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Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 41 से 45 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45) के इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीराधा और श्रीकृष्ण का मिलन वर्णन कहा गया है। बयालीसवाँ अध्याय में रासक्रीडा के प्रसङ्ग में श्रीवृन्दावन, यमुना-पुलिन, वंशीवट, निकुञ्जभवन आदि की शोभा का वर्णन; गोपसुन्दरियों, श्यामसुन्दर तथा श्रीराधा की छबिका चिन्तन कहा है। तैंतालीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण का श्रीराधा और गोपियों के साथ विहार तथा मानवती गोपियों के अभिमानपूर्ण वचन सुनकर श्रीराधा के साथ उनका अन्तर्धान होने का वर्णन है। चौवालीसवाँ अध्याय में गोपियों का श्रीकृष्ण को खोजते हुए वंशीवट के निकट आना और श्रीकृष्ण का मानवती राधाको त्यागकर अन्तर्धान होना और पैंतालीसवाँ अध्याय में गोपाङ्गनाओं द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका आह्वान और श्रीकृष्ण का उनके बीचमें आविर्भाव कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इकतालीसवाँ अध्याय

श्रीराधा और श्रीकृष्ण का मिलन

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । संध्याके समय श्रीराधाने नन्दनन्दन श्रीकृष्णको बुलवाया। उनका आमन्त्रण पाकर नित्य एकान्तस्थलमें, जहाँ शीतल कदलीवन था, श्रीकृष्ण वहाँ गये। कदलीवनमें एक मेघ-महल बना था, जिसमें चन्दनपङ्कका छिड़काव हुआ था। केलेके पत्तोंसे सज्जित होनेके कारण वह भवन बड़ा मनोहर लगता था। अपनी विशालतासे सुशोभित उस मेघभवनमें यमुनाजलका स्पर्श करके बहती हुई वायु पानीके फुहारे बिखेरती रहती थी। श्रीराधिकाका ऐसा सुन्दर सारा मेघमन्दिर उनके विरह- दुःखकी आगसे सदा भस्मीभूत हुआ-सा प्रतीत होता था। नरेश्वर। गोलोकमें प्राप्त हुए श्रीदामाके शापसे वृषभानुनन्दिनीको श्रीकृष्णविरहका दुःख भोगना पड़ रहा था। उस दशामें भी वे वहाँ अपने शरीरकी रक्षा इसलिये कर रही थीं कि किसी-न-किसी दिन श्रीकृष्ण यहाँ आयेंगे ॥ १-४॥

सखीके मुखसे जब यह संवाद मिला कि श्रीकृष्ण अपने विपिनमें पधारे हैं, तब श्रीवृषभानुनन्दिनी उन्हें लानेके लिये अपने श्रेष्ठ आसनसे तत्काल उठकर खड़ी हो गयीं और सहेलियोंके साथ दरवाजेपर आयीं। व्रजेश्वरी श्यामाने व्रजवल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको उनका कुशल-समाचार पूछते हुए आसन दिया और क्रमशः पाद्य, अर्घ्य आदि उपचार अर्पित किये। नरेश्वर ! परिपूर्णतमा श्रीराधाने परिपूर्णतम श्रीकृष्णका दर्शन पाकर विरहजनित दुःखको त्याग दिया और संयोग पाकर वे हर्षोल्लाससे भर गयीं। उन्होंने वस्त्र, आभूषण और चन्दनसे अपना शृङ्गार किया। प्राणनाथ श्रीकृष्णके कुशस्थली चले जानेके बादसे श्रीराधाने कभी शृङ्गार धारण नहीं किया था। इस दिनसे पहले उन्होंने कभी पान नहीं खाया, मिष्टान्न भोजन नहीं किया, शय्यापर नहीं सोयीं और कभी हास-परिहास नहीं किया था। इस समय सिंहासनपर विराजमान मदनमोहनदेवसे श्रीराधाने हर्षके आँसू बहाते हुए गद्द कण्ठसे पूछा ॥ ५-१० ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

श्रीराधा बोलीं- हृषीकेश। तुम तो साक्षात् गोकुलेश्वर हो; फिर गोकुल और मथुरा छोड़कर कुशस्थली क्यों चले गये ? इसका कारण मुझे बताओ। नाथ! तुम्हारे वियोगसे मुझे एक-एक क्षण युगके समान जान पड़ता है। एक-एक घड़ी एक-एक मन्वन्तरके तुल्य प्रतीत होती है और एक दिन मेरे लिये दो परार्धके समान व्यतीत होता है। देव! किस कुसमयमें मुझे दुःखदायी विरह प्राप्त हुआ, जिसके कारण मैं तुम्हारे सुखदायी चरणारविन्दोंका दर्शन नहीं कर पाती हूँ। जैसे सीता श्रीरामको और हंसिनी मानसरोवरको चाहती है, उसी तरह में तुम मानदाता रासेश्वरसे नित्यमिलनकी इच्छा रखती हूँ। तुम तो सर्वज्ञ हो, सब कुछ जानते हो। मैं तुमसे अपना दुःख क्या कहूँ ? नाथ! सौ वर्ष बीत गये, किंतु मेरे वियोगका अन्त नहीं हुआ ॥ ११-१५॥

राजन् ! अपने परम प्रियतम स्वामी श्यामसुन्दरसे ऐसा वचन कहकर स्वामिनी श्रीराधा विरहावस्थाके दुःखोंको स्मरण करके अत्यन्त खिन्न हो फूट-फूट कर रोने लगीं। प्रियाको रोते देख प्रियतम श्रीकृष्णने अपने वचनोंद्वारा उनके मानसिक क्लेशको शान्त करते हुए यह प्रिय बात कही ॥ १६-१७ ॥

श्रीकृष्ण बोले- प्रिये राधे! यह शोक शरीरको सुखा देनेवाला है; अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। हम दोनोंका तेज एक है, जो दो रूपोंमें प्रकट हुआ है; इस बातको ऋषि-महर्षि जानते हैं। जहाँ मैं हूँ, वहाँ सदा तुम हो और जहाँ तुम हो, वहाँ सदा मैं हूँ। हम दोनोंमें प्रकृति और पुरुषकी भाँति कभी वियोग नहीं होता। राधे! जो नराधम हम दोनोंके बीचमें भेद देखते हैं, वे शरीरका अन्त होनेपर अपनी उस दोषदृष्टिके कारण नरकोंमें पड़ते हैं। श्रीराधिके ! जैसे चकई प्रतिदिन प्रातः काल अपने प्यारे चक्रवाकको देखती है, उसी तरह आजसे तुम भी मुझे सदा अपने निकट देखोगी। प्राणवल्लभे! थोड़े ही दिनोंके बाद मैं समस्त गोप-गोपियोंके और तुम्हारे साथ अविनाशी ब्रह्मस्वरूप श्रीगोलोकथाममें चलूँगा ॥ १८-२२॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! माधवको यह बात सुनकर गोपियाँसहित श्रीराधिकाने प्रसन्न हो प्यारे श्यामसुन्दरका उसी प्रकार पूजन किया, जैसे रमादेवी रमापतिकी पूजा करती हैं। नरेश्वर। श्रीराधिकाने पुनः श्रीकृष्णसे रासक्रीडाके लिये प्रार्थना की। तब प्रसन्न हुए रासेश्वरने वृन्दावनमें रास करनेका विचार किया ॥ २३-२४॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘श्रीराधा-कृष्णका मिलन’
नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४१ ॥

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

बयालीसवाँ अध्याय

रासक्रीडा के प्रसङ्ग में श्रीवृन्दावन, यमुना-पुलिन, वंशीवट, निकुञ्जभवन आदि की शोभा
का वर्णन; गोपसुन्दरियों, श्यामसुन्दर तथा श्रीराधा की छबिका चिन्तन

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! हेमन्त ऋतुके प्रथम मासमें पूर्णिमाकी रातको राधिकावल्लभ श्याम- सुन्दरने वृन्दावनमें पहलेकी ही भाँति सबको वशमें कर लेनेवाली वंशी बजायी। वह वंशीध्वनि सबके मनको आकृष्ट करती हुई सब ओर फैल गयी। उसे सुनकर गोपसुन्दरियाँ प्रेमवेदनासे पीड़ित एवं त्रस्त हो गयीं। मेघोंकी गतिको रोकती, तुम्बुरुको बार-बार आश्चर्यमें डालती, सनक-सनन्दन आदिके ध्यानमें बाधा पहुँचाती, ब्रह्माजीको विस्मित करती, उत्कण्ठावलियोंसे राजा बलिको भी चपल बनाती, नागराज शेषमें चञ्चलता लाती तथा ब्रह्माण्डकटाहकी भित्तियोंका भेदन करती हुई वह वंशीध्वनि सब ओर २ फैल गयी ॥१-३॥

राजेन्द्र ! इतनेमें ही चराचर प्राणियोंके सूर्यकिरण- जनित संतापका मार्जन करते हुए चन्द्रमाका उदय हुआ; जैसे परदेशसे आया हुआ प्रियतम अपनी प्रियाके विरह-शोकको दूर कर देता है। दूसरोंको मान देनेवाले नरेश ! उसी समय यमुनाने दिव्य रूप धारण किया। वृन्दावन, गिरिराज और व्रजभूमिका स्वरूप भी दिव्य हो गया। श्यामवर्णा यमुनानदीका उत्कर्ष बहुत बढ़ गया। वहाँ मणियोंमें श्रेष्ठ रत्न, मोती, माणिक्य, शुभ्ररत्न (हीरा), हरितरत्न (पन्ना) आदिसे निर्मित करतोलिकाओंसे, जो वैदूर्य, नीलम, हरिन्मणि, इन्द्रनील, वज्रमणि और पीतमणियोंसे निर्मित सोपानों एवं रत्नमण्डपोंसे युक्त र्थी, यमुनाजीकी अतिशय शोभा हो रही थी। यमुना नदी वहाँ श्रीकृष्णसदनमें लौटती हुई सब नदियोंसे उत्कृष्ट शोभा पा रही थीं। स्वच्छन्द उछलते हुए मत्स्यगणोंके साथ बहती तथा सुन्दर श्याम अङ्गसे पापराशिका हरण करती हुई वे अपनी ऊँची-ऊँची चञ्चल लहरों तथा प्रफुल्ल कमलोंसे सुशोभित थीं ॥४-७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

उस गोवर्धनगिरिका भजन-सेवन करो। जो शत- शत चन्द्रमाओंके प्रकाशसे युक्त है, मन्दार और चन्दन लताओंसे वेष्टित कल्पवृक्ष जहाँ अद्भुत शोभा पाते हैं, जहाँ रासमण्डल तथा मणिमय मण्डप विद्यमान हैं तथा जिसके शिखरपर करोड़ों मञ्जुल निकुञ्ज कुटीर दीप्तिमान् हैं। यमुनाजीके तटप्रदेश, नीरराशि तथा तीरके सम्पर्कमें आकर मन्दगतिसे प्रवाहित होनेवाली अत्यन्त सुगन्धित वायुसे कम्पित वृन्दावनका सारा भाग सुवासित है तथा श्रीखण्ड, कुङ्कुमयुक्त मृत्तिका एवं अगुरुसे चर्चित होकर वह वन परम कल्याणमय जान पड़ता है। वसन्त ऋतुमें सुलभ नूतन पल्लवों और फूलोंके रंगोंसे सेवित वृन्दावन मन्दार, चन्दन, चम्पा, कदम्ब, निरम्ब, अमड़ा, आम, कटहल, अगुरु, नारंगी, श्रीफल, ताड़, पीपल, बरगद और नवल नारियलसे सुशोभित है। खजूर, श्रीफल (बेल) और लवङ्गलताएँ उस वनकी शोभा बढ़ाती थीं। अंजीर, साल, तमाल, कदम्ब, सन्तान (कल्पवृक्ष), कुन्द, बेर, केला और मोतियोंसे वह सम्पन्न था। सेमल, मौलसिरी, केतकी और शिरीष आदि वृक्ष उसके वैभव थे॥८-११॥

नृपेन्द्र । सत्पुरुषोंके मनको मोद प्रदान करनेवाली लता-बल्लरी और कमलोंके समूहसे जिसकी आभा मनोहारिणी प्रतीत होती है, वह तुलसी-लतासे सम्पन्न श्रेष्ठ वृन्दावन श्रीमल्लिका, अमृतलता और मधुमयी माधवी-लताओंसे सुशोभित है। व्रजमण्डलके मध्य- भागमें तुम ऐसे वृन्दावनका चिन्तन करो। यमुनाके तटपर मधुर कण्ठवाले विहङ्गमोंसे युक्त वंशीवट शोभा पाता है। उसका पुलिन बालुकाओंसे सम्पन्न है। श्रीपाटल, महुआ, पलाश, प्रियाल, गूलर, सुपारी, दाख और कपित्थ (कैथ) आदि वृक्ष यमुनातटकी शोभा बढ़ाते हैं। कोविदार (कचनार), पिचुमन्द (नीम), लताजाल, अर्जुन (सरल), देवदारु, जामुन, सुन्दर बेंत, नरकुल, कुब्जक, स्वर्णयूथी, पुन्नाग, नागकेसर, कुटज और कुरबकसे भी वह आवृत है। चक्रवाक, सारस, तोते, श्वेत राजहंस, कारण्डव और जलकुक्कुट यमुनातटपर सदा कल-कूजन किया करते हैं। दात्यूह (पपीहा), कोयल, कबूतर, नीलकण्ठ और नाचते हुए मोरोंके कलरवसे मुखरित यमुनापुलिनका तुम सदा स्मरण करो ॥ १२-१६॥

श्यामा, चकोर, खञ्जरीट, सारिका (मैना), पारावत (परेवा), भ्रमर, तीतर, तीतरी, कनकलता, मधुलता, मधुयुक्त जूही-इन सबसे जो आवेष्टित है, हरिण, मर्कट और मर्कटियाँ जहाँ सदा विचरती रहती हैं और पद्मरागमणिके शिखर जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, वह वृन्दावनका निकुञ्जभवन, श्रीकौस्तुमणि और इन्द्रनील मणियोंसे अलंकृत है। वहाँ कोटि-कोटि चन्द्रमण्डलकी शोभासे युक्त सुनहरे चंदोवे लगे हैं, जो रेशमके सूतसे निर्मित हुए हैं। उस निकुञ्ज-भवनका द्वार मणिमय बन्दनवारोंसे विलसित है। मोतियोंकी झालरोंसे युक्त सुवर्णके समान पीली पताकाएँ वहाँ फहराती रहती हैं। कबूतर और हंस आदि पक्षी उसे घेरे रहते हैं। मन्दार, कुन्द, कनेर, जूही और नूतन चम्पाके फूलोंकी विचित्र मालाओंसे उस निकुञ्ज-भवनकी सुन्दर सजावट की गयी है। नागकेसर, कमल और हरिचन्दनके पल्लवोंकी मालाओंसे तथा श्रीमालती, कुरबक तथा काञ्चनयूथिकाके फूलोंके हारोंसे आवृत वह निकुञ्ज-भवन कामदेवके मनको भी मोह लेनेवाला है। वहाँ दीवारोंपर सुन्दर रत्नमय दर्पण लगे हैं और श्वेत चामर उस भवनकी शोभा बढ़ाते हैं। नूतन पल्लवों और पुष्पोंसे अलंकृत सिंहासनों, शय्यासनोंमें सुवर्ण और मूँगेके पाये लगे हैं, जिनसे उस भवनकी अनुपम शोभा होती है। श्रीचन्दन और अगुरुके जल, सुगन्धित पुष्पोंकी मकरन्दराशि तथा कस्तूरीके सौरभसे आमोदित केसरपङ्कसे उस भवनमें सब ओर छिड़काव किया गया है। हिलते हुए वसन्त वृक्षोंके पल्लवोंसे जिनका अनुमान होता है, ऐसे शीतल तथा गजराजकी-सी गतिवाले मन्द-मन्द समीरणसे उस भवनका सर्वाङ्ग सुगन्धसे भीना हुआ था। वहाँके वृक्षोंकी शाखाएँ अत्यन्त नम्र-झुकी हुई थीं तथा अधिकाधिक पुष्पसमूहोंसे वह अलंकृत था। श्रीहरिके ऐसे निकुञ्ज-भवनका तुम चिन्तन करो ॥ १७-२२ ॥

नरेश्वर । श्रीहरिके वेणुवादनसे निकला हुआ गीत अत्यन्त प्रेमोन्मादकी वृद्धि करनेवाला था। उसे सुनकर समस्त ब्रजसुन्दरियोंका मन प्रियतम श्रीकृष्णके वशमें हो गया। वे घरका सारा काम-काज छोड़कर व्रजमें चली आयीं। राजन्। जिन्हें पतियोंने रोक लिया, वे भी प्रियतम श्रीकृष्णके द्वारा हृदय हर लिये जानेके कारण स्थूल शरीर छोड़कर तत्काल श्रीकृष्णके पास चली गयीं। जिसपर सुनहरा दुकूल बिछा हुआ था, उस सिंहासनपर, उसके मध्यभागमें श्यामसुन्दर नन्दनन्दन श्रीसुन्दरी राधिकाके साथ बैठे थे। उनके गलेमें मकरन्दपूरित मालतीको माला शोभा पा रही थी। उनकी अङ्गकान्ति श्याम थी। वे प्रातःकालके सूर्यके समान दीप्तिमान् किरीटसे सुशोभित थे। उनकी प्रभा चारों ओर फैल रही थी। अधरसे लगी हुई श्रीमुरलीके कारण उन श्रीहरिकी मनोहरता और भी बढ़ गयी थी। वहाँ आयी हुई व्रजसुन्दरियोंने कोटि-कोटि कामदेवके समूहोंको मोहित करनेवाले पीताम्बरधारी श्यामसुन्दरको देखा ॥२३-२६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

राजन् ! मीनाकार कुण्डलधारी प्रिया-प्रियतम श्रीहरिको देखकर गोपियाँ तत्काल मूच्छित हो गयीं। उनके अङ्गोंमें किसी प्रकारकी चेष्टा नहीं दिखायी देती थी। तब श्रीकृष्णने अमृतके समान मधुर वचनोंद्वारा उन सबको सान्त्वना दी धीरज बंधाया। तब समस्त गोपसुन्दरियाँ उस वनप्रान्तमें चेतनाको प्राप्त हुईं। गद्गद वाणीसे श्रीकृष्णकी स्तुति करके डरी हुई सी उन गोपसुन्दरियोंने विरहजनित दुःखका परित्याग कर प्राणवल्लभ गोविन्दकी ओर बड़े प्यारसे देखा। मालतीवनसे व्याप्त दिव्य वृक्षों एवं दिव्य लताओंके जालसे मण्डित तथा भ्रमरोंकी गुञ्जारोंसे मुखरित शोभाशाली वृन्दावनमें साक्षात् मदनमोहनदेव श्रीहरि गोपाङ्गनाओंके साथ विचरने लगे। अपने हस्तकमलसे श्रीराधिकाके करकमलको पकड़कर हँसते हुए साक्षात् भगवान् नन्दनन्दन यमुनाजीके तटपर आये। यमुनाके किनारे शोभायमान निकुञ्ज-भवनमें श्रीकृष्ण विराजमान हुए। राजन् ! मधुपतिके उस भवनमें श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दोंके चिन्तनमें संलग्र हुई गोपाङ्गनाओंके पैरोंमें झनकारते हुए नूपुरोंकी ध्वनिके साथ खनखनाते हुए हाथके कंगनों, पाँवके मञ्जीरों और कटिप्रदेशकी रत्ननिर्मित चञ्चल किंकिणियोंके मधुर रवको तुम मनके कानोंसे सुनो ॥ २७-३३ ॥

मन्द-मन्द मुसकानकी कान्तिसे उन गोपसुन्दरियोंके कोमल कपोल-प्रान्त सुस्पष्ट चमकते या चमत्कारपूर्ण शोभा धारण करते थे। शोभामयी दन्तपङ्क्तिसे विद्युद्विलास-सा प्रकट करनेवाली उन सखियोंके वेष बड़े मनोहर थे। कोटीर रत्नके हार और हरितमणिके बाजूबंदसे विभूषित तथा सूर्यमण्डलके समान दीप्तिमान् कुण्डलोंसे मण्डित हुई उन गोपसुन्दरियोंमें कोई-कोई युवती ‘मुग्धा’ बतायी गयी है। कोई तरुणी ‘मध्या’ और कोई सुन्दरी ‘प्रगल्भा’ नायिका थी। कोई तरुणी ‘तरूं नयति इति तरुणी।’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार तरुको भी विनयकी शिक्षा देती थी। कोई सखी उस सुन्दर वनमें अपने मधुर हासकी छटा बिखेरती थी और कोई मदमत्त होकर चलती थी। कोई उसे भी हाथसे ठोंककर आगे दौड़ जाती थी और कोई उसको भी पकड़कर उस निकुञ्ज-भवनमें कमलके फूलोंसे पीटती थी। कोई किसीके ढीले या टूटते हुए सुवर्णहारको हँसी-हँसीमें खींच लेती और कोई उस वन-विहारमें इस तरह मतवाली होकर दौड़ती कि उसके बँधे हुए केशपाश खुल जाते थे। उस निकुञ्ज-भवनमें श्रीजाह्नवी (गङ्गा), मधु-माधवी, शीला, रमा, शशिमुखी, विरजा, सुशीला, चन्द्रानना, ललिता, अचला, विशाखा और माया आदि असंख्य गोपियाँ थीं। मैंने यहाँ थोड़ी-सी गोपाङ्गनाओंके ही नाम बताये हैं। वहाँकी मणिमयी भूमियोंपर कोई लीलाछत्र लेकर और कोई अतिमौक्तिक लता (मौगरा आदि) के फूलोंकी मालाएँ लेकर चलती थी। कितनी ही सखियाँ चामर, व्यजन, दण्ड और फहराती हुई पीली पताकाएँ लिये चल रही थीं। कुछ गोपाङ्गनाएँ वहाँ श्रीहरि (नटवर नन्दकिशोर) का वेष धारण करके नाचती थीं। कोई हाथमें वीणा लेकर बजाती, कोई हाथसे ताल देती और कोई मृदङ्गवादनकी कला दिखाती थी। कितनी ही सखियाँ वृषभानुनन्दिनीका-सा वेष धारण किये, केयूर और कुण्डलोंसे अलंकृत हो वंशी लेकर बजातीं और कई मणिमण्डित बेंतकी छड़ी हाथमें लेकर चलती थीं। सुन्दर हाव-भाव, रस और तालसे युक्त मन्द मुसकानके रससे सिक्त तथा झंकारते हुए नूपुरोंके शब्दसे युक्त विशद कटाक्षों, भौंहोंके कुटिल विलासों एवं संगीत- नृत्यकलाके ज्ञानोंद्वारा गोपाङ्गनाएँ वहाँ श्रीराधा तथा माधवको सतत संतुष्ट कर रही थीं। यमुनाके तटपर उस निकुञ्ज-भवनमें वंशीवटके पासकी वनभूमिके निकट नटवरवेषधारी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण श्रीराधाके साथ गिरिराजकी घाटीमें विचर रहे हैं। इस झाँकीमें तुम उनका चिन्तन करो ॥ ३४-४१ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

श्रीपद्मरागमणिके समान अरुण आभावाले चमकीले नखोंसे जिनके चरणारविन्द उद्दीप्त जान पड़ते हैं, जो अपने पैरोंमें झंकारते हुए नूपुर धारण किये हुए हैं, जिनके सम्पूर्ण अङ्गदेशसे दिव्य दीप्ति झर रही है, जो विचरणकालमें अपने लाल-लाल पादतलों से भूप्रदेशको अरुण रंगसे रञ्जित कर रहे हैं, शोभाशाली चरणपरागकी सुन्दर कान्ति बिखेरते हुए इधर-उधर टहल रहे हैं, जिनका युगल जानुदेश लक्ष्मीजीके करकमलोंद्वारा सब ओरसे लालित होता-दुलारा जाता है, जिनके रम्भाके समान जाँघोंपर पीताम्बर शोभा पाता है, जिनका उदरभाग अत्यन्त कृश है, नाभिसरोवर रोमावलिरूपी भ्रमरोंसे सुशोभित है, जो उदरमें त्रिवेणीमयी तीन रेखा धारण करते हैं, जिनका वक्षःस्थल भृगुके चरणचिह्न तथा कौस्तुभमणिसे अलंकृत है, श्रीवत्सचिह्न एवं हारोंसे अत्यन्त रुचिर दिखायी देता है, जिनके श्रीअङ्गोंकी कान्ति नूतन मेघमालाके समान नील है, जो रेशमी पीताम्बर धारण करते हैं, जिनके विशाल भुजदण्ड हाथीको सूँड़के समान प्रतीत होते हैं, जो रत्नमय बाजूबंद और मणिमय कंगन धारण करते हैं, जिनके एक हाथमें दिव्य कमल है तथा दूसरे हाथमें दिव्य शङ्ख कमलपर विराजित राजहंसके समान शोभा पाता है, जो शङ्खाकार ग्रीवासे सुन्दर दिखायी देते हैं, जिनके कपोलोंका मध्यभाग अत्यन्त शोभाशाली है, चिबुक (ठोढ़ी) का भाग गहरा है और दाँत कुन्दके समान चमकीले हैं, पके हुए बिम्बफलको अपनी अरुणिमासे लज्जित करनेवाले अधर मन्द मुसकानकी छटासे छबिमान हैं, नासिका तोतेकी चोंचके समान नुकीली है और जिनके वचनोंसे मानो अमृत झरता रहता है, कटाक्ष अत्यन्त चञ्चल हैं, नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान मनोहर हैं, जिनकी प्रत्येक लीला उनके प्रति प्रेमकी वृद्धि करनेवाली है और भ्रूमण्डल मानो मन्द मुस्कानरूपी प्रत्यञ्चासे युक्त कामदेवके धनुष हैं, जिनके मस्तकपर धारित रत्नमय किरीट विद्युत को छटाको विलज्जित कर रहा है तथा जो मार्तण्डमण्डल के समान कान्तिमान् कुण्डलोंसे मण्डित हैं, जिनके अधरपर वंशी विराजमान है, काली काली घुँघराली अलकें चञ्चल भुजङ्गके समान जान पड़ती हैं, जिनका मुख सजल पद्मपत्रके समान स्वेद बिन्दुओंसे विलसित है, जो करोड़ों कामदेवोंके घनीभूत सौन्दर्याभिमान को हर लेनेवाले हैं, जिनका श्रीविग्रह पतला है तथा जो वृन्दावनमें वंशीवटके समीप विचर रहे हैं, उन राधावल्लभ नटवर नन्दकिशोरका तुम सब प्रकारसे भजन-सेवन करो ॥ ४२-४७ ॥

जिनके लाल-लाल नखचन्द्रोंसे युक्त चरणारविन्द- की शोभा कुछ-कुछ लाल दिखायी देती है, मञ्जीर और नूपुरोंको झङ्कारके साथ जिनके कटिप्रदेशकी किंकिणी खनकती रहती है, घुँघुरू और सोनेके कंगनोंके मधुर शब्दसे शोभित होनेवाली तथा तरुपुओंके निकुञ्जमें विराजमान उन श्रीराधारानीका मैं ध्यान करता हूँ। श्रीराधाके शरीरपर नीले रंगके वस्त्र शोभा पाते हैं, जो सुनहरे किनारोंके कारण सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं। यमुनातटपर प्रवाहित होनेवाली वायुकी गतिसे वे वस्त्र चञ्चल हो गये हैं उड़ रहे हैं और अत्यन्त सूक्ष्म (महीन) होनेके कारण बहुत ही ललित (सुन्दर) दीख पड़ते हैं। ऐसे वस्त्रोंसे सुशोभित, अतिशय गौरवर्णा एवं मनोहर मन्द हासवाली रासेश्वरी श्रीराधाका भजन करो। जिनके बहुमूल्य मणिमय अङ्गद तथा रत्नमय हार प्रातःकाल के सूर्यमण्डल की भाँति दीप्तिमान् हैं, जो कानोंके ताटङ्क (बाली) और कण्ठमें सुशोभित मणिराज कौस्तुभके कारण अत्यन्त मनोहर छबि धारण करती हैं, जिनके गलेमें रत्नमयी कण्ठमाला तथा फूलोंके चौदह लड़ोंके हार शोभा पाते हैं तथा जो रत्ननिर्मित मुद्रिकासे ललित (अत्यन्त आकर्षक) प्रतीत होती हैं, उन व्रजराज नन्दनन्दनकी पत्नी श्रीराधाका स्मरण करो। जिनके मस्तकपर चूड़ामणिकी कान्तिसे लसित अर्धचन्द्राकार भूषण जगमगा रहा है, कण्ठगत आभूषणों और मुख मण्डलमें की गयी पत्ररचनासे जिनका रूप-सौन्दर्य विचित्र (अद्भुत) जान पड़ता है, जो श्रीपट्टसूत्र और मणिमय पट्टसूत्रोंद्वारा निर्मित दो लड़ोंकी चञ्चल माला धारण करती हैं तथा जिन्होंने अपने एक हाथमें प्रकाशमान सहस्रदल कमलको धारण कर रखा है, उन श्रीराधाका भजन करो। श्रीयुक्त भुजाओंके मणिमय कंगनोंसे कुचमण्डलमें विलसित रत्नमय हारकी दीप्ति द्विगुणित हो उठती है, सुन्दर नासिकाके नकबेसर आदि आभूषण समूचे कपोलमण्डलको उद्भासित करते हैं। उत्तम यौवनावस्थाके अनुरूप उनकी मन्द मन्द गति है। सिरपर बँधी हुई सुन्दर वेणी नागिनके समान शोभा पाती है। खिली हुई चम्पाके फूलोंकी-सी अङ्गोंकी पीत-गौर आभा है तथा मुखकी शोभा संध्याकालमें उदित करोड़ों चन्द्रमाओंकी कान्तिको तिरस्कृत करती है, ऐसी श्रीराधाका भजन करो। जो सुन्दर हावभावसे सुशोभित, नव विकसित नीलकमलके समान नेत्रवाली, मन्द मुसकानकी कान्तिमती कलाको प्रकाशित करनेवाली तथा चञ्चल कटाक्षोंके कारण कमनीय हैं, जिनकी कुन्तलराशिकी श्याम आभा बड़ी मनोहर है तथा जो पारिजातके हारोंके मधुर मकरन्दपर लुभायी हुई भ्रमरीके गुञ्जारवसे सुशोभित हैं, उन श्रीकृष्णवल्लभा राधाका चिन्तन करो। श्रीखण्डचन्दन, केसरपङ्क तथा अगुरुमिश्रित जलसे जिनका अभिषेक हुआ है, भालदेशमें जो कुङ्कुमकी वेणी धारण करती हैं तथा जिनके मुख-मण्डलमें रुचिर पत्ररचनाके रूपमें विचित्र चित्र चित्रित किया गया है, कल्पवृक्षके पत्रोंके समान जिनकी रुचिर गौर कान्ति है तथा जो नेत्रोंमें पूर्णरूपसे अञ्जनकी शोभा धारण करती हैं, उन गजगामिनी, पद्मिनी नायिका रासेश्वरी श्रीराधाका भजन करो ॥४८-५४॥

ऐसी रतिसे भी अधिक सुन्दर श्रीराधाको साथ लेकर श्रीकृष्ण निकुञ्जवनकी शोभा देखनेके लिये जब जा रहे थे, तब वहाँ गोपाङ्गनाएँ मणिमय छत्र धारण किये, मनोहर चैवर लिये तथा फहराती हुई पताकाएँ ग्रहण किये उनके साथ-साथ दौड़ने लगीं।आदिपुरुष नन्दनन्दन उत्तम धैवत और मध्यम आदि स्वरोंसे छः राग तथा उनका अनुगमन करनेवाली छत्तीसों रागिनियोंका ललित वंशीरवके द्वारा गान करते हुए चल रहे थे, ऐसे श्रीकृष्णका ध्यान करो। जो शृङ्गार, वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, रौद्र, बीभत्स और भयानक रसॉसे नित्य युक्त हैं, व्रजवधुओंके मुखारविन्दके भ्रमर हैं और जिनके युगल चरण योगीश्वरोंके हृदयकमलमें सदा प्रकाशित होते हैं, उन भक्तप्रिय भगवान का भजन करो। जो समस्त क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञरूपसे निवास करते हैं, आदिपुरुष हैं, अधियज्ञ- स्वरूप हैं, समस्त कारणोंके भी कारणेश्वर हैं, प्रकृति और पुरुषमॅसे पुरुषरूप हैं तथा जिन्होंने अपने तेजसे यहाँ समस्त छल-कपट-काम-कैतवको निरस्त कर दिया है, उन सर्वेश्वर श्रीकृष्ण हरिका भजन करो। शिव, धर्म, इन्द्र, शेष, ब्रह्मा, सिद्धिदाता गणेश तथा अन्य देवता आदि भी जिनकी ही स्तुति करते हैं; श्रीराधा, लक्ष्मी, दुर्गा, भूदेवी, विरजा, सरस्वती आदि तथा सम्पूर्ण वेद सदा जिनका भजन करते हैं, उन श्रीहरिका में भजन करता हूँ॥५५-५९॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘रासक्रीडा-विषयक’
नामक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४२ ॥

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तैंतालीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण का श्रीराधा और गोपियों के साथ विहार तथा मानवती गोपियों के
अभिमानपूर्ण वचन सुनकर श्रीराधा के साथ उनका अन्तर्धान होना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । वृक्षों, लताओं और भ्रमरोंसे व्याप्त तथा शीतल-मन्द पवनसे वीजित वृन्दावनमें मुरलीके छिद्रोंको मुखोद्गत समीरसे भरते वेणु बजाते हुए नन्दनन्दन श्रीहरि बारंबार देवताओंका मन मोहने लगे। तदनन्तर वेणुगीत सुनकर प्रेमविह्नला कीर्तिनन्दिनी श्रीराधाने प्रियतम नन्दनन्दनको दोनों बाँहोंमें भर लिया। गोकुलचन्द्र श्रीकृष्णने गोकुलकी चकोरी राधाको प्रेमपूर्वक निहारते हुए फूलोंकी सेजपर उनके मनको लुभाते हुए उनके साथ आनन्दमयी दिव्य क्रीडा की। श्रीकृष्णके साथ विहारका सुख पाकर स्वामिनी श्रीराधा ब्रह्मानन्दमें निमग्न हो गयीं। उन्होंने स्वामीको वशमें कर लिया और वे परमानन्दका अनुभव करने लगीं ॥ १-४॥

राजन् । प्रेमानन्द प्रदान करनेवाले रमणीय रमावल्लभ श्रीहरिको गोपरामाओंने रासमण्डलमें सब ओरसे पकड़ लिया। उनमें सौ यूथोंकी युवतियाँ विद्यमान थीं। नरेश्वर। रमणीय नन्दनन्दन श्रीहरिने रासमण्डलमें जितनी व्रजसुन्दरियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके उनके साथ विहार किया। जैसे संत पुरुष ब्रह्मका साक्षात्कार करके परमानन्दमें निमग्र हो जाते हैं, उसी प्रकार वे वृन्दावनविहारिणी समस्त गोप- सुन्दरियाँ बाँकेविहारी के साथ विहारका सुख पाकर ब्रह्मानन्दमें डूब गयीं। श्रीवल्लभ श्यामसुन्दरने अपने शोभाशाली युगलकरकमलोंद्वारा उन सम्पूर्ण ब्रज- वनिताओंको अपने हृदयसे लगाया; क्योंकि उन्होंने अपनी भक्तिसे भगवान्‌को वशमें कर लिया था। उन गोपसुन्दरियोंके मुखोंपर पसीनेकी बूँदें छा रही थीं। व्रजवल्लभ श्रीकृष्णने बड़े प्यारसे अपने पीताम्बरद्वारा उन पसीनोंको पोंछा। उन गोपाङ्गनाओंकी तपस्याके फलका मैं क्या वर्णन कर सकता हूँ? उन्होंने सांख्य, योग, तप, उपदेश-श्रवण, तीर्थसेवन तथा गान आदिके बिना ही केवल प्रेममूलक कामनासे श्रीहरिको प्राप्त कर लिया ॥ ५-१०॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

तदनन्तर समस्त गोपियाँ अभिमानमें आकर परस्पर ओछी बातें करने लगीं; क्योंकि वे श्रीकृष्णके विहार-सुखसे पूर्णतः परितृप्त थीं। वे कहने लगीं- ‘सखियो! पहले श्रीकृष्ण हमलोगोंको छोड़कर मथुरापुरी चले गये थे, जानती हो क्यों? क्योंकि वे स्वयं परम सुन्दर हैं; अतः नगरमें परमसुन्दरी रूपवती स्त्रियोंको देखने गये थे। परंतु वहाँ जानेपर भी उन्हें मनके अनुरूप सुन्दरियाँ नहीं दिखायी दीं। तब वे फिर वहाँसे द्वारका चले गये। जब वहाँ भी सुन्दरियाँ नहीं दृष्टिगोचर हुई, तब उन्होंने एक सुन्दरी राजकुमारीके साथ विवाह किया। वह थी-भीष्मकराजनन्दिनी रुक्मिणी! किंतु उसे भी रूपवती न मानकर इन्होंने पुनः बहुत-से विवाह किये। सोलह हजार स्त्रियाँ घरमें ला बिठायीं। किंतु सखियो। उन सबको भी मनके अनुकूल रूपवती न पाकर बारंबार शोक करते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पुनः हमें देखनेके लिये व्रजमें आये हैं। अरी वीर! सर्वद्रष्टा परमेश्वर हमारे रूप देखकर उसी तरह प्रसत्र हुए हैं, जैसे पहले रासमें हुआ करते थे। इसलिये हमलोग त्रिभुवनकी समस्त सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ, सुलोचना, चन्द्रमुखी तथा नित्य सुस्थिरयौवना मानी गयी हैं। हमारे समान रूपवती स्वर्गलोककी देवाङ्गनाएँ भी नहीं हैं; क्योंकि हमने अपने कटाक्षोंद्वारा श्रीकृष्णको शीघ्र ही वशमें कर लिया और कामुक बना दिया। अहो। जिस हंसने पहले मोती चुग लिये हैं, वही दुःखपूर्वक दूसरी वस्तु कैसे खायगा ? हर जगह मोती नहीं सुलभ होते। वे तो केवल मानसरोवरमें ही मिलते हैं; उसी प्रकार भूतलपर सर्वत्र सुन्दरी स्त्रियाँ नहीं होतीं। यदि कहीं हैं तो इस व्रजमें ही हैं॥ ११-२०॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! जगदीश्वर श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे उन मानवती गोपसुन्दरियोंका ऐसा कथन सुनकर श्रीराधाके साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। नरेश्वर । निर्धन मनुष्य भी धन पाकर अभिमानसे फूल उठता है; फिर जिसको साक्षात् नारायण प्राप्त हो गये, उसके लिये क्या कहना है॥ २१-२२॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘रासक्रीडाविषयक’
तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४३ ॥

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चौवालीसवाँ अध्याय

गोपियों का श्रीकृष्ण को खोजते हुए वंशीवट के निकट आना और श्रीकृष्ण का
मानवती राधाको त्यागकर अन्तर्धान होना

वज्रनाभ बोले- ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुखसे श्रीकृष्ण का अद्भुत चरित्र सुना। भगवान्‌के अदृश्य हो जानेपर गोपियोंने क्या किया ? उन्होंने गोपाङ्गनाओं को कैसे दर्शन दिया? मुनिश्रेष्ठ ! मुझ श्रद्धालु भक्तको वह सारा प्रसङ्ग सुनाइये। संसारमें वे लोग धन्य हैं, जो सदा अपने कानोंसे श्रीकृष्णकी कथा सुनते हैं, मुखसे श्रीकृष्णचन्द्रके नाम जपते हैं, हाथोंसे प्रतिदिन श्रीकृष्णकी सेवा करते हैं, नित्यप्रति उनका ध्यान और दर्शन करते हैं तथा प्रतिदिन उन भगवान का चरणोदक पीते और प्रसाद खाते हैं। मुनिप्रवर! इस भावसे श्रम करके जो लोग जगदीश्वर श्रीकृष्णका भजन करते हैं, वे उनके परमधाममें जाते हैं। मुने। जो शारीरिक सौख्यसे उन्मत्त होकर संसारमें नाना प्रकारके भोग भोगते हैं और श्रवण-मनन आदि साधन नहीं करते, वे शरीरका अन्त होनेपर भयंकर यमदूतों- द्वारा पकड़े जाते हैं और जबतक सूर्य तथा चन्द्रमाकी स्थिति है, तबतकके लिये कालसूत्र नरकमें डाल दिये जाते हैं ॥ १-७॥

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार प्रश्न करनेवाले राजा वज्रनाभकी प्रशंसा करके मुनीश्वर गर्गजी गद्दवाणीसे उन्हें श्रीहरिका चरित्र सुनाने लगे ॥ ८ ॥

श्रीगर्गजी बोले- राजन्! श्रीकृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर समस्त गोपाङ्गनाएँ उन्हें न देखकर उसी तरह संतप्त हो उठीं, जैसे हरिणियाँ यूथपति हरिणको न पाकर दुःखमग्न हो जाती हैं। ‘भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये’- यह जानकर समस्त गोपसुन्दरियाँ पूर्ववत् यूथ बनाकर चारों ओर वन-वनमें उनकी खोज करने लगीं। परस्पर मिलकर वे समस्त वृक्षोंसे पूछने लगीं- ‘वृक्षगण ! नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हमको अपने कटाक्ष- बाणसे घायल करके कहाँ चले गये? यह बात हमें बता दो; क्योंकि तुम सब लोग इस वनके स्वामी हो। सूर्यनन्दिनि यमुने। तुम्हारे पुलिनके प्राङ्गणमें प्रतिदिन गौएँ चराते हुए जो तरह-तरहकी लीलाएँ किया करते थे, वे गोपाल श्रीकृष्ण कहाँ चले गये? यह हमें बताओ। सैकड़ों शिखरोंसे सुशोभित होनेके कारण ‘शतशृङ्ग’ नामसे विख्यात गोवर्द्धन! तुम गिरिराज हो। तुम्हें पूर्वकालमें इन्द्रके कोपसे व्रजवासियोंकी रक्षा करनेके लिये श्रीनाथजीने अपने बायें हाथपर धारण किया था। तुम श्रीहरिके औरस पुत्र हो; इसलिये वे कभी तुमको छोड़ते नहीं हैं। अतः तुम्हीं बताओ, वे नन्दनन्दन हमें वनमें छोड़कर कहाँ गये और इस समय कहाँ हैं? हे मयूर ! हरिण! गौओ! मृगो! तथा विहङ्गमो! क्या तुमने काली काली घुँघराली अलकोंसे सुशोभित किरीटधारी श्रीकृष्णको देखा है? बताओ। वे हमारे मनमोहन इस समय कहाँ, किस वनमें हैं?’ ॥ ९-१६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् । इन वचनोंद्वारा पूछे जानेपर भी वे कठोर तीर्थवासी प्राणी कोई उत्तर नहीं दे रहे थे; क्योंकि वे सभी मोहके वशीभूत थे ॥ १७ ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका पता पूछती हुई समस्त गोपसुन्दरियाँ ‘कृष्ण ! कृष्ण!’ पुकारते कृष्णमयी हो गयीं। वे कृष्णस्वरूपा गोपाङ्गनाएँ वहाँ श्रीकृष्णके लीला-चरित्रोंका अनुकरण करने लगीं। फिर वे यमुनाकी रेतीमें गयीं और वहाँ उन्हें श्रीहरिके पदचिह्न दिखायी दिये। वज्र, ध्वज और अङ्कुश आदि चिह्नोंसे उपलक्षित महात्मा श्रीकृष्णके चरण देखती और उनका अनुसरण करती हुई व्रजाङ्गनाएँ तीव्र गतिसे आगे बढ़ीं। वे श्रीकृष्णकी चरणरेणु लेकर अपने मस्तकपर रखती जाती थीं। इतनेमें ही अन्य चिह्नोंसे उपलक्षित दूसरे पदचिह्न भी उनके दृष्टिपथमें आये। उन चरण- चिह्नोंको देखकर वे आपसमें कहने लगीं- ‘मालूम होता है, प्रियतम श्यामसुन्दर प्रियाके साथ गये हैं’ इस तरह बात करती और चरणचिह्न देखती हुई वे गोपाङ्गनाएँ तालवनमें जा पहुँचीं। नरेश्वर। व्रजेश्वरी श्रीराधाके साथ व्रजमें आगे-आगे जाते हुए व्रजेन्द्र श्रीकृष्ण पीछे आती हुई गोपियोंका कोलाहल सुनकर स्वामिनी श्रीलाड़िलीजीसे बोले- ‘करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्ति धारण करनेवाली प्रियतमे। जल्दी-जल्दी चलो। तुमको और मुझको साथ ले जानेके लिये व्रजसुन्दरियाँ सब ओरसे यहाँ आ पहुँची हैं॥ १८-२४॥

नरेश्वर! तब प्रियाजीने पहले प्रियतम श्याम- सुन्दरका फूलोंसे शृङ्गार किया। शृङ्गार करके वृन्दावनमें उन्हें पूर्ववत् दिव्य सुन्दर बना दिया। इसके बाद नन्दनन्दनने बहुत-से पुष्प लाकर उनके द्वारा प्रियाको भी दिव्य श्रृङ्गार धारण कराया। जैसे पूर्वकालमें उन्होंने भाण्डीरवनमें प्रियाका श्रृङ्गार किया था, उसी प्रकार उन्होंने पहले तो उनके केश सँवारे; फिर उनमें फूलोंके गजरे लगा दिये। इसके बाद प्राणवल्लभाके अङ्ग अङ्गमें अनुरूप अनुलेपन एवं अङ्गराग धारण कराये। फिर पानका बीड़ा खिलाया। श्यामसुन्दरके द्वारा सुन्दर शृङ्गार धारण कराये जानेपर गौरसुन्दरी श्रीराधा अत्यन्त सुन्दरी हो गयीं। सुन्दरताकी पराकाष्ठाको पहुँच गयीं ॥ २५-२७ ॥

महाराज! इसके बाद प्रमोदपूरित रमावल्लभ श्रीकृष्णने एक फूलके वृक्षके नीचे पुष्पमयी शय्या तैयार करके उसके ऊपर प्रियतमाके साथ प्रेममयी दिव्य क्रोडा की। वृन्दावन, गिरिराज, गोवर्धन, यमुना- पुलिन, नन्दीश्वरगिरि, बृहत्सानुगिरि और रोहितपर्वतपर तथा व्रजमण्डलके बारह वनोंमें सर्वत्र प्राणवल्लभाके साथ विचरण करके प्रियतम श्यामसुन्दर वंशीवटके नीचे आकर खड़े हुए थे। राजेन्द्र ! वहाँ स्वामिनीसहित श्रीगोपीजनवल्लभ माधवने ‘कृष्ण, कृष्ण’ का कीर्तन करती हुई गोपियोंका महान् कोलाहल सुना। फिर वे प्रियासे प्रेमपूर्वक बोले- ‘प्रियतमे! जल्दी-जल्दी चलो !’ श्रीकृष्णका यह कथन सुनकर श्रीराधा मानवती होकर बोलीं ॥ २८-३२॥

श्रीराधाने कहा- दीनवत्सल! अब मैं चलने- फिरनेमें असमर्थ हो गयी हूँ। आजतक कभी घरसे नहीं निकली थी। मैं दुर्बल हूँ। अतः तुम्हारा जहाँ मन हो, वहाँ स्वयं मुझे ले चलो ॥ ३३ ॥

उनका यह कथन सुनकर रामानुज श्रीकृष्ण रामाशिरोमणि श्रीराधिकाको अपने पीताम्बरसे हवा करने लगे; क्योंकि वे पसीने पसीने हो गयी थीं। फिर वे उन्हें हाथसे पकड़कर कहने लगे- ‘रानी! जिसमें तुम्हें सुख मिले, उसी तरह चलो।’ श्रीहरिके इस प्रकार कहनेपर उन्होंने अपने-आपको सबसे अधिक श्रेष्ठ मानकर मन-ही-मन सोचा- ‘ये प्रियतम अन्य समस्त सुन्दरियोंको छोड़कर रात्रिमें इस एकान्त स्थलमें मेरी सेवा करते हैं।’ मनमें ऐसा सोचकर वे श्रीहरिसे कुछ नहीं बोलीं। व्रजेश्वरी राधा चुपचाप आँचलसे मुँह ढककर श्यामसुन्दरकी ओर पीठ करके खड़ी हो गयीं। तब श्रीहरिने उनसे फिर कहा- ‘प्रिये! मेरे साथ चलो। भद्रे ! तुम शापवश वियोगसे पीड़ित हो; इसलिये मैं तुम्हारा सदा साथ दे रहा हूँ। पीछे लगी हुई समस्त गोपियोंको छोड़कर तुम्हारी सेवा करता हूँ। तुम चाहो तो मेरे कंधेपर बैठकर सुखपूर्वक एकान्त स्थलमें चलो’ ॥३४-३८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

राजन् ! मानी श्यामसुन्दरने अपनी मानवती प्रियासे ऐसा कहकर जब देखा कि ‘ये कंधेपर चढ़नेको उत्सुक हैं’ तब वे आत्माराम पुरुषोत्तम अपनी लीला दिखाते हुए उन्हें छोड़कर अन्तर्धान हो गये। नरेश्वर ! भगवान के अन्तर्धान हो जानेपर वधू राधिकाका सारा मान जाता रहा। वे शोकसे संतप्त हो उठीं और दुःखसे आतुर होकर रोने लगीं। तब श्रीराधाका रोदन सुनकर समस्त गोपसुन्दरियाँ वंशीवटके तटपर तुरंत आ पहुंचीं। आकर उन्होंने श्रीराधाको बहुत दुःखी देखा। वे सब गोपियाँ व्यजन और चैंवर लेकर श्रीराधाके अङ्गॉपर हवा करने लगीं। उन्हें प्रेमपूर्वक केसरमिश्रित जलसे नहलाकर वे फूलोंके मकरन्दों तथा चन्दनद्रवके फुहारोंसे उनके अङ्गॉपर छींटा देने लगीं। परिचर्या- कर्ममें कुशल गोपकिशोरियोंने मीठे वचनों द्वारा श्रीराधाको आश्वासन दिया। उनके मुखसे उन्हींके अभिमानके कारण गोविन्दके चले जानेकी बात सुनकर उन सम्पूर्ण मानवती गोपियोंको बड़ा विस्मय हुआ। नरेश्वर ! वे सब-की-सब मान त्यागकर यमुना पुलिनपर आयीं और श्रीकृष्णके लौट आनेके लिये मधुर स्वरसे उनके गुणोंका गान करने लगीं ॥ ३९-४५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘रासक्रीडाविषयक’
चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४४॥

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पैंतालीसवाँ अध्याय

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए उनका आह्वान
और श्रीकृष्णका उनके बीचमें आविर्भाव

गोपियाँ बोलीं- जो अपने अधरबिम्बकी लालिमासे मूँगेको लज्जित करते हैं और मधुर मुरली नादसे विनोद मानते आनन्द पाते हैं, जिनका मुखारविन्द नीलकमलके समान कोमल तथा श्याम है, उन गोपकुमार श्यामसुन्दरकी हम उपासना करती हैं। जिनकी अङ्गकान्ति साँवली है, जो वनविहारके रसिक हैं, जिनका अङ्ग अङ्ग कोमल है, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान सुन्दर एवं विशाल हैं, जो भक्तजनोंकी अभीष्ट कामना पूर्ण कर देते हैं, व्रज- सुन्दरियोंके नेत्रोंको शीतल करनेवाले हैं, उन मनमोहन श्रीकृष्ण का हम भजन करती हैं। जिनके लोचनाञ्जल विशेष चञ्चल हैं और कोमल अधर अर्धविकसित कमलकी शोभा धारण करते हैं, जिनके हाथोंकी अँगुलियाँ और मुख बाँसुरीसे सुशोभित हैं, उन वेणुवादनरसिक माधवका हम चिन्तन करती हैं। जिनके दाँत किंचित् अङ्कुरित हुई कुन्दकलिकाके समान उज्ज्वल हैं, जो व्रजभूमिके भूषण हैं, अखिल भुवनके लिये मङ्गलमयी शोभासे सम्पन्न हैं, जो अपने शब्द और सौरभसे मनको हर लेता है, श्रीहरिके उस सुन्दर वेषको ही हम गोपाङ्गनाएँ खोज रही हैं। जिनकी आकृति देवताओंद्वारा पूजित होती हैं, जिनके चरणारविन्दोंके अमृतका मुनीश्वरगण नित्य-निरन्तर सेवन करते रहते हैं, वे कमलनयन भगवान् श्याम- सुन्दर नित्य हम सबका कल्याण करें। जो गोपोंके साथ मल्लयुद्धका आयोजन करते हैं, जिन्होंने युद्धमें बड़े-बड़े चतुर जवानोंको परास्त किया है तथा जो सम्पूर्ण योगियोंके भी आराध्य देवता हैं, उन श्रीहरिका हम सदैव सेवन करती हैं। उमड़ते हुए नूतन मेघके समान जिनकी आभा है, जिनका लोचनाञ्चल प्रफुल्ल कमलकी शोभाको छीने लेता है, जो गोपाङ्गनाओंके हृदयको देखते-देखते चुरा लेते हैं तथा जिनका अधर नूतन पल्लवोंकी शोभाको तिरस्कृत कर देता है, उन श्यामसुन्दरकी हम उपासना करती हैं। जो अर्जुनके रथकी शोभा है, समस्त संचित पार्पोको तत्काल खण्डित कर देनेवाला है और वेदकी वाणीका जीवन है, वह निर्मल श्यामल तेज हमारे मनमें सदा स्फुरित होता रहे। जिनकी दृष्टि-परम्परा गोपिकाओंके वक्षःस्थल और चञ्चल लोचनोंके प्रान्तमें पड़ती रहती है तथा जो बाल-क्रीडाके रसकी लालसासे इधर-उधर घूमते रहते हैं, उन माधवका हम दिन-रात ध्यान करती हैं। जिनके मस्तकपर नीलकण्ठ (मोर) के पंखका मुकुट शोभा पाता है, जिनके अङ्ग-वैभव (कान्ति) को नीलमेघकी उपमा दी जाती है, जिनके नेत्र नील कमलदलके समान शोभा पाते हैं, उन नील केश पाशधारी श्यामसुन्दरका हम भजन करती हैं। व्रजकी युवतियाँ जिनके लीला-वैभवका सदा गान करती हैं, जो कोमल स्वरमें मुरली बजाया करते हैं तथा जो मनोऽभिराम सम्पदाओंके धाम हैं, उन सब सारस्वरूप कमलनयन श्रीकृष्णका हम भजन करती हैं। जो मनपर मोहनी डालनेवाले और उत्तम शार्ङ्गधनुषधारी हैं, जो मानवती गोपाङ्गनाओंको छोड़कर निकल गये हैं तथा नारद आदि मुनि जिनका सदा भजन-सेवन करते हैं, उन नन्दगोपनन्दनका हम भजन करती हैं। जो श्रीहरि असंख्य रमणियोंसे घिरे रहकर रासमण्डलमें सवपर विजय पाते हैं, उन्हीं प्रियतम श्यामसुन्दरको वनमें राधासहित दुःख उठाती हुई हम ब्रजवनिताएँ ढूँढ़ रही हैं। देवदेव! व्रजराजनन्दन! हरे! हमें पूर्णरूपसे दर्शन दीजिये, जो सब दुःखोंको हर लेनेवाला है। हम आपकी क्रीत दासियाँ हैं। आप पूर्ववत् हमारी ओर देखकर हमें अपनाइये। जिन्होंने एकार्णवके जलसे इस भूमण्डलका उद्धार करनेके लिये परम उत्तम सम्पूर्ण यज्ञवाराहस्वरूप धारण किया था और अपनी तीखी दाढ़से ‘हिरण्याक्ष’ नामक दैत्यको विदीर्ण कर डाला था, वे भगवान् श्रीहरि ही हम सबका उद्धार करनेमें समर्थ हों। जिन्होंने वेनकी दाहिनी बाँहसे स्वेच्छापूर्वक पृथुरूपमें प्रकट हो देवताओंसहित मनुकी सम्मतिसे इस पृथ्वीका दोहन किया और मत्स्यरूप धारण करके वेदोंकी रक्षा की, वे ही भगवान श्रीकृष्ण इस अशुभ वेलामें हम गोपियोंके लिये शरणदाता हों। अहो! जिन परम प्रभुने समुद्र मन्थनके समय कच्छपरूप धारण करके बड़े भारी पर्वत मन्दराचलको अपनी पीठपर ढोया था और नृसिंहरूप धारण करके अपने भक्तके प्राण लेनेको उद्यत हुए असुर हिरण्यकशिपुको प्राणदण्डसे दण्डित किया, वे ही श्रीहरि हम सबको परम आश्रय देनेवाले हों। जिन्होंने राजा बलिको छला-तीन पग भूमिके ब्याजसे त्रिलोकीका राज्य उनसे छीन लिया तथा देवद्रोहियोंका दलन करके मुनिजनोंपर अनुग्रह करते हुए भूमण्डलपर विचरण किया, जो यदुकुलतिलक बलरामजीके रूपमें प्रकट हुए हैं और जिन्होंने उसी रूपसे कौरवपुरी हस्तिनापुरको हलसे खींचते हुए उसे गङ्गाजीमें डुबा देनेका विचार किया था, वे भगवान् श्रीकृष्ण सर्वथा हमारे रक्षक हों। जिन्होंने गिरिराज गोवर्द्धनको उठाकर व्रजके पशुओं का उद्धार किया तथा ब्रजपति नन्दरायकी, अन्यान्य गोपजनोंकी तथा हम गोपाङ्गनाओं की भी रक्षा की थी, फिर आगे चलकर जिन्होंने कौरवोंद्वारा उत्पन्न किये गये संकटसे द्रुपदराजकुमारी पाञ्चालीके प्राण बचाये-भरी सभामें उसकी लज्जा रखी, उन्हींके चरणारविन्दों में हमारा सदा अनन्य अनुराग बना रहे। जिन परमपुरुष यदुवंशविभूषणने समस्त पाण्डवोंकी विषसे, लाक्षागृहकी महाभयंकर अग्निसे, बड़े-बड़े अस्त्रोंसे तथा अनेकानेक विपत्तियोंसे पूर्णतः रक्षा की, उन्हींके चरण हम सबके लिये शरण हों। हम उस बालरूपिणी देवमूर्तिकी वन्दना करती हैं, जो वनमाला, मोरपंख तथा परमसुन्दर केशपाश धारण करती है, वृन्दावनके फूलोंके आभूषण पहनती है, शिलासे उत्पन्न अगुरु एवं कस्तूरी आदिके द्वारा रचित विचित्र तिलकसे अलंकृत होती है, सदा भक्तजनोंके मनको अपनी ओर खींचती रहती है, लीलामृत तथा वेणुनादामृतके वितरणके लिये जो एकमात्र रसिक है, जिसकी आकृति लावण्यलक्ष्मीमयी है तथा अङ्गकान्ति बाल तमालके समान नीली है* ॥ १-२१ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 41 to 45)

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! यों रोती हुई गोपसुन्दरियोंके इस प्रकार भक्तिपूर्वक आह्वान करनेपर रेवतीरमण बलरामके छोटे भाई श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उनके बीचमें प्रकट हो गये ॥ २२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘श्रीरासक्रीडाके प्रसङ्गमें श्रीकृष्णका आगमन’
नामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४५ ॥

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