Raghuvansh 9 Sarg
रघुवंश नवमः सर्ग | Raghuvansh 9 Sarg
॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य नवमः सर्गः ॥
संस्कृत कवि कालिदास द्वारा रचित “रघुवंश महाकाव्य” का नवम (Raghuvansh 9 Sarg) को मृगयावर्णन कहा गया है। इस सर्ग में राजा दशरथ के शासन, उनके विवाह, यज्ञ, वसंतोत्सव, और श्रवणकुमार की करुण कथा का हृदयस्पर्शी विवरण दिया गया है। राजा दशरथ ने अपने पिता के पश्चात उत्तर कोसल प्रांतों का शासन ग्रहण किया। इसमें दशरथ को इन्द्र के समान कहा गया, क्योंकि उन्होंने जल वर्षा (सिंचाई के लिए) और धन वर्षा (समृद्धि के लिए) के माध्यम से परिश्रम करने वालों की थकान दूर की। महाकवि कालिदास ने इस सर्ग में प्रकृति, मानवीय संवेदनाओं, और धर्म की गूढ़ बातों को अत्यंत सुंदर भाषा और शैली में प्रस्तुत किया है।
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॥ श्रीः रघुवंशम् ॥
पितुरनन्तरमुत्तरकोसलान्समधिगम्य समाधिजितेन्द्रियः ।
दशरथः प्रशशास महारथो यमवतामवतां च धुरि स्थितः ॥१॥
अर्थ:
संयम द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके, योगी और राजाओं में श्रेष्ठ, महारथी दशरथ ने अपने पिता के बाद उत्तर कोसल देश को प्राप्त किया और उसे गौरवान्वित रखा।
अधिगतं विधिवद्यदपालयत्प्रकृतिमण्डलमात्मकुलोचितम् ।
अभवदस्य ततो गुणवत्तरं सनगरं नगरन्ध्रकरौजसः ॥२॥
अर्थ:
प्राप्त हुए अपने कुलके योग्य नगरसहित, प्रजामंडलको, विधिपूर्वक जो ‘पालन किया इसीसे पर्वत॒में छिद्र करनेवाले (कार्तिकेय) के समान तेजस्वीका ( प्रजामंडल) अधिक गुणवान हुआ।
उभयमेव वदन्ति मनीषिणः समयवर्षितया कृतकर्मणाम्।
बलनिषूदनमर्थपतिं च तं श्रमनुदं मनुदण्डधरान्वयम् ॥३॥
अर्थ:
विद्वान् इन्द्र और मनु राजा के वंशवाले उस पृथ्वीपति इन दोही को अवसर पर वर्षा करने के कारण सुकर्मियों के श्रम मिटानेवाले कहते हैं।(Raghuvansh 9 Sarg)
जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः ।
क्षितिरभूत्फलवत्यजनन्दने शमरतेऽमरतेजसि पार्थिवे ॥४॥
अर्थ:
शान्तिमें तत्पर देवता के समान तेजस्वी अजनन्दनके घराधीश होनेपर देशमें रोगनेभी चरण न घरा और फिर शत्रुओंका भय तो कहां पृथ्वी फलवाली हुई।
दशदिगन्तजिता रघुणा यथा श्रियमपुष्यदजेन ततः परम् ।
तमधिगम्य तथैव पुनर्बभौ न न महीनमहीनपराक्रमम् ॥५॥
अर्थ:
पृथ्वीने जैसे दशदिशाओंके जीतनेवाले रघुसे और उसके उपरान्त अजसे अपनी शोभा वढाईथी, वैसेही उस महापराक्रमी राजाको प्राप्त हो शोभित हुई।
समतया वसुवृष्टिविसर्जनैनियमनादसतां च नराधिपः ।
अनुययौ यमपुण्यजनेश्वरौ सवरुणावरुणाग्रसरं रुचा ॥६॥
अर्थ:
महाराज दशरथ समान वर्तावसे धनवरसाने और क्ररोंको दंड देनसे वरुण सहित यम कुबेरके और तेजसे रविके अनुयायी हुए।
न मृगयाभिरतिर्न दुरोदरं न च शशिप्रतिमाभरणं मधु ।
तमुदयाय न वा नवयौवना प्रियतमा यतमानमपाहरत् ॥७॥
अर्थ:
वह राजा दशरथ जो उन्नति के लिए प्रयत्नशील था, न तो अधिक शिकार करने से, न जुए से, न चन्द्रमा की प्रतिमा से सुशोभित मदिरा से, न नवयुवती स्त्रियों से पराजित हुआ।
न कृपणा प्रभवत्यपि वासवे न वितथा परिहासकथास्वपि ।
न च सपत्नजनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता ॥८॥
अर्थ:
उस राजाने प्रभु होनेपर दीनताका वचन इन्द्रसेभी न कहा, तथा हँसीकी कथामेंभी असत्य न कहा और क्रोधशून्य (होनेसे) कठोर वचनका प्रयोग शत्रुओं- मैभी न किया।
उअदयमस्तमयं च रघूद्वहादुभयमानशिरे वसुधाधिपाः ।
स हि निदेशमलङ्घयतामभूत्सुहृदयोहृदयः प्रतिगर्जताम् ॥९॥
अर्थ:
राजाओंने उस रघुकुलपतिसे उदय और अस्त दोनोंकी प्राप्ति की, कारण कि वह आज्ञा उल्लंघन न करनेवालेका प्रिय और सामना करनेवालों को कठिन चित्त था।
अजयदेकरथेन स मेदिनीमुदधिनेमिमधिज्यशरासनः ।
जयमघोषयदस्य तु केवलं गजवती जवतीव्रहया चमूः ॥१०॥
अर्थ:
धनुर्धर ने एक ही रथ से समुद्र से लेकर समुद्र तक सारी पृथ्वी को जीत लिया, और उसके हाथियों और तेज घोड़ों की सेना केवल विजय का नारा लगा रही थी।
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अवनिमेकरथेन वरूथिना जितवतः किल तस्य धनुर्भृतः ।
विजयदुन्दुभितां ययुरर्णवा घनरवा नरवाहनसंपदः ॥११॥
अर्थ:
वरूथमान् (बैठनेवालेकी रक्षाकरनेवाले) एकही रथसे पृथ्वी के जय करने- वाले, धनुषधारी, कुचेरके तुल्य धनी, उस दशरथके मेघ के समान गर्जता हुआ सागर जीतका नगाड़ा बना।
शमितपक्षबलः शतकोटिना शिखरिणां कुलिशेन पुरंदरः ।
स शरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसाननः ॥१२॥
अर्थ:
इन्द्र ने अपने वज्र से पर्वतों के पंख नष्ट कर दिये और नवीन कमल के समान मुख वाले दशरथ ने बाणों की वर्षा करने वाले धनुष से शत्रुओं के पंख नष्ट कर दिये।(Raghuvansh 9 Sarg)
चरणयोर्नखरागसमृद्धिभिर्मुकुटरत्नमरीचिभिरस्पृशन् ।
नृपतयः शतशो मरुतो यथा शतमखं तमखण्डितपौरुषम् ॥१३॥
अर्थ:
सैकडों राजा महापराक्रमी दशरथको, इन्द्रको देवतोंके समान चरणके नखोंकी कांतिसे बढी कान्तिवाली मुकुटकी मणियोंकी प्रभासे चरणोंमें छूते हुए।
निववृते स महार्णवरोधसः सचिवकारितबालसुताञ्जलीन् ।
समनुकम्प्य सपत्नपरिग्रहाननलकानलकानवमां पुरीम् ॥१४॥
अर्थ:
वह दशरथ मंत्रियोंते कराई हुई बालकोंकी अंजली और अलकसंस्काररहित शत्रुओंकी नारियोंपर दया करके महासागरके किनारेसे अलका (कुवेरकी पुरी) के समान अपनी राजधानीको लौटा।
उपगतोऽपि च मण्डलनाभितामनुदितान्यसितातपवारणः ।
श्रियमवेक्ष्य स रन्ध्रचलामभूदनलसोऽनलसोमसमद्युतिः ॥१५॥
अर्थ:
अकेले श्वेतछत्रवाला, चन्द्रमा और अग्निके समान तेजस्वी, लक्ष्मीको छि- द्रद्वारा चलायमान होनेवाली देख वह दशरथ चक्रवर्ती होकरमी आलस्यरहित हुआ।
तमपहाय ककुत्स्थकुलोद्भवं पुरुषमात्मभवं च पतिव्रता ।
नृपतिमन्यमसेवत देवता सकमला कमलाघवमर्थिषु ॥१६॥
अर्थ:
पतिव्रता कमलहस्ता देवी (लक्ष्मी) याचकोंके आदर करनेवाले काकुत्स्थ- वंशमें उत्पन्न उस दशरथको तथा स्वयं होनेवाले पुरुष विष्णुको छोडकर और किसका सेवन करती थी ?
तमलभन्त पतिं पतिदेवताः शिखरिणामिव सागरमापगाः ।
मगधकोसलकेकयशासिनां दुहितरोऽहितरोपितमार्गणम् ॥१७॥
अर्थ:
पतिव्रता मगध कोसल और केकयदेशोंकी वेटियों ( सुमित्रा, कौसल्या, केकई) ने शत्रुओंपर बाणप्रहार करनेवाले दशरथको, पर्वतोंकी पुत्री नदियोंने सागर- के समान पति पाया।
प्रियतमाभिरसौ तिसृभिर्बभौ तिसृभिरेव भुवं सह शक्तिभिः ।
उपगतो विनिनीषुरिव प्रजा हरिहयोऽरिहयोगविचक्षणः ॥१८॥
अर्थ:
शत्रुओं का नाश करने में कुशल यह दशरथ इन्द्र के समान सुशोभित थे, जो तीन स्त्रियों से प्रजा की रक्षा करने के लिए तीनों शक्तियों के साथ पृथ्वी पर आये थे।
स किल संयुगमूर्ध्नि सहायतां मघवतः प्रतिपद्य महारथः ।
स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छ्रितं सुरवधूरवधूतभयाः शरैः ॥१९॥
अर्थ:
महारथी वह दशरथ रणभूभिमें इन्द्रका सहायक हो बाणोंसे भय मिटाई हुई देवाङ्गनाओंसे अपनी सुजाओंका प्रताप गवाता हुआ।(Raghuvansh 9 Sarg)
क्रतुषु तेन विसर्जितमौलिना भुजसमाहृतदिग्वसुना कृताः ।
कनकयूपसमुच्छ्रयशोभिनो वितमसा तमसासरयूतटाः ॥२०॥
अर्थ:
यज्ञ में अपना मुकुट उतारकर, अपने मूजों से दिशाओं से धन लाकर, अन्धकारमय गुणों से रहित दशरथ ने तमसा और सरयू के तटों को ऊँचे-ऊँचे स्वर्णमय स्तम्भों से सुशोभित किया।
अजिनदण्डभृतं कुशमेखलां यतगिरं मृगशृङ्गपरिग्रहाम् ।
अधिवसंस्तनुमध्वरदीक्षितामसमभासमभासयदीश्वरः ॥२१॥
अर्थ:
अष्टमूर्ति भगवान महादेव ने मृगचर्म और दण्ड धारण किए हुए, कुश का मेखला पहने हुए, मौन धारण किए हुए, मृग सींग लिए हुए, यज्ञ में दीक्षित होकर, विशेष अनुष्ठानों के साथ उनके (दशरथ के) शरीर में प्रवेश किया और उन्हें सुंदर तेज से अलंकृत किया।
अवभृथप्रयतो नियतेन्द्रियः सुरसमाजसमाक्रमणोचितः ।
नमयति स्म स केवलमुन्नतं वनमुचे नमुचेररये शिरः ॥२२॥
अर्थ:
यज्ञ स्नान से शुद्ध होकर, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले देवताओं की सभा में बैठने के योग्य होकर, उन्होंने अपना उच्च सिर केवल इन्द्र के समक्ष झुकाया, जो नमुचि (राक्षस) के हत्यारे थे और जिन्होंने जल की वर्षा की थी।
असकृदेकरथेन तरस्विना हरिहयाग्रसरेण धनुर्भृता ।
दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम् ॥२३॥
अर्थ:
एकरथी, बली, इन्द्रके आगे चलनेवाले, धनुषधारी दशरथने वहुतवार सूर्यके सम्मुख छाई हुई युद्धकी धूलि, दैत्योंके रुधिरसे दूर कर दी।
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अथ समाववृते कुसुमैर्नवैस्तमिव सेवितुमेकनराधिपम् ।
यमकुबेरजलेश्वरवज्रिणां समधुरं मधुरञ्चितविक्रमम् ॥२४॥
अर्थ:
वसन्त ऋतु आपके यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र, तथा धुरीधारी, पूज्य चक्रवर्ती दशरथ को भस्म करने के लिए ताजे फूलों के साथ आई।
जिगमिषुर्धनदाध्युषितां दिशं रथयुजा परिवर्तितवाहनः ।
दिनमुखानि रविर्हिमनिग्रहैर्विमलयन्मलयं नगमत्यजत् ॥२५॥
अर्थ:
कुबेर के निवास की (उत्तर) दिशा में जाने की इच्छा से सूर्यदेव अरुण के रथ को लौटाकर मलय पर्वत से चले गए और शरद ऋतु को हटाकर सुबह को उज्ज्वल कर दिया।
कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम् ।
इति यथाक्रममाविरभून्मधुर्द्रुमवतीमवतीर्य वनस्थलीम् ॥२६॥
अर्थ:
प्रथम फूलों का जन्म तिसके पीछे नवीन पल्लव तिस के पीछे भ्रमर और कोकिलाओं का शब्द इस प्रकार यथाक्रम से वन के वृक्षोंकी भूमिमें आकर वसन्त प्रगट हुआ।
नयगुणोपचितामिव भूपतेः सदुपकारफलां श्रियमर्थिनः ।
अभिययुः सरसो मधुसंभृतां कमलिनीमलिनीरपतत्रिणः ॥२७॥
अर्थ:
नीति के गुणों से बढाई, सत्पुरुषों के उपकार रूपी फलवाली, राजा की लक्ष्मी के निकट याचकों के समान, वसन्तसे पुष्ट की हुई सरोवर की कमलिनी के निकट भौरे और हंस आये।
कुसुममेव न केवलमार्तवं नवमशोकतरोः स्मरदीपनम् ।
किसलयप्रसवोऽपि विलासिनां मदयिता दयिताश्रवणार्पितः ॥२८॥
अर्थ:
ऋतु में खिलने वाला नया अशोक का फूल ही कामोद्दीपक नहीं था, अपितु स्त्रियों के कानों में रखा जाने वाला कलियों का गुच्छा, जो विलासिनी को मदहोश कर देता था, भी कामोद्दीपक था।
विरचिता मधुनोपवनश्रियामभिनवा इव पत्रविशेषकाः ।
मधुलिहां मधुदानविशारदाः कुरबका रवकारणतां ययुः ॥२९॥
अर्थ:
वसन्त ऋतु से उत्पन्न हुए उद्यान की शोभा में नवीन पत्ती की संरचना के समान स्थित मधु देने में चतुर कुर्वक (वृक्ष) मधुमक्खियों के गुंजन का कारण बन गया।(Raghuvansh 9 Sarg)
सुवदनावदनासवसंभृतस्तदनुवादिगुणः कुसुमोद्गमः ।
मधुकरैरकरोन्मधुलोलुपैर्बकुलमाकुलमायतपङ्क्तिभिः ॥३०॥
अर्थ:
कांता के मुख की मदिरा से उत्पन्न मौर (मौल) आसव के समान गुणकारी होने के कारण, बकुल के वृक्ष को मधु-शिकार करने वाले फूलों की बड़ी-बड़ी पंक्तियों से भर देता है।
उपहितं शिशिरापगमश्रिया मुकुलजालमशोभत किंशुके ।
प्रणयिनीव नखक्षतमण्डनं प्रमदया मदयापितलज्जया ॥३१॥
अर्थ:
बसन्त के आगमन की लक्ष्मी द्वारा पलाश में प्राप्त हुआ कलियों का गुच्छा मदसे लत्ता त्यागी जीका प्यारेको दिया हुआ नखक्षत के भूषण के समान शोभित हुआ।
व्रणगुरुप्रमदाधरदुःसहं जघननिर्विषयीकृतमेखलम् ।
न खलु तावदशेषमपोहितुं रविरलं विरलं कृतवान्हिमम् ॥३२॥
अर्थ:
बडे भावयुक्त होठों को दुस्सह और जंघाओं से मेखला का दूर कराने वाला शीत तबतक सूर्य से संपूर्ण नष्ट नहीं किया गया था किन्तु थोडा कर दिया था।
अभिनयान्परिचेतुमिवोद्यता मलयमारुतकम्पितपल्लवा ।
अमदयत्सहकारलता मनः सकलिका कलिकामजितामपि ॥३३॥
अर्थ:
रिझाने के व्यापारों में परिश्रम करनेवाली (वेश्या) के समान मलयाचल- के वायुसे हिलते हुए पत्तोंवाली कलियोंवाली आमकी लताने काम और क्लेश जीते हुओंका भी मन मत्त कर दिया।
प्रथममन्यभृताभिरुदीरिताः प्रविरला इव मुग्धवधूकथाः ।
सुरभिगन्धिषु शुश्रुविरे गिरः कुसुमितासु मिता वनराजिषु ॥३४॥
अर्थ:
मनोहर गंधिवाले वनके फूलों की पंक्तियों में कोकिलाओं के प्रथम ही कुछ कुछ उच्चारण किये आलाप सुग्धा नायिका की समान सुने गये।
श्रुतिसुखभ्रमरस्वनगीतयः कुसुमकोमलदन्तरुचो बभुः ।
उपवनान्तलताः पवनाहतैः किसलयैः सलयैरिव पाणिभिः ॥३५॥
अर्थ:
कानों के सुखदायक भौंरों के मधुरगुंजाररूपी गीत और पुष्परूपी कोमल दातों की कान्तिवाली उपवन के समीप की लता, पवन के कंपाये हुए नवीनपत्र्त्तासे भाव बताते हुए हाथों के समान शोभित हुई।
ललितविभ्रमबन्धविचेक्षणं सुरभिगन्धपराजितकेसरम् ।
पतिषु निर्विविशुर्मधुमङ्गनाः स्मरसखं रसखण्डनवर्जितम् ॥३६॥
अर्थ:
स्त्रियों ने मधुर विलासकराने में चतुर, मनोहर गन्ध से वकुल पुष्प के पराग का जीतने वाला, कामदेव का मित्र, मधु, पतियों में रसभंग रहित पान किया।
शुशुभिरे स्मितचारुतराननाः स्त्रिय इव श्लथशिञ्जितमेखलाः ।
विकचतामरसा गृहदीर्घिका मदकलोदकलोलविहंगमाः ॥३७॥
अर्थ:
खिले कमल और मधुर बोलने वाले जल में विहार करने वाले पक्षियों से युक्त घरका बावडी, मुस्कान से सुन्दर मुख और शब्द करती हुई ढीली कोंधनीबाली स्त्रियों की समान शोभित हुईं।
उपययौ तनुतां मधुखण्डिता हिमकरोदयपाण्डुमुखच्छविः ।
सदृशमिष्टसमागमनिर्वृतिं वनितयानितया रजनीवधूः ॥३८॥
अर्थ:
वसन्त ऋतु से विक्षुब्ध, चन्द्रोदय के समय श्वेत (श्वेत) मुख वाली वह स्त्री, जिसने रात्रि रूपी अपने प्रियतम के मिलन का आनन्द नहीं लिया, वह टूटी हुई स्त्री के समान ही क्षय को प्राप्त हुई।(Raghuvansh 9 Sarg)
अपतुषारतया विशदप्रभैः सुरतसङ्गपरिश्रमनोदिभिः ।
कुसुमचापमतेजयदंशुभिर्हिमकरो मकरोर्जितकेतनम् ॥३९॥
अर्थ:
चंद्रमाने तुषार न होने से निर्मल कान्ति वाली, सुरतसंग में उत्पन्न हुए परि- श्रमको दूर करने वाली, किरणों से मकर (मच्छ) की ऊंची ध्वजा वाले फूलों के धनुष- धारी (‘कामदेव) को प्रचण्ड किया।
हुतहुताशनदीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्य यत् ।
युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसरपेशलम् ॥४०॥
अर्थ:
हवनकी अग्निके समान कान्तिमान् (कर्णिकारका फूल) सुन्दर पखुरी और केशरयुक्त वनकी शोभाको धारे जो सोनेके भूषणोंके स्थानमें था, वह स्त्रियोंने मियोंसे पाकर अलकोंमें धारण किया।
अलिभिरञ्जनबिन्दुमनोहरैः कुसुमपङ्क्तिनिपातिभिरङ्कितः ।
न खलु शोभयति स्म वनस्थलीं न तिलकस्तिलकः प्रमदामिव ॥४१॥
अर्थ:
काजल के कणों के समान, सुन्दर फूलों की पंक्ति पर गिरनेवाले भौंरों से चिह्नित हुए तिलक वृक्षने, तिलकने कामिनीके समान वनस्थलीको शोभित किया ही।
अमदयन्मधुगन्धसनाथया किसलयाधरसंगतया मनः ।
कुसुमसंभृतया नवमल्लिका स्मितरुचा तरुचारुविलासिनी ॥४२॥
अर्थ:
वृक्ष की श्रेष्ठ वधू नवमल्लिका लताने मधुकी गंधसे युक्त हो कोपलरूपी होठों- पर पड़ी फूलोंसे रचीहुई मधुर मुसकानसे मनको मत्तकिया।
अरुणरागनिषेधिभिरंशुकैः श्रवणलब्धपदैश्च यवाङ्कुरैः ।
परभृताविरुतैश्च विलासिनः स्मरबलैरबलैकरसाः कृताः ॥४३॥
अर्थ:
विलासी पुरुषों को, लालरंग को, तिरस्कार करने वाले वस्त्रों ने और कानों में रक्खे हुए यदाकुरोंने, कोपलोंकी कूकरूपी कामदेवकी सेनाने स्त्रीके रसमें अनुरक्त करदिया।
उपचितावयवा शुचिभिः कणैरलिकदम्बकयोगमुपेयुषी ।
सदृशकान्तिरक्ष्यत मञ्जरी तिलकजालकजालकमौक्तिकैः ॥४४॥
अर्थ:
उज्ज्वल पराग के कणों से पुष्ट हुई, भौरों के समाज को प्राप्त हुई, तिलकदृक्षकी मंजरी, वालों के समूह में गुथे हुए मोतियों के सदृश दीप्तिमान् दिखाई दी।
ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भृतश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः ।
कुसुमकेसररेणुमलिव्रजाः सपवनोपवनोत्थितमन्वयुः ॥४५॥
अर्थ:
भौंरों के समूह धनुषधारण करनेवाले कामकी ध्वजारूप ऋतुश्रीके मुखको सुन्दर करनेवाले, चूर्ण (कुंकुम) के उपवनकी वायुके साथ उठीहुई फलोंके केसर- की रजके पछि गये।
अनुभवन्नवदोलमृतूत्सवं पटुरपि प्रियकण्ठजिघृक्षया ।
अनयदासनरज्जुपरिग्रहे भुजलतां जलतामबलाजनः ॥४६॥
अर्थ:
नवे झूले का ऋतु उत्सव करती हुई स्त्रियोंने चतुर होकर भी प्रिय के कंठ आलिंगनकी इच्छाते आसन रस्सीके धारण करने में भुजलता ढीली करदी।
त्यजत मानमलं बत विग्रहैर्न पुनरेति गतं चतुरं वयः ।
परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः ॥४७॥
अर्थ:
खियो मानको त्याग करो विरोध रहने दो नवीन गई हुई अवस्था फिर नहीं याती, इसप्रकार कामका अभिप्राय कोकिलाओंके निवेदन करनेपर वधूजनोंने रमण किया।
अथ यथासुखमार्तवमुत्सवं समनुभूय विलासवतीसखः ।
नरपतिश्चकमे मृगयारतिं स मधुमन्मधुमन्मथसंनिभः ॥४८॥
अर्थ:
तच मधुमूदन (विष्णु) वसन्त और कामदेव के समान स्त्रियों के सखा दश- रथने ऋतु संबंधी सुख भोगकर मृगयाविहार की इच्छा की। (Raghuvansh 9 Sarg)
परिचयं चललक्ष्यनिपातने भयरुचोश्च तदिङ्गितबोधनम् ।
श्रमजयात्प्रगुणां च करोत्यसौ तनुमतोऽनुमतः सचिवैर्ययौ ॥४९॥
अर्थ:
यह मृगया चलतेहुए मृगोंके मारनेमें निपुण करती है, उनमें भय और क्रोधके लक्षण दिखाती है, श्रम जीतने के कारण शरीरको श्रेष्ठगुणवाला करती है, इस कारण मंत्रियोंकी सम्मतिसे वह गया।
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मृगवनोपगमक्षमवेषभृद्विपुलकण्ठनिषक्तशरासनः ।
गगनमश्वखुरोद्धतरेणुभिर्नृसविता स वितानमिवाकरोत् ॥५०॥
अर्थ:
मृगों के वनमें गमन योग्य वेपधारे, बडे कंधेपर धनुषधरे, मनुष्यरूपी सूर्य उस (राजा) ने घोडोंके खुरोंकी उठाई रजसे आकाशको चंदोवा तनाहुआसा किया।
ग्रथितमौलिरसौ वनमालया तरुपलाशसवर्णतनुच्छदः ।
तुरगवल्गनचञ्चलकुण्डलो विरुरुचे रुरुचेष्टितभूमिषु ॥५१॥
अर्थ:
वनके फूलोंकी मालासे गुथे जूडेवाला, वृक्षोंके पत्तोंके वर्णके समान कवचवाला घोडेकी शीघ्रगतिसे चलायमान कुंडलवाला, यह दशरथ रुरु जातिवाले मृगोंसे खूंदी हुई पृथ्वीमें शोभित हुआ।
तनुलताविनिवेशितविग्रहा भ्रमरसंक्रमितेक्षणवृत्तयः ।
ददृशुरध्वनि तं वनदेवताः सुनयनं नयनन्दितकोसलम् ॥५२॥
अर्थ:
छोटी लताओंमें शरीर छिपाये भौरोंमें आंखोंकी वृत्ति लगाये, वनदेवताओंने अच्छे नेत्रवाले तथा नीतिसे कोसलदेशको प्रसन्न करनेवाले राजा दशरथको मार्गमें देखा।
श्वगणिवागुरिकैः प्रथमास्थितं व्यपगतानलदस्यु विवेश सः ।
स्थिरतुरंगमभूमि निपानवन्मृगवयोगवयोपचितं वनम् ॥५३॥
अर्थ:
वह दशरथ कुत्तोंके रक्षकों और जाल रखनेवालोंके पहले प्राप्त हुए चोर और अग्निसे रहित घोडोंके योग्य कठिन भूमिवाले सरोवरोंसे युक्त मृग पक्षी और रोजोंसे पूर्ण वनमें प्रविष्ट हुआ।
अथ नभस्य इव त्रिदशायुधं कनकपिङ्गतडिद्गुणसंयुतम् ।
धनुरधिज्यमनाधिरुपाददे नरवरो रवरोषितकेसरी ॥५४॥
अर्थ:
तव मनके दुःखसे रहित मनुष्योंमें श्रेष्ठ धनुपके टंकारसे मृर्गोको क्रोध दि लानेवाले राजाने सुवर्णकी समान पीली विजलीकी मौर्वी संयुक्त इन्द्रका धनुष भाद्रपद (मास) के समान ग्रहण किया।
तस्य स्तनप्रणयिभिर्मुहुरेणशावै – र्व्याहन्यमानहरिणीगमनं पुरस्तात् ।
आविर्बभूव कुशगर्भमुखं मृगाणां यूथं तदग्रसरगर्वितकृष्णसारम् ॥५५॥
अर्थ:
धनों के पान की इच्छा करने वाले वच्चों से वारंवार गति रुकी मृगियों से युक्त, मुख में घास भरे हुए, आगे चलतेहुए अभिमानी कृष्णसारखाला मृगसमूह, उस दशरथ के आगे दिखाई दिया।
तत्प्रार्थितं जवनवाजिगतेन राज्ञा तूणीमुखोद्धृतशरेण विशीर्णपङ्क्ति ।
श्यामीचकार वनमाकुलदृष्टिपातै – र्वातेरितोत्पलदलप्रकरैरिवार्द्रैः ॥५६॥
अर्थ:
शीघ्र चलनेवाले घोडेपर चढे निपंगके मुखसे तीर निकालतेहुए दशरथका घुडका बौर पंक्तिभ्रष्ट हुआ वह झुंड आंसुओंसे भींजी भयव्याकुल दृष्टियोंसे. पवनके हिलाये हुए नीलकमल की पखरियोंके ढेरके समान वनको कृष्णवर्ण करता हुआ।
लक्ष्यीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम् ।
आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसंजहार ॥५७॥
अर्थ:
इन्द्रके समान पराक्रमी धनुषधारी राजाने लक्ष्य (निशाना) को प्राप्तहुए हरि- णका शरीर ओटमें लेकर स्थित हुई हरिणीको देख कामीपनके कारण कृपापूर्ण हृदय हो कर्णपर्यंत खेंचाहुआ भी वाण उतार लिया।
तस्यापरेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोः कर्णान्तमेत्य बिभिदे निबिडोऽपि मुष्टिः ।
त्रासातिमात्रचटुलैः स्मरतः सुनेत्रैः प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि ॥५८॥
अर्थ:
भय से अत्यन्त चंचल सुन्दरनेत्रों से चतुर प्रियाके नेत्रोंके कटाक्षका स्मरण करके दूसरे मृगोंपर शर त्यागने की इच्छा करनेवाले की कठोर मुट्ठीभी कानतक पहुंच- कर ढीली होगई।
उत्तस्थुषः सपदि पल्वलपङ्कमध्या – न्मुस्ताप्ररोहकवलावयवानुकीर्णम् ।
जग्राह स द्रुतवराहकुलस्य मार्गं सुव्यक्तमार्द्रपदपङ्क्तिभिरायताभिः ॥५९॥
अर्थ:
उस राजा ने मोथेके अंकुरोंके ग्राससे व्याप्त, बडे भीजे पैराकी पंक्तिसे सहज दिखाई देनेवाला तत्काल छोटे सरोवरोंकी कीचसे निकलकर भागेहुए वराहयूथका मार्ग लिया।
तं वाहनादवनतोत्तरकायमीष – द्विध्यन्तमुद्धृतसटाः प्रतिहन्तुमीषुः ।
नात्मानमस्य विविदुः सहसा वराहा वृक्षेषु विद्धमिषुभिर्जघनाश्रयेषु ॥६०॥
अर्थ:
सूकरों ने वाहन (घोडे) से आगे का शरीर कुछ झुकायेहुए, बाणसे बेचतें- हुए, उस राजा को खडे केश कर मारने की इच्छा करते ही अपने को इस राजाके बाणोंसे जंवा लगायेहुए वृक्षोंमें विधा हुआ सहसा न जाना।(Raghuvansh 9 Sarg)
तेनाभिघातरभसस्य विकृष्य पत्री वन्यस्य नेत्रविवरे महिषस्य मुक्तः ।
निर्भिद्य विग्रहमशोणितलिप्तपुङ्ख – स्तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात् ॥६१॥
अर्थ:
शीघ्रतासे मारनेको आतेहुए वनके भैंसेकी आखोंके वीचमें उस राजासे बैंचकर छोडाहुआ वाण उसके शरीरको विदीर्ण करके पूंछमें रुधिर विना लगाहीं “पहले उसे गिराताहुआ, पीछे आप गिरा।
प्रायो विषाणपरिमोक्षलघूत्तमाङ्गा – न्खड्गांश्चकार नृपतिर्निशितैः क्षुरप्रैः ।
शृङ्गं स दृप्तविनयाधिकृतः परेषा – मत्युच्छ्रितं न ममृषे न तु दीर्घमायुः ॥६२॥
अर्थ:
राजा दशरथने तीक्ष्णवाणोसे खङ्ग नामक मृगोंके सींग काटकर उनके शिर हलके कर दिये, अहंकारियोंको दमन करनेमें उद्यत वह राजा वैरियोंकी उन्नतिको न – सह सका, न कि वडी आयुको।
व्याघ्रानभीरभिमुखोत्पतितान्गुहाभ्यःफुल्लासनाग्रविटपानिव वायुरुग्णान् ।
शिक्षाविशेषलघुहस्ततया निमेषा – त्तूणीचकार शरपूरितवक्त्ररन्ध्रान् ॥६३॥
अर्थ:
भयरहितं उस धनुषधारीने गुफाओंके सन्मुख आतेहुए वायुसे गिराई सर्ज- वृक्षकी फूली शाखाके समान स्थित हुए सिंहोंके मुखोंको हाथके हलकेपनके अभ्याससे क्षणमात्रमें वाणोंसे भरेहुये तरकस बना दिये।
निर्घातोग्रैः कुञ्जलीनाञ्जिघांसुर्ज्यानिर्घोषैः क्षोभयामास सिंहान् ।
नूनं तेषामभ्यसूयापरोऽभूद्वीर्योदग्रे राजशब्दो मृगेषु ॥६४॥
अर्थ:
कुंजोंमें शयनकरते हुए सिंहोंके मारनेकी इच्छावालेने विजलीकी कडक के समान भयंकर शव्द करनेवाली ज्याकी टंकारोंसे उनको क्रोधित किया, कारण कि पशुओंमें पराक्रमसे पाई हुई उनकी राजपदवी पर उसे ईर्षा थी।
तान्हत्वा गजकुलबद्धतीव्रवैरान्काकुत्स्थः कुटिलनखाग्रलग्नमुक्तान् ।
आत्मानं रणकृतकर्मणां गजानामानृण्यं गतमिव मार्गणैरमंस्त ॥६५॥
अर्थ:
दशरथने हाथियोंके वंशसे महावैर रखनेवाले, मोती लगेहुए कुटिल नख- वाले सिंहोंको मार कर अपनेको युद्धमें उपकार करनेवाले हाथियोंकी उऋणताको बांणोंद्वारा प्राप्त हुआसा माना।
चमरान्परितः प्रवर्तिताश्वः क्वचिदाकर्णविकृष्टभल्लवर्षी ।
नृपतीनिव तान्वियोज्य सद्यः सितबालव्यजनैर्जगाम शन्तिम् ॥६६॥
अर्थ:
एक समय चमरी मृगोंपर घोडा दौडाकर कानतक खेंचकर भाले वर्षानेवाले उस राजाने राजोंके समान उनको श्वेतचामरोंसे हीन करके तत्काल शान्ति पाई।
अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिरकलापं बाणलक्ष्यीचकार ।
सपदि गतमनस्कश्चित्रमाल्यानुकीर्णे रतिविगलितबन्धे केशपाशे प्रियायाः ॥६७॥
अर्थ:
उस राजाने घोडेके समीपसे उडतेहुएभी अच्छी पूंछवाले मोरको, चित्रविचित्र -मालासे गुंथेहुए क्रीडासमय बंधन खुलेहुए प्रियाके केशपाशमें मन लगानेके कारण बाणका लक्ष्य (निशाना) न किया।
तस्य कर्कशविहारसंभवं स्वेदमाननविलग्नजालकम् ।
आचचाम सतुषारशीकरो भिन्नपल्लवपुटो वनानिलः ॥६८॥
अर्थ:
उसके कठिन परिश्रमसे उत्पन्न हुए सुखपर छायेहुए पसीनेके समूहको शीतलजलके कंणोंवाली पत्तोंकी कली खोलनेवाली वनकी वायुने सुखा दिया।
इति विस्मृतान्यकरणीयमात्मनः सचिवावलम्बिधुरं धराधिपम् ।
परिवृद्धरागमनुबन्धसेवया मृगया जहार चतुरेव कामिनी ॥६९॥
अर्थ:
इस प्रकार अपने और सब कार्य विसारेहुए, मंत्रियोंपर (पृथ्वीका) भार सौंपेहुए, निरन्तर सेवासे प्रेम बढेहुए, राजा दशरथको मृगया (आखेट) ने चतुर स्त्रीके समान वश किया।
स ललितकुसुमप्रवालशय्यां ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम् ।
नरपतिरतिवाहयांबभूव क्वचिदसमेतपरिच्छदस्त्रियामाम् ॥७०॥
अर्थ:
उस राजाने मनोहर फूलपत्तोंकी शय्यावाली, प्रकाशमान औपधियोंके दीप– कवाली, रात्रि कभी २ सेवकोंके विना भी बिताई।
उषसि स गजयूथकर्णतालैः पटुपटहध्वनिभिर्विनीतनिद्रः ।
अरमत मधुराणि तत्र शृण्वन्विहगविकूचितबन्दिमङ्गलानि ॥७१॥
अर्थ:
प्रातःकाल अच्छे नगाडोंके समान शब्द करती हुई, हाथियोंके समूहोंकी कर्णतालकी ध्वनिसे जागेहुए उस ने उस वनमें पक्षियोंके उच्चारणकिये बंदियोंकी समान मंगल गीत सुनकर चित्त लगाया।
अथ जातु रुरोर्गृहीतवर्त्मा विपिने पार्श्वचरैरलक्ष्यमाणः ।
श्रमफेनमुचा तपस्विगाढां तमसां प्राप नदीं तुरंगमेण ॥७२॥
अर्थ:
इसके बाद एक समय रुरु मृगका पीछा करतेहुए वनमें अनुचरोंसे पृथक् होकर श्रभि- तहोनेसे पसीनोंके फेन त्यागतेहुए घोडे सहित वह, तपस्वियोंसे सेवित तमसानदी पर- उपस्थित हुआ।
कुम्भपूरणभवः पटुरुच्चैरुच्चचार निनदोऽम्भसि तस्याः ।
तत्र स द्विरदबृंहितशङ्की शब्दपातिनमिषुं विससर्ज ॥७३॥
अर्थ:
उस तमसा के जल में घड़ा भरने से उत्त्पन्न हुए मधुर शब्द पर उप्त राजा ने हाथी की गाज की भ्रांति से शब्दवेधी बाण छोड़ा।
नृपतेः प्रतिषिद्धमेव तत्कृतवान्पङ्क्तिरथो विलङ्घ्य यत् ।
अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः ॥७४॥
अर्थ:
वह कर्म राजोंको निषिद्ध ही था जो (गजवधरूप) कर्म दशरथने (शास्त्र) उल्लंघनकर किया, सत्य है विद्वान्भी रजोगुणमें लिप्त हो कुमार्ग में पद रखते हैं।(Raghuvansh 9 Sarg)
हा तातेति क्रन्दितमाकर्ण्य विषण्ण – स्तस्यान्विष्यन्वेतसगूढं प्रभवं सः ।
शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तःशल्य इवासीत्क्षितिपोऽपि ॥७५॥
अर्थ:
है पिता इस प्रकार रोना सुनकर दुःखको प्राप्त हो उसका वेतोंमें छिपा हुआ कारण ढूंढता २ वाणते घडे सहित सुनिपुत्रको विधा देख वह राजा भी उस दुःखसे हृदयमै वाण लगेहुए सा हुआ।
तेनावतीर्य तुरगात्प्रथितान्वयेन पृष्टान्वयः स जलकुम्भनिषण्णदेहः ।
तस्मै द्विजेतरतपस्विसुतं स्खलद्भि – रात्मानमक्षरपदैः कथयांबभूव ॥७६॥
अर्थ:
विख्यात वंशवाले राजाक घोडेसे उतरकर वंश पूछनेपर जलके घड़ेपर देह रख्खे हुए उसने स्खलित अक्षरोंसे अपनेको ब्राह्मणसे इतर जातके तपस्वीका पुत्र बताया।
तच्चोदितः स तमनुद्धृतशल्यमेव पित्रोः सकाशमवसन्नदृशोर्निनाय ।
ताभ्यां तथागतमुपेत्य तमेकपुत्रमज्ञानतः स्वचरितं नृपतिः शशंस ॥७७॥
अर्थ:
उसीके कहनेसे दशरथने वाण छिदेहुए ही उस मुनिपुत्रको उसके अंधे माता पिताके समीप प्राप्त किया, और ऊपर वर्णन की हुई अवस्थामें उस इकलौते पुत्रके संग बेसुधीमें किये अपने वृत्तान्तको उनसे कहा।
तौ दंपती बहु विलप्य शिशोः प्रहर्त्रा शल्यं निखातमुदहारयतामुरस्तः ।
सोऽभूत्परासुरथ भूमिपतिं शशाप हस्तार्पितैर्नयनवारिभिरेव वृद्धः ॥७८॥
अर्थ:
उन दोनों स्त्री पुरुषोंने बहुत प्रकारसे विलाप करके पुत्रकी छातीमें छिदे हुए वाणको प्रहार करनेवालेहीसे निकलवाया, कि उसने प्राण छोडदिये, तव वृद्धने हाथोंपर गिरेहुए आंसुओंके जलसे ही राजाको शाप दिया।(Raghuvansh 9 Sarg)
दिष्टान्तमाप्स्यति भवानपि पुत्रशोका – दन्त्ये वयस्यहमिवेति तमुक्तवन्तम् ।
आक्रान्तपूर्वमिव मुक्तविषं भुजंगं प्रोवाच कोसलपतिः प्रथमापराद्धः ॥७९॥
अर्थ:
हे राजन् तुमभी वृद्धावस्थामें मेरे समान पुत्रशोकसे मृत्यु पाओगे इस प्रकार कहतेहुए, प्रथम पैरसे दद्वायेहुए, विषत्यागते सर्पके समान उसको प्रथम अपराधी कोशलदेशके राजाने कहा।
शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभेसानुग्रहो भगवता मयि पातितोऽयम् ।
कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो बीजप्ररोहजननीं ज्वलनः करोति ॥८०॥
अर्थ:
सन्तान के मुखकमल की छबि न देखने वाले मुझको तुमने यह शाप भी दया- करके मंदान किया है, ईंधनसे वढाई हुई अग्नि खेतको जलाकर वीज़ांकुर उत्पन्न करनेवाला करती है।
इत्थं गते गतघृणः किमयं विधत्तां वध्यस्तवेत्यभिहितो वसुधाधिपेन ।
एधान्हुताशनवतः स मुनिर्ययाचे पुत्रं परासुमनुगन्तुमनाः सदारः ॥८१॥
अर्थ:
यह वृत्तान्त होनेपर राजाके “तुमसे मारे जाने योग्य इस. कठोर जनको क्या करना चाहिये ” ऐसा कहनेपर, वह मुनि मार्यासहित मरे पुत्रके पीछे जानेकी इच्छासे ईंधन और अग्नि मांगता हुआ।
प्राप्तानुगः सपदि शासनमस्य राजा संपाद्य पातकविलुप्तधृतिर्निवृत्तः ।
अन्तर्निविष्टपदमात्मविनाशहेतुंशापं दधज्ज्वलनमौर्वमिवाम्बुराशिः ॥८२॥
अर्थ:
सेवकों को पाकर राजा शीघ्र इसकी आज्ञा करके पातक करने से धीरता त्यागे, हृदय में स्थान पायेहुए, अपने विनाश के कारण उस शापको मानो ‘वडवानल- को ससुद्रके समान’ धारेहुए लौटा। (Raghuvansh 9 Sarg)
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ मृगयावर्णनो नाम नवमः सर्गः ॥
रघुवंशमहाकाव्य ‘मृगयावर्णन नामक नवम सर्ग समाप्त हुआ ॥९॥
नवमः सर्ग (Raghuvansh 9 Sarg) की कथा:
राजा दशरथ ने उत्तर कोसल पर सफलतापूर्वक शासन किया। उनके शासन में इन्द्र के समान जल और धनवर्षा के माध्यम से परिश्रमियों की थकावट दूर हुई। उनके राज्य में कोई रोग या शत्रु भय नहीं था, जो उनके कुशल शासन और प्रजा कल्याण को दर्शाता है। मनीषियों ने राजा को देवताओं के समान मानकर उनकी प्रशंसा की, जो उनके शासन की उत्कृष्टता को दर्शाता है। राजा दशरथ ने मगध, कोसल और केकय की राजकुमारियों से विवाह किया। उन्होंने अनेक यज्ञ आयोजित किए, जो उनके धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को प्रदर्शित करते हैं।
वसन्त ऋतु के आगमन और वसन्तोत्सव का वर्णन अत्यंत मनोरम है, जो न केवल प्रकृति के सौंदर्य को बल्कि उस समय की सांस्कृतिक परंपराओं को भी उजागर करता है। एक बार शिकार के दौरान राजा दशरथ तमसा नदी के किनारे पहुंचे। रात में उन्होंने हाथी के जल पीने की आवाज समझकर शब्दवेधी बाण चलाया। बाण चलने पर राजा ने “हाय पिता” की आवाज सुनी। वहां पहुंचकर देखा कि वह बाण एक तपस्वी कुमार को लग गया था। श्रवणकुमार ने बताया कि वह अंधे माता-पिता के लिए पानी लेने आया था। वह करण जाति का था और अपने माता-पिता की सेवा करता था।
श्रवणकुमार के माता-पिता की पीड़ा और उनके द्वारा राजा को दिया गया शाप कथा का एक भावनात्मक और शिक्षाप्रद पक्ष है। अन्धे मुनि द्वारा राजा को पुत्रशोक का शाप दिया गया, जो उनके जीवन के सबसे बड़े दुःख का कारण बना। राजा दशरथ ने इस शाप को स्वीकार कर अपनी त्रुटि को अज्ञान का परिणाम माना।
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