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Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 31 से 35 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35) के इकतीसवाँ अध्याय में वृकद्वारा सिंहका और साम्बद्वारा कुशाम्बका वध वर्णन है। बत्तीसवाँ अध्याय में मयको बल्वलका समझाना; बल्वल की युद्धघोषणा; समस्त दैत्यों का युद्ध के लिये निर्गमन; विलम्ब के कारण सैन्यपाल के पुत्र का वध तथा दुःखी सैन्यपाल को मन्त्रिपुत्रों का विवेकपूर्वक धैर्य बँधने का वर्णन कहा गया है। तैंतीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण की कृपा से दैत्यराजकुमार कुनन्दन के जीवन की रक्षा करने का वर्णन है। चौंतीसवाँ अध्याय में दैत्यों और यादवों का घोर युद्ध; बल्वल, कुनन्दन तथा अनिरुद्ध के अद्भुत पराक्रम और पैंतीसवाँ अध्याय में बल्वलके चारों मन्त्रिकुमारोंका वध; बल्वलद्वारा मायामय युद्ध तथा अनिरुद्धके द्वारा उसकी पराजय का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इकतीसवाँ अध्याय

वृकद्वारा सिंहका और साम्बद्वारा कुशाम्बका वध

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! अपनी सेनाकी पराजय होती देख गदहेपर चढ़ा हुआ ‘सिंह’ नामक दैत्य रोषसे आगबबूला हो उठा और रथपर बैठे हुए वृकपर बाणोंद्वारा प्रहार करने लगा। नरेश्वर! उन बाणोंको अपने ऊपर आया देख युद्धस्थलमें श्रीकृष्ण- नन्दन वृकने खेल-खेलमें ही बाण मारकर उन्हें काट गिराया। सिंहने फिर बाण मारे और श्रीकृष्णकुमारने फिर उन्हें काट डाला ॥१-२ ॥

राजन् ! फिर तो रणक्षेत्रमें असुरराज सिंहके क्रोधकी सीमा न रही। उसने धनुषपर आठ बाण रखे। उनमेंसे चार बाणोंद्वारा उस वीरने वृकके घोड़ोंको यमलोक पहुँचा दिया, एक बाणसे हँसते हुए उसने वेगपूर्वक उनके रथकी बहुत ही ऊँची और भयंकर ध्वजा काट डाली और एक बाणसे सारथिका सिर घड़से अलग करके पृथ्वीपर गिरा दिया। फिर एक बाणसे रोषपूर्वक रणभूमिमें उनके प्रत्यञ्चासहित धनुषको काट दिया और एक बाणसे उस वेगशाली दैत्यने वृककी छातीमें चोट पहुंचायी ॥ ३-६ ॥

उसके उस अद्भुत कर्मको देखकर सब वीरोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसी समय वृकने सहसा उस दैत्यपर शक्तिसे आघात किया। वह शक्ति उसके शरीरको छेदकर और गदहेको भी विदीर्ण करके बाहर निकल गयी। राजन् ! जैसे साँप बिलमें घुस जाता है, उसी प्रकार वह शक्ति सिंहको घायल करके धरतीमें समा गयी। गदहा तो वहीं मर गया और दैत्य भी तत्काल पृथ्वीपर गिर पड़ा। परंतु वह दैत्य पुनः उठकर सिहके समान जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। उसने वृकके ऊपर एक शिखारहित शूल लेकर चलाया। अपने ऊपर आते हुए उस शूलको वृकने समराङ्गणमें अपने हाथसे पकड़ लिया। राजन् । फिर उसी शूलसे अत्यन्त कुपित हुए कृष्णकुमारने शत्रुपर आघात किया। सिंहका शरीर विदीर्ण हो गया। वह हाय-हाय करता हुआ पृथ्वीपर गिरा और मर गया। उसी समय समराङ्गणमें दानवोंका महान् हाहाकार प्रकट हुआ। देवताओंने फूलोंकी वर्षा की और श्रेष्ठ यादव-वीर ‘जय-जयकार’ करने लगे ॥ ७-१२॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

तव क्रोधसे भरे हुए कुशाम्बने युद्धके मैदानमें रथपर आरूढ़ हो शीघ्र आकर साम्ब आदि समस्त यादवोंको अपने सायकोंद्वारा बींधना आरम्भ किया। उसके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर बहुत-से विशाल गजराज धराशायी हो गये, रथ उलट गये और युद्धमें बहुत-से घोड़ोंकी गर्दनें कट गयीं तथा बहुत-से पैदल योद्धा बिना सिर और भुजाओंके हो गये। राजन् ! इस प्रकार कुशाम्ब अनेक वीरोंको मारता काटता हुआ युद्धभूमिमें विचरने लगा। उसका ऐसा पराक्रम देखकर युद्धकुशल जाम्बवतीनन्दन साम्बने युद्धके लिये कुशाम्बको ललकारा ॥ १३-१६ ॥

साम्ब बोले- वीर ! आओ और सहसा मेरे साथ युद्ध करो। दूसरे करोड़ों दीन मनुष्योंको डरानेसे क्या लाभ होगा ? ॥ १७ ॥

– ऐसा कहते हुए साम्बकी ओर देखकर बलवान् कुशाम्ब हँसने लगा। उसने साम्बकी छातीमें आठ बाण मारे। श्रीहरिके पुत्र साम्ब उसकी इस धृष्टताको सहन न कर सके। उन्होंने अपने कोदण्डपर सात बाणोंका संधान करके उनके द्वारा उस शत्रुभूत दानवकी छातीमें गहरी चोट पहुँचायी। दोनों ही युद्धके लिये रोषावेशसे भरे थे और दोनों ही अपनी-अपनी जीत चाहते थे। संग्रामभूमिमें वे दोनों योद्धा स्कन्द तथा तारकासुरके समान शोभा पाते थे। युद्धस्थलमें साम्बने कुशाम्बपर और कुशाम्बने साम्बपर आपसमें सर्पसदृश बाणोंकी वर्षा आरम्भ की। कुशाम्बने अपने धनुषपर सौ चमकीले बाणोंका संधान करके उनके द्वारा साम्बको रथहीन कर दिया और उनके धनुषको भी काट डाला। जब धनुष कट गया, रथ टूट गया तथा घोड़े और सारथि मारे गये, तब साम्ब दूसरे रथपर आरूढ़ हुए तथा कुपित हो धनुष हाथमें लेकर बोले ॥ १८-२३ ॥

साम्बने कहा- दैत्य ! ऐसा विशाल पराक्रम प्रकट करके अब तुम कहाँ जाओगे? क्षणभर संग्राम- भूमिमें ठहरकर मेरा उत्तम पराक्रम देख लो ॥ २४॥

– ऐसा कहकर साम्बने अपने कोदण्डपर एक उग्र सायकका संधान किया और उसे दिव्य-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके कुशाम्बके रथपर छोड़ दिया। उस बाणसे आहत हो कुशाम्बका रथ घोड़े और सारथि- सहित अलातचक्रकी भाँति भूतलपर चक्कर काटने लगा। चक्कर काटते-काटते वह शीघ्र ही एक योजनतक चला गया। रथसहित दैत्यको घूमते देख जाम्बवतीनन्दन साम्बके मुखपर हास्यकी छटा छा गयी और वे धनुषपर एक बाण रखकर बोले ॥ २५-२७॥

साम्बने कहा- असुरेश्वर ! तुम्हारे-जैसे महान् वीर, जो देवेन्द्रके तुल्य पराक्रमी हैं, स्वर्गलोकमें रहनेके योग्य हैं। इस धरतीपर उनकी शोभा नहीं होती है। अतः मेरे इस दूसरे बाणसे रथसहित तुम सदेह स्वर्गमें चले जाओ। यह तुम्हारे ऊपर मेरी बड़ी कृपा होगी ॥ २८-२९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

– ऐसा कहकर साम्बने आकाशमें पहुँचानेवाला दिव्यास्त्र छोड़ा। नरेश्वर! उस बाणसे रथसहित कुशाम्ब चक्कर काटता हुआ धरतीसे ऊपरको उठा और बहुत- से लोकोंको लाँधकर सूर्यमण्डलमें जा पहुँचा। वहाँ पहुँचकर घोड़े और सारथिसहित उसका रथ सूर्यकी ज्वालामें जल गया तथा उस दैत्यका शरीर भी तत्काल दग्ध होकर पृथ्वीपर आसुरी पुरीमें बल्वलके समीप गिर पड़ा। उस पापी दानवके गिरने और मर जानेपर समस्त दैत्य भयभीत हो हाहाकार करने लगे। उस समय यादवोंकी सेनामें बार-बार दुन्दुभियाँ बजने लगीं। देवता साम्बके रथपर सानन्द पुष्पवर्षा करने लगे ॥ ३०-३४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘सिंह और कुशाम्बका वध’
नामक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गायत्री मंत्र का अर्थ हिंदी में

बत्तीसवाँ अध्याय

मयको बल्वलका समझाना; बल्वलकी युद्धघोषणा; समस्त दैत्योंका युद्धके लिये
निर्गमन; विलम्बके कारण सैन्यपालके पुत्रका वध तथा दुःखी सैन्यपालको
मन्त्रिपुत्रोंका विवेकपूर्वक धैर्य बँधाना

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर सोनेके सिंहासनपर बैठे और शोकमें डूबे हुए दैत्य बल्वलसे मय उसी प्रकार बोला, जैसे कुम्भश्रुति अपने ज्येष्ठ बन्धुसे बात कर रहा हो ॥ १ ॥

नरेश्वर! आज तुमने यादवोंका बल देख लिया। दैत्यसमूहोंसहित तुम्हारे चार मन्त्री मारे गये। अब तुम्हारे नगरमें प्रमुख लोगोंमेंसे तुम बचे हो और मैं। दैत्यराज ! अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो ॥ २-३ ॥

बल्वल बोला- अब मैं यादवोंका शीघ्र विनाश करनेके लिये रणभूमिमें जाऊँगा। तुम मेरे महलमें छिपे रहो। हरि श्रीकृष्ण तो पहले ‘नन्दका पुत्र’ कहा जाता था। अब यह निर्लज्ज वसुदेव उसे अपना पुत्र मानता है। वह गोपियोंके घरसे माखन, दूध, घी, दही और तक्र आदि चुराया करता था। रासमण्डलमें रसिया बनकर नाचता था। अब जरासंधके भयसे उसने समुद्रकी शरण ली है। जिसने अपने मामाको मारा है, वह क्या पुरुषार्थ करेगा ॥४-७ ॥

बल्वलकी यह बात सुनकर मयको बड़ा क्रोध हुआ। वह बोला ॥७॥

मयने कहा- ओ निन्दक ! जिससे ब्रह्मा, शिव, माया (दुर्गा) और इन्द्र भी डरते हैं, ऐसे सबको भय देनेवाले नित्य निर्भय श्रीकृष्णकी तू निन्दा कर रहा है। जो मूर्ख अज्ञानवश और कुसङ्गके कारण श्रीकृष्णकी निन्दा करता है, वह तबतक कुम्भीपाकमें पड़ा रहता है, जबतक ब्रह्माजीकी आयु पूरी नहीं हो जाती। जिन्होंने चण्डपाल और शिशुपालकी मण्डलीका खण्डन किया है, जो दानवोंके दलका दमन करने वाले हैं, उन परमात्मा मदनमोहन माधवका तू अपने कुलकी कुशलताके लिये भजन कर ॥८-११ ॥

मयका यह वचन सुनकर बल्वल परम ज्ञानको प्राप्त हो गया। राजेन्द्र ! उसने क्षणभर विचार करके हँसते हुए-से कहा ॥ १२ ॥

बल्वल बोला- मैं जानता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण विश्वके पालक हैं, बलरामजी साक्षात् भगवान् शेषनाग हैं, प्रद्युम्न कामदेवके अवतार हैं और यहाँ आये हुए अनिरुद्ध साक्षात् ब्रह्माजी हैं। इन्हींके हाथसे हमारा वध होनेवाला है, यह सोचकर ही मैंने इस अश्वका अपहरण किया है। उनके बाणोंसे मारा जाकर यदि मैं मृत्युको प्राप्त होऊँगा, तो शीघ्र ही सुखपूर्वक भगवान् विष्णुके परमपदको चला जाऊँगा। पहले भी बहुत से दानव तथा राक्षस वैरभावसे भगवान का भजन करके वैकुण्ठधाममें जा चुके हैं। अतः मैं भी उसी वैरभावका आश्रय ले रहा हूँ ॥ १३-१५ ॥

– ऐसा कह कवच धारण करके दानवशिरोमणि बल्वलने तुरंत ही अपने सेनापतिको बुलाया और इस प्रकार कहा- “सेनापते! तुम प्रयत्नपूर्वक ढिंढोरा पिटवाकर इस पुरीमें मेरा यह आदेश प्रसारित कर दो कि ‘वीरोंमेंसे जो लोग भी बच गये हैं, वे अनिरुद्धके साथ युद्धके लिये चलें।’ जो मेरी आज्ञा नहीं मानेंगे, वे बेटे अथवा भाई ही क्यों न हों, युद्ध किये बिना वधके योग्य समझे जायेंगे” ॥ १६-१८ ॥

बल्वलका ऐसा आदेश सुनकर सेनापतिने गली- गली और घर-घरमें डंका बजाकर बड़े वेगसे उसकी आज्ञा घोषित कर दी। ढिंढोरेके साथ की गयी इस घोषणाको सुनकर समस्त दैत्य भयसे आतुर हो गये और शीघ्र ही सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर वे बल्वलके सभाभवनमें आ गये। तब सबसे पहले सैन्यपाल लाख दैत्योंसे घिरकर, कवच और धनुषसे सुसज्जित हो, रथके द्वारा नगरसे बाहर निकला। दुर्गेत्र, दुर्मुख, दुःस्वभाव और दुर्मद- ये मन्त्रियोंके चार पुत्र भी युद्धके लिये निकले ॥ १९-२२॥

बल्वलके साथ महामत्त गजराज, चपल अङ्गवाले तुरङ्ग तथा देवविमानोंके समान आकारवाले रथ थे। विद्याधरोंके समान पैदल योद्धा भी साथ चल रहे थे। इस चतुरङ्गिणी सेनाके साथ तत्काल मयके दिये हुए एवं इच्छानुसार चलनेवाले यानपर बैठकर बल्वल स्वयं युद्धके लिये प्रस्थित हुआ। उसके साथ चार लाख बड़े-बड़े असुर थे। सैन्यपालका पुत्र भूखा था और घरपर भोजन कर रहा था, इसलिये युद्धके निमित्त शीघ्र नहीं निकल सका। सेनामें उसे नहीं आया देख बल्वलके सैनिकोंने डरते-डरते दैत्यराजसे उसके अनुपस्थित होनेकी बात बतायी। तब बल्वलके आदेशसे कई वीर गये और उसे रोषपूर्वक रस्सियोंसे बाँधकर राजाके सामने ले आये। इस सफलतासे उनके मुख और नेत्र खिल उठे थे ॥ २३-२७ ॥

सैन्यपालके पुत्रको देखकर प्रचण्ड शासक बल्वलने बहुत फटकारा और वेगपूर्वक उसके मुखपर भुसुण्डी मार दी। सैन्यपालके पुत्रका वध हुआ देख सब दैत्य भयभीत हो उठे। सैन्यपाल संग्राममें अपने पुत्रको मार दिया गया सुनकर दुःखसे आतुर हो हाथोंसे माथा पीटता हुआ रथसे गिर पड़ा। वह पुत्रके दुःखसे दुःखी हो अत्यन्त विलाप करने लगा- ‘हा पुत्र ! हा वीर! मुझ वृद्ध पिताको छोड़कर रणक्षेत्रमें शतघ्नीके मार्गसे तुम स्वर्गको चले गये। मेरा दर्शनतक नहीं किया। बेटा! तुम राजाके शासनसे युद्ध किये बिना ही कहाँ चले गये?’ इस तरह विलाप करता हुआ सैन्यपाल समराङ्गणमें रो रहा था। तब मन्त्रियोंके पुत्रोंने शोकमग्न सैन्यपालके सामने आकर कहा ॥ २८-३२ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

मन्त्रिपुत्र बोले- सेनापते! तुम तो शूरवीर हो, रणभूमिमें आकर रोदन न करो। शोक करनेपर भी जो मर गया, वह तुम्हारे पास लौटकर नहीं आयेगा। मृत्यु जीवधारियोंके पीछे जन्मकालसे ही लगी रहती है। वही इस समय प्राप्त हुई है। धीर पुरुष मृत्युके लिये शोक नहीं करते हैं। मूर्खलोग ही मृत पुरुषके लिये सदा शोकमें डूबे रहते हैं। कोई गर्भमें मर जाते हैं, किसीकी जन्म लेते ही मृत्यु हो जाती है, कोई बचपनमें और कोई जवानीमें ही काल-कवलित हो जाते हैं, कोई-कोई ही बुढ़ापेमें मरते हैं। कोई शस्त्रसे, कोई अस्त्रसे, कोई दुःखसे और कोई ऊँचे स्थानसे गिरनेके कारण मृत्युके वशीभूत होते हैं। दैववश कर्मके अधीन हुए सभी जीव एक दिन मृत्युको प्राप्त होंगे। कौन किसका पिता और पुत्र है? अथवा कौन किसकी माता या प्रियतमा पत्नी है। विधाता कर्मके अनुसार प्राणियोंमें संयोग और वियोग कराया करता है। संयोगमें बड़ा आनन्द मिलता है और वियोगमें प्राण- संकटकी घड़ी आ जाती है। ऐसी अवस्था सदा मूर्खी- की ही हुआ करती है। आत्माराम पुरुष निश्चय ही हर्ष- शोकके वशीभूत नहीं होते हैं। तुम दुःखी होकर जब अपने प्राणोंका त्याग कर रहे हो तो आत्मघाती बनोगे। इसका परिणाम यह होगा कि नरकमें पड़ोगे और फिर जन्म लोगे, इसमें संशय नहीं है। इसलिये इस महा- समरमें तुम श्रेष्ठ यादव-वीरोंके साथ युद्ध करो। क्षत्रियवृत्तिवाले लोगोंके लिये धर्मयुद्धसे बढ़कर परम कल्याणका साधन दूसरा कोई नहीं है। जो समराङ्गणमें धर्मयुद्ध करते हुए शत्रुके सामने वीरगतिको प्राप्त होते हैं, वे समस्त लोकोंको लाँधकर भगवान् विष्णुके परम धाममें चले जाते हैं॥ ३३-४१॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! उन दैत्योंके इस प्रकार समझानेपर सैन्यपालने सब शोक त्याग दिया तथा रोषसे भरकर वहाँ आये हुए समस्त वीरोंका निरीक्षण किया। संग्रामभूमिमें सबपर दृष्टिपात करके रोषसे जलते हुए सैन्यपालने शीघ्र ही यह बात कही ॥ ४२-४३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘सैन्यपालके पुत्रका वध’
नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२॥

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तैंतीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण की कृपा से दैत्यराजकुमार कुनन्दनके जीवनकी रक्षा

सैन्यपालने कहा- यहाँ सभी रणदुर्मद धनुर्धर वीर तो आ गये हैं, केवल राजाके पुत्र युवराज इस रणभूमिमें नहीं दिखायी देते हैं। वे मेरे बेटेको मरवाकर घरमें बैठे क्या कर रहे हैं? क्या वे भुशुण्डीके मुँहमें पड़कर मेरे पुत्रके ही रास्तेपर नहीं जायेंगे ? ॥ १-२ ॥

ऐसा कहकर रोषसे आँखें लाल किये सैन्यपाल बड़े हर्षके साथ राजकुमारको पकड़नेके लिये शीघ्र ही पुरीमें जा पहुँचा। उस राजकुमारने रातमें भोजनके बीचमें ही मदिरा पीकर शयन किया था; अतः मदमत्त होनेके कारण वह राजाकी आज्ञाको भूल गया था। ढिंढोरेपर की गयी घोषणा सुनकर उसकी पत्नी भयसे विह्वल हो रो पड़ी और अपने पति राजकुमारको जगाने लगी- “हे वीर! उठो! उठो! उठो ! प्रातः काल हो गया। नगाड़ेकी आवाजके साथ तुम्हारे पिताका यह शासन पुरीमें सुनायी देता है- ‘जो युद्धके लिये नहीं जायेंगे, वे पुत्र आदि ही क्यों न हों, वधके योग्य होंगे’। इसलिये शीघ्र जाओ और पिताका दर्शन करो” ॥ ३-७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

अपनी प्यारी पत्नीके जगानेपर उसको कुछ होश हुआ। जब बल्वलकी सेना चली गयी, तब उसकी पत्नीने उसे पुनः जगाया। तब निद्रा त्यागकर राजकुमार उठा और तुरंत धनुष-बाण लेकर मन-ही-मन भगवान् शिव तथा गणेशजीका स्मरण करता हुआ रथके द्वारा युद्धके लिये चला। राजकुमारको आया देख सैन्य- पालने रोषपूर्वक पूछा- ‘तुमने दैत्यराजके शासनका किस बलसे और क्यों उल्लङ्घन किया है? वह मुझे बताओ। मेरा बेटा भी तुम्हारे ही समान विलम्ब करके शीघ्र रणभूमिमें नहीं पहुँचा था, इसलिये बल्वलने उसे शतघ्नीके मुँहपर खड़ा करके मार डाला; अतः पिताके पास चलो। तुम्हारे पिता बड़े सत्यवादी हैं। उन्होंने तुम्हें पकड़ लानेके लिये मुझे भेजा है; अतः वे शीघ्र ही तुम्हें मार डालेंगे’ ॥ ८-१२॥

सैन्यपालकी तीखी बात सुनकर भयके कारण राजकुमारका मुँह सूख गया। वह दुःखी सुधन्वाकी भाँति पिताके पास गया। दैत्य समुदायसे घिरे हुए उसके पिता अनिरुद्धको जीतनेके लिये उत्सुक हो रोषपूर्वक रथपर बैठे थे। उनके पास जाकर राजकुमारने पिताका दर्शन किया। पिताको देखकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर राजकुमार लज्जित तथा भयसे विह्वल हो गया। दानवेन्द्रके सामने वह पृथ्वीपर नीचे मुँह किये खड़ा था। बल्वल कुपित हो दाँतोंसे दाँत पीसता हुआ बोला- ‘अरे! अपने विनाशके लिये तूने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन क्यों किया? तेरे इस अपराधके कारण मैं तुझे दण्ड दूँगा। निश्चय ही तू डरकर रणक्षेत्रसे प्राण बचानेके लिये घरमें जा घुसा था। कुनन्दन। तू पुत्र नहीं, कुपुत्र है, शत्रुके समान है और अत्यन्त मलिन है। मैं तुझे त्यागकर शतघ्नीके मुखसे अभी मार डालूँगा’ ॥ १३-१७ ॥

अपने बेटेसे ऐसा कहकर वीर बल्वल दुःखसे आँसू बहाने लगा और मन-ही-मन खिन्न होकर बोला- ‘हाय! मैंने ऐसी प्रतिज्ञा क्यों की? अहो! सैन्यपालके बेटेको मैंने बिना अपराधके ही मार डाला; उसी पापसे मेरा पुत्र भी मरेगा, इसमें संशय नहीं है। यदि अपने वीर पुत्रको मैं बलपूर्वक मृत्युके मुखसे छुड़ा लूँगा तो मेरे समस्त सैनिक मुझे गाली देंगे और मुझपर हँसेंगे।’ दैत्यराजको इस प्रकार शोकमग्र, दुःखी अपने पुत्रके लिये खिन्नचित्त देखकर रोष और अमर्षसे भरा हुआ सैन्यपाल हँसता हुआ बोला ॥ १८-२१॥

सैन्यपालने कहा- राजन् ! पहले अपने इस पुत्र कुनन्दनको शीघ्र मार डालो। इसके बाद यादवोंका दानवोंके साथ संग्राम होगा। दैत्येन्द्र ! तुम सत्यवादी हो और यह कर्म अत्यन्त दारुण है। यदि दुःखके कारण तुम इसे नहीं करोगे तो तुम्हें नरकमें जाना पड़ेगा। भूपाल ! कोसलपति राजा दशरथने सत्यकी रक्षाके लिये श्रीराम-जैसे बेटेको त्याग दिया। सत्यके बन्धनमें बँधे हुए हरिश्चन्द्रने अपनी प्यारी पत्नीको, पुत्रको और अपने-आपको भी बेच दिया था। बलिने सत्यके कारण सारी पृथ्वी दे डाली। विरोचनने अपना जीवन दे दिया। राजा शिबिने अपकीर्तिका तथा दधीचिने अपने शरीरका त्याग कर दिया था। जैसे गुरु वसिष्ठने पृषभ्रको तथा राजा रन्तिदेवने भोजनको त्याग दिया था, उसी प्रकार दैत्यराज ! तुम भी आज्ञा भङ्ग करनेवाले इस पुत्रका मोह छोड़कर इसे मार डालो। तुमने पहले जो यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं अपनी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाले बेटे और भाईको भी तत्काल मार डालूँगा, फिर दूसरेकी तो बात ही क्या है?’ उस देशमें निवास करना चाहिये, जहाँ राजा सत्यवादी हो। उस देशमें कदापि नहीं रहना चाहिये, जहाँका राजा मिथ्यावादी हो ॥ २२-२८ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- सैन्यपालकी बात सुनकर बल्वलने खिन्नचित्त हो अपने उस पुत्रका भी वध करनेके लिये उसीको आज्ञा दे दी। तदनन्तर बल्वल दुःखी हो यादवोंके सामने गया। इधर सैन्यपालने राजकुमारके आगे उसके पिताकी दी हुई आज्ञा सुना दी। यह सुनकर कुनन्दनने उसे शीघ्र ही इस प्रकार उत्तर दिया ॥ २९-३० ॥

राजपुत्र बोला- सेनापते! तुम पराधीन हो; इसलिये तुम्हें राजाकी आज्ञाका अवश्य पालन करना चाहिये। परशुरामजीने अपने पिताकी आज्ञासे माताका मस्तक काट लिया था। सैन्यपाल ! मैं निश्चिन्त हूँ। मैंने धर्मकार्यका पालन कर लिया है। अब मुझे मृत्युसे कोई भय नहीं है। तुम मुझे शतघ्नीमें झोंक दो ॥ ३१-३२ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

– ऐसा कहकर राजकुमारने अपना किरीट, भुजबंद, मोतियोंका हार, सुवर्णमयी माला तथा कुण्डल और कड़े आदि सब आभूषण ब्राह्मणोंको दान कर दिये। उन ब्राह्मणोंने बड़े दुःखसे उस राजकुमारको आशीर्वाद दिया ॥ ३३-३४॥

तदनन्तर स्नान करके, अपने शरीरमें तीर्थकी मिट्टी पोतकर, मुखमें तुलसीदल और कण्ठमें तुलसीकी माला पहनकर राजकुमार ‘श्रीकृष्ण! हे राम !’- इस प्रकार कहता हुआ भगवान का स्मरण करने लगा। राजेन्द्र ! सैन्यपालने बलपूर्वक उसकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और रोषपूर्वक उसे शतघ्नीके मुखमें डाल दिया। उसी समय हाहाकार मच गया। समस्त सैनिक फूट-फूटकर रोने लगे। बल्वल भी रो उठा और वहाँ खड़े हुए ब्राह्मण भी रोदन करने लगे। शतघ्नीमें बारूद भरकर उसमें ताँबेके गोले डाल दिये गये और वह अग्नियुक्त होकर तप गयी। उस दशामें उस भयंकर शतघ्नीको देखकर राजकुमार कुनन्दन सर्वव्यापी परमेश्वर श्रीकृष्णको याद करके आँसू बहाता हुआ यह निर्मल वचन बोला ॥ ३५-४० ॥

‘जिनके नेत्र प्रफुल्लित कमलदलके समान विशाल हैं, दाँतोंकी पङ्क्ति शङ्ख और चन्द्रमाके समान उज्ज्वल है, जो नरेन्द्रके वेषमें रहते हैं तथा जिनके चरणारविन्दोंकी इन्द्रादि देववृन्द भी वन्दना करते हैं, उन श्रीकृष्ण मुकुन्द हरिका आज मैं प्राणान्तकालमें चिन्तन करता हूँ। हे श्रीकृष्ण! हे गोविन्द ! हे हरे! हे मुरारे! हे द्वारकानाथ श्रीकृष्ण गोविन्द । हे व्रजेश्वर श्रीकृष्ण गोविन्द ! तथा हे पृथ्वीपालक श्रीकृष्ण गोविन्द ! आप भयसे मेरी रक्षा कीजिये। गोविन्द ! आपके स्मरणसे हाथी ग्राहके संकटसे छूट गया था। स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, अम्बरीष, ध्रुव, आनर्तराज कक्षीवान् भी भयसे मुक्त हुए थे। बहुला सिंहके चंगुलसे छूटी थी। रैवत और चन्द्रहासकी भी आपकी शरणमें जानेसे रक्षा हुई थी, इसी प्रकार मैं भी आपकी शरणमें आया हूँ।* अहो! यदि युद्ध किये बिना पहले ही मेरी मृत्यु हो जाती है तो यह उचित नहीं है। अभी मैंने युद्धस्थलमें अपने बाणोंद्वारा अनिरुद्धको संतुष्ट नहीं किया। यादवोंको संतोष नहीं दिलाया। श्रीकृष्णके पुत्रोंके दर्शन नहीं किये। शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा अपने इस शरीरके टुकड़े-टुकड़े नहीं करवाये। ऐसी दशामें शूरवीर कुनन्दनकी यह चोरके समान गति हो गयी! भगवन्! मैं आपका भक्त हूँ। मेरी दुर्गति देखकर समस्त पापिष्ठ मुझपर हँसते हैं। जिसे भूमिपर देखकर यमराज भी पलायन कर जाते हैं, विघ्न डालनेवाले विनायकगण मर जाते हैं, उस पूजनीय एवं निरङ्कुश कृष्णभक्त मुझ कुनन्दनको शतघ्नी कैसे मार डालेगी’ ॥ ४१-४८ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! वह शूरवीर कुनन्दन जब ऐसी बात कह रहा था, उसी समय सैन्यपालकी आज्ञासे किसीने शतघ्नीको छोड़ा। छोड़नेके साथ ही हाहाकार मच गया। नरेश्वर! उस समय श्रीकृष्णचन्द्रके स्मरणसे एक विचित्र बात हो गयी। शतघ्नी शीतल हो चुकी थी और आगकी ज्वाला बुझ गयी थी। राजसिंह! यह आश्चर्य देखकर वहाँ खड़े हुए राजा आदि सब लोग बड़े विस्मित हुए। तब सैन्यपाल बोला- ‘शतघ्नीकी बारूद सूखी पड़ी है और उसमें गोले भी ज्यों-के-त्यों हैं, किंतु राजकुमार वहाँ नहीं है। इससे सिद्ध है कि वह रणक्षेत्रमें मारा नहीं गया है’ ॥ ४९-५२॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

उसकी बात सुनकर वीरगण रुष्ट होकर बोले- ‘यह परम बुद्धिमान् पापशून्य शूरवीर राजकुमार भगवान् श्रीकृष्णका भक्त है। इसलिये भगवान्ने ही उसे दुःखसे बचाया है। अब फिर तुम्हें इसका वध नहीं करना चाहिये ॥ ५३॥

उन वीरॉकी बात सुनकर सैन्यपालको बड़ा रोष हुआ। उसने जब पुनः दृष्टिपात किया तो राजकुमार शतघ्नीके मुखमें बैठा दिखायी दिया। उसके अनुभरे नेत्र बंद थे और वह ‘कृष्ण, कृष्ण’ जप रहा था। उसे देखकर उस दुष्ट सैन्यपालने फिर उसे मारनेके लिये शतघ्नी दाग दी। किंतु उस समय शतघ्नी फट गयी और उससे वज्रपातके समान शब्द हुआ। शतघ्नीके गोलेसे सैन्यपालकी मृत्यु हो गयी और उसकी ज्वालासे उसका अनुसरण करनेवाले सैनिक जल गये। कोई ‘हाय-हाय’ करते हुए भागे, कोई धड़ाकेकी आवाजसे बहरे हो गये और कितने ही धुएँसे घबरा गये। नृपेश्वर ! उस समय सबने राजकुमारको निर्भय देखा। देखकर बल्वल आदि सभी वीर जय-जयकार करने लगे ॥ ५४-५९॥

दैत्य बोले- जिसकी रक्षा श्रीकृष्ण करते हैं, उसे कौन मनुष्य मार सकता है? जो भक्तका वध करनेके लिये आता है, वह दैवयोगसे आप ही नष्ट हो जाता है। जिन्होंने भयसे इस राजकुमारकी रक्षा की है, उन भक्तवत्सल श्रीकृष्णको हम सब लोग नमस्कार करते हैं ॥ ६०-६१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘राजकुमारके जीवनकी रक्षा’
नामक तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री ललितासहस्रनाम स्तॊत्रम्

चौंतीसवाँ अध्याय

दैत्यों और यादवों का घोर युद्ध; बल्वल, कुनन्दन तथा अनिरुद्ध के अद्भुत पराक्रम

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तत्पश्चात बल्वल ने बड़ी प्रसन्नताके साथ पुत्रको रथपर चढ़ाया और उसके साथ ही अपनी सेना लेकर बड़ी उतावलीके साथ वह युद्धके लिये चला। उसके समस्त सैनिक नाना प्रकारके शस्त्र लिये हुए थे। वे अनेक प्रकारके वाहनोंपर बैठे थे तथा भाँति-भौतिके कवचोंसे सुसज्जित हो नाना प्रकारके रूपोंमें बड़े भयंकर दिखायी देते थे। वे गजराजके समान हृष्ट-पुष्ट शरीरवाले और सिंहके समान पराक्रमी थे। वे पृथ्वीको कम्पित करते हुए वृष्णिवंशी यादवोंके सम्मुख गये। उन बहुत-से दैत्योंको आया हुआ देख अनिरुद्ध शङ्कित हो गये और उन्होंने समस्त यादवोंकी रक्षाके लिये चक्रव्यूहकी रचना की। चारों ओरसे शूरवीर यादव सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये हाथी, घोड़े और रथोंद्वारा खड़े होकर बड़ी शोभा पाने लगे। राजन् ! उनके मध्यभागमें इन्द्रनील आदि राजा खड़े हुए। उनके बीचमें अक्रूर और कृतवर्मा आदि अच्छे वीर स्थित हुए। राजेन्द्र । उनके बीचमें गद आदि श्रीकृष्णके भाई विराजित हुए। उनके मध्यभागमें साम्ब और दीप्तिमान आदि महान् वीर खड़े हुए ॥१-७॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

पृथ्वीनाथ ! इस प्रकार चक्रव्यूह बनाकर उसके बीचोबीच प्रद्युम्रकुमार अनिरुद्ध कवच धारण करके खड़े हुए। नरेश्वर! वहाँ सागरके तटपर यादवोंके साथ दानवोंका बड़ा घोर युद्ध हुआ, मानो अनेक समुद्रोंके साथ बहुत-से दूसरे समुद्र जूझ रहे हों। उस संग्रामस्थल में रथी रथियोंके साथ, हाथी-सवार हाथी-सवारोंके साथ, अश्वारोही अश्वारोहियोंके साथ और पैदल-वीर पैदल वीरोंके साथ परस्पर युद्ध करने लगे। राजन् ! तीखे बाणों, ढाल तलवारों, गदाओं, ऋष्टियों, पाशों, फरसों, शतत्रियों और भुशुण्डियोंद्वारा यादव-वीर बल्वलके सैनिकोंका वध करने लगे। उनकी मार खाकर भयभीत हो वे सब के सब अपना- अपना रणस्थल छोड़कर भाग चले। सैनिकोंके पैरोंसे उड़ी हुई बहुत-सी धूलराशिने आकाश और सूर्यको ढक दिया। सब ओर अन्धकार फैल गया और उस अँधेरेमें समस्त महादैत्य युद्धसे पीठ दिखाकर पलायन करने लगे। यादवोंके सायकोंसे घायल होकर उन असुरोंमेंसे कितने ही कुएँमें गिर गये, कई औंधे मुँह होकर गड्ढेमें गिर पड़े और कितने ही पोखरे तथा बावलीमें डूब गये। अपनी सेनामें भगदड़ मची देख बल्वल रोषसे भर गया और चारों मन्त्रिकुमारों तथा अपने पुत्रके साथ यादवोंका सामना करनेके लिये आया। उस महासमरमें बल्वलके साथ अनिरुद्ध, दुर्गेत्रके साथ बृहद्वाहु, दुर्मुखके साथ बलवान् अरुण, दुःस्वभावके साथ न्यग्रोध, दुर्मदके साथ कवि तथा कुनन्दनके साथ श्रीकृष्णपुत्र सुनन्दन युद्ध करने लगे ॥८-१७॥

राजेन्द्र ! इस प्रकार वहाँ देवताओंको भी विस्मयमें डाल देनेवाला संग्राम छिड़ गया। कार्तिक मासके सम्पूर्ण दिन वहाँ युद्धमें ही व्यतीत हो गये। राजन् ! बारंबार अपना धनुष टंकारते हुए बल्वलने कुपित हो रणभूमिमें इन्द्रनीलको तीन और हेमाङ्गदको छः बाण मारे। अनुशाल्वको दस, अक्रूरको दस, गदको बारह, युयुधानको पाँच, कृतवर्माको पाँच, उद्धवको दस और प्रद्युम्नको सौ बाणोंद्वारा समराङ्गणमें उस असुरने घायल कर दिया। उसके बाणोंके आघातसे रथोंसहित वे सभी वीर दो घड़ीतक चक्कर काटते रहे। रणभूमिमें उनके घोड़े मर गये तथा रथ चूर-चूर हो गये। मानद नरेश! उसके हाथकी फुर्ती देखकर अनिरुद्ध आदि समस्त यादव चकित हो गये। फिर वे सब के सब दूसरे रथोंपर आरूढ़ हुए ॥ १८-२३ ॥

राजन् ! उधर बल्वल भी दूसरे दूसरे वीरोंको देखनेके लिये चला। तब क्रोधसे लाल आँखें किये अनिरुद्धने कहा-‘ ओ दैत्य! मेरे सामने खड़ा रह, खड़ा रह। पराक्रम दिखाकर तू कहाँ जायगा? मेरे तीखे बाणोंको भी देख ले।’ अनिरुद्धकी यह बात सुनकर दैत्य युवराज कुनन्दन बल्वलके देखते-देखते शीघ्र ही बोल उठा ॥ २४-२६ ॥

राजपुत्रने कहा- प्रद्युम्रनन्दन । रणभूमिमें दैत्यराजको देखनेकी योग्यता तुममें नहीं है। इसलिये पहले इस युद्धस्थलमें तुम मेरा बल देख लो ॥ २७ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

अनिरुद्ध बोले- दैत्यकुमार! तू अभी बालक है। युद्ध करनेकी योग्यता नहीं रखता है। अतः अपने घर जाकर कृत्रिम खिलौनोंसे खेल ॥ २८ ॥

राजकुमारने कहा- आज तुम यहाँ बड़े-बड़े वीरोंके साथ मुझ बालकका खेल देखो। यदि घर जाकर खेलूँगा तो वहाँ कोई नहीं देखेगा ॥ २९ ॥

– ऐसा कहकर कुनन्दनने अपने प्रचण्ड कोदण्ड- पर सौ सायक रखे और उनके द्वारा अपना बल दिखाते हुए उसने रथपर बैठे हुए अनिरुद्धको घायल कर दिया। उन बाणोंके आघातसे सारथि, घोड़े तथा रथके साथ वे स्वयं भी आकाशमार्गसे चक्कर काटते हुए कपिलाश्रममें जा गिरे। अनिरुद्धके चले जानेपर तत्काल हाहाकार मच गया ॥ ३०-३१ ॥

तब रणस्थलमें कुपित हुए साम्ब आदि यादव उस दैत्यकुमारको मारनेके लिये आये। उन बहुसंख्यक योद्धाओंको आया देख युवराजको बड़ा हर्ष हुआ। उस बलवान् वीरने युद्धस्थलमें साम्बको दस, मधुको पाँच, बृहद्वाहुको तीन, चित्रभानुको पाँच, वृकको दस, अरुणको सात, संग्रामजित को पाँच, सुमित्रको तीन, दीप्तिमानको तीन, भानुको पाँच, वेदबाहुको पाँच, पुष्करको सात, श्रुतदेवको आठ, सामने खड़े हुए सुनन्दनको बीस, विरूपको दस, चित्रबाहुको नौ, न्यग्रोधको दस तथा कविको नौ तीखे बाणोंद्वारा घायल कर दिया। साथ ही उस मानी कुनन्दनने बड़ी प्रसन्नता- के साथ विजयसूचक शङ्खध्वनि की। उसके बाणोंसे रथ और घोड़ोंसहित चक्कर काटते हुए कोई एक योजनपर गिरे, कोई पाँच कोसपर और कोई दो योजनपर ॥ ३२-३९ ॥

नृपश्रेष्ठ! उस समय यादव-सेनामें हाहाकार होने लगा। सब यादव बलराम और श्रीकृष्णका नाम ले- लेकर रोने लगे। उस समय गद आदि सब योद्धा तथा इन्द्रनील आदि राजा क्रोधसे भरे हुए आये और तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे। उन सभी वीरोंको आया देख महाबली राजकुमारने सायकोंसे उन्हें बींध डाला। वे सब-के-सब रणभूमिमें मूच्छित हो गये। राजन् ! तत्पश्चात् बल्वलकुमारने अपने बाणसमूहोंद्वारा यादव- वीरोंको मारना आरम्भ किया। उसके आघातसे बहुसंख्यक योद्धा पञ्चत्वको प्राप्त हो गये। संग्राम- भूमिमें उसके बाणसमूहोंद्वारा रक्तकी नदी प्रकट हो गयी, जिसमें जीवित हाथी डूबकर मर जाते थे। उस समय यादव-सेना तथा आकाशमें ‘हाय-हाय ‘की आवाज गूंजने लगी। इन्द्र और वरुण आदि देवता भी आश्चर्यचकित हो भयभीत हो गये। अपनी विजय देखकर समस्त असुरोंके मुखपर प्रसन्नता छा गयी ॥ ४०-४५ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

श्रीगर्गजी कहते हैं- उधर कपिलमुनिने देखा कि अनिरुद्ध मूच्छित पड़े हैं। इनका रथ नष्ट हो गया है तथा बाणोंसे इनका वक्षःस्थल विदीर्ण हो गया है। तब उन कृपालु मुनिने अपने तपोबलसे हाथद्वारा स्पर्श करके अनिरुद्धको चैतन्ययुक्त कर दिया। तदनन्तर यदुकुलतिलक अनिरुद्धने उठकर उन सिद्ध महर्षिको नमस्कार किया और समस्त यादवोंको हर्ष प्रदान करते हुए वे सेतुमार्गसे रणक्षेत्रमें आ गये ॥ ४६-४८ ॥

राजन् ! तत्पश्चात् दूसरे रथपर आरूढ़ हो बलवान् अनिरुद्धने ‘प्रतिशार्ङ्ग’ नामक धनुष उठाया और रोषपूर्वक दैत्य-राजकुमारके रथपर एक बाण मारा। उस बाणने सारथि और घोड़ोंसहित उसके रथको लेकर आकाशमें चार मुहूर्त (आठ घड़ी) तक चक्कर कटाया। उस समय समस्त दानवों और वृष्णिवंशी वीरोंने यह प्रत्यक्ष देखा कि रथसहित कुनन्दन आकाशमें चक्कर काट रहा है। उसके बाद साम्ब आदि वीर दूसरे रथोंपर आरूढ़ हो वेगपूर्वक आये। साथ ही अनुशाल्व आदि समस्त धनुर्धर भी तत्काल आ पहुँचे ॥ ४९-५२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘दैत्यों और यादवोंके युद्धका वर्णन’
नामक चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~  नित्य कर्म पूजा प्रकाश हिंदी में

पैंतीसवाँ अध्याय

बल्वलके चारों मन्त्रिकुमारोंका वध; बल्वलद्वारा मायामय
युद्ध तथा अनिरुद्धके द्वारा उसकी पराजय

श्रीगगंजी कहते हैं- महाराज ! तदनन्तर उस संग्राममें अनुशाल्व दुर्मुखसे, इन्द्रनील दुरात्मा दुर्नेत्रसे, हेमाङ्गद दुर्मदसे और सारण दुःस्वभावसे युद्ध करने लगे। इस प्रकार रणक्षेत्रमें परस्पर द्वन्द्व युद्ध होने लगा। सारणने बड़े वेगसे अपनी गदाद्वारा दैत्य दुःस्वभावको मार डाला। हेमाङ्गदने युद्धस्थल में दुर्मदको तीन बाणोंसे पीट दिया। दुर्मदने भी रणक्षेत्रमें हेमाङ्गदको अपने बाणोंसे घायल किया। फिर हेमाङ्गदने शक्तिद्वारा उस दैत्यका वध कर डाला। इन्द्रनीलने खेल-खेलमें ही दुर्गेत्रको अपने बाणोंसे कालके गालमें भेज दिया। अनुशाल्वने बाण मारकर दुर्मुखके रथको चौपट कर डाला। फिर दुर्मुखने भी दूसरे रथपर आरूढ़ हो बाणोंद्वारा अनुशाल्वको रथहीन कर दिया। तब अनुशाल्वने एक परिघ लेकर युद्ध- स्थलमें दुर्मुखको मार डाला। इस प्रकार दुर्गेत्र, दुःस्वभाव, दुर्मुख और दुर्मदके मारे जानेपर शेष दैत्य प्राण बचानेके लिये भाग चले ॥ १-६ ॥

राजन् ! इसी समय राजकुमार कुनन्दन आकाशसे चक्कर काटता हुआ गिरा और मुँहसे रक्त वमन करता हुआ रणक्षेत्रमें मूच्छित हो गया। उसका रथ अङ्गारकी भाँति बिखर गया और घोड़े तत्काल मर गये। पुत्रको मूच्छित हुआ देख बल्वल कुपित हो उठा। उसने अनिरुद्धपर बड़े वेगसे धनुषद्वारा दस बाण चलाये। उन दसों बाणोंको आया देख रुक्मवतीकुमार अनिरुद्धने अपने तेज धारवाले सुवर्णभूषित सायकों द्वारा काट डाला। तब रोषसे भरे हुए दैत्य बल्वलने पुनः धनुषपर बाणका संधान करके अनिरुद्धसे इसी
प्रकार कहा, जैसे पहले युद्धमें प्रद्युग्नसे शकुनिने कहा था ॥७-११॥

बल्वल बोला- ‘यदुकुलके प्रमुख वीर! तुम युद्धके अभिमानी और धनुर्धर हो। आज इस बाणसे समरभूमिमें तुम्हें मार डालूँगा। मैं झूठ नहीं बोलता। यदि जीवित रहनेकी इच्छा हो तो अपने प्राणोंकी रक्षा करो।’ उसकी बात सुनकर अनिरुद्धने भी अपने कोदण्डपर एक बाण रखा और जैसे प्रद्युम्नने शकुनिको उत्तर दिया था, उसी प्रकार बल्वलसे हँसते हुए कहा ॥ १२-१३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

अनिरुद्ध बोले- कौन प्राणी किसके द्वारा मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है? सदा काल ही सबको मारता है और वही संकटसे सबकी रक्षा करता है। ‘मैं करूँगा, मैं कर्ता हूँ, संहर्ता हूँ और पालक भी मैं ही हूँ’- जो ऐसी बात कहता है, वह कालसे ही विनाशको प्राप्त होता है। मैं तुमको नहीं जीत सकूँगा और तुम भी मुझे नहीं जीत सकोगे। विश्वात्मा कालरूपी जगदीश्वर ही तुमको और मुझको जीतेंगे। दानव! न जाने वे कालपुरुष किसको जय अथवा पराजय देते हैं। मैं तो अपनी विजयके लिये उन कालदेवता की ही मनसे वन्दना करता हूँ। अतः तुम भी अपने मनसे कालको ही बलवानों में श्रेष्ठ समझो और मेरी बात मानकर अपने बड़े भारी अज्ञानको त्यागकर युद्ध करो ॥ १४-१८ ॥

अनिरुद्धकी यह बात सुनकर बल्वलको आश्वर्य हुआ। उनके वचनोंसे संतोष प्राप्त करके उसने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा-ठीक उसी तरह, जैसे वृत्रासुरने देवराज इन्द्रसे वार्तालाप किया था ॥ १९॥

बल्वल बोला- यदुकुलतिलक! इस भूतल- पर ‘कर्म’ ही प्रधान है। कर्म ही गुण और ईश्वर है। कर्मसे ही लोगोंको ऊँची और नीची स्थिति प्राप्त होती है। जैसे बछड़ा हजारों गायोंके बीचमें अपनी माताको ढूँढ़ लेता है, उसी प्रकार जिसने शुभ या अशुभ कर्म किया है, उसका वह ‘कर्म’ विद्यमान रहकर फल- प्रदानके समय उसको खोज लेता है। अतः मैं अपने सुदृढ़ कर्मके द्वारा संग्रामभूमिमें तुमपर विजय पाऊँगा। मैंने तो प्रतिज्ञा कर ली। अब तुम तुरंत उसका प्रतीकार करो ॥ २०-२२॥

अनिरुद्धने कहा- दैत्य! तुम ‘कर्म’ को प्रधान मानते हो, परंतु कालके बिना उसका कोई फल नहीं मिलता; जैसे भोजन बना लेनेपर भी कभी-कभी उसकी प्राप्तिमें विघ्न पड़ जाता है। पाकके विभिन्न प्रकार हैं। उनकी सिद्धिके लिये जो पाकका निर्माण किया जाता है, वह बिना कर्ताक सम्भव नहीं होता। अतः बहुत- से विद्वान् ‘कर्म’ और ‘काल’ की अपेक्षा ‘कर्ता’ को ही श्रेष्ठ बताते हैं। वह ‘कर्ता’ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही हैं, जो गोलोकधामके स्वामी तथा परात्पर परमेश्वर हैं। उन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि समस्त देवताओंकी सृष्टि की है ॥ २३-२५ ॥

बल्वल बोला- श्रीकृष्णपौत्र ! तुम धन्य हो और अपने वचनोंद्वारा ऋषियोंका अनुकरण करते हो। तुम तीनों गुणोंसे अतीत हो, तथापि प्राणियोंके लिये अपने स्वभावका परित्याग दुष्कर होता है। यादव श्रेष्ठ ! अब सावधान होकर अपने ऊपर प्राप्त होनेवाले मेरे इस प्राणसंहारी बाणको देखो और अपना मन युद्धमें ही लगाये रखो ॥ २६-२७ ॥

– ऐसा कहकर बल्वलने अपने बाणद्वारा मयासुरकी माया प्रकट की। उस समय घोर अन्धकार छा गया। कोई भी दिखायी नहीं देता था। बहुत-से लोगोंको यह भी पता नहीं चलता था कि ‘कौन अपना है और कौन पराया’। योद्धाओंके ऊपर ऊँचे पर्वतोंके समान शिलाएँ गिर रही थीं। बरसती हुई जलधाराओं- के कारण चारों ओरसे सब लोग व्याकुल हो गये थे। बिजलियाँ चमकतीं और बादल जोर-जोरसे गर्जना करते थे। वे बादल गरम-गरम रक्तकी और मलमिश्रित जलकी वर्षा करते थे। आकाशसे रुण्ड और मुण्ड गिर रहे थे। उस समय समस्त श्रेष्ठ यादव संग्राममें परस्पर व्याकुल और भयातुर हो वहाँसे पलायन करने लगे। तब अनिरुद्धने उस संग्रामभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णके युगल-चरणारविन्दोंका चिन्तन करके लीलापूर्वक मोहनास्त्रद्वारा उस मायाको नष्ट कर दिया। उस समय सारी दिशाएँ प्रकाशित हो गयीं। सूर्यमण्डलका घेरा समाप्त हो गया। बादल जैसे आये थे, वैसे ही विलीन हो गये और चपलाएँ शान्त हो गयीं ॥ २८-३४॥

राजन् ! माया दूर हो जानेपर वह प्रचण्ड पराक्रमी मायावी दैत्य दानवोंके साथ सामने दिखायी दिया। उसने नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र ले रखे थे। बल्वलने कुपित होकर यादवोंके वधके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया, परंतु अनिरुद्धने पुनः ब्रह्मास्त्र चलाकर उस ब्रह्मास्त्रको शान्त कर दिया। इससे बल्वलका क्रोध उद्दीप्त हो उठा। उसने युद्धमें विजय पानेके लिये अत्यन्त मोहमें डाल नेवाली ‘गान्धर्वी माया’ प्रकट की। नृपश्रेष्ठ! अब वहाँ गन्धर्वनगर दिखायी देने लगा। संग्रामका कोई चिह्न नहीं दीखता था। करोड़ों सुवर्णमय महल दृष्टिगोचर होने लगे। उस नगरमें बहुत-सी गन्धर्व-सुन्दरियाँ वीणा, ताल और मृदङ्गकी ध्वनिके साथ नृत्य करती हुई मधुर कण्ठसे गीत गाने लगीं। कन्दुककी क्रीडाओं, हाव-भाव और कटाक्षों तथा कटि और वेणीके प्रदर्शनोंद्वारा वे कमलनयनी सुन्दरियाँ सब लोगोंका मनोरञ्जन करने लगीं। उनका सौन्दर्य देखकर यादव-वीर कामवेदनासे विह्वल हो गये और अस्त्र-शस्त्रोंको भूमिपर डालकर आपसमें कहने लगे- ‘हम सब लोग कहाँ आ गये ? दैवयोगसे स्वर्गलोकमें तो नहीं पहुँच गये, जहाँ मनको मोह लेनेवाली अति सुन्दरी कलकण्ठी सुराङ्गनाएँ नृत्य करती हैं? इनके लावण्य-जलधिमें मग्र होकर हम कामवेदनासे व्याकुल हो रहे हैं। हमारी विजय कैसे होगी? यहाँ रणक्षेत्र तो दिखायी ही नहीं देता है’ ॥ ३५-४३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 31 to 35)

जब सब लोग इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय क्रोधसे भरा हुआ बल्वल तलवार हाथमें लेकर समस्त यादवोंको शीघ्र मार डालनेके लिये आया। आकर उसने उस तलवारसे सहस्रों मोहित यादव- वीरोंको युद्धस्थलमें मार डाला और वे पृथ्वीपर गिर पड़े। यह देखकर अनिरुद्धने रोषपूर्वक उससे कहा- ‘अरे! क्या तुम संग्रामभूमिमें अधर्म युद्ध करोगे, जिसकी सभी श्रेष्ठ पुरुषोंने निन्दा की है? मोहितोंको मारनेसे तुम्हारी प्रशंसा नहीं होगी। यदि तुम्हारे शरीरमें शक्ति है तो आओ मेरे साथ युद्ध करो’ ॥४४-४६ ॥

अनिरुद्धकी यह बात सुनकर बलके घमंडसे भरा हुआ बल्वल पैदल ही ढाल और तलवार लिये गर्जना करता हुआ अनिरुद्धपर चढ़ आया। उसे आते देख प्रद्युम्रपुत्र अनिरुद्ध रोषपूर्वक रथसे कूद पड़े और जैसे देवराज इन्द्र अपने वज्रसे पर्वतको विदीर्ण करते हैं, उसी प्रकार उन्होंने कालदण्डसे उस दैत्यपर प्रहार किया। उस आघातसे दैत्यकी छाती फट गयी और वह पृथ्वीको कम्पित करता हुआ गिर पड़ा तथा चार दिनोंतक संग्रामभूमिमें मूच्छित पड़ा रहा। उस समय उस दैत्यके गिरते ही सारी माया स्वतः शान्त हो गयी। युद्धस्थल दिखायी देने लगा और वहाँ खड़े हुए यादव आश्चर्यसे चकित हो गये ॥ ४७-५०॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अनिरुद्धको विजय’
नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५ ॥

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