Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25
श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 21 से 25 तक
श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25) के इक्कीसवाँ अध्याय में भद्रावतीपुरी तथा राजा यौवनाश्वपर अनिरुद्ध की विजय का वर्णन कहा गया है। बाईसवाँ अध्याय में यज्ञ के घोड़े का अवन्तीपुरी में जाना और वहाँ अवन्तीनरेश की ओर से सेना सहित यादवों का पूर्ण सत्कार होना कहा गया है। तेईसवाँ अध्याय अनिरुद्धके पूछनेपर सान्दीपनिद्वारा श्रीकृष्ण तत्त्वका निरूपण; श्रीकृष्णकी परब्रह्मता एवं भजनीयताका प्रतिपादन करके जगत्से वैराग्य और भगवान के भजनका उपदेश दिया गया है। चौबीसवाँ अध्याय अनुशाल्व और यादव-वीरों में घोर युद्ध और पचीसवाँ अध्याय अनुशाल्व द्वारा प्रद्युम्न को उपहार सहित अश्व का अर्पण तथा बल्वल दैत्य के द्वारा उस अश्व का अपहरण वर्णन कहा गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
इक्कीसवाँ अध्याय
भद्रावतीपुरी तथा राजा यौवनाश्वपर अनिरुद्ध की विजय
श्रीगर्गजी कहते हैं- तदनन्तर विमानपर बैठे हुए ऊषावल्लभ अनिरुद्ध अपनी विजय-दुन्दुभि बजवाते हुए आकाशमार्गसे शीघ्र ही अपनी सेनाके पास आ गये। उन सबको आया देख अक्रूर आदि यादवोंने मिलकर सारा कुशलसमाचार पूछा और उन लोगोंने सब कुछ बता दिया ॥ १-२ ॥
तत्पश्चात् मूर्च्छा त्यागकर बक सहसा उठ खड़ा हुआ। वहाँ यादवोंको न देखकर उसने पुत्रसे रोषपूर्वक उनके चले जानेका कारण पूछा। तब भीषणने पितासे समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। उसकी बात सुनकर रोषसे बकके ओठ फड़कने लगे और वह कुपित होकर बोला- ‘मैं जानता हूँ, जैसे सिंहके डरसे हरिण भागते हैं, उसी प्रकार यादव मेरे भयसे विमानद्वारा भागकर कुशस्थलीको चले गये हैं। इसलिये मैं पृथ्वीको यादवोंसे सूनी कर दूँगा, इसमें संशय नहीं है। अब मैं कृष्णकी द्वारकामें जाकर समस्त यादवोंका संहार करूँगा’ ॥३-६ ॥
भीषणने कहा- महाराज! क्रोधको रोकिये, यह समय हमारे अनुकूल नहीं है। जब दैव प्रसन्न होगा, तब हम यादवोंको जीतेंगे ॥ ७ ॥
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! पुत्रके इस प्रकार समझानेपर बकासुर चुप हो गया और वन-जन्तुओंको खाता हुआ वनमें विचरने लगा ॥ ८॥
नृपेन्द्र ! तदनन्तर अश्वका विधिपूर्वक अभिषेक करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान दे, विजयी प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धने पुनः विजययात्राके लिये उसको छोड़ा। प्रद्युम्नकुमारके छोड़नेपर वह अश्व धैवत स्वरसे हिनहिनाता और बहुतसे वीरयुक्त देशोंका दर्शन करता हुआ भद्रावतीपुरीमें जा पहुँचा ॥ ९-१० ॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
राजेन्द्र ! भद्रावतीपुरी अनेक उपवनोंसे सुशोभित थी। पर्वत, दुर्गसे घिरी हुई थी तथा रजतमय मन्दिर उसकी शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े वीर पुरुष उसमें निवास करते थे। राजा यौवनाश्व उस पुरीके रक्षक थे। लोहेके बने हुए कपाटोंसे वह पुरी अत्यन्त दृढ़ थी। उसमें जाकर वह अश्व राजाके सम्मुख खड़ा हो गया। राजाने उसे पकड़ा और सब बात जानकर वे क्रोधपूर्वक युद्ध करनेके लिये सेनासहित पुरीसे बाहर निकले। महाबली यौवनाश्वको सेनासहित सामने आया देख प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धने श्रीकृष्णभक्त मन्त्री उद्धवको बुलाकर पूछा ॥ ११-१४॥
अनिरुद्धने कहा- मन्त्रीजी! यह सेनाके साथ कौन हमारे सम्मुख आया है? इसने अश्वका अपहरण किया है और यह हमारे शत्रुओंमें मुख्य है; अतः इसके विषयमें आप सारी बातें बताइये ॥ १५ ॥
उद्धव बोले- सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्ध ! इस राजाका नाम ‘यौवनाश्व’ है। यह मरुधन्व देशके स्वामीका पुत्र है और अपने पिताके दिवंगत होनेपर यहाँ राज्य करता है। महाराज! अभी यह सोलह वर्षकी अवस्थाका है। अपने दुष्ट मन्त्रीके कहनेसे यह युद्ध अवश्य करेगा; परंतु आप इसका वध कदापि न करें ॥ १६-१७ ॥
यह सुनकर ‘बहुत अच्छा’ कहकर अनिरुद्ध युद्ध- स्थलमें यौवनाश्वके साथ उसी प्रकार युद्ध करने लगे, जैसे सिंह हाथीसे लड़ रहा हो। ऊषापति अनिरुद्धने यौवनाश्वकी तीन अक्षौहिणी सेनाका संहार करके उसे रथहीन कर दिया और राजकुमारसे यह उत्तम बात कही ॥ १८-१९ ॥
अनिरुद्ध बोले- राजन् ! मुझे घोड़ा लौटा दो, अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो ॥ १९॥
उनकी यह बात सुनकर और उन्हें श्रीकृष्णका पौत्र जान राजाको बड़ा भय हुआ। उसने अनिरुद्धको विधिपूर्वक यज्ञका घोड़ा समर्पित कर दिया और उनसे निमन्त्रित हो उस राजाने हाथ जोड़कर कहा ॥ २०-२१ ॥
यौवनाश्व बोला- नृपेश्वर! जब द्वारकामें यज्ञ होगा, उस समय मैं भगवान् श्रीकृष्ण- चन्द्रके चरणारविन्दोंका दर्शन करनेके लिये आऊँगा ॥ २२ ॥
तदनन्तर अनिरुद्धने उसे उसके राज्यपर प्रतिष्ठित कर दिया। यौवनाश्वने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और विजयी अनिरुद्धने उस श्रेष्ठ घोड़ेको पुनः विजयके लिये छोड़ा ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘भद्रावतीपर विजय’
नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१॥
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बाईसवाँ अध्याय
यज्ञके घोड़ेका अवन्तीपुरीमें जाना और वहाँ अवन्तीनरेशकी ओरसे
सेनासहित यादवोंका पूर्ण सत्कार होना
श्रीगर्गजी कहते हैं- महाराज ! यदुकुलतिलक वीरवर अनिरुद्धका वह घोड़ा अनेक जनपदोंका अवलोकन करता हुआ ‘राजपुर’ जनपदमें जा पहुँचा। मार्गमें सफरा (शिप्रा) नदीका दर्शन करके वह अवन्तिका (उज्जयिनी) के उपवनमें जा खड़ा हुआ। उसी समय श्रीकृष्णके गुरु महात्मा विप्रवर सान्दीपनि स्नान करनेके लिये घरसे चलकर वहाँ आये। उन्होंने तुलसीकी माला पहन रखी थी। कंधेपर धौत वस्त्र रख छोड़ा था और मुखसे वे श्रीकृष्ण नामका जप कर रहे थे। उन्होंने वहाँ पानी पीते हुए श्वेत एवं श्यामकर्ण
घोड़ेको, जिसके भालदेशमें पत्र बँधा हुआ था, देखा। देखकर पूछा- ‘किस नृपेश्वरने इस यज्ञके घोड़ेको छोड़ा है?’ ॥ १-३॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
नरेश्वर! वहाँ राजकुमार बिन्दुको स्नान करते देख उन्हें घोड़ेके विषयमें जानकारी प्राप्त करनेके लिये जाकर प्रेरित किया। महाराज! तब राजाधिदेवीके वीरपुत्र बिन्दुने अन्य बहुत-से वीरोंके साथ जाकर सहसा उस घोड़ेको पकड़ा और उसका भलीभाँति निरीक्षण करके लौटकर गुरु सान्दीपनिको प्रणाम कर उसके विषयमें बताया। तत्पश्चात् गुरुके आदेशसे प्रसन्न हो राजकुमार घोड़ा लेकर आये और हर्षपूर्वक गुरुजीको दिखलाने लगे। सान्दीपनिने भालपत्र पढ़कर प्रसन्नतापूर्वक राजाको बताया ॥४-६॥
सान्दीपनि बोले- राजन् ! इसे राजा उग्रसेनका घोड़ा समझो। प्रद्युम्रकुमार अनिरुद्ध इसकी रक्षामें आये हैं। यह अश्व अपने इच्छानुसार घूमता हुआ यहाँ- तक आ गया है। अब अनिरुद्ध भी यहाँ आयेंगे। उनके साथ और भी बहुत-से युद्धशाली यादव-वीर पधारेंगे। घोड़ेका निरीक्षण करते हुए तुम्हारी बहिन मित्रबिन्दाके पुत्र भी आयेंगे। तुम्हें यहाँ श्रीकृष्ण- चन्द्रके सभी पुत्रोंका आदर-सत्कार करना चाहिये। मेरे कहनेसे तुम युद्धका विचार छोड़कर घोड़ा उन्हें लौटा देना ॥७-९ ॥
गुरुका यह कथन सुनकर धनुर्धर शूरवीर राजकुमार वहाँ चुप रह गया। उसका मन घोड़ेको पकड़ ले जानेका था। उसी समय यादव-सेनाका कोलाहल सुनायी पड़ा, जो समस्त लोकोंके मानका मर्दन करनेवाला था। दुन्दुभियोंका महानाद, धनुषोंकी टंकार, हाथियोंका चीत्कार, घोड़ोंकी हिनहिनाहट, रथोंका झणत्कार, वीरोंकी गर्जना तथा शतनियोंका महानाद-इन सबका तुमुल शब्द समस्त लोकोंके लिये भयदायक था। उसे सुनकर राजकुमार बिन्दुको बड़ा विस्मय हुआ। इतनेमें ही रथियों, हाथियों और घोड़ोंके साथ भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन तथा दशार्हवंशके समस्त यादव वहाँ आ पहुँचे। वे सेनाकी धूलिसे आकाशको व्याप्त तथा पैरोंकी धमकसे पृथ्वीको कम्पित करते हुए आये और सब के सब पूछने लगे ‘यज्ञका घोड़ा कौन ले गया, कहाँ गया ?’ ॥ १०-१५ ॥
उस समय समस्त अन्वेषकोंने पुष्पवाले वृक्षोंसे व्याप्त अत्यन्त अद्भुत उपवनमें चामर बँधे हुए घोड़ेको देखा, जिसे राजकुमार बिन्दुने अनायास ही पकड़ लिया था। देखकर सबने अनिरुद्धके निकट जाकर इसकी सूचना दी। सूचना पाकर धर्मज्ञ अनिरुद्ध विस्मित हुए। उन्होंने हँसते हुए बिन्दुके पास उद्धवजीको भेजा। महाराज ! उस समय अवन्तीपुरीमें महान् कोलाहल छा गया। वहाँ एकत्र हुई भयंकर सेनाको देखकर सब लोग भयभीत हो उठे थे। इसी समय अपने भाईकी खोज खबर लेनेके लिये भयभीत अनुबिन्दु एक करोड़ वीरोंके साथ अपनी पुरीसे बाहर निकला। वह दुग्धराशिके समान धवल एवं भालपत्रसे युक्त यज्ञ-सम्बन्धी अश्वको वहाँ अपने भाईके द्वारा पकड़ा गया देख उसे मना करता हुआ बोला ॥ १६-२१ ॥
अनुबिन्दुने कहा- भैया ! भगवान् श्रीकृष्ण जिनके देवता हैं, उन यादवोंका यह घोड़ा है। आप उनके साथ जो हमारा सम्बन्ध है, उसके बहाने या अपने कुलकी कुशलताके लिये इस घोड़ेको छोड़ दीजिये। यादवोंकी यह सेना तो देखिये। भैया ! पहले जो राजसूय यज्ञ हुआ था, उसमें इन यादवोंने देवता, दैत्य, मनुष्य और असुर-सबपर विजय पायी थी ॥ २२-२३ ॥
अनुबिन्दुकी यह बात सुनकर बड़ा भाई बिन्दु हार मान गया। उसने घोड़ेपर चढ़कर आये हुए उद्धवजीसे कहा ॥ २४ ॥
बिन्दु बोला- मन्त्रिवर! मैंने मित्रोंके साथ मिलनके लिये घोड़ेको पकड़ रखा है। अतः आप सब लोगोंको निमन्त्रित किया जाता है। आज आपलोग यहीं ठहरें ॥ २५ ॥
राजन् ! यह सुनकर उद्धव बिन्दुकी सराहना करके बड़े प्रसन्न हुए और अनिरुद्धके निकट जाकर उन्होंने सब समाचार बताया। नरेश्वर! उद्धवजीका कथन सुनकर अनिरुद्धका मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने सेनासहित अवन्तीपुरीमें शिप्रा नदीके तटपर पड़ाव डाल दिया। महाराज! वहाँ दस योजन दूरतकके भूभागमें रंग-बिरंगे अनेक शिविर पड़ गये। सभी सुवर्णकलशोंसे युक्त थे। वे सुन्दर शिविर वहाँ अद्भुत शोभा पा रहे थे। राजकुमार बिन्दुने वहाँ आये हुए सब लोगोंका भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य-इन चारों प्रकारके भोजनोंद्वारा आतिथ्य सत्कार किया। इसी तरह अवन्ती नरेशने सेनावर्ती पशुओंको भी घास- पात और अन्न आदि प्रदान किये। उन्होंने वृष्णिवंशी वीरोंका इस प्रकार स्वागत सत्कार किया। राजाधि- देवी, उनके पति तथा दोनों राजकुमार सब-के-सब श्रीहरिके समस्त पुत्रोंको देखकर बड़े प्रसन्न हुए ॥ २६-३१ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
तदनन्तर रातमें प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धने अपने बाबाके गुरु सान्दीपनि मुनिको बुलाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उन्हें आसन देकर बैठाया और उत्तम रीतिसे उनका पूजन करके कहा- ‘भगवन् ! द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे चक्रवर्ती यदुकुलतिलक महाराज उग्रसेन अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं। ब्रह्मन् मुनिश्रेष्ठ ! आप मुझपर कृपा करके उस श्रेष्ठ यज्ञमें अपने पुत्रसहित अवश्य पधारें।’ अनिरुद्धका यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण-दर्शनके अभिलाषी सान्दीपनि मुनिने वहाँ चलनेका निश्चय किया ॥ ३२-३५॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अवन्तिकागमन’
नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२॥
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तेईसवाँ अध्याय
अनिरुद्धके पूछनेपर सान्दीपनिद्वारा श्रीकृष्ण तत्त्वका निरूपण; श्रीकृष्णकी
परब्रह्मता एवं भजनीयताका प्रतिपादन करके जगत्से वैराग्य
और भगवान के भजनका उपदेश
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तत्पश्चात् वहाँ श्रीकृष्णपौत्र अनिरुद्धने मनमें कुछ संदेह लेकर सान्दीपनि मुनिसे उसी प्रकार प्रश्न किया, जैसे देवराज इन्द्र देवगुरु बृहस्पतिसे अपने मनका संदेह पूछा करते हैं॥ १॥
अनिरुद्ध बोले- भगवन्! मुने ! मुझे उस सारतत्त्वका उपदेश दीजिये, जिससे मैं जगत के स्वप्न तुल्य सुखोंको त्यागकर नित्यानन्द-स्वरूपमें रमण करूँ।’ राजन् । अनिरुद्धके इस प्रकार पूछनेपर सान्दीपनि मुनि हँसते हुए उसी प्रकार उन्हें उपदेश देने लगे, जैसे पूर्वकालमें राजा पृथुके पूछनेपर सनत्कुमार ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक उपदेश दिया था ॥ २-३॥
सान्दीपनि बोले- लोकेश ! तुम्हीं श्रीहरिके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए आदिदेव हो; अतः तुम्हारे सामने मैं सारतत्त्वकी बात क्या कह सकूँगा। राजन् ! तथापि तुम्हारे वचनका गौरव मानकर समस्त दीनचेता मनुष्योंके कल्याणके लिये कुछ कहूँगा। नरेश्वर! तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब मेरे मुखसे सुनो। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंका सेवन ही सारतत्त्व है, जिन चरणोंके पूजनमात्रसे ध्रुवजीने ध्रुवपद प्राप्त कर लिया। प्रह्लाद, अम्बरीष, गय और यदुने भी अक्षयपद प्राप्त किया। राजेन्द्र । इसलिये तुम भी मनसे यत्नपूर्वक श्रीकृष्णकी सेवा करो; क्योंकि यही सब साधनोंका सारभूत है। तुम सब लोग इस जगत्में बड़े सौभाग्यशाली हो; क्योंकि श्रीकृष्णके वंशमें उत्पन्न हुए हो, उनके कुटुम्बी और सम्बन्धी हो। श्रीहरिके प्रिय होनेके कारण तुम सब के सब जीवन्मुक्त हो। तुम यादवोंमेंसे कोई तो श्रीकृष्णको अपना बेटा समझते हैं, कोई भाई मानते हैं और कोई उन्हें पिता एवं मित्रके रूपमें जानते हैं। यदि उनका यह भाव सुदृढ़ रहा तो उनके लिये इससे बढ़कर उत्तम कर्तव्य और क्या होगा ॥ ४-१०॥
अनिरुद्धने पूछा- मुने ! इस जगत का आदि भूत सनातन कर्ता कौन है, जिससे पूर्वकालमें इसका प्राकट्य हुआ था, इस बातका मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। महर्षे! भगवान् जगदीश्वर प्रत्येक युगमें किस-किस रूपसे धर्मका अनुष्ठान करते हैं, यह हम सब लोगोंको बताइये ॥ ११-१२ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
सान्दीपनि बोले- यदुकुलतिलक अनिरुद्ध ! जिनसे जगत की उत्पत्ति और संहार होते रहते हैं, वह ईश्वर, परब्रह्म एवं भगवान् एक ही है। नृपश्रेष्ठ! युग-युगमें (प्रत्येक कल्पमें) ये दक्ष आदि प्रजापति उन्हींसे प्रकट होते हैं और फिर उन्हींमें लीन हो जाते हैं। विद्वान् पुरुष इस विषयमें कभी मोहित नहीं होता। राजन् ! श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म हैं। जिनसे यह सारा जगत् प्रकट हुआ है, जो स्वयं ही जगत्स्वरूप हैं तथा जिनमें ही इस जगत का लय होगा। वह ब्रह्म परमधाम है। वही सत्-असत्से परे परमपद है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उससे भिन्न नहीं है। वही मूल प्रकृति है और वही व्यक्तरूपवाला संसार है। उसीमें सबका लय होता है और उसीमें सबकी स्थिति है। जिनसे प्रकृति और पुरुष प्रकट होते हैं, जिनसे चराचर जगत्का प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो इस सकल दृश्य-प्रपञ्चके कारण हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों। राजेन्द्र ! चारों युगोंमें वे ही श्रीविष्णुरूपसे पालनरूप व्यापारका संचालन करते हैं। वे जिस प्रकार युगव्यवस्था करते हैं, वह सुनो। सत्ययुगमें समस्त भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले वे सर्वभूतात्मा श्रीहरि कपिल आदिका स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदान करते हैं। त्रेतामें चक्रवर्ती सम्राट्के रूपमें प्रकट हो वे ही प्रभु दुष्टोंका निग्रह करते हुए तीनों लोकोंका परिपालन करते हैं। द्वापरमें वेदव्यासका स्वरूप धारण करके वे विभु एक वेदके चार वेद करके फिर शाखा प्रशाखारूपसे उसके सैकड़ों भेद करते हैं। फिर उसका बहुत विस्तार कर देते हैं। इस प्रकार वेदोंका व्यास (विस्तार) करके कलियुगके अन्तमें वे श्रीहरि पुनः कल्किरूपसे प्रकट होते हैं और वे प्रभु दुष्टोंको सन्मार्गमें स्थापित करते हैं। इस प्रकार अनन्तात्मा श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि, पालन और अन्तमें संहार करते हैं। उनसे भिन्न दूसरे किसीसे ये सृष्टि आदि कार्य नहीं सम्पादित होते हैं। उन सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीहरिको नमस्कार है, जिनसे यह प्राकृत या जड जगत् भिन्न है। समस्त लोकोंके आदिकारण वे श्रीकृष्ण ही सबके ध्येय हैं। वे अविनाशी परमात्मा मुझपर प्रसन्न हों।
तस्मान्नुपेन्द्र हरिपौत्र मनोमयं च सर्व विहाय जगतश्च सुखं च दुःखम् ।
मोक्षप्रदं सुरवरं किल सर्वदं त्वं द्वारावतीनरपतिं भज कृष्णचन्द्रम् ॥ २६ ॥
इसलिये नृपेन्द्र ! हरिपौत्र ! जगत के सम्पूर्ण मनोमय सुख-दुःखको छोड़कर तुम मोक्षदाता देवेश्वर एवं सब कुछ देनेवाले द्वारावतीनरेश भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रका भजन करो। इस प्रकार जो भक्तियुक्त पुरुष भगवान् श्रीकृष्णके इस वृत्तसारका वर्णन करता और सुनता है, उसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है। उसे कभी आत्माके विषयमें मोह नहीं होता। वह भगवत्स्मरणमें संलग्न रहकर अविचल भक्तिकी योग्यता प्राप्त कर लेता है॥ १३-२७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘वैराग्य कथन’
नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३॥
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चौबीसवाँ अध्याय
अनुशाल्व और यादव-वीरों में घोर युद्ध
श्रीगगंजी कहते हैं- राजन् ! सान्दीपनि मुनिका यह वचन सुनकर अनिरुद्धको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणोंमें अपना मन लगाकर उन मुनीश्वरसे कहा- ‘प्रभो! आपके उपदेशरूपी खड्गसे मेरा मोहरूपी शत्रु नष्ट हो गया। अब आप आज ही अपने पुत्रके साथ श्रीकृष्णपुरी द्वारकाको पधारिये ‘ ॥ १-२ ॥
उनकी यह बात सुनकर सान्दीपनि मुनि प्रसन्नता- पूर्वक श्रीकृष्णके दिये हुए पुत्रके साथ रथपर बैठकर द्वारकापुरीको गये। द्वारकापुरीमें बलराम और श्रीकृष्णने बड़े आदरके साथ उन्हें ठहराया। समस्त यादवों तथा भोजराज उग्रसेनने विधिपूर्वक उनका पूजन किया ॥ ३-४ ॥
इधर प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धने सोनेकी साँकलमें बँधे हुए अत्यन्त उज्ज्वल श्यामकर्ण अश्वको विजय- यात्राके लिये खोल दिया। वह घोड़ा राजाधिराज उग्रसेनदेवका वैभव सूचित करता हुआ वेगपूर्वक आगे बढ़ा और उस ‘राजपुर’ में चला गया, जहाँ शाल्वका भाई राजा अनुशाल्व नित्य राज्य करता था। स्वेच्छानुसार वहाँ पहुँचे हुए उस अश्वको अनुशाल्वने पकड़ लिया और उसके भालमें बँधे हुए पत्रको बाँचा। बाँचकर उसे बड़ा हर्ष हुआ। सारा अभिप्राय समझकर रोषसे उसके ओठ फड़कने लगे। वह टेढ़ी आँखोंसे देखता हुआ अपने सैनिकोंसे बोला- ‘बड़े सौभाग्यकी बात है कि मेरे सारे शत्रु स्वयं यहाँ आ गये। मैं उन सबको मार डालूँगा, जिन्होंने मेरे भाईका वध किया है’ ॥५-९॥
– ‘ऐसा कहकर और यादवोंको तिनकेके समान मानकर दस अक्षौहिणी सेनाके साथ वह नगरसे बाहर निकला। उसी समय समस्त वृष्णिवंशियोंने देखा, सामने विशाल सेना आयी है और बाणवर्षा कर रही है, तब उन्होंने भी बाण बरसाना आरम्भ किया। उस रणक्षेत्रमें दोनों सेनाओंके बीच खड्ग, बाण, शक्ति और भिन्दिपालोंद्वारा घोर युद्ध होने लगा। अनुशाल्वकी सेना भाग चली। यह देख महाबली अनुशाल्वने उसे रोका और सिंहनाद करते हुए रथके द्वारा वह स्वयं युद्धके मैदानमें आया। उसे आया देख श्रीकृष्णनन्दन दीप्तिमान् उसके साथ युद्ध करनेके लिये तत्काल सामने जा पहुँचे। दीप्तिमान को युद्धभूमिमें देखकर अनुशाल्व अमर्षसे भर गया और अपने धनुषसे चलाये गये दस बाणोंद्वारा उनपर आघात किया। मानो किसी बाधने हाथीपर पंजे मार दिये हों। उन बाण- समूहोंसे ताड़ित होनेपर दीप्तिमान की भुजा क्षत-विक्षत हो खूनसे लथपथ हो गयी। उन्होंने तत्काल धनुष उठाकर रोषपूर्वक दस बाण हाथमें लिये। उन बाणोंको कोदण्डपर रखकर दीप्तिमान ने छोड़ा। राजन्। वे बाण अनुशाल्वके शरीरको विदीर्ण करके बाहर निकल गये, जैसे अनेक गरुड घोंसले छोड़कर सहसा बाहर चले गये हों। उन बाणोंसे घायल हुआ अनुशाल्व रणभूमिमें मूच्छित हो गया; तब उसके समस्त सैनिकोंके ओठ रोषसे फड़कने लगे और वे चित्र- विचित्र शस्त्रों और बाणोंद्वारा युद्धस्थलमें दीप्तिमान्पर चोट करने लगे। उस समय श्रीहरिके पुत्र भानुने आकर जैसे भानु (सूर्य) कुहासेके बादलोंको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार अपने बाणोंद्वारा समस्त शत्रुओंको छिन्न- भित्र कर दिया। फिर तो अनुशाल्वके सारे सैनिक भाग चले। नरेश्वर! उसी समय अनुशाल्वके ‘प्रचण्ड’ नामक मन्त्रीने कुपित हो समराङ्गणमें सत्यभामाकुमार भानुपर शक्तिसे प्रहार किया। वह शक्ति भानुकी छाती छेदकर धरतीमें समा गयी और वे भी रणक्षेत्रमें मूच्छित होकर रथसे नीचे गिर पड़े ॥ १०-२२ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
ऐसा कौतुक देख साम्ब वहाँ रोषसे जल उठे। वे शीघ्र ही हाथमें कोदण्ड लिये रथके द्वारा वहाँ आ पहुँचे। साम्बने सौ बाण मारकर प्रचण्डके ध्वज, सारथि और घोड़ोंसहित सम्पूर्ण रथको चूर्ण-चूर्ण कर डाला। रथ नष्ट हो जानेपर रणदुर्मद प्रचण्ड गदा लेकर अपने शत्रु साम्बको मारनेके लिये उसी प्रकार आया, जैसे पतंग अग्निपर टूट पड़ा हो। उसे आया देख साम्बने चन्द्रमा और सूर्यके समान तेजस्वी एक ही बाणसे समरभूमिमें उसका मस्तक काट दिया। नृपेश्वर! उस समय उसकी सेनामें हाहाकार मच गया ॥ २३-२७ ॥
तदनन्तर अनुशाल्व दो घड़ीमें मूर्च्छा त्यागकर उठ खड़ा हुआ। उसने देखा मेरा मन्त्री साम्बके हाथसे युद्धमें मारा गया। यह देख उस राजाने रथपर आरूढ़ हो कवच बाँधकर धनुष और खड्ग लेकर धावा किया तथा समरमें चार बाणोंद्वारा साम्बके चार घोड़ों, दो बाणोंसे उसके ध्वज, तीन बाणोंसे सारथि, पाँच बाणोंसे धनुष तथा तीस बाणोंसे रथकी धज्जियाँ उड़ा दीं। धनुष कट गया, रथ नष्ट हो गया और घोड़े तथा सारथि मारे गये, तब जाम्बवतीकुमार साम्ब दूसरे रथपर आरूढ़ हो शोभा पाने लगे। तदनन्तर उन्होंने कुपित हो धनुष लेकर युद्धस्थलमें सौ बाणोंद्वारा अपने शत्रुपर प्रहार किया, मानो गरुडने अपने पंखोंकी मारसे सर्पको चोट पहुँचायी हो। उस प्रहारसे अनुशाल्वका भी रथ टूट गया, घोड़े कालके गालमें चले गये, सारथि दिवंगत हो गया और स्वयं अनुशाल्व रणभूमिमें मूच्छित हो गया। तब उसके समस्त सैनिक गीधकी पाँखोंसे युक्त और विषधर सर्पके समान तीखे चमकीले बाणोंद्वारा रोषपूर्वक साम्बपर प्रहार करने लगे ॥ २८-३४॥
युद्धस्थलमें साम्बको अकेला देख कृष्णपुत्र मधु रोषसे भर गया और वह कबूतरके समान रंगवाले घोड़ेपर चढ़कर युद्धस्थलमें आ पहुँचा। राजेन्द्र ! साम्बके साथ मिलकर मधु सारे दुष्ट शत्रुओंको तलवारकी चोटसे मौतके घाट उतारता हुआ आधे पहरतक समराङ्गणमें विचरता रहा। तत्पश्चात् अनुशाल्वने मूच्र्छासे उठकर अपनी पराजय देख, जलसे आचमनकर शुद्ध हो, समस्त शत्रुओंको मार डालनेका निश्चय किया। उसने मयासुरसे ब्रह्मास्त्रकी शिक्षा पायी थी, किंतु उसका निवारण करना वह नहीं जानता था। तथापि प्राणसङ्कट प्राप्त होनेपर उसने रोषपूर्वक ब्रह्मास्त्रका संधान किया। उस अस्त्रका दारुण और महान् तेज तीनों लोकोंको दग्ध करता हुआ-सा बारह सूर्योक समान अन्तरिक्षमें फैलने लगा। उसके दुस्सह तेजसे जलते हुए समस्त यादव प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धके पास गये और कहने लगे- ‘नरहरे! महात्मन् । इस दुःखसे हमारी रक्षा कीजिये।’ राजन् । तब रुक्मवतीकुमार वीर अनिरुद्धने उन सबको अभय दे, समराङ्गणमें रोषपूर्वक ब्रह्मास्त्र चलाकर उस ब्रह्मास्त्रको शान्त कर दिया ॥ ३५-४१॥
तब अनुशाल्वने आग्नेयास्त्र चलाया। उस अस्त्रके प्रभावसे आकाशमण्डल अग्निसे व्याप्त हो गया। सारी भूमि आगसे जलने लगी, मानो खाण्डववन आगकी लपटोंमें आ गया हो। यह देख बलवान् अनिरुद्धने फिर वारुणास्त्रका प्रयोग किया। उससे प्रचण्ड मेघ उत्पन्न हो गये और उनकी बरसायी हुई जलधाराओंसे वह आग बुझ गयी। उस समय महामेघोंद्वारा वर्षा ऋतुका आगमन जानकर मेंढक, कोकिल, मोर और सारस आदि बार-बार बोलकर अपनी आन्तरिक प्रसन्नता प्रकट करने लगे। तब मायावी अनुशाल्वने वायव्यास्त्रका प्रयोग किया। यह देख अनिरुद्ध सब ओर पर्वतास्त्रद्वारा युद्ध करने लगे ॥ ४२-४५ ॥
इसके बाद अनुशाल्वने हजार भारसे युक्त भारी गदा हाथमें लेकर युद्धस्थलमें शूरवीरोंके मुकुटमणि अनिरुद्धसे क्रुद्ध होकर कहा- ‘राजेन्द्र ! तुम्हारी सेनामें कोई ऐसा वीर नहीं है, जो गदा युद्धमें कुशल हो। यदि कोई है तो उसे शीघ्र मेरे सामने लाओ’ ॥ ४६-४७ ॥
उसका यह वचन सुनकर महान् गदाधारी गद अनिरुद्धके देखते-देखते आगे होकर बोले- ‘दैत्यराज! इस सेनामें बहुत से ऐसे वीर हैं, जिन्हें सम्पूर्ण शस्त्रोंमें निपुणता प्राप्त है। घमंड न करो; क्योंकि तुम रणक्षेत्रमें अकेले हो। असुर! यदि तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो पहले मेरे साथ गदायुद्ध कर लो, फिर दूसरोंको देखना ॥ ४८-५०॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
नरेश्वर। ऐसा कहकर गदने लाख भारकी सुदृढ़ गदा हाथमें ली और उसके द्वारा अनुशाल्वके मस्तकपर तथा छातीमें चोट की। अनुशाल्वने भी समराङ्गणमें गदपर गदासे आघात किया। फिर तो वे दोनों क्रोधसे मूच्छित हो एक-दूसरेपर अपनी-अपनी – गदासे चोट करने लगे। इतनेमें ही गदने अनुशाल्वको उठा लिया और उसे सौ बार घुमाकर आकाशमें फेंक दिया। अनुशाल्व पृथ्वीपर गिर पड़ा। राजेन्द्र ! तदनन्तर उसने भी रोहिणीकुमार गदको पकड़कर धरतीपर खूब रगड़ा। वह एक अद्भुत सा दृश्य था। तत्पश्चात् गदने एक हाथीको पकड़कर अनुशाल्वके ऊपर फेंका। अनुशाल्वने अपने ऊपर आते हुए हाथीको हाथमें ले लिया और पुनः उसे गदपर ही दे मारा। वे दोनों परस्पर घुटनों और मुक्कोंके घोर प्रहारोंद्वारा चोट पहुँचाने लगे। दोनों दोनोंके द्वारा धरतीपर राँदे गये। फिर दोनों ही गिरकर मूच्छित हो गये ॥ ५१-५६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘राजपुर विजय’
नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः
पचीसवाँ अध्याय
अनुशाल्वद्वारा प्रद्युम्नको उपहारसहित अश्वका अर्पण तथा
बल्वल दैत्यके द्वारा उस अश्वका अपहरण
श्रीगर्गजी कहते हैं- उन दोनोंका युद्ध देखकर यादव परस्पर कहने लगे-‘अनुशाल्व धन्य है।’ शत्रुसैनिक आपसमें चर्चा करने लगे कि ‘गद महान् वीर हैं।’ वे सब इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि गद वहीं सचेत होकर उठे और बोल पड़े- ‘मेरा शत्रु मुझपर प्रहार करके रणक्षेत्रसे कहाँ गया! कहाँ गया ?’ ॥ १-२ ॥
– ऐसा कहकर उन्होंने अनुशाल्वको हाथसे पकड़कर रोषपूर्वक खींचा और अनिरुद्धके निकट बड़े वेगसे दे मारा। अनुशाल्व औंधे मुँह गिरा और मूच्छित हो गया। यह देख अनिरुद्धने स्वयं पानी छिड़ककर और व्यजन डुलवाकर उसे होश कराया। उसी समय असुरेश्वर अनुशाल्व मूच्र्च्छासे जाग उठा और अपने सामने मेघके समान श्यामवर्णवाले परम- सुन्दर श्रीकृष्णपौत्रको देखकर उन्हें प्रणाम करके बोला- ‘श्रीकृष्णपौत्र अनिरुद्ध ! आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा की है, अतः मैंने जो अपराध किया है उसे क्षमा कर दें। सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। संकर्षणको प्रणाम है। प्रद्युम्नको नमस्कार है और आप अनिरुद्धको भी प्रणाम है। आप अपना घोड़ा लीजिये और में भी इसकी रक्षाके लिये आपके साथ चलूँगा’ ॥ ३-७३ ॥
ऐसा कह उसने नगरमें जाकर अनिरुद्धको घोड़ा लौटा दिया। साथ ही दस हजार हाथी, एक लाख घोड़े, पचास हजार रथ तथा एक सहस्र शिविकाएँ उन्हें भेंट कीं। नृपश्रेष्ठ! इनके अतिरिक्त राजा अनुशाल्वने एक हजार ऊँट, एक सहस्र गवय (वनगाय अथवा घड़रोज), पिजड़ेमें बंद दो हजार सिंह, एक हजार शिकारी कुत्ते, एक सहस्त्र शिविर (तम्बू-कनात), एक लाख रुनझुन शब्द करती हुई धनुषकी प्रत्यञ्चाएँ, दस हजार परदे, एक लाख दुधारू गौएँ, सहस्र भार सुवर्ण, चार सहन भार चाँदी और एक भार मोती अनिरुद्धको अर्पित किये। तब अनिरुद्धने अत्यन्त प्रसन्न हो उसे मणिमय हार भेंट किया ॥ ८-१३॥(Ashwamedh Khand Chapter 21 to 25)
अनुशाल्व अपने राज्यपर श्रेष्ठ सचिवको स्थापित कर यादवोंके साथ स्वयं भी अन्यान्य देशोंको गया। भूपते ! तत्पश्चात् छूटा हुआ मणिमय और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित वह अश्व वीरोंसे भरे दूसरे-दूसरे देशोंका दर्शन करता हुआ भ्रमण करने लगा। ‘अनुशाल्व हार गया, यौवनाश्व तथा भीषण भी परास्त हो गये’- यह सुनकर अन्यान्य मण्डलेश्वर नरेशोंने अपने यहाँ आनेपर भी उस घोड़ेको नहीं पकड़ा। महाराज! इस तरह घूमते हुए उस घोड़ेके छः मास बीत गये और उतने ही शेष रह गये ॥ १४-१७ ॥
नरेश्वर! मणिपुरके राजा तथा रत्नपुरके भूपालने घोड़ेको पकड़ा; किंतु अनिरुद्धके भयसे उसको छोड़ दिया। राजन् ! वह श्रेष्ठ अश्व शूरवीरोंसे रहित समस्त राष्ट्रोंको छोड़कर प्राची दिशामें गया, जहाँ दैत्यराज बल्वल निवास करता था। यह दैत्य नारदजीके मुखसे यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ेका समाचार सुनकर नैमिषारण्यमें होनेवाले यज्ञका विनाश करके वहाँसे शीघ्र ही अपने नगरको लौटा। रास्तेमें उसने देखा, वह यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ा प्रयागतीर्थमें त्रिवेणीका जल पी रहा है। राजन् ! उसे देखते ही बल्वलने भगवान् श्रीकृष्णकी कोई परवा न करके उसे शीघ्र ही जा पकड़ा। उसी समय समस्त वृष्णिवंशी योद्धा दण्डकारण्यका दर्शन करते हुए चर्मण्वती नदी पार करके चित्रकूटमें आ पहुँचे। वहाँ श्रीरामक्षेत्रमें दान करके अश्वको देखते हुए उसके पीछे लगे वे सब लोग तीर्थराज प्रयागमें आ गये ॥ १८-२३ ॥
राजन् ! वहाँ पहुँचकर उन श्रेष्ठतम यादव-वीरोंने देखा कि ‘पत्रसहित अश्वको दुरात्मा असुर बल्वलने बलपूर्वक पकड़ रखा है।’ बल्वल नील अञ्जनके ढेरकी भाँति दिखायी पड़ता था। उसके शरीरकी ऊँचाई दो योजनकी थी। उस उग्र दैत्यके नेत्र अङ्गारके समान जान पड़ते थे। उसकी दाढ़ी-मूँछ तपायी हुई ताम्रशिखाके समान दिखायी देती थी। बड़ी-बड़ी दाढ़ और उग्र भुकुटिके कारण उसका मुख भयंकर प्रतीत होता था। वह ब्राह्मणद्रोही असुर अपनी जीभ लपलपा रहा था और उसमें दस हजार हाथियोंके समान बल था। उसे देखते ही यादवोंके अधर-पल्लव रोषसे फड़क उठे और वे बोले-‘अरे! तू कौन है? हमारा यह यज्ञपशु लेकर तू कहाँ जायगा ? अतः इसे शीघ्र छोड़ दे, नहीं तो हमलोग युद्धमें तुझे मार डालेंगे।’ यह सुनकर उस असुरने कहा- ‘मनुष्यो ! मेरी बात सुनो’ ॥ २४-२८ ॥
बल्वलने कहा- मैं देवताओंको दुःख देनेवाला दैत्य बल्वल हूँ, जिसके सामने सारे मनुष्य भयसे व्याकुल हो जाते हैं॥ २९ ॥
यह सुनकर यादवोंने बल्वलको बाणोंसे मारना आरम्भ किया। नरेश्वर। उनके बाणोंकी चोट खाकर बल्वल घोड़ेसहित सहसा अन्तर्धान हो गया ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘बल्वलके द्वारा अश्वका अपहरण’
नामक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥