथ व्रजमें अवतीर्ण, ८०५. पूर्णदेवः परिपूर्णतम परमात्मा, ८०६. वरः सबके वरणीय, ८०७. रासलीलापरः- रासक्रीडापरायण, ८०८. दिव्यरूपी दिव्य रूपवाले, ८०९. रथस्थः रथपर विराजमान, ८१०. नवद्वीप- खण्डप्रदर्शी-जम्बूद्वीपके नौ खण्डोंको देखने-दिखाने- वाले, ८११. महामानदः बहुत सम्मान देनेवाले अथवा महामानका खण्डन करनेवाले, ८१२. गोपजः- गोपनन्दन, ८१३. विश्वरूपः स्वयं ही विश्वके रूपमें प्रकाशमान ॥ १०३ ॥

८१४. सनन्दः सनन्द, ८१५. नन्दः नन्द, ८१६. वृषः वृषभानु, ८१७. वल्लवेशः गोपेश्वर, ८१८. सुदामा ‘श्रीदामा’ नामक गोप, ८१९. अर्जुनः अर्जुन गोप, ८२०. सौबलः सुबल, ८२१. सकृष्णः स्तोकः स्तोककृष्ण, ८२२. अंशुकः अंशुक, ८२३. सद्विशालर्षभाख्यः विशाल और ऋषभ नामक दो सखाओंवाले, ८२४. सुतेजस्विकः श्रेष्ठ तेजस्वी, ८२५. कृष्णमित्रो वरूथः श्रीकृष्णके सखा वरूथ ॥ १०४ ॥

८२६. कुशेशः कुशेश्वर, ८२७. बनेशः वनेश्वर, ८२८. वृन्दावनेशः वृन्दावनेश्वर, ८२९. माथुरे- शाधिपः मथुरामण्डलके राजाधिराज, ८३०. गोकुलेशः गोकुलके स्वामी, ८३१. सदा गोगणः- सदा गौओंके समुदायके साथ रहनेवाले, ८३२. गोपतिः गोस्वामी, ८३३. गोपिकेशः गोपाङ्गना- वल्लभ, ८३४. गोवर्धनः गौओंकी वृद्धि करनेवाले; गिरिराज गोवर्धन अथवा गोवर्धन नामधारी गोप, ८३५. गोपतिः गौओंके पालक, ८३६. कन्यकेशः- गोपकिशोरियोंके प्राणवल्लभ ॥ १०५ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

८३७. अनादिः जिनका कोई आदिकारण नहीं तथा जो सबके आदि हैं, वे, ८३८. आत्मा अन्तर्यामी परमात्मा, ८३९. हरिः श्यामवर्ण श्रीकृष्ण, ८४०. परः पूरुषः परम पुरुष, ८४१. निर्गुणः प्राकृत गुणोंसे अतीत, ८४२. ज्योतिरूपः ज्योतिर्मय विग्रहवाले, ८४३. निरीहः चेष्टा या कामनासे रहित, ८४४. सदा निर्विकारः सतत विकारशून्य, ८४५. प्रपञ्चात्परः- सकल दृश्य-प्रपञ्चसे परे विराजमान, ८४६. ससत्यः- अथवा सत्या-सत्यभामासे संयुक्त, सत्ययुक्त ८४७. पूर्णः परिपूर्ण, ८४८. परेशः परमेश्वर, ८४९. सूक्ष्मः सूक्ष्मस्वरूप ॥ १०६ ॥

८५०. द्वारकायां नृपेण अश्वमेधस्य कर्ता- द्वारकामें राजा उग्रसेनके द्वारा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले, ८५१. अपि पौत्रेण भूभारहर्ता-पुत्र एवं पौत्रके सहयोगसे भूमिका भार उतारनेवाले, ८५२. पुनः श्रीव्रजे राधया रासरङ्गस्य कर्ता हरिः- पुनः श्रीव्रजमें श्रीराधिकाके साथ रास-रङ्ग करनेवाले श्रीहरि, ६५३. गोपिकानां च भर्ता श्रीराधा तथा अन्य गोपकिशोरियोंके पति ॥ १०७ ॥

८५४. सदैकः सदा एकमात्र अद्वितीय, ८५५. अनेकः अनेक रूपोंमें प्रकट, ८५६. प्रभापूरिताङ्गः प्रकाशपूर्ण अङ्गवाले, ८५७. योगमायाकरः योगमायाके उद्भावक, ८५८. कालजित्-कालविजयी, ८५९. सुदृष्टिः उत्तम दृष्टिवाले, ८६०. महत्तत्त्वरूपः- महत्तत्त्वस्वरूप, ८६१. प्रजातः उत्कृष्ट अवतारधारी, ८६२. कूटस्थः- कूटस्थ (निर्विकार), ८६३. आद्याङ्करः विश्ववृक्षके प्रथम अङ्कुर, ब्रह्मा, ८६४. वृक्षरूपः विश्ववृक्षरूप ॥ १०८ ॥

८६५. विकारस्थितः विकारों (कार्यों) में भी कारणरूपसे विद्यमान, ८६६. वैकारिकस्तैजसस्तामसश्च अहंकारः वैकारिक, तैजस और तामस (अथवा सात्त्विक, राजस, तामस) त्रिविध अहंकाररूप, ८६७. नभः आकाशस्वरूप, ८६८. दिक्-दिशास्वरूप, ८६९. समीरः वायुरूप, ८७०. सूर्यः सूर्यस्वरूप, ८७१. प्रचेतोऽश्विवह्निः वरुण, अश्विनीकुमार एवं अग्निस्वरूप, ८७२. शक्रः इन्द्र, ८७३. उपेन्द्रः भगवान् वामन, ८७४. मित्रः-मित्रदेवता ॥ १०९ ॥

८७५. श्रुतिः-श्रवणेन्द्रिय ८७६. त्वक् त्वगिन्द्रिय, ८७७. घ्राणः नासिकेन्द्रिय, दृक्-नेत्रेन्द्रिय, ८७९. ८७८. जिह्वा-रसनेन्द्रिय, ८८०. गिरः वागिन्द्रिय, ८८१. भुजा हस्तस्वरूप, ८८२. मेढरक: जननेन्द्रियरूप, ८८३. पायुः ‘पायु’ नामक कर्मेन्द्रिय (गुदा) रूप, ८८४. अङ्घ्रिः ‘चरण’ नामक कर्मेन्द्रियरूप, ८८५. सचेष्टः चेष्टाशील, ८८६.धरा-पृथ्वी, ८८७. व्योम-आकाश, ८८८. वाः- जल, ८८९. मारुतः वायु, ८९०. तेजः अग्रि (पञ्चभूतरूप), ८९१. रूपम् रूप, ८९२. रसः- रस, ८९३. गन्धः गन्ध ८९४. शब्दः शब्द, ८९५. स्पर्शः स्पर्श-विषयरूप ॥ ११०॥

८९६. सचित्तः चित्तयुक्त, ८९७. बुद्धिः बुद्धि, ८९८. विराट् विराट्, ८९९. कालरूपः काल- स्वरूप, ९००. वासुदेवः सर्वव्यापी भगवान्, ९०१. जगत्कृत्-संसारके स्रष्टा, ९०२. अण्डेशयानः- ब्रह्माण्डके गर्भमें शयन करनेवाले ब्रह्माजी, ९०३. सशेषः शेषके साथ रहनेवाले (अर्थात् शेष- शय्याशायी), ९०४. सहस्त्रस्वरूपः सहस्त्रों स्वरूप धारण करनेवाले, ९०५. रमानाथः लक्ष्मीपति, ९०६. आद्योऽवतारः ब्रह्मारूपमें जिनका प्रथम बार अवतार हुआ, वे श्रीहरि ॥ १११ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

९०७. सदा सर्गकृत्-विधाताके रूपमें सदा सृष्टि करनेवाले, ९०८. पद्मजः दिव्य कमलसे उत्पन्न ब्रह्मा, ९०९. कर्मकर्ता निरन्तर कर्म करनेवाले, ९१०. नाभिपद्मोद्भवः नारायणके नाभिकमलसे प्रकट ब्रह्मा, ९११. दिव्यवर्णः दिव्य कान्तिसे सम्पन्न, ९१२. कविः त्रिकालदर्शी अथवा विश्वरूप काव्यके निर्माता आदिकवि, ९१३. लोककृत्-जगत्स्रष्टा, ९१४. कालकृत्-कालके निर्माता, ९१५. सूर्यरूपः- सूर्यस्वरूप, ९१६. अनिमेषः निमेषरहित, ९१७. अभवः- जन्मरहित, ९१८. वत्सरान्तः संवत्सरके लयस्थान ९१९.
महीयान् महान्से भी अत्यन्त महान् ॥ ११२ ॥

९२०. तिथिः तिथिस्वरूप, ९२१. वारः-दिन, ९२२. नक्षत्रम्-नक्षत्र, ९२३. योगः योग, ९२४. लग्न: लग्नस्वरूप, ९२५. मासः मासस्वरूप, ९२६. घटी-अर्धमुहूर्तरूप, ९२७. क्षणः क्षणरूप, ९२८. काष्ठिका काष्ठा, ९२९. मुहूर्तः दो घड़ीका समय, ९३०. यामः प्रहर, ९३१. ग्रहाः ग्रहस्वरूप, ९३२. यामिनी रात्रिरूप, ९३३. दिनम् दिनरूप, – ९३४. ऋक्षमालागतः नक्षत्रपङ्क्तियोंमें गमन करने- वाले ग्रहरूप, ९३५. देवपुत्रः वसुदेवनन्दन ॥ ११३ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

९३६. कृतः सत्ययुगरूप, ९३७. त्रेतयाः त्रेता ९३८. द्वापरः द्वापररूप, ९३९. असौकलिः- यह कलियुग, ९४०. युगानां सहस्त्रम् सहस्रचतुर्युग (ब्रह्माजीका एक दिन), ९४१. मन्वन्तरम् मन्वन्तर- काल, ९४२. लयः संहाररूप, ९४३. पालनम्- पालनकर्मस्वरूप, ९४४. सत्कृतिः उत्तम सृष्टिरूप, ९४५. परार्द्धम् परार्द्धकालरूप, ९४६. सदोत्पत्तिकृत्-सदा सृष्टि करनेवाले, ९४७. द्वयक्षरः ब्रह्मरूपः दो अक्षरवाला ‘ कृष्ण’ नामक ब्रह्मस्वरूप ॥ ११४ ॥

९४८. रुद्रसर्गः रुद्रसर्ग, ९४९. कौमारसर्गः- कौमारसर्ग, ९५०. मुनेः सर्गकृत्-मुनिसर्गके कर्ता, ९५१. देवकृत्-देवसर्गक रचयिता, ९५२. प्राकृतः- प्राकृतसर्गरूपी, ९५३. श्रुतिः वेद, ९५४. स्मृतिः- धर्मशास्त्र, ९५५. स्तोत्रम्-स्तुति, ९५६. पुराणम्-पुराण, ९५७. धनुर्वेदः धनुर्वेद, ९५८. इज्या यज्ञ, ९५९. गान्धर्ववेदः गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) ॥ ११५ ॥

९६०. विधाता ब्रह्मा, ९६१. नारायणः विष्णु, ९६२. सनत्कुमारः सनत्कुमार आदि, ९६३. वराहः- वराहावतार, नारदः देवर्षि नारदरूप, ९६४. धर्मपुत्रः- धर्मके पुत्र नर-नारायण आदि, ९६५. मुनिः कर्दमस्यात्मजः कर्दमकुमार कपिल मुनि, ९६६. सयज्ञो दत्तः यज्ञस्वरूप और दत्तात्रेय, ९६७. अमरो नाभिजः- अविनाशी ऋषभदेव, ९६८. श्रीपृथुः श्रीमान् राजा पृथु ॥ ११६ ॥

९६९. सुमत्स्यः- सुन्दर मस्त्यावतार, ९७०. कूर्म:- कच्छपावतार, ९७१. धन्वन्तरिः धन्वन्तरि अवतार, ९७२. मोहिनी मोहिनी नारीका अवतार, ९७३. प्रतापी नारसिंहः प्रतापी नृसिंहावतार, ९७४. द्विजो वामनः- ब्राह्मणजातीय वामनावतार, ९७५. रेणुकापुत्ररूपः- परशुरामरूप, ९७६. श्रुतिस्तोत्रकर्ता मुनिः व्यासदेवः- वेदोंके विभाजक तथा स्तोत्र आदिके निर्माता मुनिवर व्यासदेव ॥ ११७ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

९७७. धनुर्वेदभाग् रामचन्द्रावतारः- धनुर्वेदके ज्ञाता श्रीरामचन्द्रावतार, ९७८. सीतापतिः जनकनन्दिनी सीताके पति, ९७९. भारहत्-भूभार हरण करनेवाले, ९८०. रावणारिः रावणके शत्रु, ९८१. नृपः सेतुकृत् समुद्रपर पुल बाँधनेवाले नरेश, ९८२. वानरेन्द्रप्रहारी वानरराज (बालि) को मारनेवाले, ९८३. महायज्ञकृत्-महान् अश्वमेध यज्ञ करनेवाले श्रीराम, ९८४. प्रचण्डः राघवेन्द्रः प्रचण्ड- पराक्रमी रघुनाथजी ॥ ११८ ॥

९८५. बलः कृष्णचन्द्रः बलरामसहित साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण, ९८६. कल्किः ‘कल्कि’ नामक अवतार, कलेशः कलाओंके स्वामी, ९८७. प्रसिद्धो बुद्धः प्रसिद्ध बुद्धावतार, ९८८. हंसः हंसावतार, ९८९. अश्वः हयग्रीवावतार, ९९०० ऋषीन्द्रोऽजितः ऋषिप्रवर पुलहपुत्र अजित, ९९१. देववैकुण्ठनाथः देवलोक तथा वैकुण्ठलोकके अधिपति, ९९२. अमूर्तिः निराकार, ९९३. मन्वन्तरस्यावतारः मन्वन्तरावतार ॥ ११९ ॥

९९४. गजोद्धारणः गज और ग्राहके युद्धमें हाथीको उबारनेवाले हरि-अवतार, ९९५. ब्रह्मपुत्रः श्रीमनुः ब्रह्माजीके पुत्र श्रीस्वायम्भुव मनु, ९९६. दानशीलः दानशील, ९९७. दुष्यन्तजो नृपेन्द्रः- दुष्यन्तकुमार महाराज भरत, ९९८. संदृष्टः श्रुतः भूतः एवं भविष्यत् भवत् दृष्ट, श्रुत, भूत, भविष्यत् एवं वर्तमानस्वरूप, ९९९. स्थावरो जङ्गमः स्थावरजङ्गमरूप, १०००. अल्पं च महत् अल्प और महान् ॥ १२० ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

इस प्रकार श्रीभुजङ्गप्रयात छन्दमें कहे गये राधिकावल्लभ श्रीकृष्णके सहस्रनामोंका जो द्विज सर्वदा भक्तिभावसे पाठ करता है, वह कृतार्थ एवं श्रीकृष्णस्वरूप हो जाता है। यह श्रवणमात्रसे बहुत बड़ी पापराशिका भेदन कर डालता है। वैष्णवोंके लिये तो यह सदा प्रिय तथा मङ्गलकारी है। आश्विन मासकी रासपूर्णिमाके दिन, श्रीकृष्णकी जन्माष्टमीमें, चैत्रकी रासपूर्णिमाके दिन तथा भाद्रपद मासमें राधाष्टमीके दिन जो भक्तियुक्त पुरुष इस सहस्रनामका पूजन करके पाठ करता है, वह प्रशस्त होकर चारों प्रकारके मोक्षसुखका अनुभव करता है। जो श्रीकृष्णपुरी मथुरामें, वृन्दावनमें ब्रजमें, गोकुलमें, वंशीवटके निकट, अक्षयवटके पास अथवा सूर्यपुत्री यमुनाके तटपर इस सहस्रनामका पाठ करता है, वह भक्त पुरुष गोलोकधाममें जाता है। जो भूमण्डलमें, सर्वत्र, किसी भी स्थानमें, घरमें या वनमें भक्तिभावसे इस स्तोत्रके पाठद्वारा भगवान का भजन करता है, उस भक्तको भगवान् श्रीहरि एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ते। श्रीकृष्णचन्द्र माधव उसके वशीभूत हो जाते हैं। भक्त पुरुषोंके लिये यह सहस्रनामस्तोत्र प्रयत्नपूर्वक सदा गोपनीय है, सदा गोपनीय है, सदा गोपनीय है। यह न तो सबके समक्ष प्रकाशनके योग्य है और न कभी किसी लम्पटको इसका उपदेश ही देना चाहिये। इस सहस्रनामकी पुस्तक जिस घरमें भी रहती है, वहाँ राधिकानाथ आदिपुरुष श्रीकृष्ण सदा निवास करते हैं तथा उस घरमें छहों गुण और बारहों सिद्धियाँ तीसों शुभलक्षणात्मक गुणोंके साथ स्वयं पहुँच जाती हैं॥ १२१-१२७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘श्रीकृष्णसहस्रनामका वर्णन’
नामक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गोविंद स्तोत्रम

साठवाँ अध्याय

कौरवों के संहार, पाण्डवों के स्वर्गगमन तथा यादवों के संहार आदिका संक्षिप्त वृत्तान्तः
श्रीराधा तथा व्रजवासियों सहित भगवान श्रीकृष्ण का गोलोकधाम में गमन

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । व्यासजीके मुखसे इस प्रकार श्रीकृष्णसहस्रनामका निरूपण सुनकर यादवेन्द्र उग्रसेनने उनकी पूजा करके भगवान् श्रीकृष्णमें भक्तिपूर्वक मन लगाया ॥ १ ॥

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने मिथिला में जाकर राजा बहुलाश्च तथा श्रुतदेवको दर्शन दिया। इसके बाद वे द्वारकापुरीको लौट आये। तत्पश्चात् समस्त पाण्डव अपनी पत्नी द्रौपदीके साथ द्वारकासे निकलकर वन-वनमें विचरने लगे। नरेश्वर। वनवास और अज्ञातवासका कष्ट भोगकर वे सब सेनासहित विराट- नगरमें एकत्र हुए। इधर श्रीकृष्णके प्रार्थना करनेपर भी समस्त कौरवोंने पाण्डवोंको उनके राज्यके आधेके- आधेका आधा भी नहीं दिया। तब पाण्डवों और कौरवोंमें युद्ध होना अनिवार्य हो गया। यह जानकर श्रीकृष्णने हथियार न उठानेकी प्रतिज्ञा कर ली और बलरामजी तीर्थयात्राको चले गये। उसी यात्रामें उन्होंने रोमहर्षण सुत और बल्वलको मार डाला। इसके बाद समस्त कौरव और पाण्डव धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें प्रविष्ट हो परस्पर युद्ध करने लगे। श्रीकृष्णकी कृपासे पाण्डवोंकी विजय हुई तथा पापी और अपराधी सब कौरव महाभारत युद्धमें मारे गये ॥ २-८ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

नरेश्वर। तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने नौ वर्षोंतक राज्य किया। इस बीचमें उन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञ किये, जिससे वे ज्ञाति-बन्धुओंके वधके दोषसे शुद्ध हुए। राजन् ! इसके बाद एक दिन द्वारकामें श्रीकृष्णकी इच्छासे ही समस्त यादवोंके लिये ब्रह्मर्षियोंका महान् शाप प्रास हुआ। शापके पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने शरणागत भक्त उद्धवको अश्वत्थवृक्षके नीचे परम उत्तम श्रीमद्भागवतधर्मका उपदेश दिया। कुछ दिनोंके बाद यादवोंमें परस्पर संग्राम छिड़ गया। वे प्रभासक्षेत्रमें नाना प्रकारके शस्त्रोंद्वारा एक-दूसरेपर प्रहार करके मारे गये। बलरामजी मानव शरीरको छोड़कर अपने धामको चले गये। वहाँ देवताओंको आया देख श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। व्रजमें जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियोंसहित गोपोंसे मिले और उन प्रेमी भगवान्ने अपने प्रियजनोंसे प्रेमपूर्वक इस प्रकार कहा ॥ ९-१४॥

श्रीकृष्ण बोले- नन्द और यशोदे! अब तुम मुझमें पुत्रबुद्धि छोड़कर समस्त गोकुलवासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोकको जाओ। अब आगे सबको दुःख देनेवाला घोर कलियुग आयेगा, जिसमें मनुष्य प्रायः पापी हो जायेंगे; इसमें संशय नहीं है। उस समय परस्पर सम्पर्क स्थापित करनेके लिये स्त्री-पुरुषका तथा – वर्णका कोई नियम नहीं रह जायगा। इसलिये जरा और मृत्युको हर लेनेवाले मेरे उत्तम गोलोकमें तुमलोग शीघ्र चले जाओ ॥ १५-१७ ॥

श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गौलोकसे एक परम अद्भुत रथ उतर आया, जिसे गोपोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ देखा। उसका विस्तार पाँच योजनका था और ऊँचाई भी उतनी ही थी। वह वज्रमणि (हीरे) के समान निर्मल और मुक्ता रत्नोंसे विभूषित था। उसमें नौ लाख मन्दिर थे और उन घरोंमें मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्रका आच्छादन (परदा) पड़ा था। करोड़ों सखियाँ उसे घेरे हुए थीं ॥ १८-२०॥

राजन् ! इसी समय श्रीकृष्णके शरीरसे करोडों कामदेवोंके समान सुन्दर चार भुजाधारी ‘श्रीविष्णु’ प्रकट हुए, जिन्होंने शङ्ख और चक्र धारण कर रखे थे। वे जगदीश्वर श्रीमान् विष्णु लक्ष्मीके साथ एक सुन्दर रथपर आरूढ़ हो शीघ्र ही क्षीरसागरको चल दिये। इसी प्रकार ‘नारायण’ रूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मीके साथ गरुडपर बैठकर वैकुण्ठधामको चले गये। नरेश्वर। इसके बाद श्रीकृष्ण हरि ‘नर और नारायण’- दो ऋषियोंके रूपमें अभिव्यक्त हो मानवोंके कल्याणार्थ बदरिकाश्रमको गये ॥ २१-२४ ॥

तदनन्तर साक्षात् परिपूर्णतम जगत्पति भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधाके साथ गोलोकसे आये हुए रथपर आरूढ़ हुए। नन्द आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजाङ्गनाएँ सब के सब वहाँ भौतिक शरीरोंका त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गये। तब गोपाल भगवान् श्रीहरि नन्द आदिको उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुलके साथ शीघ्र ही गोलोकधामको चले गये। ब्रह्माण्डोंसे बाहर जाकर उन सबने विरजा नदीको देखा। साथ ही शेषनागकी गोदमें महालोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुःखोंका नाशक तथा परम सुखदायक है ॥ २५-२८ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

उसे देखकर गोकुलवासियोंसहित श्रीकृष्ण उस रथसे उतर पड़े और श्रीराधाके साथ अक्षयवटका दर्शन करते हुए उस परमधाममें प्रविष्ट हुए। गिरिवर शतशृङ्ग तथा श्रीरासमण्डलको देखते हुए वे कतिपय द्वारोंसे सुशोभित श्रीमवृन्दावनमें गये, जो बारह वनोंसे संयुक्त तथा कामपूरक वृक्षोंसे भरा हुआ था। यमुना नदी उसे छूकर वह रही थी। वसन्त ऋतु और मलयानिल उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ फूलोंसे भरे कितने ही कुञ्ज और निकुञ्ज थे। वह वन गोपियों और गोपोंसे भरा था। जो पहले सूना-सा लगता था, उस श्रीगोलोकधाममें श्रीकृष्णके पधारनेपर जय-जयकारकी ध्वनि गूंज उठी ॥ २९-३३ ॥

तदनन्तर द्वारकामें यदुकुलकी पत्नियाँ-देवकी आदि सभी स्त्रियाँ दुःखसे व्याकुल हो चितापर चढ़कर पतिलोकको चली गयीं। जिनके गोत्र नष्ट हो गये थे, उन यादव-बन्धुओंका पारलौकिक कृत्य अर्जुनने किया। वे गीताके ज्ञानसे अपने मनको शान्त करके बड़े दुःखसे सबका अन्त्येष्टि-संस्कार कर सके। जब अर्जुनने अपने निवासस्थान हस्तिनापुरमें जाकर राजा युधिष्ठिरको यह सब समाचार बताया तब वे पत्नी और भाइयोंके साथ स्वर्गलोकको चले गये ॥ ३४-३६ ॥

नृपश्रेष्ठ ! इधर समुद्रने रैवतक पर्वतसहित श्रीरुक्मिणीवल्लभ श्रीकृष्णके निवास गृहको छोड़ शेष सारी द्वारकापुरीको अपने जलमें डुबाकर आत्मसात् कर लिया। आज भी द्वारकाके समुद्रमें श्रीहरिका यह घोष सुनायी पड़ता है कि ‘ब्राह्मण विद्यावान् हो या विद्याहीन, वह मेरा ही शरीर है’ (अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनुः) ॥ ३७-३८ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

कलियुगके प्रारम्भिक कालमें ही श्रीहरिके अंशावतार विष्णुस्वामी महासागरमें जाकर श्रीहरिकी प्रतिमाको प्रास करेंगे और द्वारकापुरीमें उसकी स्थापना कर देंगे। नृपेश्वर! कलियुगमें उन द्वारकानाथका जो मनुष्य वहाँ जाकर दर्शन करते हैं, वे सब कृतार्थ हो जाते हैं। जो श्रीहरिके गोलोकधाम पधारनेका चरित्र सुनते हैं तथा यादवों और गोपोंकी मुक्तिका वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं॥ ३९-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘श्रीराधा और श्रीकृष्णका गोलोकारोहण’
नामक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६०॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

इकसठवाँ अध्याय

भगवान के श्यामवर्ण होनेका रहस्य; कलियुगकी पापमयी प्रवृत्ति; उससे बचनेके
लिये श्रीकृष्णकी समाराधना तथा एकादशी व्रतका माहात्म्य

वज्रनाभने पूछा- ब्रह्मन् ! नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण तो प्रकृतिसे परे हैं, फिर उनका रूप श्याम कैसे हुआ? यह मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। विप्रवर ! आप-जैसे मुनि श्रीकृष्णदेव श्रीहरिके चरित्रको जैसा जानते हैं, वैसा हम-जैसे लोग कर्मसे मोहित होनेके कारण नहीं जान पाते ॥ १-२॥

सूतजी कहते हैं- मुने! वज्रनाभका यह वचन सुनकर उनसे प्रशंसित हो, उन तत्त्वज्ञ तथा कृपालु मुनिने तत्त्वज्ञान करानेके लिये इस प्रकार कहा ॥ ३॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

गर्गजी बोले- राजन् ! ‘शृङ्गाररस’ का रूप भरतादि मुनीश्वरोंने ‘श्याम’ बताया है। उसके देवता श्रीकृष्ण हैं। लावण्यकी राशि तथा उज्ज्वल होनेके कारण श्रीहरिका सुन्दर रूप उस तरह श्याम है, जैसे मेघोंकी घटाका रूप दूरसे श्याम दिखायी देता है, जैसे नदका जल कुण्डविशेषमें श्याम दृष्टिगोचर होता है तथा जैसे महान् आकाशका रूप श्यामल प्रतीत होता है; परंतु जल या आकाश उज्ज्वल ही है, कृष्णवर्ण कदापि नहीं है। इसी प्रकार उज्ज्वल लावण्यसिन्धु श्रीकृष्ण श्यामसुन्दर दिखायी देते हैं। जैसे उत्कृष्ट श्वेत वस्त्रमें दूसरेको भावनानुसार श्याम आभा दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार करोड़ों कामदेवोंकी लीलाका आधार होनेके कारण संतजन श्रीहरिका श्यामरूप बताते हैं॥४-६ ॥

वज्रनाभने पूछा- मुनिश्रेष्ठ। आपके इस वचनसे मेरे मनका संदेह दूर हो गया। ब्रह्मन् ! अब आगे चलकर भूतलपर घोर कलियुग आनेवाला है। मुने ! उसमें मनुष्य कैसे होंगे, यह बताइये! आप भविष्यको भी जानते हैं; अतः मैं आपसे पूछता हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ ॥७-८॥

श्रीगर्गजीने कहा- राजन् ! कलियुगके दस हजार वर्ष बीतनेतक भगवान् जगन्नाथ भूतलपर स्थित रहते हैं (उसके बाद सर्वत्र विद्यमान होते हुए भी अविद्यमानकी भाँति उसके ऊपर नियंत्रण करना छोड़ देते हैं)। उसके आधे समय (पाँच हजार वर्ष) तक गङ्गाजीके जलमें उसकी अधिष्ठात्री देवी गङ्गाका निवास रहेगा। उसके आधे समय (ढाई हजार वर्षों) तक ग्रामदेवता रहेंगे (उसके बाद उनका प्रभाव कम हो जायगा)। तदनन्तर कलिसे मोहित होकर सब लोग पापी हो जायेंगे; अतः नरकोंमें गिरेंगे। सबकी आयु बहुत कम हो जायगी। ब्राह्मण ब्राह्मणसे मूल्य लेकर उसे अपनी कन्या देंगे। क्षत्रियलोग अत्यन्त लोलुप होकर अपनी पुत्रीको मार डालेंगे। वैश्य ब्राह्मणके धनका हरण करनेमें तत्पर हो झूठा व्यापार करेंगे। शूद्रलोग म्लेच्छोंके सङ्गसे ब्राह्मणोंको दूषित करेंगे। ब्राह्मण शास्त्रज्ञानसे शून्य, क्षत्रिय राज्याधिकारसे वञ्चित, वैश्य निर्धन तथा शूद्र अपने स्वामीको दुःख देनेवाले होंगे। सब लोग धर्म-कर्मसे दूर रहकर दिनमें ही मैथुन करेंगे। स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी और पुरुष योनिलम्पट होंगे। देवताओं, पितरों तथा ऋत्विजोंका, भगवान् विष्णुका, वैष्णवजनोंका, तुलसीका तथा गौओंका पूजन एवं सेवा-सत्कार कलिमोहित मनुष्य प्रायः नहीं करेंगे। लोग वेश्याओंमें, परस्त्रियोंमें तथा पराये धनमें आसक्त होंगे। प्रायः सब मनुष्य शूद्रके समान एक वर्ण हो जायेंगे। निरन्तर ओले और पत्थरोंकी वर्षासे पृथ्वी सस्यहीन होगी। खेती-बारी चौपट हो जायगी। वृक्षोंमें फल नहीं लगेंगे। नदियोंका पानी सूख जायगा। प्रजा राजाको मारेगी और राजा प्रजाको ॥ ९-१८ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

राजा वज्रनाभने पूछा- विप्रेन्द्र! आप भूत और भविष्यके ज्ञाताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः मुझे यह बताइये कि ‘कलियुगमें जीवोंकी मुक्ति किस उपायसे होगी ?’ ॥ १९ ॥

गर्गजीने कहा- राजा युधिष्ठिर, विक्रमादित्य, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, राजा नागार्जुन तथा भगवान् कल्कि ये संवत्सरके प्रवर्तक होंगे। ये ही भूपाल पदपर प्रतिष्ठित हो कलिमें धर्मकी स्थापना करेंगे। राजा युधिष्ठिर तो हो चुके। शेष राजा भविष्य कालमें यथा समय होंगे। वे चक्रवर्ती होकर अधर्मका नाश करेंगे। वामन, ब्रह्मा, शेषनाग और सनकादि ये भगवान् विष्णुके आदेशसे धर्मकी स्थापना एवं रक्षाके लिये कलियुगमें ब्राह्मण होंगे। वामनके अंशसे विष्णुस्वामी और ब्रह्माजीके अंशसे मध्वाचार्य होंगे। शेषनागका अंश रामानुजाचार्यके रूपमें प्रकट होगा तथा सनकादिका अंश निम्बार्काचार्यके रूपमें। ये कलियुगमें सम्प्रदायके प्रवर्तक आचार्य होंगे। ये चारों विक्रम संवत्सरके प्रारम्भिक कालमें ही होंगे और इस भूतलको अपने सम्पर्कसे पावन बनायेंगे। सम्प्रदायविहीन मन्त्र निष्फल माने गये हैं; अतः सभी मनुष्योंको सम्प्रदायके मार्गसे ही चलना चाहिये। इन सम्प्रदायोंमें पापोंका नाश करनेवाली श्रीकृष्ण-कथा होती है। ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ नारायणपरायण वैष्णवजन इन कथाओंका प्रवचन एवं प्रसार करते हैं। सत्ययुगमें किसीके किये हुए पापसे सारा देश लिप्त होता है। त्रेतामें ग्राम, द्वापरमें कुल और कलियुगमें केवल कर्ता ही उस पापसे लिप्त होता है। सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञोंद्वारा यजन और द्वापरमें भगवान की अर्चना करके मनुष्य जिस पुण्यफलका भागी होता है, उसीको कलियुगमें केवल ‘केशव’ का नाम-कीर्तन करके मनुष्य पा लेता है। सत्ययुगमें जो सत्यकर्म दस वर्षोंमें सफल होता है, वह त्रेतामें एक ही वर्षमें, द्वापरमें एक ही मासमें तथा कलियुगमें केवल एक दिन-रातमें सफल हो जाता है। सब धर्मोंसे रहित घोर कलियुग प्राप्त होनेपर जो मानव भगवान् वासुदेवकी आराधनामें तत्पर रहते हैं, वे निस्संदेह कृतार्थ हो जाते हैं। नरेश्वर। मनुष्योंमें वे लोग निश्चय ही सौभाग्यशाली और कृतार्थ हैं, जो कलियुगमें श्रीहरिके नामोंका स्मरण करते और कराते हैं। ‘कृष्’ शब्द ‘सर्व’ का वाचक है और ‘ण’कार ‘आत्मा’ का। इसलिये जो सर्वात्मा परब्रह्म है, वही ‘कृष्ण’ कहा गया है। परब्रह्मस्वरूप, वेदोंका सारतत्त्व तथा परात्पर वस्तु ‘कृष्ण’- ये दो अक्षर ही सम्यरूपसे जपनेके योग्य हैं। इससे बढ़कर दूसरा कोई तत्त्व नहीं है, नहीं है। कामासक्त मनुष्य तभीतक गर्भवासकी यन्त्रणा झेलता है, तभीतक यमयातना भोगता है तथा गृहस्थ मनुष्य तभीतक भोगार्थी रहता है, जबतक वह श्रीकृष्णकी सेवा नहीं करता है। विषय, भोगोपकरण और बन्धुबान्धव (ये सभी इस भूतलपर विनाशशील हैं, यह बात सत्य है,) तथापि यदि इन्हें स्वयं छोड़ दिया जाय तो ये सुखदायक होते हैं; परंतु यदि दूसरोंने इन्हें छुड़वा दिया तो इनका वियोग दुःख देनेवाला होता है। यदि दैववश महापुरुषोंकी निन्दा सुन लेनेपर विज्ञ पुरुष भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण कर लेता है तो वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है; अन्यथा रौरव नरकमें पड़ता है। देवता काष्ठ, पत्थर या सोनेकी प्रतिमामें नहीं हुआ करता है; जहाँ भी मनुष्यका भगवद्भाव हो जाय, वहीं श्रीहरि विद्यमान हैं। इसलिये मनुष्य भाव ही करे या करावे। जिसने एक बार भी ‘कृष्ण’ इन दो अक्षरोंका उच्चारण कर लिया, उसने मोक्षतक पहुँचनेके लिये कमर कस ली। रोगी होना, सत्पुरुषोंसे वैर बाँधना, दूसरोंको ताप देना, ब्राह्मण और वेदकी निन्दा करना, अत्यन्त क्रोधी होना और कटुवचन बोलना- ये सब नरकगामी मनुष्यके लक्षण हैं। जो इस जीव-जगत्में स्वर्गलोकसे लौटकर आये हैं, उनमें ये चार चिह्न सदा रहते हैं-१-दानका प्रसङ्ग, २-मधुर वचन, ३-देव- पूजा और ४-ब्राह्मणोंका सत्कार ॥ २०-४१ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

राजाने पूछा- ब्रह्मन् । व्रतोंमें कौन-सा व्रत श्रेष्ठ है, उत्तम तीथोंमें कौन महान् है और पूजनीय देवताओंमें कौन मुख्य है? यह मुझे बताइये ॥ ४२ ॥

गर्गजीने कहा- यदुनन्दन । व्रतोंमें ‘एकादशी’ सबसे श्रेष्ठ है। तीथोंमें भागीरथी ‘गङ्गा’, दैवभक्तोंमें ‘वैष्णव’, देवताओंमें ‘भगवान् विष्णु’ और पूजनीयोंमें ‘श्रीगुरु’ सबसे महान् हैं। जो इस बातको नहीं मानते हैं, वे ‘कुम्भीपाक’ नरकमें गिरते हैं॥ ४३-४४॥

राजा बोले- मुने। गुरुदेव! एकादशीका तथा अन्य भागीरथी आदिका माहात्म्य कृपा करके मुझसे कहिये; आपको नमस्कार है॥ ४५ ॥

गर्गजीने कहा- यदुनन्दन। मैं सब कुछ बताता हूँ, सुनो। एकादशीके दिन अन्न तथा फल कुछ भी नहीं खाना चाहिये। नृपश्रेष्ठ ! जो शास्त्रोक्त विधिसे प्रसन्नतापूर्वक एकादशी व्रतका पालन करता है, उसके लिये वहाँ सदा फलदायिनी होती है॥ ४६-४७ ॥

वज्रनाभ बोले- महर्षे! जो मनुष्य एकादशीको फलाहार करते हैं, उनकी क्या गति होती है? यह हमें विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ४८ ॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

गर्गमुनिने कहा- उपवास करने से एकादशी व्रतका शास्त्रोक्त फल पूरा-पूरा मिलता है, फलाहार करनेसे आधा मिलता है और पानी पीकर रहनेसे सम्पूर्णकी अपेक्षा कुछ-कुछ कम फल प्राप्त होता है। नृपेश्वर ! गेहूँ आदि सब अन्नोंको त्यागकर एकादशीके दिन मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक फलाहार करे। राजन् ! जो नराधम एकादशीको अन्न खाता है, वह इस लोकमें चाण्डालके समान है और मरनेपर उसे दुर्गति प्राप्त होती है। राजेन्द्र ! दही, दूध, मिठाई, कूट, ककड़ी, बथुआ, कमलगट्टा, आम, सीताफल, गङ्गाफल, नीबूका पत्ता, अनार, सिंघाड़ा, नारंगी, सेंधानमक, अमड़ा, अदरख, तूल, बेर, जामुन, आँवला, परवल, त्रिकुश, रतालु, सकरकन्द, गन्ना और दाख आदि तथा अन्यान्य पवित्र फल एकादशीको एक बार खाने चाहिये। दिनका तीसरा पहर व्यतीत होनेपर एक सेर फलका आधा भाग तो ब्राह्मणको दान कर देना चाहिये और आधा अपने लिये भोजनके काममें लेना चाहिये। एकादशीको एक बार फल खाय और दो बार पानी पीये। भगवान् विष्णुका पूजन करके रातमें जागरण करे। जो मनुष्य एकादशीको दो बार या तीन बार फलाहार करता है, उसको कोई फल नहीं मिलता। पंद्रह दिनोंतक अन्न खानेसे जो पाप लगता है, वह सब-का-सब एकादशीके उपवाससे नष्ट हो जाता है। भोजनका ब्राह्मणको दान करके स्वयं उपवास करे और एकादशीका माहात्म्य सुने। ऐसा करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। एकादशीके व्रतसे धनार्थी धन पाता है, पुत्रार्थीको पुत्र प्राप्त होता है और मोक्षार्थी मोक्ष पा लेता है॥४९-६१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘एकादशीका माहात्म्य’
नामक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६१ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

बासठवाँ अध्याय

गुरु और गङ्गाकी महिमा; श्रीवज्रनाभद्वारा कृतज्ञता-प्रकाशन और गुरुदेवका पूजन
तथा श्रीकृष्णके भजन-चिन्तन एवं गर्गसंहिताका माहात्म्य

श्रीगगंजी कहते हैं- राजन् । जिसने पूर्वजन्ममें अक्षय तप किया है, इस लोकमें उसीकी गुरुके प्रति भक्ति होती है। जो समर्थ होकर भी गुरुकी सेवा नहीं करता, अपने गुरुको नहीं मानता, वह सदा ‘कुम्भीपाक’ नरकमें गिरता है। जो गुरुके प्रति भक्ति न रखनेवाले पुरुषको अपने सामने आया हुआ देख लेता है, उसे गोहत्याका पाप लगता है। वह गङ्गा और यमुनामें स्नान करके उस पापसे शुद्ध होता है। शिष्यको जहाँ- जहाँ जितना द्रव्य उपलब्ध होता है, उसका दशांश भाग गुरुका समझना चाहिये। हमारे घरके द्रव्यमें भी इसी तरह दशांश भाग गुरुका है। जो शिष्य बलपूर्वक उसे भोगता है, गुरुको अलगसे निकालकर नहीं देता है, वह ‘महारौरव’ नरकमें जाता है और सब सुखोंसे वश्चित हो जाता है॥१-५॥(Ashwamedhkhand Chapter 59 to 62)

राजन् ! जो नित्य श्रीहरिमें नवधाभक्ति करते हैं, वे अनायास ही संसार सागरको पार कर जाते हैं। ज्ञाति (कुटुम्बीजन), विद्या, महत्त्व, रूप और यौवन-इसका यत्नपूर्वक परित्याग करे; क्योंकि ये पाँच भक्तिमार्गके कण्टक हैं। राजेन्द्र। जो भक्तिभावसे भगवान् श्रीकृष्णका प्रसाद और चरणोदक लेते हैं, वे इस पृथ्वीको पावन करनेवाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है। गङ्गा पापका, चन्द्रमा तापका और कल्पवृक्ष दौनताके अभिशापका अपहरण करता है, परंतु सत्सङ्ग पाप, ताप और दैन्य तीनोंका तत्काल नाश कर देता है। मनुष्योंके पितृगण पिण्ड पानेकी इच्छासे तभीतक संसारमें चक्कर लगाते हैं, जबतक कि उनके कुलमें कृष्णभक्त पुत्र जन्म नहीं लेता। वह कैसा गुरु, कैसा पिता, कैसा बेटा, कैसा मित्र, कैसा राजा और कैसा बन्धु है, जो श्रीहरिमें मन नहीं लगा देता? जो विद्या, धन, गृह तथा कुलका अभिमान रखनेवाले हैं तथा रूप आदि विषय एवं स्त्री-पुत्रोंमें नित्यबुद्धि रखते हैं और जो फलकी कामनासे अन्य देवताओंकी ओर देखते रहते हैं, भगवान् केशवका भजन नहीं करते हैं, वे जीते-जी मरे हुएके समान हैं ॥ ६-१२॥

नृपश्रेष्ठ! यह मैंने तुम्हारे सामने श्रीकृष्णचरित्रका ‘सुमेरु’ कहा है, जो श्रीकृष्णके लीलाचरित्रोंसे व्याप्त है। नृपसिंह! इसके श्रवणमात्रसे शोक, मोह और भयका निवारण करनेवाली श्रीकृष्णभक्ति मनुष्योंको प्राप्त हो जाती है। मनुष्य केवल इस चरित्रके श्रवण और पठनसे भी मनोवाञ्छित फल धन-धान्य, पुत्र, भक्ति तथा शत्रुसंहार प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र ! इसलिये तुम शीघ्र ही भक्तिभावसे घर या वनमें रहकर, सारे विश्वको मनके संकल्पका विलासमात्र जानकर शीघ्र ही जगदीश्वर श्रीकृष्णके भजनमें लग जाओ। नरवीर! तुम्हारी आयु हेमन्त ऋतुकी रात्रिके समान उत्तरोत्तर बढ़ती रहे और हेमन्त ऋतुके सूर्यकी भाँति लोगोंको तुम्हारा दर्शन सदा प्रिय लगे। तुम शत्रुओंके लिये हेमन्त ऋतुके जलकी भाँति सदा अत्यन्त दुस्सह बने रहो और तुम्हारे शत्रु हेमन्त ऋतुके कमलकी भाँति सदा नष्ट होते रहें ॥ १३-१७॥

सूतजी कहते हैं- यह सुनकर राजा वज्रनाभ श्रीकृष्णके माहात्म्यका स्मरण करते हुए हर्षसे उल्लसित तथा प्रेमसे विह्वल हो गये। वे गुरुके चरणोंमें प्रणाम करके बोले ॥ १८ ॥

राजाने कहा- भगवन्! आप करुणामय गुरुदेवके मुखसे श्रीकृष्णका माहात्म्य सुनकर मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। श्रीकृष्णमें मेरा मन लग गया ॥ १९ ॥

सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठ वज्रनाभने गन्ध, अक्षत, पुष्पहार तथा जालीदार सुवर्णकी मालासे गुरु गर्गाचार्यका पूजन किया। शौनक ! उन्होंने घोड़े, हाथी, रथ, शिबिकाएँ, भव्य भवन, चाँदी, सोनेके भार, रत्न और ग्राम देकर गुरुका पूजन किया और स्वयं हर्षसे भरे हुए उन्होंने उनको प्रणाम और परिक्रमा करके उनकी नीराजना (आरती) आदि की ॥ २०-२२॥

तदनन्तर गर्गाचार्यजीने उठकर वज्रनाभको आशीर्वाद दिया और भूपालसे वन्दित हो दक्षिणाके साथ वहाँसे चले गये। यमुनाके तटपर ‘विश्रामघाट’ नामक तीर्थमें पहुंचकर मुनीश्वरने मथुरावासी ब्राह्मणोंको सारा धन बाँट दिया। तदनन्तर गर्गजीके कहनेसे वज्रनाभने मथुरामें उसी प्रकार अश्वमेध यज्ञ किया, जैसे हस्तिनापुरके राजा युधिष्ठिरने किया था। इसके बाद मथुरामें ‘दीर्घविष्णु’ और ‘केशवदेव’ के, वृन्दावनमें ‘गोविन्ददेव’ के, गिरिराज गोवर्धनपर ‘हरिदेवजी ‘के, गोकुलमें ‘गोकुलेश्वर’के और गोकुलसे एक योजन दूर ‘बलदाऊजी’ के अर्चाविग्रहोंकी उन्होंने स्थापना की। ये श्रीहरिकी छः प्रतिमाएँ राजा वज्रनाभके द्वारा स्थापित की गयी हैं। वज्रने हर्षसे भरकर लोगोंके कल्याणके लिये व्रजमण्डलमें बलदाऊजीकी पाँच अन्य प्रतिमाएँ भी स्थापित कीं ॥ २३-२८ ॥

कलियुगके चार हजार पाँच सौ वर्ष व्यतीत होनेपर गिरिराजके ऊपर श्रीनाथजीका प्रादुर्भाव होगा। उस प्रतिमाका व्रजमें सूर्यके स्वरूपभूत श्रीविष्णुस्वामी पूजन करेंगे। तदनन्तर वल्लभ आदि अन्य गोकुलवासी गोस्वामी उन्हींके शिष्य होकर श्रीनाथजीकी पूजा करेंगे ॥ २९-३० ॥

मुनिगणो! श्रीमद्भागवतके श्रवणसे राजा परीक्षित्की मुक्ति हुई देख वज्रनाभने वैराग्यके कारण अपने राज्यको त्याग देनेका विचार किया। इसके बाद औपगवपुत्र परम वैष्णव उद्धवजी अपने मस्तकपर श्रीकृष्णकी चरणपादुका धारण किये नर-नारायणके आश्रमसे वहाँ आये। राजाने प्रत्युत्थान और आसन आदि उपचारोंसे उद्धवजीकी पूजा करके उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। तत्पश्चात् उद्धवजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ वज्रनाभके सामने श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायी। उद्धवजीद्वारा भागवत कथा सुनकर वज्रको बड़ा हर्ष हुआ और वे बोले- ‘तात! पहले राजा परीक्षित् की सभामें मैंने यह कथा सुनी थी। शुकदेवने व्यासजीकी समाधिभाषाका वहाँ वर्णन किया था। फिर आपने भी वह कथा सुनायी। अब मैं पूर्णतः कृतार्थ हो गया’ ॥ ३१-३५ ॥

– ऐसा कहकर वज्रनाभ प्रतिबाहुको अपना राज्य दे विमानद्वारा गोलोकधामको चले गये। उनके साथ उद्धवजी भी गये। मथुराके दक्षिण भागमें वज्रनाभपुत्र प्रतिबाहुने धर्मपूर्वक राज्य किया और उत्तरभागमें परीक्षित्पुत्र जनमेजयने ॥ ३६-३७ ॥

शौनकजी! अब आगे बड़ा दारुण कलियुग आयेगा, परंतु एक निर्वाह दिखायी देता है, जिससे सम्पूर्ण पापोंका नाश हो जायगा। जबतक श्रीमद्भागवतशास्त्र रहेगा, जबतक गोकुलमें गोस्वामी- लोग रहेंगे और जबतक गोवर्धन तथा गङ्गानदीकी स्थिति रहेगी, तबतक कलियुगका कोई (विशेष) प्रभाव नहीं पड़ेगा। मुने! जैसे भारतके नौ खण्डोंमें जम्बूद्वीपके मध्यभागमें कमलपुष्पकी भाँति सुवर्णमय यह मेरुगिरि शोभा पाता है, उसी प्रकार महामुनि गर्गकी ‘गोलोकखण्डसंहिता’ में यह ‘अश्वमेध’ का चरित्र मध्यभागमें सुमेरुकी भाँति विराजमान है। इसके श्रवणमात्रसे ब्रह्महत्यारा, स्त्रीहन्ता, राजहन्ता, पितृहन्ता और गोहत्यारा भी समस्त पातकोंसे मुक्त हो जाता है। इसके सुननेमात्रसे ब्राह्मण विद्याको, क्षत्रिय राज्यको, वैश्य धनको और शूद्र धर्मको प्राप्त करता है। जैसे नदियोंमें गङ्गा श्रेष्ठ हैं, देवताओंमें भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं तथा तीर्थोंमें तीर्थराज प्रयाग उत्तम है, उसी प्रकार समस्त संहिताओंमें यह अश्वमेधखण्डकी संहिता सर्वोत्तम है। इसका श्रवण करनेमात्रसे श्रेष्ठ मनुष्यको बड़ी तृप्ति प्राप्त होती है। मुने। जैसे भागवतके अध्ययनसे दूसरे शास्त्रोंमें आसक्ति नहीं होती, उसी प्रकार इसके स्वाध्यायसे भी कहीं अन्यत्र आसक्ति नहीं रहती है। अतः महर्षियो! भक्तोंका दुःख हर लेनेवाले परमात्मा श्रीकृष्णके चरणारविन्दका अपने कल्याणके लिये भजन करें ॥ ३८-४६ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- शौनक आदि मुनियोंने इस प्रकार श्रीहरिके चरित्रको सुनकर प्रसन्नचित्त हो सूतपुत्र उग्रश्रवाकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। करुणानिधे ! नारायण ! मैं संसारसागरमें डूबकर अत्यन्त दयनीय एवं दुःखी हो गया हूँ। कालरूपी ग्राहने मेरे अङ्ग- अङ्गको जकड़ लिया है। आप मेरा उद्धार कीजिये; आपको नमस्कार है। साधुशिरोमणि गुरुदेव! आप अनाथोंके वल्लभ हैं, हमलोगोंपर अनुग्रह कीजिये। जैसे जगदीश्वर तीनों लोकोंको अभय देते हैं, उसी प्रकार आप मुझे भी अनुग्रह प्रदान करें। श्रीगुरुदेवकी कृपा और श्रीमदनमोहनजीकी सेवाके पुण्यसे जैसा मेरी वाणीसे बन सका है, वैसा श्रीहरिका चरित्र मैंने कहा है। वाल्मीकि आदि तथा वेदव्यास आदि महर्षियो! आप मेरी इस तुच्छ कवितापर दृष्टिपात करें और मेरे अपराधको क्षमा कर दें। जो व्रजके पालक, नूतन जलधरके समान श्याम रंगवाले, देवताओंके स्वामी, भक्तोंकी पीड़ा दूर करनेवाले तथा परमार्थस्वरूप हैं, उन अनन्तदेव श्रीराधावल्लभ माधव श्रीकृष्णको मैं मस्तक झुकाकर मनसे और भक्तिभावसे प्रणाम करता हूँ। मेरे आत्मा श्रीकृष्णके इस चरित्र-मेरुमें सत्ताईस सौ सत्तासी श्लोक हैं, जिनमें उनके लीला-चरित्रोंका गान किया गया है॥ ४७-५३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें अश्वमेधखण्डके अन्तर्गत ‘सुमेरु सम्पूर्ति’
नामक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६२ ॥

॥ यह गर्गसंहिता सम्पूर्ण हुई ॥

शुभं भूयात्

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