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Vidyeshwar Samhita First Chapter To Tenth Chapter

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Vidyeshwar Samhita First Chapter To Tenth Chapter

“विद्येश्वर संहिता” (Vidyeshwar Samhita) शिव महापुराण का प्रथम खण्ड है। विद्येश्वर संहिता पहले अध्याय से दसवाँ अध्याय में तुरन्त पाप नाश करनेवाले साधन के विषय मे प्रश्न, शिव पुराण का परिचय और महिमा, श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता, सनत्कुमार-व्यास संवाद, शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व, ब्रह्मा-विष्णु युद्ध, शिव निर्णय, ब्रह्मा का अभिमान भंग, लिंग पूजन का महत्व और प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता दिया गया है।

विद्येश्वर संहिता

॥ ॐ नमः शिवाय ॥

पहला अध्याय

पापनाशक साधनों के विषय में प्रश्न

आदि से लेकर अंत हैं, जो निरंतर मंगलरूप हैं, जो आत्मा को प्रकाशित करते हैं, जिनके पांच मुख हैं और जिसने जगत की रचना, पालन और संहार का प्रबल कर्म करते हैं, वह सर्वश्रेष्ठ पार्वति पति अजर-अमर भगवान शिव का मैं मन ही मन स्मरण करता हूँ। (Vidyeshwar Samhita)

व्यास जी कहते हैं! धर्म का विशाल प्रदेश, जहां पर पवित्र गंगा यमुना का संयोग है, उस मंगलदायक प्रयाग, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, वहां पर महातेजस्वी ऋषि मुनियों ने महा यज्ञ का आयोजन किया। उस महा यज्ञ का संदेश मिलते ही शिरोमणि महर्षि व्यास जी के शिष्य सूत जी दर्शन के लिए आए। सूत जी का सभी ऋषि मुनियों ने विधिवत स्वागत किया और हुए हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करते उनसे कहा है सर्वज्ञ विद्वान आप बड़े सौभाग्यशाली हैं। आपने स्वयं भगवान व्यास जी से पुराण विद्या प्राप्त की है। आप कथाओं के ज्ञान का अथाह भंडार हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता हैं। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। आपका यहाँ आना निरर्थक नहीं हो सकता। आप कल्याणकारी हैं।

श्रेष्ठ बुद्धि वाले सूत जी! यदि आपकी कृपा हो तो गोपनीय होने पर भी आप शुभाकारी तत्व का वर्णन करें, जिससे हमारी संतुष्टि नहीं होती और उसे सुनने की हमारी इच्छा ऐसे ही रह जाती है। कृपा कर उस विषय का वर्णन करें। घोर कलियुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म से दूर होकर दुराचार में फंस जाएंगे। दूसरों की बुराई करेंगे, पराई स्त्रियों के प्रति आसक्त होंगे। हिंसा करेंगे, मूर्ख, नास्तिक और पशुबुद्धि हो जाएंगे।

सूत जी! कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण आश्रम व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्ण और आश्रम में रहने वाले अपने अपने धर्मों के आचरण का परित्याग कर विपरीत आचरण करने में सुख प्राप्त करेंगे! इस सामाजिक वर्ण संकरता से लोगों का पतन होगा। परिवार टूट जाएंगे, समाज बिखर जाएगा। प्राकृतिक आपदाओं से जगह-जगह लोगों की मृत्यु होगी। धन का क्षय होगा। स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी।

ब्राह्मण लोभी हो जाएंगे और वेद बेचकर धन प्राप्त करेंगे। मद से मोहित होकर दूसरों को ठगेंगे, पूजा-पाठ नहीं करेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे। क्षत्रिय अपने धर्म को त्यागकर कुसंगी, पापी और व्यभिचारी हो जाएंगे। शौर्य से रहित हो वे शूद्रों जैसा व्यवहार करेंगे और काम के अधीन हो जाएंगे। वैश्य धर्म से विमुख हो संस्कारभ्रष्ट होकर कुमार्गी, धनोपार्जन-परायण होकर नाप-तौल में ध्यान लगाएंगे।

शूद्र अपना धर्म-कर्म छोड़कर अच्छी वेशभूषा से सुशोभित हो व्यर्थ घूमेंगे। वे कुटिल और ईर्ष्यालु होकर अपने धर्म के प्रतिकूल हो जाएंगे, कुकर्मी और वाद-विवाद करने वाले होंगे। वे स्वयं को कुलीन मानकर सभी धर्मों और वर्णों में विवाह करेंगे। स्त्रियां सदाचार से विमुख हो जाएंगी। वे अपने पति का अपमान करेंगी और सास-ससुर से लड़ेंगी। मलिन भोजन करेंगी। उनका शील स्वभाव बहुत बुरा होगा।(Vidyeshwar Samhita)

सूत जी ! इस प्रकार जिसकी बुद्धि नष्ट हो और अपने धर्म का त्याग किया है, ऐसे लोग परलोकप्राप्ति में उत्तम गति कैसे प्राप्त करेंगे? इस सोच से हम सभी दुखी हैं। हम पर कृपा करके कोई ऐसी युक्ति बताइए, जिससे इन सभी के पापों का तत्काल नाश हो सके।

व्यास जी कहते हैं! उन श्रेष्ठ मुनियों की यह बात सुनकर सूत जी मन ही मन परम श्रेष्ठ भगवान शंकर का स्मरण करके उनसे इस प्रकार बोले-

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रावण मास में शिव के प्रिय बिल्व पत्र

दूसरा अध्याय

शिव पुराण का परिचय और महिमा

सूत जी कहते हैं! है ऋषि मुनियो! आपने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। यह प्रश्न तीनों लोकों के हित करने वाला है। आप लोगों के आग्रह पर, भगवान व्यासजी का स्मरण करके मैं समस्त पापो से उद्धार करने वाले शिव महापुराण की अमृत कथा सुनाता हूं। ये वेदांत का सर्वश्रेठ सार है। यही मोक्ष देने वाला है तथा पापियों का नाश करने वाला है।

इसमें भगवान शिव की कीर्ति का वर्णन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि कर्मो का फल देने वाला पुराण अपने प्रभाव की दृष्टि से वृद्धि तथा विस्तार को प्राप्त हो रहा है। शिव पुराण के अध्ययन से कलियुग के सभी पापों में लिप्त जीव उत्तम गति को प्राप्त होंगे। इसके उदय से ही कलियुग का उत्पात शांत हो जाएगा। शिव पुराण को वेद तुल्य माना जाएगा। इसका प्रवचन सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही किया था।(Vidyeshwar Samhita)

मूल शिव पुराण में कुल एक लाख श्लोक हैं परंतु व्यास जी ने इसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है। पुराणों की क्रम संख्या में शिव पुराण का चौथा स्थान है, जिसमें छः संहिताएं हैं।

पूर्वकाल में भगवान शिव ने सौ करोड़ श्लोकों का पुराणग्रंथ ग्रंथित किया था। सृष्टि आरंभ में निर्मित यह पुराण साहित्य अधिक विस्तृत था । द्वापर युग में द्वैपायन आदि महर्षियों ने पुराण को अठारह भागों में विभाजित कर चार लाख श्लोकों में इसको संक्षिप्त कर दिया। इसके उपरांत व्यास जी ने चौबीस हजार श्लोकों में इसका प्रतिपादन किया।

यह वेदतुल्य पुराण विद्येश्वररुद्र संहिता, रुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलाश संहिता और वायवीय संहिता नामक छः संहिताओं में विभाजन है। यह छः संहिताओं वाला शिव पुराण वेद के समान प्रामाणिक तथा उत्तम गति प्रदान करने वाला है।

इस शिव पुराण की रचना भगवान शिव द्वारा की गई है तथा इसको संक्षेप में संकलित करने का श्रेय महर्षि व्यास को जाता है। शिव पुराण सभी जीवों का कल्याण करने वाला, सभी पापों का नाश करने वाला है।

शिव पुराण श्रेष्ठ मंत्र – समूहों का संकलन है तथा यही सभी के लिए शिवधाम की प्राप्ति का साधन है। इस अमृतमयी शिव पुराण को आदर से पढ़ने और सुनने वाला मनुष्य भगवान शिव का प्रिय होकर शिव लोक को प्राप्त होता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “शिव तांडव स्तोत्र”

तीसरा अध्याय

श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता

व्यास जी कहते हैं! सूत जी के वचनों को सुनकर सभी ऋषि मुनिओ बोले – भगवन् आप वेदतुल्य पुण्यमयी शिव पुराण की कथा सुनाइए।

सूत ‘जी ने कहा! हे ऋषिगण! आप कल्याणकारी भगवान शिव शंकर का स्मरण करके, वेद के सार से प्रकट शिव महापुराण की अमृत वाणी सुनिए । शिव पुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का गान किया गया है। जब सृष्टि आरंभ हुई, तो छः कुलों के महर्षि आपस में वाद-विवाद करने रहे थे कि अमुक वस्तु उत्कृष्ट है, अमुक नहीं। जब इस विवाद ने बड़ा रूप धारण कर लिया तो सभी अपनी शंका के समाधान के लिए सृष्टि की रचना करने वाले अविनाशी ब्रह्माजी के पास जाकर हाथ जोड़कर कहने लगे – हे प्रभु! आप संपूर्ण जगत को धारण कर उनका पोषण करने वाले हैं। प्रभु! हम जानना चाहते हैं कि संपूर्ण तत्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष कौन हैं?(Vidyeshwar Samhita)

ब्रह्माजी ने कहा!  ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र आदि से युक्त संपूर्ण जगत समस्त भूतों एवं इंद्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है। वे देव महादेव ही सर्वज्ञ और संपूर्ण हैं। भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है। दूसरे किसी उपाय से इनका दर्शन नहीं होता। भगवान शिव में अटूट भक्ति मनुष्य को संसार – बंधन से मुक्ति दिलाती है। भक्ति से उन्हें देवता का कृपाप्रसाद प्राप्त होता है। भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए आप सब ब्रह्मर्षि धरती पर सहस्रों वर्षों तक चलने वाले विशाल यज्ञ करो।

जो मनुष्य बिना किसी फल की कामना किए उनकी भक्ति में डूबे रहते हैं, वही साधक हैं। कर्म के अनुष्ठान से प्राप्त फल को भगवान शिव के श्री चरणों में समर्पित करना ही परमेश्वर की प्राप्ति का उपाय मात्र है तथा मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन है। साक्षात महेश्वर ने ही भक्ति के साधनों का भली- भाँति ज्ञान दिया है। कान से भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन में उनका मनन शिवपद की प्राप्ति के महान साधन हैं, जिससे संपूर्ण मनोरथों की सिद्ध होती है।

जिस वस्तु को हम प्रत्यक्ष अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं, उसकी तरफ आकर्षण स्वाभाविक है परंतु जिस वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं जा सकता उसे केवल सुनकर और समझकर ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अतः श्रवण पहला साधन है। श्रवण द्वारा ही गुरु मुख से तत्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धि वाला विद्वान अन्य साधन कीर्तन और मनन की शक्ति व सिद्धि प्राप्त करने का यत्न करता है।(Vidyeshwar Samhita)

भगवान शिव की पूजा, उनके नामों का जाप तथा उनके रूप, गुण, विलास के हृदय में निरंतर चिंतन को ही मनन कहा जाता है। महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध इस साधन को ही प्रमुख साधन कहा जाता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “शिव महिम्न: स्तोत्रम्”

चौथा अध्याय

सनत्कुमार-व्यास संवाद

सूत जी कहते हैं! है ऋषि मुनियो ! इस साधन का माहात्म्य बताते समय मैं एक प्राचीन कथा सुनाता हु, इसे आप ध्यान से सुनें ।

बहुत पहले की बात है, पराशर ऋषि के पुत्र मेरे गुरु महर्षि व्यास पवित्र सरस्वती नदी के किनारे तपस्या कर रहे थे। एक दिन वहा से सूर्य के समान ज्योतिर्मय विमान से यात्रा करते हुए भगवान सनत्कुमार वहां आ पहुंचे। मेरे गुरु महर्षि व्यास ध्यान में मग्न थे। ध्यान से जागने पर सामने सनत्कुमार जी को देखा तो वे बड़ी तेजी से उठे और सनत्कुमार के चरणों का स्पर्श करके उन्हें बहुमूल्य देकर आसन पर विराजमान किया। व्यासजी के स्वागत से प्रसन्न होकर सनत्कुमार जी गंभीर वाणी में बोले—मुनि तुम सत्य का स्मरण करो। सत्य तत्व का स्मरण ही उत्तम प्राप्ति का मार्ग है। इसी से कल्याण का मार्ग प्रशंसनीय होता है। सत्य का अर्थ है – सदैव रहने वाला।(Vidyeshwar Samhita)

सनत्कुमार जी ने महर्षि वेदव्यास को समझाते हुए कहा, सत्य पदार्थ भगवान शिव ही हैं। भगवान शिव का श्रवण, कीर्तन और स्मरण ही उन्हें प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। पूर्वकाल में मैं दूसरे अनेक साधनों के भ्रम में पड़ा और घूमता हुआ तपस्या करने मंदराचल पर्वत पर जा पहुंचा। कुछ समय बाद महेश्वर शिव की आज्ञा से सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी नंदिकेश्वर वहां आए और स्नेहपूर्वक मुक्ति का साधन बताते हुए बोले- भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही मुक्ति का स्रोत है।

यह बात मुझे स्वयं देवाधिदेव महादेव ने बताई है। अतः तुम इन्हीं साधनों का अनुष्ठान करो। व्यास जी से ऐसा कहकर अनुगामियों सहित सनत्कुमार ब्रह्मधाम को चले गए। इस प्रकार इस उत्तम वृत्तांत का संक्षेप में वर्णन किया है।

ऋषि बोले! सूत जी! आपने श्रवण, कीर्तन और मनन को मुक्ति का उपाय बताया है, किंतु जो मनुष्य इन तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य कैसे मुक्त हो सकता है? किस कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है?

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “श्री शिव रूद्राष्टकम”

पांचवां अध्याय

शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व

सूत जी कहते हैं! हे ऋषि मुनियो! श्रवण, कीर्तन और मनन जैसे साधनों को करना प्रत्येक के लिए सुगम नहीं है। इसके लिए योग्य गुरु चाहिए। गुरु द्वारा सुनी गई वाणी मन की हर समस्या को दग्ध करती है, स्वयं गुरुमुख से सुने शिव तत्व द्वारा शिव के दर्शन और गुणगान में अनुभूति होती है। तभी भक्त भक्ति कर सकता है। यदि ऐसा संभव नहीं है, तो मोक्षा प्राप्त के लिए वह भगवान के शिवलिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके प्रतिदिन पूजा करे। इस प्रकार भक्ति करके वह इस संसार सागर से पार हो सकता है।

संसाररूपी इस सागर को पार करना हे तो इस तरह की पूजा आसानी से भक्तिपूर्वक की जा सकती है। अपनी शक्ति एवं पात्रता के अनुसार शिवलिंग या शिवमूर्ति की स्थापना करके भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। मंडप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना कर उत्सव का आयोजन करना चाहिए और पुष्प, धूप, वस्त्र, गंध, दीप तथा पुआ और तरह-तरह के नैवेद्य के रूप में भगवान को अर्पित करने चाहिए ।(Vidyeshwar Samhita)

भगवान शिवजी ब्रह्मरूप और निष्कल अर्थात कला रहित भी हैं और कला सहित भी। मनुष्य इन दोनों स्वरूपों की पूजा करते हैं। शंकर जी को ही ब्रह्म पदवी भी प्राप्त है। कलापूर्ण भगवान शिव शंकर की मूर्ति पूजा भी मनुष्यों द्वारा की जाती है और वेदों ने भी इस तरह की पूजा की आज्ञा दी है।

सनत्कुमार जी ने पूछा! हे नंदिकेश्वर ! पूर्वकाल में लिंग बेर अर्थात मूर्ति की उत्पत्ति के संबंध में आप हमें विस्तारपूर्वक सुनाए।

नंदिकेश्वर ने बताया! है मुनिश्वर ! प्राचीन काल में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य युद्ध हुआ तो उनके बीच स्तंभ रूप में शिवजी प्रकट हुए, और इस तरह भगवान शिव ने पृथ्वीलोक की रक्षा की थी। उस दिन से देवाधिदेव महादेव का लिंग के साथ-साथ मूर्ति पूजन भी जगत में प्रचलित हो गया। अन्य देवताओं की साकार अर्थात मूर्ति-पूजा होने लगी, जो कि अभीष्ट फल प्रदान करने वाली थी। परंतु भगवान शिव के लिंग और मूर्ति, दोनों रूप ही पूजनीय हैं।

 

छठा अध्याय

ब्रह्मा-विष्णु युद्ध

नंदिकेश्वर बोले! पूर्वकाल में भगवान श्री विष्णु श्री लक्ष्मी जी के साथ शेष- शय्या पर शयन कर रहे थे। तब ब्रह्माजी वहां पहुंचे और श्री विष्णु को पुत्र कहकर बुलाने लगे, पुत्र उठो! मैं ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। यह सुनकर भगवान विष्णु को क्रोध आ गया। फिर भी शांत रहते हुए वे बोले तुम्हारा कल्याण हो। कहो अपने पिता के पास कैसे आना हुआ? यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे- मैं तुम्हारा रक्षक हूं। सारे जगत का पितामह हूं। सारा जगत मुझमें निवास करता है। तू मेरी नाभि कमल से प्रकट होकर मुझसे ऐसी बातें कर रहा है। इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। तब वे दोनों अपने को प्रभु कहते-कहते एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए। हंस और गरुड़ पर बैठे दोनों परस्पर युद्ध करने लगे।(Vidyeshwar Samhita)

ब्रह्माजी के वक्षस्थल में विष्णुजी ने अनेकों अस्त्रों का प्रहार करके उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित हो ब्रह्माजी ने भी पलटकर भयानक प्रहार किए। उनके पारस्परिक आघातों से देवताओं में हलचल मच गई। वे घबराए और त्रिशूलधारी भगवान शिव के पास गए और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। भगवान शिव अपनी सभा में उमा देवी सहित सिंहासन पर विराजमान थे और मंद-मंद मुस्करा रहे थे।

 

सातवां अध्याय

शिव निर्णय

महादेव जी बोले! पुत्रो ! मैं जानता हूं कि तुम ब्रह्माजी और विष्णुजी के आपस में युद्ध से बहुत – दुखी हो। आप अविचलित मत हो, मैं अपने गणों के साथ आपके साथ चलता हूं। भगवान शिव शंकर अपने वाहन नंदी पर सवार होकर, सभी देवताओं सहित जहा ब्रह्माजी और विष्णुजी का युद्ध हो रहा था वहा चल दिए। युद्धस्थल पर छिपकर वे ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को देखने लगे। उन्हें जब यह विदित हुआ कि वे दोनों एक दूसरे वध करने की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपात अस्त्रों का प्रयोग करने जा रहे हैं, तो भगवान शिव युद्ध को शांत करने के लिए महाअग्नि के समान एक स्तंभ रूप में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य खड़े हो गए।(Vidyeshwar Samhita)

महाअग्नि के प्रकट होते ही दोनों के अस्त्र स्वयं ही शांत हो गए। अस्त्रों को शांत होते देखकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों कहने लगे कि इस अग्नि स्वरूप स्तंभ के बारे में हमें जानकारी करनी चाहिए। दोनों ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। भगवान विष्णु ने शूकर रूप धारण किया और उसको देखने के लिए नीचे धरती में चल दिए । ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके ऊपर की ओर चल दिए । पाताल में बहुत नीचे जाने पर भी विष्णुजी को स्तंभ का अंत नहीं मिला।

अतः भगवान विष्णु वापस चले आए। ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे उस फूल को लेकर विष्णुजी के पास गए। विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। ब्रह्माजी के छल को देखकर भगवान शिव प्रकट हुए। विष्णुजी की महानता से शिव प्रसन्न होकर बोले—हे विष्णुजी! आप सत्य बोलते हैं। अतः मैं आपको अपनी समानता का अधिकार देता हूं।

 

आठवां अध्याय

ब्रह्मा का अभिमान भंग

नंदिकेश्वर बोले! भगवान शिव ब्रह्माजी के कपट पर बहुत क्रोधित हुए। भगवान शिव ने अपने तीसरी आंख से भैरव को प्रकट किया और उन्हें आज्ञा दी कि वह तलवार से ब्रह्माजी सिर काट दें। आज्ञा पाते ही भैरव ने ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, ब्रह्माजी डर के मारे कांपने लगे। उन्होंने भैरव के चरण पकड़ लिए तथा क्षमा मांगने लगे। इसे देखकर श्रीविष्णु ने भगवान शिव से प्रार्थना की आपकी कृपा से ही ब्रह्माजी को पांचवां सिर मिला था। अतः आप इन्हें क्षमा कर दें। तब शिवजी की आज्ञा पाकर ब्रह्मा को भैरव ने छोड़ दिया।(Vidyeshwar Samhita)

भगवान शिव ने कहा तुमने प्रतिष्ठा और ईश्वरत्व को दिखाने के लिए छल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सत्कार, स्थान व उत्सव से विहीन रहोगे। ब्रह्माजी को अपनी गलती का पछतावा हो चुका था। उन्होंने भगवान शिव के चरण पकड़कर क्षमा मांगी और निवेदन किया कि वे उनका पांचवां सिर पुनः प्रदान करें। भगवान शिव ने कहा – जगत की स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए पापी को दंड अवश्य देना चाहिए, ताकि लोक-मर्यादा बनी रहे। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम गणों के आचार्य कहलाओगे और तुम्हारे बिना यज्ञ पूर्ण नही होंगे।

फिर उन्होंने केतकी के पुष्प से कहा – अरे दुष्ट केतकी पुष्प ! अब तुम मेरी पूजा के अयोग्य रहोगे। तब केतकी पुष्प बहुत दुखी हुआ और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने लगा। तब भगवान शिव शंकर ने कहा- मेरा वचन तो झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तू मेरे भक्तों के योग्य होगा। इस प्रकार तेरा जन्म सफल हो जाएगा।

 

नवां अध्याय

लिंग पूजन का महत्व

नंदिकेश्वर कहते है! ब्रह्मा और श्री विष्णु भगवान शिव को प्रणाम कर उनके दाएं- बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूजनीय भगवान शिव को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर पवित्र वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को ‘पुष्प वस्तु’ तथा अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को ‘प्राकृत वस्तु’ कहते हैं। हार, नूपुर, कियूर, किरीट, मणिमय कुंडल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्रआदि द्वारा, जिनका समृद्ध, वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल परमात्मा के योग्य थे, उनसे ब्रह्माजी और श्री विष्णु ने शिव का पूजन किया।(Vidyeshwar Samhita)

इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं प्रसन्न हूं। इस लिए आज का दिन पवित्र और महान होगा। यह तिथि ‘शिवरात्रि’ के नाम से विख्यात होगी। शिवरात्रि के दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप की या मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप की दिन-रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा, वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष निरंतर मेरी पूजा करने से जो फल मिलता है, वह फल शिवरात्रि के दिन पूजन करने से मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है।

मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी निकालता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी ज्यादा प्रिय है। इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाए तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

लिंग रूप में प्रकट होकर मैं बहुत बड़ा हो गया था। अतः लिंग के कारण यह भूतल ‘लिंग स्थान’ के नाम से प्रसिद्ध होगा। मनुष्य इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिए यह अनादि और अनंत ज्योति स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यंत छोटा हो जाएगा। यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। शिवलिंग के यहां प्रकट होने के कारण यह स्थान ‘अरुणाचल’ नाम से प्रसिद्ध होगा और यहां बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान पर रहने या मरने से जीवों को मोक्ष प्राप्त होगा।(Vidyeshwar Samhita)

मेरे दो रूप हैं, साकार और निराकार। पहले मैं स्तंभ रूप में प्रकट हुआ। फिर अपने साक्षात रूप में। ‘ब्रह्मभाव’ मेरा निराकार रूप है तथा ‘महेश्वरभाव’ मेरा साक्षात रूप है। ये दोनों ही मेरे सिद्ध रूप हैं। मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूं। जीवों पर अनुग्रह करना मेरा कार्य है। मैं जगत की वृद्धि करने वाला होने के कारण ‘ब्रह्म’ कहलाता हूं। सर्वत्र स्थित होने के कारण मैं ही सबकी आत्मा हूं। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक जो जगत संबंधी पांच कृत्य हैं, वे सदा ही मेरे हैं।

मेरे लिंग की स्थापना करने वाले मेरे उपासक मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है तथा मेरे साथ एकत्व का अनुभव करता हुआ संसार सागर से मुक्त हो जायेगा। वह जीते जी परमानंद की अनुभूति करता हुआ, शरीर का त्याग कर शिवलोक को प्राप्त होगा।

 

दसवां अध्याय

प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता

ब्रह्माजी और श्री विष्णु ने पूछा-प्रभो ! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।(Vidyeshwar Samhita)

भगवान शिव बोले! मेरे कर्तव्यों को समझना बहुत कठिन है, तब भी मैं प्रेमपूर्वक आपको कहता हूं। ‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, ‘तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’ मेरे जगत संबंधी पांच कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध हैं। इस संसार की रचना का प्रारंभ सृष्टि कहा जाता है। मुझसे रक्षित होकर इस सृष्टि का अचल रहना उसका पालन है। उसका ध्वंस ही ‘संहार’ है। प्राणों के पलट ने से ‘तिरोभाव’ कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा ‘अनुग्रह’ अर्थात ‘मोक्ष’ है। ये मेरे पांच कर्म हैं। सृष्टि आदि चार कर्म इस संसार का विस्तार करने वाला हैं। पांचवां कर्म मोक्ष का है। मेरे भक्त इन पांचों कार्यों को पांच भूतों में देखते हैं।

चार दिशाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है। पुत्रो, तुम दोनों ने मुझे तपस्या से प्रसन्न कर सृष्टि और पालन दो कार्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरी ‘विभूतिस्वरूप रुद्र’ और ‘महेश्वर’ ने संहार और अदर्शन कार्य मुझसे प्राप्त किए हैं परंतु मोक्ष मैं स्वयं प्रदान करता हूं। मैंने पूर्वकाल में अपने मंत्र का उपदेश किया है, जो ॐकार से प्रसिद्ध है। यह मंगलकारी मंत्र सर्वप्रथम मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ जो मेरे स्वरूप का बोध कराता है। इसका स्मरण निरंतर करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।

मेरे उत्तर दिशा के मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्रकट हुआ है। इस प्रकार इन पांच अवयवों से ॐ का विस्तार हुआ है। इन पांचों भागो के मिलने पर प्रणव ‘ॐ’ नामक अक्षर उत्पन्न हुआ। यह मंत्र शिव-शक्ति दोनों का बोधक है। इसी से पंचाक्षर मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ की उत्पत्ति हुई है। यह मेरे साकार रूप का बोधक है।

नंदिकेश्वर कहते हैं! माता पार्वती के साथ बैठे महादेव ने उत्तरवर्ती मुख बैठे ब्रह्माजी और श्री विष्णु को परदा करने वाले वस्त्र से आच्छादित कर उनके मस्तक पर अपना हाथ रखकर धीरे-धीरे उच्चारण कर उन्हें उत्तम मंत्र का उपदेश दिया। तीन बार मंत्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन्हें शिष्यों के रूप में दीक्षा दी। गुरुदक्षिणा के रूप में दोनों ने अपने आपको समर्पित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो, भगवान शिव की इस प्रकार स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा-विष्णु बोले! प्रभो! आपके साकार और निराकार दो रूप हैं। आप तेज से प्रकाशित हैं, आप सबके स्वामी हैं, आप सर्वात्मा को नमस्कार है। आप प्रणव मंत्र के बताने वाले हैं तथा आप ही प्रणव लिंग वाले हैं। सृष्टि के पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि आपके ही कार्य हैं। आपके पांच मुख हैं, आप ही परमेश्वर हैं, आप सबकी आत्मा हैं, ब्रह्म हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।(Vidyeshwar Samhita)

इन पंक्तियों से स्तुति करते हुए गुरु महेश्वर को प्रसन्न कर ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।

महेश्वर बोले! आर्द्रा नक्षत्र में चतुर्दशी को यदि इस प्रणव मंत्र का जप किया जाए तो यह अक्षय फल देने वाला है। सूर्य की संक्रांति में महा आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया प्रणव जप करोड़ों गुना जप का फल देता है। ‘मृगशिरा नक्षत्र का अंतिम भाग तथा ‘पुनर्वसु’ का शुरू का भाग पूजा, होम और तर्पण के लिए सदा आर्द्रा के समान ही है। मेरे लिंग का दर्शन प्रातः काल अर्थात मध्यान्ह से पूर्वकाल में करना चाहिए। मेरे दर्शन-पूजन के लिए चतुर्दशी तिथि उत्तम है। पूजा करने वालों के लिए मेरी मूर्ति और लिंग दोनों समान हैं। फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है।

इसलिए मनुष्यों को शिवलिंग का ही पूजन करना चाहिए । लिंग का ‘ॐ’ मंत्र से और मूर्ति का पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए। शिवलिंग की स्वयं स्थापना करके या दूसरों से स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यों से पूजा करने से मेरा पद सुलभ होता है। इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

 

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