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Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 46 से 50 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50) के छियालीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण के आगमन से गोपियों को उल्लास; श्रीहरि के वेणुगीत की चर्चा से श्रीराधा की मूर्च्छा का निवारण; श्रीहरि का श्रीराधा आदि गोपसुन्दरियों के साथ वन-विहार, स्थल-विहार, जल-विहार, पर्वत-विहार और रासक्रीडा का वर्णन है। सैंतालीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण सहित यादवों का व्रजवासियों को आश्वासन देकर वहाँसे प्रस्थान करने का वर्णन कहा गया है। अड़तालीसवाँ अध्याय में अश्वका हस्तिनापुरी में जाना; उसके भालपत्र को पढ़कर दुर्योधन आदिका रोषपूर्वक अश्व को पकड़ लेना तथा यादव सैनिकोंका कौरवों को घायल करना कहा है। उनचासवाँ अध्याय में यादवों और कौरवों का घोर युद्ध और पचासवाँ अध्याय में कौरवों की पराजय और उनका भगवान श्रीकृष्ण से मिलकर भेंट सहित अश्व को लौटा देना का वर्णन कहा है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छियालीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण के आगमन से गोपियों को उल्लास; श्रीहरि के वेणुगीत की चर्चा से श्रीराधा की
मूर्च्छा का निवारण; श्रीहरि का श्रीराधा आदि गोपसुन्दरियों के साथ वन-विहार,
स्थल-विहार, जल-विहार, पर्वत-विहार और रासक्रीडा

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णको आया देख वे सब गोपसुन्दरियाँ हर्षसे उल्लसित होकर उठीं और दुःख त्यागकर जय-जयकार करने लगीं। श्रीराधा मूर्च्छामें ही पड़ी थीं। उनकी अवस्था देख गोपाङ्गनाओंके प्रार्थना करनेपर श्रीहरि उन्हें होशमें लानेके लिये उस व्रजभूमिमें वंशीनाद करने लगे। तब भी राधिका नहीं उठीं। यह देख श्रीराधावल्लभ हरि उन्हें बार-बार वेणुगीत सुनाने लगे। राजन्। वह गीत सुनकर श्रीराधा उठीं; किंतु वियोगजनित दुःखका स्मरण करके माधवके देखते-देखते फिर मूच्छित हो गयीं। तब श्रीकृष्णके वेणुगीतसे प्रसन्न हुई चन्द्रानना नामवाली सखी उनका आदेश पाकर तत्काल चन्द्रावलीके प्रति श्रीराधाको ही सम्बोधित करके बोलीं- ॥ १-५॥

चन्द्राननाने कहा- हे राधे! जो श्रीकृष्णचन्द्र पहले तुम्हारे मानसे रूठकर चले गये थे, वे मानो एक युगके बाद फिर आ गये हैं। उन्हीं देवकीनन्दनने तुम्हारे समस्त दुःखोंका नाश करनेके लिये निकट बैठकर वेणु बजाते हुए गीत गाया है। रासके रमणीय प्राङ्गणमें कुंग-कुंग ध्वनिके साथ मधुर स्वरमें मृदङ्ग बजाया जा रहा है और देवाङ्गनाओंसे सेवित देवकी- नन्दन माधव नृत्य करते हुए वेणुगीत सुना रहे हैं। वे मनोहर सुवर्णकी-सी कान्तिवाले पीताम्बरसे सुशोभित हैं। उनके वक्षःस्थलमें वैजयन्तीकी मालाएँ शोभा दे रही हैं। उन देवकीनन्दनने नन्दके वृन्दावनमें गोपिका- मण्डलीके मध्यमें विराजमान होकर वेणु बजाते हुए गीत गाया है। मनोहर चन्द्रावलीके लोचनोंसे चुम्बित, गोप, गौओं तथा गोपाङ्गनाओंके वल्लभ और कंस- वंशरूपी वनको जलानेके लिये दावानलरूप देवकी- नन्दनने वेणु बजाते हुए गीत गाया है। गोपबालिकाएँ ताली बजाकर ताल दे रही हैं और उस ताल-लीलाके लयके साथ-साथ जो अपनी भूलताओंका विभ्रम- विलास प्रदर्शित कर रहे हैं, वे देवकीनन्दन गोपाङ्गनाओंके गीतोंकी ओर ध्यान देकर स्वयं भी वेणु बजाते हुए गा रहे हैं। देवि! जो तुम्हारे प्रेमी हैं, उन परमसुन्दर नन्दराजकुमार देवकीनन्दनने मुकुट, माला, बाजूबंद, करधनी और कुण्डल आदि आभूषणोंसे विभूषित हो तुम्हारी प्रसन्नताके लिये वेणुगीत आरम्भ किया है। जिन श्रीराधावल्लभने सत्यभामाके भयसे स्वर्गीय पारिजात उखाड़कर उनके आँगनमें लगा दिया है, गोपाङ्गनाओं और देवाङ्गनाओंके कामपूरक उन देवकीनन्दनने वेणुद्वारा गीत गाया है। जिन्होंने ऋक्षराजको जीतकर उनके यहाँसे स्यमन्तकमणि ले आकर भयभीतकी भाँति भूमिनाथ उग्रसेनको अर्पित की थी, वे ही रासेश्वर देवकीनन्दन आज रासमण्डलमें पधारकर वेणुके स्वरोंमें गीत गा रहे हैं ॥६-१३॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

श्रीगगंजी कहते हैं- राजन् । वेणु बजानेवाले श्यामसुन्दरकी महिमाका वर्णन सुनकर प्रिया श्रीराधा प्रसन्न होकर उठीं और उन्होंने प्रियतमका गाढ़ आलिङ्गन किया। तत्पश्चात् वृन्दावनाधीश्वर गोविन्द वृन्दावनमें वृन्दावनवासिनी प्राणवल्लभाके साथ उस वनके वृक्षोंकी शोभा देखते हुए विहार करने लगे। नृपश्रेष्ठ। तदनन्तर व्रजकी युवतियोंने सब ओरसे श्रीकृष्णको उसी तरह जा पकड़ा, जैसे वर्षाकालमें चपलाएँ मेघको घेर लेती हैं। राजन् ! वहाँ जितनी गोपियाँ विद्यमान थीं, उतने ही रूप धारण करके श्यामसुन्दर उन सबके साथ यमुनापुलिनपर आये। जैसे पूर्वकालमें श्रुतियाँ भगवान्से मिलकर प्रसन्न हुई थीं, उसी प्रकार गोपाङ्गनाएँ श्यामसुन्दरके साथ परम आनन्दका अनुभव करने लगीं। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्रको अपने-अपने वस्त्रोंका आसन दिया। राजन् ! उस आसनपर श्रीराधारमण नन्दनन्दन राधाके साथ बैठे। अहो! उन गोपसुन्दरियोंने अपनी भक्तिसे भगवान को वशमें कर लिया था। श्रीकृष्णने गोलोकमें जैसा रूप दिखाया था, वैसा ही त्रिभुवनमोहन रूप उन्होंने उस समय राधा- सहित गोपाङ्गनाओंके समक्ष प्रकट किया। गोकुलचन्द्रका वह परम अद्भुत सुन्दर रूप देखकर गोपसुन्दरियाँ ब्रह्मानन्दमें निमग्न हो अपने-आपमें भूल गयीं ॥ १४-२१ ॥

उनके साथ स्थलमें विहार करके उनकी भक्तिके वशीभूत हुए श्यामसुन्दरने श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके साथ यमुनाके जलमें प्रवेश किया। भगवान्ने वहाँ उन व्रजसुन्दरियों के साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे स्वर्गमें देवराज इन्द्र अप्सराओंके साथ मन्दाकिनी के जलमें करते हैं। राजन्। माधव माधवीको और माधवी माधवको जलमें परस्पर भिगोने लगे। वे दोनों बड़ी उतावलीके साथ एक-दूसरेपर पानी उछालते थे। नरेश्वर ! गोपाङ्गनाओंकी वेणी और केशपाशसे गिरे हुए फूलोंसे यमुनाजीकी वैसी ही विचित्र शोभा हुई, जैसे अनेक रंगोंके छापसे छपी हुई नीली पगड़ी शोभा पाती है। विद्याधरियाँ और देवाङ्गनाएँ फूल बरसाने लगीं। उनकी साड़ियोंकी नीवी ढीली पड़ गयी और वे प्रेमावेशसे व्याकुल हो मोहको प्राप्त हो गयीं ॥ २२-२६ ॥

राजेन्द्र ! तदनन्तर जल-विहार समाप्त करके श्यामसुन्दर लीलापूर्वक यमुनाजलसे बाहर निकले और गोवर्द्धन पर्वतपर गये। नृपेश्वर! उनकी सहचरी गोपियाँ भी उनके साथ-साथ गयीं। किन्हींके हाथों में व्यजन थे और कितनी ही चंवर डुलाती चल रही थीं। किन्हींके हाथोंमें पानके बीड़े थे। बहुत-सी गोपियाँ दर्पण लिये चलती थीं। कितनोंके हाथोंमें नाना प्रकारके आभूषणोंके पात्र थे और कितनी ही पुष्पभार लिये जा रही थीं। कुछ गोपियोंके हाथोंमें चन्दनके पात्र थे और कुछ विविध प्रकारके बर्तनोंका भार ढो रही थीं। कोई महावर लिये जाती थीं और कोई वस्त्र। किन्हींके हाथोंमें मृदंग थे, तो कोई झाँझ लिये हुए थीं। कोई मुरयष्टिधारिणी थीं तो कोई वीणाधारिणी। कोई करताल लिये चलती थीं और कोई गीत गाती जा रही थीं। छत्तीसों राग-रागिनियाँ व्रजसुन्दरियोंका रूप धारण करके उस यूथमें सम्मिलित हो गयी थीं। जो गोपियाँ पूर्वकालमें श्रीराधाके साथ गोलोकसे भारत वर्षमें आयी थीं, वे श्रीराधावल्लभके समीप गान तथा नृत्य कर रही थीं ॥ २७-३३॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

उन सबके बीचमें वेणुसे गीत गाते और त्रिलोकीको मोहित करते हुए मदनमोहन श्रीकृष्ण हरि नृत्य करने लगे। रासमण्डलमें बाजों, करधनियों, कड़ों, कंगनों और नूपुरोंकी झनकारोंसे युक्त गीतमिश्रित शब्दकी तुमुल ध्वनि होने लगी। राजन्। देवता और देवाङ्गनाएँ श्रीहरिका रास देखकर आकाशमें प्रेमवेदनासे पीड़ित हो मूच्छित हो गयीं। चन्द्रमाकी चाँदनीमें चतुर चञ्चल श्रीकृष्ण नृत्यकी गतिसे चलते हुए गोपाङ्गनारूपी चन्द्रावलीसे घिरकर उसी तरह शोभा पाते थे, जैसे विद्युन्मालासे आवेष्टित मेघ सुशोभित हो रहा हो। उस पर्वतपर महान् गिरिधर श्यामसुन्दरने फूलोंके हार, महावर, काजल और कमलपत्र आदिके द्वारा श्रीराधाका शृङ्गार किया। श्रीराधिकाने भी कुङ्कुम, अगुरु और चन्दन आदिके द्वारा श्रीकृष्णके मुखमण्डलमें सुन्दर कमलपत्रकी रचना की। तब मुसकराती हुई राधाने मन्दहासकी छटासे युक्त भगवान के मुखकी ओर देखते हुए उन्हें प्रसन्नतापूर्वक पानका बीड़ा दिया। प्रियतमाके दिये हुए उस ताम्बूलको नन्दनन्दन श्रीहरिने बड़े प्रेमसे खाया। फिर श्रीकृष्णद्वारा अर्पित ताम्बूलको श्रीराधिकाने भी प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। पतिपरायणा सती श्रीराधाने भक्तिभावसे प्रेरित हो श्रीकृष्णके चबाये हुए ताम्बूलको हठात् लेकर शीघ्र अपने मुँहमें रख लिया। तब भगवान्ने भी प्रियाके द्वारा चवाये हुए ताम्बूलको उनसे माँगा; किंतु श्रीराधाने नहीं दिया। वे भयभीत होकर उनके चरणकमलमें गिर पड़ीं ॥ ३४-४३ ॥

पद्मा, पद्मावती, नन्दी, आनन्दी, सुखदायिनी, चन्द्रावली, चन्द्रकला तथा वन्द्या-ये गोपाङ्गनाएँ श्रीहरिकी प्राणवल्लभा हैं। श्रीहरिने वसन्त ऋतुके वैभवसे भरे वृन्दावनमें उन सबके साथ नाना प्रकारका शृङ्गार धारण किया। वे कामदेवसे भी अधिक मनोहर लगते थे। कुछ गोपियाँ श्रीकृष्णका अधरामृत पान करती थीं और कितनी ही उन परमात्मा श्रीकृष्णको अपने बाहुपाशमें बाँध लेती थीं। फिर तो मदनमोहन भगवान् श्रीकृष्ण गोपाङ्गनाओंके वक्षःस्थलमें लगे हुए केसरोंसे लिप्त होकर सुनहरे रंगके हो गये और अनुपम शोभा पाने लगे ॥ ४४-४७ ॥

राजेन्द्र ! फिर सुन्दर कदलीवनमें गोपीजनोंके साथ श्रीगोपीजनवल्लभने रास किया। नरेश्वर! इस प्रकार रासमण्डलमें नित्यानन्दमय श्यामसुन्दरके साथ गोपियोंकी वह हेमन्त ऋतुकी रात एक क्षणके समान व्यतीत हो गयी ॥ ४८-४९ ॥

इस प्रकार रास करनेके पश्चात् नन्दनन्दन श्रीहरि नन्दभवनको चले गये। श्रीराधा वृषभानुपुरमें लौट गयीं तथा अन्यान्य गोपाङ्गनाएँ भी अपने-अपने घरको चली गयीं। नृपेश्वर! व्रजके गोप श्रीहरिकी इस रासवार्ताको बिलकुल नहीं जान सके। उन्हें अपनी-अपनी स्त्रियाँ अपने पास ही सोती प्रतीत हुई। राधामाधवके इस परम उत्तम श्रृङ्गारचरित्रको जो लोग पढ़ते और सुनते हैं, वे अक्षय धाम गोलोकको प्राप्त होंगे ॥ ५०-५२॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता के अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘रासक्रीडाकी पूर्ति’
नामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गायत्री कवचम्

सैंतालीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण सहित यादवों का व्रजवासियों को आश्वासन देकर वहाँसे प्रस्थान

श्रीगगंजी कहते हैं- राजेन्द्र ! श्रीकृष्णका यह चरित्र शास्त्रोंमें गुप्तरूपसे वर्णित है, जिसे मैंने तुम्हारे सामने प्रस्तुत किया है। अब तुम भगवान के अन्य चरित्रोंको विस्तारपूर्वक सुनो। इस प्रकार श्रीकृष्ण नन्दनगरमें आठ दिनोंतक रहकर सब लोगोंको आनन्द प्रदान करते रहे। इसके बाद पुनः उन्होंने वहाँसे जानेका विचार किया ॥ १-२ ॥

श्रीकृष्णकी माता यशोदा अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको जानेके लिये उद्यत देख पहलेकी ही भाँति उच्चस्वरसे रोदन करने लगीं। नृपेश्वर। वहाँ गोपियोंके भी नेत्र आँसुओंसे भर आये और वे घर-घरमें पहलेके दुःखोंको याद करके करुणभावसे रोदन करने लगीं। सान्त्वना देनेमें कुशल श्रीहरिने जितनी व्रजाङ्गनाएँ थीं, उतने ही रूप धारण करके उन सबको पृथक् पृथक् आश्वासन दिया तथा श्रीराधाको भी धीरज बंधाया। इसके बाद भगवान् माता यशोदासे बोले- “मैया ! शोक न करो। मैं इस उत्तम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान पूरा करवाकर शीघ्र ही यहाँ आऊँगा। यदि तुम नहीं विश्वास करती हो तो मेरी यह बात सुन लो- ‘मैया! आजसे तुम प्रतिदिन मुझे पुत्ररूपमें अपने पास ही देखोगी।’ मैं भक्तिभावसे स्मरण करनेपर कालके भयका भी नाश करनेवाला हूँ” ॥३-७॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

इस प्रकार यशोदाजी को आश्वासन देकर नेत्रोंमें आँसू भरे श्रीहरि नन्दसदन से बाहर निकले और गोपों के साथ अपने पोते अनिरुद्धकी सेनामें गये। नृपश्रेष्ठ ! अनिरुद्धकी सेनामें पहुँचकर साक्षात् नारायण श्रीहरिने यादवोंको घोड़ा छोड़नेके लिये आज्ञा दी। श्रीकृष्णचन्द्रसे प्रेरित होकर उनके पौत्र अनिरुद्धने यत्नपूर्वक अश्वका पूजन किया और पुनः पूर्ववत विजय यात्रा के लिये उसे छोड़ दिया ॥ ८-१० ॥

अनिरुद्ध आदि सब यादव नेत्रोंमें आँसू भरे नन्दको नमस्कार करके बड़े कष्टसे वहाँसे जानेके लिये अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हुए। श्रीकृष्णके पुत्र और पौत्र सबके आकार उन्हींके समान सुन्दर थे। श्रीकृष्णके साथ उन सब यादवोंको जानेके लिये उद्यत देख, गोविन्दके विरहसे व्याकुल हो, वे गोपगण वहाँ फूट-फूटकर रोने लगे। पहलेके विरहजनित दुःखोंको याद करके उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे। नन्दराजके नेत्रोंमें भी आँसू छलक रहे थे। वे दुःखसे पीड़ित हो सूखे हुए मुँहसे कुछ बोल न सके; केवल रोदन करने लगे। श्रीकृष्ण भी आँसू बहाते हुए ‘मैं फिर आऊँगा’- ऐसा कहकर सबसे पृथक् पृथक् मिले और सबको आश्वासन दिया ॥ ११-१५ ॥

उन्होंने कहा- गोपालगण। चैत्रमासमें जब द्वारकापुरीमें यज्ञ आरम्भ होगा, तब मैं तुम सबको बुलवाऊँगा, इसमें संशय नहीं है। मेरे मित्र गोपगण। तुम सब लोग प्रतिदिन गोकुलमें मुझ गोपालको देखोगे। अतः अभी यहीं ब्रजमण्डलमें निवास करो ॥ १६-१७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

इस प्रकार आश्वासन दे, उनके दिये हुए उपहारको लेकर, नन्दजीको प्रणाम करके श्रीहरि वृष्णिवंशियोंके साथ रथपर बैठकर, वहाँसे चल दिये। नन्द आदि दुखी गोप श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलमें लगे हुए मनको पुनः हटानेमें असमर्थ हो केवल शरीरसे गोकुलको लौटे। नरेश्वर। उस दिनसे प्रेममग्र गोप और गोपीगण योगियोंके लिये भी परम दुर्लभ श्रीकृष्णको अपने समीप देखने लगे ॥ १८-२० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यादवोंका ब्रजसे अन्यत्र गमन’
नामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महामृत्युंजय मंत्र जप विधि

अड़तालीसवाँ अध्याय

अश्वका हस्तिनापुरी में जाना; उसके भालपत्र को पढ़कर दुर्योधन आदिका रोषपूर्वक
अश्व को पकड़ लेना तथा यादव सैनिकोंका कौरवों को घायल करना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर यमुना नदीको पार करके वह अश्व आस-पासके देशोंका निरीक्षण करता हुआ कुरुदेशकी राजधानीमें गया, जहाँ बलवान् विचित्रवीर्यकुमार चक्रवर्ती राजा धृतराष्ट्र राज्य करते थे। वहाँ उस अश्वने अनेकानेक उपवनों, तड़ागों और सरोवरोंसे युक्त सुन्दर कौरव- नगरको देखा ॥१-२॥

नरेश्वर। वह नगर दुर्गसे तथा गङ्गारूपिणी खाईसे घिरा हुआ था। वहाँ सोने-चाँदीके महल थे और बड़े- बड़े शूरवीर वहाँ निवास करते थे। राजन् ! उस कौरवनगरसे वनवासी मृगोंका शिकार करनेके लिये सुयोधन निकला। वह वीरजनोंसे युक्त हो रथपर बैठा था। उसने उस यज्ञ-सम्बन्धी घोड़ेको भालपत्रसहित देखा। महाराज! दुर्योधन बड़ा मानी था। घोड़ेको देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने रथसे उतरकर अनायास ही घोड़ेको पकड़ लिया। कर्ण, भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भूरि और दुःशासन आदिके साथ उसने हर्षित होकर उसका भालपत्र पढ़ा। उसमें लिखा था ‘चन्द्रवंशके अन्तर्गत यादवकुलमें राजा उग्रसेन विराजते हैं। इन्द्र आदि देवता भी जिनकी आज्ञाके पालक हैं, भक्तपरिपालक भगवान् श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं। वे उन्हींकी भक्तिसे आकृष्ट हो द्वारकापुरीमें निवास करते हैं। उन्हींकी आज्ञासे राजाधिराज चक्रवर्ती उग्रसेन हठपूर्वक अपने यशके विस्तारके लिये अश्वमेध यज्ञ करते हैं। उन्होंने यह श्रेष्ठ और शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न घोड़ा छोड़ा है। उस घोड़ेके रक्षक हैं श्रीकृष्णपौत्र अनिरुद्ध, जो वृक दैत्यका वध करनेवाले हैं। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल वीरोंकी अनेक चतुरङ्गिणी सेनाओंके साथ अनिरुद्ध अश्वकी रक्षामें चल रहे हैं। जो राजा इस पृथ्वीपर राज्य करते हैं और अपनेको शूरवीर मानते हैं, वे भालपत्रसे शोभित इस यज्ञ-सम्बन्धी अश्वको बलपूर्वक ग्रहण करें। धर्मात्मा अनिरुद्ध राजाओंद्वारा पकड़े गये उस अश्वको अपने बाहुबल और पराक्रमसे अनायास ही हठपूर्वक छुड़ा लेंगे। जो घोड़ेको न पकड़ सकें, वे धनुर्धर अनिरुद्धके चरणोंमें नतमस्तक होकर चले जाय ॥ ३-१३ ॥

श्रीगगंजी कहते हैं- उस पत्रको बाँचकर वे शत्रुभूत कौरव क्क्रुद्ध हो उठे। उन मानियोंके नेत्र लाल हो गये और वे परस्पर कहने लगे ॥ १४ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

कौरव बोले- अहो! इन धृष्ट यादवोंने घोड़ेके भालपत्रमें क्या लिख रखा है? क्या यादवोंके सामने कोई राजा ही नहीं है? पूर्वकालमें अपने राजसूय यज्ञमें हमने जिन यादवोंको परास्त किया है, वे ही मूर्ख अब फिर अश्वमेध करने चले हैं। इसलिये हम इन सबको जीतेंगे। घोड़ेको कदापि वापस नहीं देंगे। यादवोंको जीतनेके पश्चात् हमलोग स्वयं अश्वमेध यज्ञ करेंगे। कौन है उग्रसेन? क्या है कृष्ण ? और वह घोड़ेकी रक्षा करनेवाला भी कौन है? समस्त यादवोंके साथ आकर ये लोग हमारे सामने क्या पौरुष दिखायेंगे? कृष्ण आदि समस्त यदुवंशी जरासंधके डरसे मथुरापुरी छोड़कर समुद्रकी शरणमें गये हैं। वे हमलोगोंके ही भयसे युद्ध छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। पहले हमलोगोंने कृपा करके इन यादवोंको राज्य दे दिया और अब वे कृतघ्न यादव अपनेको चक्रवर्ती मानने लगे हैं। पाण्डवोंका मान रखनेके लिये हमने पहले यादवोंको नहीं मारा था; किंतु वे पाण्डव भी हमारे शत्रु ही हैं। अतः हमने उन्हें देशनिकाला दे दिया है। इन भागे हुए यादवोंको आज युद्धमें पराजित करके हम उग्रसेनको सहसा उनके चक्रवर्तीपनका मजा चखायेंगे ॥ १५-२२॥

राजन् ! वे समस्त श्रीकृष्णविमुख कौरव लक्ष्मी और राजवैभवके घमंडमें आकर ऐसी बातें कहने लगे। फिर सबने शीघ्र ही नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र ले लिये और उस घोड़ेको नगरमें प्रवेश कराया। इसके बाद वे वहीं ठहर गये। अश्वके दूर चले जानेपर श्रीकृष्णकी प्रेरणासे साम्ब तुरंत ही मार्ग प्रदान करनेवाली गहरी यमुना नदीको पार करके दस अक्षौहिणी सेना पीछे लिये, कवच बाँध, अक्रूर और युयुधान आदिके साथ रोषपूर्वक हस्तिनापुरकी ओर गये। इस प्रकार वे समस्त यादव हस्तिनापुरके निकट आ पहुँचे। उन्होंने देखा घोड़ा चुरानेवाले कौरव सामने खड़े हैं। श्रीकृष्ण ही जिनके आराध्यदेव हैं तथा जो लोक और परलोक दोनोंपर विजय पानेके इच्छुक हैं, उन बलवान् यादवोंने कौरवोंको देखकर उन सबको तिनकेके समान समझते हुए कहा-‘अहो! किसने हमारे घोड़ेको बाँधा है? किसके ऊपर आज यमराज प्रसन्न हुए हैं और कौन युद्धस्थलमें नाराचोंद्वारा बड़ी भारी पीड़ा प्राप्त करनेके लिये उत्सुक है? अहो! जिनके चरणोंमें देवता और दानव भी वन्दना करते हैं, जो पहले राजसूय यज्ञ कर चुके हैं, जिनकी समानता करनेवाला संसारमें दूसरा कोई नहीं है तथा जो नरेशोंके भी ईश्वर हैं, उन वृष्णिकुलतिलक चक्रवर्ती राजाधिराज उग्रसेनको क्या वे राजा नहीं जानते, जो अपने ही विनाशके लिये घोड़ेको पकड़ रहे हैं? हेमाङ्गद, इन्द्रनील, बक, भीषण और बल्वल- इन समस्त नरेशोंको हमने संग्रामभूमिमें पराजित किया है’॥ २३-३२ ॥

यादवोंकी यह बात सुनकर कौरवोंके अधर क्रोधसे फड़क उठे। वे यादवोंकी ओर टेढ़ी आँखोंसे देखते हुए उन्हें इस प्रकार उत्तर देने लगे ॥ ३३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

कौरवोंके अनुगामी बोले- हमलोगोंने ही घोड़ेको पकड़ा है। तुमलोग हमारा क्या कर लोगे? हम अपने सायकोंद्वारा तुम सब यादवोंको यमलोक पहुँचा देंगे। उग्रसेन कितने दिनोंसे श्रीकृष्णके हाथसे राज्य पाकर घमंड करने लगा है? हम उसे बाँधकर स्वयं राज्य करेंगे। अनिरुद्ध हमारे भयसे कहाँ भाग गया है? बताओ, हम युद्धमें अपने बाणोंद्वारा उसकी पूजा करेंगे, इसमें संशय नहीं है॥ ३४-३६ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! कौरवोंकी यह बात सुनकर यादव क्रोधसे मूच्छित हो उठे। उन्होंने कौरवसैनिकोंके मुखोंपर धनुषसे अनेक बाण फेंके। उन बाणोंसे कितने ही कौरवोंकी जीभें कट गर्दी, किन्हींके दाँत टूट गये और किन्हींके मुख छिन्न-भिन हो गये। वे अधिक मात्रामें रक्तवमन करते हुए घायल हो अपना क्षत-विक्षत मुँह लिये शीघ्र ही दुर्योधनके पास गये और पूछनेपर बताया कि यादवोंने हमारी यह दुर्दशा की है॥ ३७-३९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमै ‘कौरवोंद्वारा श्यामकर्ण अश्वका अपहरण’
नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~  विनय पत्रिका हिंदी में

उनचासवाँ अध्याय

यादवों और कौरवों का घोर युद्ध

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । भीष्म, द्रोण और कृप आदिके साथ दुर्योधनने अपने वीरोंके भग्न हुए मुखौंको देखकर क्रोधपूर्वक कहा- ‘आश्चर्यको बात है कि नीच यादव स्वयं मौतके मुखमें चले आये। क्या वे मूर्ख महाराज धृतराष्ट्रके महान् बलको नहीं जानते हैं?’॥१-२॥

– ऐसा कहकर दुर्योधनने घोड़े, हाथी, रथ और पैदल वीरोंसे युक्त अपनी चतुरङ्गिणी सेना युद्धमें यादवोंका सामना करनेके लिये भेजी। वह विशाल सेना दस अक्षौहिणियोंके द्वारा भूतलको कम्पित करती और शत्रुओंको डराती हुई बलपूर्वक आगे बढ़ी। उसे आती देख वीरोंसे विभूषित जाम्बवतीनन्दन साम्बने बड़े हर्ष और उत्साहसे अपनी सेनाको युद्धके लिये प्रेरणा दी ॥ ३-५ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

तब समस्त कौरव अपनी रक्षाके लिये क्रौञ्चव्यूहका निर्माण करके उसीमें सब के सब खड़े हो गये। उसके मुखभागमें भीष्म खड़े हुए और ग्रीवाभाग में आचार्य द्रोण। दोनों पंखोंकी जगह कर्ण तथा शकुनि स्थित हुए और पुच्छभागमें दुर्योधन। उस क्रौञ्चव्यूह के मध्यभागमें चतुरङ्गसैनिकोंके साथ कौरवोंकी विशाल वाहिनी खड़ी हुई। यादवोंने जब शत्रुओंके लिये दुर्जय उस क्रौञ्चव्यूहका निर्माण हुआ देखा, तब वे युद्धसे शङ्कित हो उस क्रौञ्चव्यूहपर दृष्टि रखते हुए साम्बसे बोले- ‘तुम भी यत्नपूर्वक व्यूह बना लो।’ साम्ब युद्धकी कलामें बड़े निपुण थे। उन्होंने अपने सैनिकोंकी व्यूह-रचना-विषयक बात सुनकर भी कौरवोंको कुछ न गिनते हुए रणक्षेत्रमें व्यूहका निर्माण नहीं किया ॥ ६-१०॥

नरेश्वर। जब दोनों ओरकी सेनाएँ युद्ध करनेके लिये आगे बढ़ीं, तब दो घड़ीतक सारी पृथ्वी जोर-जोरसे काँपती रही। दोनों सेनाओंमें तत्काल रणभेरियाँ बज उठीं और शङ्खनाद होने लगे। सब ओर जगह-जगह धनुषोंकी टंकारें सुनायी देने लगीं। वहाँ हाथी चिग्घाड़ते और घोड़े हिनहिनाते थे। शूरवीर सिंहनाद करते और रथोंकी नेमियाँ (पहिये) घरघराहट उत्पन्न करती थीं। सैनिकोंकी पदधूलिसे युद्धस्थलमें अन्धकार छा गया। आकाश मलिन हो गया और वहाँ सूर्यका दीखना बंद हो गया। फिर तो दोनों सेनाओंमें घोर घमासान युद्ध होने लगा। समराङ्गणमें उभय पक्षके सैनिक एक-दूसरेपर बाणों, गदाओं, परिधों, शतनियों, शक्तियों तथा तीखे बाणोंका प्रहार करने लगे। गजारोही गजारोहियोंसे, रथी रथियोंसे, घुड़सवार घुड़सवारोंसे तथा पैदल योद्धा पैदलोंसे जूझने लगे ॥ ११-१६ ॥

बाणोंसे अन्धकार छा जानेपर धनुर्धर वीर साम्ब बाणवर्षा करते हुए रणक्षेत्रमें भीष्मके साथ और अक्रूर कर्णके साथ युद्ध करने लगे। युयुधान शकुनिके साथ, सारण द्रोणाचार्यके साथ तथा सात्यकि संग्राम- भूमिमें दुर्योधनके साथ शीघ्रतापूर्वक लड़ने लगे। बली दुःशासनके साथ और कृतवर्मा भूरिके साथ भिड़ गये। इस प्रकार उनमें परस्पर भयंकर द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। तब साम्बने अत्यन्त कुपित होकर अपने सुदृढ़ धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और शूरवीरोंके हृदयमें कम्प उत्पन्न करते हुए टंकार-ध्वनि की। उन्होंने पहले श्रीकृष्णको नमस्कार करके दस बाण छोड़े। अपने ऊपर आये हुए उन बाणोंको भीष्मने अपने सायकोंसे काट डाला। तब रणक्षेत्रमें साम्बने सिंहनाद करके पुनः दस सुवर्णमय बाण भीष्मके कवचपर मारे। चार सायकोंद्वारा उनके चारों घोड़ोंको यमलोक भेज दिया तथा दस बाणोंसे उनके प्रत्यञ्चासहित कोदण्डको खण्डित कर दिया। धनुष कट जाने तथा घोड़ों और सारथिके मारे जानेपर रथहीन हुए भीष्मने सहसा उठकर बड़े रोषसे गदा हाथमें ली। तब साम्बने कहा-‘ आप पैदल हैं, अतः आपके साथ मैं युद्ध कैसे करूँगा ? मैं युद्धस्थलमें आपको दूसरा रथ दूँगा। कुरुश्रेष्ठ। आप समराङ्गणमें मुझसे सशस्त्र रथ लीजिये और मुझ मूढ़ निर्लज्जपर विजय पाइये। आप वृद्ध होनेके कारण मेरे लिये सदा पूजनीय ही हैं’ ॥ १७-२६ ॥

यह सुनकर क्रोधसे भीष्मका अधर फड़कने लगा। वे दाँतोंसे दाँत पीसते और जीभसे ओठ चाटते हुए आँखें लाल करके साम्बसे बोले- ‘तुम्हारे दिये हुए रथपर बैठकर जब मैं युद्ध करूँगा तो मेरी अपकीर्ति होगी तथा मुझे पाप और नरक ही प्राप्त होगा। प्रतिग्रह तो ब्राह्मण लेते हैं। हमलोग तो दाता माने गये हैं। हमने पहले कृपा करके ही यादवोंको राज्य दिया था।’ उनकी बात सुनकर साम्बने रोषपूर्वक उत्तर दिया- ‘भूतलपर किसी चक्रवर्ती शासकको विद्यमान देख मण्डलेश्वर राजालोग भयके कारण उन्हें अपना राज्य दे डालते हैं। (किंतु ऐसा करके वे दाता नहीं माने जाते।)’ ॥ २७-३० ॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

नरेश्वर । साम्बका यह वचन सुनकर शूरशिरोमणि भीष्मने अपनी भारी गदासे साम्बके वक्षःस्थलपर प्रहार किया। उस गदाकी चोटसे व्यथित हो साम्ब मूच्छित हो गये। सारथिने उन्हें रथपर सँभालके लिटा दिया और उनके जीवनके लिये आशङ्कित हो वह उन्हें रणक्षेत्रसे बाहर हटा ले गया। नृपेश्वर। उसी समय यादव-सेनामें भारी कोलाहल मचा। भीष्म दूसरे रथपर आरूढ़ हो, कवच बाँध, शरासन हाथमें ले, मार्गमें यादवोंको मारते हुए शीघ्र ही दुर्योधनके पास जा पहुँचे। राजेन्द्र ! उस संग्राममें सात्यकिने गीधकी पाँख लगे हुए चमकीले बाणोंद्वारा दुर्योधनको रथहीन कर दिया। रथहीन होनेपर भी दुर्योधन वेगपूर्वक दूसरे रथपर जा चढ़ा और विषधर सर्पके समान बाणोंद्वारा उसने अपने उस शत्रुको भी रथहीन कर दिया। नरेश्वर। शीघ्र पराक्रम प्रकट करनेवाले सात्यकिने भी दूसरे रथपर आरूढ़ हो एक बाण मारकर दुर्योधनके रथको चार कोस दूर फेंक दिया। आकाशसे उसका रथ भूतलपर गिरा और सारथि तथा घोड़ोंसहित अंगारके समान बिखर गया। उस रथसे गिरनेपर दुर्योधनको तत्काल मूर्च्छा आ गयी। तब अत्यन्त कुपित हुए द्रोणाचार्यने अपने शत्रु सारणको समराङ्गणमें छोड़कर अग्निमय बाणसे सात्यकिपर प्रहार किया। उस बाणसे सात्यकिका रथ घोड़ों और सारथिसहित जलकर भस्म हो गया और सात्यकि भी बाणकी ज्वालासे अङ्ग अङ्ग झुलस जानेके कारण मूच्छित हो गये ॥ ३१-४० ॥

राजन् । तब कुपित हुआ कृतवर्मा समराङ्गणमें भूरिको परास्त करके द्रोणके ऊपर अधिक रुष्ट हो सिंहनाद करता हुआ आया। उस वीरने आते ही युद्धक्षेत्रमें रोषपूर्वक बाणोंकी वर्षा करके आचार्य द्रोणको शस्त्रहीन एवं रथहीन कर दिया और उनका कवच भी काट डाला। तब कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा और उसने रणाङ्गणमें अक्रूरको छोड़कर कृतवर्माके ऊपर उसी प्रकार शक्तिसे प्रहार किया, जैसे स्वामी कार्तिकेयने तारकासुरको शक्तिसे चोट पहुँचायी थी। वह शक्ति कृतवर्माके शरीरका भेदन करके धरतीमें घुस गयी। हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण कृतवर्मा भूमिपर गिर पड़ा ॥ ४१-४४॥

राजेन्द्र ! तब युयुधानने युद्धमें क्रोधपूर्वक शकुनिको परास्त करके रथद्वारा कर्णके ऊपर चढ़ाई की। उन्होंने आते ही अपने शरासनसे दस सायक छोड़े। उन सायकोंको अपने ऊपर आया देख कर्णने उनपर अपने सायकोंद्वारा प्रहार किया। संग्रामभूमिमें उन दोनोंके बाण परस्पर रगड़ उठे और चिनगारियाँ बरसाते हुए अलातचक्रकी भाँति आकाशमें घूमने लगे। पृथ्वीनाथ! तब युयुधानने क्रोध करके कर्णके कवचपर काकपक्षयुक्त तीखे बाण मारे। राजन् ! वे बाण कर्णके कवचपर न लगकर उसी तरह पृथ्वीपर गिर गये जैसे पापी स्वर्गमें न जाकर नरकमें ही गिरते हैं। युयुधान बड़े विस्मयमें पड़ गये और कर्णने हँसकर युद्धस्थलमें नाना प्रकारके शस्त्रोंसे योजित बाणोंद्वारा उन्हें रथहीन कर दिया। यह देख बलीने युद्धस्थलमें दुःशासनको मूच्छित करके अग्नितुल्य तेजस्वी रथके द्वारा कर्णपर आक्रमण किया। भास्कर नन्दन कर्णने बलीको आया देख पवनास्त्रयुक्त बाणसे उन्हें रथसहित दूर फेंक दिया। बली एक योजन दूर जा गिरे। इतनेमें ही साम्ब रोषपूर्वक कौरवोंको मारते और बाणर्णोद्वारा अन्धकार प्रकट करते हुए फिर वहाँ आ पहुँचे ॥ ४५-५३॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यादवों और कौरवोंके संग्रामका वर्णन
नामक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ भागवत पुराण हिंदी में

पचासवाँ अध्याय

कौरवों की पराजय और उनका भगवान श्रीकृष्ण से मिलकर भेंट सहित अश्व को लौटा देना

श्रीगर्गजी कहते हैं- नृपेश्वर! उसी समय भोज, वृष्णि और अन्धक आदि समस्त यादव तथा मथुरा और शूरसेन प्रदेशके महासंग्रामकर्कश एवं बलवान योद्धा यमुनाजीको पार करके पैरोंकी धूलिसे आकाशको व्याप्त और पृथ्वीको कम्पित करते हुए वहाँ आ पहुँचे। घोड़ेको सब ओर देखते और खोजते हुए महाबलवान् श्रीकृष्ण आदि और अनिरुद्ध आदि महावीर भी आ गये। वृष्णिवंशियोंने दूरसे ही वहाँ युद्धका भयंकर महाघोष, कोदण्डोंकी टंकार, शतनियोंकी गूंजती हुई आवाज, शूरोंकी सिंहगर्जना, शस्त्रोंके परस्पर टकरानेके चट चट शब्द, कोलाहल और हाहाकार सुना। सुनकर वे बड़े ही विस्मित हुए। जब उन्हें मालूम हुआ कि यादवोंका कौरवोंके साथ घोर युद्ध छिड़ गया है तो अनिष्टकी शङ्का मनमें लिये अनिरुद्ध और श्रीकृष्ण आदि यदुकुलशिरोमणि महापुरुष बड़े वेगसे वहाँ आये। नरेश्वर । ‘अनिरुद्ध आदिके साथ हमारी सहायता करनेके लिये सेनासहित श्रीकृष्ण आ पहुँचे हैं’, यह देखकर साम्ब आदिने उनको प्रणाम किया। श्रीकृष्ण के पधारनेपर रणभेरियाँ बजने लगीं, शङ्ख और गोमुखोंके शब्द गूंज उठे,
आकाशमें स्थित देवता फूलोंकी वर्षा तथा भूतलपर विद्यमान यादव जय-जयकार करने लगे। ‘समराङ्गण में सौ अक्षौहिणी सेनाके साथ भूतलको कम्पित करते हुए महाबली अनिरुद्ध आ पहुँचे हैं। यह देख कौरव योद्धा भयसे भागने लगे। प्रलयकालके समुद्रकी भौति उमड़ती हुई अन्धकवंशियोंकी उस विशाल वाहिनीको देखकर वैश्यलोग डरके मारे भाग गये। घर-घरमें अर्गला लग गयी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्रीसमुदाय दुर्योधनको कोसते और गाली देते हुए घरसे निकल गये तथा रोदन करने लगे ॥ १-११॥

तदनन्तर मूच्छा छोड़कर दुःशासनका बड़ा भाई दुर्योधन तत्काल सोकर उठे हुएके समान जाग उठा। उस समय यादव सेनापर उसकी दृष्टि पड़ी। यादवोंकी वह विशाल सेना देखते ही दुर्योधन आशङ्कित हो गया और डरके मारे पैदल ही अपने नगरमें चला गया। कर्ण, भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भूरि और दुर्योधन आदिने सभाभवनमें जाकर धृतराष्ट्रको नमस्कार करके सारा हाल कह सुनाया। अपने पक्षकी पराजय यादवोंकी विजय तथा श्रीकृष्णका शुभागमन सुनकर राजाने विदुरसे पूछा ॥ १२-१५ ॥

धृतराष्ट्र बोले- वीर। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर क्रोधसे भरे हुए वासुदेव श्रीकृष्ण यहाँ चढ़ आये हैं। ऐसी दशामें हमलोग क्या करें। यह बताओ !॥ १६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

महाराज धृतराष्ट्रकी यह बात सुनकर विदुर ठहाका मारकर हँस पड़े और बोले ॥ १६॥

विदुरने कहा- महाराज! पहले तो अकेले बलरामजी ही कुपित होकर आये थे, जिन्होंने हस्तिनापुरीको हलसे खींचकर गङ्गाकी ओर झुका दिया। अब उन्हींके भाई आ पहुँचे हैं, जिन्होंने देवकीके हृदय-कमल-कोषसे अवतार ग्रहण किया है। वे श्रीकृष्ण साक्षात श्रीहरि हैं। राजन्। जिन्होंने युद्धमें कंस और शकुनि आदि बहुत से दैत्योंको मार गिराया तथा अनेकानेक नरेशों एवं देवताओंको भी परास्त किया है। इसलिये महाराज! देखिये, हमारे लिये यह युद्धका समय नहीं है। आप कौरवों द्वारा श्यामकर्ण अश्व श्रीकृष्ण को लौटा दीजिये। इससे कौरवों और यादवोंका विनाशकारी युद्ध नहीं होगा ॥ १७-२० ॥

अपने भाई विदुरके इस प्रकार समझानेपर बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रने कौरवों से यह देशकालोचित बात कही ॥ २१ ॥

धृतराष्ट्र बोले- तुम लोग श्रीकृष्णके निकट जाकर घोड़ा लौटा दो। देवाधिदेव श्रीहरिके सामने युद्ध करना तुम्हारे बलबूतेके बाहर है। श्रीहरि यादवों की सहायताके लिये कुपित होकर आये हैं, तुम धीरेसे उनके निकट जाकर उन्हें प्रसन्न करो ॥ २२-२३ ॥

कौरवेन्द्रका ऐसा आदेश सुनकर समस्त कौरव भयभीत हो गये। वे गन्ध, अक्षतसहित दिव्य वस्त्र और नाना प्रकारके रत्न आदि विविध उपचार लेकर बलराम और श्रीकृष्णके पवित्र नामोंका कीर्तन करते हुए सब-के-सब श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ पैदल ही गये। कौरवोंको आया देख यादव क्रोधसे भर गये और उन्होंने शीघ्र ही युद्धके लिये नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र ले लिये। तब समस्त कौरवोंने उनसे कहा हमलोग-युद्धके लिये नहीं आये हैं। हम भगवान श्रीकृष्ण का शुभ दर्शन करेंगे, जो समस्त दुःखोंका नाश करनेवाला है॥ २४-२८ ॥

उनकी यह बात सुनकर यादवोंको आश्चर्य हुआ। उन्होंने कौरवोंकी वह सारी चेष्टा भगवान श्रीकृष्ण को बतायी। नरेश्वर। तब श्रीकृष्णकी आज्ञा पाकर उन श्रेष्ठ यादव वीरोंने निहत्थे आये हुए कौरवोंको प्रेमपूर्वक बुलाया। श्रीकृष्णके बुलानेपर वे उनके पास गये। उन सबके मुख लज्जासे नीचेको झुके हुए थे। उन्होंने पृथक् पृथक् प्रणाम करके कहा ॥ २९-३१॥

सबसे पहले आचार्य द्रोण बोले- जगदीश्वर श्रीकृष्ण । भद्र! मेरी रक्षा कीजिये। आपकी मायासे १ मोहित हुए इन कौरवोंको भी बचाइये ॥ ३२ ॥

कृपाचार्य बोले- मधुसूदन । कैटभनाशन लोकनाथ मेरे जन्मका यही फल है, यही हमारी प्रार्थनीय वस्तु है और यही मुझपर आपका अनुग्रह है कि आप मुझे अपने भृत्यके भृत्यके परिचारकके दासके दासके दासका दास मानकर इसी रूपमें याद रखें ॥ ३३॥(Ashwamedh Khand Chapter 46 to 50)

कर्णने कहा- माधव ! मेरा धन अपने भक्तके लिये क्षीण हो, अर्थात् उन्हींके काम आवे। मेरा यौवन अपनी ही पत्नीके उपयोगमें आवे तथा मेरे प्राण अपने स्वामीके कार्यमें ही चले जायें और अन्तमें आप मेरे ३ लिये प्राप्तव्य वस्तुके रूपमें शेष रहें ॥ ३४॥

भूरि बोले- वरद ! नाथ। हम आपसे कोई ऐसी वस्तु माँग रहे हैं जो दूसरोंसे नहीं मिल सकती। यदि आपकी मुझपर सुमुखी दिव्य दृष्टि है तो वही दीजिये। देव! हमने आज विवश होकर आपके सामने यह अञ्जलि बाँधी है। जन्मान्तरमें भी मेरी यह अञ्जलि आपके सामने इसी प्रकार बँधी रहे ॥ ३५ ॥

दुर्योधनने कहा- मैं धर्मको जानता हूँ, किंतु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं पापको भी समझता हूँ, किंतु उससे निवृत्त नहीं हो पाता हूँ। कोई देवता मेरे हृदयमें बैठकर मुझे जिस काममें लगाता है, मैं वही काम करता हूँ। मधुसूदन । यन्त्रके गुण-दोषसे प्रभावित न होकर मुझे क्षमा कीजिये। मैं यन्त्र हूँ और आप यन्त्री हैं (गुण-दोषका उत्तरदायी यन्त्री ही होता है, यन्त्र नहीं।), अतः आप मुझे दोष न दीजियेगा ॥ ३६-३७ ॥

भीष्म बोले- योगीन्द्र। जिन्हें गोपियोंने रागान्ध होकर चूमा है, योगीन्द्र और भोगीन्द्र (शेषनाग जिनका मनसे सेवन करते हैं तथा जो कुछ-कुछ लाल कमलके समान कोमल हैं, उन्हीं आपके इन चरणोंके लिये मेरी यह अञ्जलि जुड़ी हुई है ॥ ३८ ॥

विदुरने कहा- जो लोग छोटे बालककी भाँति ब्रह्मका परिपालन करते हैं, अर्थात् जैसे माता-पिता बच्चेकी सदा सँभाल रखते हैं, उसी तरह जो निरन्तर ब्रह्म-चिन्तनमें लगे रहते हैं, उनके शुभाशुभ कर्म वैसे ही हैं, जैसे बेचनेवालोंकी वस्तुएँ। तात्पर्य यह है कि जैसे बिकी हुई वस्तुपर विक्रेताका स्वत्व नहीं होता उसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मपर ब्रह्मनिष्ठ पुरुष अहंता-ममताका भाव नहीं रखते हैं। (अतः उनके वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते हैं।) ब्रह्म कैसा है? इसके उत्तरमें इतना ही कहा जा सकता है कि वह दैत्य, देवता और मुनियोंके लिये मनसे भी अगम्य है। वेद ‘नेति नेति’ कहकर उसका वर्णन करता है। किंतु उसको जान नहीं पाता। (प्रभो! वह ३ ब्रह्म आप ही हैं) ॥ ३९ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । शरणमें आये हुए कौरवोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मेघके समान गम्भीर वाणीमें उनसे बोले ॥ ४० ॥

श्रीकृष्णने कहा- आर्य पुरुषो! मेरी बात सुनिये। मैं नारदजीसे प्रेरित होकर यहाँ युद्ध रोकनेके लिये ही आया हूँ। मेरे पुत्र निरङ्कुश (स्वच्छन्द) हो गये हैं, अतः मेरी आज्ञा नहीं मानते हैं। ये बड़े-बड़े लोगोंका अपराध कर बैठते हैं, जो बड़ा भारी दोष है। आपलोग धन्य और माननीय हैं कि हमसे मिलनेके लिये आये हैं। मेरे पुत्रोंने जो कुछ किया है वह सब आपलोग क्षमा कर दें। वीरो! उग्रसेनका घोड़ा आपलोग कृपापूर्वक छोड़ दें और इसकी रक्षा करनेके लिये आपलोग भी चलें, अवश्य चलें। यादव और कौरव तो मित्र हैं। पहलेसे चले आते हुए प्रेम सम्बन्धको दृष्टिमें रखकर इन्हें आपसमें कलह नहीं करना चाहिये ॥ ४१-४५ ॥

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्णने जब मीठे वचनोंद्वारा संतोष प्रदान किया तब कौरवोंने बड़ी प्रसत्रताके साथ बहुमूल्य भेंट सामग्रीसहित अश्वको लौटा दिया। राजन् । घोड़ा लौटाकर अन्य सब कौरव तो मन-ही-मन खेदका अनुभव करते हुए अपने नगरमें चले गये। परंतु भीष्मजीने यादव सेनाके साथ अश्वकी रक्षाके लिये जानेका विचार किया ॥ ४६-४७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘हस्तिनापुर-विजय’
नामक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५०॥

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