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Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 26 से 30 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30) के छब्बीसवाँ अध्याय में नारदजीके मुखसे बल्वलके निवासस्थानका पता पाकर यादवोंका अनेक तीर्थोंमें स्नान-दान करते हुए कपिलाश्रमतक जाना और वहाँ कपिल मुनिको प्रणाम करके सागर के तटपर सेना का पड़ाव डालने का वर्णन है। सत्ताईसवाँ अध्याय में यादवों द्वारा समुद्र पर बाणमय सेतु का निर्माण कहा गया है। अट्ठाईसवाँ अध्याय में यादवों का पाञ्चजन्य उपद्वीप में जाना; दैत्यों की परस्पर मन्त्रणा; मयासुर का बल्वल को घोड़ा लौटा देने के लिये सलाह देना; परंतु बल्वल का युद्ध के निश्चय पर ही अडिग रहने का वर्णन है। उन्तीसवाँ अध्याय में यादवों और असुरोंका घोर संग्राम तथा ऊर्ध्वकेश एवं अनिरुद्धका द्वन्द्व युद्ध का वर्णन और तीसवाँ अध्याय में ऊर्ध्वकेश और अनिरुद्धका तथा नद और गदका घोर युद्ध; ऊर्ध्वकेश और नदका वध का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छब्बीसवाँ अध्याय

नारदजीके मुखसे बल्वलके निवासस्थानका पता पाकर यादवोंका अनेक तीर्थोंमें
स्नान-दान करते हुए कपिलाश्रमतक जाना और वहाँ कपिल मुनिको
प्रणाम करके सागरके तटपर सेनाका पड़ाव डालना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! यज्ञपशुके अपहृत हो जानेपर समस्त यादवगण शोक करने लगे कि ‘हम कहाँ जायें और इस पृथ्वीपर क्या करें?’ अनिरुद्ध आदि सब लोगोंको उस समय कोई उपाय नहीं सूझा। नरेश्वर ! तब श्रीनारदरूपधारी भगवान् वहाँ आ पहुँचे। देवर्षि नारदको आया देख यादवोंसहित अनिरुद्धने आसनपर बैठाकर उनका पूजन किया और बड़े प्रसन्न होकर वे उन मुनीश्वरसे बोले ॥१-३॥

अनिरुद्धने कहा- भगवन् । वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुने ! दुरात्मा दैत्य बल्वल हमारा घोड़ा लेकर कहाँ चला गया है? यह सब मुझे बताइये। आपका दर्शन दिव्य है। आप सूर्यदेवकी भाँति तीनों लोकोंमें विचरते हैं। त्रिभुवनके भीतर वायुके समान विचरण करनेवाले आप सर्वज्ञ तथा आत्मसाक्षी हैं। इसलिये सब बात मुझसे कहिये। अनिरुद्धका यह प्रश्न सुनकर नारदजी माधव प्रद्युम्नकुमारसे बोले ॥४-५ ॥

नारदजीने कहा- नृपेश्वर ! बल्वलने तुम्हारे घोड़ेको समुद्रके बीचमें बसे हुए ‘पाञ्चजन्य’ नामक उपद्वीपमें ले जाकर रख दिया है। उसका मित्र या बन्धु शकुनि यादवोंके हाथसे मारा गया था, अतः यादवोंका वध करनेके लिये उसने यह कार्य किया है। वह महान् असुर सुतललोकसे दैत्यसमूहोंको बुलाकर वहाँ राज्य करता है। भगवान् शिवका वरदान पाकर वह घमंडसे भरा रहता है॥ ६-८॥

यह सुनकर अनिरुद्धने शङ्कित होकर पूछा ॥८॥

अनिरुद्ध बोले- देवर्षे । चन्द्रमौलि भगवान् शिवने उस दैत्यको कौन-सा श्रेष्ठ वर प्रदान किया है? उसके किस कार्यसे शिवजी संतुष्ट हो गये थे ॥९॥

तब मुनिवर नारदने कहा- प्रद्युम्रकुमार ! मेरी बात सुनो। एक समय उस दैत्यने कैलास पर्वतपर एक पैरसे खड़े रहकर बारह वर्षोंतक अत्यन्त कठोर तप किया। उस तपस्यासे संतुष्ट होकर महादेवजीने कहा- ‘वर माँगो’। उनकी बात सुनकर वह बोला- ‘सदाशिव ! आपको नमस्कार है। कृपानिधान! देव! महासमरमें आप मेरी रक्षा करें।’ नरेश्वर ! तब ‘तथास्तु’ कहकर महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये। फिर वह दैत्य पाञ्चजन्य उपद्वीपमें बलपूर्वक राज्य करने लगा। वह युद्धके बिना स्वतः तुम्हें घोड़ा नहीं देगा ॥ १०-१४॥

तब अनिरुद्ध कहने लगे मुनिश्रेष्ठ! मैं सेना सहित दुष्ट बल्वलको मारकर घोड़ा छुड़ा लूँगा। यदि यह भगवान् शिवके वरदानसे युद्ध करेगा तो मुझे विश्वास है कि शिवजी युद्धमें उस श्रीकृष्णद्रोही दुष्टकी रक्षा नहीं करेंगे ॥ १५-१६ ॥

– ऐसा कहकर अनिरुद्धने विजययात्राके लिये सहसा समस्त यादवोंको आज्ञा दी। नृपेश्वर ! नारदजीके हृदयमें युद्ध देखनेका कौतूहल था। वे अनिरुद्धसे विदा ले आकाशमार्गसे उस स्थानपर गये। समस्त यादव तत्काल तीर्थराजमें विधिवत् स्नान-दान करके रोषपूर्वक युद्धयात्राके लिये सुसज्जित हो गये ॥ १७-१९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

राजन् ! वे हाथियों, घोड़ों तथा रोंके द्वारा उस उपद्वीपमें गये। प्रतिदिन दो लाख सिपाही उनके जानेके लिये मार्ग तैयार करते थे। वे भिन्दिपालोंकी सहायतासे सर्वत्र सेनाके लिये पहले ही मार्ग तैयार कर देते थे, जिसपर रथ, हाथी और घोड़े सुखसे यात्रा करते थे। राजेन्द्र ! उस निष्कण्टक मार्गमें पैदल सिपाही भी तीव्रगतिसे चलते थे। यादव सेनाके भारसे पीड़ित हो शेषनाग मन-ही-मन कहते थे- ‘न जाने भूतलपर क्या हो गया है?’ ॥ २०-२२ ॥

नरेश्वर। अनिरुद्ध सेनाके आगे होकर अलक्षित भावसे चलते थे। वे अश्वकी रक्षाके बहाने पापियोंका विनाश-सा करते थे। राजन् ! प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध अश्वकी रक्षाके लिये जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ वे श्रीकृष्णके समग्र यशका गान सुनते थे। जो लोग श्रीकृष्ण और बलरामकी प्रशंसा करते थे। उनको वे रत्न, वस्त्र और आभूषण बाँटते थे। उनकी सेनाओंमें जो कुछ भी उत्तम धन था, वह सब श्रीकृष्णकथासे आकृष्टचित्त हो वे प्रसन्नतापूर्वक दे डालते थे ॥ २३-२६ ॥

राजन् ! इस प्रकार श्रीहरिका यशोगान सुनते और काशी तथा गया आदि तीर्थोंको देखते हुए वहाँ अनेक प्रकारके दान दे, वे पूर्वदिशाकी ओर चले गये। यादवोंकी ऐसी भयंकर सेना देखकर गिरि-व्रजपुरके स्वामी जरासंधपुत्र सहदेव शङ्कित हो गये। वे नाना प्रकारके रत्नोंकी भेंट ले, भयसे विह्वल हो, दोनों हाथ जोड़कर अनिरुद्धके चरणोंमें गिर पड़े। शरणागतवत्सल अनिरुद्धने सहदेवको प्रसन्नतापूर्वक रत्नमयी माला भेंट की और उन्हें उनके राज्यपर स्थापित करके शीघ्र ही श्रेष्ठ वृष्णिवंशी वीरोंके साथ वे कपिलाश्रमको गये। उन श्रेष्ठ यादव-वीरने वहाँ गङ्गा-सागर-सङ्गममें स्रान किया और सिद्ध मुनीन्द्र कपिलका दर्शन करके सेनासहित उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। राजन् । उस स्थानसे दक्षिण दिशामें समुद्रके तटपर महलों- के समान ऊँचे-ऊँचे शिविर लग गये। राजेन्द्र ! उन शिविरोंमें अनुयायियोंसहित अनिरुद्ध आदि शूरवीर और विजयाभिलाषी समस्त यादवोंने निवास किया ॥ २७-३४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अश्वके लिये उपद्वीपमें गमन’
नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम

सत्ताईसवाँ अध्याय

यादवों द्वारा समुद्र पर बाणमय सेतु का निर्माण

श्रीगर्गजी कहते हैं- महाराज ! तत्पश्चात् यादवराज अनिरुद्ध ने उद्धवजी को बुलाकर गम्भीर वाणी में पूछा- ‘साधुशिरोमणे! पाञ्चजन्य द्वीप कितनी दूर है, जिसमें उस दैत्यने मेरा घोड़ा ले जाकर रखा है?’ ॥१-२॥

उनका यह प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण के मन्त्री, सुहद् और सखा उद्धव मन-ही-मन श्रीकृष्णचरणारविन्दोंका चिन्तन करके यदुकुलनन्दन अनिरुद्धसे बोले- “भगवन् ! सर्वज्ञ ! प्रभो! लोकेश! मैं आपकी बातका गौरव रखनेके लिये मार्गमें जैसा सुना है, वैसा बता रहा हूँ। नृपेश्वर ! तीस योजन विस्तृत सागरके उस पार दक्षिण दिशामें ‘पाञ्चजन्य’ नामक उपद्वीप है॥ ३-५ ॥

उद्धवकी बात सुनकर बलवान्, धैर्यशाली तथा धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्ध रोष और उत्साहसे भरकर श्रेष्ठ यादव-वीरोंसे बोले ॥ ६ ॥

अनिरुद्धने कहा- श्रेष्ठतम वीर यादवो। मैं समुद्रके पार जाऊँगा। इसलिये तुमलोग शीघ्र ही बाणोंद्वारा समुद्र के ऊपर सेतुका निर्माण करो ॥७॥

उनकी यह बात सुनकर युद्धकुशल यादव परस्पर हँसते हुए समुद्रके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। तब समस्त जलचर जन्तु तीखे बाणोंसे घायल हो चीत्कार करते हुए चारों दिशाओंमें भाग चले। देवर्षि नारद आकाशमें खड़े होकर यह सब कौतुक देख रहे थे। वे बड़े जोरसे बोले- ‘तुमलोगोंर्मेसे किसीके बाण अभी समुद्रके पारतक नहीं पहुँचे हैं ।॥८-९॥

नरेश्वर। उस समय नारदजीकी बात सुनकर अक्रूर, हृदीक, युयुधान, सात्यकि, उद्धव, बलवान् कृतवर्मा और सारण आदि वीरों तथा हेमाङ्गद, इन्द्रनील और अनुशाल्व आदि भूपालोंका घमण्ड चूर-चूर हो गया। तब बलवान् अनिरुद्धने श्रीकृष्ण- चरणारविन्दोंका चिन्तन करके र्शाङ्गधनुषके तुल्य कोदण्ड लेकर उसके द्वारा दिव्य बाण छोड़े। उन बाणोंको देखकर देवर्षि बोले- ‘अनिरुद्धके बाण समुद्रके पार जाकर उसकी तटवर्ती भूमिमें प्रविष्ट हो गये हैं’॥ १०-१४॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

राजन् ! देवर्षिका यह वचन सुनकर साम्ब और दीप्तिमान् आदि यादवोंने भी बाण छोड़े। उनके भी वे बाण समुद्रके उस पार पहुँच गये। महाराज! यों करोड़ों बाण घुसते चले गये। यह देख समस्त धनुर्धर आश्चर्यचकित हो गये। इस प्रकार सब यादवोंने जलके ऊपर आकाशमें तीस योजन लंबा और एक योजन चौड़ा पुल तैयार कर दिया। चार पहरमें इतना बड़ा पुल बाँधकर अनिरुद्ध आदि यादव रात्रिके समय अपने शिविरोंमें सोये। अतः परमात्मा श्रीकृष्णके शूरवीर पुत्र-पौत्रोंके, जो श्रीकृष्णके ही प्रतिबिम्ब हैं, बलका मैं क्या वर्णन करूँ ? ॥ १५-१९॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘सेतु बन्धन’
नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महामृत्युंजय मंत्र जप विधि

अट्ठाईसवाँ अध्याय

यादवों का पाञ्चजन्य उपद्वीप में जाना; दैत्यों की परस्पर मन्त्रणा; मयासुर का
बल्वल को घोड़ा लौटा देने के लिये सलाह देना; परंतु बल्वल का
युद्ध के निश्चय पर ही अडिग रहना

श्रीगर्गजी कहते हैं- नृपेन्द्र ! प्रातःकाल शौचादिकर्म करके यदुनन्दन अनिरुद्ध यादवोंके साथ। उसी प्रकार सागरके उस पार गये, जैसे पूर्वकालमें कपियोंके साथ श्रीरामचन्द्रजी गये थे। वहाँ जाकर उन अनिरुद्ध आदि यादवोंने पाञ्चजन्य उपद्वीप देखा, जिसका विस्तार सौ योजन था। राजेन्द्र ! उस उपद्वीपमें आसुरी पुरो शोभा पाती थी, जो बीस योजनतक फैली हुई थी। उसमें दैत्योंके समुदाय निवास करते थे। पुंनाग, नागकेसर, चम्पा, तिलक, देवदारु, अशोक, पाटल, आम, मन्दार, कोविदार, निम्ब, जम्बू, कदम्ब, प्रियाल, पनस (कटहल), साल, ताल, तमाल, मल्लिका, जाति (चमेली), जूही, नीप, मौलश्री, चम्पक तथा मदन नामवाले वृक्ष एवं पुष्प उस रमणीय नगरीकी शोभा बढ़ाते थे। उसमें रत्नोंके महल बने हुए थे ॥ १-६॥

यादवोंका आगमन सुनकर दुष्ट बल्वलने महात्मा यादवोंकी सेनाकी गणना करनेके लिये मायावी मयको भेजा। उसने तोतेका रूप धारण करके वहाँ जाकर सब यादवोंको देखा और लौटकर अत्यन्त विस्मित हो पुरीके भीतर बल्वलसे कहा ॥ ७-८ ॥

मय बोला- दैत्यराज । बलवान् वृष्णिवंशी योद्धाओंकी गणना कौन कर सकता है? जहाँ वे प्रद्युम्रपुत्र अनिरुद्ध लाख-लाख करोड़ सैनिकोंके साथ सुशोभित हैं। समस्त यादव समुद्रके ऊपर बाणोंसे सेतुका निर्माण करके तुम्हारे ऊपर चढ़ आये हैं। राजन् देखो, उनकी सेना देवताओंको भी विस्मयमें डालने- वाली है। दैत्यराज! मैं बूढ़ा हो गया, परंतु आजतक सागरके ऊपर बाणोंका बना हुआ पुल न तो देखा था और न सुना ही था। आज तुम्हारे सामने ही यह देखनेको मिला है। रघुकुलशिरोमणि श्रीरामने पूर्व- कालमें लङ्काके निकट जो सेतु-निर्माण किया था, वह पत्थरों और वृक्षोंसे बनाया गया था और उनके नामके प्रतापसे पानीके ऊपर प्रस्तर ठहर सके थे। वह सारा सेतु मैंने प्रत्यक्ष देखा था; परंतु आज जो देखा है, वह तो बहुत ही अद्भुत है। राजन्। पूर्वकालमें श्रीकृष्णने कंस आदि तथा शकुनि आदि दैत्योंको युद्धमें मारा था और समस्त राजाओंको परास्त कर दिया था। श्रीकृष्ण तो साक्षात् भगवान् हैं। पूर्वकालमें ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर वे अपने भक्तोंकी रक्षाके लिये गोलोकसे भूमिपर पधारे हैं। वे दुष्ट पापियोंका विनाश करनेके लिये कुशस्थलीमें विराजमान हैं। इसीलिये अनिरुद्ध आदि महाबली समस्त श्रेष्ठ यादव भीषण, बक तथा अन्य नरेशोंको परास्त करके यहाँ आये हैं। श्रीकृष्णके पुत्र, पौत्र तथा जाति-भाई श्रेष्ठ यादव आकाशको भी जीतनेका हौसला रखते हैं, फिर भूतलपर विजय पाने- की तो बात ही क्या? अतः बल्वल! तुम मरनेसे बचे हुए दैत्योंकी भलाई और अपने कुलकी कुशलताके लिये अनिरुद्धको घोड़ा लौटा दो। देवद्रोही दैत्योंको सुख मिले, इस उद्देश्यसे अनिरुद्धको घोड़ा देकर श्रीकृष्णचन्द्रका भजन करते हुए तपस्यासे प्राप्त हुए अपने राज्यको भोगो ॥ ९-१९ ॥

इस प्रकार शुभ वचनोंसे समझाये जानेपर भी बल्वल श्रीकृष्णसे विमुख हो लंबी साँस खींचकर मयसे रोषपूर्वक बोला ॥ २० ॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

बल्वलने कहा- दैत्य ! तुम बिना युद्धके ही कैसे भयभीत हो रहे हो, और मेरे सामने ऐसी बात बोल रहे हो जो शूरवीरोंके लिये हास्यजनक है। तुम बुढ़ापेके कारण बुद्धि और बल दोनोंसे हीन हो गये हो; इसलिये इस समय मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकता। यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं और ये यादव श्रीकृष्णके ही वंशज हैं, तथापि मैं शिवजीका भक्त हूँ। मेरे सामने ये क्या पुरुषार्थ करेंगे? इसलिये तुम भय न करो। तुम्हारी मायाएँ कहाँ चली गयीं? मैं तो तुम्हारे सहारे ही युद्ध करने जा रहा हूँ। अनिरुद्ध बड़े शूरवीर हैं तो क्या हमलोग शौर्यसे सम्पन्न नहीं हैं? मेरे रहते इस भूमण्डलमें यादवोंका यह बड़ा भारी गर्व क्या है? मेरे धनुषसे छूटे हुए सायकोंद्वारा अनिरुद्ध अपनी वीरताके गर्वका फल प्राप्त करें। दैत्यप्रवर! आज रणभूमिमें मेरे तीखे बाण मानी अनिरुद्धको उसके कवच छिन्न-भिन्न करके रक्तसे लथपथ कर देंगे। आज योगिनियोंके झुंड मनुष्योंकी खोपड़ियोंसे जी भरकर रक्तपान करें। वैरियोंके कच्चे मांसको चबाकर आज महाकाली संतुष्ट हो जाय। अपने महान् कोदण्ड- से करोड़ों भल्लोंकी वर्षा करते हुए मुझ वीरके बाहुबलको समस्त सुभट प्रत्यक्ष देखें ॥ २१-३० ॥

बल्वलकी यह बात सुनकर महाबुद्धिमान् मायावी मय श्रीकृष्णके माहात्म्यको जाननेके कारण उस मदान्ध दैत्यसे इस प्रकार बोला ॥ ३१ ॥

मयने कहा- जब तुम रणक्षेत्रमें श्रीकृष्णके पुत्रों एवं यादवोंको जीत लोगे तब तुम्हें परास्त करनेके लिये श्रीकृष्ण अथवा बलराम यहाँ पदार्पण करेंगे ॥ ३२ ॥

मयकी बात सच्ची और हितकारक थी तो भी कालपाशसे बँधे हुए उस महादैत्यने उसे सुनकर भी नहीं स्वीकार किया; उलटे वह रोषसे जल उठा ॥ ३३ ॥

बल्वलने कहा- बलराम और श्रीकृष्ण मेरे शत्रु हैं। समस्त वृष्णिवंशी यादव मेरे वैरी हैं। जिन्होंने मेरे मित्रोंको मारा है, मैं उन सबको मौतके घाट उतार दूँगा। यहाँ यादवोंका वध करके पीछे मैं भी यज्ञ करूँगा और उस यज्ञके दिग्विजय-प्रसङ्गमें मैं द्वारकापुरीपर विजय पाऊँगा ॥ ३४-३५ ॥

मय बोला- दैत्यराज! घमंड न करो। यह कालरूपी घोड़ा तुम्हारे नगरमें आया है। अबतक मरनेसे जो बच गये हैं, उन महान् असुरोंको मरवा डालनेके लिये ही इसका यहाँ पदार्पण हुआ है। असुरेश्वर ! अनिरुद्धके समस्त बाण इसी क्षण तुम्हारी पुरीको छिन्न-भिन्न तथा शूरवीरोंसे हीन कर डालेंगे, इसमें संशय नहीं है। जिन्होंने हिरण्याक्ष आदि दैत्यों तथा रावण आदि निशाचरोंको कालके गालमें भेजा था, वे ही श्रीकृष्ण यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं, ऐसा मैंने सुना है। बल्वल! इस छोटेसे राज्यके अभिमान- में आकर तुम उन्हें नहीं जानते हो। मेरे कहनेसे घोड़ा अनिरुद्धको दे दो। यह हमारे लिये युद्धका समय नहीं है॥ ३६-३९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

बल्वल बोला- मैं तुम्हारी बात समझता हूँ। तुम यादवोंके साथ युद्ध नहीं करोगे। इसलिये पूर्व- कालमें जैसे रावणका भाई विभीषण श्रीरामके पास चला गया था, उसी प्रकार तुम भी अनिरुद्धके पास चले जाओ ॥ ४० ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! बल्वलकी यह बात सुनकर मायावियोंमें श्रेष्ठ मयने वहाँ अपने मानसिक दुःखको दूर करनेके लिये इस प्रकार विचार किया-‘पूर्वकालमें वैरभावसे भगवच्चिन्तन करनेके कारण बहुत-से निशाचर और दैत्य वैकुण्ठधामको जा पहुँचे। अतः जो भी उस भावको अपने हृदयमें स्थान देता है, उसकी अवश्य उत्तम गति होती है।’ ऐसा विचार करके मयासुरने सहसा उस महान् असुरसे कहा ॥ ४१-४२ ॥

मयासुर बोला- बल्वल! तुम महान् वीर हो। अब मैं तुझे युद्धसे नहीं रोकूँगा। तुम रणभूमिमें जाकर युद्ध करो और अपने सायकोंसे यादवोंको मार डालो। अब मैं भी तुम्हारे कहनेसे संग्रामभूमिमें जाकर युद्ध ही करूँगा ॥ ४३ ॥

– ऐसा कहकर बल्वलको हर्षप्रदान करता हुआ मयासुर मौन हो गया। राजन्। तब ऊर्ध्वकेश, नद, सिंह और कुशाम्ब आदि चार मन्त्रियोंने अत्यन्त कुपित होकर बल्वलसे कहा ॥ ४४-४५ ॥

मन्त्री बोले- दैत्यराज। पहले हमलोग समस्त श्रेष्ठ यादवोंका वध करनेके लिये युद्धके मुहानेपर जायेंगे; क्योंकि हमें बहुत दिनोंसे संग्राम करनेका अवसर नहीं मिला है। राजेन्द्र । चिन्ता मत करो। हमलोग मयदैत्यके साथ रहकर कोटि-कोटि मनुष्योंको क्षणभरमें मार गिरायेंगे ॥ ४६-४७ ॥

श्रीगगंजी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ ! उन मन्त्रियोंका भाषण सुनकर बल्वलको बड़ी प्रसन्नता हुई। उस रणकोविद दैत्यने उन्हें युद्ध करनेके लिये आज्ञा दे दी ॥ ४८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘दैत्योंकी मन्त्रणाका वर्णन’
नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री शनि चालीसा

उन्तीसवाँ अध्याय

यादवों और असुरोंका घोर संग्राम तथा ऊर्ध्वकेश एवं अनिरुद्धका द्वन्द्व युद्ध

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजेन्द्र ! तदनन्तर ऊर्ध्व- केश आदि चार मन्त्री कवच बाँधकर करोड़ों दैत्योंकी सेनाके साथ युद्धके लिये नगरसे बाहर निकले। नरेश्वर। वे सब के सब धनुर्धर तथा विद्याधरोंके समान शौर्यसम्पन्न थे। लोहेका कवच बाँधकर खड्ग, शूल, गदा, परिघ, मुगर, एकन्नी, दशन्नी, शतघ्नी, भुशुण्डी, भाले, भिन्दिपाल, चक्र, सायक, शक्ति आदि सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित थे। हाथी, घोड़े, रथ, नीलगाय, गाय, भैंस, मृग, ऊँट, गधे, सूअर, भेड़िये, सिंह, सियार, बड़े-बड़े गीध, शङ्ख, चील, मगर और तिमिङ्गल-इन वाहनोंपर चढ़कर वे रणकर्कश दैत्य युद्धके मैदानमें उतरे। उस समय शङ्ख और दुन्दुभियों- के नादसे, वीरोंकी सिंहगर्जनासे और शतनियों (तोपों) की आवाजसे धरती बार-बार हिलने लगी ॥ १-६ ॥

असुरोंकी ऐसी भयंकर सेना देखकर महेन्द्र, कुवेर आदि सब देवता भयभीत हो गये। जिन्होंने अनेक बार भूतलपर विजय पायी थी, वे बलवान् यादव भी दैत्योंकी सेना देखकर मन-ही-मन विषादका अनुभव करने लगे। पहले प्रद्युम्नने राजसूय यज्ञके अवसरपर चन्द्रावती नगरीमें जो यादवोंके प्रति नीति और धैर्य बढ़ानेवाली बात कही थी, वह सब प्रद्युम्नकुमारने पुनः उनके समक्ष दुहरायी ॥७-१०॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर यादवोंने तुरंत अस्त्र-शस्त्र उठा लिये। उन्होंने जीते जाने और माँगनेकी अपेक्षा मौतको श्रेष्ठ माना। फिर तो दैत्योंका यादवोंके साथ उस ‘पाञ्चजन्य’ नामक उपद्वीपमें घोर युद्ध होने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे पहले लङ्कामें निशाचरोंका वानरोंके साथ युद्ध हुआ था ॥ ११-१२॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

वहाँ युद्धमें रथियोंके साथ रथी, पैदलोंके साथ पैदल, घोड़ोंके साथ घोड़े और हाथियोंके साथ हाथी- सभी आपसमें जूझने लगे। राजन् । उस महासमरमें कितने ही मतवाले हाथियोंने अपने शुण्डदण्डसे रथोंको चकनाचूर कर दिया तथा घोड़ों और पैदल-वीरोंको मार गिराया। घोड़ों और सारथियों सहित रथोंको सूँड़में लपेटकर वे धरतीपर गिरा देते और फिर बलपूर्वक उठाकर आकाशमें फेंक देते थे। राजन् ! कितने ही क्षत-विक्षत गजराज समराङ्गणसे बाहर भाग रहे थे। उन्होंने कितनोंको अपनी सुदृढ़ सूँड़ोंसे विदीर्ण करके दो पैरोंसे मसल डाला। नृपेश्वर! वीर सवारोंसहित घोड़े वहाँ दौड़ते हुए रथोंको लाँघ जाते और उछलकर हाथियोंपर चढ़ जाते थे। वे सिंहकी भाँति युद्धमें महावत और हाथीसवारको रौंदते जाते थे। महाबली अश्व उछलते हुए हाथियोंकी सेनामें घुस जाते और उनके सवार खड्गप्रहार करके बहुत-से शत्रुओंको विदीर्ण कर डालते थे। नटोंकी भाँति कभी तो घोड़ोंकी पीठपर नहीं दिखायी देते और कभी दिखायी देते थे। कितने ही वीर खड्गोंसे घोड़ोंके दो टुकड़े कर डालते और कितने ही हाथियोंके दाँत पकड़कर उनके कुम्भस्थलोंपर चढ़ जाते थे। कितने ही घुड़सवार योद्धा भी तलवारोंको बड़े वेगसे चलाकर शत्रुसेनाको विदीर्ण करते हुए बाहर निकल जाते थे, जैसे हवा कमलोंके वनमें समाकर अनायास ही निकल जाती है॥ १३-२१ ॥

उन दोनों सेनाओंमें बाणों, गदाओं, परिधों, खड्गों, शूलों और शक्तियोंद्वारा अद्भुत तथा रोमाञ्चकारी तुमुल युद्ध होने लगा। उस युद्धके मैदानमें हाथी चिग्घाड़ते और घोड़े जोर-जोरसे हिनहिनाते थे। बहुत से पैदल वीर हाय-हाय करते और रथोंकी नेमियाँ (पहियोंके ऊपरी भाग) घरघराहट पैदा करती थीं। सेनाके पैरोंकी धूलराशिसे आकाश अन्धा-सा हो गया था। वहाँ समराङ्गणमें कोई अपना पराया नहीं सूझता था। परस्पर बाणसमूहोंकी वर्षासे कितने ही वीरोंके दो-दो टुकड़े हो गये थे। युद्धस्थलमें टेढ़े हुए रथ वृक्षोंकी भाँति गिर पड़ते थे। वीरोंके ऊपर वीर और घोड़ोंके ऊपर घोड़े गिरे थे। उस युद्धके मैदानमें शूरवीरोंके भयंकर कबन्ध उछल रहे थे। वे उस महासमरमें खड्गहस्त हो घोड़ों और वीरोंको धराशायी कर रहे थे। वहाँ शस्त्रोंके प्रहारसे घना अन्धकार छा गया था। हाथियोंके कुम्भस्थल फट जानेसे उनके भीतरी छिद्रसे गोल-गोल मोती गिर रहे थे, मानो रातमें आकाशसे तारागण बिखर रहे हों ॥ २२-२७ ॥

तदनन्तर दोनों सेनाओंमें रक्तकी नदी बह चली और वेतालगण भगवान् शिवकी माला बनानेके लिये कटे हुए मुण्डोंका संग्रह करने लगे। सिंहवाहिनी महाकाली डाकिनियोंके साथ युद्धस्थलमें आकर खप्परसे रक्तपान करती हुई दिखायी देती थीं। डाकिनियाँ भी वहाँ अपने बच्चोंको गरम-गरम रक्त पिलातीं और ‘मत रोओ, चुप रहो’ ऐसा कहती हुई उनके नेत्र पोंछती थीं। विद्याधरियाँ, गन्धर्वियाँ और अप्सराएँ आकाशमें खड़ी हो, क्षत्रियधर्ममें स्थित रहकर वीरगतिको पानेवाले देवरूपधारी शूरवीरोंका वरण करती थीं; उनमें परस्पर पतिके लिये झगड़ा हो जाता था। वे आकाशमें विह्वलचित्त होकर एक- दूसरीसे कहतों- ‘यह वीर तो मेरे ही योग्य है, तुम्हारे योग्य नहीं’ ॥ २८-३२॥

राजन् ! कितने ही धर्मपरायण शूरवीर युद्धभूमिसे विचलित नहीं हुए और वीरगतिको प्राप्त हो सूर्यमण्डलका भेदन करके विष्णुधाममें चले गये। नरेश्वर! कितने ही वीर उस महायुद्धको देखकर रणभूमिसे भागते हुए मारे गये। वे यमलोकके तप्त- बालुकावाले मार्गसे नरकमें गये। इस प्रकार समस्त यदुकुलशिरोमणि वीरोंने महान् दैत्यवीरोंका संहार कर डाला। इसी तरह उस महायुद्धमें दानवोंने भी नाना प्रकारके शस्त्रोंद्वारा यादव सैनिकोंको भी कालके गालमें भेज दिया ॥ ३३-३५ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

राजन् ! करोड़ोंकी संख्यामें युद्धके लिये आये हुए समस्त दैत्य उस समराङ्गणमें मृत्युके ग्रास बन गये तथा सहस्त्रों यादव भी रणभूमिमें मारे गये। जब वहाँ बाण- वर्षासे अन्धकार छा गया, तब धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्ध ऊर्ध्वकेशके साथ उसी प्रकार युद्ध करने लगे, जैसे वृत्रासुरके साथ इन्द्रने किया था। नृपेश्वर! नदके साथ गद, सिंहके साथ वृक और कुशाम्बके साथ साम्ब उस समराङ्गणमें लोहा लेने लगे। इस प्रकार उनमें परस्पर बड़ा भारी तुमुल युद्ध छिड़ गया ॥ ३६-३८॥

महाराज ! उस समय बारंबार धनुष टंकारते हुए ऊर्ध्वकेशने युद्धस्थलमें प्रद्युम्नकुमारको दस नाराच मारे। परंतु श्रेष्ठ धनुर्धर रुक्मवतीनन्दन भगवान् अनिरुद्धने उन सबको काट गिराया। तब ऊर्ध्वकेशने पुनः उनके कवचपर दस बाण मारे। वे सभी सोनेके पंखोंसे विभूषित थे और अनिरुद्धका कवच काटकर उनके शरीरमें घुस गये थे। फिर उसने चार बाणोंसे उनके चार घोड़ोंको मार गिराया। बीस बाणोंद्वारा प्रत्यञ्चासहित उनके धनुषको खण्डित कर दिया। राजेन्द्र ! बल्वलके उस बलवान् सेवकने जब अनिरुद्धके रथको बेकार कर दिया, तब वे उस रथको छोड़कर दूसरे रथपर आरूढ़ हो गये। नृपश्रेष्ठ! वह रथ इन्द्रका दिया हुआ था। उसपर चढ़कर महान् वीर अनिरुद्धने ‘प्रतिशार्ङ्ग’ नामक धनुष हाथमें लिया। श्रीकृष्णके दिये हुए उस कोदण्डपर एक बाण रखकर रोषसे भरे हुए प्रद्युम्रकुमारने हाथकी फुर्ती दिखाकर ऊर्ध्वकेशके रथपर चलाया। उस सायकने ऊर्ध्वकेश- के रथको ऊपर ले जाकर दो घड़ीतक घुमाया। फिर जैसे कोई बालक शीशेका बर्तन पटक देता है, उसी प्रकार उसे आकाशसे पृथ्वीपर गिरा दिया। ऊर्ध्वकेश- का रथ अङ्गारकी तरह बिखर गया। नृपश्रेष्ठ! सारथिसहित उसके घोड़े भी उसके सामने ही पञ्चत्वको प्राप्त हो गये। ऊर्ध्वकेश आकाशसे गिरनेके कारण समराङ्गणमें मूच्छित हो गया ॥ ३९-४७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यादवों तथा असुरोंके संग्रामका वर्णन’
नामक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९ ॥

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तीसवाँ अध्याय

ऊर्ध्वकेश और अनिरुद्धका तथा नद और गदका घोर युद्ध;
ऊर्ध्वकेश और नदका वध

श्रीगर्गजी कहते हैं- महाराज! तब ऊर्ध्वकेश मूर्च्छासे उठकर, दूसरे रथपर आरूढ़ हो ज्यों-ही अनिरुद्धके सामने संग्रामके लिये आया, त्यों-ही उन्होंने अपने तीखे नाराचोंसे उसके रथके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। नरेश्वर! रथको टूटा देख उसने पुनः दूसरे रथका आश्रय लिया। परंतु प्रद्युम्नकुमारने रणभूमिमें तत्काल ही बाण मारकर उसके उस रथको भी खण्डित कर दिया। इस प्रकार समराङ्गणमें ऊर्ध्वकेशके नौ रथ अनिरुद्धके द्वारा तोड़े गये ॥१-३॥

तब उस दैत्यने कुपित होकर रणक्षेत्रमें अनिरुद्धपर तीव्रगतिसे शक्तिका प्रहार किया। उस शक्तिको अपने ऊपर आती देख वीर अनिरुद्धने अनेक नाराचोंसे उसके दस टुकड़े कर डाले। तब युद्धस्थलमें सुवर्ण- मय रथपर आरूढ़ हो ऊर्ध्वकेश अनिरुद्धका सामना करनेके लिये बड़े वेगसे आया। आते ही हर्षोत्साहसे भरकर उसने अनिरुद्धको पाँच बाणोंसे घायल कर दिया। उन बाणोंके आघातसे अनिरुद्धको बड़ी वेदना हुई। तब कुपित हुए अनिरुद्धने धनुष उठाकर सहसा हाथकी फुर्ती दिखाते हुए ऊर्ध्वकेशकी छातीमें विचित्र पौखवाले दस बाण मारे। उन अत्यन्त दारुण बाणोंने उसका रक्त पी लिया और पीकर उसी प्रकार पृथ्वीपर गिर पड़े, जैसे झूठी गवाही देनेवालोंके पूर्वज नरकमें गिरते हैं॥४-८ ॥

तदनन्तर पुनः कुपित हुए ऊर्ध्वकेशने ‘खड़ा रह, खड़ा रह’- ऐसा कहते हुए दस बाणोंद्वारा अनिरुद्धके मस्तकपर प्रहार किया। राजेन्द्र ! वे दसों बाण अनिरुद्धकी पगड़ीमें गड़ गये और वृक्षकी दस शाखाओंके समान शोभा पाने लगे। नृपश्रेष्ठ ! जैसे फूलोंद्वारा प्रहार करनेपर हाथीको कोई पीड़ा नहीं होती, उसी प्रकार युद्धस्थलमें उन बाणोंके आघातसे रुक्मवतीकुमार अनिरुद्धको व्यथा नहीं हुई। माधव अनिरुद्धने अत्यन्त रोषसे भरकर विचित्र पाँखवाले तथा सुवर्णमय पंखवाले सौ बाण अपने धनुषपर रखकर प्रत्यञ्डा खींचकर छोड़े। राजन् ! वे बाण ऊर्ध्वकेशके सारे अङ्गका भेदन करके रक्तरञ्जित हो शीघ्र ही नीचे गिर गये; ठीक उसी तरह, जैसे श्रीकृष्ण भक्तिसे विमुख मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होते हैं। उन बाणसमूहोंसे आहत होनेपर युद्धस्थलमें ऊर्ध्वकेशके प्राणपखेरू उड़ गये। नृपश्रेष्ठ। उस समय दैत्यसेनामें हाहाकार मच गया। यादवोंकी सेनामें ‘जय हो, जय हो’ की ध्वनि गूंज उठी और देवतालोग अनिरुद्धके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। यादवराज! ऊर्ध्वकेश उस युद्धस्थलसे दिव्य देह धारण करके विमानपर आरूढ़ हो पुण्यात्माओंके निवासस्थान स्वर्गलोकमें चला गया ॥ ९-१६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

भाईको मारा गया देख नद शोकसे भर गया। हाथीपर बैठे हुए उस दैत्यने गजराजपर विराजमान गदको लक्ष्य करके अनेक बाण छोड़े। उन बाणोंको अपने ऊपर आया देख महान् धनुर्धर गदने अनिरुद्धके देखते-देखते एक ही बाणसे उन सबको काट दिया। भाईके शोकमें डूबे हुए नदने अत्यन्त कुपित होकर संग्राममें अपने बाणोंके प्रहारसे रोहिणीनन्दन गदको गजहीन कर दिया उनके हाथीको मार गिराया। सैकड़ों बाणोंके आघातसे उस हाथीके अङ्ग अङ्ग विदीर्ण हो गये थे, इसलिये वह पञ्चत्वको प्राप्त हो गया और गद उसके साथ ही भूमिपर गिर पड़े। वह अद्भुत-सी घटना घटित हुई। तब गद क्रोधसे जल उठे और रणभूमिमें गदा लेकर शत्रुको मारनेके लिये उसी तरह आगे बढ़े, जैसे वनमें एक सिंह दूसरे सिंहपर आक्रमण करता है॥ १७-२१ ॥

राजन् । आते ही नदके हाथीने गदको अपनी सूँड़में लपेटकर आकाशमें सौ योजन ऊपर फेंक दिया। आकाशसे गिरनेपर गदने उठकर हाथीके शुण्डदण्डको पकड़ लिया और उसे घुमाकर पृथ्वीपर दे मारा। उस हाथीकी युद्धस्थलमें तत्काल मृत्यु हो गयी। यह देखकर महान् असुर नदको आश्चर्य हुआ। उसने गदकी प्रशंसा करके एक भारी गदा हाथमें ली और शीघ्र ही गदाधारी वीर गदको युद्धके लिये ललकारा। प्रजानाथ! इसी प्रकार गदने भी दैत्य नदका अपने साथ संग्रामके लिये आह्वान किया। नदने गदको उत्तर दिया- ‘यादव ! तू मनुष्य है। अतः तेरे साथ युद्ध करनेमें मुझे लज्जाका अनुभव हो रहा है। भला तू कैसे मेरे साथ युद्ध करेगा? पहले तू मुझपर प्रहार कर। पीछे मेरे प्रहारसे तू जीवित नहीं रह सकेगा’ ॥ २२-२६ ॥

यह सुनकर गदने उससे उसी प्रकार बात की, जैसे देवराज इन्द्रने वृत्रासुरसे वार्तालाप किया था ॥ २७ ॥

गद बोले- दैत्य ! जो मुँहसे बड़ी-बड़ी बातें बनाते हैं, वे कुछ कर नहीं पाते। जो शूरवीर हैं, वे रणभूमिमें डींग नहीं हाँकते हैं; अपना पराक्रम दिखाते हैं॥ २८ ॥

राजेन्द्र ! यह सुनकर नद कुपित हो उठा। उसने गर्जना करते हुए अपनी भारी और विशाल गदा गदकी छातीपर दे मारी। गदाकी चोट खाकर भी वीरवर गद युद्धभूमिमें उसी प्रकार विचलित नहीं हुए, जैसे मदोन्मत्त हाथी किसी बालकद्वारा फूलसे मारे जानेपर उसकी कोई परवाह नहीं करता। दानव लज्जित हो गया था। उसकी ओर देखकर वीरशिरोमणि गदने कहा- ‘परंतप । यदि तुम वीर हो तो मेरा भी एक प्रहार सहन कर लो’ ॥ २९-३१ ॥

– ऐसा कहकर गदने गदासे उसके ललाटपर भारी चोट पहुंचायी। धर्मज्ञ नदने भी कुपित होकर गदके कंधेपर गदा मारी। वे दोनों वीर गदायुद्धमें कुशल थे और इस प्रकार भारी आघात करते हुए एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छासे गदायुद्धमें लगे रहे। दोनों परस्परके आघातसे खिन्न हो क्रोधसे भरकर विजयके प्रयत्नमें तत्पर रहे। परंतु वहाँ उनमेंसे कोई भी न तो हारता था और न उत्साहहीन ही होता था। भालपर, कंधेपर, मस्तकपर, वक्षःस्थलमें तथा सम्पूर्ण अङ्गोंमें आघात लगनेसे वे लहूलुहान हो रक्तसे भीग गये थे और दो खिले हुए पलाश वृक्षोंके समान दिखायी पड़ते थे। समराङ्गणमें गदाओंद्वारा उन दोनोंका महान् युद्ध चल रहा था। उनकी दोनों गदाएँ आगकी चिनगारियाँ छोड़ती हुई परस्पर चूर-चूर हो गयीं। तब उन दोनों-गद यादव और नद दैत्यमें घोर बाहुयुद्ध होने लगा। उस समय रोषसे भरे हुए बलराम- के छोटे भाई गदने नदको अपनी बाँहोंसे पकड़कर उसी तरह पृथ्वीपर दे मारा, जैसे सिंहराज किसी भैंसे- को पटक देता है। तब दैत्यने गदकी छातीमें मुक्केसे प्रहार किया। लगे हाथ गदने भी उसके मस्तकपर एक बँधा हुआ मुक्का जड़ दिया। मुक्कों, घुटनों, पैरों, तमाचों और भुजाओंसे वे दोनों एक-दूसरेपर प्रहार कर रहे थे और दोनों ही रोषसे अपने अधरपल्लव दबाये हुए थे। तब समरभूमिमें दैत्यने कुपित हो बलपूर्वक गदका एक पैर पकड़ लिया और घुमाकर उन्हें धरतीपर दे मारा। उसी समय रोषसे जलते हुए गदने भी उठकर शत्रुका एक पैर पकड़कर उसे घुमाते हुए हाथीके पृष्ठभागपर पटक दिया ॥ ३२-४१ ॥

राजन् । दैत्यने फिर उठकर रोहिणीकुमारको जा पकड़ा और बलपूर्वक आकाशमें उन्हें सौ योजन ऊपर फेंक दिया। वहाँसे गिरनेपर भी वज्रके समान अङ्गवाले गदको कोई चोट नहीं पहुँचीः किंचिन्मात्र मनमें व्याकुलता हुई। फिर उन्होंने उस दैत्यको भी एक सहस्र योजन ऊपर उछाल दिया। उतनी ऊँचाईसे गिरनेपर भी वह दैत्य फिर उठकर युद्ध करने लगा। गद नदको और नद गदको पारस्परिक आघातोंद्वारा चोट पहुँचाते रहे। नृपेश्वर। भयंकर घूँसोंकी मारसे उन दोनोंमें महान् युद्ध छिड़ा हुआ था। दोनोंमें लाठा-लाठी, मुक्का-मुक्की, केशा-केशि (झॉटा-झोंटी) नखा-नखि (बकोटा-बकोटी) और दाँता-दाँती होने लगी। इस प्रकार घोर युद्ध छिड़ा हुआ था। इस तरह जूझते हुए वे दोनों योद्धा बारंबार मारा-मारी कर रहे थे। एक-दूसरेके वधकी इच्छासे दोनों आपसमें इस प्रकार गुँध गये कि पैरपर पैर, छातीपर छाती, हाथ पर हाथ और मुँहपर मुँह सट गया था। बलपूर्वक आक्रमणके शिकार होकर वे दोनों गिरे और मूच्छित हो गये। नरेश्वर! उन दोनोंका ऐसा युद्ध देखकर दानव और यादव बोलने लगे- ‘गद धन्य है, नद धन्य है॥ ४२-४९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 26 to 30)

गदको गिरा देख अनिरुद्ध शोकमें डूब गये। उन्होंने जल छिड़कर और व्यजन डुलाकर गदको होशमें लानेकी चेष्टा की। राजेन्द्र वे तत्काल क्षणभरमें उठकर खड़े हो गये और बोल उठे- ‘कहाँ नद है, कहाँ नद है। वह मेरे भयसे युद्ध छोड़कर भाग तो नहीं गया?’ लोगोंने देखा वह दानव वहाँ मूच्छित होकर प्राणशून्य हो गया था। फिर तो यादव और देवतालोग जय-जयकार करने लगे ॥ ५०-५२॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘ऊर्ध्व-केश और नदका वध’
नामक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३० ॥

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