Garga Samhita Golok Khand Chapters 11 to 15
॥ श्रीहरिः ॥
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
श्रीगर्ग संहिता
(गोलोकखण्ड)
गर्ग संहिता गोलोक खण्ड ग्यारहवाँ अध्याय से पंद्रहवाँ अध्याय तक (Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्री गर्ग संहिता में गोलोकखण्ड (Golok Khand Chapters 11 to 15)के ग्यारहवाँ अध्याय में भगवान का वसुदेव-देवकी में आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रह की झाँकी;आदि का वर्णन किया गया हे। बारहवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण-जन्मोत्सवकी धूम; गोप-गोपियोंका उपायन लेकर आना, ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन का विस्तारपूर्वक कथन है। तेरहवाँ अध्याय में पूतनाका उद्धार का वर्णन किया गया है। चौदहवाँ अध्याय और पंद्रहवाँ अध्याय में उत्कच और तृणावर्तका उद्वार; दोनोंके पूर्वजन्मोंका वर्णन और यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्यका परिचय चित्रण किया गया है।
यहां पढ़ें ~ पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक
ग्यारहवाँ अध्याय
भगवान्का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान्द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वधका आदेश देना
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर परात्पर एवं परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण पहले वसुदेवजीके मनमें आविष्ट हुए। भगवान्का आवेश होते ही महामना वसुदेव सूर्य, चन्द्रमा और अग्निके समान महान् तेजसे उद्भासित हो उठे, मानो उनके रूपमें दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गये हों। फिर सबको अभय देनेवाले श्रीकृष्ण देवी देवकीके गर्भमें आविष्ट हुए। इससे उस कारागृहमें देवकी उसी तरह दिव्य दीप्तिसे दमक उठीं, जैसे घनमालामें चषला चमक उठती है। देवकीके उस तेजस्वी रूपको देखकर कंस मन-ही-मन भयसे व्याकुल होकर बोला- ‘यह मेरा प्राणहन्ता आ गया; क्योंकि इसके पहले यह ऐसी तेजस्विनी नहीं थी। इस शिशुको जन्म लेते ही मैं अवश्य मार डालूँगा।’ यों कहकर वह भयसे विह्वल हो उस बालकके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा। भयके कारण अपने पूर्वशत्रु भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए वह सर्वत्र उन्हींको देखने लगा। अहो ! दृढ़तापूर्वक वैर बँध जानेसे भगवान् कृष्णका भी प्रत्यक्षकी भाँति दर्शन होने लगता है। इसलिये असुर श्रीकृष्णकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही उनके साथ वैर करते हैं। जब भगवान् गर्भमें आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि देवता तथा अस्मदादि (नारद-प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेवके गृहके ऊपर आकाशमें स्थित हो, भगवान को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। ॥ १-७ ||
देवता बोले- जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं में प्रतीत होनेवाले विश्वके जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके गुणोंका आश्रय लेकर ही ये प्राणिसमुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्रिसे निकलकर सब ओर फैले हुए विस्फुलिङ्ग (चिनगारियाँ) पुनः उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रियवर्ग तथा उनके अधिष्ठाता देव-समुदाय जिनसे प्रकट हो पुनः उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान् श्रीकृष्णको हमारा सादर नमस्कार है। बलवानोंमें भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिनपर शासन करनेमें समर्थ नहीं है, माया भी जिनपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्यशब्द (वेद) जिनको अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशान्त, शुद्ध, परात्पर पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान्की हम शरणमें आये हैं। जिन परमेश्वरके अंशावतार, अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार तथा पूर्णावतारसहित विभिन्न अवतारों- द्वारा इस विश्वके सृष्टिपालन आदि कार्य सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्णसे भी परे परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको हम प्रणाम करते हैं। प्रभो। अतीत, वर्तमान और अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पोंमें आप अपने अंश और कलाद्वारा अवतार-विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया है, जब कि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेजःपुञ्ज) का यहाँ विस्तार कर रहे हैं! अब इस परिपूर्णतम अवतारद्वारा भूतलपर धर्मकी स्थापना करके आप लोकमें मङ्गल (कल्याण) का प्रसार करेंगे। आनन्दकंद ! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अन्तःकरणवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ और अगम्य है, वही उन बड़भागी भक्तोंके लिये परम सुलभ है, जो अपने निर्मल हृदयमें भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिरसमें निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूपमें मन्द मन्द विचरनेवाले आपके चरणारविन्दोंके मकरन्द एवं परागको हम सानुराग सिरपर धारण करें, यही हमारी आन्तरिक अभिलाषा है। आप पहलेसे ही परम कमनीय कलेवरधारी हैं और यहाँ इस अवतारमें भी उसी कमनीय रूपसे आप सुशोभित होंगे। आपका रूप कोटिशत कामदेवोंको भी मोहित करनेवाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाममें धारित दिव्य दीप्ति राशिको यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधनके धारयिता आप श्रीराधावल्लभको हम प्रणाम करते हैं * ॥ ८- १३ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
उस समय मुनियोंसहित ब्रह्मा आदि सब देवता श्रीहरिको नमस्कार करके उनकी महिमाका गान तथा स्वभावकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धामको चले गये। मिथिला सम्राट् बहुलाश्व ! तदनन्तर जब श्रीहरिके प्राकट्यका समय आया, आकाश स्वच्छ हो गया। दसों दिशाएँ निर्मल हो गयीं। तारे अत्यन्त उद्दीप्त हो उठे। भूमण्डलमें प्रसन्नता छा गयी। नदी, नद, सरोवर और समुद्रके जल स्वच्छ हो गये। सब ओर सहस्रदल तथा शतदल कमल खिल उठे। वायुके स्पर्शसे उनके सुगन्धयुक्त पराग सब दिशाओंमें फैलने लगे। उन कमलोंपर भ्रमर गुंजार करने लगे। शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु बहने लगी। जनपद और ग्राम सुख-सुविधासे सम्पन्न हो गये। बड़े-बड़े नगर तो मङ्गलके धाम बन गये। देवता, ब्रह्मण, पर्वत, वृक्ष और गौएँ – सभी सुख-सामग्रीसे परिपूर्ण हो गये। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। साथ ही जय-जयकारकी ध्वनि सब ओर व्याप्त हो गयी। महाराज ! जहाँ-तहाँ सब जगह सबका परम मङ्गल हो गया। गायन-कलामें निपुण विद्याधर, गन्धर्व, सिद्ध, किंनर तथा चारण गीत गाने लगे। देवता लोग स्तोत्र पढ़कर उन परम पुरुषका स्तवन करने लगे। देवलोकमें गन्धर्व तथा विद्याधरियाँ आनन्दमग्न होकर नाचने लगीं। मुख्य मुख्य देवता पारिजात, मन्दार तथा मालतीके मनोरम फूल बरसाने लगे और मेघ गर्जना करते हुए जलकी वृष्टि करने लगे। भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण-योग तथा वृष लग्नमें अष्टमी तिथिको आधी रातके समय चन्द्रोदय-कालमें, जब कि जगत्में अन्धकार छा रहा था, वसुदेव मन्दिरमें देवकीके गर्भसे साक्षात् श्रीहरि प्रकट हुए-ठीक उसी तरह, जैसे अरणिकाष्ठसे अनिका आविर्भाव होता है ॥ १४- २४ ॥
कण्ठमें प्रकाशमान स्वच्छ एवं विचित्र मुक्ताहार, वक्षपर शोभा-प्रभा-समन्वित सुन्दर कौस्तुभ-मणि तथा रत्नोंकी माला, चरणोंमें नूपुर तथा बाहोंमें बाजूबंद धारण – किये भगवान् मण्डलाकार प्रभापुञ्जसे उद्भासित हो रहे – थे। मस्तकपर किरीट तथा कानोंमें कुण्डल-युगल बालरविके सदृश उद्दीप्त हो रहे थे। कलाइयोंमें प्रज्वलित अनिके समान कान्तिमान् अद्भुत कङ्कण हिल रहे थे। कटिकी करधनीमें जो डोर या जंजीर लगी थी, उसकी प्रभा विद्युत्के समान सब ओर व्याप्त हो रही थी। कण्ठदेशमें कमलोंकी माला शोभा पाती थी, जिसके र ऊपर मधु-लोलुप मधुकर मँडरा रहे थे। उनके श्रीअङ्गोंपर जो दिव्य पीतवस्त्र था, वह नूतन (तपाये हुए) जाम्बूनद (सुवर्ण) की शोभाको तिरस्कृत कर रहा था। श्यामसुन्दर विग्रहपर सुशोभित वह पीताम्बर विद्युद्विलाससे विलसित नीलमेघके सौभाग्यपूर्ण सौन्दर्यको छीने लेता था। मुखके ऊपर शिरोदेशमें काले-काले घुँघराले केश शोभा पाते थे। मुखचन्द्रकी चञ्चल रश्मियाँ वहाँका सम्पूर्ण अन्धकार दूर किये देती थीं। वह परम सुन्दर शुभद आनन प्रफुल्ल इन्दीवर सदृश युगल नेत्रोंसे सुशोभित था। उसपर विचित्र रीतिसे मनोहर पत्ररचना की गयी थी, जिससे मण्डित अभिराम मुख सदैव करोड़ों कामदेवोंको मोहे लेता था। वे परिपूर्णतम परात्पर भगवान् मधुर ध्वनिसे वेणु बजानेमें तत्पर थे ॥ २५-२८ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
ऐसे पुत्रका अवलोकन करके यदुकुलतिलक वसुदेवजीके नेत्र भगवान्के जन्मोत्सवजनित आनन्दसे खिल उठे। फिर उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मणोंको एक लाख गो-दान करनेका मन-ही-मन संकल्प किया। सूतिकागारमें प्रभुका आविर्भाव प्रत्यक्ष हो गया, इससे वसुदेवजीका सारा भय जाता रहा। वे अत्यन्त विस्मित हो, हाथ जोड़कर आदि-अन्तरहित श्रीहरिको प्रणाम करके, स्तोत्रोंद्वारा उनका स्तवन करने लगे ।। २९-३० ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम
श्रीवसुदेवजी बोले- भगवन् ! जो एकमात्र अद्वितीय हैं, वे ही परब्रह्म परमात्मा आप प्रकृतिके सत्त्वादि गुणोंके कारण अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं। आप ही संहारक, आप ही उत्पादक तथा आप ही इस जगत्के पालक हैं। हे आदिदेव ! हे त्रिभुवनपते परमात्मन् ! जैसे स्फटिकमणि औपाधिक रंगोंसे लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार आप देहके वर्णोंसे निर्लिप्त ही रहते हैं। ऐसे आप परमेश्वरको मेरा नमस्कार है ॥ ३१ ॥
जैसे ईंधनमें आग छिपी रहती है, उसी तरह आप अव्यक्तरूपसे इस सम्पूर्ण जगत्में विद्यमान हैं; तथा जैसे आकाश सबके भीतर और बाहर भी रहता है, उसी प्रकार आप सबके भीतर और बाहर भी स्थित हैं। आप ही पृथ्वीकी भाँति इस समस्त जगत्के आधार हैं, सबके साक्षी हैं तथा वायुकी भाँति सर्वत्र जानेकी शक्ति रखते हैं। आप गौ, देवता, ब्राह्मण, अपने भक्तजन तथा बछड़ोंक पालक हैं और उद्भट भूभारका हरण करनेके लिये ही मेरे घरमें अवतीर्ण हुए हैं। इस भूतलपर समस्त पुरुषोंत्तमोंसे भी उत्तम आप ही हैं। भुवनपते । पापी कंससे मुझे बचाइये। ॥ ३२-३३ ॥
श्रीनारदज़ी कहते हैं- मिथिलापते ! सर्व- देवतास्वरूपिणी देवकीको भी यह ज्ञात हो गया कि मेरे घरमें परिपूर्णतम भगवान् साक्षात् श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका आविर्भाव हुआ है। अतः वे भी उन्हें नमस्कार करके बोलीं ।। ३४ ।।
देवकीने कहा- हे सच्चिदानन्दधन श्रीकृष्ण ! हे अगणित ब्रह्माण्डोंके स्वामी । हे परमेश्वर ! हे गोलोक- धाममन्दिरकी ध्वजा ! हे आदिदेव ! हे पूर्णरूप ईश्वर ! हे परिपूर्णतम परमेश ! हे प्रभो! आप पापी कंसके भयसे मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये * ॥ ३५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! पिता-माताकी ओरसे किया गया वह स्तवन सुनकर पापनाशन साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मन्द मन्द मुस्कराते हुए देवकी तथा वसुदेवजीसे बोले – ॥ ३६ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीभगवान्ने कहा- पूर्वसृष्टिमें ये माता पतिव्रता पृश्नि थीं और आप प्रजापति सुतपा। आप दोनोंने संतानके लिये ब्रह्माजीकी आज्ञासे अन्न और जलका त्याग करके बड़ी भारी तपस्या की थी। एक मन्वन्तरका समय बीत जानेपर भी प्रजाकी कामनासे आपकी तपस्या चलती रही, तब मैं आप दोनोंपर प्रसन्न होकर बोला- ‘आपलोग कोई उत्तम वर माँग लें।’ मेरी बात सुनकर आप तत्काल बोले- ‘प्रभो ! हम दोनोंको आपके समान पुत्र प्राप्त हो।’ उस समय ‘तथास्तु’ कहकर जब मैं चला आया, तब आप दोनों दम्पति अपने पुण्यकर्मके फलस्वरूप प्रजापति हुए। संसारमें मेरे समान तो कोई पुत्र है नहीं- यह विचारकर मैं स्वयं परमेश्वर ही आपका पुत्र हुआ। उस समय भूतलपर मैं ‘पृश्निगर्भ’ नामसे विख्यात हुआ। फिर दूसरे जन्ममें जब आप कश्यप और अदिति हुए, तब मैं आपका पुत्र वामन आकारवाला उपेन्द्र हुआ। उसी प्रकार इस वर्तमान जन्ममें भी मैं परात्पर परमेश्वर आप दोनोंका पुत्र हुआ हूँ। पिताजी ! अब आप मुझे नन्दभवनमें पहुँचा दें। इससे आप दोनोंको कंससे कोई भय नहीं होगा। नन्दरायकी पुत्रीको यहाँ ले आकर आप सुखी होइयेगा ।। ३७-४१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर भगवान् वहाँ मौन हो, उन दोनोंके देखते-देखते वर्तमान स्वरूपको अदृश्य करके, बालरूप हो पृथ्वीपर पड़ गये-जैसे किसी नटने क्षणभरमें वेष-परिवर्तन कर लिया हो। शिशुको पालनेमें सुलाकर ज्यों ही वसुदेवजी ले जानेको उद्यत हुए, त्यों-ही महावनमें नन्दपत्नीके गर्भसे योगमायाने स्वतः जन्मग्रहण किया। उसीके प्रभावसे सब लोग सो गये। पहरेदार भी नींद लेने लगे। सारे दरवाजे मानो किसीने खोल दिये। साँकल और अर्गलाएँ टूट-फूट गयीं। श्रीकृष्णको माथेपर लिये जब वसुदेवजी गृहसे बाहर निकले, उस समय उनके भीतरका अज्ञान और बाहरका अँधेरा स्वतः दूर हो गया- ठीक उसी तरह, जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकारका तत्काल नाश हो जाता है। आकाशमें बादल घिर आये और वे जलकी वृष्टि करने लगे। तब सहस्त्र मुखवाले स्वयंप्रकाश शेषनाग अपने फनोंसे छत्रछाया करके गिरती हुई जलकी धाराओंका निवारण करते हुए उनके पीछे- पीछे चलने लगे। उस समय यमुनामें जलके वेगसे बहनेके कारण ऊँची लहरें उठतीं और भँवरें पड़ रही थीं। वे सिंह और सर्पादि जन्तुओंको भी बहाये लिये जाती थीं; किंतु सरिताओंमें श्रेष्ठ उन कलिन्दनन्दिनी यमुनाने वसुदेवजीको तत्काल मार्ग दे दिया। नन्द- रायजीका सारा व्रज गाढ़ी नींदमें सो रहा था। वहाँ पहुँचकर वसुदेवजीने अपने परम शिशुको यशोदाजी- की शय्यापर शीघ्र सुलाकर उस दिव्य कन्याको देखा । यशोदाजीकी उस कन्याको गोदमें लेकर वसुदेवजी पुनः अपने घर लौट आये। वे यमुनाजीको पार करके पूर्ववत् अपने घरमें स्थित हो गये ॥ ४२-४९ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
उधर गोपी यशोदाको इतना ही ज्ञात हुआ कि उसे कोई पुत्र या पुत्री हुई है। वे प्रसव-वेदनाके श्रमसे अत्यन्त थकी होनेके कारण अपनी शय्यापर आनन्दकी नींद लेती हुई सो गयी थीं। इधर बालकके रोनेकी आवाज सुनकर पहरेदार राजभवनमें उपस्थित हुए और जाकर वीर कंसको बालकके जन्मनेकी सूचना दी। यह समाचार कानमें पड़ते ही कंस भयसे कातर हो तुरंत सूतीगृहमें जा पहुँचा। उस समय सती-साध्वी बहिन देवकी दीनकी तरह रोती हुई भाईसे बोलीं ॥ ५०-५२ ॥
देवकीने कहा- भैया ! आप दीन-दुःखियोंके प्रति स्नेह और दया करनेवाले हैं। मैं आपकी बहिन हूँ, तथापि कारागारमें डाल दी गयी हूँ। मेरे सभी पुत्र मार डाले गये हैं। मैं वह अभागिनी मा हूँ, जिसके बेटोंका वध कर दिया गया है। एकमात्र यह बेटी बची है, इसे मुझे भीखमें दे दीजिये। यह स्त्री है, इसका वध करना आप-जैसे बीरके योग्य नहीं है। कल्याणकारी भाई ! इस कल्याणी कन्याको तो मेरी गोदमें दे ही दीजिये। यही आपके योग्य कार्य होगा ॥ ५३-५४ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! देवकीके मुँहपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। उसने मोहके कारण बेटीको आँचलमें छिपाकर बहुत विनती की – वह बहुत रोयी-गिड़गिड़ायी; तो भी उस दुष्टने बहिनको डाँट-डपटकर उसकी गोदसे वह कन्या छीन ली। वह यदुकुलका कलङ्क एवं महानीच था। सदा कुसङ्गमें रहनेके कारण उसका जीवन पापमय हो गया था। उस दुरात्माने अपनी बहिनकी बच्चीके दोनों पैर पकड़कर उसे शिलापर दे मारा। वह कन्या साक्षात् योगमायाका अवतार देवी अनंशा थी। कंसके हाथसे छूटते ही वह उछलकर आकाशमें चली गयी। सहस्त्र अश्वोंसे जुते हुए दिव्य ‘शतपत्र’ रथपर जा बैठी। बहाँ चैवर डुलाये जा रहे थे। उस शुभ्र रथपर बैठकर वह दिव्य रूप धारण किये दृष्टिगोचर हुई। उसके आठ भुजाएँ थीं और सबमें आयुध शोभा पा रहे थे। वह मायादेवी अपने पार्षदोंसे परिसेवित थी। उसका तेज सौ सूर्योक समान दिखायी देता था। उसने मेघगर्जनातुल्य गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ५५-५८ ॥
श्रीयोगमाया बोलीं- केस ! तुझे मारनेवाले परिपूर्णतम परमात्मा साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण तो कहीं और जगह अवतीर्ण हो गये। इस दीन देवकीको तू व्यर्थ दुःख दे रहा है ।। ५९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उससे यों कहकर भगवती योगमाया विन्ध्यपर्वतपर चली गयीं। वहाँ वे अनेक नामोंसे प्रसिद्ध हुईं। योगमायाकी उत्तम बात सुनकर कंसको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने देवकी और वसुदेवको तत्काल बन्धनमुक्त कर दिया ।। ६०-६१ ॥
कंसने कहा- बहिन और बहनोई वसुदेवजी ! मैं पापात्मा हूँ। मेरे कर्म पापमय हैं। मैं इस यदुवंशमें महानीच और दुष्ट हूँ। मैं ही इस भूतलपर आप दोनोंके पुत्रोंका हत्यारा हूँ। आप दोनों मेरे द्वारा किये गये इस अपराधको क्षमा कर दें। मेरी बात सुनें। मैं समझता हूँ, यह सब कालने किया-कराया है। जैसे वायु मेघमालाको जहाँ चाहे उड़ा ले जाती है, उसी तरह कालने मुझे भी स्वेच्छानुसार चलाया है। मैंने देव- वाक्यपर विश्वास कर लिया, किंतु देवता भी असत्य- वादी ही निकले। इस योगमायाने बताया है कि ‘तेरा शत्रु भूतलपर अवतीर्ण हो गया है। किंतु वह कहाँ उत्पन्न हुआ है, यह मैं नहीं जानता । ६२ – ६४ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर कंस बहिन और बहनोईके चरणोंपर गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा। उसके मुँहपर अश्रुधारा बह चली। उसने उन दोनोंके प्रति सौहार्द (अत्यन्त स्नेह) दिखाते हुए उनकी बड़ी सेवा की। अहो ! परिपूर्णतम प्रभु श्रीकृष्णचन्द्रके दया-दान-दक्ष कटाक्षोंसे भूतल- पर क्या नहीं हो सकता ? तदनन्तर प्रातःकाल दुरात्मा कंसने प्रलम्ब आदि बड़े-बड़े असुरोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उनसे कह सुनाया ॥ ६५- ६७ ।।
कंसने कहा- मित्रो ! जैसा कि योगमायाने बताया है, मेरा विनाश करनेवाला शत्रु पृथ्वीपर कहीं उत्पन्न हो चुका है। अतः तुमलोग जो दस दिनके भीतर उत्पन्न हुए हैं और जिनको जन्म लिये दससे अधिक दिन निकल गये हैं, उन समस्त बालकोंको मार डालो ॥ ६८ ॥
दैत्योंने कहा- महाराज ! जब आप द्वन्द्व-युद्धमें उतरे थे, उस समय रणभूमिमें आपके चढ़ाये हुए धनुषकी टंकार सुनकर सब देवता भाग खड़े हुए थे, फिर उन्हींसे आप भय क्यों मान रहे हैं ? गौ, ब्राह्मण, साधु, वेद, देवता तथा धर्म और यज्ञ आदि जो दूसरे- दूसरे तत्त्व हैं, वे ही भगवान् विष्णुके शरीर माने गये हैं; इन सबके विनाशमें दैत्योंका बल ही समर्थ माना गया है। यदि महाविष्णु, जो आपका शत्रु है, इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ है तो उसके वधका यही उपाय है कि गौ-ब्राह्मण आदिकी विशेषरूपसे हिंसाका अभियान चलाया जाय ।। ६९-७१ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कंसने दैत्योंको यह करनेकी आज्ञा दे दी। इस प्रकार उसका आदेश पाकर वे महान् उद्भट दुष्ट दैत्य आकाशमें उड़ चले और गौ, ब्राह्मण आदिको पीड़ा देने तथा नवजात बालकोंकी हत्या करने लगे। समुद्रपर्यन्त समस्त भूमण्डलमें वे इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले दैत्य सर्पों और चूहोंकी तरह घर-घरमें घुसने और विचरने लगे। उद्भट दैत्य तो स्वभावसे ही कुमार्गगामी होते है, उसपर भी उन्हें कंसकी ओरसे प्रेरणा प्राप्त हो गयी थी। एक तो बंदर, फिर वह शराब पी ले और उसपर भी उसे बिच्छु डंक मार दे तो उसकी चपलताके लिये क्या कहना ? यही दशा उन दैत्योंकी थी, वे भूतग्रस्तसे हो गये थे। विदेहकुलनन्दन, मैथिलनरेश, विष्णुभक्त, धर्मात्माओंमें मुख्य, परम तपस्वी, प्रतापी, अङ्गराज, बहुलाश्व जनक ! भूमण्डलपर साधु-संतोंकी यह अवहेलना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थीका सम्पूर्णतया नाश कर देती है ॥ ७२-७५ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्ण जन्म-वृत्तान्तका वर्णन’ नामक ग्यारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥
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बारहवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण-जन्मोत्सवकी धूम; गोप-गोपियोंका उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गोष्ठमें विद्यमान नन्दजीने अपने घरमें पुत्रोत्सव होनेका समाचार सुनकर प्रातःकाल ब्राह्मणोंको बुलवाया और स्वस्तिवाचनपूर्वक मङ्गल-कार्य कराया। विधिपूर्वक जातकर्म-संस्कार सम्पन्न करके महामनस्वी नन्दराजने ब्राह्मणोंको आनन्दपूर्वक दक्षिणा देनेके साथ ही एक लाख गौएँ दान कीं। एक कोस लंबी भूमिमें सप्त- धान्योंके पर्वत खड़े किये गये। उनके शिखर रत्नों और सुवर्णोंसे सज्जित किये गये। उनके साथ सरस एवं स्निग्ध पदार्थ भी थे। वे सब पर्वत नन्दजीने विनीतभावसे ब्राह्मणोंको दिये। मृदङ्ग, वीणा, शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे बारंबार बजाये जाने लगे। नन्दद्वारपर गायक मङ्गल-गीत गाने लगे। वाराङ्गनाएँ नृत्य करने लगीं। पताकाओं, सोनेके कलशों, चंदोवों, सुन्दर बंदनवारों तथा अनेक रंगके चित्रोंसे नन्द-मन्दिर उद्भासित होने लगा। सड़कें, गलियाँ, द्वार-देहलियाँ, दीवारें, आँगन और वेदियाँ (चबूतरे) – इनपर सुगन्धित जलका छिड़काव करके सब ओरसे वस्त्रों और झंडियोंद्वारा सजावट कर दी गयी थी, जिससे ये सब चित्रमण्डप या चित्रशालाके समान शोभा पा रहे थे। गौओंके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलेमें सुवर्णकी माला पहना दी गयी थी। उनके गलेमें घंटी और पैरोंमें मञ्जीरकी झंकार होती थी। उनकी पीठपर कुछ-कुछ लाल रंगकी झूलें ओढ़ायी गयी थीं। इस प्रकार समस्त गौओंका शृङ्गार किया गया था उनकी पूँछें पीले रंगमें रँग दी गयी थीं। उनके साथ बछड़े भी थे, उनके अङ्गोंपर तरुणी स्त्रियोंके हाथोंकी छाप लगी थी। हल्दी, कुङ्कुम तथा विचित्र धातुओंसे वे चिन्त्रित की गयी थीं। मोरपंख और पुष्पोंसे अलंकृत तथा सुगन्धित जलसे अभिषिक्त धर्मधुरंधर मनोहर वृषभ श्रीनंन्दरायजीके द्वारपर इधर-उधर सुशोभित थे। गौओंके सफेद बछड़े सोनेकी मालाओं और मोतियोंके हारोंसे विभूषित हो, इधर-उधर उछलते-कूदते फिर रहे थे। उनके पैरोंमें भी मञ्जीर बँधे थे ॥ १- १० ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
नन्दरायजीके यहाँ पुत्रोत्सवका समाचार सुनकर वृषभानुवर रानी कलावती (कीर्तिदा) के साथ हाथीपर चढ़कर नन्दमन्दिरमें आये। व्रजमें जो नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा छः वृषभानु थे, वे सब भी नाना प्रकारकी भेंट-सामग्रीके साथ वहाँ आये। वे सिरपर पगड़ी तथा उसके ऊपर माला धारण किये, पीले रंगके जामे पहने, केशोंमें मोरपंख और गुञ्जा बाँधे तथा वनमालासे विभूषित थे। हाथोंमें वंशी और बेंतकी छड़ी लिये, सुन्दर पत्ररचनाके साथ तिलक लगाये, कमरमें मोरपंख बाँधे गोपालगण भी वहाँ आ गये। वे नाचते-गाते और वस्त्र हिलाते थे। मूँछवाले तरुण और बिना मूँछके बालक भी भाँति-भाँतिकी भेंट लेकर वहाँ आये। बूढ़े लोग हाथमें डंडा लिये अपने साथ माखन, दूध, दही और घीकी भेंट लेकर नन्दभवनमें उपस्थित हुए। वे आपसमें व्रजराजके यहाँ पुत्रोत्सवका संवाद सुनाते हुए प्रेमसे विह्वल हो नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाते थे। पुत्रोत्सव होनेपर श्रीनन्दरायजीका आनन्द चरम सीमाको पहुँच गया था, उनके नेत्र हर्षके आँसुओंसे भरे हुए थे। उन्होंने अपने द्वारपर आये हुए समस्त गोपोंका तिलक आदिके द्वारा विधिवत् सत्कार किया ॥ ११- १८ ॥
गोप बोले– हे व्रजेश्वर ! हे नन्दराज ! आपके यहाँ जो पुत्रोत्सव हुआ है, यह संतानहीनताके कलङ्क को मिटानेवाला है। इससे बढ़कर परम मङ्गलकी बात और क्या हो सकती है? दैवने बहुत दिनोंके बाद आज आपको यह दिन दिखाया है, हमलोग श्रीनन्द- नन्दनका दर्शन करके आज कृतार्थ हो जायेंगे। जब आप दूरसे आकर पुत्रको गोदमें लेकर मोदपूर्वक लाड़ लड़ाते हुए ‘हे मोहन !’ कहकर पुकारेंगे, उस समय हमें बड़ा सुख मिलेगा ॥ १९-२१ ॥
श्रीनन्दने कहा- बन्धुओ ! आपलोगोंके आशीर्वाद और पुण्यसे आज यह आनन्ददायक शुभ दिवस प्राप्त हुआ है, मैं तो व्रजवासी गोप-गोपियोंका आज्ञापालक सेवक हूँ ॥ २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीनन्दरायजीके यहाँ पुत्र होनेका अद्भुत समाचार सुनकर गोपियोंके हर्षकी सीमा न रही। उनके हृदय, उनके तन-मन परमानन्दसे परिपूर्ण हो गये। वे घरके सारे काम-काज तत्काल छोड़कर भेंट-सामग्री लिये तुरंत ब्रजराजके भवनमें जा पहुँचीं। नरेन्द्र ! अपने घरसे नन्दमन्दिरतक इधर-उधर बड़ी उतावलीके साथ आती-जातीं सब गोपियाँ रास्तेकी भूमिपर मोती लुटाती चलती थीं। शीघ्रतापूर्वक आने-जानेसे उनके वस्त्र, आभूषण तथा केशोंक बन्धन भी ढीले पड़ गये थे; उस दशामें उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। झनकारते हुए नृपुर, नये बाजूबंद, सुनहरे लहँगे, मञ्जीर, हार, मणिमय कुण्डल, करधनी, कण्ठसूत्र, हाथोंके कंगन तथा भालदेशमें लगी हुई बेंदियोंकी नयी-नयी छटाओंसे उनकी छवि – देखते ही बनती थी। नरेश्वर । वे सब-की-सब राई- – नोन, हल्दीके विशेष चूर्ण, गेहूँके आटे, पीली सरसों – तथा जौ आदि हाथोंमें लेकर बड़े लाड़से लालाके – मुखपर उतारती हुई उसे आशीर्वाद देती थीं। यह सब करके उन्होंने यशोदाजीसे कहा- ॥ २३-२६ ॥
गोपियाँ बोलीं- यशोदाजी ! बहुत उत्तम, बहुत अच्छा हुआ। अहोभाग्य ! आज परम सौभाग्यका दिन है। आप धन्य हैं और आपकी कोख धन्य है, जिसने ऐसे बालकको जन्म दिया। दीर्घकालके बाद दैवने आज आपकी इच्छा पूरी की है। कैसे कमल- जैसे नेत्र हैं इस श्यामसुन्दर बालकके ! कितनी मनोहर मुसकान है इसके होठोंपर बड़ी सँभालके साथ इसका लालन-पालन कीजिये ।। २७-२८ ।।
श्रीयशोदाने कहा- बहिन ! आप सबकी दया और आशीर्वादसे ही मेरे घरमें यह सुख आया है, यह आनन्दोत्सव प्राप्त हुआ है। मेरे ऊपर आपकी सदा ही बड़ी दया रही है। इसके बाद आप सबको भी दैव- कृपासे ऐसा ही परम सुख प्राप्त हो – यह मेरी मङ्गल- कामना है। बहिन रोहिणी ! तुम बड़ी बुद्धिमती हो। सब कार्य बड़े अच्छे ढंगसे करती हो। अपने घर आयी हुई ये व्रजवासिनी गोपियाँ बड़े उत्तम कुलकी हैं। तुम इनका पूजन-स्वागतसत्कार करो। अपनी इच्छाके अनुसार इन सबकी मनोवाञ्छा पूर्ण करो ॥ २९-३० ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! रोहिणीजी भी राजाकी बेटी थीं। उनके हाथ तो स्वभावसे ही दानशील थे, उसपर भी यशोदाजीने दान करनेकी प्ररेणा दे दी। फिर क्या था ? उन्होंने अत्यन्त उदारचित्त होकर दान देना आरम्भ किया। उनकी अङ्गकान्ति गौर-वर्णकी थी शरीरपर दिव्य वस्त्र शोभा पाते थे और वे रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित थीं। रोहिणीजी साक्षात् लक्ष्मीकी भाँति व्रजाङ्गनाओंका सत्कार करती हुई सब ओर विचरने लगीं। साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णके व्रजमें पधारनेपर सब ओर मानव-वाद्य बजने लगे। बड़े जोर-जोरसे जै-जैकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय गोप दही, दूध और घीसे तथा गोपाङ्गनाएँ ताजे माखनके लौंदोंसे एक-दूसरेको हर्षोल्लाससे भिगोने और उच्चस्वरसे गीत गाने लगीं। नन्दभवनके बाहर और भीतर सब ओर दहीकी कीच मच गयी। उसमें बूढ़े और मोटे शरीरवाले लोग फिसलकर गिर पड़ते थे और दूसरे लोग खूब ताली पीट-पीटकर हँसते थे। महाराज ! वहाँ जो पौराणिक सूत, वंशोंक प्रशंसक मागध और निर्मल बुद्धिवाले तथा अवसरके अनुरूप बातें कहनेवाले बंदीजन पधारे थे, उन सबको नन्द- रायजीने प्रत्येकके लिये अलग-अलग एक-एक हजार गौएँ प्रदान कीं। वस्त्र, आभूषण, रत्न, घोड़े और हाथी आदि सब कुछ दिये। समस्त बंदियों तथा मागधजनों- को धनी गोप ब्रजेश्वर नन्दरायने बहुत धन दिया। धनराशिकी वर्षा कर दी। व्रजकी गली-गलीमें, घर- घरमें निधि, सिद्धि, वृद्धि, भुक्ति और मुक्ति- ये लोटती-सी दिखायी देती थीं। उन्हें पानेकी इच्छा वहाँ किसीके भी मनमें नहीं होती थी ॥ ३१-३९ ॥
उस समय सनत्कुमार, कपिल, शुक और व्यास आदिको तथा हंस, दत्तात्रेय, पुलस्त्य और मुझ (नारद) को साथ ले ब्रह्माजी वहाँ गये। ब्रह्माजीका वर्ण तप्त सुवर्णके समान था। उनके मस्तकोंपर मुकुट तथा कानोंमें कुण्डल जगमगा रहे थे। वे वेदकर्ता चतुर्मुख ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ हो सम्पूर्ण दिङ्मण्डलको देदीप्यमान करते हुए वहाँ आये थे। उनके पीछे भूतोंसे घिरे हुए वृषभारूढ़ महेश्वर पधारे। फिर रथपर चढ़े हुए साक्षात् सूर्य, ऐरावत हाथीपर सवार देवराज इन्द्र, खञ्जरीटपर चढ़े हुए वायुदेव, महिषवाहन यम, – पुष्पकारूढ़ कुबेर, मृगवाहन चन्द्रमा, बकरेपर बैठे हुए अग्निदेव, मगरपर आरूढ़ वरुण, मयूरवाहन कार्तिकेय, हंसवाहिनी सरस्वती, गरुडारूढ़ लक्ष्मी, सिंहवाहिनी दुर्गा तथा गोरूपधारिणी पृथ्वी, जो विमानपर बैठी थीं, ये सब वहाँ आये। दिव्यकान्तिवाली मुख्य मुख्य सोलह मातृकाएँ पालकीपर बैठकर आयी थीं। खड्ग, चक्र तथा यष्टि धारण करनेवाली षष्ठीदेवी शिबिकापर – सवार हो वहाँ पहुँची थीं। मङ्गल देवता वानरपर और बुध देवता भास नामक पक्षीपर चढ़कर वहाँ पधारे थे। काले मृगपर बैठे बृहस्पति, गवयपर चढ़े शुक्राचार्य, मगरपर आरूढ़ शनिदेव और ऊँटपर आरूढ़ सिंहिकाकुमार राहु- ये सभी ग्रह, जो करोड़ों बालसूर्योक समान तेजस्वी थे, नन्दमन्दिरमें पधारे। – वहाँ बड़ा कोलाहल मच रहा था। वह नन्दभवन झुंड-के-झुंड गोपों और गोपियोंसे भरा हुआ था। देवतालोग वहाँ पहुँचकर क्षणभर रुके और फिर चले गये। बालरूपधारी परिपूर्णतम परमात्मा साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णको देखकर, उन्हें मस्तक नवाकर, देवताओंने उस समय उनका उत्तम स्तवन किया। ब्रह्मा आदि सब देवता ऋषियोंसहित वहाँ श्रीकृष्णका दर्शन करके प्रेमविह्वल और हर्षविभोर होकर अपने-अपने घामको चले गये ।। ४०-५१ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णदर्शनार्थ ब्रह्मादि देवताओंका आगमन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥
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तेरहवाँ अध्याय
पूतनाका उद्धार
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! नन्दजी राजा कंसका कर चुकाने, वसुदेवजीकी कुशल पूछने और उन्हें अपने यहाँके पुत्रोत्सवका समाचार देनेके लिये मथुरा चले गये। उसी समय कंसकी भेजी हुई बाल- घातिनी दुष्टा राक्षसी पूतना नगरों, गाँवों और गोष्ठोंमें विचरती हुई गोप और गोपियोंसे भरे हुए गोकुलमें आ पहुँची। उसकी नाकसे साँसके साथ ‘घर्घर’ शब्द होता था। गोकुलके निकट आनेपर उसने मायासे दिव्य रूप धारण कर लिया। वह सोलह वर्षकी अवस्थावाली तरुणी बन गयी। उसका सौन्दर्य इतना दिव्य था कि वह अपनी अङ्गकान्तिसे शची, सरस्वती, लक्ष्मी, रम्भा तथा रतिको भी तिरस्कृत कर रही थी। चलते समय उसके उन्नत कुच दिव्य आभासे झलकते और हिलते थे। उसे देखकर रोहिणी तथा यशोदा भी हतप्रतिभ हो गयीं। उसने आते ही बालगोपालको गोदमें ले लिया और बारंबार लाड़ लड़ाती हुई उस महाघोर दानवीने शिशुके मुखमें हलाहल विषसे लिप्त अपना स्तन दे दिया। यह देख तीक्ष्ण रोषसे आवृत हो श्रीहरिने उसका सारा दूध उसके प्राणोंसहित पी लिया। उसके स्तनोंमें जब असह्य पीड़ा हुई, तब ‘छोड़ो छोड़ो’ कहते हुए वह उठकर भागी। बच्चेको लिये-लिये घरसे बाहर निकल गयी। बाहर जानेपर उसकी माया नष्ट हो गयी और वह अपने असली रूपमें दिखायी देने लगी। उसके नेत्र बाहर निकल आये। सारा शरीर सफेद पड़ गया और वह रोती चिल्लाती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसकी चिल्लाहटसे सातों लोक और सातों पाताल सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा। द्वीपोंसहित सारी पृथ्वी डोलने लगी। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई। नृपेश्वर ! पूतनाका विशाल शरीर छः कोस लंबा और वज्रके समान सुदृढ़ था। उसके गिरनेसे उसकी पीठके नीचे आये हुए बड़े-बड़े वृक्ष पिसकर चकनाचूर हो गये। उस समय गोपगण उस दानवीके भयंकर और विशाल शरीरको देखकर परस्पर कहने लगे – ‘इसकी गोदमें गया हुआ बालक कदाचित् जीवित नहीं होगा।’ परंतु वह अद्भुत बालक उसकी छातीपर बैठा हुआ आनन्दसे खेलता और मुसकराता था। वह पूतनाका दूध पीकर जम्हाई ले रहा था। उसे उस अवस्थामें देखकर यशोदा तथा रोहिणीके साथ जाकर स्त्रियोंने उठा लिया और छातीसे लगाकर वे सब-की-सब बड़े विस्मयमें पड़ गयीं। बच्चेको ले जाकर गोपियोंने सब ओरसे विधिपूर्वक उसकी रक्षा की। यमुनाजीकी पवित्र मिट्टी लगाकर उसके ऊपर यमुना-जलका छींटा दिया, फिर उसके ऊपर गायकी पूँछ घुमायी। गोमूत्र और गोरजमिश्रित जलसे उसको नहलाया और निम्नाङ्कित रूपसे कवचका पाठ किया- ॥ १-१४ ।।(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीगोपियाँ बोलीं- मेरे लाल ! श्रीकृष्ण तेरे सिरकी रक्षा करें और भगवान् वैकुण्ठ कण्ठकी। श्वेतद्वीपके स्वामी दोनों कानोंकी, यज्ञरूपधारी श्रीहरि नासिकाकी, भगवान् नृसिंह दोनों नेत्रोंकी, दशरथ- नन्दन श्रीराम जिह्वाकी और नर-नारायण ऋषि तेरे अधरोंकी रक्षा करें। साक्षात् श्रीहरिके कलावतार सनक-सनन्दन आदि चारों महर्षि तेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें। भगवान् श्वेतवाराह तेरे भालदेशकी तथा नारद दोनों भूलताओंकी रक्षा करें। भगवान् कपिल तेरी ठोढ़ीको और दत्तात्रेय तेरे वक्षःस्थलको सुरक्षित रखें। भगवान् ऋषभ तेरे दोनों कंधोंकी और मत्स्य- भगवान् तेरे दोनों हाथोंकी रक्षा करें। पृथुल पराक्रमी राजा पृथु सदा तेरे बाहुदण्डोंको सुरक्षित रखें। भगवान् कच्छप उदरकी और धन्वन्तरि तेरी नाभिकी रक्षा करें। मोहिनी रूपधारी भगवान् तेरे गुह्यदेशको और वामन तेरी कटिको हानिसे बचायें। परशुरामजी तेरे पृष्ठभागकी और बादरायण व्यासजी तेरी दोनों जाँघोंकी रक्षा करें। बलभद्र दोनों घुटनोंकी और बुद्ध- देव तेरी पिंडलियोंकी रक्षा करें। धर्मपालक भगवान् कल्कि गुल्फोंसहित तेरे दोनों पैरोंको सकुशल रखें। यह सबकी रक्षा करनेवाला परम दिव्य ‘श्रीकृष्ण- कवच’ है। इसका उपदेश भगवान् विष्णुने अपने नाभि-कमलमें विद्यमान ब्रह्माजीको दिया था। ब्रह्माजीने शम्भुको, शम्भुने दुर्वासाको और दुर्वासाने नन्द-मन्दिरमें आकर श्रीयशोदाजीको इसका उपदेश दिया था। इस कवचके द्वारा गोपियोंसहित श्रीयशोदा- ने नन्दनन्दनकी रक्षा करके उन्हें अपना स्तन पिलाया और ब्रह्मणोंको प्रचुर धन दिया ॥ १५-२४ ॥
उसी समय नन्द आदि गोप मथुरापुरीसे गोकुलमें लौट आये । पूतनाके भयानक शरीरको देखकर वे सब- के-सब भयसे व्याकुल हो गये। गोपोंन कुठारोंसे उसके शरीरको काट-काटकर यमुनाजीके किनारे-कई चिताएँ बनायीं और उसका दाह-संस्कार किया। पूतना- का शरीर परम पवित्र हो गया था। जलानेपर उससे जो – धुआँ निकला, उसमें इलाइची-लवङ्ग, चन्दन, तगर और अगरकी सुगन्ध भरी हुई थी। अहो! जिन पतित- पावनने पूतनाको मोक्षगति प्रदान की, उन श्रीकृष्णको छोड़कर हम यहाँ किसकी शरणमें जायँ ॥ २५-२८ ॥
बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! यह बालघातिनी राक्षसी पूतना पूर्वजन्ममें कौन थी ? इसके स्तनमें विष लगा हुआ था तथा उसके भीतरका भाव भी दूषित ही था; तथापि इसे उत्तम मोक्षकी प्राप्ति कैसे हुई ? ॥ २९ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीनारदजी बोले- पूर्वकालमें राजा बलिके यज्ञमें भगवान् वामनके परम उत्तम रूपको देखकर बलि-कन्या रत्नमालाने उनके प्रति पुत्रोचित स्नेह किया था। उसने मन-ही-मन यह संकल्प किया था कि ‘यदि मेरे भी ऐसा ही बालक उत्पन्न हो और उस पवित्र मुसकानवाले शिशुको मैं अपना स्तन पिला सकूँ तो उससे मेरा चित्त प्रसन्न हो जायगा।’ बलि भगवान्के परम भक्त है, अतः उनकी पुत्रीको वामन- भगवान्ने यह वर दिया कि ‘तेरे मनमें जो मनोरथ है, वह पूर्ण हो।’ वही रत्नमाला द्वापरके अन्तमें पूतना नामसे विख्यात राक्षसी हुई। भगवान् श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसका उत्तम मनोरथ सफल हो गया। मिथिलानरेश ! जो मनुष्य परात्पर भगवान् श्रीकृष्णके इस पूतनोद्धारसम्बन्धी प्रसङ्गको सुनता है, उसको भगवान्की प्रेमपूर्ण भक्ति प्राप्त हो जाती है; फिर उसे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गकी उपलब्धि हो जाय, इसके लिये तो कहना ही क्या है ।। ३०-३४ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘पूतना-मोक्ष’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
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चौदहवाँ अध्याय
शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्तका उद्वार; दोनोंके पूर्वजन्मोंका वर्णन
श्रीगर्गजीने कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्णके सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्रका वर्णन किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है, वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो गया- इसमें संशय नहीं है ॥ १ ॥
श्रीशौनकजी बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण- का मङ्गलमय चरित्र अमृत-रससे तैयार की हुई परम मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात् आपके मुखसे सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन! संतोंमें श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे। उनके मनमें सदा शान्ति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारदजीसे कौन-सी बात पूछी, यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २-३ ॥
श्रीगर्गजीने कहा- शौनक ! तदनन्तर मिथिलाके महाराज बहुलाश्व हर्षसे उत्फुल्ल और प्रेमसे विह्वल हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेशने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए नारदजी से कहा ।। ४ ।।(Golok Khand Chapters 11 to 15)
राजा बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्यकर्म किये हैं। आपके सम्पर्कसे मैं धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान के भक्तोंका सङ्ग दुर्लभ और दुस्साध्य है। मुने ! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें आगे चलकर कौन-सी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये ।। ५-६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तुम श्रीकृष्ण- सम्मत धर्मके पालक हो, तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषोंका सङ्ग सबके कल्याणका विस्तार करनेवाला होता है ॥ ७ ॥
एक दिन, जब भगवान् श्रीकृष्णके जन्मका नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजीने गोप और गोपियोंको अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणोंके बताये अनुसार मङ्गल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम-सलोने बालक श्रीकृष्णको लाल रंगका वस्त्र पहनाया गया अङ्गोंको सुवर्णमय भूषणोंसे भूषित किया गया। उन्हें गोदमें लेकर मैयाने उनके विकसित कमल-सदृश कमनीय नेत्रोंमें काजल लगाया और गलेमें बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंके लिये उत्तम धनका दान दिया। तदनन्तर गोपी यशोदाजीने शीघ्र ही अपने लालाको पालनेपर लिटा दिया और मङ्गल- दिवसपर गोपियोंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग स्वागत किया। उस मङ्गल-भवनमें उस दिन बहुत-से गोपोंका आना-जाना लगा रहा, अतः उन्हींक सत्कारमें व्यस्त रहनेके कारण वे अपने रोते हुए बालकका रुदन-शब्द सुन न सकीं। उसी क्षण पापात्मा कंसका भेजा हुआ एक राक्षस आया। उसका नाम ‘उत्कच’ था। वह वायुमय शरीर धारण किये रहता था। वह आकर छकड़ेपर (जिसपर बड़े-बड़े वजनदार दही-दूधके
मटके रखे जाते थे) बैठ गया और बालकके मस्तक- पर उस शकटको उलटकर गिरानेके प्रयासमें लगा। इतनेमें ही श्रीकृष्णने रोते-रोते ही उस शकटपर पैरसे प्रहार कर दिया। फिर तो वह बड़ा छकड़ा टूक-टूक हो गया और दैत्य मरकर नीचे आ गिरा। ऐसी स्थितिमें वह वायुमय शरीर छोड़कर निर्मल दिव्य देहसे सम्पन्न हो गया और भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके सौ घोड़ोंसे जुते हुए दिव्य विमानपर बैठकर भगवान्के निजी परमधाम गोलोकको चला गया। उस समय व्रजवासी नन्द आदि गोप तथा गोपियाँ सब-के-सब एक साथ वहाँ आ गये और बालकोंसे पूछने लगे – ‘व्रजकुमारो ! यह शकट अपने-आप ही गिर पड़ा या किसीने इसे गिराया है ? कैसे इसकी यह दशा हुई है, तुम जानते हो तो बताओ ॥ ८- १३ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
बालकोंने कहा- पालनेपर सोया हुआ यह बालक दूध पीनेके लिये रोते-रोते ही पैर फेंक रहा था। वही पैर छकड़ेसे टकराया, इसीसे यह छकड़ा उलट गया। व्रजबालकोंकी इस बातपर गोप और गोपियोंको विश्वास नहीं हुआ। वे सभी आश्चर्यमग्न होकर सोचने लगे – ‘कहाँ तो तीन महीनेका यह छोटा-सा बालक और कहाँ इतने विशाल बोझवाला यह छकड़ा !’ यशोदाको यह शङ्का हो गयी कि बच्चेको कोई बालग्रह लग गया है। अतः उन्होंने बालकको गोदमें लेकर ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक ग्रहयज्ञ करवाया। उसमें उन्होंने ब्राह्मणोंको धन आदिसे पूर्णतया तृप्त कर दिया ॥ १४- १६ ॥
श्रीबहुलाश्वने पूछा– महामुने ! इस ‘उत्कच’ नामके राक्षसने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणका स्पर्श पाकर वह तत्काल मोक्षका भागी हो गया ? ॥ १७ ॥
श्रीनारदजीने कहा- मिथिलेश्वर ! यह उत्कच – पूर्वजन्ममें हिरण्याक्षका पुत्र था। एक दिन वह लोमशजीके आश्रमपर गया और वहाँ उसने आश्रमके वृक्षोंको चूर्ण कर दिया। स्थूलदेहसे युक्त महाबली उत्कचको खड़ा देख ब्राह्मण ऋषिने रोष- युक्त होकर उसे शाप दे दिया- ‘दुर्मते ! तू देह- रहित हो जा।’ उसी कर्मके परिपाकसे उसका वह शरीर सर्प-शरीरसे केंचुलकी भाँति छूटकर गिर पड़ा। यह देख वह महान् दानव मुनिके चरणोंमें गिर पड़ा और बोला ॥ १८-२० ॥
उत्कचने कहा- मुने ! आप कृपाके सागर हैं। मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये। भगवन्! मैंने आपके प्रभावको नहीं जाना। आप मेरी देह मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर वे मुनि लोमश प्रसन्न हो गये। जिन्होंने विधाताकी सौ नीतियाँ देखी है, अर्थात् जिनके सामने सौ ब्रह्मा बीत चुके हैं, ऐसे संतोंका रोष भी वरदायक होता है। फिर उनका वरदान मोक्षप्रद हो, इसके लिये तो कहना ही क्या है ॥ २२ ॥
लोमशजी बोले- चाक्षुष-मन्वन्तरतक तो तेरा शरीर वायुमय रहेगा। इसके बीत जानेपर वैवस्वत- मन्वन्तर आयेगा। उसी समयमें (अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें) भगवान्श्री कृष्णके चरणोंका स्पर्श होनेसे तेरी मुक्ति होगी ॥ २३ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । उक्त वरद शापके कारण लोमशजीके प्रतापसे दानव उत्कच भी भगवान्के परम धामका अधिकारी हो गया। जो वर और शाप देनेमें पूर्ण स्वतन्त हैं, उन श्रेष्ठ संतोंके लिये मेरा नमस्कार है ।। २४ ॥
राजन् ! एक दिन नन्दरानी यशोदाजीकी गोदमें बालक श्रीकृष्ण खेल रहे थे और नन्दरानी उन्हें लाड़ लड़ा रही थीं। थोड़ी ही देरमें बालक पर्वतके समान भारी प्रतीत होने लगा। वे उसे गोदमें उठाये रखनेमें असमर्थ हो गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं – ‘अहो ! इस बालकमें पहाड़-सा भारीपन कहाँसे आ गया ?’ फिर उन्होंने बालगोपालको भूमिपर रख दिया, किंतु यह रहस्य किसीको बतलाया नहीं। उसी समय कंसका भेजा हुआ महाबली दैत्य ‘तृणावर्त’ वहाँ आकर आँगनमें खेलते हुए सुन्दर बालक श्रीकृष्णको बवंडररूपसे उठा ले गया। तब गोकुलमें ऐसी धूल उठी, जिसके कारण अँधेरा छा गया और भयंकर शब्द होने लगा। दो घड़ीतक सबकी आँखोंमें धूल भरी रही। उस समय यशोदाजी नन्द-मन्दिरके आँगनमें अपने लालाको न देखकर घबरा गयीं। रोती हुई महलके शिखरोंकी ओर देखने लगीं। वे बड़े भयंकर दीखते थे। जब कहीं भी अपना लाला नहीं दिखायी दिया, तब वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं और होशमें आनेपर उच्चस्वरसे इस प्रकार करुण-विलाप करने लगीं, मानो बछड़ेके मर जानेपर गौ क्रन्दन कर रही हो। प्रेम और स्नेहसे व्याकुल हुई गोपियाँ भी रो रहीं थीं। उन सबके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रहीं थी। वे इधर-उधर देखती हुई नन्द- नन्दनकी खोजमें लग गयीं। उधर तृणावर्त आकाशमें दस योजन ऊपर जा पहुँचा। बालक श्रीकृष्ण उसके कंधेपर थे। उनका शरीर उसे सुमेरु पर्वतकी भाँति भारी प्रतीत होने लगा। उसे अत्यन्त पीड़ा होने लगी। तब वह दानव श्रीकृष्णको वहाँ नीचे पटकनेकी चेष्टामें लग गया। यह जानकर परिपूर्णतम भगवान्ने स्वयं उसका गला पकड़ लिया। निशाचरके ‘छोड़ दे, छोड़ दे।’ कहनेपर अद्भुत बालक श्रीकृष्णने बड़े जोरसे उसका गला दबाया, इससे उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी देहसे ज्योति निकली और घनश्याममें उसी प्रकार विलीन हो गयी, जैसे बादलमें बिजली। तब आकाशसे दैत्यका शरीर बालकके साथ ही एक शिलापर गिर पड़ा। गिरते ही उसकी बोटी-बोटी छितरा गयी। गिरनेके धमाकेसे सम्पूर्ण दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं, भूमण्डल काँपने लगा। उस समय रोती हुई सब गोपियोंन राक्षसकी पीठपर चुपचाप बैठे बालक श्रीकृष्णको एक साथ ही देखा और दौड़कर उन्हें उठा लिया। फिर माता यशोदाको देकर वे कहने लगीं ।। २५-३७ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
गोपियाँ बोलीं- यशोदे ! तुममें बालकके लालनपालनकी रत्तीभर भी योग्यता नहीं है। कहनेसे तो तुम बुरा मान जाती हो; किंतु सच बात यह है कि कहीं, कभी तुमसे दया देखी नहीं गयी। भला कहो तो, इस प्रकार अन्धकार आ जानेपर कोई भी अपने बच्चेको गोदसे अलग करता है। तू ऐसी निर्दय है कि ऐसे महान् भयके अवसरपर भी बालकको जमीनपर रख दिया ? ॥ ३८-३९ ॥
यशोदाजीने कहा- बहिनो ! समझमें नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराजके समान भारी लगने लगा था; इसीलिये उस महा- भयंकर बवंडरमें भी मैंने इसे गोदीसे उतारकर भूमिपर रख दिया ।। ४० ||
गोपियाँ कहने लगीं- यशोदाजी ! रहने दो, झूठ न बोलो। कल्याणी ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दया- मया नहीं है। यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल और रूईके समान हलका है ॥ ४१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- बालक श्रीकृष्णके घर आ जानेपर नन्द आदि गोप और गोपियाँ- सभीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सब लोगोंके साथ उसकी कुशल- वार्ता कहने लगे। यशोदाजी बालक श्रीकृष्णको उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघकर और आँचलसे छातीमें छिपाकर छोह-मोहके वशीभूत हो, रोहिणीसे कहने लगीं ॥ ४२-४३ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीयशोदाजी बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं हैं; इस एक पुत्रपर भी क्षणभरमें अनेक प्रकारके अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौतके मुँहसे बचा है। इससे अधिक उत्पात और क्या होगा ? अतः अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहनेकी व्यवस्था करूँ ? धन, शरीर, मकान, अटारी और विविध प्रकारके रत्न- इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक कुशलसे रहे। यदि मेरा यह बच्चा अरिष्टोंपर विजयी हो जाय तो मैं भगवान् श्रीहरिकी पूजा, दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदिका निर्माण करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अंधेके लिये लाठी ही सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालकसे ही है। अतः बहिन ! अब मैं अपने लालाको उस स्थानपर ले जाऊँगी, जहाँ कोई भय न हो ॥ ४४-४८ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय नन्दमन्दिरमें बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण पधारे और उत्तम आसनपर बैठे। नन्द और यशोदाजीने उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ ४९ ॥
महाभाग ब्राह्मण बोले- व्रजपति नन्दजी तथा व्रजेश्वरी यशोदे ! तुम चिन्ता मत करो। हम इस बालककी कवच आदिसे रक्षा करेंगे, जिससे यह दीर्घजीवी हो जाय ॥ ५० ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुशाग्रों, नूतन पल्लवों, पवित्र कलशों, शुद्ध जल तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदके स्तोत्रों और उत्तम स्वस्तिवाचन आदिके द्वारा विधि-विधानसे यज्ञ करवाकर अग्निकी पूजा करायी। तब उन्होंने बालक श्रीकृष्णकी विधिवत् रक्षा की (रक्षार्थ निम्नाङ्कित – कवच पढ़ा) ॥ ५१-५२ ॥
ब्राह्मणोंने कहा- भगवान् दामोदर तुम्हारे चरणोंकी रक्षा करें। विष्टरश्रवा घुटनोंकी, श्रीविष्णु – जाँघोंकी और स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी – नाभिकी रक्षा करें। भगवान् राधावल्लभ तुम्हारे कटि- – भागकी तथा पीताम्बरधारी तुम्हारे उदरकी रक्षा करें। – भगवान् पद्मनाभ हृदयेशकी, गोवर्धनधारी बाँहोंकी, मथुराधीश्वर मुखकी एवं द्वारकानाथ सिरकी रक्षा करें। – असुरोंका संहार करनेवाले भगवान् पीठकी रक्षा करें और साक्षात् भगवान् गोविन्द सब ओरसे तुम्हारी – रक्षा करें। तीन श्लोकवाले इस स्तोत्रका जो मनुष्य निरन्तर पाठ करेगा, उसे परम सुखकी प्राप्ति होगी और उसे कहीं भी भयका सामना नहीं करना पड़ेगा ॥ ५३-५६ ।।(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीनारदजी कहते हैं- तदनन्तर नन्दजीने उन ब्राह्मणोंको एक लाख गायें, दस लाख स्वर्णमुद्राएँ, एक हजार नूतन रत्न और एक लाख बढ़िया वस्त्र दिये। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके चले जानेपर नन्दजीने गोपोंको बुला-बुलाकर भोजन कराया और मनोहर वस्त्रा- भूषणोंसे उन सबका सत्कार किया ।। ५७-५८ ॥
श्रीबहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह तृणावर्त पहले जन्ममें कौन-सा पुण्यकर्मा मनुष्य था, जो साक्षात् परि- पूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो गया ? ॥ ५९ ॥
श्रीनारदजी बोले- राजन् ! पाण्डुदेशमें ‘सहस्राक्ष’ नामसे विख्यात एक राजा थे। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। भगवान् विष्णुमें उनकी अपार श्रद्धा थी। वे धर्ममें रुचि रखते थे। यज्ञ और दानमें उनकी बड़ी लगन थी। एक दिन वे रेवा (नर्मदा) नदीके दिव्य तटपर गये। लताएँ और बेंत उस तटकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ सहस्रों स्त्रियोंके साथ आनन्दका अनुभव करते हुए वे विचरने लगे। उसी समय स्वयं दुर्वासा मुनिने वहाँ पदार्पण किया। राजाने उनकी वन्दना नहीं की, तब मुनिने शाप दे दिया-‘दुर्बुद्धे ! तू राक्षस हो जा। फिर तो राजा सहस्त्राक्ष दुर्वासाजीके चरणोंमें पड़ गये। तब मुनिने उन्हें वर दिया- ‘राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहका स्पर्श होनेसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी’ । ६०- ६३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । वे ही राजा सहस्त्राक्ष दुर्वासाजीके शापसे भूमण्डलपर ‘तृणावर्त’ नामक दैत्य हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके दिव्य श्रीविग्रहका स्पर्श होनेसे उनको सर्वोत्तम मोक्ष (गोलोकधाम) प्राप्त हो गया ॥ ६४ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘शकटासुर और तृणावर्तका मोक्ष’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ चाणक्य नीति प्रथम अध्याय
पंद्रहवाँ अध्याय
यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्यका परिचय; गर्गाचार्यका नन्द-भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण-संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्यका ज्ञान कराना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । एक दिन साँवले-सलोने बालक श्रीकृष्ण सोनेके रत्नजटित पालनेपर सोये हुए थे। उनके मुखपर लोगोंक मनको मोहनेवाले मन्दहास्यकी छटा छा रही थी। दृष्टिजनित पीड़ाके निवारणके लिये नन्दनन्दनके ललाटपर काजलका डिठौना शोभा पा रहा था। कमलके समान सुन्दर नेत्रोंमें काजल लगा था। अपने उस सुन्दर लालाको मैया यशोदाने गोदमें ले लिया। वे बाल-मुकुन्द पैरका अँगूठा चूस रहे थे। उनका स्वभाव चपल था। नील, नूतन, कोमल एवं घुँघराले केशबन्धोंसे उनकी अङ्गच्छटा अद्भुत जान पड़ती थी। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न, बघनखा तथा चमकीला अर्धचन्द्र (नामक आभूषण) शोभा दे रहे थे। अपार दयामयी गोपी श्रीयशोदा अपने उस लालाको लाड़ लड़ाती हुई बड़े आनन्दका अनुभव कर रही थी। राजन् ! बालक श्रीकृष्ण दूध पी चुके थे। उन्हें जैभाई आ रही थी। माताकी दृष्टि उधर पड़ी तो उनके मुखमें पृथिव्यादि पाँच तत्त्वोंसहित सम्पूर्ण विराट् (ब्रह्माण्ड) तथा इन्द्रप्रभृति श्रेष्ठ देवता दृष्टिगोचर हुए। तब श्रीयशोदाके मनमें त्रास छा गया। अतः उन्होंने अपनी आँखे मूँद लीं ॥ १-३ ॥
महाराज ! परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी ही मायासे सम्पूर्ण संसार सत्तावान् बना है। उसी मायाके प्रभावसे यशोदाजीकी स्मृति टिक न सकी। फिर अपने बालक श्रीकृष्णपर उनका वात्सल्यपूर्ण दयाभाव उत्पन्न हो गया। अहो ! श्रीनन्दरानीके तपका वर्णन कहाँतक करूँ ! ॥ ४ ॥
श्रीबहुलाश्वने पूछा- मुनिवर ! नन्दजीने यशोदाके साथ कौन-सा महान् तप किया था, जिसके प्रभावसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके यहाँ पुत्ररूपमें प्रकट हुये ॥ ५ ॥
श्रीनारदजीने कहा- आठ वसुओंमें प्रधान जो ‘द्रोण’ नामक वसु हैं, उनकी स्त्रीका नाम ‘धरा’ है। इन्हें संतान नहीं थी। वे भगवान श्रीविष्णुके परम भक्त थे। देवताओंके राज्यका भी पालन करते थे। राजन् ! एक समय पुत्रकी अभिलाषा होनेपर ब्रह्माजीके आदेशसे वे अपनी सहधर्मिणी धराके साथ तप करनेके लिये मन्दराचल पर्वतपर गये। वहाँ दोनों दम्पति कंद, मूल एवं फल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर तपस्या करते थे। बादमें जलके आधारपर उनका जीवन चलने लगा। तदनन्तर उन्होंने जल पीना भी बंद कर दिया। इस प्रकार जनशून्य देशमें उनकी तपस्या चलने लगी। उन्हें तप करते जब दस करोड़ वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर आये और बोले- ‘वर माँगो’ ॥ ६-९॥
उस समय उनके ऊपर दीमकें चढ़ गयी थीं। अतः उन्हें हटाकर द्रोण अपनी पत्नीके साथ बाहर निकले। उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और विधिवत् उनकी पूजा की। उनका मन आनन्दसे उल्लसित हो उठा। वे उन प्रभुसे बोले – ॥ १० ॥
श्रीद्रोणने कहा- ब्रह्मन् ! विधे ! परिपूर्णतम जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण मेरे पुत्र हो जायँ और उनमें हम दोनोंकी प्रेमलक्षणा भक्ति सदा बनी रहे, जिसके प्रभावसे मनुष्य दुर्लङ्घन्ध भवसागरको सहज ही पार कर जाता है। हम दोनों तपस्वीजनोंको दूसरा कोई वर अभिलषित नहीं है । ११-१२ ॥
श्रीब्रह्माजी बोले- तुमलोगोंने मुझसे जो वर माँगा है, वह कठिनाईसे पूर्ण होनेवाला और अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी दूसरे जन्ममें तुमलोगोंकी अभिलाषा पूरी होगी ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वे ‘द्रोण’ ही इस पृथ्वीपर ‘नन्द’ हुए और ‘धरा’ ही ‘यशोदा’ नामसे विख्यात हुई। ब्रह्माजीकी वाणी सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण पिता वसुदेवजीकी पुरी मथुरासे व्रजमें पधारे थे। भगवान् श्रीकृष्णका शुभ चरित्र सुधा-निर्मित खाँड़से भी अधिक मीठा है। गन्धमादन पर्वतके शिखरपर भगवान् नर-नारायणके श्रीमुखसे मैंने इसे सुना है। उनकी कृपासे मैं कृतार्थ हो गया। वही कथा मैंने तुमसे कही है; अब और क्या सुनना चाहते हो ? ।। १४- १६ ॥
श्रीबहुलाश्वने पूछा- महामुने ! शिशुरूपधारी उन सनातन पुरुष भगवान् श्रीहरिने बलरामजीके साथ कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं, यह मुझे बताइये ॥ १७ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! एक दिन वसुदेव जीके भेजे हुए महामुनि गर्गाचार्य अपने शिष्योंके साथ नन्दभवनमें पधारे। नन्दजीने पाद्य आदि उत्तम उपचारों- द्वारा मुनिश्रेष्ठ गर्गकी विधिवत् पूजा की और प्रदक्षिणा करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ।। १८-१९ ॥
नन्दजी बोले- आज हमारे पितर, देवता और अधि सभी संतुष्ट हो गये। आपके चरणोंकी धूलि पड़नेसे हमारा घर परम पवित्र हो गया। महामुने ! आप मेरे बालकका नामकरण कीजिये। विप्रवर प्रभो ! अनेक पुण्यों और तीर्थोंका सेवन करनेपर भी आपका शुभागमन सुलभ नहीं होता ।। २०-२१ ॥
श्रीगर्गजीने कहा- नन्दरायजी ! मैं तुम्हारे पुत्रका नामकरण करूँगा, इसमें संशय नहीं है; किंतु कुछ पूर्वकालकी बात बताऊँगा, अतः एकान्त स्थानमें चलो ॥ २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर गर्गजी नन्द-यशोदा तथा दोनों बालक – श्रीकृष्ण एवं बलरामको साथ लेकर गोशालामें, जहाँ दूसरा कोई नहीं था, चले गये। वहाँ उन्होंने उन बालकोंका नामकरण-संस्कार किया। सर्वप्रथम उन्होंने गणेश आदि देवताओंका पूजन किया, फिर यत्नपूर्वक ग्रहोंका शोधन (विचार) करके हर्षसे पुलकित हुए महामुनि गर्गाचार्य नन्दसे बोले ।। २३-२४ ।।
गर्गजीने कहा- ये जो रोहिणीके पुत्र हैं, इनका नाम बताता हूँ-सुनो। इनमें योगीजन रमण करते हैं अथवा ये सबमें रमते हैं या अपने गुणोंद्वारा भक्तजनोंके मनको रमाया करते हैं, इन कारणोंसे उत्कृष्ट ज्ञानीजन इन्हें ‘राम’ नामसे जानते हैं। योगमायाद्वारा गर्भका संकर्षण होनेसे इनका प्रादुर्भाव हुआ है, अतः ये ‘संकर्षण’ नामसे प्रसिद्ध होंगे। अशेष जगत्का संहार होनेपर भी ये शेष रह जाते हैं, अतः इन्हें लोग ‘शेष’ नामसे जानते हैं। सबसे अधिक बलवान् होनेसे ये ‘बल’ नामसे भी विख्यात होंगे * ॥ २५-२६३ ॥
नन्द ! अब अपने पुत्रके नाम सावधानीके साथ सुनो- ये सभी नाम तत्काल प्राणिमात्रको पावन करनेवाले तथा चराचर समस्त जगत्के लिये परम कल्याणकारी हैं। ‘क’ का अर्थ है-कमलाकान्त; ‘ऋ’कारका अर्थ है-राम; ‘ष’ अक्षर षड्विध ऐश्वर्यके स्वामी श्वेतद्वीपनिवासी भगवान् विष्णुका वाचक है। ‘ण’ नरसिंहका प्रतीक है और ‘अकार’ अक्षर अग्निभुक् (अग्निरूपसे हविष्यके भोक्ता अथवा अग्निदेवके रक्षक) का वाचक है तथा दोनों विसर्गरूप बिंदु (:) नर-नारायणके बोधक हैं। ये छहों पूर्ण तत्त्व जिस महामन्त्ररूप परिपूर्णतम शब्दमें लीन हैं, वह इसी व्युत्पत्तिके कारण ‘कृष्ण’ कहा गया है। अतः इस बालकका एक नाम ‘कृष्ण’ है। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग – इन युगोंमें इन्होंने शुक्ल, रक्त, पीत तथा कृष्ण कान्ति ग्रहण की है। द्वापरके अन्त और कलिके आदिमें यह बालक ‘कृष्ण’ अङ्गकान्तिको प्राप्त हुआ है, इस कारणसे भी यह नन्दनन्दन ‘कृष्ण’ नामसे विख्यात होगा ।। २७-३२ ॥
इनका एक नाम ‘वासुदेव’ भी है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- ‘वसु’ नाम है इन्द्रियोंका। इनका देवता है- चित्त। उस चित्तमें स्थित रहकर जो चेष्टाशील हैं, उन अन्तर्यामी भगवान्को ‘वासुदेव’ कहते हैं। वृषभानुकी पुत्री राधा जो कीर्तिक भवनमें प्रकट हुई हैं, उनके ये साक्षात् प्राणनाथ बनेंगे; अतः इनका एक नाम ‘राधापति’ भी है। जो साक्षात् परिपूर्णतम स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हैं, असंख्य ब्रह्माण्ड जिनके अधीन हैं और जो गोलोकधाममें विराजते हैं, वे ही परम प्रभु तुम्हारे यहाँ बालकरूपसे प्रकट हुए हैं। पृथ्वीका भार उतारना, कंस आदि दुष्टोंका संहार करना और भक्तोंकी रक्षा करना-ये ही इनके अवतारके उद्देश्य हैं ॥ ३३- ३६ ॥
भरतवंशोद्भव नन्द ! इनके नामोंका अन्त नहीं है। वे सब नाम वेदोंमें गूढ़रूपसे कहे गये हैं। इनकी लीलाओंके कारण भी उन-उन कर्मोंक अनुसार इनके नाम विख्यात होंगे। इनके अद्भुत कर्मीको लेकर आश्चर्य नहीं करना चाहिये। तुम्हारा अहोभाग्य है; क्योंकि जो साक्षात् परिपूर्णतम परात्पर श्रीपुरुषोत्तम प्रभु हैं, वे तुम्हारे घर पुत्रके रूपमें शोभा पा रहे हैं ।॥ ३७-३८ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर श्रीगर्गजी जब चले गये, तब प्रमुदित हुए महामति नन्दरायने यशोदा सहित अपनेको पूर्णकाम एवं कृतकृत्य माना ॥ ३९ ॥
तदनन्तर ज्ञानिशिरोमणि ज्ञानदाता मुनिश्रेष्ठ श्रीगर्गजी यमुनातटपर सुशोभित वृषभानुजीकी पुरीमें पधारे। छत्र धारण करनेसे वे दूसरे इन्द्रकी तथा दण्ड धारण करनेसे साक्षात् धर्मराजकी भाँति सुशोभित होते थे। साक्षात् दूसरे सूर्यकी भाँति वे अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। पुस्तक तथा मेखलासे युक्त विप्रवर गर्ग दूसरे ब्रह्माकी भाँति प्रतीत होते थे। शुक्ल वस्त्रोंसे सुशोभित होनेके कारण वे भगवान् विष्णुकी-सी शोभा पाते थे। उन मुनिश्रेष्ठको देखकर वृषभानुजीने तुरंत उठकर अत्यन्त आदरके साथ सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये। पूजनोपचारके ज्ञाता वृषभानुने मुनिको एक मङ्गलमय आसनपर बिठाकर पाद्य आदिके द्वारा उन ज्ञानिशिरोमणि गर्गका विधिवत् पूजन किया। फिर उनकी परिक्रमा करके महान् ‘वृषभानुवर’ इस प्रकार बोले ॥ ४०-४५ ॥
श्रीवृषभानुने कहा- संत पुरुषोंका विचरण शान्तिमय है; क्योंकि वह गृहस्थजनोंको परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। मनुष्योंके भीतरी अन्धकारका नाश महात्माजन ही करते हैं, सूर्यदेव नहीं। भगवन् ! आपका दर्शन पाकर हम सभी गोप पवित्र हो गये। भूमण्डलपर आप-जैसे साधु-महात्मा पुरुष तीर्थोंको भी पावन बनानेवाले होते हैं। मुने ! मेरे यहाँ एक कन्या हुई है, जो मङ्गलकी धाम है और जिसका ‘राधिका’ नाम है। आप भली-भाँति विचारकर यह बतानेकी कृपा कीजिये कि इसका शुभ विवाह किसके साथ किया जाय। सूर्यकी भाँति आप तीनों लोकोंमें विचरण करते हैं। आप दिव्यदर्शन हैं, जो इसके अनुरूप सुयोग्य वर होगा, उसीके हाथमें इस कल्याणमयी कन्याको दूँगा ।। ४६-४९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर मुनिवर गर्गजी वृषभानुजीका हाथ पकड़े यमुनाके तटपर गये। वहाँ एक निर्जन और अत्यन्त सुन्दर स्थान था, जहाँ कालिन्दीजलकी कल्लोलमालाओंकी कल-कल ध्वनि सदा गूँजती रहती थी। वहीं गोपेश्वर वृषभानुको बैठाकर धर्मज्ञ मुनीन्द्र गर्ग इस प्रकार कहने लगे । ५०-५१ ॥
श्रीगर्गजी बोले- वृषभानुजी ! एक गुप्त बात है, यह तुम्हें किसीसे नहीं कहनी चाहिये। जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकधामके स्वामी, परात्पर तथा साक्षात् परिपूर्णतम हैं; जिनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है; स्वयं वे ही भगवान् श्रीकृष्ण नन्दके घरमें प्रकट हुए हैं ।। ५२-५३ ॥
श्रीवृषभानुने कहा- महामुने । नन्दजीका भी भाग्य अद्भुत है, धन्य एवं अवर्णनीय है। अब आप भगवान् श्रीकृष्णके अवतारका सम्पूर्ण कारण मुझे बताइये ।। ५४ ।।
श्रीगर्गजी बोले- पृथ्वीका भार उतारने और कंस आदि दुष्टोंका विनाश करनेके लिये ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं। उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्णकी पटरानी, जो प्रिया श्रीराधिकाजी गोलोकधाममें विराजती हैं, वे ही तुम्हारे घर पुत्रीरूपसे प्रकट हुई हैं। तुम उन पराशक्ति राधिकाको नहीं जानते ।। ५५-५६ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस समय गोप वृषभानुके मनमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी और वे अत्यन्त विस्मित हो गये। उन्होंने कलावती (कीर्ति) – को बुलाकर उनके साथ विचार किया। पुनः श्रीराधा- कृष्णके प्रभावको जानकर गोपवर वृषभानु आनन्दके आँसू बहाते हुए पुनः महामुनि गर्गसे कहने लगे ॥ ५७-५८ ॥
श्रीवृषभानुने कहा- द्विजवर ! उन्हीं भगवान श्रीकृष्णको मैं अपनी यह कमलनयनी कन्या समर्पण करूँगा। आपने ही मुझे यह सन्मार्ग दिखलाया है; अतः आपके द्वारा ही इसका शुभ विवाह-संस्कार सम्पन्न होना चाहिये ॥ ५९ ॥
श्रीगर्गजीने कहा- राजन् । श्रीराधा और श्रीकृष्णका पाणिग्रहण-संस्कार मैं नहीं कराऊँगा। यमुनाके तटपर भाण्डीर-वनमें इनका विवाह होगा। वृन्दावनके निकट जनशून्य सुरम्य स्थानमें स्वयं श्रीब्रह्माजी पधारकर इन दोनोंका विवाह करायेंगे। गोपवर ! तुम इन श्रीराधिकाको भगवान् श्रीकृष्णकी वल्लभा समझो। संसारमें राजाओंके शिरोमणि तुम हो और लोकोंका शिरोमणि गोलोकधाम है। तुम सम्पूर्ण गोप गोलोकधामसे ही इस भूमण्डलपर आये हो। वैसे ही समस्त गोपियाँ भी श्रीराधिकाजीकी आज्ञा मानकर गोलोकसे आयी हैं। बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर देवताओं- को भी अनेक जन्मोंतक जिनकी झाँकी सुलभ नहीं होती, उनके लिये भी जिनका दर्शन दुर्घट है, वे साक्षात् श्रीराधिकाजी तुम्हारे मन्दिरके आँगनमें गुप्तरूपसे विराज रही हैं और बहुसंख्यक गोप और गोपियाँ उनका साक्षात् दर्शन करती हैं ।। ६०- ६४ ॥(Golok Khand Chapters 11 to 15)
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधिकाजी और भगवान् श्रीकृष्णका यह प्रशंसनीय प्रभाव सुनकर श्रीवृषभानु और कीर्ति-दोनों अत्यन्त विस्मित तथा आनन्दसे आह्लादित हो उठे और गर्गजीसे कहने लगे ॥ ६५ ॥
दम्पति बोले- ब्रह्मन् ! ‘राधा’ शब्दकी तात्त्विक व्याख्या बताइये। महामुने ! इस भूतलपर मनके संदेहको दूर करनेवाला आपके समान दूसरा कोई नहीं है ।। ६६ ।।
श्रीगर्गजीने कहा- एक समयकी बात है, मैं गन्धमादन पर्वतपर गया। साथमें शिष्यवर्ग भी थे। वहीं भगवान् नारायणके श्रीमुखसे मैंने सामवेदका यह सारांश सुना है। ‘रकार’ से रमाका, ‘आकार’ से गोपिकाओंका, ‘धकार’ से धराका तथा ‘आकार’ से विरजा नदीका ग्रहण होता है। परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णका सर्वोत्कृष्ट तेज चार रूपोंमें विभक्त हुआ। लीला, भू, श्री और विरजा ये चार पलियाँ ही उनका चतुर्विध तेज हैं। ये सब-की-सब कुञ्जभवनमें जाकर श्रीराधिकाजीके श्रीविग्रहमें लीन हो गयीं। इसीलिये विज्ञजन श्रीराधाको ‘परिपूर्णतमा’ कहते हैं। गोप! जो मनुष्य बारंबार ‘राधाकृष्ण’ के इस नामका उच्चारण करते हैं, उन्हें चारों पदार्थ तो क्या, साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण भी सुलभ हो जाते हैं ॥ ६७-७१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस समय भार्या- सहित श्रीवृषभानुके आश्चर्यकी सीमा न रही। श्रीराधा- – कृष्णके दिव्य प्रभावको जानकर वे आनन्दके मूर्तिमान् विग्रह बन गये। इस प्रकार श्रीवृषभानुने ज्ञानिशिरोमणि – श्रीगर्गजीकी पूजा की। तब वे सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी – मुनीन्द्र गर्ग स्वयं अपने स्थानको सिधारे ॥ ७२-७३ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘नन्द-पत्नीका विश्वरूपदर्शन तथा श्रीकृष्ण-बलरामका नामकरण संस्कार’ नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥