loader image

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 16 से 20 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20) के सोलहवाँ अध्याय में चम्पावतीपुरीके राजाद्वारा अश्वका पकड़ा जाना; यादवोंके साथ हेमाङ्गदके सैनिकोंका घोर युद्ध; अनिरुद्ध और श्रीकृष्ण पुत्रों के शौर्यसे पराजित राजा का उनकी शरण में आनाका वर्णन किया गया है। सत्रहवाँ अध्याय में स्त्री-राज्यपर विजय और वहाँ की कुमारी रानी सुरूपा का अनिरुद्ध की प्रिया होने के लिये द्वारका को जानेका वर्णन है। अठारहवाँ अध्याय में राक्षस भीषण द्वारा यज्ञीय अश्वका अपहरण तथा विमान द्वारा यादव-वीरों की उपलङ्कापर चढ़ाई का वर्णन कहा है। उन्नीसवाँ अध्याय में यादवों और निशाचरोंका घोर युद्ध; अनिरुद्ध और भीषणकी मूर्च्छा तथा चेतना एवं रणभूमिमें बकका आगमन और बीसवाँ अध्याय बक और भीषण की पराजय तथा यादवों का घोड़ा लेकर आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

सोलहवाँ अध्याय

चम्पावतीपुरीके राजाद्वारा अश्वका पकड़ा जाना; यादवोंके साथ हेमाङ्गदके
सैनिकोंका घोर युद्ध; अनिरुद्ध और श्रीकृष्णपुत्रोंके शौर्यसे पराजित
राजाका उनकी शरणमें आना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! वहाँसे छूटनेपर वह अश्व सब देशोंका अवलोकन करता हुआ उशीनर- जनपदके अन्तर्गत चम्पावतीपुरीमें जा पहुँचा। राजा हेमाङ्गदसे परिपालित वह पुरी विशाल दुर्गसे मण्डित थी। उसके भीतर चारों वर्णोंके लोग निवास करते थे। वह पुरी गगनचुम्बी प्रासादोंसे परिवेष्टित थी। वहाँ पुण्यात्मा राजा हेमाङ्गद महान् शूरवीरोंसे घिरे रहकर अपने पुत्र हंसकेतुके साथ राज्य करते थे। नरेश्वर ! उन्होंने यादवोंकी अवहेलना करके महात्मा अनिरुद्धके उस अश्वको अनायास ही पकड़ लिया। मानद ! राजा हेमाङ्गदने सोनेकी जंजीरसे घोड़ेको बाँधकर नगरके सभी दरवाजोंमें कपाट और अर्गला आदि दे दिये तथा यादवोंके विनाशके लिये दुर्गकी दीवारोंपर दो लाख शतनियाँ (तोपें) लगवा दर्दी और युद्धका ही निश्चय किया। तत्पश्चात् सेनासहित अनिरुद्ध घोड़ेकी राह देखते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने चम्पावतीके उपवनमें डेरा डाल दिया। वहाँ घोड़ेको न देखकर प्रद्युम्नकुमारने श्रीकृष्णचन्द्रके सखा पूछा ॥ १-८ ॥

उद्धवसे इस प्रकार अनिरुद्ध बोले- मन्त्रिप्रवर! यह किसकी नगरी है? कौन मेरा घोड़ा ले गया है? महामते! आप जानते होंगे; सोच-विचारकर बताइये ॥ ९ ॥

उनका यह प्रश्न सुनकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ उद्धव ने शत्रुओं के वृत्तान्त को समझकर यह बात कही ॥१०॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

उद्धव बोले- द्वारकानाथ। इस नगरीका नाम ‘चम्पावती’ है। यहाँ अपने पुत्र हंसध्वजके साथ राजा हेमाङ्गद राज्य करते हैं। उन्होंने ही तुम्हारा घोड़ा पकड़ा है। यह राजा बड़ा शूरवीर है। युद्ध किये बिना यज्ञका घोड़ा नहीं देगा। यह नगरमें ही रहकर भुशुण्डियों द्वारा दीर्घकालतक युद्ध करेगा। वह नरेश युद्धके लिये नगरसे बाहर नहीं निकलेगा। अतः नरेश्वर! तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो ॥ ११-१३ ॥

उद्धवजीकी यह बात सुनकर अनिरुद्ध रोषपूर्वक बोले ॥ १४ ॥

अनिरुद्धने कहा- सत्पुरुषों में श्रेष्ठ उद्धवजी ! दुर्गमें रहकर युद्धमें लगे हुए इन बहुसंख्यक शत्रुओंको लोहेकी बनी हुई शक्तिके समान बाणोंद्वारा मैं आधे पलमें मार गिराऊँगा ॥ १५ ॥

उद्धवजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर इस प्रकार रोषमें भरे हुए यदुकुलतिलक अनिरुद्ध उस पुरीका विध्वंस करनेके लिये शीघ्र ही गये और कोटि-कोटि बाणोंकी वर्षा करने लगे। अन्धकवंशी वीरोंके बाणसमूहोंसे उस पुरीमें कोलाहल मच गया। वीर हंसध्वज आदि समस्त शत्रु शङ्कित हो गये। तदनन्तर राजाके कहनेसे उन वीरोंने साहसपूर्वक दुर्गकी दीवारोंपर चढ़कर बाहर जमे हुए यादव-सैनिकोंको देखा। यदुकुलके श्रेष्ठ वीरोंको कवच आदिसे सुसज्जित देख वे सब के सब भयभीत हो उठे। यादव-योद्धा अस्त्र-शस्त्रोंसे परिमण्डित हो शस्त्रोंकी वृष्टि कर रहे थे। हेमाङ्गदके सैनिकोंने उनपर चारों ओरसे शतन्नियोंद्वारा आग बरसाना आरम्भ किया। वे इस निश्वयपर पहुँच गये कि हम सभी शत्रुओंको मौतके घाट उतार देंगे, घोड़ेको कदापि नहीं लौटायेंगे ॥ १६-२० ॥

उस समय अनिरुद्धकी सेनामें महान् हाहाकार मच गया। शतनियोंसे ताड़ित हो समस्त वृष्णिवंशी वीर विह्वल हो गये। उनके सारे अङ्ग क्षत-विक्षत हो गये। कितने ही योद्धा युद्धसे भाग चले। राजन् ! कुछ सैनिक मूच्छित हो गये और कितने ही अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे। कोई युद्धमें जल गये और कोई भस्मीभूत हो गये। कितने ही लोगोंके हाथ-पैर और भुजाएँ कट गयीं। कुछ लोग शस्त्रहीन होकर गिर पड़े। कितनोंके कवच जल गये। कितने ही हाय-हाय करने लगे और कितने ही योद्धा बलराम तथा श्रीकृष्णके नाम ले-लेकर पुकारने लगे। उस युद्धक्षेत्रमें शतनियोंकी मार खाकर सारे अङ्ग जर्जर हो जानेके कारण कितने ही हाथी भागते हुए गिर पड़े और मूच्छित होकर मर गये। संग्राममें उछलते-भागते हुए घोड़े शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण मौतके मुखमें चले गये। कितने ही रथ चूर-चूर होकर धराशायी हो गये। सारी यादव-सेना आगकी लपेटमें आकर भयानक दिखायी देने लगी ॥ २१-२६ ॥

यह सब देखकर अनिरुद्ध संग्राम-भूमिमें श्रीहरि- का स्मरण करते हुए कुछ सोचने लगे। तब श्रीकृष्ण- कृपासे ऊषावल्लभ अनिरुद्धको कर्तव्यबुद्धि सूझ गयी। उन्होंने शार्ङ्गधनुष लेकर तरकससे बाण निकाला और उसे धनुषपर रखकर उसमें पर्जन्यास्त्रका संधान किया। उस बाणके छूटते ही यादवसेनाके ऊपर मेघ छा गये। नरेश्वर! उन मेघोंने यादव सैनिकोंकी रक्षा करते हुए भूरि-भूरि जलकी वर्षा की और चारों ओर फैली हुई आगको बुझा दिया। तब वृष्णिवंशी सैनिकोंके अङ्ग अङ्ग शीतल हो गये। वे आगके भयसे छूट गये और अनिरुद्धकी प्रशंसा करते हुए पुनः युद्धके लिये उठ खड़े हुए। उन सबको सम्बोधित करके अनिरुद्धने कहा-‘मैं पंखवाले घोड़ेपर चढ़कर अकेला ही शत्रुओंके राजाको जीतनेके लिये चम्पावतीपुरीमें प्रवेश करूँगा’ ॥ २७-३२ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! अनिरुद्धकी यह बात सुनकर समस्त कृष्णकुमार साम्ब आदि अठारह महारथी उनसे बोल उठे ॥ ३३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

हरिपुत्रोंने कहा- राजन् । तुम शत्रुओंकी नगरी- में न जाओ। हम सब लोग उस आततायी नरेशको जीतनेके लिये वहाँ जायेंगे ॥ ३४ ॥

– ऐसा कहकर रोषसे भरे हुए वे सब वीर हरिपुत्र सहसा पाँखवाले घोड़ोंपर चढ़कर दुर्गके परकोटेको लाँघते हुए चम्पावतीपुरीमें जा पहुँचे। वे सभी धनुर्धर, कवचधारी और युद्धकुशल थे। उन्होंने जाते ही सर्पाकार बाणोंसे शत्रुओंको मारना आरम्भ किया ॥ ३५-३६ ॥

नरेश्वर । वे शत्रु भी राजाकी आज्ञासे सहसा युद्धके लिये धनुष धारण किये क्रोधपूर्वक आ पहुँचे। उनकी संख्या एक करोड़ थी। रोषसे भरे और अस्त्र-शस्त्र उठाये उन बहुसंख्यक वीरोंको वहाँ आया देख साम्ब, मधु, बृहद्वाहु, चित्रभानु, वृक अरुण, संग्रामजित्, सुमित्र, दीप्तिमान्, भानु, वेदबाहु, पुष्कर, श्रुतदेव, सुनन्दन, विरूप, चित्रबाहु, न्यग्रोध और कवि-इन समस्त श्रीकृष्णपुत्रोंने बाणोंद्वारा मारना आरम्भ किया। राजेन्द्र ! फिर तो उस नगरीमें वीरोंके रक्तसे भयंकर नदी प्रकट हो गयी, जो नगरद्वारसे बाहर निकली। राजन् ! उस घोर नदीको बहकर आती देख अनिरुद्ध शङ्कित हो गये। उनका मुँह सूख गया और वे रोषपूर्वक बोले-‘अहो! क्या मेरे पिताके सभी भाई मारे गये, जिसके कारण यह घोर नदी प्रकट हो हम सबको बहा ले जानेके लिये इधर ही आ रही है? मैं इस नदीको अपने अग्रिमय बाणर्णोद्वारा सोख लूँगा, इसमें संशय नहीं है। अपने पर्वतोपम गजराजोंद्वारा इस नगरीको ढहवा दूँगा ॥ ३७-४४ ॥

तदनन्तर अनिरुद्धके आदेशसे महावतोंसे प्रेरित हो बड़े-बड़े ऊँचे मदोन्मत्त और कज्जलगिरिके समान काले लाखों हाथी अपनी सूँड़ोंसे छोटे-छोटे वृक्षों एवं गुल्मोंको उखाड़-उखाड़कर उस नगरमें फेंकने लगे। वे अपने पैरोंके आघातसे पृथ्वीको कम्पित करते हुए नगरके ऊपर जा चढ़े। नरेश्वर ! वहाँ पहुँचकर उन समस्त गजराजोंने अपने कुम्भ- स्थलोंसे रोषपूर्वक सब ओरसे शीघ्र ही उस पुरीको ढाह दिया। सारे कपाट टूट-टूटकर गिर गये। द्वारोंकी सुदृढ़ शृङ्खलाएँ छिन्न-भिन्न हो गयीं। पुरीके दुर्गकी पथरीली दीवारें उन हाथियोंने तोड़ गिरायीं। नृपश्रेष्ठ! श्रीहरिके गजराजोंने किवाड़ों, अर्गलाओं और दुर्गको धराशायी करके पुरीमें पहुँचकर शत्रुओंके घरोंको गिराना आरम्भ किया। उस समय चम्पावतीमें महान् हाहाकार मच गया। राजा आदि सब लोग भयभीत हो बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। तब पराजित हुए राजा हेमाङ्गद फूलोंके हारसे अपने दोनों हाथ बाँधकर ‘पाहिमाम्’ कहते हुए हरिपुत्रोंके सम्मुख आये। उन नरेशको आया हुआ देख रणभूमिमें धर्मवेत्ता साम्बने भाइयोंको तथा दीनजनोंकी हत्या करनेवाले महावतों- को भी रोका। सबको रोककर वे राजासे इस प्रकार बोले ॥ ४५-५२ ॥

साम्बने कहा- राजन् ! आओ, तुम्हारा भला हो। मेरा घोड़ा लेकर अनिरुद्धके समीप चलो, तब तुम्हारे लिये श्रेष्ठ परिणाम निकलेगा ॥ ५३३ ॥

साम्बकी यह बात सुनकर राजा यज्ञका घोड़ा लिये हरिपुत्रोंके साथ पुरीसे बाहर निकले। राजन् । पुत्रके साथ अनिरुद्धके निकट जाकर राजाने घोड़ा और उसके साथ एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ भी अर्पित कीं। राजेन्द्र ! तदनन्तर नीतिवेत्ता दीनवत्सल अनिरुद्धने पुष्पमालासे बँधे हुए उनके दोनों हाथ खोलकर इस प्रकार कहा- ‘नृपश्रेष्ठ! मेरे साथ चलकर श्रीकृष्ण- की प्रसन्नताके लिये शत्रु-राजाओंसे इस घोड़ेकी रक्षा करो’ ॥ ५४-५७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

अनिरुद्धकी बात सुनकर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा हेमाङ्गदने अपने पुत्रको राज्य देकर प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ जानेका विचार किया ॥ ५८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘चम्पावती-विजय वर्णन’
नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम

सत्रहवाँ अध्याय

स्त्री-राज्यपर विजय और वहाँकी कुमारी रानी सुरूपाका अनिरुद्धकी
प्रिया होनेके लिये द्वारकाको जाना

श्रीगर्गजी कहते हैं- तदनन्तर वहाँसे छूटनेपर परम उज्ज्वल अङ्गॉवाला अनिरुद्धका अश्व यदुकुलके प्रमुख वीरोंके साथ उशीनर-जनपदसे बड़े-बड़े वीरोंको देखता हुआ धीरे-धीरे बाहर निकला। राजन् ! इस प्रकार विचरता हुआ वह श्रेष्ठ अश्व प्रत्येक राज्यमें गया और बहुत-से नरेशोंने उसको पकड़ा तथा छोड़ा। राजा इन्द्रनील और हेमाङ्गदको पराजित हुआ सुनकर अन्य मण्डलेश्वर नरेश अपने यहाँ आनेपर भी उस घोड़ेको पकड़नेका साहस न कर सके ॥१-३ ॥

नृपश्रेष्ठ ! बहुत-से वीरविहीन देशोंका अवलोकन करके वह श्रेष्ठ घोड़ा स्वेच्छासे घूमता हुआ स्त्रीराज्य- में जा पहुँचा। वहाँ कोई ‘सुरूपा’ नामवाली सुन्दरी राजकन्या राज्य करती थी। कहते हैं, वहाँ कोई पुरुष राजा जीवित नहीं रहता। वज्रनाभ! उस देशमें किसी स्त्रीको पाकर जो कामभावसे उसका सेवन करता है, वह एक वर्षके बाद कदापि जीवित नहीं रहता ॥ ४-६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

स्त्रीराज्यके नगरमें फूलोंसे भरा हुआ एक सुन्दर उद्यान था, जहाँ लवङ्ग-लताएँ फैली थीं और इलायचीकी सुगन्ध भीनी रहती थी। पक्षियों और भ्रमरोंकी मीठी बोली वहाँ गूँज रही थी। उस नगरमें पहुँचकर घोड़ा उस उद्यानमें एक इमली वृक्षके नीचे खड़ा हो गया। वहाँकी सब स्त्रियोंने देखा, बड़ा मनोहरश्यामकर्ण घोड़ा खड़ा है। वहाँके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी उसे देखनेके लिये गये। नरेश्वर। उस घोड़ेको देखकर स्त्रियोंने अपनी स्वामिनीसे उसकी चर्चा की। वह चर्चा सुनकर रानी छत्र और चैवरसे वीजित हो रथपर बैठीं और करोड़ों स्त्रियोंके साथ उस घोड़ेको देखनेके लिये गयीं। घोड़ेको देखकर और उसके भालमें बंधे हुए पत्रको पढ़कर रानीको बड़ा रोष हुआ। उन्होंने नगरमें घोड़ेको बाँधकर उसके प्रतिपालकोंके साथ युद्ध करनेका निश्चय किया। कोई स्त्रियाँ हाथीपर, कोई रथपर और कोई घोड़ेपर आरूढ़ हो कवच बाँधकर अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हो युद्धके लिये आयीं। वे सब स्त्रियाँ कुपित हो अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करती हुई आर्यों। उन्हें देखकर अनिरुद्धने हेमाङ्गदसे पूछा ॥ ७-१३ ॥

अनिरुद्ध बोले- राजन् ! ये कौन-सी स्त्रियाँ हैं, जो युद्ध करनेके लिये आयी हैं। जिस उपायसे यहाँ मेरा कल्याण हो, वह विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १४ ॥

हेमाङ्गदने कहा- नृपेश्वर! इस देशमें रानी राज्य करती है; क्योंकि राजा यहाँ जीवित नहीं रहता है। इसीलिये वह स्त्रियोंसे घिरी हुई आयी है। आपके घोड़ेको पकड़कर वह संग्राम करनेके लिये उपस्थित है ॥ १५ ॥

यह सुनकर अनिरुद्ध राजासे इस प्रकार बोले ॥ १५ ॥

अनिरुद्धने कहा- राजन् ! यहाँपर स्त्री राज्य क्यों करती है तथा राजा क्यों जीवित नहीं रहता है? यह बात विस्तारपूर्वक बतलाइये; क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं॥ १६-१७ ॥

अनिरुद्धकी यह बात सुनकर राजा हेमाङ्गदने अपने गुरु याज्ञवल्क्यजीके चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए कहा- ‘यादवेन्द्र ! इस विषयका प्राचीन इतिहास मैंने चम्पापुरीमें पहले गुरुवर याज्ञवल्क्यजीके मुखसे सुना था, वही तुमसे कहूंगा; ध्यान देकर सुनो ॥ १८-१९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

राजन् ! प्राचीन सत्ययुगकी बात है, इस देशमें ‘नारीपाल’ नामसे विख्यात एक मण्डलेश्वर राजा हुए थे। उनके मोहिनी नामवाली पत्नी थी, जिसका जन्म सिंहलद्वीपमें हुआ था। वह पद्मिनी नायिका थी। उसकी चाल हंसके समान थी और मुख पूर्णचन्द्रके समान मनोहर था। राजा उसके सौन्दर्यके महासागरमें डूबकर यह भी नहीं जान पाते थे कि कब दिन बीता और कब रात समाप्त हुई? वे सैकड़ों वर्षोंतक उसके साथ रमण करते रहे। काममोहित होनेके कारण वे प्रजाजनोंका न्याय भी नहीं करते थे। राजन्। उस समय सारी प्रजा दुःखसे पीड़ित हो रही थी। यादवेश्वर ! प्रजाजनोंका पारस्परिक कलहसे विनाश होता देख राजवल्लभा मोहिनी अपनी शक्तिके अनुसार सारी प्रजाका न्यायकार्य स्वयं ही सँभालने लगी। एक दिन उस नरेशसे मिलनेके लिये महामुनि अष्टावक्र उनके अन्तः पुरमें आये। राजाका मन स्त्रीमें ही आसक्त रहता था। वे मुनिको आया देख जोर-जोरसे हँसने लगे और बोले-‘यह कुरूप यहाँ कैसे आ गया?’ ॥ २०-२६ ॥

तब मुनि रुष्ट होकर बोले- अरे। ओ मूर्ख नपुंसक ! मेरी बात सुन ले, तू स्त्रियोंके हाथका खिलौना होकर मुनियोंका अपमान क्यों कर रहा है? तुम्हारे देशमें सदा स्त्रियाँ राज्य करेंगी। इस राज्यमें पुरुष-राजा जीवित नहीं रहेगा। अतः तू अभी इस राजभवनसे निकल जा। इस देशमें स्त्रीको पाकर जो प्रतिदिन उसका सेवन करेगा, वह एकवर्ष बीतनेके बाद निस्संदेह जीवित नहीं रहेगा’ ॥ २७-२९ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ अष्टावक्र अपने आश्रमको चले गये। मुनिके चले जानेपर राजा उनके शापसे नपुंसक हो गये। ‘यह सब दुर्दशा मुनिने ही की है’ ऐसा जानकर राजा अत्यन्त दीन एवं दुःखसे व्याकुल हो गये और स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे ॥ ३०-३१॥

नारीपाल बोले- अहो! स्त्रीके वशीभूत रहने वाले मुझ मन्दभाग्यने यह क्या किया? मुनियोंकी पूजा छोड़कर नरककी राह पकड़ ली। आज मुझ दुष्ट पापात्मापर यमदूतोंकी दृष्टि पड़ी है। अब मैं वैतरणीमें गिराये जानेयोग्य हो गया हूँ। इस दशामें देखकर मुझे कौन अपने तेजसे इस कष्टसे छुड़ायेगा ? ॥ ३२-३३ ॥

ऐसा उद्गार प्रकट करके राजा घर छोड़कर वन-वनमें विचरने लगे। वे मुक्तिदाता भगवान् विष्णुके भजनमें लग गये और अन्तमें उन्होंने श्रीहरिका पद प्राप्त कर लिया। उस शापके भयसे राजालोग इस देशमें राज्य नहीं करेंगे; केवल नारियाँ ही यहाँ शासन करेंगी, इसमें संशय नहीं है॥ ३४-३५ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- अनिरुद्ध और हेमाङ्गद इस प्रकार बातचीत कर ही रहे थे कि रोषसे भरी हुई वहाँकी पुंश्चली नारियाँ इनके पास आ गयीं और क्रोधपूर्वक अपने धनुषोंसे बाणोंकी वर्षा करने लगीं। उन स्त्रियोंको देखकर अनिरुद्ध विस्मित हो गये और ‘मैं स्त्रियोंके साथ युद्ध कैसे करूँगा’- ऐसा कहते हुए वे भयभीत से हो गये। उसी समय मण्डलेश्वरी सुरूपा स्त्रियोंके साथ उनके निकट आ गयीं और अनिरुद्धको देखकर बोली ॥ ३६-३८ ॥

रानीने कहा- वीर! रणभूमिमें खड़े हो जाओ, खड़े हो जाओ। मेरे साथ युद्ध करो। तुम तो बहुत बड़ी सेनाके साथ हो। फिर युद्धस्थलमें व्यर्थ सोचमें क्यों पड़ गये हो? तुम बड़े मानी हो। मैं इस समराङ्गणमें वृष्णिवंशी योद्धाओंसहित तुमको पराजित करके अपना क्रीड़ामृग बनाऊँगी; क्योंकि तुम्हें देखकर मैं मदन- ज्वरसे पीड़ित हो गयी हूँ ॥ ३९-४० ॥

उसकी यह बात सुनकर अनिरुद्ध भयसे विह्वल हो गये। वे सब कुछ जान गये और दीन वाणीमें उस मण्डलेश्वरीसे बोले- ‘रानी! तुम सर्वदेवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अश्वको यज्ञके लिये अपनी ही इच्छासे मुझे लौटा दो। सुमुखि । मैं तुम्हारे साथ युद्ध नहीं करूंगा; अतः तुम श्रीहरिके दर्शनके लिये द्वारका जाओ। भद्रे! जिनके नामका स्मरण करके मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है, साक्षात् उन्हींके दर्शनका कैसा महान् फल है। यह तुम्हें क्या बताऊँ !’ वार्तालापमें चतुर अनिरुद्धके इस प्रकार समझानेपर उसे पूर्वजन्मकी वार्ताका स्मरण हो आया और वह अनिरुद्धसे उसी प्रकार बोली-जैसे ब्रह्माजीसे मोहिनी बोली थी ॥ ४१-४५ ॥

सुरूपाने कहा- देव! मैं पूर्वजन्ममें स्वर्गकी एक प्रसिद्ध अप्सरा थी। मेरा नाम ‘मोहिनी’ था। मेरे अङ्ग कमलके समान प्रफुल्ल एवं सुगन्धित थे। मेरे नेत्र भी कमलदलके समान विकसित एवं विशाल थे। एक दिनकी बात है- पद्मयोनि ब्रह्माजी हंसपर आरूढ़ हो कहीं जा रहे थे। उन्हें देखकर मैं उनके निकट गयी और बोली- ‘आप मुझे अङ्गीकार करें।’ जब ब्रह्माजीने मुझे ग्रहण नहीं किया, तब मैं शाप देकर ‘ककुद्मती’ नदीके तटपर गयी और वहाँ दुष्कर तपस्या करने लगी। मेरी तपस्यासे ब्रह्माजी संतुष्ट हो गये। वे तपस्याके अन्तमें मेरे पास आये और प्रसन्नचित्त हो मुझ तपस्विनीसे बोले- ‘वर माँगो।’ उनका यह कथन सुनकर मैं (मोहिनी) बोली- ‘देवदेव ! आपको नमस्कार है। लोकेश! मैं यही वर माँगती हूँ कि आप मुझ दीन तपस्विनीका वरण करें। मैं दुःखित होकर आपकी शरणमें आयी हूँ। यदि आप मुझे ग्रहण नहीं करेंगे तो मैं तपस्यासे क्षी ण हुए इस शरीरको रोषपूर्वक त्याग दूँगी।’ मेरी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- “भामिनि ! शोक न करो। भद्रे ! दूसरे जन्ममें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। मैं द्वारकामें श्रीहरिका सुन्दर पौत्र होऊँगा। उस समय मेरा नाम ‘अनिरुद्ध’ होगा और तुम स्त्रीराज्यकी रानी होओगी। भद्रे। उस समय मैं तुम्हें ग्रहण करूँगा। मेरी यह बात झूठी नहीं है।”, यह सुनकर मैं इस भूतलपर उत्पन्न हुई। यादवश्रेष्ठ ! आप साक्षात् ब्रह्माजी हैं और मेरे लिये ही यहाँ पधारे हैं॥ ४६-५४ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- सुरूपाका यह कथन सुनकर समस्त यादव आश्चर्यचकित हो गये। तब धर्मात्मा अनिरुद्धने उससे यह निर्मल वचन कहा ॥ ५५ ॥

अनिरुद्ध बोले- भद्रे! तुम श्रीद्वारकाको जाओ। मैं वहाँ अपनी प्रियाके रूपमें तुम्हें ग्रहण करूँगा। इस समय तो मैं राजाओंसे अश्वकी रक्षा करते हुए उसीके साथ जाऊँगा ॥ ५६ ॥

तदनन्तर सुरूपा अनिरुद्धकी आज्ञासे अपनी श्रेष्ठ मन्त्रिणी प्रमिलाको राज्यपर स्थापित करके घोड़ा लौटाकर स्वयं द्वारकाको चली गयी ॥५७॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘स्त्रीराज्यपर विजय’
नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ छान्दोग्य उपनिषद हिंदी में

अठारहवाँ अध्याय

राक्षस भीषणद्वारा यज्ञीय अश्वका अपहरण तथा विमानद्वारा
यादव-वीरोंकी उपलङ्कापर चढ़ाई

अनिरुद्धके प्रयाससे छूटा हुआ वह दुग्धके समान उज्ज्वल यज्ञसम्बन्धी अश्व स्वेच्छासे सिंहलद्वीपके निकट विचरने लगा। वह प्याससे पीड़ित था। घोड़ेने देखा, सामने ही बहुतसे वृक्षोंद्वारा आवृत और जलसे भरी हुई एक बावड़ी है। उसे देख, वह स्वयं जाकर उसका पानी पीने लगा। बावड़ीमें अश्वको देखकर एक ‘भीषण’ नामवाले राक्षसने उसके भालमें लगे हुए पत्रको पढ़ा और बड़ी प्रसन्नतासे उस घोड़ेको पकड़ लिया। उसी समय सब यादव, जिनकी दृष्टि घोड़ेपर ही लगी हुई थी, वहाँ आ पहुँचे। आकर उन्होंने देखा- ‘यज्ञके अश्वको एक राक्षसने पकड़ रखा है।’ तब वे युद्धशाली यादव उस राक्षससे बोले ॥१-४३ ॥

यादवोंने कहा- अरे! तू कौन है? जैसे सिंहकी वस्तुको सियार ले जाय, उसी तरह यादवेन्द्र महाराज उग्रसेनके घोड़ेको लेकर तू कहाँ जायगा ? धूर्त ! खड़ा रह, खड़ा रह। हमारे साथ धैर्यपूर्वक युद्ध कर! हम घोड़ेको तेरे हाथसे छुड़ा लेंगे तथा रणभूमिमें तेरा वध कर डालेंगे। भाइयाँसहित शकुनि, नरकासुर, बाणासुर और कलङ्क ये समस्त राक्षस-राज हमारे हाथसे मारे जा चुके हैं। तू तो उनके सामने तिनकेके तुल्य है। अतः हम युद्धमें तुझे कुछ भी नहीं गिनेंगे। तू घोड़ा देकर चला जा, चला जा, नहीं तो हम तुझे मार डालेंगे ॥ ५-८ ॥

उनका यह भाषण सुनकर देवताओंको भी भयभीत करनेवाले भीषणने शूल, गदा और खड्ग लेकर बड़े रोषके साथ उन सबसे कहा ॥९॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

भीषण बोला- अरे! तुमलोग क्या मेरा सामना कर सकते हो। मनुष्य तो हमारे भोजन हैं। वे राक्षसोंके सामने कौन-सा पुरुषार्थ प्रकट करेंगे? पहले जब यादवराजने ‘विश्वजित् यज्ञ’ किया था, तब मैं राक्षसोंको लानेके लिये लङ्का चला गया था। उन्हें लेकर जब मैं अपनी पुरीमें लौटा तो नारदजीके मुखसे सुना कि वह यज्ञ पूरा हो गया। अब तुमलोगोंने पुनः अश्वमेध यज्ञ करनेका प्रयास व्यर्थ ही किया है। तुमलोगोंमें कौन ऐसे वीर हैं, जो मेरे पकड़े हुए घोड़ेको छुड़ा सकें। अतः घोड़ेकी आशा छोड़कर तुमलोग जाओ, चले जाओ। नहीं तो मेरे चार लाख अनुयायी राक्षस तुम सबको खा जायँगे। इस स्थानसे बारह योजन दूर समुद्रमें मेरी बनायी हुई पुरी है, जिसका नाम ‘उपलङ्का’ है। जैसे भोगवतीपुरी सर्पोंसे भरी रहती है, उसी प्रकार उपलङ्का निशाचरगणोंसे परिपूर्ण है॥ १०-१६ ॥

राजन् ! ऐसा कहकर घोड़ा लिये आकाशमार्गसे वह सहसा अपनी पुरीको चला गया और समस्त यादव शोक करने लगे। तब अनिरुद्ध कहने लगे- ‘भोजराजके इस अश्वको जिसे निशाचर ले गया है, हम कैसे छुड़ायेंगे ‘ ॥ १७-१८ ॥

उनका यह वचन सुनकर नीतिकुशल साम्ब आदि उनसे बोले-राजन् ! चिन्ता छोड़ो। हमारे रहते तुम्हें क्या भय है? तुम्हारी सेनामें पंखदार घोड़े हैं, विमान हैं और बाण हैं। दोनों लोकोंपर विजय पानेवाले शौर्य- सम्पन्न महान् वीर विद्यमान हैं। राजन्। हमलोग घोड़ोंसे यात्रा करेंगे अथवा वाणोंसे पुल बाँधकर जायेंगे; या भगवान् विष्णुके दिये हुए विमानसे शत्रुओंकी नगरीपर आक्रमण करेंगे। सबकी बात सुनकर धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धने मन्त्रिप्रवर उद्धवको बुलाकर इस प्रकार पूछा ॥ १९-२२॥
अनिरुद्ध बोले- मन्त्रिवर। श्यामकर्ण हमारे हाथसे चला गया। अब हम क्या करें? भगवान्ने आपके आदेशानुसार ही कार्य करनेकी आज्ञा दी थी; अतः आप कोई उपाय बताइये। मेरे सब चाचा लोग जो उपाय बता रहे हैं, वह आपने भी सुना है। यदि आपकी भी आज्ञा हो जाय तो मैं वह सब करूँ ॥ २३-२४॥

अनिरुद्धकी यह बात सुनकर उद्धवजी लज्जित होकर बोले-भैया! मैं तो श्रीकृष्णका और विशेषतः उनके पुत्रों तथा पौत्रोंका भी सदा दास हूँ। निरन्तर आज्ञामें रहनेवाला सेवक हूँ। मैं क्या बताऊँगा। जो तुम्हारी और इन सबकी इच्छा हो, वह करो। निश्चय ही वह सफल होगी ॥ २५-२६ ॥

तब अनिरुद्धने कहा- यादवो! मैं भगवान् विष्णुके दिये हुए विमानद्वारा दस अक्षौहिणी सेनाके साथ दैत्यनगरी (उपलङ्का) में जाऊँगा। सारण, कृतवर्मा तथा सत्यकपुत्र युयुधान- ये लोग अक्रूरके साथ यहीं रहकर शेष सेनाकी रक्षा करें ॥ २७-२८ ॥

ऐसा कहकर अनिरुद्ध श्रीहरि के अठारह पुत्रों, उद्धव, गद और विशाल सेनाके साथ भगवान् विष्णु के दिये हुए विमानपर आरूढ़ हुए। श्रीकृष्णके पौत्र तथा यादव-वीरोंसे युक्त वह सूर्य-बिम्बके समान तेजस्वी विमान अपनी शक्तिसे चालित होकर उसी प्रकार शोभा पाने लगा, जैसे पूर्वकालमें कुबेरका विमान पुष्पक श्रीराम और कपिराजोंसे युक्त होकर सुशोभित होता था ॥ २९-३० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘विमानपर आरोहण’
नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सूर्य सिद्धांत हिंदी में

उन्नीसवाँ अध्याय

यादवों और निशाचरोंका घोर युद्ध; अनिरुद्ध और भीषणकी मूर्च्छा
तथा चेतना एवं रणभूमिमें बकका आगमन

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर रुक्मवतीकुमार अनिरुद्ध कुबेरके समान विमानद्वारा विशाल सेनाके साथ उपलङ्कामें गये। नरेश्वर। वहाँ जाकर यादवोंसहित अनिरुद्धने विषधर सर्पके समान विषाक्त बाणोंद्वारा उस नगरीका और वहाँके वन उपवनोंका विध्वंस आरम्भ कर दिया। वहाँके क्रीडा स्थानों, द्वारों, भवनों, अट्टालिकाओं, छज्जों तथा गोपुरोंपर उस विमानके अग्रभागसे अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा होने लगी। मुसल, शक्ति, परिष, बाण और शिलाएँ भी निरन्तर पड़ने लगीं। राजन्। वहाँ प्रचण्ड वायु चलने लगी और सम्पूर्ण दिशाएँ धूलसे आच्छादित हो गयीं। इस प्रकार यादवर्वोद्वारा की गयी अस्त्र-वर्षासे अत्यन्त पीड़ित हुई भीषणकी वह नगरी कहीं भी कल्याण (परित्राण) नहीं पा रही थी। उसकी वही दशा हो गयी थी, जैसे पूर्वकालमें शाल्वदेशीय योद्धाओंके आक्रमणसे द्वारकापुरीकी हुई थी ॥ १-५॥

नृपश्रेष्ठ! उस समय उस नगरीमें हाहाकार मच गया। भीषण आदि असुर भयसे विह्वल हो गये। सारी नगरीको पीड़ित देख राक्षसराज भीषण ‘डरो मत’- इस प्रकार अभयदान दे राक्षसों के साथ बाहर निकला। फिर तो उसकी पुरीमें निशाचरोंके साथ यादवों का घोर युद्ध होने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे पहले लंका में वानरों और राक्षसों में युद्ध हुआ था। वृष्णिवंशी योद्धाओंके बाणसमूहोंसे कंधे कट जानेके कारण राक्षस आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंकी भाँति समुद्रमें गिरने लगे। कुछ निशाचर औंधे मुँह उस पुरीमें ही धराशायी हो गये। राजन्। कोई उतान होकर गिरे और कोई तत्काल पञ्चत्वको प्राप्त हो गये। वहाँ उन राक्षसोंके रक्तसे एक भयंकर दूषित नदी प्रकट हो गयी, जो महावैतरणीकी भाँति दुष्पार थी। वहाँ यादवोंका बल देखकर भीषणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने टेढ़ी आँखोंसे यादवोंकी ओर देखकर कहा- ‘तुमलोगोंने निर्बलोंकी भाँति आकाशमें खड़े होकर युद्ध किया है। तुमलोग जो व्यर्थ वीरताका अभिमान करते हो, वह प्रशंसाके योग्य नहीं है। तुमलोगोंके शरीरोंमें यदि शक्ति हो तो सुनो पृथ्वीपर उत्तर आओ और मेरे साथ युद्ध करो।’ उसकी यह बात सुनकर करुणामय प्रद्युम्नकुमार भूतलपर विमान उतारकर उस महान् असुरसे बोले ॥ ६-१५ ॥

अनिरुद्धने कहा- महान् असुर ! बहुत विचार करनेसे क्या होगा? तुम महासमरमें भय छोड़कर शीघ्र मेरे साथ युद्ध करो ॥ १६ ॥

उनकी यह बात सुनकर भयंकर पराक्रमी भीषणने अपने धनुषसे पाँच नाराच बाण अनिरुद्धके ऊपर चलाये। अनिरुद्धने उन्हें देखकर अपने बाणोंद्वारा उन नाराचोंके दो-दो टुकड़े कर दिये और खेल-खेलमें ही एक बाणसे उसके धनुषको काट दिया। भीषणने भी दूसरा धनुष लेकर उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और सर्पाकार सौ बाणोंद्वारा प्रद्युम्रकुमारको घायल कर दिया। उनका रथ खण्डित हो गया, सारथि मारा गया, सब घोड़े भी कालके गालमें चले गये और अनिरुद्ध मूच्छित हो गये। उस समय अपने सेनानायकको घिरा हुआ देख समस्त वृष्णिवंशी यादवोंके अधर पल्लव रोषसे फड़क उठे और वे बाणोंकी वर्षा करते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन बहुसंख्यक वीरोंको आया देख उस असुरने रोषपूर्वक धनुषको रखकर गदासे ही उन सबको मार गिराया, जैसे सिंह अपनी दाढ़ोंसे ही मृगोंको कुचल देता है। गदाकी मारसे पीड़ित हो यादव-सैनिक भूतलपर गिर पड़े। उनके सारे अङ्ग छिन्न-भिन्न हो गये थे। कितने ही योद्धा रणक्षेत्रमें धराशायी हो गये ॥ १७-२३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

तब बलरामजीके छोटे भाई गदने अपनी गदा लेकर समरभूमिमें राक्षस भीषणके मस्तकपर प्रहार किया। राजन् । गदाके उस प्रहारसे व्यथित हो वज्रके मारे हुए पर्वतकी भाँति वह असुर वसुधाको कम्पित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा। भीषणका सिर फट गया था। उसे मूच्छित होकर पड़ा देख वे असुर शस्त्र धारण किये गदको मारनेके लिये आ पहुँचे। परंतु नरेश्वर! नृसिंहने जैसे अपनी दाढ़से हाथियोंको मार गिराया था, उसी प्रकार बलरामके छोटे भाई गदने अपनी वज्र सरीखी गदासे उन सब असुरोंको
धराशायी कर दिया ॥ २४-२७ ॥

इसके बाद अनिरुद्ध होशमें आकर खड़े हो गये और क्षणभरमें धनुष लेकर बोल उठे- ‘मेरा शत्रु दुष्ट भीषण कहाँ गया, कहाँ गया?’ श्रीहरिके पौत्रको खड़ा हुआ देख यादवपुंगव जय-जयकार करने लगे और समस्त देवताओंको भी बड़ा हर्ष हुआ ॥ २८-२९॥

तदनन्तर नारदजीसे सूचना पाकर भीषणका पिता निशाचर ‘बक’ जंगलसे कुपित होकर वहाँ आया। महाराज! वह कज्ञ्जलगिरिके समान काला और ताड़के बराबर ऊँचा था। उसकी जीभ लपलपा रही थी, नेत्र भयंकर हो गये थे तथा वह त्रिशूल और गदा लिये हुए था। एक हाथीको बायें हाथसे पकड़कर मुँहसे चबाता हुआ वह राक्षस रक्तसे नहा गया था और बड़े भारी पिशाचके समान दिखायी देता था। उसके दोनों पैर ताड़के बराबर बड़े थे। वह उनकी धमकसे भूतलको कम्पित कर रहा था। देवताओंके हृदयमें भय उत्पन्न करनेवाला वह निशाचर जनताके लिये काल-सा दिखायी देता था। उसको आते देख वहाँ सब यादव आतङ्कित हो गये और श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दोंका स्मरण करते हुए वे सब आपसमें इस प्रकार कहने लगे ॥ ३०-३४ ॥

यादव बोले- मित्रो! बताओ, यह कौन हमारे निकट आ पहुँचा है? इसका रूप बड़ा ही बीभत्स है और यह कालके समान निर्भय प्रतीत होता है॥ ३५ ॥

इस प्रकार जब सब लोग बोलने लगे तो वहाँ महान् कोलाहल छा गया। बकको देखकर वे सब निशाचर प्रसन्न हो गये। राजन् ! भीषणको मूच्छित देख राक्षसराज बक संग्राममें बारंबार ‘हा दैव! हा दैव!’ कहता हुआ शोकमग्न हो गया ॥ ३६-३७॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

नरेश्वर! तत्पश्चात् दो घड़ीमें मूर्च्छा त्यागकर भीषण उठा और कहने लगा- ‘मेरे भयसे गद कहाँ भाग गया?’ अपने पुत्रको उठा देख उस नरभक्षी राक्षसको बड़ा हर्ष हुआ। वह बोलनेमें बहुत कुशल था। उसने बेटेको हृदयसे लगाकर उत्तम वचनोंद्वारा उसे आश्वासन दिया। महाराज! पिताको सहायताके लिये आया देख भीषणने प्रसन्नचित्त होकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ३८-४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘बकका आगमन’
नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

बीसवाँ अध्याय

बक और भीषणकी पराजय तथा यादवोंका घोड़ा
लेकर आकाशमार्गसे लौटना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर असुरोंके बीचमें खड़े होकर राक्षस बकने भीषणसे युद्धका अभिप्राय (कारण) पूछा- ‘बेटा! इन तिनकोंके समान यादवोंके साथ किसलिये युद्ध हुआ था, जिससे तुम मूच्छित हो गये और बहुत-से राक्षस मारे गये ? यह तो बड़े आश्वर्यकी बात है’ ॥ १-२ ॥

राजन् ! बकके इस प्रकार पूछनेपर भीषणने मुँह नीचे करके अश्वमेधके घोड़ेको पकड़ लानेके सम्बन्धमें सारी बात बतायी। पुत्रकी बात सुनकर बकने अपनी गदा ले ली और यादव सेनामें उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे जंगलमें दावानल प्रकट हो जाता है। जैसे सिंह सोये हुए मृगोंको रौंद डालता है, उसी प्रकार सामने आये हुए यादवोंको बकने दोनों पैरोंसे, हाथोंसे, भुजाओंसे और गदाके आघातसे कुचल डाला। वह घोड़ोंको पकड़कर आकाशमें फेंक देता था, हाथियों तथा रथोंकी भी यही दशा करता था। बलवान् बक युद्धमें मनुष्योंको अपना भक्ष्य बनाता हुआ जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। यदुकुलतिलक वज्रनाभ । उस राक्षसकी गर्जनासे लोकोंसहित सम्पूर्ण विश्व गूंज उठा। भूमण्डलकी जनमण्डली बहरी हो गयी। उसके इस विपरीत युद्धसे समस्त यादव हाहाकार करने लगे और मनमें अत्यन्त खिन्न हो गये। उस दुरात्मा राक्षससे अपनी सेनाको अत्यन्त पीड़ित होती देख प्रचण्ड पराक्रमी जाम्बवतीनन्दन साम्बने पाँच नाराच ले अपने धनुषपर रखकर तत्काल ही बकको लक्ष्य करके छोड़े। मानद नरेश। वे बाण उसके शरीरको विदीर्ण करते हुए तत्काल भूतलमें घुस गये और भोगवती गङ्गाका जल पीने लगे ॥ ३-११॥

राजन् । उन बाणोंके आघातसे बक पृथ्वीको कम्पित करता हुआ गिर पड़ा, किंतु पुनः उठकर मेघगर्जनाके समान सिंहनाद करने लगा। तब पुनः जाम्बवतीकुमारने उसे पाँच बाण मारे। उन बाणोंके आघातसे चक्कर काटता हुआ बक लङ्कामें जा गिरा। नरेश्वर! वहाँसे आकर उस राक्षसने अग्निके समान प्रज्वलित तीन शिखाओंवाले त्रिशूलको लेकर साम्बपर दे मारा, जैसे किसीने फूलसे हाथीपर आघात किया हो। त्रिशूलको आते देख साम्बने शीघ्र बाण मारकर अनायास ही युद्धस्थलमें उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, जैसे गरुडने किसी नागको छिन्न-भिन्न कर डाला हो। महाराज! तब रणदुर्मद बकने भारी गदा लेकर साम्बके घोड़ों और सारथिको मार डाला। फिर रथ और पताकाको भी चूर-चूर करके वह साम्बसे बोला- ‘तुम दूसरे रथपर बैठकर मेरे साथ युद्ध करो। इस समय तुम रथहीन हो, इसलिये रणभूमिमें मैं अधर्म या अन्यायसे तुम्हें नहीं मारूँगा’ ॥ १२-१७ ॥

उस दैत्यके ऐसा कहनेपर हँसते हुए साम्बने किंचित् कुपित होकर बककी कपाट जैसी छातीपर शीघ्र ही गदासे आघात किया। युद्धस्थलमें उस गदासे आहत हुआ बकमन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर वह साम्बकी कोई परवा न करके यादव-सेनामें जा घुसा। वहाँ पहुँचकर उस निशाचरने गदाके आघातसे बहुतसे हाथियों, घोड़ों, रथों और मनुष्योंको उसी तरह मार गिराया, जैसे मृगराज सिंह मृगोंके समुदायको धराशायी कर देता है। नृपेश्वर! उस समय यादव सेनामें हाहाकार मच गया। राजन् ! यह देख रुक्मवतीनन्दन अनिरुद्ध रोषपूर्वक एक अक्षौहिणी सेनाके साथ वहाँ आये और सबको अभय देते हुए बोले ॥ १८-२२॥

अनिरुद्धने कहा- रे मूढ़। तू वीरपुरुषका सामना छोड़कर क्या युद्ध करेगा? निशाचर ! भयभीतोंको मारनेसे तेरी प्रशंसा नहीं होगी। यदि तेरे शरीरमें शक्ति है तो मेरी बात सुन। मेरे सामने आकर यत्नपूर्वक युद्ध कर ॥ २३-२४॥

राजन् ! इस प्रकार अनिरुद्धकी बात सुनकर बकासुर रोषसे सर्पकी भाँति फुफकारता हुआ उनके सामने शीघ्र युद्धके लिये आया। युद्धस्थलमें उसे आया देख धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धने रोषपूर्वक उसे दस नाराच मारे। वे बाण शीघ्र ही उसके शरीरको छेदकर बाहर निकले और फिर भीषणको भी विदीर्ण करते हुए भूतलमें समा गये। तब भीषणसहित बक मूच्छित हो वज्रसे आहत हुए पर्वतके समान पृथ्वी- पर गिर पड़ा। उस समय यादव सेनामें जय-जयकार होने लगा। दुन्दुभियाँ बज उठीं, नगाड़े पीटे जाने लगे और शङ्खों तथा गोमुखोंकी ध्वनि होने लगी। अपने दोनों स्वामियोंको गिरा हुआ देख समस्त राक्षसोंका हृदय क्रोधसे भर गया। वे यादवोंको मारनेके लिये एक साथ ही उनपर टूट पड़े। फिर तो समराङ्गणमें दोनों सेनाओंके बीच घोर युद्ध होने लगा। बाण, खड्ग, गदा, शक्ति और भिन्दिपालोंद्वारा परस्पर आघात प्रत्याघात होने लगे। राजन्। राक्षसोंके तीव्र बलको देखकर श्रीहरिके साम्ब आदि अठारह पुत्र तीखे बाणोंद्वारा उनपर प्रहार करने लगे। वहाँ उन सबके बाणसमूहोंसे घायल हो बहुत से राक्षस युद्धस्थलमें सदाके लिये सो गये। कुछ तो मौतके मुखमें पड़ गये और कुछ जीवित रहनेकी इच्छासे मैदान छोड़कर भाग गये ॥ २५-३३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

राजन् ! तदनन्तर दो घड़ीके बाद उठकर भयंकर असुर बक तत्काल ही अपने शत्रु अनिरुद्धके सम्मुख गया। वहाँ जाकर बकने अपने हाथमें एक भारी गदा लेकर उसे अनिरुद्धके सिरपर फेंका और कहा- ‘लो अब तुम मारे गये।’ महाराज। उस गदाको अपने ऊपर आती देख अनिरुद्धने यमदण्डसे उसे उसी तरह चूर-चूर कर दिया, जैसे कटुवचनसे मित्रता नष्ट कर दी जाती है। तब क्रोधसे भरा हुआ बक अपना मुखमण्डल फैलाकर अनिरुद्धको खा जानेके लिये उनकी ओर दौड़ा, मानो राहुने कहीं चन्द्रमापर ग्रहण लगानेके लिये आक्रमण किया हो। उसे निकट आया देख धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धने फिर यमदण्ड उठाकर उससे उसके ऊपर आघात किया। राजन् ! उस आघातसे बकका मस्तक फट गया और वह मुखसे रक्त वमन करता तथा पृथ्वीको कँपाता हुआ मूच्छित होकर गिर पड़ा ॥ ३४-३९ ॥

वज्रनाभ! पिताको मूच्छित हुए देख भीषणने रणक्षेत्रमें परिघ लेकर यादवोंका संहार आरम्भ किया। तब बलवान् अनिरुद्धने रोषपूर्वक नागपाशसे भीषणको बाँधकर उसी प्रकार खींचा, जैसे गरुड सर्पको खींचते हैं। वरुणके पाशसे बँधकर उसने हतोत्साह होकर अपना मुँह नीचे कर लिया। उसे पराजित और बलहीन देख साम्ब बोले- “असुरेन्द्र ! तुम्हारा भला हो। तुम अपनी पुरीमें जाकर शीघ्र विधिपूर्वक अनिरुद्धके यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ेको लौटा दो। अनिरुद्ध महात्मा श्रीकृष्ण हरिके पौत्र हैं। ये घोड़ेकी रक्षाके बहाने मनुष्योंको अपने स्वरूपका दर्शन करानेके लिये विचर रहे हैं। देवता, दैत्य और मनुष्य सभी आकर इनके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। ये मनुष्योंके समस्त पापोंका नाश करनेवाले हैं। तुम इन्हें श्रीकृष्णके समान ही समझो। राक्षस ! ‘तुम युद्धमें श्रीकृष्णसे पराजित हुए हो’- ऐसा समझकर दुःख और चिन्ता त्याग दो और हमलोगोंके साथ श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये चलो” ॥ ४०-४६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 16 to 20)

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! साम्बके इस प्रकार समझाने और वरुणपाशसे मुक्त कर दिये जानेपर भीषणने पुरीमें जाकर वहाँसे द्रव्यराशिके साथ घोड़ा लाकर अनिरुद्धको लौटा दिया। तव अनिरुद्धने उससे भी अश्वकी रक्षाके लिये चलनेका अनुरोध किया। नरेश्वर! उनके इस प्रकार अनुरोध करनेपर भीषणने कुछ सोच-विचारकर उत्तर दिया ॥ ४७-४८ ॥

भीषणने कहा- ‘मेरे असुरपालक पिता जब सचेत हो जायेंगे, तब मैं उनकी आज्ञा लेकर आऊँगा, इसमें संशय नहीं है।’ भीषणके ऐसा कहनेपर प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्धने यादवसेनाके साथ यज्ञके घोड़ेको विमान- पर चढ़ा लिया और स्वयं भी उसपर आरूढ़ हो, वे आकाशमार्गसे चल दिये ॥ ४९-५० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘उपलङ्कापर विजय’
नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

यह भी पढ़े

शिव पुराण हिंदी में

वैदिक सूक्त संग्रह हिंदी में

विवेकचूडामणि

ब्रह्म संहिता हिंदी में

ऋग्वेद हिंदी में

108-उपनिषद हिंदी में

Share
0

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share
Share