Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 6 to 10
॥ श्रीहरिः ॥
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
श्री गर्ग संहिता वृन्दावनखण्ड | Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 6 to 10
श्री गर्ग संहिता में वृन्दावनखण्ड (Vrindavan Khand Chapter 6 to 10) के अध्याय छः में अघासुर का उद्धार और उसके पूर्व जन्म का परिचय दिया गया है। अध्याय सात में ब्रह्माजी के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं गोप-बालकों का हरण का वर्णन किया है। अध्याय आठ में ब्रह्माजी के द्वारा भगवान श्री कृष्ण के सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूप का दर्शन वर्णन है। नवाँ अध्याय में ब्रह्माजी के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करना और अध्याय दस में यशोदाजी की चिन्ता; नन्द द्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्री बलराम तथा श्री कृष्ण का गोचारण का वर्णन मिलता है।
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छठा अध्याय
अघासुर का उद्धार और उसके पूर्व जन्म का परिचय
श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! एक दिन ग्वाल-बालोंके साथ बछड़े चराते हुए श्रीहरि कालिन्दीके निकट किसी रमणीय स्थानपर बालोचित खेल खेलने लगे। उसी समय अघासुर नामक महान् दैत्य एक कोस लंबा शरीर धारण करके भीषण मुखको फैलाये वहाँ मार्गमें स्थित हो गया। दूरसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई पर्वत खड़ा हो । वृन्दावनमें उसे देखकर सब ग्वाल-बाल ताली बजाते हुए बछड़ोंके साथ उसके मुँहमें घुस गये। उन सबकी रक्षाके लिये बलरामसहित श्रीकृष्ण भी अघासुरके मुखमें प्रविष्ट हो गये। उस सर्परूपधारी असुरने जब बछड़ों और ग्वाल-बालोंको निगल लिया, तब देवताओंमें हाहाकार मच गया; किंतु दैत्योंके मनमें हर्ष ही हुआ। उस समय श्रीकृष्णने अघासुरके उदरमें अपने विराट् स्वरूपको बढ़ाना आरम्भ किया। इससे अवरुद्ध हुए अघासुर- के प्राण उसका मस्तक फोड़कर बाहर निकल गये। मिथिलेश्वर ! फिर बालकों और बछड़ोंके साथ श्रीकृष्ण अघासुरके मुखसे बाहर निकले। जो बछड़े और बालक मर गये थे, उन्हें माधवने अपनी कृपा- दृष्टिसे देखकर जीवित कर दिया। अघासुरकी जीवन- ज्योति श्यामघनमें विद्युत्की भाँति श्रीघनश्याममें विलीन हो गयी। राजन् ! उसी समय देवताओंने पुष्पवर्षा की। देवर्षि नारदके मुखसे यह वृत्तान्त सुनकर मिथिलेश्वर बहुलाश्वने कहा ॥ १-८ ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
राजा बोले- देवर्षे ! यह दैत्य पूर्वकालमें कौन था, जो इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णमें विलीन हुआ ? अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि वह दैत्य वैर बाँधनेके कारण शीघ्र ही श्रीहरिको प्राप्त हुआ ॥ ९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! शङ्खवासुरके एक पुत्र था, जो ‘अघ’ नामसे विख्यात था। महाबली अघ युवावस्थामें अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण साक्षात् दूसरे कामदेव-सा जान पड़ता था। एक दिन मलयाचलपर जाते हुए अष्टावक्र मुनिको देखकर अघासुर जोर- जोरसे हँसने लगा और बोला- ‘यह कैसा कुरूप है !’ उस महादुष्टको शाप देते हुए मुनिने कहा- ‘दुर्मते ! तू सर्प हो जा; क्योंकि भूमण्डलपर सर्पोंकी ही जाति कुरूप एवं कुटिल गतिसे चलनेवाली होती है।’ ज्यों- ही उसने यह सुना, उस दैत्यका सारा अभिमान गल गया और वह दीनभावसे मुनिके चरणोंमें गिर पड़ा। उसे इस अवस्थामें देखकर मुनि प्रसन्न हो गये और पुनः उसे वर देते हुए बोले – ॥ १०-१३ ॥
अष्टावक्रने कहा- करोड़ों कंदर्पोसे भी अधिक लावण्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण जब तुम्हारे उदरमें प्रवेश करेंगे, तब इस सर्परूपसे तुम्हें छुटकारा मिल जायगा ।। १४ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘अघासुरका मोक्ष’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
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सातवाँ अध्याय
ब्रह्माजी के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं गोप-बालकों का हरण
श्री नारद जी कहते हैं- राजेन्द्र ! अब भगवान श्री कृष्ण की अन्य लीला सुनिये। यह लीला उनके बाल्यकालकी है, तथापि उनके पौगण्डावस्थाकी प्राप्तिके बाद प्रकाशित हुई। श्रीकृष्ण गोवत्स एवं गोप-बालकोंकी मृत्युके समान (भयंकर) अघासुरके मुखसे रक्षा करनेके उपरान्त उनका आनन्द बढ़ानेकी इच्छासे यमुनातटपर जाकर बोले- ‘प्रिय सखाओ ! अहा, यह कोमल वालुकामय तट बहुत ही सुन्दर है ! शरद् ऋतुमें खिले हुए कमलोंके परागसे पूर्ण है। शीतल, मन्द एवं सुगन्धित – त्रिविध वायुसे सौरभित है। यह तटभूमि भौरोंकी गुञ्जारसे युक्त एवं कुञ्ज और वृक्षलताओंसे सुशोभित है। गोप-बालको! दिनका एक पहर बीत गया है। भोजनका समय भी हो गया है। अतएव इस स्थानपर बैठकर भोजन कर लो। कोमल वालुकावाली यह भूमि भोजन करनेके उपयुक्त – दीख रही है। बछड़े भी यहाँ जल पीकर हरी-हरी घास चरते रहेंगे।’ गोप-बालकोंने श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर कहा- ‘ऐसा ही हो’ और वे सब-के-सब भोजन करनेके लिये यमुनातट पर बैठ गये। इसके उपरान्त जिनके पास भोजन-सामग्री नहीं थी, उन बालकों ने श्री कृष्ण के कान में दीन-वाणीसे कहा- ‘हमलोगोंके पास भोजनके लिये कुछ नहीं है, हम लोग क्या करें ? नन्दगाँव यहाँसे बहुत दूर है, अतः हमलोग बछड़ोंको लेकर चले जाते हैं।’ यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- ‘प्रिय सखाओ ! शोक मत करो। मैं सबको यत्नपूर्वक (आग्रहके साथ) भोजन कराऊँगा। इसलिये तुम सब मेरी बातपर भरोसा करके निश्चिन्त हो जाओ।’ श्रीकृष्णकी यह उक्ति सुनकर वे लोग उनके निकट ही बैठ गये। अन्य बालक (अपने-अपने) छीकोंको खोलकर श्रीकृष्णके साथ भोजन करने लगे ॥ १-११ ॥
श्री कृष्ण ने गोप- बालकों के साथ, जिनकी उनके सामने भीड़ लगी हुई थी, एक राजसभाका आयोजन किया। समस्त गोप-बालक उनको घेरकर बैठ गये। ये लोग अनेक रंगोंके वस्त्र पहने हुए थे और श्रीकृष्ण पीला वस्त्र धारण करके उनके बीचमें बैठ गये। विदेह ! उस समय गोप-बालकोंसे घिरे हुए श्रीकृष्णकी शोभा देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके समान अथवा पँखुड़ियोंसे घिरी हुई स्वर्णिम कमलकी कर्णिका (केसरयुक्त भीतरी भाग) के समान हो रही थी। कोई बालक कुसुमों, कोई अङ्कुरों, कोई पल्लवों, कोई पत्तों, कोई फलों, कोई अपने हाथों, कोई पत्थरों और कोई छीकोंको ही पात्र बनाकर भोजन करने लगे। उनमेंसे एक बालकने शीघ्रतासे कौर उठाकर श्रीकृष्ण- के मुखमें दे दिया। श्रीकृष्णने भी उस ग्रासका भोग लगाकर सबकी ओर देखते हुए कहा- ‘भैया ! अन्य बालकोंको अपनी-अपनी स्वादिष्ट सामग्री चखाओ। मैं स्वादके बारेमें नहीं जानता।’ बालकोंने ‘ऐसा ही हो’ कहकर अन्यान्य बालकोंको भोजनके ग्रास ले जाकर दिये। वे भी उन ग्रासोंको खाकर एक दूसरेकी हँसी करते हुए उसी प्रकार बोल उठे। सुबलने पुनः हरिके मुखमें ग्रास दिया, परंतु श्रीकृष्ण उस कौरमेंसे थोड़ा-सा खाकर हँसने लगे। इस प्रकार जिस-जिसने कौर खाया, वे सभी जोरसे हँसने लगे। बालक बोले- ‘नन्दनन्दन ! सुनो ! जिसके नाना मूढ़ (मूर्ख) हैं, उसको भोजनका ज्ञान नहीं रहता। इसलिये तुमको स्वाद प्राप्त नहीं हुआ’ ।। १२-१९ ॥
इसके उपरान्त श्रीदामाने माधवको और अन्य बालकोंको भोजनके ग्रास दिये। व्रज-बालकोंने उसको उत्तम बताकर उसकी बहुत प्रशंसा की। इसके बाद वरूथप नामके एक बालकने पुनः श्रीकृष्णको एवं अन्य बालकोंको आग्रहपूर्वक कौर दिये। श्रीकृष्ण आदि वे सभी लोग थोड़ा-थोड़ा खाकर हँसने लगे। बालकोंने कहा- ‘यह भी सुबलके ग्रास-जैसा ही है। हम सभी उसे खाकर उद्विग्न हुए हैं।’ इस प्रकार सभीने अपने-अपने ग्रास चखाये और सभी परस्पर हँसने-हँसाने और खेलने लगे। कटिवस्त्रमें वेणु, बगलमें लकुटी एवं सींगा, बायें हाथमें भोजनका कौर, अंगुलियोंके बीचमें फल, माथेपर मुकुट, कंधेपर पीला दुपट्टा, गलेमें वनमाला, कमरमें करधनी, पैरोंमें नूपुर और हृदयपर श्रीवत्स तथा कौस्तुभमणि धारण किये हुए श्रीकृष्ण गोप-बालकोंके बीचमें बैठकर अपनी विनोद भरी बातोंसे बालकोंको हँसाने लगे। इस प्रकार यज्ञभोक्ता श्रीहरि भोजन करने लगे, जिसको देवता एवं मनुष्य आश्चर्यचकित होकर देखते रहे। इस प्रकार श्रीकृष्णके द्वारा रक्षित बालकोंका जिस समय भोजन हो रहा था, उसी समय बछड़े घासकी लालचमें पड़कर दूरके एक गहन वनमें घुस गये। गोप-बालक भयसे व्याकुल हो गये। यह देखकर श्री कृष्ण बोले- ‘तुमलोग मत जाओ। मैं बछड़ोंको यहाँ ले आऊँगा।’ यों कहकर श्रीकृष्ण उठे और भोजनका कौर हाथमें लिये ही गुफाओं एवं कुञ्जोंमें तथा गहन वनमें बछड़ोंको ढूँढ़ने लगे ॥ २०-३० ॥
जिस समय व्रजवासी बालकोंके साथ श्रीकृष्ण यमुनातटपर रुचिपूर्वक भोजन कर रहे थे, उसी समय पद्मयोनि ब्रह्माजी अघासुरकी मुक्ति देखकर उसी स्थानपर पहुँच गये। इस दृश्यको देखकर ब्रह्माजी मन-ही-मन कहने लगे- ‘ये तो देवाधिदेव श्रीहरि नहीं हैं, अपितु कोई गोपकुमार हैं। यदि ये श्रीहरि होते तो गोप-बालकोंके साथ इतने अपवित्र अन्नका भोजन कैसे करते ?’ राजन् ! ब्रह्माजी परमात्माकी मायासे मोहित होकर इस प्रकार बोल गये। उन्होंने उनकी (भगवान्की) मनोज्ञ महिमाको जाननेका निश्चय किया। ब्रह्माजी स्वयं आकाशमें अवस्थित थे। इसके उपरान्त अघासुर-उद्धारकी लीलाके दर्शनसे चकित होकर समस्त गायों-बछड़ों तथा गोप-बालकोंका हरण करके वे अन्तर्धान हो गये ।। ३१- ३४ ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘ब्रह्माजीके द्वारा गौओं, गोवत्सों और गोप-बालकोंका हरण’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
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आठवाँ अध्याय
ब्रह्माजी के द्वारा श्री कृष्ण के सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूप का दर्शन
श्रीनारदजी कहते हैं- श्रीकृष्ण गोवत्सोंको न पाकर यमुना किनारे आये, परंतु वहाँ गोप-बालक भी नहीं दिखायी दिये। बछड़ों और वत्सपालों – दोनोंको ढूँढ़ते समय उनके मनमें आया कि ‘यह तो ब्रह्माजीका कार्य है। तदनन्तर अखिलविश्वविधायक श्रीकृष्णने गायों और गोपियोंको आनन्द देनेके लिये लीलासे ही अपने-आपको दो भागोंमें विभक्त कर लिया। वे स्वयं एक भागमें रहे तथा दूसरे भागसे समस्त बछड़े और गोप-बालकोंकी सृष्टि की। उन लोगोंके जैसे शरीर, हाथ, पैर आदि थे; जैसी लाठी, सींगा आदि थे; जैसे स्वभाव और गुण थे, जैसे आभूषण और वस्त्रादि थे; भगवान् श्रीहरिने अपने श्रीविग्रहसे ठीक वैसी ही सृष्टि उत्पन्न करके यह प्रत्यक्ष दिखला दिया कि यह अखिल विश्व विष्णुमय है। श्रीकृष्णने खेलमें ही आत्मस्वरूप गोप-बालकोंक द्वारा आत्मस्वरूप गो-वत्सोंको चराया और सूर्यास्त होनेपर उनके साथ नन्दालयमें पधारे। वे बछड़ोंको उनके अपने-अपने गोष्ठोंमें अलग-अलग ले गये और स्वयं उन-उन गोप-बालकोंके वेषमें अन्यान्य दिनोंकी भाँति उनके घरोंमें प्रवेश किया। गोपियाँ वंशीध्वनि सुनकर आदरके साथ शीघ्रतासे उठीं और अपने बालकोंको प्यारसे दूध पिलाने लगीं। गायें भी अपने-अपने बछड़ोंको निकट आया देखकर रैभाती हुई उनको चाटने और दूध पिलाने लगीं। अहा ! गोपियाँ और गायें श्रीहरिकी माता बन गयीं। गोप-बालक एवं गोवत्स स्नेहाधिक्यके कारण पहलेकी अपेक्षा चौगुने अधिक बढ़ने लगे। गोपियाँ अपने बालकोंकी उबटन-स्नानादिके द्वारा स्नेहमयी सेवा करके तब श्रीकृष्णके दर्शनके लिये आयीं ॥ १-१० ॥
इसके बाद अनेक बालकोंका विवाह हो गया। अब श्रीकृष्णस्वरूप अपने पति उन बालकोंके साथ करोड़ों गोपवधुएँ प्रीति करने लगीं। इस प्रकार वत्स-पालनके बहाने अपनी आत्माकी अपनी ही आत्माद्वारा रक्षा करते हुए श्रीहरिको एक वर्ष बीत गया। एक दिन बलरामजी गोचारण करते हुए वनमें पहुँचे। उस समयतक ब्रह्माजीद्वारा वत्सों एवं वत्सपालोंका हरण हुए एक वर्ष पूर्ण होनेमें केवल पाँच-छः रात्रियाँ शेष रही थीं। उस वनमें स्थित पहाड़की चोटीपर गायें चर रही थीं। दूरसे बछड़ोंको घास चरते देखकर वे उनके निकट आ गयीं और उनको चाटने तथा अपना अमृत-तुल्य दूध पिलाने लगीं। राजन्। गोपनि देखा कि गायें बछड़ोंको दूध पिलाकर स्नेहके कारण गोवर्धनकी तलहटीमें ही रुक गयी है, तब वे अत्यन्त क्रोधमें भरकर पहाड़से नीचे उतरे और अपने बालकोंको दण्ड देनेके लिये शीघ्रतासे वहाँ पहुँचे। परंतु निकट पहुँचते ही (नेहके वशीभूत होकर) गोपोंने अपने बालकोंको गोदमें उठा लिया। युवक अथवा वृद्ध- सभीके नेत्रोंमें स्नेहके आँसू आ गये और वे अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ मिलकर वहाँ बैठ गये ॥ ११- १८ ॥
संकर्षण बलरामने इस प्रकार जब गोपोंको प्रेम- परायण देखा, तब उनके मनमें अनेक प्रकारके संदेह उठने लगे। उन्होंने मन-ही-मन कहा- ‘अहा ! प्रायः एक वर्षसे व्रजमें क्या हो गया है, वह मेरी समझमें नहीं आ रहा है। दिन-प्रतिदिन सबके हृदयोंका नेह अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। क्या यह देवताओं, गन्धवाँ या राक्षसोंकी माया है ? अब मैं समझता हूँ कि यह मुझे मोहित करनेवाली कृष्णकी मायासे भिन्न और कुछ नहीं है। इस प्रकार विचार करके बलरामजी- ने अपने नेत्र बंद कर लिये और दिव्यचक्षुसे भूत, भविष्य तथा वर्तमानको देखा। बलरामजीने समस्त गोवत्स एवं पहाड़की तलहटीमें खेलनेवाले गोप- बालकोंको वंशी-वेत्रविभूषित, मयूरपिच्छधारी, श्यामवर्ण, मणिसमूहों एवं गुञ्जाफलोंकी मालासे शोभित, कमल एवं कुमुदिनीकी मालाएँ, दिव्य पगड़ी एवं मुकुट धारण किये हुए, कुण्डलों एवं अलकावली- से सुशोभित, शरत्कालीन कमलसदृश नेत्रोंसे निहारकर आनन्द देनेवाले, करोड़ों कामदेवोंकी शोभासे सम्पन्न, नासिकास्थित मुक्ताभरणसे अलंकृत, शिखा-भूषणसे युक्त, दोनों हाथोंमें आभूषण धारण किये हुए, पीला वस्त्र धारण किये हुए, मेखला, कड़े और नूपुरसे शोभित, करोड़ों बाल-रवियोंकी प्रभासे युक्त और मनोहर देखा। बलरामजीने गोवर्धनसे उत्तर- की ओर एवं यमुनाजीसे दक्षिणकी ओर स्थित वृन्दावनमें सब कुछ कृष्णमय देखा। वे इस कार्यको ब्रह्माजी और श्रीकृष्णका किया हुआ जानकर पुनः गोवत्सों एवं वत्सपालों का दर्शन करते हुए श्रीकृष्णसे बोले- ‘ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, इन्द्र और शंकर भक्ति- युक्त होकर सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। तुम आत्माराम, पूर्णकाम, परमेश्वर हो। तुम शून्यमें करोड़ों ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि करनेमें समर्थ हो’ ॥ १९-३० ।।
श्रीनारदजीने कहा- जिस समय बलरामजी यों कह रहे थे, उसी समय ब्रह्माजी वहाँ आये और उन्होंने गोवत्सों एवं गोप-बालकोंके साथ बलरामजी एवं श्रीकृष्णके दर्शन किये। ‘ओहो! मैं जिस स्थानपर गोवत्स तथा गोप-बालकोंको रख आया था, वहाँसे श्रीकृष्ण उनको ले आये हैं।’ यो कहते हुए ब्रह्माजी उस स्थानपर गये और वहाँपर उन सबको पहलेकी तरह ही पाया। ब्रह्माजी उनको निद्रित देखकर पुनः व्रजमें आये और गोप- बालकोंके साथ श्रीहरिके दर्शन करके विस्मित हो गये। वे मन-ही-मन कहने लगे ओहो, कैसी विचित्रता है। ये लोग कहाँसे यहाँ आये और पहलेकी ही भांति श्रीकृष्णके साथ खेल रहे हैं ? यह सब खेल करनेमें मुझे एक त्रुटि (क्षण) जितना काल लगा, परंतु इतनेमें इस भूलोकमें एक वर्ष पूरा हो गया। तथापि सभी प्रसन्न है, कहीं किसीको इस घटनाका पता भी नहीं चला।’ इस प्रकारसे ब्रह्माजी मोहातीत विश्वमोहनको मोहित करने गये। परंतु अपनी मायाके अन्धकारमें वे स्वयं अपने शरीरको भी नहीं देख सके। गोप बालकोंक हरणसे जगत्पतिकी तो कुछ हानि हुई नहीं, अपितु श्रीकृष्णरूप सूर्यके सम्मुख ब्रह्माजी ही जुगनू से दीखने लगे। ब्रह्माके इस प्रकार मोहित एवं जडीभूत हो जानेपर श्रीकृष्णने कृपापूर्वक अपनी मायाको हटाकर उनको अपने स्वरूपका दर्शन कराया। भक्तिके द्वारा ब्रह्माजीको ज्ञाननेत्र प्राप्त हुए। उन्होंने एक बार गोवत्स एवं गोप-बालक- सबको श्रीकृष्णरूप देखा। राजन् । ब्रह्माजीने शरीरके भीतर और बाहर अपने सहित सम्पूर्ण जगत्को विष्णुमय देखा ।। ३१-४० ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
इस प्रकार दर्शन करके ब्रह्माजी तो जडताको प्राप्त होकर निश्चेष्ट हो गये। ब्रह्माजीको वृन्दादेवी द्वारा अधिष्ठित वृन्दावनमें जहाँ-तहाँ दीखनेवाली भगवान्- की महिमा देखनेमें असमर्थ जानकर श्रीहरिने मायाका पर्दा हटा लिया। तब ब्रह्माजी नेत्र पाकर, निद्रासे जगे हुएकी भाँति उठकर, अत्यन्त कष्टसे नेत्र खोलकर अपनेसहित वृन्दावनको देखनेमें समर्थ हुए। वहाँपर वे उसी समय एकाग्र होकर दसों दिशाओंमें देखने लगे और वसन्तकालीन सुन्दर लताओंसे युक्त रमणीय श्रीवृन्दावनका उन्होंने दर्शन किया। वहाँ बाघके बच्चोंक साथ मृग-शावक खेल रहे थे। बाज और कबूतरमें, नेवला और साँपमें वहाँ जन्मजात वैरभाव नहीं था। ब्रह्माजीने देखा कि एकमात्र श्रीकृष्ण ही हाथमें भोजनका कौर लिये हुए प्यारे गोवत्सोंको वृन्दावनमें ढूँढ़ रहे हैं। गोलोकपति साक्षात् श्रीहरिको गोपाल-वेषमें अपनेको छिपाये हुए देखकर तथा ये साक्षात् श्रीहरि हैं- यह पहचानकर ब्रह्माजी अपनी करतूतको स्मरण करके भयभीत हो गये। राजन् ! उन चारों ओर प्रज्वलित दीखनेवाले श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्माजी अपने वाहनसे उतरे और लज्जाके कारण उन्होंने सिर नीचा कर लिया। वे भगवान्को प्रणाम करते हुए और ‘प्रसन्न हों’- यह कहते हुए धीरे-धीरे उनके निकट पहुँचे। यों भगवान्- को अपनी आँखोंसे झरते हुए हर्षक आँसुओंका अर्ध्य देकर दण्डकी भाँति वे भूमिपर गिर पड़े। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको उठाकर आश्वस्त किया और उनका इस प्रकार स्पर्श किया, जैसे कोई प्यारा अपने प्यारेका स्पर्श करे। तत्पश्चात् वे सुधासिक्त दृष्टिसे उसी सुन्दर भूमिपर दूर खड़े देवताओंकी ओर देखने लगे। तब वे सभी उच्चस्वरसे जय-जयकार करते हुए उनका स्तवन करने लगे। साथ-साथ प्रणाम भी करने लगे। श्रीकृष्णकी दयादृष्टि पाकर सभी आनन्दित हुए और उनके प्रति आदरसे भर गये। ब्रह्माजीने भगवान्को उस स्थानपर देखकर भक्तियुक्त मनसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और रोमाञ्चित होकर दण्डकी भाँति वे भूमिपर गिर पड़े। पुनः वे गद्गद वाणीसे भगवान्का स्तवन करने लगे ॥ ४१-५२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥
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नवाँ अध्याय
ब्रह्माजी के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति
ब्रह्मोवाच
कृष्णाय मेघवपुषे चपलाम्बराय पीयूषमिष्टवचनाय परात्पराय ।
वंशीधराय शिखिचन्द्रकयान्विताय देवाय भ्रातृसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ।।
ब्रह्माजी बोले- “मेघकी-सी कान्तिसे युक्त विद्युत्-वर्णका वस्त्र धारण करनेवाले, अमृत-तुल्य मीठी वाणी बोलनेवाले, परात्पर, वंशीधारी, मयूर- पिच्छको धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको उनके भ्राता बलरामसहित नमस्कार है। श्रीकृष्ण (आप) साक्षात् स्वयं पुरुषोत्तम, पूर्ण परमेश्वर, प्रकृतिसे अतीत श्रीहरि हैं। हम देवता जिनके अंश और कलावतार है, जिनकी शक्तिसे हमलोग क्रमशः विश्वकी सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं, उन्हीं आपने साक्षात् कृष्णचन्द्रके रूपमें अवतीर्ण होकर घराधामपर नन्दका पुत्र होना स्वीकार किया है। आप प्रधान-प्रधान गोप-बालकोंके साथ गोपवेषसे वृन्दावनमें गोचारण करते हुए विराज रहे हैं। करोड़ों कामदेवके समान रमणीय, तेजोमय, कौस्तुभधारी, श्यामवर्ण, पीतवस्त्रधारी, वंशीधर, व्रजेश, राधिकापति, निकुञ्ज-विहारी परमसुन्दर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। जो मेघसे निर्लिप्त आकाशके समान प्राणियोंकी देहमें क्षेत्रज्ञ रूपसे स्थित हैं, जो अधियज्ञ एवं चैत्यस्वरूप हैं, जो मायारहित हैं और जो निर्मल भक्ति तथा प्रबल वैराग्य आदि भावोंसे प्राप्त होते हैं, उन आदिदेव हरिकी मैं वन्दना करता हूँ। सर्वज्ञ ! जिस समय मनमें प्रबल रजोगुणका उदय होता है, उसी समय मन संकल्प-विकल्प करने लगता है। संकल्प-विकल्पके वशीभूत मनमें ही अभिमानकी उत्पत्ति होती है और वही अभिमान धीरे-धीरे बुद्धिको विकृत कर देता है। क्षणस्थायी बिजलीके समान, बदलते हुए ऋतुगुणोंके समान, जलपर खींची गयी रेखाके समान, पिशाचके द्वारा उत्पन्न किये हुए अंगारोंके समान और कपटी यात्रीकी प्रीतिके समान जगत्के सुख मिथ्या हैं। विषय-सुख दुःखोंसे घिरे हुए हैं एवं अलातचक्रवत् (जलते हुए अंगारको वेगसे चक्राकार घुमानेपर जो क्षणस्थायी वृत्त बनता है, उसके समान) हैं। जैसे वृक्ष न चलते हुए भी, जलके चलनेके कारण चलते हुए-से दीखते हैं, नेत्रोंको वेगसे घुमानेपर अचल पृथ्वी भी चलती हुई-सी दीखती है, कृष्ण! उसी प्रकार प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके वशमें होकर भ्रान्त जीव उस प्रकृतिजन्य सुखको सत्य मान लेता है। सुख एवं दुःख मनसे उत्पन्न होते हैं, निद्रावस्थामें वे लुप्त हो जाते हैं और जागनेपर पुनः उनका अनुभव होने लगता है। जिनको इस प्रकारका विवेक प्राप्त है, उनके लिये यह जगत्नि रन्तर स्वप्रावस्थाके भ्रमके समान ही है। ज्ञानी पुरुष ममता एवं अभिमानका त्याग करके सदा वैराग्यसे प्रीति करनेवाले तथा शान्त होते हैं। जैसे एक दियेसे सैकड़ों दिये उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक परमात्मासे सब कुछ उत्पन्न हुआ है – ऐसी तात्त्विक दृष्टि उनकी रहती है ।। १-१० ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
“भक्त निघूम अग्निशिखाकी भाँति गुणमुक्त एवं आत्मनिष्ठ होकर हृदयमें ब्रह्माके भी स्वामी भगवान वासुदेवका भजन करते हैं। जिस प्रकार हम एक ही चन्द्रबिम्बको अनेकों बड़ॉक जलमें देखते हैं, उसी प्रकार आत्माके एकत्वका दर्शन करके श्रेष्ठ परमहंस भी कृतार्थ होते हैं। निरन्तर स्तवन करते रहनेपर भी वेद जिनके माहात्यके षोडशांशका भी कभी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके, तब त्रिलोकीमें उन श्रीहरिके गुणोंका वर्णन भला, दूसरा कौन कर सकता है? मैं चार मुखोंसे, देवाधिदेव महादेवजी पाँच मुखोंसे तथा हजार मुखवाले शेषजी अपने सहस्त्र मुखोंसे जिनकी स्तुति- सेवा करते हैं; वैकुण्ठनिवासी विष्णु, क्षीरोदशायी साक्षात् हरि और धर्मसुत नारायण ऋषि उन गोलोकपति आपकी सेवा किया करते हैं। अहा! मुरारे ! आपकी महिमा धन्य है। भूतलपर उस महिमाको न मुनिगण जानते हैं न मनुष्य हो। सुर-असुर तथा चौदहों मनु भी उसे जाननेमें असमर्थ हैं। ये सब स्वप्नमें भी आपके चरणकमलोंके दर्शन पानेमें असमर्थ हैं। गुणोंक सागर, मुक्तिदाता, परात्पर, रमापति, गुणेश, ब्रजेश्वर श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ। ताम्बूल-रागरञ्जित सुन्दर मुखसे सुशोभित, मधुरभाषी, पके हुए बिम्बफलके समान लाल-लाल अधरोंवाले, स्मिताहास्ययुक्त, कुन्दकलीके समान शुभ दन्तपंक्तिसे जगमगाते हुए, नील अलकोंसे आवृत्त कपोलोंवाले, मनोहर-कान्ति तथा झूलते हुए स्वर्ण-कुण्डलोंसे मण्डित श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ। आपका परम सुन्दर रूप मन्मथके मनको भी हरनेवाला है। मेरे नेत्रोंमें सर्वदा मकरकुण्डल धारी श्याम कलेवर श्री कृष्ण के उस रूपका प्रकाश होता रहे। जिनकी लीला वैकुण्ठ-लीलाकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ है और जिनके परम श्रेष्ठ मनोहर रूपको देवगण भी नमस्कार करते हैं, उन गोपलीलाकारी गोलोकनाथको मैं मस्तक नवाकर प्रणाम करता हूँ। वसन्तकालीन सुन्दर कण्ठ- वाले कोकिलादि पक्षियोंसे युक्त, सुगन्धित, नवीन पल्लवयुक्त वृक्षोंसे अलंकृत, सुधाके समान शीतल, धीर (मन्द) पवनकी क्रीड़ासे सुशोभित वृन्दावनमें विचरण करनेवाले श्रीकृष्णकी जय हो । वे सदा भक्तोंकी रक्षा करें ॥ ११-२० ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
“आपके विशाल नेत्र तथा उनकी तिरछी चितवन कमलपुष्पोंका मान और झूलते हुए मोतियोंका अभिमान दूर करनेवाली है, भूतलके समस्त रसिकों- को रसका दान करती है तथा कामदेवके बाणोंक समान पैनी एवं प्रीतिदानमें निपुण है। जिनकी नखमणियाँ शरत्कालीन चन्द्रमाके समान सुखकर, सुरक्त, हृदयग्राहिणी, गाढ़ अन्धकारका नाश करनेवाली और जगत्के समस्त प्राणियोंके पापोंका ध्वंस करनेवाली हैं तथा स्वर्गमें देवमण्डली जिनका श्रीविष्णु एवं हरिकी नखावलीके रूपमें स्तवन करती है, मैं उनकी आराधना करता हूँ। आपके पादपद्योंकी सर्वदा बजनेवाली, श्रीहरिके सैकड़ों किरणोंसे युक्त (सुदर्शन) चक्रके समान आकारवाली पैजनियाँ ऐसी हैं, जिनसे गोल घेरेकी भाँति किरणें इस प्रकार निकलती है, जैसे सूर्यके प्रकाशयुक्त रथचक्रकी परिधि हो, अथवा जो आपके पादपद्मोंकी परिधिके समान सुशोभित है। आपकी कमरमें छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त दिव्य पीताम्बर जगमगा रहा है। मैं अक्लिष्टकर्मा भगवान श्रीकृष्ण (आप) के उस मनोहर रूपकी आराधना करता हूँ। जिनके कान्तिमान् कसौटी- सदृश एवं भृगुपद अङ्कित विशाल वक्षःस्थलपर लक्ष्मी विलास करती हैं, जिनके गलेमें स्वर्णमणि एवं मोतियोंकी लड़ियोंसे युक्त तथा तारोंके समान झिलमिल प्रकाश करनेवाले तथा भ्रमरोंकी ध्वनिसे युक्त हीरोंके हार हैं, जो सिन्दूरवर्णकी सुन्दर अँगुलियोंसे वंशी बजा रहे हैं, जिनकी अँगुलियोंमें सोनेकी अंगूठियाँ सुशोभित हैं, जिनके दोनों हाथ द्विजोंको दान देनेवाले, चन्द्रमाके समान नखोंसे युक्त एवं कामदेवके वनके कदम्बवृक्षोंके पुष्पोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं, जिनकी मन्दगति राजहंसकी भाँति सुन्दर है, जिनके कंधे गलेतक ऊँचे उठे हुए हैं, उन श्रीहरि- की मेघमालाका मान हरण करनेवाली मनोहर काकुलका मैं स्मरण करता हूँ। जो स्वच्छ दर्पणकी भाँति निर्मल, सुखद, नवयौवनकी कान्तिसे युक्त, मनुष्योंके रक्षक तथा मणि-कुण्डलों एवं सुन्दर घुँघराले बालोंसे सुशोभित हैं, श्रीहरिके सूर्य तथा चन्द्रमा की भाँति प्रभासे युक्त उन दोनों कपोलोंका मैं स्मरण करता हूँ। जो सुवर्ण तथा मुक्ता एवं वैदूर्यमणिसे जटित लाल वस्त्रका बना हुआ है, जो कामदेवके मुख- पर क्रीड़ा करने वाले सम्पूर्ण सौन्दर्यसे विलसित है जो अरुण-कान्ति तथा चन्द्र एवं करोड़ों सूर्योंके समान प्रभा- सम्पन्न है और मयूरपिच्छसे अलंकृत है, श्रीकृष्णके उस मुकुटको मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके द्वारदेशपर स्वामिकार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, चन्द्र एवं सूर्यकी भी गति नहीं है; जिनकी आज्ञाके बिना कोई निकुञ्जमें प्रवेश नहीं कर सकता, उन जगदीश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं आराधना करता हूँ।” ॥ २१-३० ॥
ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णका स्तवन करके पुनः हाथ जोड़कर कहने लगे- ‘जगत्के स्वामी । मैं आपके नाभि-कमलसे उत्पन्न हूँ; अतएव जिस प्रकार माता अपने पुत्रके अपराधोंको क्षमा कर देती है, उसी प्रकार आप भी मेरे अपराधोंको क्षमा कर दें। व्रजपते ! कहाँ तो मैं एक लोकका अधिपति और कहाँ आप करोड़ों ब्रह्माण्डोंके नायक। अतएव ब्रजेश, मधुसूदन ! देव ! आप मेरी रक्षा करें। जिनकी मायासे देवता, दैत्य एवं मनुष्य – सभी मोहित है, मैं मूर्ख उनको अपनी मायासे मोहित करने चला था ! गोविन्द आप नारायण हैं, मैं नारायण नहीं हूँ। हरि ! आप कल्पके आदिमें ब्रह्माण्डकी रचना करके नारायणरूपसे शेषशायी हो गये। आपके जिस ब्रह्मरूप तेजमें योगी प्राण त्याग करके जाते हैं, बालघातिनी पूतना भी अपने कुलसहित आपके उसी तेजमें समा गयी। माधव ! मेरे ही अपराधसे आपने गोवत्स एवं गोप-बालकोंका रूप धारण करके वनोंमें विचरण किया। अतएव भो। आप मुझको क्षमा करें। गोविन्द ! पिता जैसे पुत्रका अपराध नहीं देखता, वैसे ही आप भी मेरे अपराधकी उपेक्षा करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों। जो लोग आपके भक्त न होकर ज्ञानमें रति करते हैं, उनको क्लेश ही हाथ लगता है, जैसे भूसेके लिये परिश्रमपूर्वक खेत जोतनेवालोंको भूसामात्र प्राप्त होता है। आपके भक्तिभावमें ही नितरां रत रहनेवाले अनेकों योगी, मुनि एवं व्रजवासी आपको प्राप्त हो चुके हैं। दर्शन और श्रवण-दो प्रकारसे उनकी आपमें रति होती है, किंतु अहो ! श्रीहरिकी मायाके कारण उनके प्रति मेरी रति नहीं हुई’ ॥ ३१-४१ ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
ब्रह्माजीने यों कहकर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए उनके (श्रीकृष्णके) पादपद्योंमें प्रणाम किया एवं सारे अपराधोंको क्षमा करानेके लिये भक्तिभावसे श्रीकृष्ण- से वे फिर निवेदन करने लगे “मैं गोपकुलमें जन्म लेकर आपके पादपद्योंकी आराधना करता हुआ सुगति प्राप्त कर सकूँ, इसका व्यतिरेक न हो। भगवान् शंकर आदि हम (इन्द्रियोंके अधिष्ठाता) देवगणने भारतवासी इन गोपोंकी देहमें स्थित होकर एक बार भी श्रीकृष्णका दर्शन कर लिया, अतः हम धन्य हो गये। श्रीकृष्ण ! आपके माता-पिता एवं गोप- गोपियोंका तो कितना अनिर्वचनीय सौभाग्य है, जो व्रजमें आपके पूर्णरूपका दर्शन कर रहे हैं। सम्पूर्ण विश्वका उपकार करनेवाले, मुक्ताहार धारण करनेवाले, विश्वके रचयिता, सर्वाधार, लीलाके धाम, रवितनया यमुनामें विहार करनेवाले, क्रीडापरायण, श्रीकृष्णचन्द्रका अवतार ग्रहण करनेवाले प्रभु मेरी रक्षा करें। वृष्णिकुलरूप सरोवरके कमलस्वरूप नन्द- नन्दन, राधापति, देव-देव, मदनमोहन, व्रजपति, गोकुलपति, गोविन्द मुझ मायासे मोहितकी रक्षा करें। जो व्यक्ति श्रीकृष्णकी प्रदक्षिणा करता है, उसको जगत्के सम्पूर्ण तीर्थोंकी यात्राका फल प्राप्त होता है। वह आपके सुखदायक परात्पर ‘गोलोक’ नामक लोकको जाता है।” ॥ ४२-४८ ।।
नारदजी कहने लगे – लोकपति लोक-पितामह ब्रह्माने इस प्रकार सुन्दर वृन्दावनके अधिपति गोविन्दका स्तवन करके प्रणाम करते हुए उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और कुछ देरके लिये अदृश्य होकर गोवत्स तथा गोप-बालकोंको वरदान देकर लौट जानेके लिये अनुमतिकी प्रार्थना की ।। ४९-५० ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
तदनन्तर श्रीहरिने नेत्रोंके संकेतसे उनको जानेका आदेश दिया। लोकपितामह ब्रह्मा भी पुनः प्रणाम करके अपने लोकको चले गये। राजन् ! इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण वनसे शीघ्रतापूर्वक गोवत्स एवं गोप- बालकोंको ले आये और यमुनातटपर जिस स्थानपर गोपमण्डली विराजित थी, उन लोगोंको लेकर उसी स्थानपर पहुँचे । गोवत्सोंके साथ लौटे हुए श्रीकृष्णको देखकर उनकी मायासे विमोहित गोपोंने उतने समयको आधे क्षण-जैसा समझा। वे लोग गोवत्सोंके साथ आये हुए श्रीकृष्णसे कहने लगे- ‘आप शीघ्रतासे आकर भोजन करें। प्रभो! आपके चले जानेके कारण किसीने भी भोजन नहीं किया।’ इसके उपरान्त श्रीकृष्णने हँसकर बालकोंके साथ भोजन किया और बालकोंको अजगरका चमड़ा दिखाया। तदनन्तर बलरामजीके साथ गोपोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण वत्सवृन्दको आगे करके धीरे-धीरे व्रजको लौट आये। सफेद, चितकबरे, लाल, पीले, धूम्र एवं हरे आदि अनेक रंग और स्वभाववाले गोवत्सोंको आगे करके धरि-धीरे सुखद वनसे गोष्ठमें लौटते हुए गोपमण्डली- के बीच स्थित नन्दनन्दनकी मैं वन्दना करता हूँ। राजन् ! श्रीकृष्णके विरहमें जिनको क्षणभरका समय युगके समान लगता था, उन्हींके दर्शनसे उन गोपियोंको आनन्द प्राप्त हुआ। बालकोंने अपने-अपने घर जाकर गोष्ठोंमें अलग-अलग बछड़ोंको बाँधकर अघासुर-वध एवं श्रीहरिद्वारा हुई आत्मरक्षाके वृत्तान्तका वर्णन किया । ५१-५९ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘ब्रह्माजीद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति नामक नवम अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥
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दसवाँ अध्याय
यशोदाजीकी चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणोंको विविध प्रकारके दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्णका गोचारण
नारदजी कहते हैं- अष्टावक्रके शापसे सर्प होकर अघासुर उन्हींके वरदान-बलसे उस परम मोक्षको प्राप्त हुआ, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। वत्सासुर, वकासुर और फिर अघासुरके मुखसे श्रीकृष्ण किसी तरह बच गये हैं और कुछ ही दिनोंमें उनके ऊपर ये सारे संकट आये हैं- यह सुनकर यशोदाजी भयसे व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कलावती, रोहिणी, बड़े-बूढ़े गोप, वृषभानुवर, व्रजेश्वर नन्दराज, नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा प्रजाजनोंके स्वामी छः वृषभानुओंको बुलाकर उन सबके सामने यह बात कही ॥ १-४ ॥
यशोदा बोलीं- आप सब लोग बतायें- मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कैसे मेरा कल्याण हो ? मेरे पुत्रपर तो यहाँ क्षण-क्षणमें बहुत-से अरिष्ट आ रहे हैं। पहले महावन छोड़कर हमलोग वृन्दावनमें आये और अब इसे भी छोड़कर दूसरे किस निर्भय देशमें मैं चली जाऊँ, यह बतानेकी कृपा करें। मेरा यह बालक स्वभावसे ही चपल है। खेलते-खेलते दूरतक चला जाता है। व्रजके दूसरे बालक भी बड़े चञ्चल हैं। वे सब मेरी बात मानते ही नहीं। तीखी चोंचवाला बलवान् वकासुर पहले मेरे बालकको निगल गया था। उससे छूटा तो इस बेचारेको अघासुरने समस्त ग्वाल-बालोंके साथ अपना ग्रास बना लिया। भगवान्की कृपासे किसी तरह उससे भी इसकी रक्षा हुई। इन सबसे पहले वत्सासुर इसकी घातमें लगा था, किंतु वह भी दैवके हाथों मारा गया। अब मैं बछड़े चरानेके लिये अपने बच्चेको घरसे बाहर नहीं जाने दूँगी ॥ ५-९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- इस तरह कहती तथा निरन्तर रोती हुई यशोदाकी ओर देखकर नन्दजी कुछ कहनेको उद्यत हुए। पहले तो धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नन्दने गर्गजीके वचनोंकी याद दिलाकर उन्हें धीरज बंधाया, फिर इस प्रकार कहा ।। १० ।।
नन्दराज बोले – यशोदे ! क्या तुम गर्गकी कही हुई सारी बातें भूल गयीं ? ब्राह्मणोंकी कही हुई बात सदा सत्य होती है, वह कभी असत्य नहीं होती। इसलिये समस्त अरिष्टोंका निवारण करनेके लिये तुम्हें दान करते रहना चाहिये। दानसे बढ़कर कल्याणकारी कृत्य न पहले तो हुआ है और न आगे होगा ही ।। ११-१२ ॥
नारदजी कहते हैं- नरेश्वर । तब यशोदाने बलराम और श्रीकृष्णके मङ्गलके लिये ब्राह्मणोंको बहुमूल्य नवरत्न और अपने अलंकार दिये। नन्दजीने उस समय दस हजार बैल, एक लाख मनोहर गायें तथा दो लाख भार अन्न दान दिये ।। १३-१४ ।।(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
श्रीनारदजी पुनः कहते हैं- राजन् ! अब गोपोंकी इच्छासे बलराम और श्रीकृष्ण गोपालक हो गये। अपने गोपाल मित्रोंके साथ गाय चराते हुए वे दोनों भाई वनमें विचरण करने लगे। उस समय श्रीकृष्ण और बलरामका सुन्दर मुँह निहारती हुई गौएँ उनके आगे-पीछे और अगल-बगलमें विचरती रहती थीं। उनके गलेमें क्षुद्रघण्टिकाओंकी माला पहिनायी गयी थी। सोनेकी मालाएँ भी उनके कण्ठकी शोभा बढ़ाती थीं। उनके पैरोंमें घुँघुरू बँधे थे। उनकी पूँछोंके स्वच्छ बालोंमें लगे हुए मोरपंख और मोतियोंके गुच्छे शोभा दे रहे थे। वे घंटों और नूपुरोंके मधुर झंकारको फैलाती हुई इधर-उधर चरती थीं। चमकते हुए नूतन रलोंकी मालाओंके समूहसे उन समस्त गौओंकी बड़ी शोभा होती थी। राजन् ! उन गौओंके दोनों सींगोंके बीचमें सिरपर मणिमय अलंकार धारण कराये गये थे, जिनसे उनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। सुवर्ण-रश्मियोंकी प्रभासे उनके सींग तथा पार्श्व-प्रवेष्टन (पीठपरकी झूल) चमकते रहते थे। कुछ गौओंके भालमें किञ्चित् रक्तवर्णके तिलक लगे थे। उनकी पूँछे पीले रंगसे रँगी गयी थीं और पैरोंके खुर अरुणरागसे रञ्जित थे। बहुत-सी गौएँ कैलास पर्वतके समान श्वेतवर्णवाली, सुशीला, सुरूपा तथा अत्यन्त उत्तम गुणोंसे सम्पन्न थीं। मिथिलेश्वर ! बछड़ेवाली गौएँ अपने स्तनोंके भारसे धीरे-धीरे चलती थीं। कितनोंके थन घड़ोंके बराबर थे। बहुत-सी गौएँ लाल रंगकी थीं। वे सब-की-सब भव्य- मूर्ति दिखायी देती थीं। कोई पीली, कोई चितकबरी, कोई श्यामा, कोई हरी, कोई ताँबेके समान रंगवाली, कोई धूमिलवर्णकी और कोई मेघोंकी घटा-जैसी नीली रहते थे। किन्हीं गौओं और बैलोंके सींग छोटे, किन्हींके बड़े तथा किन्हींक ऊँचे थे। कितनोंके सींग हिरनोंके से थे और कितनोंके टेढ़े-मेढ़े। वे सब गौएँ कपिला तथा मङ्गलकी धाम थीं। वन-वनमें कोमल कमनीय घास खोज-खोजकर चरती हुई कोटि-कोटि गौएँ श्रीकृष्णके उभय पाश्वर्थोंमें विचरती थीं ।। १५-२४ ॥
यमुनाका पुण्य पुलिन तथा उसके निकट श्याम तमालोंसे सुशोभित वृन्दावन नीप, कदम्ब, नीम, अशोक, प्रवाल, कटहल, कदली, कचनार, आम, मनोहर जामुन, बेल, पीपल और कैथ आदि वृक्षों तथा माधवी लताओंसे मण्डित था। वसन्त ऋतुके शुभागमन से मनोहर वृन्दावनकी दिव्य शोभा हो रही थी। वह देवताओंके नन्दनवन-सा आनन्दप्रद और सर्वतोभद्र वन-सा सब ओरसे मङ्गलकारी जान पड़ता था। उसने (कुबेरके) चैत्ररथ वनकी शोभाको तिरस्कृत कर दिया था। वहाँ झरनों और कंदराओंसे संयुक्त रत्नधातुमय श्रीमान् गोवर्धन पर्वत शोभा पाता था। वहाँका वन पारिजात या मन्दारके वृक्षोंसे व्याप्त था। वह चन्दन, बेर, कदली, देवदार, बरगद, पलास, पाकर, अशोक, अरिष्ट (रीठा), अर्जुन, कदम्ब, पारिजात, पाटल तथा चम्पाके वृक्षोंसे सुशोभित था। श्याम वर्णवाले इन्द्रयव नामक वृक्षोंसे घिरा हुआ वह वन करञ्ज-जालसे विलसित कुञ्जोंसे सम्पन्न था। वहाँ मधुर कण्ठवाले नर-कोकिल और मयूर कलरव कर रहे थे। उस वनमें गौएँ चराते हुए श्रीकृष्ण एक वनसे दूसरे वनमें विचरा करते थे। नरेश्वर ! वृन्दावन और मधुवनमें, तालवनके आस-पास कुमुदवन, बहुला-वन, कामवन, बृहत्सानु और नन्दीश्वर नामक पर्वतोंके पार्श्ववर्ती प्रदेशमें, कोकिलोंकी काकलीसे कूजित सुन्दर कोकिलावनमें, लताजाल-मण्डित सौम्य तथा रमणीय कुश-वनमें, परम पावन भद्रवन, भाण्डीर उपवन, लोहार्गल तीर्थ तथा यमुनाके प्रत्येक तट और तटवर्ती विपिनोंमें पीताम्बर धारण किये, बद्धपरिकर, नटवेषधारी मनोहर श्रीकृष्ण बेंत लिये, वंशी बजाते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते हुए बड़ी शोभा पाते थे। उनके सिरपर शिखिपिच्छका सुन्दर मुकुट तथा गलेमें वैजयन्तीमाला सुशोभित थीं ॥ २५-३६ ॥(Vrindavan Khand Chapter 6 to 10)
संध्याके समय गोवृन्दको आगे किये अनेकानेक रागोंमें बाँसुरी बजाते साक्षात् श्रीहरि कृष्ण नन्दव्रजमें आये। आकाशको गोरजसे व्याप्त देख श्रीवंशीवटके मार्गसे आती हुई वंशी-ध्वनिसे आकुल हुई गोपियाँ श्यामसुन्दरके दर्शनके लिये घरोंसे बाहर निकल आयीं। अपनी मानसिक पीड़ा दूर करने और उत्तम सुखको पानेके लिये वे गोपसुन्दरियाँ श्री कृष्ण दर्शन के हेतु घरसे बाहर आ गयी थीं। उनमें श्रीकृष्णको भुला देनेकी शक्ति नहीं थी। श्रीनन्दनन्दन सिंहकी भाँति पीछे घूमकर देखते थे। वे गजकिशोरकी भाँति लीलापूर्वक मन्दगतिसे चलते थे। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पाते थे। गो-समुदायसे व्याप्त संकीर्ण गलियोंमें मन्द मन्द गतिसे आते हुए श्यामसुन्दरको उस समय गोपवधूटियाँ अच्छी तरहसे देख नहीं पाती थीं। मिथिलेश्वर ! गोधूलिसे धूसरित उत्तम नील केशकलाप धारण किये, सुवर्णनिर्मित बाजूबंदसे विभूषित, मुकुटमण्डित तथा कानतक खींचकर वक्र भावसे दृष्टिबाणका प्रहार करनेवाले, गोरज-समलंकृत, कुन्दमालासे अलंकृत, कानोंमें खोंसे हुए पुष्पोंकी आभासे उद्दीप्त, पीताम्बरधारी, वेणुवादनशील तथा भूतलका भूरि-भार हरण करनेवाले प्रभु श्रीकृष्ण आप
सबकी रक्षा करें ॥ ३७-४२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘यशोदाजीकी चिन्ता, नन्दद्वारा आश्वासन तथा दान, श्रीकृष्णकी गोचारण-लीलाका वर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥