Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10
श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 6 से 10 तक
श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10) के छठा अध्याय में श्रीकृष्ण के अनेक चरित्रों का संक्षेप से वर्णन कहा है। सातवाँ अध्याय में देवर्षि नारद का ब्रह्मलोक से आगमन; राजा उग्रसेन द्वारा उनका सत्कार; देवर्षि द्वारा अश्वमेध यज्ञ की महत्ता का वर्णन; श्रीकृष्ण की अनुमति एवं नारदजी द्वारा अश्वमेध यज्ञकी विधिका वर्णन कहा गया है। आठवाँ अध्याय में यज्ञ के योग्य श्यामकर्ण अश्वका अवलोकन किया गया है। नवाँ अध्याय में गर्गाचार्य का द्वारकापुरी में आगमन तथा अनिरुद्ध का अश्वमेधीय अश्व की रक्षा के लिये कृतप्रतिज्ञ होने और दसवाँ अध्याय में उग्रसेन की सभा में देवताओं का शुभागमन; अनिरुद्ध के शरीर में चन्द्रमा और ब्रह्मा का विलय तथा राजा और रानी की बातचीत का वर्णन कहा गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
छठा अध्याय
श्रीकृष्ण के अनेक चरित्रों का संक्षेप से वर्णन
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! अब मैं पुनः तुम्हारे समक्ष श्रीहरिके यशका संक्षेपसे वर्णन करूँगा। एक समय भगवान् श्रीकृष्णने रुक्मिणीके साथ अद्भुत हास्यविनोद किया था। अनिरुद्धके विवाहमें उन्होंने अपने भाई बलरामजीके द्वारा रुक्मिणीके भाई रुक्मीका वध करा दिया। बाणासुरकी पुत्री ऊषाने एक स्वप्न देखा और उसकी चर्चा अपनी सखी चित्रलेखासे की। चित्रलेखाने श्रीहरिके पौत्र अनिरुद्धका अपहरण कर लिया। कन्याके अन्तः पुरमें पाये जानेके कारण बाणासुरने उन्हें कारागारमें डाल दिया। फिर तो बाणासुरके साथ यादवोंका घोर युद्ध हुआ। साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण तथा शंकरजीमें युद्ध छिड़ गया। उस समय माहेश्वर-ज्वर और वैष्णव-ज्वर भी आपसमें लड़ गये। पराजित हुए माहेश्वर-ज्वरने भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की ॥ १-३॥
भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा जब बाणासुरकी भुजाओंका छेदन होने लगा, तब उस असुरकी जीवन- रक्षाके लिये रुद्रदेवने भगवान् का स्तवन किया। अनिरुद्धको ऊषाकी प्राप्ति हुई। यादव-बालकोंके समक्ष भगवान्ने राजा नृगकी कथा कही और उनका उद्धार किया। बलरामजीने एक समय व्रजकी यात्रा की, उस समय दीर्घकालके बाद उन्हें देखकर गोपियोंने विलाप किया। गोपियोंद्वारा उनका स्तवन भी किया गया। बलरामजीने वृन्दावन-विहारके लिये यमुनाजी- की धाराको हलके अग्रभागसे खींच लिया। भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा काशिराज पौण्ड्रकका वध किया गया। काशिराजके पुत्रोंने पुरश्चरण करके कृत्या उत्पन्न की, जिसने द्वारकापर आक्रमण किया। फिर सुदर्शनचक्रने कृत्याको जलाकर काशीपुरीको भी दग्ध कर दिया। रैवतक पर्वतपर बलरामने ‘द्विविद’ नामक वानरका वध किया। दुर्योधन आदिने जब साम्बको हस्तिनापुर- के बन्धनागारमें बंद कर दिया, तब वहाँ बलरामजीका पराक्रम प्रकट हुआ। उग्रसेनके राजसूय यज्ञमें श्रीहरिने शकुनिका वध किया। देवर्षि नारदने द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्णकी गृहस्थजनोचित लीलाओंका दर्शन किया ॥ ४-७ ॥
भगवान श्रीकृष्ण की दिनचर्या, बंदी राजाओंके द्वारा भेजे गये दूतके मुखसे श्रीहरिकी स्तुति, भगवान का यादवों तथा उद्धवके साथ इन्द्रप्रस्थगमन, गिरिव्रजमें भीमसेनके द्वारा जरासंघका वध, जरासंधपुत्र सहदेव- का राज्याभिषेक, बन्धनमुक्त हुए राजाओंद्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति, राजसूय यज्ञमें श्रीहरिकी अग्रपूजा, शिशुपालका वध, दुर्योधनके अभिमानका खण्डन, प्रद्युम्र और शाल्वका सत्ताईस दिनोंतक युद्ध, श्रीकृष्णका द्वारकामें आगमन, शाल्व, दन्तवक्र और उसके भाई विदूरथका श्रीकृष्णके हाथसे लीलापूर्वक वध आदि वृत्तान्त घटित हुए ॥ ८-११॥
राजन् ! तदनन्तर कौरवोंने हस्तिनापुरमें कपट- द्यूतका आयोजन करके उसमें भाइयों और भार्या- सहित युधिष्ठिरको हराया तथा वे अपनी माता कुन्ती- को विदुरके घरमें रखकर वनको चले गये। वहाँ जाकर उन्होंने बहुत दिनोंतक विभिन्न वन्यप्रदेशोंमें निवास किया। तत्पश्चात् दुर्योधन राजा बन बैठा और बड़ी प्रसन्नताके साथ पृथ्वीका पालन करने लगा; परंतु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके चले जानेपर प्रजाजनोंने उसका अभिनन्दन नहीं किया। वनमें रहकर कष्ट उठानेवाले पाण्डवोंसे एक दिन बलराम और श्रीकृष्ण मिले और दोनोंने उन्हें धीरज बँधाया। पाण्डवोंसे मिलकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये। उन्होंने उग्रसेन- की सुधर्मा-सभामें कौरवोंकी सारी कुचेष्टाएँ कह सुनायीं। वह सब सुनकर समस्त यादव विस्मित होकर बोले ॥ १२-१६॥
यादवोंने कहा- अहो! राजा धृतराष्ट्रने यह क्या किया ? उन्होंने दीन दयनीय भतीजोंको कपट- द्यूतमें जीतकर अधर्मपूर्वक घरसे निकाल दिया। राज्यलोलुप कौरव अपने अधर्मसे नष्ट हो जायेंगे और भगवान् पाण्डवोंको राज्य-सम्पत्ति प्रदान करेंगे ॥ १७-१८ ॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- नृपेश्वर! यादवोंकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण सायंकाल अपने घरमें आये और माताको प्रणाम किया। पुत्रको आया और प्रणाम करता देख देवकीने प्रसन्नतापूर्वक शुभ आशीर्वाद दिया और उस सती साध्वी देवीने बड़े प्यारसे उनको भोजन कराया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अपनी रानियोंके महलमें आये और प्रियाजनोंसे पूजित हो वहीं शयन किया ॥ १९-२२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अंतर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘श्रीकृष्णचरित्र-वर्णन’
नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय
सातवाँ अध्याय
देवर्षि नारदका ब्रह्मलोकसे आगमन; राजा उग्रसेनद्वारा उनका सत्कार; देवर्षिद्वारा
अश्वमेध यज्ञकी महत्ताका वर्णन; श्रीकृष्णकी अनुमति एवं नारदजीद्वारा
अश्वमेध यज्ञकी विधिका वर्णन
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! एक समय देवर्षि नारद बलराम और श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये अपनी वीणा बजाते और श्रीकृष्णलीलाओंका गान करते हुए ब्रह्मलोकसे चलकर समस्त लोकोंको देखते हुए भूतलपर आये। वे सूर्यदेवके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। उनके साथ तुम्बुरु भी थे। पिङ्गलवर्णकी जटाओंका भार उनके मस्तककी शोभा बढ़ा रहा था। उनकी अङ्गकान्ति कुछ-कुछ श्याम थी, नेत्र मृगोंके नयनोंके समान विशाल थे, भालदेशमें केसरके तिलक शोभा दे रहे थे। वे पीले रंगके धौतवस्त्र तथा रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। रंगवल्लीकी माला और गोपीचन्दनसे मण्डित देवर्षि पंद्रह वर्षकी-सी अवस्था- से अत्यन्त सुशोभित होते थे ॥१-४॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभामें देवराजके दिये सिंहासनपर विराजमान थे। देवर्षिको आया देख वे उठकर खड़े हो गये और चरणोंमें प्रणाम करके उन्हें बैठनेके लिये सिंहासन दिया। फिर उनके चरण पखार- कर उत्तम विधिसे पूजन किया और चरणोदक मस्तक- पर रखकर राजा उग्रसेन नारदजीसे बोले ॥ ५-६ ॥
श्रीउग्रसेनने कहा- देवर्षे! आपके दर्शनसे आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा सदन सार्थक हो गया और मेरा तन-मन एवं जीवन कृतार्थ हो गया। जो काम तथा क्रोधसे रहित हैं, उन देवर्षिशिरोमणि महात्मा भगवान् नारदको नमस्कार है। प्रभो! आज्ञा कीजिये, आप किस प्रयोजनसे यहाँ पधारे हैं? ॥७-८॥
देवताओं के समान देदीप्यमान दिखायी देनेवाले देवर्षि नारद राजाका यह विनययुक्त वचन सुनकर मनही मन श्रीहरिसे प्रेरित हो उन नृपश्रेष्ठसे बोले ॥९॥
नारदने कहा- यादवराज ! महाराज ! पृथ्वी- नाथ! तुम धन्य हो; तुम्हारे भक्तिभावके कारण ही भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ इस भूतलपर निवास करते हैं। तुमने पूर्वकालमें मेरे ही कहनेसे क्रतुश्रेष्ठ राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया था, जो भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे द्वारकापुरीमें सुखपूर्वक सम्पादित हुआ था। उस यज्ञके अनुष्ठानसे तीनों लोकोंमें तुम्हारी कीर्ति फैल गयी थी। राजसूय तथा अश्वमेध-इन दो यज्ञोंका सम्पादन चक्रवर्ती नरेशोंके लिये अत्यन्त कठिन होता है। परंतु राजेन्द्र ! तुम हरिभक्त सम्राट् हो; अतः तुम्हारे लिये दोनों सुलभ हैं। नरेश्वर! दोनों यज्ञोंमेंसे एक- राजसूय यज्ञको तो तुमने और राजा युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे पूर्ण कर लिया है। युधिष्ठिरके बाद द्वापरके अन्तमें यज्ञप्रवर अश्वमेधका अनुष्ठान भारतवर्षमें दूसरे किसी भी राजाने नहीं किया है। वह यज्ञ समस्त पापोंका नाश करनेवाला तथा मोक्षदायक है। द्विजघाती, विश्वहन्ता तथा गोहत्यारे भी अश्वमेध यज्ञसे शुद्ध हो जाते हैं; इसलिये सम्पूर्ण यज्ञोंमें अश्वमेधको सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है। नृपश्रेष्ठ! जो निष्कामभावसे अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करता है, वह भगवान् गरुडध्वजके उस परमधाममें जाता है, जो सिद्धोंके लिये भी दुर्लभ है॥ १०-१७॥
नरेश्वर ! देवर्षिका यह वचन सुनकर राजा उग्रसेन यज्ञप्रवर अश्वमेधके अनुष्ठानका विचार किया। उसी समय बलरामसहित श्रीकृष्णको अपने निकट आया देख राजा उग्रसेनने उनका पूजन करके उन्हें आसनपर बिठाया और देवर्षिके साथ इस प्रकार कहा ॥ १८-१९ ॥
उग्रसेन बोले- देवदेव! जगन्नाथ! जगदीश्वर ! जगन्मय ! वासुदेव ! त्रिलोकीनाथ! मेरी बात सुनिये। हरे ! मेरे बेटे कंसने बड़े-बड़े असुरोंके साथ मिलकर बिना अपराधके सहस्रों बालक मार डाले हैं। गोविन्द ! उस पापीकी मुक्ति कैसे होगी? बालघाती कंस किस लोकमें गया है, यह मुझे बताइये। जगदीश्वर ! उसके पापसे मैं भी डर गया हूँ। पुत्रके पापसे पिता निश्चय ही नरकमें पड़ता है। इसी प्रकार पिताके पापसे पुत्रको नरकमें गिरना पड़ता है। अतः माधव ! कृपापूर्वक बताइये, मैं कंसके उद्धारके लिये किस उपायका अवलम्बन करूँ? जगत्पते! आज नारदजीने जो बात बतायी है, उसे सुनिये- ‘ब्रहा- हत्यारा, विश्वघाती तथा गोघातक भी अश्वमेध यज्ञके अनुष्ठानसे शुद्ध हो जाता है।’ उस यज्ञमें मेरा मन लग गया है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं उसका अनुष्ठान करूँ ॥ २०-२५॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
श्रीगर्गजी कहते हैं- उग्रसेनकी यह बात सुनकर मदनमोहन भगवान् श्रीकृष्ण मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और पृथ्वीको भारसे पीड़ित देख इस प्रकार विचार करने लगे “अहो! मैंने अनेक बार पृथ्वीका भार उतारा है, तथापि वह भार भूमण्डलमें अबतक है ही। उसका निवारण अश्वमेध यज्ञसे ही होगा। विदूरथके वधके अवसरपर मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘अब मैं युद्धके मैदानमें शत्रुओंको अपने हाथसे नहीं मारूँगा’। इस कारण स्वयं तो युद्धके लिये नहीं जाऊँगा; परंतु अपने पुत्रों तथा अन्य यदुवंशियोंको अवश्य युद्धके लिये भेजूंगा। अश्वमेध तो एक बहाना होगा। मैं उसीकी आड़में सम्पूर्ण पृथ्वीको जीतनेका प्रयास करूँगा।” राजन्। मन-ही-मन ऐसा सोचकर भगवान् श्रीकृष्ण सुधर्मा-सभामें हँसते हुए उग्रसेन से बोले ॥ २६-३० ॥
श्रीकृष्णने कहा- महाराज! कंस मेरे हाथसे मारा गया है, अतः निश्चय ही वैकुण्ठधामको गया है और वहाँ मेरे-जैसा स्वरूप धारण करके नित्य निवास करता है। राजेन्द्र । प्रतिदिन मेरा दर्शन करनेके कारण तुम भी पापरहित हो, तथापि तुम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान अवश्य करो। पापनाश या कंसके उद्धारके लिये नहीं, अपने यशके विस्तारके लिये करो। भूपाल ! इस यज्ञसे भूतलपर तुम्हारी विशाल कीर्ति फैलेगी ॥ ३१-३३ ॥
राजन् । अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका यह कथन सुनकर उस समय राजा उग्रसेन बड़े प्रसन्न हुए और यह उत्तम वचन बोले ॥ ३४ ॥
राजाने कहा- गोविन्ददेव । अब मैं यज्ञोंमें श्रेष्ठ अश्वमेधका अनुष्ठान अवश्य करूँगा और वह आपकी कृपासे शीघ्र पूर्ण हो जायगा। अब आप अश्वमेधका सारा विधिविधान मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ३५ ॥
राजाका यह वचन सुनकर विस्तृत यशवाले भगवान् श्रीकृष्ण बोले- ‘यदुकुलतिलक महाराज! अश्वमेध यज्ञकी विधि आप देवर्षि नारदजीसे पूछिये। ये सब कुछ जानते हैं, अतः आपके सामने उसका वर्णन करेंगे।’ राजन्। श्रीहरिका यह वचन सुनकर यदुराज उग्रसेन आनन्दमग्र हो गये। नरेश्वर! उन्होंने सभामें बैठे हुए देवर्षिसे इस प्रकार पूछा- ‘देवर्षे ! अश्वमेध यज्ञमें घोड़ा कैसा होना चाहिये? उसमें भाग लेनेवाले श्रेष्ठ द्विजोंकी संख्या कितनी होनी चाहिये ? ब्रह्मन् । उसमें दक्षिणा कैसी हो तथा मुझ यजमानको किस तरहके व्रतका पालन करना चाहिये, यह सब बताइये’॥ ३६-३९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
उग्रसेनकी यह बात सुनकर देवताओंके समान दर्शनीय देवर्षि नारद श्रीकृष्णके ऊपर प्रेमपूर्ण दृष्टि डालकर मुसकराते हुए-से बोले ॥ ४० ॥
श्रीनारदजीने कहा- महाराज! विज्ञ पुरुषोंका कथन है कि इस यज्ञमें चन्द्रमाके समान श्वेत वर्णवाले अश्वका उपयोग होना चाहिये। उसका मुख लाल हो, पूँछ पीले रंगकी हो तथा वह देखनेमें मनोहर, सर्वाङ्ग- सुन्दर एवं दिव्य हो। उसके कान श्यामवर्णके तथा नेत्र सुन्दर होने चाहिये। नरेश्वर। चैत्र मासकी पूर्णिमा तिथिको वह अश्व स्वच्छन्द विचरनेके लिये छोड़ा जाना चाहिये। बड़े-बड़े वीर योद्धा एक वर्षतक साथ रहकर उस उत्तम अश्वकी रक्षा करें। जबतक वह अपने नगरमें न लौट आवे, तबतक उसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जानी चाहिये। यजमान उतने कालतक धैर्यसे रहें और प्रयत्नपूर्वक अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करे। वह अश्व जहाँ-जहाँ मूत्र और पुरीष करे, वहाँ-वहाँ ब्राह्मणोंद्वारा हवन कराना तथा एक सहस्र गौओंका दान करना चाहिये। सोनेके पत्रपर अपने नाम और बलपराक्रमका सूचक वाक्य लिखकर उस अश्वके भालमें बाँध देना चाहिये तथा जगह-जगह यह घोषणा करानी चाहिये- ‘समस्त राजालोग सुनें, मैंने यह अश्व छोड़ा है। यदि कोई राजा मेरे श्यामकर्ण अश्वको अभिमानवश बलपूर्वक पकड़ लेगा, उसे बलात् परास्त किया जायगा।’ नरेश्वर! इस यज्ञके आरम्भमें बीस हजार ऐसे ब्राह्मणोंके वरण करनेका विधान है, जो वेदोंके विद्वान्, सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ, कुलीन और तपस्वी हों ॥ ४१-४८ ॥
अब मैं इस यज्ञमें दी जानेवाली दक्षिणाके विषयमें बताता हूँ। तुम समर्थ हो, अतः सुनो। महाराज ! अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणोंकी दीर्घ दक्षिणा इस प्रकार है- प्रत्येक द्विजको एक हजार घोड़े, सौ हाथी, दो सौ रथ, एक-एक सहस्र गौ तथा बीस-बीस भार सुवर्ण देने चाहिये। यह यज्ञके प्रारम्भकी दक्षिणा है। यज्ञ समाप्त होनेपर भी इतनी ही दक्षिणा देनी चाहिये। असिपत्र-व्रतका नियम लेकर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक रात्रिमें पत्नीके साथ भूतलपर एक साथ शयन करना चाहिये। महाराज। एक वर्षतक ऐसे व्रतका पालन आवश्यक है। दीनजनोंको अन्न एवं बहुत धन देना चाहिये। राजेन्द्र ! इस विधिसे यह यज्ञ पूर्ण होगा। असिपत्र-व्रतसे युक्त होनेपर यह यज्ञ बहुसंख्यक पुत्ररूपी फल प्रदान करनेवाला है। भीष्मके बिना दूसरा कौन ऐसा मनुष्य है, जो कामदेवको जीत सके। इसलिये भीरु हृदयके लोग इस कठिन एवं अद्भुत व्रतका पालन नहीं करते हैं। नृपश्रेष्ठ! यदि आपमें कामदेवको जीतनेकी शक्ति हो तो आप गर्गाचार्यको बुलाकर यज्ञका आरम्भ कर दीजिये ॥ ४९-५६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यज्ञ-सम्बन्धी उद्योग
वर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में
आठवाँ अध्याय
यज्ञ के योग्य श्यामकर्ण अश्वका अवलोकन
श्रीगर्गजी कहते हैं- देवर्षि नारदजीका सुस्पष्ट अक्षरोंसे युक्त यह वचन सुनकर राजर्षि उग्रसेन चकित हो गये। उन्होंने हँसते हुए से उनसे कहा ॥ १ ॥
राजा बोले- मुने ! मैं अश्वमेध यज्ञ करूँगा। आप इस यज्ञके योग्य अश्वको मेरी अश्वशालामें जाकर देखिये। बहुत से अश्वोंके बीचमॅसे उसको छाँट लीजिये ॥ २ ॥
राजाकी यह बात सुनकर ‘बहुत अच्छा’ कहकर देवर्षि नारद यज्ञके योग्य अश्व देखनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णके साथ अश्वशालामें गये। वहाँ जाकर उन्होंने धूम्रवर्ण, श्यामवर्ण, कृष्णवर्ण और पद्मवर्णके बहुत- से मनोहर अश्व देखे। फिर वहाँसे दूसरी अश्वशालामें गये। वहाँ दूध, जल, हल्दी, केसर तथा पलाशके फूलकी-सी कान्तिवाले बहुत से अश्व दृष्टिगोचर हुए। कई घोड़े चितकबरे रंगके थे। कितनोंके अङ्ग स्फटिक शिलाके समान स्वच्छ थे। वे सभी मनके समान वेगशाली थे। कितने ही अश्व हरे और ताँबेके समान वर्णवाले थे। कुछ घोड़ोंके रंग कुसुम्भ-जैसे और कुछके तोतेके पाँख-जैसे थे। कोई इन्द्रगोपके समान लाल थे, कोई गौरवर्णके थे तथा कितने ही पूर्ण चन्द्रमाके समान धवल कान्तिवाले और दिव्य थे। बहुत-से अश्व सिन्दूरी रंगके थे। कितनोंकी कान्ति प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ती थी। कितने ही अश्व प्रातःकालिक सूर्यके समान अरुणवर्णके थे। नरेश्वर! ऐसे घोड़ोंको देखकर नारदजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे श्रीकृष्णसहित राजा उग्रसेनसे हँसते हुए-से बोले ॥ ३-८ ॥
नारदजीने कहा- महाराज! आपके सभी घोड़े बड़े सुन्दर हैं। ऐसे अश्व पृथ्वीपर अन्यत्र नहीं हैं। स्वर्गलोक और रसातलमें भी ऐसे घोड़े नहीं दिखायी देते। यह श्रीकृष्णकी कृपा है, जिससे आपकी अश्वशालामें ऐसे-ऐसे अश्व शोभा पाते हैं। परंतु इन सबमें एक भी ऐसा अश्व नहीं दिखायी देता, जो श्यामकर्ण हो ॥९-१० ॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- देवर्षिका यह वचन सुनकर राजा उग्रसेन दुःखी हो गये। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘अब मेरा यज्ञ कैसे होगा’ राजाको उदास देख भगवान् मधुसूदन हँसते हुए शीघ्र ही मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले ॥ ११-१२ ॥
श्रीकृष्णने कहा- राजन्। मेरी बात सुनिये और सारी चिन्ता छोड़कर मेरी अश्वशालामें चलकर श्याम कर्ण घोड़ेको देखिये ॥ १३ ॥
– यह सुनकर नृपश्रेष्ठ उग्रसेन श्रीकृष्ण और देवर्षि नारदके साथ उनकी अश्वशालामें गये। वहाँ जाकर उन्होंने यज्ञके योग्य सहस्रों श्यामकर्ण घोड़े देखे, जिनकी पूँछ पीली, अङ्गकान्ति चन्द्रमाके समान उज्ज्वल तथा गति मनके समान तीव्र थी। उन सबके मुख तपाये हुए सुवर्णके समान जान पड़ते थे। ऐसे शुभ-लक्षणसम्पन्न सर्वाङ्गसुन्दर और दिव्य अश्व देखकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ। वे महान् हर्षसे उल्लसित हो श्रीकृष्णको मस्तक झुकाकर बोले ॥ १४-१६३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
राजाने कहा- जगन्नाथ! आज मैंने यहाँ बहुत से श्यामकर्ण घोड़े देखे। भला, आपके भक्तोंके लिये इस भूतलपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ होगी। श्रीकृष्ण ! जैसे पूर्वकालमें प्रह्लाद और ध्रुवका मनोरथ पूर्ण हुआ था, उसी प्रकार आपकी कृपासे मेरा भी मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा ॥ १७-१८ ॥
राजन् ! ऐसा सुनकर र्शाङ्गधनुष धारण करनेवाले श्रीहरि राजासे इस प्रकार बोले ॥ १९ ॥
श्रीकृष्णने कहा- नृपश्रेष्ठ! आप मेरी आज्ञासे इन चन्द्रके समान कान्तिमान् श्यामवर्ण अश्वोंमेंसे एकको लेकर यज्ञ आरम्भ कीजिये ॥ २० ॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीहरिका यह आदेश सुनकर राजा उनसे बोले- ‘प्रभो! अब मैं क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेधका अनुष्ठान करूँगा।’ ऐसा कहकर वे श्रीकृष्ण और नारदजीके साथ राजसभामें गये। वहाँ तुम्बुरुसहित नारदजी श्रीकृष्णसे विदा ले राजाको आशीर्वाद देकर ब्रह्मलोकको चले गये ॥ २१-२२॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘श्यामकर्ण अश्वका
अवलोकन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में
नवाँ अध्याय
गर्गाचार्यका द्वारकापुरीमें आगमन तथा अनिरुद्धका अश्वमेधीय
अश्वकी रक्षाके लिये कृतप्रतिज्ञ होना
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर द्वारकापुरीमें देवर्षिप्रवर नारदजीके चले जानेपर राजाधिराज उग्रसेनने मुझे बुलानेके लिये अपने दूतों- को भेजा। उग्रसेनके वे दूत मेरे सामने आकर इस प्रकार बोले ॥ १ ॥
दूतोंने कहा- देवदेव ! ब्रह्मन् ! भूदेव- शिरोमणे! मुने! कृपया हमारी सारी बातें विस्तारपूर्वक सुनिये-मुनीश्वर ! द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे आपके बुद्धिमान् शिष्य महाराज उग्रसेनने क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेधके अनुष्ठानका निश्चय किया है, मुने ! उस यज्ञ-महोत्सवमें आप शीघ्र पधारें ॥ २-४ ॥
उन दूतोंका यह कथन सुनकर मैं गर्गाचलसे द्वारकापुरीकी ओर चला। नृपश्रेष्ठ। उस यज्ञको देखनेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल था। तदनन्तर आनर्तदेशमें दूरसे ही मुझे द्वारकापुरी दिखायी दी, जो नाना प्रकारके वृक्षों तथा अनेकानेक उपवनोंसे सुशोभित थी। बहुत से सरोवर, बावलियाँ तथा नाना प्रकारके पक्षी उस पुरीकी शोभा बढ़ा रहे थे। नृपेश्वर ! वहाँके सरोवरमें नीलकमल, रक्तकमल, श्वेतकमल और पीतकमल खिले हुए थे। कुमुद और शुक पुष्प – भी उनकी शोभा बढ़ाते थे। बिल्व, कदम्ब, बरगद, साखू, ताड़, तमाल, बकुल (मौलसिरी), नागकेसर, पुन्नाग, कोविदार, पीपल, जम्बीर (नीबू), हरसिंगार, आम, आमड़ा, केवड़ा, गोस्तनी, कदली, जामुन, श्रीफल, पिण्ड-खर्जूर, खदिर, पत्रबिन्दु, अगर-तगर, चन्दन, रक्तचन्दन, पलाश, कपित्थ, पाकर, बेंत, बाँस, मल्लिका, जूही, मोदनी (मोगरा), मदनबाण, सूर्यमुखी, प्रियावंश, गुल्मवंश, खिले हुए कर्णिकार (कनेर), सहस्र कन्दुक, अगस्त्य पुष्प, सुदर्शन, चन्द्रक, कुन्द, कर्णपुष्प, दाडिम (अनार), अनुजीर (अञ्जीर), नागरंग (नारंगी), आडुकी, सीताफल, पूगीफल, बादाम, तूल, राजादन, एला, सेवती, देवदारु तथा इसी तरहके अन्यान्य छोटे और बड़े वृक्षोंसे श्रीहरिकी नगरी द्वारका शोभा पा रही थी। राजेन्द्र वहाँ मोर, सारस और शुक कलरव करते थे। हंस, परेवा, कबूतर, कोयल, मैना, चकवा, खञ्जरीट तथा चटक (गौरैया) आदि समस्त सुन्दर पक्षियोंके समुदाय वहाँ वैकुण्ठसे आये थे, जो मधुर वाणीमें ‘कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण’ गा रहे थे ॥ ५-१७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
राजन् ! इस तरह चलते-चलते मैंने द्वारकापुरी देखी, जो ताँबे, चाँदी और सुवर्णके बने हुए तीन दुर्गों (परकोटों) से घिरी हुई थी। दिव्य वृक्षोंसे परिपूर्ण रैवतक पर्वत (गिरनार), समुद्र तथा खाईका काम देनेवाली गोमती-इन सबसे घिरी हुई श्रीकृष्णनगरी द्वारकापुरी अत्यन्त रमणीय दिखायी देती थी। उस पुरीमें मङ्गलमय उत्सवकी सूचक बन्दनवारें लगी थीं। वहाँ सोनेके महल शोभा पाते थे और सदा हृष्ट-पुष्ट रहनेवाले लोगोंसे वह पुरी भरी हुई थी। सोनेके हाट- बाजारों तथा सुन्दर ध्वजा-पताकाओंसे द्वारका-पुरीकी अनुपम शोभा हो रही थी। वहाँ बहुत-से ऊँचे-ऊँचे विष्णु-मन्दिर तथा शिव मन्दिर दृष्टिगोचर होते थे। बड़े-बड़े शौर्यसम्पन्न यादव-वीर उस पुरीकी शोभा थे। सहस्रों विमान, सैकड़ों चौराहे तथा चितकबरे कलश उस पुरीकी शोभामें चार चाँद लगा रहे थे। सड़कों, अश्वशालाओं, गजशालाओं, गोशालाओं तथा अन्यान्य शालाओंसे सुशोभित द्वारकापुरीकी सड़कोंपर सुन्दर चाँदीके पत्र जड़े गये थे। उस पुरीमें नौ लाख सुन्दर महल थे। परमात्मा श्रीकृष्णके सोलह हजार एक सौ आठ भव्य भवनोंसे द्वारकापुरी वेष्टित-सी दिखायी देती थी। राजन् ! उस नगरीके द्वार-द्वारपर नियुक्त करोड़ों शूरवीर सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये दिन- रात रक्षा करते थे। वहाँके सब लोग घर-घरमें भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके यश गाते और नाम तथा लीलाओंका कीर्तन सुनते थे। इस प्रकार सब कुछ देखता हुआ मैं सुधर्मा-सभामें गया। खड़ाऊँपर चढ़ा था और तुलसीकी मालासे ‘कृष्ण’ नामका जप कर रहा था। राजर्षि उग्रसेन मुझे आया देख बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्रके सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये। भूपाल ! उनके साथ छप्पन करोड़ अन्य यादव भी थे। उन्होंने नमस्कार करके मुझे सिंहासनपर बिठाया और मेरी पूजा की। समस्त यादवोंके समीप मेरे दोनों चरण धोकर राजाधिराज उग्रसेनने चरणोदकको सिरपर चढ़ाया और कहा ॥ १८-३० ॥
उग्रसेन बोले- विप्रेन्द्र! मैं देवर्षि नारदके मुखसे जिसके महान् फलका वर्णन सुन चुका हूँ, उस ‘अश्वमेध’ नामक यज्ञका आपकी आज्ञासे अनुष्ठान करूँगा। जिनके चरणोंकी सेवा करके पूर्ववर्ती भूपालोंने जगत्को तिनकेके समान मानकर अपने मनोरथके महासागरको पार कर लिया था, वे भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ साक्षात् विद्यमान हैं॥ ३१-३२॥
श्रीगर्गजी (मैं) ने कहा- महाराज! यादव- नरेश। आपने बहुत उत्तम निश्चय किया है। अश्वमेध यज्ञ करनेसे आपकी कीर्ति तीनों लोकोंमें फैल जायगी। नृपेश्वर । अश्वकी रक्षाके लिये कौन जायगा, इस बातका निश्चय कर लीजिये; क्योंकि भूमण्डलमें आपके शत्रु बहुतअधिक हैं। पूरे एक वर्षतक आपको असिपत्र-व्रतका पालन करना होगा, तभी यह श्रेष्ठ यज्ञ सकुशल सम्पन्न हो सकेगा। पूर्वकालमें राजसूय यज्ञके अवसरपर प्रद्युम्नने समस्त भूमण्डलपर विजय पायी थी। इस बार अश्वकी रक्षाके लिये क्या आप पुनः उन्हींकी नियुक्ति करेंगे ॥ ३३-३६ ॥
मेरी बात सुनकर राजा चिन्तामें पड़ गये और वहाँ बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णकी ओर, जो मनुष्योंके समस्त दुःख दूर करनेवाले हैं, देखने लगे। राजाको चिन्तामग्ग्र देख, भगवान्ने तत्काल पानका बीड़ा लेकर हँसते हुए कहा ॥ ३७-३८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
भगवान श्रीकृष्ण बोले- हे बलवान् । युद्ध- कुशल समग्र यादववीरो! महाराज उग्रसेनके सामने मेरी बात सुनो ‘जो मनस्वी एवं महारथी वीर भूमण्डलके समस्त राजाओंसे अश्वमेध यज्ञ-सम्बन्धी अश्वको छुड़ा लेनेमें समर्थ हो, वह इस पानके बीड़ेको ग्रहण करे ॥ ३९-४० ॥
श्रीहरिका यह वचन सुनकर युद्धकुशल यादव-वीर अभिमानशून्य हो बार-बार एक-दूसरेका मुँह देखने लगे। भगवान् श्रीकृष्णके सुन्दर हाथमें वह पानका बीड़ा एक घड़ीतक रखा रह गया; ऐसा लगता था मानो कमलके फूलपर तोता बैठा हो। जब सब लोग चुप रह गये, तब धनुष धारण किये ऊषापति महात्मा अनिरुद्धने महाराज उग्रसेनको नमस्कार करके वह पानका बीड़ा ले लिया और श्रीकृष्णके चरणोंमें मस्तक झुकाकर तत्काल इस प्रकार कहा ॥ ४१-४३ ॥
श्रीअनिरुद्ध बोले- जगदीश्वर! मैं समस्त राजाओंसे श्यामकर्णकी रक्षा करूँगा। आप मुझे इस कार्यमें नियुक्त कीजिये। दीनवत्सल गोविन्द ! यदि मैं घोड़ेका पालन नहीं कर सकूँ तो उस दशामें मुझ दीनकी यह प्रतिज्ञा सुनिये ‘क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी ब्राह्मणीके साथ व्यभिचार करनेसे जिस दुःखदायिनी दुर्गतिको प्राप्त होते हैं, निश्चय वही गति मुझे भी मिले। देव! जो ब्राह्मणको गुरु बनाकर पीछे उसकी सेवा नहीं करता है, वह जिस गतिको प्रास होता है, अवश्य वही गति मैं भी पाऊँ’ ॥ ४४-४७ ॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! अनिरुद्धका वह ओजस्वी वचन सुनकर समस्त यादव आश्चर्यचकित हो गये। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने तत्काल अपने पौत्रके सिरपर हाथ रखा। अनिरुद्ध सुधर्मा-सभामें हाथ जोड़कर खड़े थे। उस समय श्रीहरिने सबके समक्ष मेघके समान गम्भीर वाणीमें उनसे कहा ॥ ४८-४९ ॥
श्रीकृष्ण बोले- अनिरुद्ध ! तुम एक वर्षतक अश्वमेधीय अश्वकी समस्त राजाओंसे रक्षा करते हुए फिर यहाँ लौट आओ ॥ ५० ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधचरित्रमय सुमेरुमें
‘गर्गजीका आगमन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥९॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गायत्री कवचम्
दसवाँ अध्याय
उग्रसेनकी सभामें देवताओंका शुभागमन; अनिरुद्धके शरीरमें चन्द्रमा
और ब्रह्माका विलय तथा राजा और रानीकी बातचीत
श्रीगर्गजी कहते हैं- भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि हंसपर बैठे हुए भगवान् ब्रह्मा महादेवजीके साथ द्वारकापुरीमें आ पहुँचे। राजन् ! तदनन्तर इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, वायु, अग्नि, निंऋति और चन्द्रमा-ये लोकपाल श्रीकृष्ण-दर्शनकी इच्छासे वहाँ आये। फिर बारह आदित्य, वेताल, मरुद्रण, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, किंनर, विद्याधर तथा बहुत-से ऋषि-मुनि भी श्रीकृष्णके दर्शनके लिये आये। राजा उग्रसेनके साथ भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ पधारे हुए देवताओंसे विधिपूर्वक मिलकर उन सबका समादर किया। जब सब देवता अपने-अपने आसन- पर विराजमान हो गये, तब लीलाके लिये नरदेह धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरिने उन सबकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। तदनन्तर श्रीहरिके पार्श्वभागमें बैठे हुए ब्रह्माजी इन्द्रसे प्रेरित हो बलरामसहित जगदीश्वर श्रीकृष्णसे बोले ॥ १-७॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
ब्रह्माजीने कहा- श्रीकृष्ण! आपका पौत्र अनिरुद्ध अभी बालक है। भूमण्डलके राजाओंसे श्यामकर्ण अश्वकी रक्षाका कार्य बहुत कठिन है। हरे! यह इस दुष्कर कार्यको कैसे कर सकेगा? अतः आप इसे अश्वकी रक्षाके लिये न भेजिये; क्योंकि इस कार्यमें विघ्न बहुत हैं। गोविन्द ! आप चाहे प्रद्युम्नको भेजिये, चाहे बलरामजीको भेजिये अथवा स्वयं जाकर अश्वकी रक्षा कीजिये। ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर श्रीहरि हँसते हुए-से बोले ॥ ८-१० ॥
श्रीभगवान बोले- अनिरुद्ध हठपूर्वक जा रहा है। इस विषयमें वह मेरा निषेध नहीं मानता है, अतः आप स्वयं उसके पास जाकर यत्नपूर्वक उसे मना कीजिये ॥ ११ ॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर ब्रह्माजी चन्द्रमाको साथ लेकर प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्धको रोकनेके लिये गये। ब्रह्मा और चन्द्रमा ज्यों-ही अनिरुद्धजीके समीप गये। त्यों-ही अनिरुद्धके श्रीविग्रहमें वे तत्काल विलीन हो गये, यह देख शिव और इन्द्र आदि सब देवता विस्मयमें पड़ गये। समस्त यादवों, मुनियों और उग्रसेन आदि नरेशोंको भी महान् आश्चर्य हुआ। वज्रनाभ ! सब लोग तुम्हारे पिताकी स्तुति करने लगे। इसीलिये मनीषी मुनि तुम्हारे पिता अनिरुद्धको पूर्णतम परमात्मा बताते हैं॥ १२-१५॥
राजन् । तदनन्तर राजा उग्रसेन सभासे उठकर मन-ही-मन श्रीकृष्णको प्रणाम करके यज्ञ-सम्बन्धी कौतुकसे युक्त हो सुन्दर रत्नोंसे जटित अपने अन्तः पुरमें गये। वह अन्तःपुर अपने वैभवसे देवराज इन्द्रके भवनको भी लज्जित कर रहा था। वहाँ जाकर नृपश्रेष्ठ उग्रसेनने वस्त्राभूषणोंसे विभूषित, दासियोंसे सेवित तथा श्वेत चामरोंसे वीजित शचीके समान मनोहर मुखवाली रानी रुचिमतीको देखा, जो पर्यङ्कपर विराजमान थीं। नरेश्वर ! अपने पति यादवराज उग्रसेनको वहाँ आया देख रानी सहसा उठकर खड़ी हो गयीं। उन्होंने यथोचित रीतिसे महाराजका समादर किया, तब पर्यङ्कपर बैठकर वृष्णिवंशियोंके स्वामी राजा उग्रसेन हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें अपनी परमप्रिया रुचिमतीसे बोले- ‘प्रिये। मैं भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे आज अश्वमेध यज्ञका आरम्भ करूँगा, जिसके प्रतापसे मनुष्य मनोवाञ्छित फल पा लेता है’ ॥ १६-२१॥
श्रीगर्गजी कहते हैं-राजाकी यह बात सुनकर पुत्रशोकसे संतप्त हुई दीन-दुःखी रानीने अपने पुत्रोंका स्मरण करते हुए राजाधिराज उग्रसेनसे कहा ॥ २२ ॥
रानी बोली- महाराज ! मैं पुत्रोंके दर्शनसे वञ्चित हूँ; अतः मुझे ये सारी सम्पत्तियाँ, जो देवताओंके लिये भी प्रार्थनीय हैं, नहीं रुचती हैं। आप सुखपूर्वक यज्ञका अनुष्ठान कीजिये (मुझे इससे कोई मतलब नहीं है)। नृपेश्वर ! जब इस यज्ञके प्रतापसे सुन्दर पुत्र प्राप्त होता हो, तब तो मैं प्रसन्नचित्त होकर इसके अनुष्ठानमें आपके साथ रहूँगी ॥ २३-२४ ॥
रानीकी यह बात सुनकर राजाका मन उदास हो गया। जैसे श्राद्धदेव मनु अपनी पत्नी श्रद्धासे वार्तालाप करते हैं, उसी प्रकार वे पुनः अपनी प्रियासे बोले ॥ २५ ॥
राजाने कहा- भद्रे! मैं जो कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। पुत्रोंकी कामना बहुत दुःखदायिनी होती है। अतः उसे छोड़कर तुम साक्षात् मुक्तिदाता परात्पर परमात्मा श्रीकृष्णका भजन करो। मैं बूढ़ा हो गया और तुम भी वृद्धा हुई। फिर पुत्र कैसे होगा? इसलिये बन्धनके कारणभूत अज्ञानजनित शोकको त्याग दो ॥ २६-२७ ॥
राजन् । यादवराज उग्रसेनका यह विज्ञानप्रद उत्तम वचन सुनकर रानी रुचिमती अपने यदुकुलतिलक पतिसे बोली ॥ २८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 6 to 10)
रुचिमतीने कहा- राजन् ! यदि इस यज्ञके प्रतापसे मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है तो मेरी भी एक मनोवाञ्छा है। मैं चाहती हूँ कि मेरे मारे गये पुत्र यहाँ आवें और मैं उन्हें देखूँ। यदि आप मेरे सामने ऐसी बात कहें कि ‘मरे हुए लोगोंका दर्शन कैसे हो सकता है?’ तो इसका उत्तर भी मेरे ही मुँहसे सुन लें। राजेन्द्र ! भगवान् श्रीकृष्णने अपने गुरुको गुरु- दक्षिणाके रूपमें उनके मरे हुए पुत्रको लाकर दे दिया था, उसी प्रकार मैं भी अपने पुत्रोंको सामने आया देखना चाहती हूँ॥ २९-३१॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- रानीकी बात सुनकर महायशस्वी महाराज उग्रसेनने मुझको और श्रीकृष्णको अन्तः पुरमें बुलवाया। हम दोनोंके जानेपर उन्होंने बड़ा भारी स्वागत-सत्कार किया। हम दोनोंका पूजन करके राजाने हमसे अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। उग्रसेनकी कही हुई बात सुनकर मैंने श्रीहरिको कुछ कहनेके लिये प्रेरणा दी। नृपेश्वर! जैसे उपेन्द्र इन्द्रसे बोलते हैं, उसी प्रकार उस समय उन्होंने राजासे कहा ॥ ३२-३३ ॥
श्रीभगवान बोले- राजन् ! सुनिये; पूर्वकालमें आपके जो-जो पुत्र संग्राममें मारे गये हैं, वे सब-के- सब दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोकमें देवताके समान विद्यमान हैं। अतः नृपश्रेष्ठ! आप पुत्रशोक छोड़कर धैर्यपूर्वक क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेधका अनुष्ठान कीजिये। यज्ञके अन्तमें मैं आपको आपके सभी पुत्रोंके दर्शन कराऊँगा ॥ ३४-३६ ॥
श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर पृथ्वीपति उग्रसेन बड़े प्रसन्न हुए और अपनी प्रियाको सुन्दर वचनोंद्वारा आश्वासन दे, श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ सुधर्मा-सभामें गये। श्रीकृष्णसहित राजा उग्रसेनको आया देख दिक्पालों तथा बलराम और शिव आदि देवताओंने प्रणाम किया। वज्रनाभ! राजा उग्रसेनके उत्तम तपका मैं क्या वर्णन करूँ। इन्हें श्रीकृष्ण आदि सब लोग प्रणाम करते रहे हैं। यादवराज भी समस्त देवताओंको नमस्कार करके लज्जित हो कुछ सोचकर इन्द्रके दिये हुए दिव्य सिंहासनपर नहीं बैठे। तब भगवान् श्रीकृष्णने उसी क्षण हाथ पकड़कर अपने भक्त नरेशको उस इन्द्रके सिंहासनपर बिठाया ॥ ३७-४१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘राजा-रानीका संवाद’
विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१०॥
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