Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40
श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 36 से 40 तक
श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40) के छत्तीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण पुत्र सुनन्दन द्वारा दैत्य पुत्र कुनन्दन का वध का वर्णन है। सैंतीसवाँ अध्याय में भगवान शिव का अपने गणों के साथ बल्वल की ओर से युद्धस्थल में आना और शिवगणों तथा यादवों का घोर युद्धः दीप्तिमान का शिवगणों को मार भगाना और अनिरुद्ध का भैरव को जृम्भणास्त्रसे मोहित करने का वर्णन कहा गया है। अड़तीसवाँ अध्याय में नन्दिकेश्वर द्वारा सुनन्दन का वधः भगवान शिव के त्रिशूल से आहत हुए अनिरुद्ध की मूर्च्छा; साम्ब द्वारा शिव की भर्त्सना; साम्ब और शिव का युद्ध तथा रणक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण का शुभागमन वर्णन है। उन्तालीसवाँ अध्याय में भगवान शंकर द्वारा श्रीकृष्ण का स्तवन; शिव और श्रीकृष्ण की एकता; श्रीकृष्ण द्वारा सुनन्दन, अनिरुद्ध एवं अन्य सब यादवों को जीवन दान देना तथा बल्वल द्वारा यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका लौटाया जाना और चालीसवाँ अध्याय में यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका व्रजमण्डल में वृन्दावन के भीतर प्रवेश; श्रीदामा का उसे बाँधकर नन्दजी के पास ले जाना; नन्दजी का समस्त यादवों और श्रीकृष्ण से सानन्द मिलना; यादव सेना का वृन्दावन में और श्रीकृष्ण का नन्दपत्तन में निवास करने का वर्णन है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
छत्तीसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण पुत्र सुनन्दन द्वारा दैत्य पुत्र कुनन्दन का वध
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! इसी समय कुनन्दन भी मूर्च्छा त्यागकर रथारूढ़ हो क्रोधपूर्वक धनुषसे बाणोंकी वर्षा करता हुआ युद्धस्थलमें आया। शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले वीर अनिरुद्ध उसको आया देख रोषसे आगबबूला हो उठे तथा अपने सेवकोंसे उसकी बात पूछने लगे। सेवकोंने कहा- ‘महाराज ! यह बल्वलनन्दन कुनन्दन है और आपके साथ युद्ध करनेके लिये आया है।’ यह सुनकर अनिरुद्ध बोले- ‘मैं कुनन्दनको मार डालूँगा।’ उसी समय श्रीकृष्णपुत्र सुनन्दनने उनसे कहा ॥ १-४॥
सुनन्दन बोले- राजन् ! यह दैत्यपुत्र क्या है? तथा इसकी यह थोड़ी-सी सेना क्या बिसात रखती है? प्रभो। मैं आपके प्रतापसे इसको जीत लूँगा। अतः मैं ही युद्धके लिये जाता हूँ। राजन् ! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये। यह आपके लिये आनन्ददायिनी होगी- ‘यदि मैं अधिक संग्रामकुशल कुनन्दनको न जीत लूँ तो श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंके मकरन्दका आस्वादन करनेसे विरत रहनेवाले मनुष्योंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। यदि मैं इस दानवको परास्त न कर दूँ तो भवबन्धन हर लेनेवाले गुरु और पिताकी सेवासे विमुख पुरुषको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे ॥ ५-८॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
पृथ्वीनाथ! सुनन्दनकी इस प्रतिज्ञाको सुनकर अनिरुद्ध मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उस वीरको युद्धके लिये आदेश दे दिया। इस प्रकार अनिरुद्धकी आज्ञा पाकर श्रीकृष्णनन्दन सुनन्दन कवच धारण कर अकेले ही उस स्थानपर गये, जहाँ बल्वल- नन्दन कुनन्दन विद्यमान था। कुनन्दन सुनन्दनको युद्धके लिये आया देख रोषपूर्वक उनकी अगवानीके लिये आगे बढ़ा; क्योंकि वह वीरोंमें श्रेष्ठ, रथी एवं शूरशिरोमणि था। राजसिंह। रथपर बैठे और धनुष धारण किये वे दोनों वीर एक-दूसरेसे मिलकर दमन और पुष्कलके समान शोभा पाने लगे। दोनोंके अङ्ग सायकोंसे विदीर्ण हो रहे थे। दोनों ही खूनसे लथपथ दिखायी देते थे तथा दोनों ही बड़े वेगसे करोड़ों बाणोंका संधान करते ओर छोड़ते थे। पृथ्वीनाथ! वे कब बाण लेते हैं, धनुषपर रखते हैं और कब छोड़ते हैं, यह किसीको ज्ञात नहीं होता था। वे दोनों महान् शूरवीर धनुषको खींचकर कुण्डलाकार किये दिखायी देते थे। दैत्य राजकुमारने शोभाशाली भ्रामकास्त्रके द्वारा सुनन्दनके रथको भूतलपर कुम्हारके चाककी भाँति घुमाया। उनका रथ दो घड़ीतक चक्कर काटनेके बाद घोड़ोंसहित सुस्थिर हो गया। तब श्रीकृष्णकुमारने कुनन्दनके रथपर बाण मारा। उस बाणसे आहत हो वह रथ घोड़ोंसहित आकाशमें जाकर मतवाले हाथीकी भाँति चक्कर काटने लगा और पृथ्वीपर गिर पड़ा। गिरते ही शीशेके बर्तनकी भाँति चूर-चूर हो गया। रथ, घोड़े और सारथिके नष्ट हो जानेपर कुनन्दन उठा और दूसरे रथपर आरूढ़ हो ज्यों ही सामने आया, त्यों-ही कृष्णनन्दन सुनन्दनने बहुत-से बाण मारकर उसके रथकी धज्जियाँ उड़ा दीं। इस तरह उस रणभूमिमें दैत्यकुमारके सात रथ नष्ट हो गये ॥ ९-१९॥
नरेश्वर ! तब कुनन्दन एक विचित्र यानमें बैठकर युद्धस्थलमें श्रीकृष्णपुत्रका सामना करनेके लिये वेगपूर्वक आया। आते ही कुनन्दनने सुनन्दनको युद्धस्थलमें दस बाण मारे। उन बाणोंसे घायल होनेपर उन्हें बड़ी वेदना हुई। तब कुपित हुए बलवान् कृष्णकुमारने धनुष उठाकर दस सायक हाथमें ले उन्हें कुनन्दनकी छातीको लक्ष्य करके छोड़ा। राजन् ! वे बाण उस दैत्यका रक्त पीकर उसी तरह पृथ्वीपर गिर पड़े, जैसे झूठी गवाही देनेवालेके पितर नरकमें गिरते हैं। कुनन्दन सुनन्दनको और सुनन्दन कुनन्दनको उस महासमरमें विशाल बाणर्णोद्वारा परस्पर घायल करने लगे ॥ २०-२४॥
इस प्रकार उन दोनोंके शरीर बाणोंके आघातसे क्षत-विक्षत हो गये थे। दोनों रक्तसे नहा गये थे और दोनों ही धनुष लिये रोषपूर्वक एक-दूसरेको बाण मारते हुए घोर युद्ध कर रहे थे। उस समराङ्गणमें कुनन्दन और सुनन्दन कुशाम्ब और साम्बके समान शोभा पाते थे। तदनन्तर कृष्णकुमार वीर सुनन्दनने सुवर्णनिर्मित कोदण्डपर अर्धचन्द्राकार बाण रखकर शीघ्र ही कुनन्दनसे कहा ॥ २५-२६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
सुनन्दन बोले- वीर ! मेरी बात सुनो। मैं इस बाणके द्वारा इसी क्षण तुम्हारा मस्तक काट लूँगा। यदि बलवान् हो तो अपने सिरकी रक्षा करो। यदि इस रण- क्षेत्रमें तुम मेरी कही बातको सत्य नहीं मानते तो तुम्हारी मृत्युकी सूचना देनेवाली मेरी इस प्रतिज्ञाको सुन लो-‘जो सती-साध्वी, पतिव्रता तथा गुरुपत्नीको कामभावसे दूषित करता है, वह यमराजके समीप जिस यातनामें डाला जाता है, वही यातना मुझे भी मिले; यदि मेरी प्रतिज्ञा सत्य न हो। जो सामर्थ्य रहते हुए गुरु और पिताका पालन नहीं करता, उसका पाप मुझे ही लगे, यदि रणभूमिमें मैं तुझे मार न डालूँ ‘ ॥ २७-३० ॥
सुनन्दनकी यह बात सुनकर दैत्य रोषसे जल उठा और बोला ॥ ३१ ॥
दैत्य राजकुमारने कहा- मैं शत्रुके सम्मुख संग्राममें मरनेसे नहीं डरता। मृत्यु तो सभी प्राणियोंकी होती ही है; परंतु तुम इस समय संग्राममें मेरे वधके लिये जो भी महान् बाण छोड़ोगे, उसे मैं अपने बाणसे उसी क्षण शीघ्र काट दूँगा, इसमें संशय नहीं है। जो लोग अभिमानवश इस पृथ्वीपर एकादशीको अन्न खाते हैं तथा माता, भौजाई, बहिन और बेटीके साथ पाप करते हैं, उन सबका पाप मुझे ही लगे, यदि मैं तुम्हारे बाणको न काट डालूँ ॥ ३२-३४॥
यह सुस्पष्ट बात सुनकर सुनन्दनके मनमें शङ्का हो गयी। अतः वे भी श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए फिर बोले ॥ ३५ ॥
सुनन्दनने कहा- यदि मैंने छल-कपट छोड़कर सच्चे मनसे श्रीकृष्णके युगल-चरणारविन्दोंका सेवन किया हो तो मेरी बात सत्य हो। वीर! यदि मैं अपनी पत्नीको छोड़कर दूसरी किसी स्त्रीको कामभावसे न देखता होऊँ तो इस सत्यके प्रभावसे संग्रामभूमिमें मेरा यह कथन अवश्य सत्य हो ॥ ३६-३७ ॥
– ऐसा कहकर सुनन्दनने महाकाल और अग्निके समान एक तीखे सायकको मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके छोड़ा। उस बाणको छूटा हुआ देख दैत्य राजकुमारने अपने बाणसे तत्काल काट दिया; ठीक उसी तरह, जैसे पक्षिराज गरुड अपने पंखसे सर्पके दो टुकड़े कर डालते हैं। राजन् ! उस बाणके कटते ही तुरंत हाहाकार मच गया। लोकोंसहित पृथ्वी डोलने लगी और वे देवता भी विस्मयमें पड़ गये। बाणका नीचेवाला आधा भाग तो कटकर गिर पड़ा, किंतु फलयुक्त पूर्वार्ध भागने उस दैत्यके मस्तकको उसी तरह काट गिराया, जैसे हाथी किसी वृक्षके स्कन्ध (मोटी डाली) को तोड़ डालता है॥ ३८-४१ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
उसके किरीट और कुण्डलोंसे युक्त मस्तकको कटकर गिरा देख समस्त दैत्य दुःखी होकर हाय-हाय करने लगे। कुनन्दनके धड़ने युद्धस्थलमें शीघ्र उठकर खड्गसे, घूंसोंसे और लातोंकी मारसे बहुत-से शत्रुओंको मौतके घाट उतार दिया। तत्पश्चात् यादव- सेनामें बार-बार दुन्दुभि बजने लगी और सुनन्दनके ऊपर देवताओंने फूलोंकी वर्षा की ॥ ४२-४४॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘दैत्यपुत्रके वधका वर्णन’
नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३६॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता
सैंतीसवाँ अध्याय
भगवान् शिवका अपने गणोंके साथ बल्वलकी ओरसे युद्धस्थलमें आना और
शिवगणों तथा यादवोंका घोर युद्धः दीप्तिमान का शिवगणोंको मार भगाना
और अनिरुद्धका भैरवको जृम्भणास्त्रसे मोहित करना
वज्रनाभने पूछा- ब्रह्मन् ! कुनन्दनके मारे जाने और बल्वलके रणभूमिमें मूच्छित हो जानेपर करुणामय भगवान् शिवने उसकी सहायता क्यों नहीं की। भगवान शिव वहाँ आये क्यों नहीं? दैत्योंने घोड़ेको कैसे छोड़ा ? और यज्ञ किस तरह पूर्ण हुआ? ये सब बातें विस्तारपूर्वक मुझे बतानेकी कृपा करें ॥१-२॥
सौति कहते हैं- ब्रह्मन् ! वज्रनाभका यह प्रश्न सुनकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ गर्गजी सम्पूर्ण कथाका स्मरण करके उन यादवशिरोमणिसे बोले ॥ ३ ॥
श्रीगर्गजीने कहा- राजन् ! जब बल्वल मूच्छित हो गया और शूरवीर कुनन्दन मारा गया, तब देवर्षि नारदकी प्रेरणासे भगवान् शिवने बड़ा कोप किया। नरेश्वर! भक्तोंकी रक्षा करनेवाले शिव क्रोध- पूर्वक नन्दीपर आरूढ़ हो, मस्तकपर जटाजूटके भीतर चन्द्रलेखा धारण किये, सपोंके हार और मुण्डमालासे अलंकृत हो, सारे अङ्गमें भस्म रमाये भयंकररूपसे आये। दस बाँह, पाँच मुख और पंद्रह नेत्रोंसे युक्त रुद्रदेव सिंहके चर्मका वस्त्र धारण किये मदमस्त एवं भयकारक प्रतीत होते थे। उनके हाथोंमें त्रिशूल, पट्टिश, धनुष, बाण, कुठार, पाश, परिघ और भिन्दिपाल शोभा दे रहे थे। वे सहस्त्रों सूर्योके तुल्य तेजस्वी और समस्त भूतगणोंसे आवृत थे। अनिरुद्ध आदि समस्त श्रेष्ठ वृष्णिवंशी वीरोंका युद्धस्थलमें वध करनेके लिये वे बड़ी उतावलीके साथ कैलाससे पृथ्वीतलको कम्पित करते हुए आये ॥ ४-९॥
नरेश्वर। उस समय आकाश और भूतलपर बड़ा हंगामा मचा। देवता, दैत्य और मनुष्य सभी विस्मित और भयभीत हो उठे। समस्त गणों और परिवारके साथ प्रलयंकर शंकरको रोषपूर्वक आया देख यादवोंको बड़ा भय हो गया। अनिरुद्धका मुँह भयके कारण निस्तेज हो गया। समराङ्गणमें वे दुःखी हो गये और उनका हृदय काँपने लगा। उस समय क्रोधसे भरे हुए गिरीशने हाथमें त्रिशूल लेकर समस्त यादवोंसे यह निष्ठुर बात कही ॥ १०-१३॥
शंकर बोले- कहाँ गये अनिरुद्ध और कहाँ गये सुनन्दन ? मेरे भक्त कुनन्दनका वध करके साम्ब आदि यादव कहाँ चले गये? मेरे भक्त दैत्यशिरोमणि बल्वलको मूच्छित करके और उसके सेवकोंको युद्धमें मारकर वृष्णिवंशी जायेंगे कहाँ? मैं युद्धस्थलमें अपने भक्तोंके इन सभी शत्रुओंको मार डालूँगा। मैं, विष्णु और ब्रह्मा-ये सभी संकटसे भक्तजनोंकी रक्षा करते हैं ॥ १४-१६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन्। ऐसा कहकर रुद्रदेवने अनिरुद्धके पास भैरवको भेजा और कहा- ‘शूर! तुम समराङ्गणमें विजयी प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धसे युद्ध करनेके लिये जाओ।’ फिर उन्होंने सुनन्दनसे युद्ध करनेके लिये नन्दीको रोषपूर्वक भेजा, गदसे लोहा लेनेके लिये वीरभद्रको और साम्बसे लड़नेके लिये मयूरवाहन कार्तिकेयको प्रेरित किया। उन विरूपाक्ष शिवने भानुके साथ युद्ध करनेके लिये भृङ्गीको आदेश दिया और अन्य यादव सैनिकोंसे जूझनेके लिये भूतों और प्रेतोंको प्रेषित किया। भगवान् रुद्रकी आज्ञा पाकर वे भूत, प्रेत, विनायक, भैरव, प्रमथ, वेताल, ब्रह्मराक्षस, उन्माद और कूष्माण्ड करोड़ोंकी संख्यामें युद्धमें आये। भूत यादवोंको अंगारोंसे मारने लगे। विनायक पट्टिशोंसे, भैरव शूलोंसे और प्रमथ खट्वाङ्गॉसे प्रहार करने लगे। ब्रह्मराक्षस मनुष्यों और घोड़ोंको पकड़कर खा जाते थे। यातुधान समराङ्गणमें मनुष्योंके मुण्ड चबाते और बेताल खप्परोंमें रक्त ले-लेकर पीते थे। पिशाच वहाँ नाचते और प्रेत गीत गाते थे। वे बारंबार योद्धाओंके मस्तकोंको गेंदकी भाँति इधर-उधर फेंकते थे। अट्टहास करते हुए चारों ओर दौड़ते और हाथियों तथा रथारोहियोंको रणमण्डलमें चबाते हुए दिखायी देते थे। पिशाचिनी और डाकिनियाँ युद्धस्थलमें अपने बालकोंको रक्त पिलार्ती और ‘रोओ मत’ ऐसा कहती हुई उनकी आँखें पोंछती थीं। उन्माद और कूष्माण्ड स्वर्गगामी शूरवीरोंके मुण्डोंकी मालाएँ तैयार करके भगवान् शंकरको भेंट करते थे ॥ १७-२७ ॥
नृपेश्वर ! उस समय यादव सेनामें हाहाकार मच गया। भयसे भागते हुए घोड़े, हाथी और पैदल-वीर सहस्रोंकी संख्यामें युद्धक्षेत्रमें गिरकर मृत्युको प्राप्त हो गये। शिवगणोंका ऐसा बल देखकर श्रीकृष्ण- कुमार दीप्तिमान्ने अपने धनुषपर अत्यन्त अद्भुत बाणोंका संधान करके छोड़ना आरम्भ किया। राजन् ! वे तीखे बाण कोटि-कोटि भूतों, प्रेतों और विनायकोंके शरीरमें उसी तरह घुसने लगे, जैसे वनमें मोर प्रवेश करते हैं। बाणोंसे विदीर्ण होकर समस्त भूतगण भागने लगे। कोई युद्धस्थलमें गिर गये और कोई मर गये। कितने ही बाणोंका आघात लगनेसे पहले ही धराशायी हो गये ॥ २८-३२ ॥
प्रेतगणोंके पलायन कर जानेपर भैरव क्रोधसे भर गये। वे कुत्तेपर सवार हो, त्रिशूल हाथमें लिये कालकी भाँति आ पहुँचे। नरेश्वर। उन कालभर्यकर भैरवको देखकर कोई भी उनके साथ जूझनेके लिये तैयार नहीं हुआ। केवल अनिरुद्ध उनके साथ युद्ध करने लगे। अनिरुद्धने युद्धस्थलमें भैरवको पाँच बाण मारे। भैरवने भी परिधके प्रहारसे उनके उत्तम रथको चूर-चूर कर दिया। फिर अनिरुद्धने भी दूसरे रथपर आरूढ़ हो अपने सुदृढ़ धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर मायावी भैरवको रणभूमिमें दस वार्णोद्वारा घायल कर दिया। उन बाणोंसे आहत हो भैरवको कुछ मूर्च्छा-सी आ गयी। फिर उन्होंने अग्निके समान प्रज्वलित तीन शिखाओंवाला त्रिशूल अनिरुद्धपर फेंका। शूलको आया देख प्रद्युम्नकुमारने अपने बाणोंद्वारा उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले। अपने त्रिशूलको छिन्न-भिन्न हुआ देख बलवान् रुद्रकुमार भैरवने मायाद्वारा अपने मुखसे अग्निकी सृष्टि की। उस अग्निसे भूमि, वृक्ष और दसों दिशाएँ जलने लगीं। पैदल वीरों, रथारोहियों, घोड़ों तथा हाथियोंके शरीर सुन्दर फूलवाले सेमरकी रूईके समान जलने लगे। कितने ही वीर आगकी ज्वालाकी लपेटमें आ गये और कितने ही भस्म हो गये। सारी सेना अग्निज्वालासे व्याप्त हो गयी। कितने ही योद्धा भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करने लगे ॥ ३३-४१ ॥
अपनी सेनाको भयसे व्याकुल देख और भैरवकी रची हुई मायाको जानकर धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धने अपने धनुषपर एक बाण रखा। उस सायकको पर्जन्यास्त्रसे अभिमन्त्रित करके श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए शीघ्र ही आकाशमें छोड़ दिया ॥ ४२-४३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
राजन् ! उस बाणके छूटते ही मेघ प्रकट होकर पानी बरसाने लगे। आग बुझ गयी और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो वर्षाकाल आ गया हो। मोर, कोयल, चातक, सारस और मेढक आदि बोलने लगे। यत्र-तत्र इन्द्रगोप (वीरबहुटी नामक कीड़े) शोभा पाने लगे। आकाश इन्द्रधनुष और बिजलीकी चमकसे दीप्तिमान् हो उठा। अपना प्रयास निष्फल हुआ देख भैरवने अपने मुखसे भैरव-गर्जना की। जिससे सबका मन संत्रस्त हो उठा। उस भैरवनादसे समस्त लोकों और पातालोंसहित सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा। दिग्गज विचलित हो उठे, तारे टूटने लगे और उनसे भूखण्ड- मण्डल चमक उठा। उसी समय समस्त मनुष्य बहरे हो गये और गिर गये ॥ ४४-४८ ॥
फिर सर्पोंसे विभूषित भैरवने क्रुद्ध हो हाथसे हाथ- को दबाते, दाँतोंसे ओठको चबाते, जीभ लपलपाते और लाल-लाल नेत्रोंसे देखते हुए यदुकुल-तिलक अनिरुद्धको तिनकेके समान समझकर एक तीखा फरसा हाथमें लिया। उसी समय रणनीतिमें कुशल अनिरुद्धने जृम्भणास्त्रका प्रयोग करके भैरवको उसी प्रकार मोहाच्छन कर दिया, जैसे भगवान् श्रीकृष्णने बाणासुर-विजयके अवसरपर भगवान् शंकरको मोहित कर दिया था। राजन् ! उस अस्त्रके प्रभावसे अनिरुद्धके देखते-देखते भैरव रणभूमिमें गिर पड़े और जंभाई लेते हुए निद्रासुखका आस्वादन करने लगे ॥ ४९-५२॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘भैरव-मोहन’
नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गायत्री मंत्र का अर्थ हिंदी में
अड़तीसवाँ अध्याय
नन्दिकेश्वरद्वारा सुनन्दनका वधः भगवान् शिवके त्रिशूलसे आहत हुए अनिरुद्धकी
मूर्च्छा; साम्बद्वारा शिवकी भर्त्सना; साम्ब और शिवका
युद्ध तथा रणक्षेत्रमें भगवान् श्रीकृष्णका शुभागमन
श्रीगगंजी कहते हैं- राजन्। भैरवको निद्रित देख मृत्युञ्जय शिव कुपित हो उठे। उन्होंने वीरमानी अभिमन्युपर आक्रमण करनेके लिये अपने वृषभ नन्दिकेश्वरको प्रेरित किया। वृषभ उसी समय क्रोधसे भरकर दोनों सींगों, दाँतों और पिछले पैरोंसे यादवर्वोपर प्रहार करता हुआ सेनामें विचरने लगा। उसने सामने खड़े हुए सुनन्दनपर अपने एक सींगसे शीघ्र ही आघात किया। उस सींगके आघातसे सुनन्दनका वक्ष विदीर्ण हो गया और वे पञ्चत्वको प्राप्त हो गये ॥ १-३॥
तब हाथीपर बैठे हुए अनिरुद्ध धनुष लिये, कवच बाँधकर ‘मत डरो, मत डरो’ ऐसा कहते हुई अत्यन्त क्रोधपूर्वक वहाँ आये। श्रीकृष्णपुत्र वीर सुनन्दनको वहाँ मारा गया देख अनिरुद्धको बड़ा दुःख हुआ। वे शोकमें डूबकर काँपने लगे। उस महावीरके मारे जानेपर शोकमें पड़े हुए अनिरुद्धसे शिवजीने कहा ‘महाबली अनिरुद्ध । तुम रणक्षेत्रमें शोक न करो। युद्धमें भाग जाना शूरवीरोंके लिये अकीर्तिकारक माना गया है। इसलिये तुम भी संग्रामस्थलमें मेरे साथ यत्नपूर्वक युद्ध करो। मेरे सामने युद्धकी अभिलाषासे आये हुए तुम्हारे भी प्राण जानेवाले ही हैं। तुम उनकी रक्षा करो’॥४-७॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! भगवान् शिवकी यह बात सुनकर यदुकुलतिलक अनिरुद्धने शोक त्याग दिया और शिवजीके मस्तकपर पाँच बाण मारे। वे पाँचों बाण महेश्वरके जटाजूटमें उलझ गये और गीधके पंखोंसे युक्त वनस्पतिकी शाखाके समान दिखायी देने लगे। तब रुद्रदेवने अपने कोदण्डपर एक बाण रखा और उसके द्वारा सहसा अनिरुद्धके धनुषकी प्रत्यचा काट दी। अनिरुद्धने फिर शीघ्र ही अपने सुदृढ़ धनुषकी प्रत्यश्चा चढ़ा ली और एक सायक द्वारा शंकरजीके धनुषकी प्रत्यश्चाको भी खण्डित कर दिया। तब उन दोनोंमें अद्भुत एवं रोमाञ्चकारी युद्धका समाचार सुनकर विमानपर बैठे हुए इन्द्र आदि देवता कौतूहलवश वहाँ आ गये और आकाशमें स्थित हो वह युद्ध देखकर भयसे विह्वल हो परस्पर कहने लगे ॥ ८-१३॥
देवता बोले- ये दोनों त्रिभुवनकी सृष्टि और संहार करनेवाले हैं। इसलिये रणमण्डलमें इन दोनोंका युद्ध निष्फल है। कौन इस युद्धको जीतेगा और किसकी पराजय होगी? (यह कैसे कहा जा सकता है) ॥ १४॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर तीन दिनोंतक उन दोनोंमें बड़ा भारी युद्ध हुआ। फिर रुद्रदेवने धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर रोषपूर्वक ब्रह्मास्त्रका संधान किया, जो वहाँ तीनों लोकोंका प्रलय करनेमें समर्थ था। परंतु अनिरुद्धने ब्रह्मास्त्रसे ब्रह्मास्त्रका, वज्रास्त्रसे पर्वतास्त्रका और पर्जन्यास्त्रसे आग्नेयास्त्र- का निवारण कर दिया। तब पिनाकधारी शिव अत्यन्त क्रोधके कारण प्रज्वलित से हो उठे। उन्होंने तीन शिखाओंवाले त्रिशूलसे प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्धपर आघात किया। वह त्रिशूल अनिरुद्धको विदीर्ण करके हाथीको भी चीरता हुआ निकल गया और उन दोनोंके बीचमें ऊपरको पुङ्खभाग तथा नीचेको मुख किये स्थित हो गया। हाथीकी तत्काल मृत्यु हो गयी और युद्ध- स्थलमें अनिरुद्ध भी मूच्छित हो गये। वे दोनों रणभूमिमें वक्षःस्थल विदीर्ण हो जानेके कारण एक- दूसरेसे लगे हुए ही गिर पड़े। उस समय हाहाकार मच गया। सब यादव रोने लगे। जैसे यमराजके आगे पापी डर जाते हैं, उसी प्रकार रुद्रदेवके आगे सब यादव भयभीत हो गये। अनिरुद्ध मृतकके समान मूच्छित होकर गिर पड़े हैं, यह समाचार सुनकर साम्ब शङ्कित हो स्कन्दको छोड़कर वहाँ गये। यादववीरको मूच्छित हुआ देख साम्बके नेत्रोंसे अश्रुधारा बह चली और वे धनुष हाथमें लेकर क्रोधपूर्वक शिवसे बोले- “रुद्र! संग्राममें अनिरुद्ध तथा वीर सुनन्दनको मारकर तुम दानवोंका पालन कैसे करोगे? मैंने पहले वेदमें और भागवत-शास्त्रमें ब्राहाणोंके मुँहसे सुन रखा था कि शिव वैष्णव हैं और वे सदा ‘श्रीकृष्ण’ संज्ञक परब्रह्मका भजन-सेवन करते हैं। आज प्रद्युम्नकुमारके धराशायी होनेपर वह सब कुछ व्यर्थ हो गया। सुनन्दन श्रीकृष्णके पुत्र हैं, किंतु उन्हें भी तुमने युद्धमें मार डाला। महेश्वर! शिव ! तुम व्यर्थ युद्ध करते हो। तुम्हें धिक्कार है। तुम श्रीकृष्णसे विमुख हो; अतः मैं रणभूमिमें क्षुरप्रों तथा सायकोंद्वारा तुम्हें शीघ्र ही मार गिराऊँगा। तुम खड़े रहो, खड़े रहो”॥ १५-२७ ॥
साम्बकी यह बात सुनकर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और इस प्रकार बोले ॥ २८ ॥
शिवने कहा- यादव श्रेष्ठ! तुम धन्य हो। तुम मुझसे जो कुछ कह रहे हो, वह सब सत्य है। देव-दानव-वन्दित ये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मेरे स्वामी हैं। किंतु वीर! जब कुनन्दन मारा गया तथा रणक्षेत्रमें बल्वल मूच्छित हो गया, तब मैं उसकी सहायताके लिये, अथवा यों कहो कि भक्तकी रक्षाके लिये यहाँ आ गया। मैं अपने दिये हुए वचनको सत्य करनेके लिये आया हूँ और भक्तका प्रिय करनेकी इच्छासे समराङ्गणमें किंचित् कुपित होकर युद्ध करता हूँ ॥ २९-३१॥
भगवान भूतनाथ शिव जब इस प्रकार कह रहे थे, तभी रोषसे भरे हुए साम्बने बड़ी शीघ्रताके साथ अपने धनुषसे छूटे हुए क्षुरप्रों एवं सायकोंद्वारा उन्हें घायल कर दिया। उन बाणोंसे आहत होनेपर भी रुद्रदेवको थोड़ीसी भी वेदना नहीं हुई, जैसे फूलोंसे मारनेपर गजराजको कुछ पता नहीं चलता है। अब शिवने अपना धनुष उठाया और युद्धमें जाम्बवतीकुमारको अनेक तीखे बाण मारे। साम्ब शिवको और शिव साम्बको परस्पर घायल करने लगे। उन दोनोंका युद्ध देखकर देवता ऐसा मानने लगे कि अब समस्त लोकोंका संहार होनेवाला है। राजन् ! पृथ्वीपर और आकाशमें महान् कोलाहल मच गया। समस्त वृष्णि- वंशी भयभीत हो अपने रक्षक भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण करने लगे ॥ ३२-३६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
तब यादवों पर महान विपत्ति आयी हुई जानकर श्रीयदुकुल पालक शत्रुसूदन घोड़े और सारथिसे युक्त रथके द्वारा वहाँ आ पहुँचे। उनकी अङ्गकान्ति श्याम थी। मस्तकपर किरीट शोभा पा रहा था। नेत्र नूतन नील कमलकी शोभा छीन लेते थे। करोड़ों नवीन सूर्यकी कान्ति धारण किये भगवान् श्यामसुन्दर हाथोंमें कौमोदकी गदा, शङ्ख, चक्र, पद्म, धनुष, बाण और खड्ग लिये हुए थे। श्रीवत्सचिह्न, कौस्तुभमणि, पीताम्बर तथा वनमालासे अलंकृत श्रीहरि नीली अलकों तथा कुण्डल, कङ्कण आदि आभूषणोंसे विभूषित हो, करोड़ों कामदेवोंके समान शोभा पा रहे थे। जैसे राजहंस मुखसे मुक्ताफल गिरा रहे हों, उसी प्रकार श्वेत फेनकोंको उगलनेवाले सुग्रीव आदि अत्यन्त वेगशाली तथा सुन्दर सामगान करनेवाले घोड़ोंसे उनका रथ जुता हुआ था। जैसे सर्दीसे डरे हुए लोग सूर्यका उदय देखकर सुखी हो जाते हैं, उसी प्रकार यादव अपने स्वामी श्रीकृष्णका शुभागमन देखकर हर्षसे विह्वल हो गये। उस समय यादव- सेनामें जय-जयकार होने लगा। आकाशमें स्थित हुए देवता फूलोंकी वृष्टि करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णको अपनी सहायताके लिये आया जान साम्ब हर्षसे उत्फुल्ल हो उठे और धनुष त्यागकर उनके चरणोंमें गिर पड़े ॥ ३७-४३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अनिरुद्ध आदिकी सहायताके लिये श्रीकृष्णका आगमन’
नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३८ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय
उन्तालीसवाँ अध्याय
भगवान शंकरद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; शिव और श्रीकृष्णकी एकता; श्रीकृष्णद्वारा
सुनन्दन, अनिरुद्ध एवं अन्य सब यादवोंको जीवनदान देना तथा
बल्वलद्वारा यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका लौटाया जाना
श्रीगर्गजी कहते हैं- भगवान श्रीकृष्णको वहाँ उपस्थित देख महादेवजी भयभीत एवं शङ्कितचित्त हो गये और धनुष तथा त्रिशूल आदि त्यागकर उन श्रीपतिसे भक्तिपूर्वक बोले ॥ १ ॥
भगवान शंकरने कहा- सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वत्र व्यापक विष्णुदेव ! मेरे अविनयको दूर कीजिये। मनको दबाइये और विषयोंकी मृगतृष्णा शान्त कीजिये। प्राणियोंके प्रति मेरे हृदयमें दयाका विस्तार कीजिये और मुझे संसार-सागरसे उबारिये। देवनदी गङ्गा जिनकी मकरन्दराशि है, जिनका मनोहर सौरभ-समूह सच्चिदानन्दमय है तथा जो भवबन्धनके भय एवं खेदका छेदन करनेवाले हैं, श्रीपतिके उन चरणारविन्दोंकी मैं वन्दना करता हूँ। प्रभो। परमार्थदृष्टिसे आपमें और मुझमें कोई भेद न होनेपर भी मैं ही आपका हूँ, आप मेरे नहीं हैं; क्योंकि समुद्रकी ही तर हुआ करती हैं, तरङ्गोंका समुद्र कहीं नहीं होता। हे गोवर्धनपर्वत धारण करनेवाले। हे पर्वत-भेदी इन्द्रके अनुज ! हे दानव- कुलके शत्रु । तथा हे सूर्य और चन्द्रमाको नेत्रोंके रूपमें धारण करनेवाले परमेश्वर। आप प्रभुका दर्शन हो जानेपर क्या इस संसारका तिरस्कार नहीं हो जाता है? परमेश्वर ! मैं भवतापसे भीत हूँ और आप मत्स्य आदि अवतारोंद्वारा अवतारी होकर वसुधाका पालन करते हैं, अतः मेरा भी पालन कीजिये। दामोदर ! गुणोंके मन्दिर। सुन्दर वदनारविन्द ! गोविन्द ! भवसागरको मथ डालनेके लिये मन्दराचलरूप श्रीकृष्ण। आप मेरे बड़े भारी भयको भगाइये। नारायण। करुणामय ! मैं आपके युगल-चरणोंकी शरण लूँ। यह छः पदोंवाली स्तुतिरूपिणी षट्पदी (भ्रमरी) मेरे मुखरूपी कमलमें सदा निवास करे ॥ २-८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
भगवान शंकरके इस प्रकार स्तुति करनेपर बलरामके छोटे भाई श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर अपने चरणोंमें झुके हुए चन्द्रशेखर शिवसे सारा अभिप्राय पूछा ॥ ९ ॥
श्रीकृष्ण बोले- शिव! मेरे कुबुद्धि पुत्रने तुम्हारा क्या अपराध किया था, जिससे तुमने युद्धमें उसे मार डाला और अनिरुद्धको मूच्छित कर दिया? किसलिये यदुकुलका विनाश किया? तुम युद्धस्थलमें आये ही क्यों? और आये भी तो युद्ध क्यों करने लगे? यह सब बात विस्तारपूर्वक मुझे बताओ ॥ १०-११ ॥
श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर प्रमथनाथ शिव लज्जित हो गये और कुछ सोच-विचारकर उन मधुसूदनसे बोले ॥ १२ ॥
शंकरजीने कहा- देवदेव ! जगन्नाथ ! राधिकावल्लभ ! जगन्मय! करुणाकर! मैं निर्लज्ज हूँ, अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। देव! क्या आप नहीं जानते, मैं आपके सामने क्या कहूँगा? प्रभो! आपकी मायासे मोहित होकर मैं भक्तकी रक्षा करनेके लिये यहाँ आया था; आप मेरे इस सारे अपराधको क्षमा कर दीजिये। हरे! ‘मैं ही सम्पूर्ण जगत्का शासक हूँ’ इस अभिमानसे मैंने युद्धस्थलमें, जिनके श्रीकृष्ण ही देवता हैं, उन शूरवीर वृष्णिवंशियोंको मारा है। श्रीकृष्ण! यही कारण है कि संत पुरुष परमवाञ्छित महान् ऐश्वर्यको स्वयं छोड़कर आपके निर्भय चरणकमलका सदा चिन्तन करते हैं। मनुष्योंको सुख और दुःख तभीतक प्राप्त होते हैं, जबतक उनका मन श्रीकृष्णमें नहीं लगता है। श्रीकृष्णमें मन लग जानेपर वह दुर्जय भक्तियोगरूपी खड्ग प्राप्त होता है, जो मनुष्योंके कर्मरूपी वृक्षोंका मूलोच्छेद कर डालता है। जो लोग मेरी भक्तिके बलसे घमंडमें आकर आप मेरे स्वामी यदुकुलतिलकका अपमान करते हैं, वे सब निश्चय ही नरकमें जायेंगे ॥ १३-१९ ॥
– ऐसा कहकर भगवान् शंकर चुप हो नेत्रोंमें आँसू भरकर भक्तिभावसे श्रीकृष्णके युगलचरणारविन्दोंमें दण्डकी भाँति प्रणत हो गये। भगवान् श्रीकृष्णने रुद्रदेवको उठाकर अपने पास खड़ा किया और उन्हें आश्वासन देकर, मिलकर उनकी ओर सुधाभरी दृष्टिसे देखा ॥ २०-२१ ॥
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण बोले- शिव! सभी देवता अपने भक्तका पालन करते हैं। तुमने भी यदि भक्तका पालन किया तो इसमें कौन-सा निन्दित कर्म कर डाला ? तुम मेरे हृदयमें हो और मैं तुम्हारे हृदयमें। हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। खोटी बुद्धिवाले मूढ़ पुरुष ही हम दोनोंमें अन्तर या भेद देखते हैं। सदाशिव ! मेरे भक्त तुमको नमस्कार करते हैं और तुम्हारे भक्त मुझको। जो मेरी इस बातको नहीं मानते हैं, वे नरकमें पड़ेंगे ॥ २२-२४॥
– ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्णने युद्धस्थलमें मारे गये अपने पुत्र सुनन्दनको अमृतवर्षिणी दृष्टिसे देखकर जीवित कर दिया। तत्पश्चात् अनिरुद्धके हृदय- से शूलको धीरे-धीरे खींचा और उन्हें भी जीवनदान दिया। इसके बाद सर्वसमर्थ परमेश्वर श्रीकृष्णने युद्ध- स्थलमें मारे गये समस्त यादवोंको सुधावर्षिणी दृष्टिसे देखकर जीवित कर दिया। इतनेमें ही दुन्दुभिनादके साथ देवता उत्साहसूचक पुष्पवर्षा करने लगे। ऐसा करके उन्होंने भगवान् गरुडध्वजको प्रसन्न किया। सम्पूर्ण त्रिलोकीके नेता भगवान् श्रीकृष्णको आया देख वे श्रेष्ठ यादव वेगपूर्वक उठकर खड़े हो गये और प्रसन्नताके साथ जय-जयकार करने लगे ॥ २५-२९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
तदनन्तर महादेवजीसे सुरक्षित हो बल्वल उठा और रोषपूर्वक कहने लगा- ‘अनिरुद्ध कहाँ गया?’ तब शंकरजीने अपने शुभ वचनोंद्वारा उस दैत्यको समझाया और श्रीकृष्णकी महिमाको जानकर वह महामनस्वी दैत्य आनन्दित हो गया। राजन् ! तदनन्तर गोविन्दको प्रणाम और उनकी स्तुति करके दैत्य बल्वलने बहुत-सी द्रव्यराशिके साथ घोड़ा लौटा दिया ॥ ३०-३२ ॥
इसके बाद यज्ञके घोड़ेको साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण पुत्र-पौत्रोंके साथ सेतुमार्गसे समुद्रके तटपर आये। वहाँसे वे पश्चिम दिशाकी ओर चले गये। भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर रुद्रदेव बल्वलको उसके राज्यपर स्थापित करके अपने गणों और भैरवके साथ कैलासको चले गये। जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण- के इस चरित्रको अपने घरपर सुनते हैं, भगवान् श्रीकृष्ण उनकी सदा सहायता करेंगे ॥ ३३-३५॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अनिरुद्ध-विजय वर्णन’
नामक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३९ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ नित्य कर्म पूजा प्रकाश हिंदी में
चालीसवाँ अध्याय
यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका व्रजमण्डलमें वृन्दावनके भीतर प्रवेश; श्रीदामाका उसे बाँधकर
नन्दजीके पास ले जाना; नन्दजीका समस्त यादवों और श्रीकृष्णसे सानन्द मिलना;
यादव-सेनाका वृन्दावनमें और श्रीकृष्णका नन्दपत्तनमें निवास
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णके द्वारा मुक्त हुआ पत्र और चामरोंसे विभूषित वह अश्व सम्पूर्ण देशोंका नेत्रोंसे अवलोकन करता हुआ आगे बढ़ा। नरेश्वर बल्वलको पराजित हुआ सुनकर अनेक देशोंके नरेश भगवान् श्रीकृष्णके भयसे अपने यहाँ आये हुए अश्वको पकड़ न सके। राजेन्द्र । इस प्रकार आगे-आगे जाता हुआ यदुवीर उग्रसेनका अश्व एक महीनेमें भारतवर्षके अन्तर्गत व्रजमण्डलमें जा पहुँचा। राजन् ! वहाँसे यमुनाको पारकर वृन्दावनका दर्शन करते हुए वह श्रेष्ठ अश्व एक तमाल वृक्षके नीचे खड़ा हो गया। वहाँ दूब चरते हुए घोड़ेको देखकर बहुत-से ग्वाल- बाल गौएँ चराना छोड़कर कौतूहलवश उसके पास आ गये और ताली पीटने लगे। राजन्। इस प्रकार जब सब ग्वाल-बाल घोड़ेको देख रहे थे, उसी समय गोपनायक श्रीदामा वहाँ आये और उन्होंने वहाँ विचरते हुए उस चञ्चल अश्वको अनायास ही पकड़ लिया। गाय बाँधनेवाली रस्सीको घोड़ेके गलेमें बाँधकर वे अन्य गोपोंके साथ ‘किसने इसको छोड़ा है’- यह बातचीत करते हुए नन्दरायके निकट गये। उस घोड़ेको आया देख नन्दरायजीको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उसके भालमें बँधे हुए पत्रको बाँचकर गद्द- वाणीमें सब लोगोंसे कहा- ‘यह उग्रसेनका घोड़ा है, जो मेरे गाँवमें आ गया है। मेरे प्रपौत्र अनिरुद्ध सब ओरसे इसका पालन करते हैं। मैं मित्रोंसे मिलनेके लिये इस यज्ञ-सम्बन्धी अश्वको ग्रहण करता हूँ। इसके बाद श्रीकृष्णकी-सी आकृतिवाले प्रियकारी प्रपौत्र अनिरुद्धको देखूँगा।’ ऐसा कहकर और यशोदाके सामने सारा अभिप्राय बताकर नन्दरायजी अनिरुद्धको देखनेके लिये अन्यान्य गोपोंके साथ नन्दगाँवसे बाहर निकले ॥ १-११॥
नृपेश्वर! उसी समय भोज, वृष्णि तथा अन्धक आदि कुलोंके समस्त यादव घोड़ेके पीछे लगे वहाँ आ पहुँचे। नृपेन्द्र ! गङ्गासागरसे लौटते समय मार्गमें नैपाल तीर्थ, मिथिला, अयोध्या, बर्हिष्मती, कान्य कुब्ज (कन्नौज), बलभद्रजीके स्थान (दाऊजी), गोकुल (महावन), सूर्यकन्या यमुना तथा जहाँ भगवान् केशवदेव विराजते हैं, उस मथुरापुरीका भी दर्शन करते हुए श्रीकृष्णसहित सब लोग वृन्दावन होते हुए नन्दगाँवमें आये। नन्दग्रामको दूरसे देखकर रथारूढ़ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण सबसे आगे होकर यादवोंके साथ वहाँ आये। निकट पहुँचकर श्रीहरिने सामने देखा-पिता नन्दरायजी एक सुसज्जित गजराजको आगे रखकर गोपोंके साथ खड़े हैं। नृपेश्वर ! तरह-तरहके बाजे बजवाते, शङ्खनाद कराते, जय-जयकारकी ध्वनि फैलाते नन्दरायजी फूलोंके हार, मङ्गल कलश तथा बाजा आदिसे विभूषित थे। राजन् ! उस समय नन्दजीका दर्शन करके उद्धव आदि समस्त यादवोंने उनको नमस्कार किया। सबके नेत्रोंमें हर्षके आँसू छलक आये थे ॥ १२-१८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
उसी समय नन्दरायका दाहिना अङ्ग फड़क उठा। नरेश्वर ! वह उत्तम शकुन देखकर वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘क्या मैं आज अपने नेत्रोंसे प्रियवादी श्रीकृष्णको देखूँगा? क्योंकि प्रियकी सूचना देने- वाला मेरा दाहिना नेत्र फड़क रहा है। यदि श्रीकृष्ण मेरे नेत्रोंके समक्ष आ जायें तो आज मैं ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणों से अलंकृत एक लाख गौएँ दान दूँगा’ ॥ १९-२१॥
नरेश्वर! ऐसा संकल्प करके जब नन्दजी चुप हुए, तभी व्रजवासियोंके मुखसे उन्होंने अपने पुत्रके शुभागमनका समाचार सुना। श्रीकृष्णका आगमन सुनकर विरहमें डूबे हुए नन्दराय उन श्रीहरिको देखनेके लिये रोते हुए से सबके आगे चलने लगे। वे गद्द वाणीसे बार-बार कह रहे थे- ‘हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्णचन्द्र ! तुम कहाँ चले गये थे? क्या मुझ दुखियाको नहीं देखते हो’ ॥ २२-२४॥
पिताको देखकर पितृवत्सल श्रीकृष्ण रथसे कूदकर तत्काल उनके चरणोंमें गिर पड़े। श्रीनन्दरायने सुदीर्घकालके बाद आये हुए अपने पुत्रको उठाया और उन्हें छातीसे लगाकर वे नेत्रोंके जलसे नहलाने लगे। श्रीकृष्णचन्द्र भी करुणासे आकुल हो नेत्रोंसे अश्रुधारा बहाने लगे। तत्पश्चात् प्रेममें डूबे हुए श्रीदामा आदि मित्रोंको देखकर प्रेमपरिप्लुत श्रीकृष्णने उन सबको बारी-बारीसे अपने हृदयसे लगाया। अहो! इस भूतलपर कौन ऐसा मनुष्य है, जो भक्तोंके माहात्म्यका वर्णन कर सके ? एक ओरसे नन्द आदि गोप रो रहे थे और दूसरी ओरसे श्रीकृष्ण आदि यादव। सब लोग विरहसे व्याकुल होनेके कारण परस्पर कुछ बोल नहीं पाते थे। श्रीकृष्णके मुखपर आँसुओंकी अविरल धारा बह रही थी। उन्होंने गद्गद वाणीसे प्रेमानन्दमें डूबे हुए समस्त गोपोंको आश्वासन दिया। उन सबने साक्षात् परिपूर्णतम जगदीश्वर श्रीकृष्णको वैसा ही देखा, जैसा वे मथुरा जाते समय दिखायी दिये थे ॥ २५-३१ ॥
नूतन जलधरके समान उनकी श्याम कान्ति थी। वे किशोर अवस्थाके बालक से प्रतीत होते थे। उनके नेत्र शरत्कालके प्रभातमें खिले हुए कमलोंकी कान्तिको छीने लेते थे। उनका मुख अपनी छबिसे शरत्पूर्णिमाके शोभासम्पन्न पूर्ण चन्द्रमण्डलकी छबिको आच्छादित किये लेता था। करोड़ों कामदेवोंका लावण्य उनके लावण्यमें विलीन हो गया था। लीला- जनित आनन्दसे वे और भी सुन्दर प्रतीत होते थे। अधरोंपर मुस्कराहट और हाथोंमें मुरली लिये द्विभुज श्रीकृष्ण अत्यन्त मनोहर दिखायी देते थे। विद्युत्की सी पीतकान्तिसे सुशोभित वस्त्र तथा मीनाकार कुण्डल धारण किये भगवान् श्रीहरिका सारा अङ्ग चन्दनसे अनुलिप्त तथा कौस्तुभमणिसे दीप्तिमान् था। घुटनोंतक लटकती हुई मालतीसुमनोंकी माला और वनमालासे वे विभूषित थे। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट तथा उत्तम रत्नोंका बना हुआ किरीट जगमगा रहा था। ओठ परिपक्व बिम्बाफलसे भी अधिक लाल थे तथा ऊँची नासिकासे उनका मुखमण्डल अद्भुत शोभा पा रहा था। राजेन्द्र ! श्रीकृष्णके ऐसे रूपामृतका, आनन्दमें डूबे हुए व्रजवासी नेत्रोंसे पान कर रहे थे, मानो साधारण मानव वसुधापर सुलभ हुई सुधाका पान कर रहे हों ॥ ३२-३७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 36 to 40)
राजन् ! तत्पश्चात् प्रेमरसमें डूबे हुए नन्दरायजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ अनिरुद्धको और साम्ब आदि समस्त यादवोंको शुभाशीर्वाद दिया। इसके बाद समस्त यादवों और पुत्र-पौत्रोंसे घिरे हुए महाबुद्धिमान् नन्दजी अपनी पुरीमें प्रविष्ट हुए। उस समय उनके मनका सम्पूर्ण दुःख दूर हो गया था। द्वारपर पहुँचते ही श्रीकृष्ण रथसे कूद पड़े और साम्ब आदिके साथ माताको आनन्द प्रदान करते हुए तुरंत उनके भवनमें जा पहुँचे। माता यशोदा घरके द्वारतक आ गयी थीं। वे रो रही थीं और उनका गला रुँध गया था। उस दशामें उन्हें देखकर श्रीकृष्ण फूट-फूटकर रोते हुए माताके चरणोंमें पड़ गये। माता यशोदाने अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको छातीसे लगाकर उन्हें गद्द कण्ठसे आशीर्वाद दिया। नन्द, उपनन्द, छहों वृषभानु तथा वृषभानुवर-ये सब लोग श्रीकृष्णको देखनेके लिये आये। यादवर्वोसहित श्रीकृष्णने वहाँ पधारे हुए गोपोंसे विधिपूर्वक मिलकर उन सबका समादर किया। उन सबने प्रसन्नमुख होकर श्रीकृष्णकी कुशल पूछी और भगवान् श्रीकृष्णने भी उन सबका उत्तम कुशल-समाचार पूछा ॥ ३८-४५ ॥
नृपेश्वर ! तत्पश्चात् वृन्दावनमें यमुनाके तटपर महात्मा अनिरुद्धकी सेनाके सारे शिविर लग गये। अनिरुद्ध, साम्ब और उद्धव आदिने तो शिविरोंमें ही निवास किया, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण नन्दनगरमें ही ठहरे। राजन् ! श्रीकृष्णसहित नन्दरायजीने वहाँ पधारे हुए समस्त यादव सैनिकोंको भोजन दिया और पशुओंके लिये भी चारे दाने आदिका प्रबन्ध कर दिया ॥ ४६-४८ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘ब्रजमण्डलमें प्रवेश’
नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४०॥