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Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg

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Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg

रघुवंशम् महाकाव्य षष्ठः सर्ग | Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg

रघुवंशम् महाकाव्य के षष्ठः सर्ग (Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg) को इन्दुमतीस्वयंवर कहा जाता है। रघुवंश महाकाव्य छठे सर्ग में इन्दुमती स्वयंवर का मनोरम दृश्य। स्वयंवर में उपस्थित सभी राजाओं और राजकुमारों का वर्णन अतिरोचक तरीके से किया गया है। इन्दुमती की सखी सुनन्दा इन्दुमती को उपस्थित राजाओं का परिचय करवाती है। जैसे ही इन्दुमती राजा अज के सम्मुख पहुँचती है अज की दक्षिण भुजा फड़कने लगती है। इन्दुमती वहीं रुक जाती है और सुनन्दा के हाथों से कुंकुम के चूर्ण से लाल धागे वाली स्वयंवर माला को रघुपुत्र अज के गले में डाल देती है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य षष्ठः सर्गः ॥

॥ श्रीः रघुवंशम् ॥

स तत्र मञ्चेषु मनोज्ञवेषान् सिंहासनस्थानुपचारवत्सु ।
वैमानिकानां मरुतामपश्यदाकृष्टलीलान् नरलोकपालान् ॥ 1 ॥
अर्थ:
अज ने स्वयम्बर सभा में देखा कि मञ्च बने हुए है। उन पर रखे हुए उपचार (पीकदान आदि) से लेस सिंहासन। उन पर बैठे हुए हैं सजे धजे राजा लोग, उन्होंने विमानारूढ़ देवों की शोभा ग्रहण कर रखी है।

रतेर्गृहीतानुनयेन कामं प्रत्यर्पितस्वाङ्गमिवेश्वरेण ।
काकुत्स्थमालोकयतां नृपाणां मनो बभूवेन्दुमतीनिराशम् ॥ 2 ॥
अर्थ:
उन राजाओं के बीच अज ऐसा लग रहा था जैसे काम हो, रति की प्रार्थना पर शिव ने जिसे उसका शरीर लौटा दिया हो। उसे देखा तो अन्य राजाओं के मन में इन्दुमती के लाभ की आशा मिट गई।

वैदर्भनिर्दिष्टमथो/सौ कुमारः क्लुप्तेन सोपानपथेन मञ्चम् ।
शिलाविभङ्गैर्मृगराजशावस्तुङ्ग नगोत्सङ्गमिवारुरोह ॥ 3 ॥
अर्थ:
राजकुमार अज विदर्भराज द्वारा दिखलाए मञ्च पर बनी सीढ़ियों से जा चढ़ा, वैसे ही जैसे कोई सिंहशावक शिलाखण्डों पर पाँव रखते हुए पर्वत की ऊँची गोद में चढ़ जाता है।

परार्थ्यवर्णास्तरणोपपन्नमासेदिवान् रत्नवदासनं सः ।
भूयिष्ठमासीदुपमेयकान्तिर्मयूरपृष्ठाश्रयिणा गुहेन ॥ 4 ॥
अर्थ:
उस मञ्ड पर लगे आसन पर बिछी थी उत्तम वर्ण की चादर। उस पर बैठे अज की कान्ति मयूरपृष्ठ पर बैठे कुमार कार्त्तिकेय की कान्ति से अत्यधिक उपमेय थी।

तासु/तस्य श्रिया राजपरम्परासु प्रभाविशेषोदयदुर्निरीक्ष्यः ।
सहस्त्रधाऽऽत्मा/सौ व्यरुचद् विभक्तः पयोमुचां पङ्क्तिषु विद्युतेव ॥ 5 ॥
अर्थ:
उन राजाओं की पाँत में उनकी आत्मा शोभा से ऐसी प्रदीप्त लग रही थी जैसे मेघपङ्क्ति की आत्मा लगती है बिजली से। उसमें एक विशिष्ट शोभा जाग उठी थी जिसे देख पाना कठिन था।

तेषां महार्हासनसंस्थितानामुदारनेपथ्यभृतां स मध्ये ।
रराज भूम्ना रघुसूनुरेव कल्पद्रुमाणामिव पारिजातः ॥ 6 ॥
अर्थ:
महार्ह आसनों पर कीमती वेष धारण किए उन सबके बीच रघुपुत्र ‘अज’ ही अधिक सुशोभित लग रहा था, कल्पद्रुमों में पारिजात की नाँई।

नेत्रव्रजाः पौरजनस्य तस्मिन् विहाय सर्वान् नृपतीन् निपेतुः ।
मदोत्कटे रेचितपुष्पवृक्षा गन्धद्विपे वन्य इव द्विरेफाः ॥ 7 ॥
अर्थ:
पुरवासी लोगों के नेत्र अन्य सब राजाओं को छोड़ उसी पर टूट पड़े, जैसे मदोत्कट वन्यगज पर पुष्पवृक्षों को छोड़ टूट पड़ते हैं भौरे।

अथ कुलकम्

अथ स्तुते वन्दिभिरन्वज्ञैः सोमार्कवंश्ये नरदेवलोके ।
सञ्चारिते चागरुसारयोनौ धूपे समुत्सर्पति वैजयन्तीः ॥ 8 ॥
अर्थ:
उस समय वंशावली के जानकार वन्दी लोग सोम तथा सूर्यवंश के राजाओं की स्तुति गा रहे थे अगुरुसार की धूप फैल फैलकर वैजयन्ती बन रही थी।

पुरोपकण्ठोपवनाश्रयाणां कलापिनामुद्धतनृत्तहेतौ ।
प्रध्मातशङ्ख परितो दिगन्ताँस्तूर्य्यस्वने मूर्छति मङ्गलार्थे ॥ 9 ॥
अर्थ:
मङ्गलतूर्य बज रहे थे जिनसे पुर के पास के उपवनों के मयूर ताण्डव करने में लग गए थे, उनके साथ शङ्ख भी फेंके जा रहे थे। वह ध्वनि चारों ओर दिगन्त तक फैल रही थी।

मनुष्यवाह्वां चतुरस्रयानमध्यास्य कन्या परिवारशोभि ।
विवेश मञ्चान्तरराजमार्ग पतिम्वरा क्लृप्तविवाहवेषा ॥10॥
अर्थ:
अब मञ्चों के बीच के मार्ग में प्रवेश किया स्वयंवर-कन्या इन्दुमती ने सखियों के साथ। स्वयंवर का वेष पहने वह चौकोर यान पर बैठी थी जिसको मनुष्य ढो रहे थे।

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

तस्मिन् विधानातिशये विधातुः कन्यामये नेत्रशतैकलक्ष्ये ।
निपेतुरन्तःकरणैर्नरेन्द्रा देहैः स्थिताः केवलमासनेषु ॥ 11 ॥
अर्थ:
कन्या क्या, वह तो विधाता का कन्यारूप में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट विधान था। वह बना हुआ था सैकड़ों नेत्रों का प्रमुख लक्ष्य। उस पर सभी राजा वित्त से टूट पड़े, आसनों पर केवल शरीर से अवथित रहे।

तां प्रत्यभिव्यक्तमनोरथानां महीपतीनां प्रणयाग्रदूत्यः ।
प्रवालचेष्टा इव पादपानां शृङ्गारचेष्टा विविधा बभूवुः ॥12॥
अर्थ:
राजाओं के मनोरथ उस कन्या के प्रति अभिव्यक्ति पा रहे थे। उनमें विविध प्रकार की शृङ्गारचेष्टाएँ प्रकट हुई, जो प्रणय की (याचना की) अग्रदूतियाँ थीं।

कश्चित् कराभ्यामुपगूढनालमालोलपत्त्राभिहतद्विरेफम् ।
रजोभिरन्तः-परिवेषबन्धि लीलारविन्दं भ्रमयाञ्चकार ॥13॥
अर्थ:
किसी ने दोनों हाथों से नाल पकड़ कर लीलारविन्द घुमाना शुरू किया। उसकी चंचल पंखुड़ियों से भौर आहत हो रहे थे, पराग से भीतर ही भीतर घेरा बन गया था।

विस्रस्तमंसादपरो विलासी रत्नानुविद्धाङ्गदकोटिलग्नम् ।
प्रावारमुत्कृष्य यथाप्रदेशं निनाय साचीकृतचारुवक्त्रः ॥14॥
अर्थ:
किसी ने चेहरा टेढ़ा किया और कंधे से खिसककर रत्नजटित बाजूबन्द की नोक में अटके उत्तरीय को अपने स्थान पर ले जाता दिखाई दिया।

आकुञ्चिताग्राङ्गुलिना तथान्यः किञ्चित्समावर्जितनेत्रशोभी ।
तिर्यग् विसंसर्पिनखप्रभेण पादेन हैमं विलिलेख पीठम् ॥15॥
अर्थ:
इसी प्रकार अन्य किसी ने अपनी नेत्रशोभा कन्या की ओर किञ्चित् आवर्जित की और उँगलियों के आकुञ्चित अग्रभाग से पैर के द्वारा कुरेदना शुरू किया सुवर्ण पीठ को।

निवेश्य वामं भुजमासनार्धे तत्संनिवेशाद् व्यतिलङ्घिनीव ।
कश्चिद् विवृत्तत्रिकभिन्नहारः सुहृत्समाभाषणतत्परोऽभूत् ॥16॥
अर्थ:
किसी ने बायाँ हाथ जमाया आसन के आधे भाग में, जिससे उसका कन्वा अधिक ऊँचा हो गया था और कमर टेढ़ी होने के कारण हार हट गया था। इस स्थिति में बैठकर वह लगा बातचीत करने अपने सुहत् राजा से।

विलासिनीविभ्रमदन्तपत्रमापाण्डुरं केतकबर्हमन्यः ।
प्रियानितम्बोचितसन्निवेशैर्विपाटयामास युवा नखाग्रैः ॥17॥
अर्थ:
कोई युवा राजा अग्रनखों से भूरे रंग के केतक पत्र छेद रहा था। केतकपत्र था विलासिनी वनिताओं के लिए हाथी दाँत का पत्र। उसके उन नखों को अभ्यास था प्रियानितम्बों पर क्षतचिह्न बनाने का।

कुशेशयाताम्रतलेन कश्चित् करेण रेखाध्वजलाञ्छनेन ।
रत्नाङ्गुलीयप्रभयाऽनुविद्धानुदीरयामास सलीलमक्षान् ॥18॥
अर्थ:
कोई राजा कुशेशय सी लाल हथेली वाले और रेखाध्वज से अंकित हाथ से लीलापूर्वक पाशे फेंक रहा था, जो रत्न की अँगूठी की प्रभा से रंग जाते थे।

कञ्चिद् यथाभागमवस्थितेऽपि स्वसन्निवेशाद् व्यतिलङ्घिनीव ।
वज्रांशुगर्भाङ्गुलिरन्ध्रमेकं व्यापारयामास करें किरीटे ॥19॥
अर्थ:
किसी को लगा कि उसका किरीट खिसक गया है यद्यपि था वह यथास्थान स्थित। उसने हीरे की किरणों भरे अंगुलिरन्नों वाले हाथ से उसे सम्हालना शुरू किया। इसके पश्चात् उपस्थित राजाओं का परिचय कराना आरम्भ हुआ।

ततो नृपाणां श्रुतवृत्तवंशा पुंवत् प्रगल्भा प्रतिहाररक्षी ।
प्राक् सन्निकर्षं मगधेश्वरस्य नीत्वा कुमारीमवदत् सुनन्दा ॥ 20 ॥
असौ शरण्यः शरणोन्मुखानामगाधसत्त्वो मगधप्रतिष्ठः ।
राजा प्रजारञ्जनलब्धवर्णः परन्तपो नाम यथार्थनामा ॥ 21 ॥
अर्थ:
यह कार्य किया एक प्रतीहारी ने जो राजवंशों के वृत्त जानती और पुरुष जैसी प्रगल्भ थी। उसका नाम था ‘सुनन्दा’। सबसे पहले वह कुमारी को मगध जनपद के राजा के पास ले गई और बोली- ‘ये हैं महाराज ‘परंतप’ प्रजारञ्जन के कारण ये ऐसे ही हैं यथानाम तथागुण। इनका राज्य है मगध में। इनके सत्त्व (बल, मानसिकता) की थाह नहीं। शरणागत को ये ठीक
से शरण देते हैं।

कामं नृपाः सन्ति सहस्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम् ।
नक्षत्रताराग्रहसंकुलापि ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः ॥ 22 ॥
अर्थ:
राजा तो हजारों है. परन्तु भूमि को राजन्वती कहा जाता है इन्हीं के कारण। ठीक ही है, रात्रि में नक्षत्र भी हते हैं, तारे भी और ग्रह अथवा ताराग्रह भी तब भी उसे ज्योतिष्मती तो केवल चन्द्रमा से ही कहा जाता है।

क्रिया-प्रबन्धादय-मध्वराणा-मजस्त्र-माहूतसहस्रनेत्रः ।
शच्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान् मन्दारशून्यानलकांश्चकार ॥ 23 ॥
अर्थ:
ये यज्ञकार्य निरन्तर करते आ रहे हैं जिनमें इन्द्र इन्हीं के यहाँ बना रहता है। और शची के केशों को बहुत समय बीत गया मन्दार (पुष्प) शून्य हुए। विरह में कोई भी सधवा स्वयं को सजाती नहीं।

अनेन चेदिच्छसि गृह्यमाणं पाणिं वरेण्येन कुरु प्रवेशे ।
प्रासादवातायनसंस्थितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपुराङ्गनानाम् ॥ 24॥
अर्थ:
ये हैं तो वरण करने योग्य। यदि इनके साथ पाणिग्रहण अभीष्ट हो तो कर दे उत्पत्र ‘पुष्पपुर’ की सुन्दरियों में नेत्रोत्सव, वे तुम्हारे प्रवेश के समय वातायनों पर जमी होंगी।’

एवं तयोक्ते तमवेक्ष्य किञ्चिद्विवस्त्रसिदूव्र्वाङ्कमधूकमाला ।
ऋजुप्रणामक्रिययैव तन्वी प्रत्यादिदेशैनमभाषमाणा ॥ 25 ॥
अर्थ:
सुनन्दा के ऐसा कहने पर कुमारी ने मगधराज पर दृष्टि डाली। उसके हाथ में रखी दूर्वा और महुए की माला कुछ खिसकी और शुद्ध (ऋजु) प्रणाम करके ही उसको अस्वीकार कर दिया, बोली कुछ नहीं।

तां सैव वेत्रग्रहणे नियुक्ता राजान्तरं राजसुतां निनाय ।
समीरणोत्थेव तरङ्गलेखा पद्मान्तरं मानसराजहंसीम् ॥ 26 ॥
अर्थ:
वही वेत्रग्राहिणी सुनन्दा उस राजपुत्री को अन्य राजा के पास ले गई, ठीक वैसे ही जैसे हवा से उठी तरङ्गलेखा राजहंसी को अन्य कमल के पास ले जाती है।

जगाद चैनामयमङ्गनाथः सुराङ्गनाप्रार्थितयौवनश्रीः ।
विनीतनागः किल सूत्रकारैरैन्द्रं पदं भूमिगतोऽपि भुङ्क्ते ॥ 27॥
अर्थ:
वहाँ ले जाकर बोली ‘ये हैं अंगराज। इनके यौवन की जो श्री है उसकी चाह सुरलोक की अङ्गनाएँ भी करती रहती है। इसने सूत्रकारों से प्रशिक्षित करा रखी हैं गजसेना इस कारण पृथिवी पर रहते हुए भी ये इन्द्रपद का करते हैं भोग। (सूत्र-गजसूत्र ।)

अनेन पर्यासयताश्रुबिन्दून् मुक्ताफलस्थूलतमान् स्तनेषु ।
प्रत्यर्पिताः शत्रुविलासिनीनामुन्मुच्य सूत्रेण विनैव हाराः ॥ 28 ॥
अर्थ:
ये शत्रु-विलासिनियों को भी बड़े बड़े मौक्तिक हार पहँना चुके हैं, जिन्हें धागे में गूँथना आवश्यक नहीं था। ये हार थे आँखों से टपकते अश्रुबिन्दुरूपी मोतियों के।

निसर्गभिन्नास्पदमेकसंस्थमस्मिन् द्वयं श्रीश्च सरस्वती च ।
कान्त्या गिरा सूनृतया च योग्या त्वमेव कल्याणि! तयोस्तृतीया ॥ 29 ॥
अर्थ:
ये ऐसे राजा है जिनमें स्वभावतः अलग अलग रहने के लिए प्रसिद्ध दोनों ही एक साथ दिखती है- एक श्री और एक सरस्वती। उनमें तुम्हीं हो तीसरी बनने योग्य, क्योंकि तुममें वैसी ही कान्ति भी है और वैसी ही प्रिय वाणी भी।’

अथाङ्गराजादवतार्य चक्षुर्याहीति जन्यामवदत् कुमारी ।
नासौ न काम्यो, न च वेद सम्यग् द्रष्टुं न सा, भिन्नरुचिर्हि लोकः ॥ 30 ॥
अर्थ:
कुमारी ने कुछ भी सोचा और अंगराज पर से दृष्टि हटा कर सेविका से कहा ‘चल’। यह राजा काम्य नहीं था ऐसा नहीं, ऐसा भी नहीं कि कुमारी देखना नहीं जानती थी, इतने पर भी इस निर्णय से लगता है सबकी रुचि भिन्न होती है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

ततः परं दुष्प्रसहं द्विषद्भिर्नृपं नियुक्ता प्रतिहारभूमौ ।
निदर्शयामास विशेषदृश्यमिन्दु नवोत्थानमिवेन्दुमत्यै ॥ 31 ॥
अर्थ:
इसके पश्चात् उसी द्वारपालिका ने उस राजकुमारी इन्दुमती को दर्शन कराए अन्य राजा के, जो सभी शत्रुओं के लिए असह्य था, किन्तु था सुन्दर और विशेषरूप से दर्शनीय, नवोदित चन्द्र के जैसा।

अवन्तिनाथोऽयमुदग्रबाहुर्विशालवक्षास्तनुवृत्तमध्यः।
आरोप्य चक्रभ्रममुष्णतेजास्त्वष्ट्रेव यत्नोल्लिखितो विभाति ॥ 32 ॥
अर्थ:
परिचय में कहना शुरू किया- ‘ये हैं अवन्तिजनपद के स्वामी। इनकी भुजाएँ तो
देखो कितनी बड़ी है। इनका वक्षःस्थल विशाल है और मध्यभाग क्षीण तथा सुडौल। ये ऐसे लगते हैं कि जैसे यत्नपूर्वक खराद पर चढ़ाकर त्वष्टा ऋषि ने तैयार किए सूर्य हों ये। अपनी कन्या संज्ञा के लिए सह्य बनाने हेतु त्वष्टा महर्षि ने सूर्य को तराश कर बारह भागों मे विभक्त किया था।

अस्य प्रयातस्य समग्रशक्तेरग्रेसरैर्वाजिभिरुत्थितानि ।
कुर्वन्ति सामन्तशिखामणीनां प्रभाप्ररोहास्तमयं रजासि ॥ 33 ॥
अर्थ:
जब ये अपनी पूरी शक्ति के साथ प्रयाण करते हैं तो आगे चलते घोड़ों की टाप से उड़ी धूल सामन्त राजाओं की शिखामणियों की प्रभा अस्त कर देती है।

असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः ।
तमिस्त्रपक्षेऽपि सह प्रियाभिर् ज्योत्स्नावतो निर्विशति प्रदोषान् ॥ 34॥
अर्थ:
एक विशेषता इन्हीं में है कि ये कृष्ण पक्ष में भी अपनी प्रिया के साथ चाँदनी का सुख लिया करते हैं। ऐसा इसलिए कि ये निवास करते हैं भगवान् महाकाल के समीप जिनके सिर पर चन्द्र है।

अनेन यूना सह पार्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते ।
सिप्रातरङ्गानिलकम्पितासु विहर्तुमुद्यानपरम्परासु ॥ 35॥
अर्थ:
यह राजा युवक भी है। हे रम्भोरु! क्या तू चाहेगी इसके साथ सिप्रा की तराङ्गों को छूकर आने वाली वायु से कम्पित उद्यानों में विहार करना।

तस्मिन्त्रभिद्योतितबन्धुपद्ये प्रतापसंशोषितशत्रुपङ्के ।
बबन्ध सा नोत्तमसौकुमार्या कुमुद्वती भानुमतीव भावम् ॥ 36 ॥
अर्थ:
अवन्तिराज में दोनों विशेषताएँ थीं वे बन्धु रूपी कमलों को खिलाते और शत्रुरूपी कीचड़ को सुखा डालते थे, किन्तु उत्तम सौकुमार्य वाली कुमारी का मन उस ओर आकृष्ट हुआ नहीं, सूर्य की ओर कुमुद्धती के मन सा। एकनिष्ठ प्रेम उत्तम सौकुमार्य/कुमुद्दती चन्द्र को ही देखकर खिलती है (द्र. यहीं 44)।

तामग्रतस्तामरसान्तराभामनुपराजस्य गुणैरनूनाम् ।
विधाय सृष्टिं ललितां विधातुर्जगाद भूयः सुदतीं सुनन्दा ॥ 37॥
अर्थ:
विधाता की कमलगर्भ सी कान्ति वाली गुणवती ललित और सुदती सृष्टि को अनूपराज के सामने ले जाकर सुनन्दा ने पुनः बोलना शुरू किया।

सङ्ग्राम-निर्विष्ट-सहस्र-बाहुरष्टादशद्वीप-निखात-यूपः
अनन्यसाधारणराजशब्दो बभूव योगी किल कार्त्तवीर्यः ॥ 38 ॥
अर्थ:
‘एक हुए हैं कार्त्तवीर्य नामक योगी। उनकी भुजाएँ हजार (असंख्य) थीं और उन सबका उपयोग वे संग्रामों में करते रहते थे। वे पृथिवी के सभी अट्ठारहों द्वीपों पर यूप गाड़ चुक थे और उनके समय केवल वे ही कहलाते थे राजा, अन्य किसी को राजा नहीं कहा जाता था।

अकार्यचिन्तासमकालमेव प्रादुर्भवंश्चापधरः पुरस्तात् ।
अन्तः शरीरेष्वपि यः प्रजानां प्रत्यादिदेशाविनयं विनेता ॥ 39 ॥
अर्थ:
वे गलत कार्य का संकल्प होते ही धनुष लिए सामने उपस्थित हो जाते थे, अतः वे ऐसे नियामक थे कि उन्होंने गलत कार्य को जनता के मन से भी हटा दिया था।

यस्य ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन विनिश्वसद्वक्त्रपरम्परेण ।
कारागृहे निर्जितवासवेन लङ्केश्वरेणोषितमा प्रसादात् ॥ 40 ॥
अर्थ:
उनका प्रताप ऐसा कि सुवर्ण की लंका का स्वामी रावण भी उनके कारागृह में उनकी प्रसन्नता तक पड़ा रहा था। उन्होंने उसकी बीसों भुजाएँ धनुष की डोरी से बाँधकर निस्पन्द बना दी थी और उसके दशों मुख हाँफते रह गए थे, यद्यपि वह इन्द्र को जीतने में सफल था।

तस्यान्वये भूपतिरेष जातः प्रदीप इत्यागमवृद्धसेवी ।
येन श्रियः संश्रयदोषरूढं स्वभावलोलेत्ययशः प्रमृष्टम् ॥ 41 ॥
अर्थ:
ये महाराज उसी के वंश में उत्पन्न हैं। इनका नाम है ‘प्रदीप’ (प्रतीप)। ये लगे रहते हैं आगमवृद्धों की सेवा में। इन्होंने संश्रय दोष के कारण उत्पन्न अपयश को कि ‘श्री तो स्वभाव से ही चंचला है’ श्री से हटा दिया है।

आयोधने कृष्णगतिं सहायमवाप्य यः क्षत्रियकालरात्रिम् ।
धारां शितां रामपरश्वधस्य संभाव्यत्युत्पलपत्रसाराम् ॥ 42 ॥
अर्थ:
यही वह राजा है जिसने अग्नि को साथ लेकर युद्ध किया और परशुराम जी के परशु की तीक्ष्ण धारा को नीलकमल की पंखुड़ी सा कोमल सिद्ध किया था जो थी क्षत्रिय जाति के लिए कालरात्रि।

अस्याङ्कलक्ष्मीर्भव दीर्घबाहोर्माहिष्मती-वप्र-नितम्बकाञ्चीम् ।
प्रासादजालैर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः ॥ 43 ॥
अर्थ:
इस दीर्घबाडु की अंकलक्ष्मी बन जा, यदि तेरी इच्छा हो माहिष्मती की नितम्बकाञ्ची नर्मदा में प्रतिबिम्बित अट्टालिकाओं की रमणीय छवि निहारने की।’

तस्याः प्रकामं प्रियदर्शनोऽपि न स क्षितीशो रुचये बभूव ।
शरत्प्रमृष्टाम्बुधरोपरोधः शशीव पर्याप्तकलो नलिन्याः ॥ 44॥
अर्थ:
वह राजा था तो काफी प्रियदर्शन, किन्तु उस (इन्दुमती) को रुचा नहीं, जैसे शरत्काल का मेघमुक्त पूर्णचन्द्र कमलिनी को नहीं रुचता।

सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य देशान्तरगीतकीर्त्तिम् ।
आचारशुद्धोभयवंशदीपं शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी ॥ 45॥
अर्थ:
अब वह पहुंची शूरसेन जनपद के अधिपति ‘सुषेण’ के सामने। सुषेण की कीर्त्ति देशान्तरों तक फैली थी और जिसके दोनों वंश (मातृवंश तथा पितृवंश) आचारपूत थे, जिनका यह था प्रदीप।

नीपान्वयः पार्थिव एष यज्वा गुणैर्यमाश्रित्य परस्परेण ।
सिद्धाश्रमं शान्तमिवैत्य सत्त्वैर्नैसर्गिकोऽप्युत्ससृजे विरोधः ॥ 46 ॥
अर्थ:
यह राजा ‘नीप’ वंश का है। यह यज्ञ करता ही रहता है। इसके गुणों से प्राणियों ने इसके पास पहुँच कर अपना स्वभावसिद्ध नैसर्गिक विरोध भी छोड़ दिया, जैसा शान्त सिद्धाश्रम में देखा जाता है।

यस्यात्मगेहे नयनभिरामा कान्तिर्हिमांशोरिव सन्निविष्टा ।
हर्याग्रसंरूढतृणाङ्कुरेषु तेजोऽविषां रिपुमन्दिरेषु ॥ 47॥
अर्थ:
इसके अपने भवनों पर तो छाई रहती है चाँदनी सी नयनाभिराम कान्ति और शत्रुभवनों पर छाया रहता है इसका अविपहा तेज। इसीलिए उन पर जमे दिखाई देते हैं तृणाङ्कुर।

यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद् वारिविहारकाले ।
कलिन्दकन्या मथुरां गतापि गङ्गोर्मिसंसक्तजलेव भाति ॥ 48 ॥
अर्थ:
इसकी रानियाँ जब वारिविहार करती हैं और उनके स्तनो पर लगा चन्दन धुल जाता है तब मथुरा की यमुना भी गङ्गातरङ्गों से मिश्रित लगती है।

त्रातेन तार्थ्यात् किल कालियेन मणिं विसृष्टं यमुनौकसा यः ।
वक्षःस्थलव्यापिरुचं दधानः सकौस्तुभं हेपयतीव कृष्णम् ॥ 49॥
अर्थ:
इसी ने गरुड से बचाया था कालियनाग को। यमुना में रह रहे उसने उपहार में जो मणि दी है उसकी कान्ति इसके वक्षःस्थल पर फैली रहती है तो यह कौस्तुभधारी कृष्ण (विष्णु। द्र.रघु. 6.49 तथा कुसं. 3.14 विष्णवर्थे कृष्णशब्द, माल. 5.2 कृष्णार्थे विष्णुशब्दः) को भी लज्जित सा कर देता है।

सम्भाव्य भर्त्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये ।
वृन्दावने चैत्ररथादनूने निर्विश्यतां सुन्दरि ! यौवनश्रीः ॥ 50 ॥
अर्थ:
हे सुन्दरि। वृन्दावन कुबेर के उपवन चैत्ररथ से कम थोड़े ही है। युवावस्था के इस राजा को पति बनाकर वहाँ कोमल किसलय और पुष्प की सेज पर अपनी यौवनश्री का करना भोग

अध्यास्य चाम्भः- पृषतोक्षितानि शैलेयनद्धानि शिलातलानि ।
कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्तं कान्तासु गोवर्धनकन्दरासु ॥ 51 ॥
अर्थ:
जब वर्षा ऋतु आ जाए तो शिलाजतु से युक्त और पानी की फुहारों से सिंचे
शिलातलों पर बैठ गोवर्धनपर्वत की रम्य गुफाओं में देखना मयूरों का नृत्य।’

नृपं तमावर्त्तमनोज्ञनाभिः सा व्यत्यगादन्यवधूर्भवित्री ।
महीधरं मार्गवशादुपेतं स्रोतोवहा सागरगामिनीव ॥ 52॥
अर्थ:
आवर्त्त की सी सुन्दर नाभि वाली उस इन्दुमती ने उस राजा को छोड़ा और आगे बढ़ी। वह बनने वाली थी अन्य किसी की वधू। यह वैसे हो हुआ जैसे सागर के वरण के लिए चली नदी बीच में पड़े पहाड़ को डाँक जाती है।

अथाङ्गदाश्लिष्टभुजं भुजिष्या हेमाङ्गदं नाम कलिङ्गनाथम् ।
आसेदुषीं सादितशत्रुपक्षं बालामबालेन्दुमुखीं बभाषे ॥ 53 ॥
अर्थ:
अब उस भुजिष्या (सुनन्दा) ने शत्रुपक्ष को नष्ट कर चुके, अङ्गदधारी कलिङ्गनाथ (6) ‘हेमाङ्गद’ के पास उपस्थित पूर्णचन्द्र सी मुखवाली कुमारी से कहा।

असौ महेन्द्राद्रिसमानसारः पतिर्महेन्द्रस्य महोदधेश्च ।
यस्य क्षरत्सैन्यगजच्छलेन यात्रासु यातीव पुरो महेन्द्रः ॥ 54॥
अर्थ:
‘ये हैं महेन्द्राद्रि से सार वाले महेन्द्र और महोदधि के नाथ। जब ये यात्रा करते हैं तो इनके आगे आगे मदं चुआते गजों के बहाने स्वयं महेन्द्रगिरि ही चलता मिलता है।

ज्याघातरेखे सुभुजो भुजाभ्यां बिभर्त्ति यश्चापभृतां पुरोगः ।
रिपुश्रियां साञ्जनबाष्पसेके बन्दीकृतानामिव पद्धती द्वे ॥ 55॥
अर्थ:
ये धनुर्धरों में अग्रगामी हैं। इनकी दोनों भुजाओं पर प्रत्यञ्चा की चोट की जो रेखाएँ है वे बन्दी बनाई गई शत्रुलक्ष्मी के कज्जलमिश्रित आँसुओं के ही दो प्रवाहमार्ग हैं।

यमात्मनः सद्मनि सन्निविष्टं मन्द्रध्वनित्याजितयामतूर्य्यः ।
प्रासादवातायनदृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम् ॥ 56 ॥
अर्थ:
इन्हें प्रातःकाल समुद्र ही जगाया करता है। ये जिस भवन में सोते हैं उसमें भीतर तक प्रविष्ट है समुद्र। जब वह गड़गड़ाता है तो उसकी गम्भीर ध्वनि से यामतूर्य की आवश्यकता नहीं रह जाती। उसकी तरंगे प्रासाद वातायन से भी देखी जा सकती हैं।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनममरेषु ।
द्वीपान्तराऽऽनीत-लवङ्गपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भिः ॥ 57॥
अर्थ:
इसके साथ समुद्र के तट पर विहार करना जिस पर ताल वृक्षों की मर्मरध्वनि होती रहती है। वहाँ तुम्हारा पसीना पोंछ दिया करेंगे पड़ोसी जलद्वीपों से लवंग पुष्प के साथ आए पवन के झोंके।’

प्रलोभिताप्याकृतिलोभनीया विदर्भराजावरजा तयैवम् ।
तस्मादपावर्त्तत दूरकृष्टा नीत्येव लक्ष्मीः प्रतिकूलदैवात् ॥ 58 ॥
अर्थ:
सुनन्दा ने इस प्रकार आकृति से लुभा लेने वाली उस कुमारी को प्रलोभन दिया, किन्तु वह उससे भी हट गई, जैसे नीति से दूर तक खिंची लक्ष्मी प्रतिकूल दैव वाले व्यक्ति से हट जाती है।

अथोरगाख्यस्य पुरस्य नाथ दौवारिकी देवसरूपमेत्य ।
इतश्चकोराक्षि ! विलोकयेति पूर्वानुशिष्टां निजगाद भोज्याम् ॥ 59॥
अर्थ:
अब द्वाररक्षिका वह सुनन्दा उरगपुर के देव जैसे रूप वाले स्वामी के पास पहुंची और पूर्वोक्त राजकुमारी से बोली- ‘हे चकोराक्षि! इस ओर देखो।

पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन ।
आभाति बालातपरक्तसानुः सनिर्झरोद्‌गार इवाद्रिराजः ॥ 60 ॥
अर्थ:
ये (7) पाण्ड्यनरेश हैं। इन्होंने दोनों कन्धों पर (मोती के उज्ज्वल) हार पहन रखे हैं और लगा रखा है लालचन्दन का अंगराग। ये ऐसे लग रहे हैं जैसे अद्रिराज लगता है जिस पर छाई हो अरुणोदय की बाल धूप और जिससे गिर रहे हों दो झरने।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

विन्ध्यस्य संस्तम्भयिता महाद्रेर्निः शेषपीतोज्झितसिन्धुराजः ।
प्रीत्याश्वमेधावभृथार्द्रमूर्तेः सौस्नातिको यस्य भवत्यगस्त्यः ॥ 61 ॥
अर्थ:
जब ये पाण्डवराज अश्वमेध का यज्ञान्तस्नान (अवभृथ) करते हैं तो बड़ी प्रीति के साथ इनके सौस्नातिक (सुस्नान पूछने वाले) बनते हैं वे महर्षि अगस्त्य जिन्होंने विन्ध्यगिरि की वृद्धि रोकी थी और संपूर्ण समुद्र को पीकर निकाल दिया था।

अस्त्रं हरादाप्तवता दुरापं येनेन्द्रलोकावजयाय सृष्टः ।
पुरा जनस्थानविमर्द्दशङ्की सन्धाय लङ्काधिपतिः प्रतस्थे ॥ 62 ॥
अर्थ:
इन्द्रलोक को जीतने के लिए उद्यत (सृष्ट) लङ्काधिपति रावण जनस्थान में युद्ध की शङ्का से इस पाण्डवराज के साथ सन्धि करके ही आगे बढ़ा था, इसने भगवान् शिव से ‘ब्रह्मशिरा’ नामक दुर्लभ अस्व जो प्राप्त कर रखा था। (सृष्ट उयुक्त द्र. कुमारसंभव 2.51 तदिच्छा0 पद्म।)

अनेन पाणौ विधिवद् गृहीते महाकुलीनेन महीव गुर्वी ।
रत्नानुविद्धार्णवमेखलाया दिशः सपत्नी भव दक्षिणस्याः ॥ 63 ॥
अर्थ:
इसका कुल महान् है। इसके साथ विधिवत् पाणिग्रहण कर ले और तू बन जा पूरी दक्षिण दिशा की सपत्नी, जिसकी मेखला है रत्नानुविद्ध समुद्र।

ताम्बूलवल्ली-परिणद्ध-पूगास्वेलालताऽऽलिङ्गित-चन्दनासु ।
तमालपत्त्रास्तरणासु रन्तुं प्रसीद शश्वन्मलयस्थलीषु ॥ 64 ॥
अर्थ:
इस पाण्ड्यराज का वरण कर करती रहना रमण उन स्पृहणीय मलयस्थलियों में जिनमें ताम्बूलवल्लियों से आबद्ध रहते हैं सुपारी के वृक्ष, इलायची से आलिङ्गित रहते है चन्दनतरु। वहाँ बिछौने की चादर बनेंगे तमाल पत्र। क्या कहना। मान भी जा।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

इन्दीवरश्यामतनुर्नृपोऽसौ त्वं रोचनागौरशरीरयष्टिः ।
अन्योन्यशोभापरिवृद्धये वां योगस्तडित्तोयदयोरिवास्तु ॥ 65 ॥
अर्थ:
माना कि यह राजा नीलकमल सा श्याम है और तुम रोचना सी गौर। किन्तु तुम्हारे योग से दोनों की ही शोभा बढ़ेगी बिजली और मेघ के योग के समान।’

स्वसुर्विदर्भाधिपतेस्तदीयो लेभेऽन्तरं चेतसि नोपदेशः ।
दिवाकरादर्शनबद्धकोशे नक्षत्रनाथांशुरिवारविन्दे ॥ 66 ॥
अर्थ:
विदर्भाधिपति की बहिन इन्दुमती के मन में उसका उपदेश स्थान पा सका नहीं, सूर्य के दर्शन के बिना बँधे कोश वाले अरविन्द में चन्द्रांशु के समान।

सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा ।
नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभाव स स भूमिपालः ॥ 67 ॥
अर्थ:
रात में संचार करती दीपशिखा के जैसी वह जिस जिस राजा को छोड़कर आगे बढ़ी राजमार्ग पर बने प्रासाद के समान वह प्रत्येक विवर्ण हो गया।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

तस्यां रघोः सूनुरुपस्थितायां वृणीत मां नेति समाकुलोऽभूत् ।
वामेतरः संशयमस्य बाहुः केयूरबन्धोच्छ्वसितैर्नुनोद ॥ 68 ॥
अर्थ:
अब वह पहुँची ‘अज’ के पास तो वह भी यह सोचकर व्याकुल हो गया कि यह मेरा भी वरण नहीं करेगी, किन्तु उसका संशय दूर कर दिया केयूर के हिलने से उसी की दक्षिण भुजा ने।

तं प्राप्य सर्वावयवानवधं व्यावर्त्ततान्योपगमात् कुमारी ।
न हि प्रफुल्ल सहकारमेत्य वृक्षान्तरं काङ्क्षति षट्पदाली ॥ 69॥
अर्थ:
उसे पाकर कुमारी अन्य किसी के पास जाने से रुक गई। अज का प्रत्येक अंग अनवद्य था (वह सर्वाङ्गसुन्दर भा)। भौरों की पंक्ति को खिला सहकार मिल जाता है तो वह अन्य किसी वृक्ष की आकाङ्क्षा नहीं करती।

तस्मिन् समावेशितचित्तवृत्तिमिन्दुप्रभामिन्दुमतीमवेक्ष्य ।
प्रचक्रमे वक्तुमनुक्रमज्ञा सविस्तरं वाक्यमिदं सुनन्दा ॥ 70 ॥
अर्थ:
सुनन्दा ने इन्दु सी इन्दुमती को चित्तवृत्ति को अज में समावेशित देख इस प्रकार विस्तारपूर्वक कहना शुरू किया। अनुक्रम तो उसे ज्ञात था ही।

इक्ष्वाकुवंश्यः ककुदं नृपाणां ककुत्स्थ इत्याहितलक्षणोऽभूत् ।
काकुत्स्थशब्दं यत उन्नतेच्छाः श्लाघ्यं दधत्युत्तरकोसलेन्द्राः ॥ 71 ॥
अर्थ:
इक्ष्वाकु के वंश में अत्यन्त श्रेष्ठ नृप हुए हैं जिनका नाम ककुत्स्थ प्रसिद्ध है। उसके कारण उत्तरकोसल जनपद के सभी उन्नतेच्छ शासक स्वयं को ‘काकुत्स्थ’ कहते हुए गौरव का अनुभव करते हैं।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

महेन्द्रमास्थाय महोक्षरूपं यः संयति प्राप्तपिनाकिलीलः ।
चकार बाणैरसुराङ्गनानां गण्डस्थलीः प्रोषितपत्रलेखाः ॥ 72 ॥
अर्थ:
ककुत्स्थ को ककुत्स्थ इस कारण कहा गया कि युद्ध में उसने बाणों से असुराङ्गनाओं के कपोल पत्रलेला से शून्य कर दिए थे। उस समय उसकी सवारी था वृषभ के रूप में परिणत स्वयं इन्द्र। उस समय उसने लीला धारण कर रखी थी पिनाकी भगवान् शङ्कर की।

ऐरावतास्फालनविश्लथं यः संघट्टयन्नङ्गदमङ्गदेन ।
उपेयुषः स्वामपि मूर्त्तिमय्यमर्द्धासनं गोत्रभिदोऽधितष्ठौ ॥ 73 ॥
अर्थ:
जीत के बाद जब इन्द्र अपने पूर्व रूप में पहुँच गए तब भी यह उनके ऐरावत को थपथपाने से ढीले कन्धे से कन्धा मिलाकर रगड़ते हुए उनके आधे आसन पर बैठा।

जातः कुले तस्य किलोरुकीर्त्तिः कुलप्रदीपो नृपतिर्दिलीपः ।
अतिष्ठदेकोन शतक्रतुत्वे शक्राभ्यसूयाविनिवृत्तये यः ॥ 74॥
अर्थ:
उसी के वंश में हुए राजा दिलीप जो बहुत बड़ी कीर्त्ति के धनी और कुल के दीपके थे। उनकी महत्ता यह कि उन्होंने सौवाँ अश्वमेध केवल इन्द्र की ईर्ष्या मिटाने के लिए छोड़ दिया और वे शतक्रतु बनने की जगह एकोनशतक्रतु (निन्यानवे यज्ञ करने वाले) होकर ही संतुष्ट रहे।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

यस्मिन् महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्द्धपथे गतानाम् ।
वातोऽपि नास्त्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम् ॥ 75 ॥
अर्थ:
उनका प्रताप ऐसा कि स्वेच्छाविहारिणी ललनाएँ यदि आधे ही विहारमार्ग में सो जाएँ तो वायु का भी साहस नहीं होता था कि वह उनका पल्ला खिसका दे, उनके आहरण के लिए हाथ फैलाने का साहस तो करता ही कौन ?।

पुत्रो रघुस्तस्य पदं प्रशास्ति महाक्रतोर्विश्वजितः प्रयोक्ता ।
चतुर्दिगावर्जितसंभृतां यो मृत्पात्रशेषामकरोद् विभूतिम् ॥ 76 ॥
अर्थ:
उनके स्थान पर अब शासन कर रहे हैं महाराज रघु, जिन्होंने अनुष्ठान किया विश्वजित् नामक महाक्रतु का और उसमें चारों दिशाओं से एकत्रित विभूति को मृत्पात्रशेष कर दिया, ऐसा कर दिया कि इनके पास विभूति के नाम पर केवल मिट्टी के पात्र बचे थे।

आरूढमद्रीनुदधीन् प्रतीर्ण भुजङ्गमानां वसतिं प्रविष्टम् ।
ऊर्ध्वं गतं यस्य च नानुबन्धि यशः परिच्छेत्तुमियत्तयालम् ॥ 77 ॥
अर्थ:
उनके यश की सीमा नहीं। वह चढ़ा हुआ है पर्वतों पर, पार कर गया है समुद्रों को और प्रविष्ट हो गया है पाताल में। ऊपर भी गया है और वह लगातार फैलता ही जा रहा है, अतः जिसकी इयत्ता निश्चित नहीं की जा सकती।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

असौ कुमारस्तमजोऽनुजातस्त्रिविष्टपस्येव पतिं जयन्तः ।
गुर्वी धुरं यो भुवनस्य पित्रा धुर्येण दम्यः सदृशीं बिभर्त्ति ॥ 78 ॥
अर्थ:
यह कुमार (अविवाहित) अज उन्हीं पर गया है जैसे इन्द्र पर उनका पुत्र जयन्त। यह पृथिवी का बोझ पिता के ही समान ढो रहा है धुर्य का बोड़ा दम्य के समान। (धुर्य प्रौढ बैल, दम्य नया निकला नटवा ॥

कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च तैस्तैर्विनयप्रधानैः ।
त्वमात्मनस्तुल्यमिमं वृणीष्व रत्नं समागच्छतु काञ्चनेन ॥ 79 ॥
अर्थ:
कुल, कान्ति, नई उमर और विनय आदि गुणों से यह तुम्हारे अनुरूप है। इसका वरण कर लो। हो जाए रत्न का काञ्चन से योग।’

ततः सुनन्दावचनावसाने लज्जां तनूकृत्य नरेन्द्रकन्या ।
दृष्ट्या प्रसादामलया कुमारं प्रत्यग्रहीत् संवरणस्रजेव ॥ 80 ॥
अर्थ:
इसके अनन्तर सुनन्दा जब बोल चुकी तो राजकन्वा इन्दुमती ने लज्जा का कुछ संवरण किया और प्रसन्न स्वच्छ दृष्टि से कुमार अज का वरण कर लिया। दृष्टि भी स्वयंवरमाला सी थी।

सा यूनि तस्मन्त्रभिलाषबन्धं शशाक शालीनतया न वक्तुम् ।
रोमाञ्चलक्ष्येण स गात्रयष्टिं भित्त्वा निराक्रामदरालकेश्याः ॥ 81 ॥
अर्थ:
शालीनता के कारण वह कुमारी उस कुमार अज के प्रति अपनी चाह को शब्द से तो नहीं कह सकी, किन्तु वह उस कुटिलकेशी की गात्रयष्टि को भेदकर रोमांच के रूप में निकल ही पड़ी।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

तथागतायां परिहासपूर्व सख्यां सखी वेत्रभृदाबभाषे ।
आर्ये! व्रजामोऽन्यत इत्यथैनां वधूरसूयाकुटिलं ददर्श ॥ 82॥
अर्थ:
सखी ने उसे उस स्थिति में देखा तो परिहास में कहा ‘आयें! चलो, आगे बढ़ें’। वधू ने उसे असूयाकुटिल दृष्टि से देखा।

सा चूर्णगौरं रघुनन्दनस्य धात्रीकराभ्यां करभोपमोरूः ।
आसञ्जयामास यथाप्रदेशं कण्ठे गुण मूर्त्तमिवानुरागम् ॥ 83॥
अर्थ:
उधर करभोपम ऊरु वाली कुमारी ने रघुनन्दन अज के गले में चूर्ण से गौर माला घात्री के हाथों से यथास्थान डलवा दी। एक प्रकार से वह माला उसका मूर्त्त अनुराग थी।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~  नित्य कर्म पूजा प्रकाश हिंदी में

तया स्रजा मङ्गलपुष्पमय्या विशालवक्षःस्थललम्बयाऽजः ।
अमंस्त कण्ठार्पितबाहुपाशां विदर्भराजावरजां वरेण्यः ॥ 84॥
अर्थ:
विशाल वक्षःस्थल पर लटकती उस मङ्गल पुष्पमाला से उस कुमार ने समझा जैसे स्वयं विदर्भराज की बहिन ने अपना बाहुपाश कण्ठ में डाल दिया हो।

शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्त जलनिधिमनुरूपं जह्वकन्याऽवतीर्णा ।
इति समगुणयोगप्रीतयस्तत्र पौराः श्रवणकटु नृपाणामेकवाक्यं विवब्रुः ॥ 85॥
अर्थ:
सभी नगरवासी लोगो ने समान गुण के योग पर प्रसन्न होकर एक ही बात कहना आरम्भ किया ‘यह तो ‘मेघमुक्त’ शशी से आ निली है कौमुदी, अनुरूप जलनिधि में आ उतरी, है जहुकन्या (गङ्गा)। ये शब्द राजा लोगों के लिए श्रवणकटु थे।(Raghuvansh Mahakavya 6 Sarg)

प्रमुदितवरपक्षमेकतस्तत् क्षितिपतिमण्डलमन्यतो वितानम् ।
उषसि सर इव प्रफुल्लपद्म कुमुदवनप्रतिपन्ननिद्रमासीत् ॥ 86 ॥
अर्थ:
उपस्थित राजमण्डल में वरपक्ष प्रमुदित था और अन्य राजा उदास। इसलिए वह उषःकाल के उस सरोवर सा लग रहा था जिसमे पद्म खिल रहे हों और कुमुद पर छा रही हो नींद।

छठा सर्ग कथा

प्रातःकाल अज राजवेष धारणकर सभामे गया, इसका रूप देख सब राजा इन्दुमती के मिलने से निराश हुए अजभी राजों के बीच में सिंहासनपर बैठा, शंखध्वनि होनेके उपरान्त इन्दुमति सुखपाल में बैठकर आई, और जयमाला हाथ में लिये सुनन्दा दासी के संग राजों को क्रम से देखने लगी, सुनन्दा ने सभी राजाओ का वंशगुणकहना प्रारंभ किया. मगध देश के राजा परन्तप का बंखानकर कहा इसके संग विवाह कर पटने नगर की शोभा देख, इन्दुमती के मनमें वह राजा न् भाया, तब अंगदेश के राजा, उज्जैन के राजा, अनूपदेश के राजा, प्रतीप शूरसेन देश के राजा सुषेण कनिंद देश के राजा, हेमांगद नागपूर के देवस्वरूप आदिराजाओं के सामने लेगई, और उनका कुल गुण वर्णन किया, परन्तु इन्दुमती के मनमें कोई न भाया, अन्तमें जब अजके निकट गई तब उसका गुणवंश सुनकर मोहित हो उस के गलेमै जयमाला डालदी, और सभी राजा यह देख उद्वास होगये।

इति रघुवंशे महाकाव्ये कालिदासकृतौ इन्दुमतीस्वयंवरो नाम षष्ठः सर्गः ॥ 6 ॥
अर्थ:
इस प्रकार महाकवि कालिदास की कृति रघुवंश महाकाव्य में इन्दुमतीस्वयंवर नामक छठा सर्ग पूर्ण हुआ ॥ 6 ॥

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