loader image

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 51 से 58 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58) के इक्यावनवाँ अध्याय में यादवों का द्वैतवन में राजा युधिष्ठिर से मिलकर घोड़े के पीछे-पीछे अन्यान्य देशों में जाना तथा अश्वका कौन्तलपुर में प्रवेश करने का वर्णन है। बावनवाँ अध्याय में श्यामकर्ण अश्वका कौन्तलपुर में जाना और भक्तराज चन्द्रहास का बहुत सी भेंट-सामग्री के साथ अश्व को अनिरुद्ध की सेवा में अर्पित करना और वहाँसे उन सबका प्रस्थान करने का कहा गया है। तिरपनवाँ अध्याय में उद्धव की सलाह से समस्त यादवों का द्वारकापुरी की ओर प्रस्थान तथा अनिरुद्ध की प्रेरणा से उद्भव का पहले द्वारकापुरी में पहुँचकर यात्रा का वृत्तान्त सुनाना कहा है। चौवनवाँ अध्याय में वसुदेव आदिके द्वारा अनिरुद्ध की अगवानी; सेना और अश्वसहित यादवों का द्वारकापुरी में लौटकर सबसे मिलना तथा श्रीकृष्ण और उग्रसेन आदि के द्वारा समागत नरेशों का सत्कार करने का वर्णन है। पचपनवाँ अध्याय में व्यासजी का मुनि-दम्पति तथा राज-दम्पतियों को गोमतीका जल लाने के लिये आदेश देना; नारदजी का मोह और भगवान्द्वारा उस मोहका भञ्जन; श्रीकृष्ण की कृपा से रानियों का कलश में जल भरकर लाना कहा गया है।

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड के (Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58) छप्पनवाँ अध्याय राजाद्वारा यज्ञ में विभिन्न बन्धु-बान्धवों को भिन्न-भिन्न कार्यों में लगाना; श्रीकृष्ण का ब्राह्मणों के चरण पखारना; घीकी आहुतिसे अग्निदेव को अजीर्ण होना; यज्ञपशुके तेज का श्रीकृष्ण में प्रवेश; उसके शरीर का कर्पूर के रूप में परिवर्तन; उसकी आहुति और यज्ञ की समाप्तिपर अवभृथस्त्रान सत्तावनवाँ अध्याय में ब्राह्मण भोजन, दक्षिणा-दान, पुरस्कार वितरण, सम्बन्धियों का सम्मान तथा देवता आदि सबका अपने-अपने निवास स्थानको प्रस्थान और अट्ठावनवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा कंस आदि का आवाहन और उनका श्रीकृष्ण को ही परमपिता बताकर इस लोक के माता-पिता से मिले बिना ही वैकुण्ठलोक को प्रस्थान वर्णन है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इक्यावनवाँ अध्याय

यादवों का द्वैतवन में राजा युधिष्ठिरसे मिलकर घोड़ेके पीछे-पीछे अन्यान्य
देशोंमें जाना तथा अश्वका कौन्तलपुरमें प्रवेश

श्रीगर्गजी कहते हैं- नृपेश्वर ! तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण यादवोंकी रक्षा करके सबसे मिल-जुलकर रथके द्वारा कुशस्थलीपुरीको चल दिये। उनके चले जानेपर अनिरुद्धने अश्वका यत्नपूर्वक पूजन किया और विजययात्राके लिये पुनः उसे बन्धनमुक्त कर दिया। छूटनेपर वह घोड़ा अनेकानेक देशोंको देखता हुआ तीव्र गतिसे आगे बढ़ा। राजेन्द्र ! उसके पीछे वृष्णिवंशी यादव भी वेगपूर्वक चले। दुर्योधनकी पराजय सुनकर दूसरे-दूसरे भूपाल महाबली श्रीकृष्णके भयसे अपने राज्यमें आनेपर भी उस घोड़ेको पकड़ न सके ॥ १-४॥

तदनन्तर यज्ञका वह घोड़ा इधर-उधर देखता- सुनता हुआ द्वैतवनमें जा पहुँचा, जहाँ राजा युधिष्ठिर भाइयों और पत्नीके साथ वनवास करते थे। उस द्वैतवनमें भीमसेन प्रतिदिन हाथियोंके समुदायोंके साथ उसी तरह क्रीडा करते थे, जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता है। उन्होंने वहाँ उस घोड़ेको देखा। वह वन बड़ा ही विशाल और घना था। बरगद, पीपल, बेल, खजूर, कटहल, मौलसिरी, छितवन, तिन्दुक, तिलक, साल, तमाल, बेर, लोध, पाटल, बबूल, सेमर, बाँस और पलाश आदि वृक्षोंसे भरा था। उस दुर्जर-निर्जन वनमें, जहाँ सूअर, हिरण, व्याघ्र, भेड़िये और सर्प रहते थे, जहाँ झींगुरोंकी झीनी झनकार गूँजती रहती थी, जिसमें गीध और चील आदि पक्षी रहा करते थे, बाँबीसे आधा शरीर निकाले हुए अगणित सर्प भरे थे; सियार, वानर, भैंसे, नीलगाय, आदि जिसे वनकी शोभा बढ़ाते थे तथा राजन् ! गवय, हाथी, भालू, बिलाव और वनमानुष आदिके रहनेसे जो बड़ा भयंकर प्रतीत होता था, उस वनमें उस घोड़ेको आया हुआ देख भयानक पराक्रमी भीमसेनने उसका केश पकड़ लिया। नरेश्वर। भालपत्रसहित उस अश्वको अनायास ही काबूमें करके ‘किसने इसे छोड़ा है’- ऐसी बात कहते हुए वे उसे लेकर धीरे-धीरे आश्रमकी और चले ॥५-१३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

राजन् ! उसी समय उस वनमें यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका बड़े कष्टसे अवलोकन करते हुए अनिरुद्ध आदि समस्त यादव वहाँ आ पहुँचे। घोड़ेको पकड़ा गया देख वे आपसमें कहने-‘अहो! यह वनेचर तो भीमसेनके समान दिखायी देता है। बड़ी-बड़ी बाँहें, अत्यन्त पुष्ट शरीर, बहुत ऊँचा कद, लाल आँखें और महान् गौरवर्ण-सब उन्हींके समान हैं। यह कठिनाइयोंको झेलनेमें समर्थ है। इसके सारे अङ्गमें धूल लिपटी हुई है तथा इसने भीमकी ही भाँति गदा भी ले रखी है।’ परस्पर ऐसी बातें कहते हुए वे सब लोग फिर उस वनेचरसे बोले ॥ १४-१७॥

‘अरे भाई! तुम कौन हो? राजाधिराजके इस अश्वको लेकर कहाँ जाआगे? अतः शीघ्र इसे छोड़ दो, नहीं तो हमलोग तुम्हें बाणोंसे मारेंगे ‘ ॥ १८ ॥

उनकी यह बात सुनकर भीमने घने जंगलमें घोड़ेको बाँध दिया और दस हजार भार लोहेकी बनी हुई अपनी भारी गदा लेकर वे उनके सामने गये। पराक्रमी भीमने संग्राममें यादव सैनिकोंको गदासे मारना आरम्भ किया। भीमकी चोट जिनपर पड़ गयी, वे सब यादव वहीं ढेर हो गये। उस वनेचरका पराक्रम देख अनिरुद्ध कुपित हो उठे। उन्होंने अपने उस शत्रुके ऊपर एक हजार मतवाले हाथी हाँक दिये। वे हाथी क्या थे, दिग्गज थे और पर्वतके शिखरके समान दिखायी देते थे। उन्होंने भीमसेनको पृथ्वीपर पटक दिया और दाँतोंसे दबाना आरम्भ किया। यह देख भीमसेन सहसा उठकर खड़े हो गये और क्रोधसे उनके ओठ फड़कने लगे। उन्होंने अपनी वज्र सरीखी गदासे उन मतवाले हाथियोंको पीटना आरम्भ किया। किन्हींको उठाकर आकाशमें फेंक दिया और कितनोंको वहीं पृथ्वीपर दे मारा। कुछ हाथियोंको उन्होंने पैरोंसे मसल दिया और कितनोंको उठाकर दूसरे हाथियोंपर फेंक दिया। फिर तो सारे हाथी भयसे व्याकुल हो भागने लगे ॥ १९-२४ ॥

तब अत्यन्त कुपित हो गदाधारी गद वहाँ आ पहुँचे। निकट जाकर उन्होंने भीमसेनको पहचान लिया। फिर भी मनमें शङ्का बनी रही। अतः उन्होंने नमस्कार करके पूछा- ‘हे वीर। तुम कौन हो? यह मेरे सामने ठीक-ठीक बताओ’ ॥ २५-२६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

वे बोले- ‘हे गद। मैं भीमसेन हूँ। हमारे शत्रु दुर्योधनने हमें जुएमें जीतकर नगरसे निकाल दिया। यहाँसे एक योजनकी दूरीपर भाइयोंसहित युधिष्ठिर वनवास करते हैं। देखो न, यह भगवान की कैसी विचित्र माया है। वनमें निवास करते हुए आठ वर्ष बीत गये हैं। अभी चार वर्ष शेष हैं। इसके बाद हमें पुनः एक वर्षतक अज्ञातवास करना होगा। अर्जुन इन्द्रके बुलानेसे स्वर्गलोकमें गये हैं। मैं नहीं जानता कि वे इस भूतलपर कबतक लौटेंगे। गद। तुम हमें यादवोंका कुशल-समाचार बताओ। यह किस राजाका घोड़ा है? और तुमलोग किसलिये यहाँ आये हो?’ ऐसा कहकर भीमसेन दुर्योधनके दिये हुए क्लेशोंको याद करके दुःखी हो अश्रुधारा बहाते हुए रोने लगे ॥ २७-३२ ॥

उनकी ये बातें सुनकर गद भी दुःखी हो गये और भीमको आश्वासन देकर उन्होंने सारी बातें विस्तारपूर्वक कह सुनायीं। वह सब सुनकर भीमसेनको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अनिरुद्ध आदि श्रेष्ठ यादव वीरों को साथ लेकर धर्मनन्दन युधिष्ठिरके समीप गये। राजन् ! यादवोंका आगमन सुनकर अजातशत्रु युधिष्ठिरको बड़ा हर्ष हुआ और वे नकुल आदिके साथ उनकी अगवानीके लिये आश्रमसे बाहर निकले। नरेश्वर! समस्त यादवोंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और युधिष्ठिरने उन्हें उत्तम आशीर्वाद दे बड़ी प्रसन्नताके साथ उन सबको द्वैतवनमें ठहराया। राजा युधिष्ठिरने सूर्यदेवकी दी हुई बटलोईके प्रभावसे वहाँ आये हुए सब अतिथियोंको यथायोग्य उनकी रुचिके अनुरूप भोजन दिया। परंतप! वहाँ एक रात रहकर प्रातःकाल प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध पाण्डवोंको यज्ञका निमन्त्रण दे, घोड़ेको मुक्त कराकर यादवोंके साथ वहाँसे शीघ्र चल दिये और घोड़ेके पीछे-पीछे सारस्वत-देशोंमें गये ॥ ३३-३९ ॥

राजन् । बहुत-से वीर-विहीन देशोंको छोड़कर वह अश्वराज इच्छानुसार विचरता हुआ कौन्तलपुरमें गया। महाराज। उस नगरमें ‘चन्द्रहास’ नामक वैष्णव राजा राज्य करता था, जो केरल-देशके राजाका पुत्र था और कुलिन्दने उसका पालन किया था। वह भगवान् श्रीकृष्णके प्रसादसे वहाँ राज्य करता था। राजन् । भक्त चन्द्रहासकी कथा ‘जैमिनी महाभारत’ में वर्णित है। नारदजीने अर्जुनके सामने चन्द्रहासके जीवनवृत्तका विस्तारपूर्वक वर्णन किया था। उस कौन्तलपुरमें सब लोग श्रीकृष्णके भक्त होकर रहते हैं। वे सब के सब ब्राह्मणभक्त, पुण्य- परायण, परस्त्रीपराङ्मुख, अपनी ही पत्नीमें अनुराग रखनेवाले तथा सतत श्रीकृष्णकी समाराधनामें संलग्न रहनेवाले थे। वे गोविन्दकी गाथाएँ और पुराण-कथा सुनते तथा बड़े आनन्दसे श्रीराधा और माधवके नाम जपते थे। वहाँके द्विज दो ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण करते, तुलसीकी मालाएँ पहनते और गोपीचन्दन, केसर तथा हरिचन्दनसे चर्चित रहते थे। वे सब ललाटमें श्याम-बिन्दु धारण करते, उनमेंसे कोई-ही- कोई ऐसे थे, जो श्रीतिलक लगाते थे। वहाँके सभी वैष्णव बारह तिलक और आठ मुद्राएँ धारण करते थे। ब्राह्मण आदि वर्णके गृहस्थलोग प्रतिदिन प्रातः काल गोपीचन्दनसे युक्त शीतल मुद्रा धारण करते थे। कोई-कोई विरक्त और संन्यासी साधु अग्निसंस्कारके लिये तप्तमुद्रा धारण करते थे। उस नगरमें इधर- उधर देखता हुआ वह घोड़ा राजभवनमें जा पहुँचा, जहाँ राजा चन्द्रहास चन्द्रमाके समान शोभा
पाता था ॥ ४०-५० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अश्वका कौन्तलपुरमें गमन’
नामक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

बावनवाँ अध्याय

श्यामकर्ण अश्वका कौन्तलपुरमें जाना और भक्तराज चन्द्रहासका बहुत सी
भेंट-सामग्रीके साथ अश्वको अनिरुद्धकी सेवामें अर्पित करना
और वहाँसे उन सबका प्रस्थान

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! वहाँ आये हुए घोड़ेको देखकर व्रजचन्द्र श्रीकृष्ण के दास राजा चन्द्रहासने उसे तत्काल पकड़ लिया और प्रसन्नता- पूर्वक उसके भालपत्रको पढ़ा। नरेश्वर। उस पत्रको पढ़कर उस महाभगवद्भक्त नरेशने कहा-‘अहो! बड़े सौभाग्यकी बात है कि मैं आज भगवान् श्रीकृष्ण के पौत्रको अपने नेत्रोंसे देखूँगा। पता नहीं, पूर्वकालमें मेरे द्वारा कौन-सा ऐसा पुण्य बन गया है, जिससे मुझे श्रीकृष्णतुल्य यदुकुलतिलक अनिरुद्धके दर्शनका अवसर मिल रहा है। मैंने आजतक मायासे मानव शरीर धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं किया है। इसलिये मैं प्रद्युम्नकुमारके साथ द्वारका जाऊँगा और वहाँ श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न तथा उन महाराज उग्रसेनका भी दर्शन करूँगा, जो भगवान श्रीकृष्ण से भी पूजित हैं॥१-४३॥ –

ऐसा कहकर राजा चन्द्रहास गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि उपचार, दिव्य वस्त्र, दिव्य रत्न और उस घोड़ेको भी साथ लेकर माला-तिलकसे सुशोभित समस्त पुरजनोंसहित अनिरुद्धका दर्शन करनेके लिये नगरसे बाहर निकला। गीत और बाजोंकी मङ्गलमयी ध्वनिके साथ राजा पैदल ही गया ॥ ५-७॥

नरेश्वर! नागरिकोंसहित राजाको आया देख अनिरुद्धको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मन्त्री उद्धवजीसे पूछने लगे ॥ ८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

अनिरुद्धने कहा- महामन्त्रिन् ! यह कौन राजा है, जो समस्त पुरवासियोंके साथ हमसे मिलनेके लिये आया है? आप इसका वृत्तान्त हमें बतावें ॥ ९ ॥

उद्धव बोले- प्रद्युम्रकुमार ! यह केरलके राजाका पुत्र ‘चन्द्रहास’ नामक नरेश है। इसके माता- पिता बचपनमें ही परलोकवासी हो गये; अतः कुलिन्दने इसका पालन किया है। यह बाल्यावस्थासे ही भगवान् श्रीकृष्णका भक्त है और उन्होंने ही इसकी रक्षा की है। दुष्टबुद्धिवाले मन्त्रीकी पुत्रीके साथ इसने विवाह किया है। कुन्तल देशके राजा इसे अपना राज्य देकर वनमें चले गये थे। उस राजाका वृत्तान्त मैंने द्वारकामें श्रीकृष्णके ही मुखसे सुना था। उसे दर्शन देनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं यहाँ पधारेंगे ॥ १०-१२ ॥

उद्धवकी यह बात सुनकर यादवप्रवर अनिरुद्ध चकित हो गये। समस्त पुरवासियोंसे घिरे हुए राजा चन्द्रहासने अनिरुद्धके निकट जाकर श्यामकर्ण घोड़ा दिया और प्रसन्नतापूर्वक बहुत धन-राशि भी भेंट की। पचास हजार हाथी, एक लाख रथ, एक करोड़ घोड़े, एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ, एक हजार गवय, एक हजार शिविकाएँ, दस लाख धेनु, दस हजार प्रत्यञ्चा, एक करोड़ भर सोना, चार करोड़ भर चाँदी और एक लाख आभूषण-उस राजाने माधव अनिरुद्धको भेंटमें दिये ॥ १३-१७ ॥

चन्द्रहासने कहा- जो समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ, श्रीकृष्ण पौत्र, लोकेश्वर, प्रद्युम्नपुत्र, यदुकुलतिलक तथा पूर्ण परमात्मदेव हैं, उन अनिरुद्धको बारंबार मेरा नमस्कार है॥ १८ ॥

भक्तका यह वचन सुनकर प्रसन्न हुए प्रद्युम्नकुमारने उसकी प्रशंसा करके उसे एक देदीप्यमान रत्नमाला अर्पित की। राजेन्द्र ! चन्द्रहासने अपने राज्यपर मन्त्रीको नियुक्त करके अपने नगरसे यादवोंके साथ जानेका विचार किया। वे समस्त श्रेष्ठ यादव उस नगरमें एक रात रहकर प्रातः काल चन्द्रहासके साथ वहाँसे प्रस्थित हो गये। भालपत्रसे सुशोभित घोड़ा उनके आगे-आगे चला और सैकड़ों आवर्ती (भँवरों) से व्याप्त ‘सप्तवती’ के पास जा पहुँचा। वह नदी अपनी तरङ्गॉसे तटभूमिको तोड़ रही थी। उसका वेग बहुत प्रबल था और उसे पार करना सबके लिये कठिन था। उसके किनारे बहुत-सी नौकाएँ बंधी थीं। उस नदीका दर्शन करके वीर प्रद्युम्रनन्दन अनिरुद्धने सौ अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पार जानेका विचार किया ॥ १९-२३ ॥

नृपश्रेष्ठ ! अनिरुद्ध पहले साम्ब आदिसे घिरकर हाथीपर सवार हुए और नाव छोड़कर उन्होंने नदीके जलमें प्रवेश किया। पहले तो उसका जल उस सेनासे मथित होकर गैंदला हो गया। फिर वह नदी पङ्किल भूमिमात्र रह गयी। यह विचित्र घटना घटित हुई। समस्त यादव हँसते हुए बड़े विस्मयमें पड़ गये ॥ २४-२६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

तदनन्तर वह घोड़ा धीरे-धीरे आगे बढ़ा और जाते-जाते जहाँ सिन्धु नदी एवं समुद्रके मध्यमें नारायण सरोवर है, वहाँ पहुँच गया। वह प्याससे व्याकुल हो रहा था। उसने उस तीर्थका जल पिया। इतनेमें ही अनिरुद्ध आदि समस्त यादव वहाँ आ गये। उन्हें मार्गमें धर्मद्वेषी नीच म्लेच्छोंसे लोहा लेना पड़ा और उन्हें परास्त करके वे वहाँ आये थे। वहाँ घोड़ेको देखकर उन सबने नारायण-सरोवरमें स्नान किया ॥ २७-२९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५२॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

तिरपनवाँ अध्याय

उद्धवकी सलाहसे समस्त यादवोंका द्वारकापुरीकी ओर प्रस्थान तथा अनिरुद्धकी
प्रेरणासे उद्भवका पहले द्वारकापुरीमें पहुँचकर यात्राका वृत्तान्त सुनाना

श्रीगर्गजी कहते हैं- महाराज ! राजा उग्रसेनका घोड़ा बड़े-बड़े वीर नरेशोंका दर्शन करता तथा भारतवर्ष में विचरता हुआ अन्यान्य राज्योंमें गया। प्रजानाथ! इस तरह भ्रमण करते हुए उस अश्वको बहुत काल व्यतीत हो गया और फाल्गुनका महीना आ पहुँचा, जो सबको घरकी याद दिलानेवाला है। फाल्गुन मास आया हुआ देख अनिरुद्ध शङ्कित हो गये और बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ मन्त्रिप्रवर उद्धवसे बोले ॥ १-३॥

अनिरुद्धने कहा- मन्त्रिप्रवर ! यादवराज उग्रसेन चैत्रमें ही यज्ञ करेंगे। हमलोग क्या करें? अब अधिक दिन शेष नहीं रह गये हैं। इस भूतलपर अश्वका अपहरण करनेवाले राजा कितने शेष रह गये हैं, मैं सुनना चाहता हूँ। आप शीघ्र उनके नाम बतावें ॥ ४-५ ॥

उद्धव बोले- हरे! अब भूतलपर या आकाशमें अश्वका अपहरण करनेवाले शूरवीर शेष नहीं रह गये हैं। इसलिये अब तुम सोनेके हारोंसे अलंकृत द्वार- वाली यादवोंकी द्वारकापुरीको चलो ॥ ६ ॥

उनकी यह बात सुनकर अनिरुद्धको बड़ा हर्ष हुआ। राजन् ! अनिरुद्धने अश्वके आगे भी उद्धवजीकी कही हुई बात दोहरायी। इस प्रकार अनिरुद्धका कथन सुनकर वह सर्वज्ञ अश्व उसी तरह शीघ्रतापूर्वक द्वारका को चल दिया, जैसे लङ्कासे लौटे हुए हनुमान्जी बड़े वेगसे किष्किन्धापुरीमें आये थे। नरेश्वर! उसके पीछे- पीछे भानु और साम्ब आदि शूरवीर वायु तथा मनके समान वेगशाली घोड़ोंद्वारा दौड़ने लगे। उन सब लोगों- ने अश्वके अपहरणकी आशङ्कासे उसको पकड़कर सोनेकी रस्सियोंसे बाँध दिया और उसे सेनाके बीचमें करके अपनी पुरीकी ओर प्रस्थान किया ॥ ७-१०॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

गाजे-बाजे की आवाज के साथ दुन्दुभियाँ बजवाते, पृथ्वीको कम्पित करते तथा दुष्ट शत्रुओंके मनमें त्रास भरते हुए यादवगण आगे बढ़ रहे थे। यादवोंके साथ जाते हुए उस घोड़ेको देखकर नारदजी नया कलह या विवाद खड़ा करनेके लिये दूतकी भाँति इन्द्रके पास गये। उनके सामने घोड़ेका वृत्तान्त उन्होंने विस्तारपूर्वक कहा। राजेन्द्र ! वह वृत्तान्त सुनकर इन्द्रने उस घोड़ेको चुरा ले जानेका विचार किया। वे शीघ्र ही अदृश्य होकर अश्वको देखनेके लिये भूतलपर आये। अहो ! भगवान् विष्णुकी मायासे सब देवता भी मोहित रहते हैं। कुबेर, ब्रह्मा और इन्द्र आदि भी जब भगवान्‌की मायासे मोहित हो जाते हैं, तब भूतलके साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है? इन्द्रने वहाँ जाकर वृष्णिवंशियों की सम्पूर्ण सेनाका निरीक्षण किया। वह सेना प्रलय कालके समुद्रकी भाँति भयंकर तथा करोड़ों शूरवीरोंसे भरी हुई थी। यादवोंकी उस उद्भट एवं विशाल सेनाको देखकर इन्द्र डर गये। राजन् ! श्रीकृष्णके भयसे देवेन्द्र अविलम्ब इन्द्रावतीपुरीको लौट गये। यह भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा थी, जिससे उन्होंने युद्धकी आशा छोड़कर चुपचाप बैठ रहनेकी नीति अपनायी ॥ ११-१७॥

अनेक चतुरङ्गिणी टुकड़ियोंसे युक्त हो यात्रा करती हुई महात्मा अनिरुद्धको वह विशाल सेना हाथियों, रथों, घोड़ों और पैदल वीरोंके द्वारा स्वर्गलोकमें इन्द्रकी सेनाके समान सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण हाथी अलग हो गये। रथ, घोड़े और पैदल भी अलग- अलग होकर चलने लगे। श्रीकृष्णके पुत्रगण हर्षोल्लाससे भरकर द्वारकाके पथका अनुसरण कर रहे थे। वे जम्बूद्वीपके विजेता थे और लोक-परलोक- दोनोंपर विजय पाना चाहते थे। राजन्। वे श्रेष्ठ यादव अग्रगामी वाहन-श्यामकर्ण अश्वको आगे करके भाँति- भौतिके बाजे बजाते तथा नाच-गान आदि उत्सव करते हुए जा रहे थे ॥ १८-२१॥

नरेश्वर। साम्ब आदि श्रीकृष्णपुत्रों तथा इन्द्रनील एवं चन्द्रहास आदि सहस्त्रों भूपालोंसे विभूषित हो अनिरुद्धने आनर्तदेशमें प्रवेश करके साम्बकी अनुमतिसे उद्धवजीको द्वारका भेजा। अभी वह पुरी वहाँसे दो योजन दूर थी। उनके द्वारा इस प्रकार प्रेरित हो उद्धवजी उन रुक्मवतीकुमार अनिरुद्धको नमस्कार करके शीघ्र ही एक शिबिकापर आरूढ़ हुए और हर्षपूर्वक पुरीकी ओर चल दिये, जहाँ मुनियोंसे घिरे हुए महाराज उग्रसेन सभामण्डपसे भूषित श्रेष्ठ पिण्डारक क्षेत्रमें निवास करते थे। राजन् ! जहाँ वसुदेव आदि, बलराम और श्रीकृष्ण आदि तथा बलवान् प्रद्युम्न आदि प्रतिदिन यज्ञकी रक्षा करते थे, वहाँ उद्धवजी राजसभामें गये। उन्होंने यादवेन्द्र उग्रसेनको प्रणाम करके वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण तथा प्रद्युम्न आदि समस्त उत्तम यादवोंको यथायोग्य प्रणाम किया और उनके सामने खड़े हो गये। उन्हें देखकर सबका मन प्रसन्न हो गया। फिर उनके पूछने- पर उद्धवने सब वृत्तान्त बताया ॥ २२-२८ ॥

उद्धव बोले- राजेन्द्र। आपका श्यामकर्ण अश्व निर्विघ्न लौट आया। अनिरुद्ध आदि श्रेष्ठ यादव भी कुशलपूर्वक आ गये हैं। गोविन्दकी कृपासे राजा इन्द्रनील और हेमाङ्गद आये हैं। स्त्रीराज्यकी साम्राज्ञी सुरूपा भी आ पहुँची है। भीषणसहित बक भी युद्धमें परास्त हुआ है। बिन्दु और अनुशाल्व- ये दो बीर अपने-अपने नगरसे पधारे हैं। ‘पाञ्चजन्य’ नामक उपद्वीपमें असुराँसहित बल्वलको जीत लिया गया है। उस युद्धमें भगवान् शंकरने रुष्ट होकर अनिरुद्ध और सुनन्दनका वध कर दिया था तथा और भी बहुतसे यादव मार डाले थे; किंतु भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ पहुँचकर समस्त यादवोंको जीवनदान दिया। अतः यह ध्यान देनेयोग्य है कि श्रीकृष्णकी कृपासे ही हम सब लोग सकुशल लौटे हैं। समस्त कौरव परास्त हो गये और भीष्मजी हमारे साथ ही यहाँ पधारे हैं। हमने द्वैतवनमें दुःखपीड़ित पाण्डवोंको देखा और व्रजमें श्रीकृष्णविरहसे व्याकुल गोपगणोंका भी दर्शन किया। जो बाल्यावस्थासे ही भगवान् श्रीकृष्णका भक्त है, वह राजा चन्द्रहास भी हमारे साथ यहाँ आया है। और भी बहुत से भूपाल आपके भयसे यहाँ आये हैं॥ २९-३६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

श्रीगर्गजी कहते हैं- महाराज। उद्धवजीके मुखसे इस प्रकार श्रीकृष्णके गुणोंका गान सुनकर यादवेश्वर उग्रसेन प्रेमसे विह्वल हो कुछ बोल न सके। वे आनन्दके महासागरमें मग्न हो गये। उन्होंने उद्धवको मणिमय हार दिया। रत्न, वस्त्र, शिविका, हाथी, घोड़े और रथ भी दिये। तब भगवान् श्रीकृष्णने शीघ्र ही उठकर हर्षोल्लाससे पूरित हो भरी सभामें मित्र उद्धवसे मिलकर उन्हें हृदयसे लगा लिया। इसके बाद हर्षसे भरे हुए उग्रसेनने गोविन्दसे कहा- ‘श्रीकृष्ण! तुम यादवोंके साथ अनिरुद्धको ले आनेके लिये जाओ’ ॥ ३७-४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें अश्वमेधखण्डके अन्तर्गत ‘उद्धवका आगमन’
नामक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम

चौवनवाँ अध्याय

वसुदेव आदिके द्वारा अनिरुद्धकी अगवानी; सेना और अश्वसहित यादवोंका
द्वारकापुरीमें लौटकर सबसे मिलना तथा श्रीकृष्ण और उग्रसेन
आदिके द्वारा समागत नरेशोंका सत्कार

श्रीगर्गजी कहते हैं- नरेश्वर ! तदनन्तर उग्रसेनके आदेशसे वसुदेव आदि समस्त श्रेष्ठ यादव विजय-यात्रासे लौटे हुए अनिरुद्धको लानेके लिये द्वारकापुरीसे निकले। वे हाथी, घोड़ों, रथों और शिबिकाओंपर बैठे थे। नृपेश्वर! उनके साथ बलदेव, श्रीकृष्ण आदि, प्रद्युम्न आदि तथा उद्धव आदि हाथीपर आरूढ़ हो श्यामकर्ण अश्वको देखनेके लिये निकले। नृपश्रेष्ठ! श्रीकृष्ण और बलरामकी माताएँ, देवकी आदि नारियाँ विचित्र शिविकाओंपर बैठकर नगरसे निकलीं भगवान् श्रीकृष्णकी जो रुक्मिणी और सत्यभामा आदि पटरानियाँ तथा सोलह हजार अन्य रानियाँ थीं, वे सब की सब शिविकाओंपर आरूढ़ हो उन लोगोंके साथ गयीं। नृपेश्वर! बहुत-सी कुमारियाँ हाथियोंपर बैठकर लावा, मोती और फूलोंकी वर्षा करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक गयीं। पनिहारिनें (पानी ढोनेवाली स्त्रियाँ) जलसे भरे हुए कलश लेकर निकलीं। सौभाग्यवती ब्राह्मणपनियाँ गन्ध, पुष्प, अक्षत और दूर्वाङ्कर लेकर गयीं। रूपवती वाराङ्गनाएँ सब प्रकारके शृङ्गारोंसे सुशोभित हो श्रीहरिके गुणोंका गान करती हुई नृत्य करनेके लिये निकलीं। समस्त यादव शङ्खनाद, दुन्दुभियोंके शब्द और वेदमन्त्रोंके घोषके साथ एक गजराजको आगे करके गर्गाचार्य आदि मुनियोंसहित अपनी पुरीकी शोभा निहारते हुए गये। द्वारकापुरी ध्वजा-पताकाओंसे अलंकृत थी। उसकी सड़कोंपर सुगन्धित जलका छिड़काव किया गया था। पुरोका प्रत्येक भवन केलेके खम्भों और बन्दनवारोंसे शोभित था। रत्नमय दीपों और भाँति-भाँतिके चंदोवोंसे द्वारकापुरी उद्दीप्त हो रही थी। वहाँकी दिव्य नारियाँ और दिव्य पुरुष सुनहरे रंगके पीताम्बर धारण किये नगरकी शोभा बढ़ाते थे। पक्षियोंके
कलरव और अगुरुकी गन्धसे व्याप्त धूमजालसे श्रीकृष्णकी वह नगरी इन्द्रकी अमरावतीपुरीके समान सुशोभित थी ॥ १-११॥

इस तरह नगरीकी शोभा-सज्जाका अवलोकन करते हुए यादव शीघ्र उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ श्यामकर्ण अश्वसहित अनिरुद्ध सेनासे घिरे हुए विराजमान थे। उन गुरुजनोंको आये देख अनिरुद्ध अपने रथसे उतर गये और यज्ञ-सम्बन्धी अश्वको आगे करके अन्यान्य नरेशोंके साथ पैदल ही चलने लगे। पहले उन्होंने यदुकुलके आचार्य गर्गमुनिको नमस्कार किया। तत्पश्चात् वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण और अपने पिता प्रद्युम्नको प्रणाम करके वह अश्व उन्हें अर्पित कर दिया। उन सब लोगोंने प्रसन्न होकर प्रेमपूर्ण हृदयसे अनिरुद्धको शुभाशीर्वाद दिया और कहा- ‘वत्स ! तुमने बड़ा अच्छा किया कि समस्त शत्रुनरेशोंको जीतकर यज्ञ सम्बन्धी अश्वको एक वर्षके भीतर ही यहाँ वापस ला दिया’ ॥ १२-१५ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

उन सबका यह वचन सुनकर अनिरुद्ध मेरी ओर देखते हुए बोले- ‘विप्रवर! आपकी कृपासे ही मार्ग- मार्गमें और प्रत्येक युद्धमें बहुत से शत्रुओंद्वारा पकड़ा जानेपर भी यह अश्व उनसे छुड़ा लिया गया है। गुरुके अनुग्रहसे ही मनुष्य सुखी होता है। इसलिये अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक गुरुदेवका पूजन करना चाहिये ॥ १६-१८ ॥

इसके बाद अन्य सब भूपाल बलराम और श्रीकृष्णके समीप आये तथा सब लोगोंने प्रसन्न एवं प्रेममग्र होकर अलग-अलग बारी-बारीसे उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उन समस्त भूपालोंको नतमस्तक देख बलरामसहित श्रीकृष्णने चन्द्रहास, भीष्म, बिन्दु, अनुशाल्व, हेमाङ्गद और इन्द्रनील आदि सबको बड़े हर्षके साथ हृदयसे लगाया। अतः श्रीकृष्णभक्तसे बढ़कर दूसरा कोई इस भूतलपर नहीं है॥ १९-२१॥

नृपेश्वर ! तदनन्तर उस यात्रासे विजयी होकर लौटे हुए अनिरुद्धको हाथीपर बिठाकर वसुदेवजी समस्त यादवों तथा मुदित पुत्र-पौत्रोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक कुशस्थलीपुरीमें गये। उस समय देवाङ्गनाएँ उन सबके ऊपर फूलों और मकरन्दोंकी वर्षा करने लगीं तथा हाथियोंपर बैठी हुई कुमारियोंने खीलों और मोतियोंकी वृष्टि की। वे सब लोग नृत्य, वाद्य, गीत और वेदमन्त्रोंके घोषसे सुशोभित हो, जिसकी सड़कोंपर छिड़काव किया गया था, उस द्वारकापुरीकी शोभा निहारते हुए पिण्डारकक्षेत्रमें गये। सब राजा यादवोंके उस देवदुर्लभ वैभवको देखकर आश्चर्यचकित हो अपने-अपने वैभवकी निन्दा करने लगे। उन्होंने यज्ञस्थलको भी देखा, जो घीकी सुगन्धसे भरे धूमजाल तथा ब्राह्मणोंके मन्त्रघोषसे व्याप्त था। फिर वहाँ असिपत्र-व्रतधारी यदुकुलतिलक महाराज उग्रसेनको भी उन्होंने देखा, जो देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी, जितेन्द्रिय, हृष्ट-पुष्ट और दीप्तिमान् थे। वे कुशासनपर बैठे बड़े सुन्दर लग रहे थे। उन्होंने नियम-निर्वाहके लिये आभूषण उतार दिये थे। हाथमें मृगका श्रृशृङ्ग ले रखा था और अपनी रानीके साथ मृगछालापर ही वे विराजमान थे, जो उक्त कुशासनके ऊपर बिछा था। महाराज उग्रसेन घृत, गन्ध और अक्षत आदिसे यज्ञ- मण्डपमें अग्रिकी पूजा कर रहे थे। उनके साथ ऋषि- मुनि बैठे थे और उनके नेत्र धुआँ लगनेके कारण लाल हो गये थे॥ २२-२९ ॥

अनिरुद्ध आदि यादवोंने वाहनोंसे उतरकर यज्ञ- सम्बन्धी अश्वको आगे करके बड़ी प्रसन्नताके साथ महाराजको पृथक् पृथक् प्रणाम किया। इसके बाद यादवराज श्रीउग्रसेनने उन समस्त नरेशों और यादवोंका अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य सम्मान किया। तत्पश्चात् अनिरुद्धने शीघ्रतापूर्वक नमस्कार करके, दोनों हाथ जोड़कर सबके सुनते हुए उन जम्बू- द्वीपके स्वामी महाराज उग्रसेनसे कहा ॥ ३०-३२॥

अनिरुद्ध बोले- महाराज! इनकी ओर देखिये। ये नरपतियोंमें श्रेष्ठ राजा इन्द्रनील बड़े प्रेमसे आपके चरणोंमें पड़े हैं; आप देवताकी भाँति इन्हें उठाइये। हेमाङ्गद, अनुशाल्व, बिन्दु, श्रीचन्द्रहास तथा ये देवव्रत भीष्मजी भी आपके समीप आये हैं; आप इनपर दृष्टिपात कीजिये। ये मेरे रक्षक जाम्बवतीनन्दन साम्ब पधारे हैं; इनकी ओर देखिये। श्रीरुद्रदेवने इनको और मुझको भी मार डाला था, किंतु परमात्मा श्रीकृष्णने हमें जीवनदान दिया। इसी तरह रुद्रद्वारा मारे गये और श्रीकृष्ण कृपासे जीवित हुए, इन सुनन्दनपर भी दृष्टिपात कीजिये और अन्य समस्त यादवोंको भी देखिये, जो श्रीकृष्ण-कृपासे ही यहाँ लौटकर आये हैं। निर्विघ्न लौटे हुए इस यज्ञके घोड़ेको ग्रहण कीजिये तथा आपने युद्धके लिये जो तलवार दी थी, उसको भी ले लीजिये। आपको नमस्कार है॥ ३३-३७ ॥

अनिरुद्धका यह वचन सुनकर यादवराज उग्रसेन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उनकी प्रशंसा करके अन्यान्य नरेशोंको भी यथायोग्य आशीर्वाद दिया। फिर समस्त नरेशोंका पूजन करके वे देवव्रत भीष्मसे बोले- ‘भीष्मनी ! आइये और मेरे साथ हृदय-से-हृदय लगाकर मिलिये।’ यों कहकर यदुकुलतिलक उग्रसेनने उठकर उनका गाढ़ आलिङ्गन किया। इसके बाद दान-मानसे सम्मानित हुए वे राजा तथा यादव बड़ी प्रसन्नताके साथ द्वारकापुरीके विभिन्न गृहोंमें निवास करने लगे ॥ ३८-४०॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

नरेश्वर! तदनन्तर अनिरुद्धको साम्ब आदिके साथ आया देख देवकी, रोहिणी, रुक्मिणी तथा रुक्मवती आदि पूजनीया स्त्रियोंने उन्हें हृदयसे लगाकर बड़े हर्षका अनुभव किया। राजन् ! सुरूपा, रोचना और ऊषा-इन सबको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। साम्बकी प्रशंसा सुनकर दुर्योधनकी पुत्री लक्ष्मणा नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाती हुई अत्यन्त हर्षका अनुभव करने लगी। नृपश्रेष्ठ। सेनासहित अनिरुद्धके लौट आनेसे द्वारकाके घर-घरमें मङ्गलोत्सव मनाया जाने लगा ॥ ४१-४४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका
द्वारकामें आगमन’ नामक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५४॥

श्रीमद्भगवद्गीता में अपनी समस्याओं का समाधान खोजें

पचपनवाँ अध्याय

व्यासजीका मुनि-दम्पति तथा राज-दम्पतियोंको गोमतीका जल लानेके लिये
आदेश देना; नारदजीका मोह और भगवान्द्वारा उस मोहका भञ्जन;
श्रीकृष्णकी कृपासे रानियोंका कलशमें जल भरकर लाना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तत्पश्चात् आठ द्वारोंसे युक्त, फहराती हुई पताकाओंसे सुशोभित, अग्निकुण्डोंसे सम्पन्न और आठ याज्ञिकोंसे युक्त रमणीय यज्ञमण्डपमें, जहाँ पलाश, बेल तथा बहुवारके यूप शोभा दे रहे थे, अनेकानेक वेदिकाओं तथा चषालों (यज्ञस्तम्भोंके ऊपर लगे हुए काष्ठमय वलयों) से जो विभूषित था तथा जिसमें सुवा, मृगचर्म, कुश, मूसल और उलूखल आदि वस्तुएँ संकलित थीं और इनके अतिरिक्त भी जहाँ बहुत-सी सामग्रियों और नाना प्रकारकी वस्तुओंका संग्रह किया गया था, राजर्षि उग्रसेन वेदोंके पारंगत महर्षियों तथा यादवोंके साथ वैसी ही शोभा पा रहे थे, जैसे अमरावतीपुरीमें देवराज इन्द्र देवताओंके साथ सुशोभित होते हैं॥ १-४॥

भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के आमन्त्रणपर नन्द आदि गोप, वृषभानुवर आदि श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रीदामा आदि ग्वाल-बाल द्वारकापुरीमें आये। यशोदा, राधिका तथा अन्य सब व्रजाङ्गनाएँ शिबिकाओं और रथोंपर आरूढ़ हो प्रसत्रतापूर्वक कुशस्थलीमें आर्यों। बुलावा जानेपर अपने पुत्रों और कौरवोंके साथ राजा धृतराष्ट्र भी वहाँ आये। अन्यान्य नरेश भी निमन्त्रण पाकर कुशस्थलीमें पधारे। श्रीकृष्णसे आमन्त्रित हो युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव अपनी पत्नी द्रौपदीके साथ वनसे वहाँ आये। श्रीकृष्णने नारदजीको भेजकर इन्द्र आदि आठ दिक्पालों, आठ वसुओं, बारह आदित्यों, चारों सनत्कुमारों, ग्यारह रुद्रों, मरुद्रणों, वेतालों, गन्धवाँ, किंनरों, विश्वेदेवों, समस्त साध्यगणों, विद्याधरों, देवताओं, देवपत्नियों, गन्धर्वियों और अप्सराओंको बुलवाया ॥५-११॥

राजन् । वे सब लोग श्रीकृष्णदर्शन की अभिलाषासे द्वारकामें पधारे। कैलाससे सर्वमङ्गला पार्वतीके साथ भगवान् शिव भी बुलाये गये। सुतललोकसे दैत्य-समुदायके साथ प्रह्लाद और बलि आये। विभीषण, भीषण, मय और बल्वलका भी वहाँ आगमन हुआ। दंष्ट्राधारी वनजन्तुओंके साथ जाम्बवान्, वानरोंके साथ हनुमान्, पक्षियोंके साथ पक्षिराज गरुड तथा सर्पोंके साथ नागराज वासुकि भी वहाँ पधारे। महाराज ! धेनुओंके साथ धेनुरूपधारिणी धरा देवी भी उपस्थित हुईं। पर्वतोंके साथ मेरु और हिमालय, वृक्षोंके साथ बरगद, रत्नयुक्त रत्नाकर (समुद्र), नदियोंके साथ स्वर्धनी (गङ्गा), समस्त तीर्थोंके साथ तीर्थराज प्रयाग और पुष्कर ये सब आमन्त्रित होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ उस यज्ञमें आये। फिर श्रीकृष्णके आवाहनपर व्रजभूमि भी वहाँ आ गयी ॥ १२-१७ ॥

श्रीकृष्ण का यज्ञोत्सव देखनेके लिये यमराजकी बहिन यमुनाजी भी आयीं ॥ १७३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

उन सबको आया देख राजा उग्रसेनने बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें यथायोग्य स्थानोंमें ठहराया। किन्हींको शिविरोंमें, किन्हींको मन्दिरोंमें, किन्हींको विमानोंमें और किन्हींको उपवनोंमें आवासस्थान दिया गया। उस यज्ञमें मैंने वेदव्यासजीको आचार्य बनाया और बकदाल्भ्यको ब्रह्मा तथा पहले जिन लोगोंको निमन्त्रित किया गया था, वे दिव्य ऋषि-महर्षि ऋत्विज् बनाये गये। नरेश्वर। इसके बाद यज्ञमें श्रीकृष्णकी इच्छासे अनिरुद्ध ब्रह्माका, चन्द्रमाका और अपना भी पृथक् पृथक् रूप धारण करके तीन रूपोंमें सुशोभित हुए। प्रद्युम्नकुमारकी यह लीला देखकर देवता, यादव और भूपगण आश्चर्यचकित हो परस्पर एक-दूसरेके कानमें इसी बातकी चर्चा करने लगे ॥ १८-२१ ॥

व्यासजीने राजासे कहा- यादवश्रेष्ठ ! मेरी बात सुनो। यहाँ जो राजा और ब्राह्मण यथायोग्य स्थानपर अलग-अलग बैठे हैं, इनमेंसे चौंसठ दम्पति गोमतीके तटपर मेरे आदेशके अनुसार यथोचित जल लानेके लिये जायें। अदितिके साथ कश्यप, अरुन्धतीके साथ वसिष्ठ, कृपीके साथ द्रोणाचार्य, अनुसूयाके साथ अग्रि, रुक्मिणीके साथ श्रीकृष्णचन्द्र, रेवतीके साथ बलराम, मायावतीके साथ प्रद्युम्न, ऊषाके साथ अनिरुद्ध, सुभद्राके साथ अर्जुन, लक्ष्मणाके साथ साम्ब और अपनी-अपनी भार्याओंके साथ हेमाङ्गद आदि राजा भी जायें ॥ २२-२६ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन्। इस प्रकार व्यासजीके कहनेसे सपत्नीक ब्राह्मण और राजा पल्लव बाँधकर गोमतीका जल लानेके लिये गये। देवकी, रोहिणी, कुन्ती, गान्धारी और यशोदाको आगे करके रुक्मिणीसहित श्रीकृष्णने कलश उठाया। इसी प्रकार रेवतीके साथ बलराम तथा जो भी सपत्नीक भूपाल थे उन सबने फूल और पल्लवॉसहित सोने-चाँदीके कलश लेकर गोमती-तटको प्रस्थान किया। उस भीड़में रुक्मिणीके साथ श्रीकृष्णको जाते देख नारदजी झगड़ा लगानेके लिये सत्यभामाके भवनमें गये। भगवान्‌की उस भार्याको घरमें अकेली देख उसके द्वारा आगमनका कारण पूछे जानेपर वे बोले ॥ २७-३१॥

नारदजीने कहा- सत्राजितनन्दिनी! मैं देखता हूँ, इस घरमें तुम्हारा कोई आदर नहीं है। श्रीकृष्ण रुक्मिणीके साथ गोमतीका जल लानेके लिये गये हैं। बहुत-से लोग तुम्हारे पास याचना करने आते हैं। तुम स्वर्गसे पारिजात वृक्ष अपने यहाँ लानेमें सफल हुई हो। श्रीकृष्णके संकल्पको सिद्ध करनेवाली, स्यमन्तक मणिसे मण्डित तथा मानिनी हो। ऐसी तुम परमसुन्दरीको, जो गरुडपर यात्रा कर चुकी है, छोड़कर श्रीकृष्ण रुक्मिणीके साथ शोभा देखनेके लिये चले गये। मा सत्यभामिनि ! जिसके पुत्र प्रद्युम्न हैं और जिसके पौत्र अनिरुद्ध हैं, वह रुक्मिणी अपनी बात, मान और गौरवका सर्वोपरि प्रदर्शन करती है॥ ३२-३५ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- ‘महाराज! मेरे प्राणनाथ रुक्मिणीके साथ गये हैं’- यह बात सुनकर सत्यभामाको बड़ा रोष हुआ। वे दुःखी होकर रोने लगीं। इसी समय नारदजीकी चेष्टा जानकर भगवान् श्रीकृष्ण एक रूपसे तत्काल सत्यभामाके भवनमें चले आये। उन सर्वज्ञ परमेश्वरने वहाँ आते ही यह बात कही- ‘प्रिये। मैं उस समाज (जुलूस) में रुक्मिणीके साथ नहीं गया। भोजन करनेके लिये आ गया हूँ। केवल भौजीके साथ भैया बलरामजी गये हैं’ ॥ ३६-३९ ॥

उनकी यह बात सुनकर सत्यभामा प्रसन्न हो गयी और नारदजी भयभीत होकर उठे तथा दूसरे भवनमें चले गये। जाम्बवतीके घरमें जाकर उसके आगे सारा समाचार कहा। सुनकर वह हँसने लगी और बोली- ‘मुनिजी महाराज! झूठ मत बोलिये, श्रीनाथजी तो भोजन करके घरमें सो रहे हैं।’ यह सुनकर डरे हुए नारदजी तुरंत वहाँसे निकलकर मित्रबिन्दाके घरमें जा पहुँचे और चारों ओर देखते हुए बोले ॥ ४०-४२॥

नारदजीने कहा- मैया! जहाँ राजा और रानियाँका समाज जुटा है, वहाँ नहीं गयीं क्या? घरमें क्यों बैठी हो? वहाँ रमावल्लभ श्रीकृष्ण गोमतीका जल लानेके लिये जा रहे हैं। वे अपने साथ रुक्मिणी, सत्यभामा तथा जाम्बवतीको भी ले जायँगे ॥ ४३-४४ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

मित्रबिन्दा बोली- देवर्षिजी। केशवकी तो सभी प्यारी हैं। वे जिसको भी छोड़कर चले जायँगे, वही जीवित नहीं रह सकेगी। उधर घरमें देखिये, श्रीकृष्ण अपने पोतेको लाड़ लड़ा रहे हैं॥ ४५ ॥

तब मुनि उठकर श्रीकृष्णपनियोंके सभी घरोंमें चक्कर लगाते रहे, परंतु उन सबमें उन्हें श्रीकृष्णकी उपस्थिति जान पड़ी। फिर सोच-विचारकर देवर्षि श्रीराधाको यह समाचार देनेके लिये गोपाङ्गनाओंके महलोंमें गये; परंतु वहाँ श्रीराधा तथा गोपियोंके साथ नन्दनन्दन चौपड़ खेलते दिखायी दिये। उन्हें देखकर देवर्षिने ज्योंही वहाँसे खिसक जानेका विचार किया, त्योंही श्रीकृष्णने तुरंत उन्हें हाथसे पकड़ लिया और वहीं बैठाया। फिर विधिवत् उनकी पूजा करके वे बोले ॥ ४६-४९ ॥

श्रीकृष्ण बोले- विप्रवर! तुम यह क्या कर रहे हो ? व्यर्थ ही मोहित होकर इधर-उधर घूम रहे हो। मैंने अपनी पत्नियोंके घर-घरमें तुम्हें देखा है। मुनिश्रेष्ठ ! तुम्हारे ही डरसे मैंने अनेक रूप धारण किये हैं। तुम ब्राह्मण हो; इसलिये तुम्हें दण्ड तो नहीं दूँगा, परंतु प्रार्थना अवश्य करूँगा। मैं सबका देवता हूँ और ब्राह्मण मेरे देवता हैं। जो मूढ़ मानव ब्राह्मणोंसे द्रोह करते हैं, वे मेरे शत्रु हैं। जो लोग ब्राह्मणोंको मेरा स्वरूप समझकर उनका पूजन करते हैं, वे इहलोकमें सुख भोगते हैं और अन्तमें मेरे परमधाममें चले जायेंगे। देवर्षे! तुम मेरी पुरीमें मेरी ही मायासे मोहित हो गये, यह सोचकर खेद न करना; क्योंकि ब्रह्मा तथा रुद्र आदि सब देवता मेरी मायासे मोहित हो जाते हैं॥ ५०-५४ ॥

भगवान का यह वचन सुनकर, उनसे प्रशंसित हो वे महामुनि चुपचाप ऋत्विजोंसे भरे हुए यज्ञमण्डपमें चले आये ॥ ५५ ॥

उधर वे श्रीकृष्ण आदि राजा और रुक्मिणी आदि स्त्रियाँ नाना प्रकारके बाजों गाजोंके साथ गोमतीके तटपर गयीं। भगवान् गोविन्दके यशका गान करने- वाली झुंड-की-झुंड स्त्रियोंके कड़ों और नूपुरोंका मधुर मनोहर शब्द वहाँ गूंजने लगा। मेरे साथ मुनिवर व्यासने जल-सम्बन्धी देवताओंका पूजन करवाकर जलसे भरा हुआ एक घड़ा अनुसूयाजी के हाथमें दिया। तत्पश्चात् रेवती आदि सभी स्त्रियोंने कलश पकड़े, किंतु उनके कोमल हाथोंसे वे सभी कलश नहीं उठ सके। जो फूलोंके भारसे पीड़ित हो जाती हैं, वे कोमलाङ्गी स्त्रियाँ कलशका बोझ कैसे उठा सकती हैं? तब वे राजरानियाँ एक-दूसरेकी ओर देखकर हँसने लगीं और बोलीं- ‘अब हमलोग कलशके बिना यज्ञमण्डपमें कैसे जायेंगी।’ उस समय रुक्मिणी आदि सभी स्त्रियोंने मन-ही-मन श्रीकृष्णसे प्रार्थना ‘हे की- श्रीकृष्ण! हे जगनाथ! हे भक्तोंके कष्टका निवारण करनेवाले चक्रधारी देव! आप सर्वशक्तिमान् हैं। इस सङ्कटमें हमारी रक्षा कीजिये।’ इस प्रकार कहती हुई उन स्त्रियोंने जब कलशमें हाथ लगाये, तब वे सभी भारहीन हो गये। उन्होंने रत्नों तथा मोतियोंसे विभूषित अपने-अपने मस्तकपर उन कलशोंको उठाकर रख लिया और अपने पतियोंके साथ वे शीघ्रतापूर्वक यज्ञमण्डपमें चली आयीं, जहाँ भेरी, शङ्ख और पणव आदि बाजे बज रहे थे। गोमतीका जल लाकर उन सबने उस स्थानपर पहुँचा दिया, जहाँ श्यामकर्ण अश्वके साथ यादवराज उग्रसेन विराजमान थे ॥ ५६-६५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘गोमतीके जलका आनयन’
नामक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५५ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

छप्पनवाँ अध्याय

राजाद्वारा यज्ञ में विभिन्न बन्धु-बान्धवों को भिन्न-भिन्न कार्यों में लगाना; श्रीकृष्ण का
ब्राह्मणों के चरण पखारना; घीकी आहुतिसे अग्निदेव को अजीर्ण होना; यज्ञपशुके
तेज का श्रीकृष्ण में प्रवेश; उसके शरीर का कर्पूर के रूप में परिवर्तन;
उसकी आहुति और यज्ञ की समाप्तिपर अवभृथस्त्रान

श्रीगगंजी कहते हैं- महाराज। महात्मा राजा उग्रसेनके यज्ञमें उनकी परिचर्यामें प्रेमके बन्धनसे बँधे हुए समस्त बन्धु-बान्धव लगे रहे। उन यादवराजने विभिन्न कर्मोंमें सगे-सम्बन्धी भाई-बन्धुओंको लगाया। भीमसेन रसोईघरके अध्यक्ष बनाये गये। धर्मराज युधिष्ठिरको धर्मपालन-सम्बन्धी कर्ममें नियुक्त किया गया। राजाने सत्पुरुषोंकी सेवा-शुश्रूषामें अर्जुनको, विभिन्न द्रव्योंको प्रस्तुत करनेमें नकुलको, पूजन कर्ममें सहदेवको और धनाध्यक्षके स्थानमें दुर्योधनको नियुक्त किया। दानकर्ममें दानी कर्णको, परोसनेके कार्यमें द्रौपदीको तथा रक्षाके कार्यमें श्रीकृष्णके अठारह महारथी पुत्रोंको लगाया ॥ १-४ ॥

तत्पश्चात् भूपालने युयुधान, विकर्ण, हृदीक, विदुर, अक्रूर और उद्धवको भी अनेक कर्मोंमें लगाकर श्रीकृष्णसे पूछा- ‘देव! आप कौन-सा कार्य अपने हाथमें लेंगे?’ उनकी बात सुनकर श्रीकृष्णने कहा- ‘राजन् ! मैं तो ब्राह्मणोंके चरण पखारनेका कार्य करूँगा। इन्द्रप्रस्थमें भी मैंने यही काम किया था।’ यह सुनकर ब्रह्मा आदि देवता और भूतलके मनुष्य हँसने लगे ॥५-७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

श्रीगगंजी कहते हैं- राजन्। ऐसा कहकर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने तपस्वी ऋषि-मुनियोंके चरण धोकर उन सबको यथायोग्य आसनोंपर बिठाया। नये-नये वस्त्र पहन, बारह तिलक लगा, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो नाना मतोंकी मालाएँ- अनेक प्रकारकी कलाओंसे निर्मित पुष्पहार धारण किये। अनेक आसनोंपर बैठे हुए वे ब्राह्मण पानके बीड़े चबाकर यज्ञमण्डपमें देवताओंके समान शोभा पाने लगे ॥ ८-१०॥

तदनन्तर विभिन्न वस्तुओंके प्रयोजनवाले अर्थी, भिक्षुक, विरक्त और भूखे ये सभी दूर देशसे आकर वहाँ याचना करने लगे- ‘नरेश्वर! हमें अन्न दो, अन्न दो, अन्न दो। उपानह, पात्र, वस्त्र तथा कम्बल दो’ ॥ ११-१२॥

मुनिवृन्दों तथा राजाओंसे भरे हुए उग्रसेनके उस यज्ञमें उन याचकोंकी वह करुण याचना सुनकर यदुकुलतिलक महाराजने बड़े हर्ष और उत्साहके साथ उन्हें सोना, चाँदी, वस्त्र, बर्तन, हाथी, घोड़े, रथ, गौ, छत्र और शिविका आदि प्रदान किये। जिनको-जिनको जो-जो वस्तु प्रिय थी, उनको उनको राजाने वही वस्तु दी ॥ १३-१४ ॥

यज्ञकर्ममें दीक्षित असिपत्रव्रतधारी राजा उग्रसेन स्नान करके रानी रुचिमतीके साथ बड़ी शोभा पा रहे थे। वेदशास्त्रोंमें विशारद व्यास और गर्ग आदि बीस हजार ब्राह्मण वह श्रेष्ठ यज्ञ करा रहे थे। नृपश्रेष्ठ ! अग्निकुण्डमें हाथीकी सूँड़के समान मोटी घृतकी धारा गिर रही थी और ब्रह्मवादी मुनि उसे गिरवा रहे थे। श्रीकृष्णकी कृपासे उस यज्ञमें अग्निदेव को अजीर्ण हो गया। वे सबके सुनते हुए राजासे बोले- ‘मैं प्रसन्न हूँ, मैं प्रसन्न हूँ। अब मुझे पशु प्रदान करो।’- यज्ञसभामें अग्निका यह वचन सुनकर मुनियोंसहित यादवेन्द्र उग्रसेन ने सोनेके यूपमें सुवर्णमयी डोरीसे बँधे हुए उस घोड़ेसे बोले ॥ १५-२० ॥

उग्रसेनने कहा- हे अश्व! तुम अग्रिदेवकी बात सुनो। यज्ञमें घीसे तृप्त होनेपर भी अग्निदेव तुझ विशुद्ध यज्ञपशुको अपना आहार बनायेंगे ॥ २१ ॥

राजाकी बात सुनकर श्यामकर्ण अश्वने प्रसन्न हो श्रीकृष्णकी ओर देखते और अपनी स्वीकृति सूचित करते हुए सिर हिलाया।(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

तत्पश्चात् घोड़ेके शरीरसे एक ज्योति प्रकट हुई, जो सबके देखते-देखते मधुसूदन श्रीकृष्णमें समा गयी। इसके बाद घोड़ेका शरीर कर्पूर होकर गिर पड़ा। मानो भगवान शंकर के शरीर से विभूति झड़ गयी हो। उस अद्भुत कर्पूरराशिको देखकर और उसकी सुगन्धसे यज्ञशाला तथा द्वारकापुरीको सुवासित हुई जानकर वे व्यास आदि महर्षि अत्यन्त हर्षित हो, यज्ञकर्ममें संलग्र राजासे बोले- ‘नृपश्रेष्ठ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा यह उत्तम यज्ञ सफल हो गया। अब हम इस कर्पूरसे ही हवन करेंगे और तुम भी करो’ ॥ २२-३३॥

– ऐसा कहकर समस्त ऋत्विजोंने उस यज्ञकुण्डमें उसी क्षण पहले यज्ञेश्वरके उद्देश्यसे घनसार (कर्पूर) की आहुतियाँ दीं। राजा वज्रनाभ! जहाँ चतुर्ग्यूहरूपधारी साक्षात् परमेश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण अपने पुत्र और पौत्रोंके साथ विराजमान थे, वहाँ कौन-सी वस्तु दुर्लभ थी? उस यज्ञमें मैंने महेन्द्रसे कहा-‘भगवन् शक्र ! इस यज्ञमें कर्पूरकी आरती ग्रहण कीजिये। आइये, राजा उग्रसेनकी दी हुई इस आहुतिको स्वीकार कीजिये; अब आगे कलियुगमें यह दुर्लभ हो जायगी’ ॥ ३४-३६३ ॥

मेरी बात सुनकर इन्द्रने मुस्कराते हुए कहा ‘महर्षियो! जब कौरव-पाण्डव-युद्धमें कौरवकुलका क्षय होगा और धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुरमें उत्तम अश्वमेध यज्ञ करेंगे, उस समय ब्राह्मणोंकी दी हुई ऐसी आहुति मैं पुनः ग्रहण करूँगा। आप इसे दुर्लभ क्यों बता रहे हैं?’ ॥ ३७-३८ ॥

नृपश्रेष्ठ । इन्द्रका यह वचन सुनकर सब मुनीश्वरोंने इसे सच माना और उस यज्ञमें सम्पूर्ण देवताओंके लिये आहुतियाँ दीं। दूसरे लोगोंने यह नहीं समझा कि इन्द्रने क्या कहा है। ‘अग्नये स्वाहा’ इस मन्त्रसे सभी देवताओंके लिये ब्राह्मणोंने आहुतियाँ दीं। उस कर्पूरके होमसे भी समस्त चराचर विश्व प्रसन्न हो गया। राजा उग्रसेन उस महान् यज्ञमें उऋण हो गये ॥ ३९-४१ ॥

तदनन्तर श्रेष्ठ ब्राहाणों, श्रीकृष्ण आदि यादवों तथा अन्य भूपालोंके साथ महाराज उग्रसेनने यज्ञकी समाप्तिपर पिण्डारक तीर्थमें अवभृथखान किया। वेदोक्त-विधिसे पत्नीसहित स्त्रान करके, रेशमी वस्त्र धारणकर राजा उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे दक्षिणाके साथ यज्ञदेवता सुशोभित होते हैं। उस समय देवताओं तथा मनुष्योंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। सब देवता राजा उग्रसेनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। इसके बाद स्वधा-पान कराकर और पुरोडासका प्राशन करवाकर व्यासजीने सब लोगोंको
क्रमशः यज्ञशेष पुरोडासका प्रसाद बाँटा। गाजे बाजेके साथ बन्दीजनोंने प्रसन्नतापूर्वक राजा उग्रसेनकी स्तुति की। फिर देवकी आदि स्त्रियोंने उनकी आरती उतारी। आरतीके बाद प्रसन्न हुए महाराजने उन सब स्त्रियोंको नाना प्रकारके रन, वस्त्र और अलंकार दिये ॥ ४२-४७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यज्ञकी पूर्ति होनेपर राजाका अभिषेक’
नामक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

सत्तावनवाँ अध्याय

ब्राह्मणभोजन, दक्षिणा-दान, पुरस्कार वितरण, सम्बन्धियोंका सम्मान तथा देवता
आदि सबका अपने-अपने निवास स्थानको प्रस्थान

श्रीगगंजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीकृष्ण और भीमसेनके साथ यादवराज उग्रसेनने ब्राह्मणों और राजाओंसे प्रार्थना करके उन्हें भाँति-भाँतिके पदार्थ भोजन कराये। उन्होंने ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करके उत्तम शष्कुली (पूड़ी), खीर, भात, अच्छी दाल और कढ़ी, हलुआ, मालपूआ तथा सुन्दर फेणिका आदि विशेष अन्न परोसकर भलीभाँति भोजन कराया। शिखरिणी (सिखरन), घृतपूर (घेवर), सुशक्तिका (अच्छी- अच्छी साग-सब्जी), सुपटिनी (चटनी आदि), दधिकूप (दहीबड़ा) लप्सी तथा गोल, सुन्दर और चन्द्रमाके समान उज्ज्वल सोहारी आदिको बड़े, लड्डू और पापड़के साथ परोसा। उन ब्राह्मणोंमेंसे कुछ तो फलाहारी थे, कुछ सूखे पत्ते खानेवाले थे, कोई केवल जल पीकर रहनेवाले और कोई दूर्वाक रसका आस्वादन करनेवाले (दुर्वासा) थे। कोई हवा पीकर रहनेवाले जन्मकालसे ही तपस्वी थे। कितने तो भोजनों (भोज्यपदार्थों) के नामतक नहीं जानते थे। जब उनके सामने भाँति-भाँतिके भोजन परोसे गये, तब उन्हें देखकर वे बड़े विस्मित हुए। कोई भातको मालतीके फूल समझने लगे, कई लड्डुओंको गूलरके फल मानने लगे, किन्होंने खीर और फेणिका देखकर उसे चन्द्रमाका बिम्ब समझा, कई ब्राह्मणोंने पापड़ फेणिकाको देखकर उन्हें पलाशके पत्ते समझा और ‘मधुशीर्षक’ नामक मिष्टान्त्रको आमका फल मान लिया, चटनी और लप्सी देखकर कितने ही ऋषि उन्हें घिसा हुआ चन्दन समझने लगे, कितने ही मुनिश्रेष्ठ मीठा चूरन या शक्कर देखकर बालू समझने लगे। इस प्रकारकी भावना मनमें लेकर वे सब ब्राह्मण वहाँ भोजन कर रहे थे। कोई दूध पीते और कोई दाखका रस। कोई-कोई ब्राह्मण आमका रस पीते हुए जोर जोरसे हँसते और लोट जाते थे ॥ १-१०॥

तब भीमसेन के साथ भगवान श्रीकृष्ण सानन्द हँसते हुए वहाँ बैठे तपस्वी ब्राह्मणोंके साथ परिहास करने लगे- ‘मुनियो! आप जल्दीसे इन भोजनोंके नाम तो बताइये। आप जिनके नाम बतावेंगे, वे ही भोजन भीमसेनके साथ मैं आपके सामने प्रस्तुत करूँगा’ ॥ ११-१२॥(Ashwamedh Khand Chapter 51 to 58)

श्रीकृष्ण और भीमसेनकी बात सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ कुछ बोल न सके; केवल आनन्दित होकर परस्पर एक-दूसरेका मुँह देखने लगे। तैलङ्ग, कर्णाटकी, गुजराती, गौड़ और सनाढ्य आदि अनेक जातिके विभिन्न ब्राह्मणशिरोमणियोंका राजाधिराज उग्रसेनने सुवर्ण, वस्त्र तथा रत्नराशियोंद्वारा पूजन करके उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया ॥ १३-१४॥

नरेश्वर । यज्ञके अन्तमें राजा उग्रसेनने सबसे पहले मुझे एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, दो हजार रथ, एक लाख धेनु और सौ भार सुवर्ण-इतनी दक्षिणा विधिपूर्वक दी। मुझसे आधी दक्षिणा बकदाल्भ्य और व्यासजीको दी। तत्पश्चात् उग्रसेनने निमन्त्रित ब्राह्मणोंमेंसे प्रत्येकको प्रसत्रतापूर्वक एक हजार घोड़े, सौ हाथी, दो सौ रथ, एक हजार धेनु और बीस भार सुवर्ण-इतनी दक्षिणा दी। राजन्। फिर हर्षसे भरे यादवराजने प्रत्येक ब्राह्मणको एक हाथी, एक रथ, एक गौ, एक घोड़ा, एक भार सुवर्ण और दो भार चाँदी इतनी इतनी दक्षिणा दी ॥ १५-२० ॥

उस महान यज्ञके अवसरपर श्रीकृष्णपुरी द्वारका भूतलपर उसी तरह सुशोभित हुई, जैसे स्वर्गमें अमरावतीपुरी। उस समय मागध, सूत, बन्दीजन, गायक और वाराङ्गनाएँ राजद्वारपर आयीं। फिर तो मृदङ्ग, वीणा, मुरयष्टि, वेणु, ताल, शङ्ख, आनक और दुन्दुभिकी ध्वनियों तथा संगीत, नृत्य एवं वाद्यगीतोंके शब्दोंसे युक्त महान् उत्सव होने लगा। वाराङ्गनाएँ मधुर कण्ठसे गाने लगीं, सुन्दर तालोंके साथ नृत्य करने लगीं। संगीत और गीतके अक्षरोंके साथ सामवेदके गीत गूंज उठे। नर्तकियाँ अपने कुसुम्भ रंगके वस्त्र हिलाती हुई संगीत और नृत्यके साथ सब ओर प्रकाशित हो उठीं। उस उत्सवमें जो बन्दीजन, मागध और गायक आये थे, उन्हें अपने निकट आनेपर राजाने बहुत-सा सुवर्ण और रत्न दिये तथा जो अप्सराएँ आयी थीं, उनको भी बहुमूल्य पुरस्कार समर्पित किया। सूतों, मागधों और समस्त बंदीजनोंको भी अश्वमेधसे प्रसन्न हुए राजाने बहुत धन दिया। जैसे बादल पानी बरसाता है, उस तरह महाराज उग्रसेन धनकी वृष्टि कर रहे थे ॥ २१-२५॥

तत्पश्चात् यादवराज भूपालशिरोमणि उग्रसेनने अपने यहाँ आये हुए प्रत्येक राजाको एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, सौ-सौ शिविकाएँ, कुण्डल, कड़े और तीस भार सुवर्ण सानन्द भेंट किये। इससे दूना उपहार महाराजने गद आदि समस्त यादवों तथा नन्द आदि गोपोंको दिया। यशोदा आदि गोपाङ्गनाओं, देवकी आदि यदुकुलकी स्त्रियों तथा रुक्मिणी और राधिका आदि श्रीहरिकी पटरानियोंको भी राजाने बहुत- से दिव्य वस्त्र और अलंकार देकर सबको संतुष्ट किया। अन्तमें राजाने फिर प्रसन्न होकर मुझ गर्गाचार्यको सौ ग्राम दिये। वह सब मैंने क्रमशः वहाँके ब्राह्मणोंको बाँट दिया। इसके बाद राजाने श्रीकृष्ण और बलभद्रका वस्त्र, आभूषण, तिलक, पुष्पहार और नीराजना आदि उपचारोंसे पूजन किया ॥ २६-३१ ॥

राजन् ! तब श्रीकृष्ण हँसते हुए बोले- महाराज! इस महायज्ञमें समर्थ होते हुए भी आपने मुझे कुछ नहीं दिया ॥ ३२ ॥

यह सुनकर राजा बोले- जगदीश्वर! माधव ! आप बलरामजीके साथ शीघ्र ही यथोक्त दक्षिणा ग्रहण कीजिये ॥ ३३ ॥

– ऐसा कहकर हर्षसे उल्लसित और प्रेमसे विह्वल हुए राजाने राजसूय तथा अश्वमेध-दोनों यज्ञोंका सारा फल श्रीकृष्णके हाथमें दे दिया। उस समय द्वारकामें जय-जयकार होने लगी। तत्काल संतुष्ट हुए समस्त देवता फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ३४-३५ ॥

तदनन्तर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो अपना-अपना भाग लेकर स्वर्गलोकको चले गये। इसी तरह राक्षस, दैत्य, दाढ़वाले पशु, पक्षी, वानर, बिलमें रहनेवाले सर्प आदि जीव, पर्वत, गौ, वृक्ष-समुदाय, नदियाँ, तीर्थ और समुद्र सभी अपना अपना भाग ले, संतुष्ट हो, अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। जो-जो राजा वहाँ आये थे, वे सब दान-मानसे पूजित हो सेनाओं- द्वारा भूतलको कम्पित करते हुए अपनी-अपनी राजधानीको लौट गये। राजन् ! नन्द आदि समस्त गोप और यशोदा आदि व्रजाङ्गनाएँ श्रीकृष्णसे पूजित हो उनके विरहजनित कष्टका अनुभव करती हुई व्रजको चली गयीं। इस प्रकार यादवराज उग्रसेन श्रीहरिकी कृपासे मनोरथके दुस्तर महासागरको पार करके निश्चिन्त हो गये ॥ ३६-४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘विश्व भोज्यदक्षिणाका वर्णन’
नामक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५७॥

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता का माहात्म्य 

अट्ठावनवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण द्वारा कंस आदिका आवाहन और उनका श्रीकृष्ण को ही परमपिता बताकर
इस लोकके माता-पिता से मिले बिना ही वैकुण्ठलोक को प्रस्थान

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! इसके बाद महात्मा श्रीकृष्णके आवाहन करनेपर कंस आदि नौ भाई सब-के-सब वैकुण्ठसे शीघ्र ही वहाँ आ गये। उनको आया देख वहाँ सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। द्वारकामें पहुँचकर उन कंस आदि सब भाइयोंने बारी-बारीसे श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न और अनिरुद्धको प्रणाम किया ॥१-२ ॥

नरेश्वर! सुधर्मा-सभामें इन्द्रके सिंहासनपर रानी रुचिमतीके साथ बैठे हुए महाराज उग्रसेनने अपने कंस आदि पुत्रोंको श्रीकृष्णस्वरूप एवं चार भुजाधारी देखा। देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसे विभूषित थे तथा पीताम्बर धारण किये श्रीकृष्णके पास खड़े थे। राजाने अपने उन पुत्रोंको निकट बुलाया। तब भगवान् श्रीकृष्णने मन्द मुस्कानके साथ कंस आदिसे कहा- ‘देखो, वे दोनों तुम्हारे माता-पिता हैं और तुम्हें देखनेके लिये उत्सुक हैं। वीरो! तुम उनके निकट जाकर भक्तिभावसे नमन करो’ ॥ ३-६ ॥

भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर उन्हींके किंकरभावको प्राप्त हुए वे कंस, न्यग्रोध आदि सब भाई बड़े हर्षसे भरकर बोले ॥७॥

कंस आदिने कहा- नाथ! आपकी मायासे संसारचक्रमें घूमते हुए हमें ऐसे पिता और ऐसी माताएँ बहुत प्राप्त हो चुकी हैं। ‘श्रीहरि ही जीवमात्रके वास्तविक पिता हैं’ ऐसी सनातन श्रुति है। अतः हमलोग आपके निकट रहकर अब दूसरे किसी माता-पिताको नहीं देखेंगे। पूर्वकालमें युद्धके अवसरपर हमने बलरामसहित आपका दर्शन किया था। उसके बाद द्वारकामें प्रद्युम्न और अनिरुद्धजीका प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें हमलोगोंने नहीं देखा था। अतः चतुर्ग्यूहरूपमें आपका दर्शन करनेके लिये हमलोग यहाँ आये हैं। अहो! बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हमलोगोंने श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध इन चारों परिपूर्णतम महापुरुषोंका दर्शन किया। हम नहीं जानते कि किस पूर्वपुण्यके प्रभावसे इन परिपूर्णतम चतुर्ग्यूहस्वरूप परमात्माका, जो बड़े-बड़े संतोंके लिये भी दुर्लभ हैं, हमें दर्शन मिला है। हे संकर्षण। हे श्रीकृष्ण! हे प्रद्युम्न ! और हे ऊषावल्लभ अनिरुद्ध ! हम मूढ़ हैं, कुबुद्धि हैं। आप हमारे अपराधको क्षमा करें। गोविन्द ! अब वैकुण्ठमें पधारिये। आपका वह सुन्दर धाम आपके बिना सूना लग रहा है। आपके रहनेसे द्वारका पुरी वैकुण्ठसे भी अधिक वैभवशालिनी और धन्य हो गयी है। ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, सूर्य, शिव, मरुद्रण, यम, कुबेर, चन्द्रमा तथा वरुण आदिने जिनका पूजन किया है, आपके उन्हीं चरणारविन्दोंका हम सदा भजन करते हैं। बड़े-बड़े मुनीश्वर, लक्ष्मी, देवता, भक्तजन तथा सात्वतवंशियोंने गन्ध, चन्दन, धूप, लावा, अक्षत, दूर्वाङ्कुर और सुपारी आदिसे जिनका भलीभाँति पूजन किया है, आपके उन्हीं चरणारविन्दोंका हम सदा भजन करते हैं॥ ८-१७॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- नरेश्वर। ऐसा कहकर वे कंस आदि सब भाई सबके देखते-देखते वैकुण्ठ- धामको चले गये तथा पत्नीसहित राजा उग्रसेन आश्चर्यसे चकित रह गये ॥ १८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘कंसादिका दर्शन’
नामक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५८ ॥

यह भी पढ़े

शिव पुराण हिंदी में

भागवत पुराण हिंदी में

वैदिक सूक्त संग्रह हिंदी में

विवेकचूडामणि

यथार्थ गीता

राघवयादवीयम्

Share
0

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share
Share